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देशावधि] ५४१, जैन-लक्षणावलो
[देशोपशमना देशावकाशिकं शिक्षाव्रतम् । (रत्नक. टी. ४-२)। दित करता है उसे देशज्ञानावरण कहते है। जिस ८. दिग्वते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिने प्रकार मेघों से प्राच्छादित सूर्य की थोड़ी सी प्रभा रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते ।। (योगशा. ३, दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार ज्ञानावरण से ८४, त्रि. श. पु.च. १, ३, ६४०); देशे दिग्व्रत- माच्छादित ज्ञान के वेशभूत मतिज्ञान प्रावि प्रगट गृहीतपरिमाणस्य विभागे अवकाशोऽवस्थानं देशाव- रहते हैं। ज्ञान के देशभूत मतिज्ञानादि को प्रावत काशः, सोऽत्रास्तीति देशावकाशिकम् । (योगशा. करने वाले मतिज्ञानावरणादि थोड़ी सी सर्यप्रभा स्वो. विव.३-६४)। 8. दिग्व्रतपरिमितदेशविभागे के माच्छादक कट व कुटी प्रादि के समान है। ऽवस्थानमस्ति मितसमयम् । यत्र निराहुर्देशावका- देशावसन्न-पावस्सय-सज्झाए पडिलेहणभिक्खशिकं तदव्रतं तज्ज्ञाः ॥ (सा.प. ५-२५) । झाणभत्तठें। पागमणे णिग्गमणे ठाणे य निसीयण१०. दिग्धतादृतदेशस्य यत्संहारो घनस्य च । क्रियते तुयट्टे ॥मावस्सयाइयाई न करेइ प्रहवा विहीणसावधिः सीम्नां तत्स्याद् देशावकाशिकम् ॥ (धर्मसं. महियाई। गुरुवयणवलाय तहा भणिनो वेसावसश्रा. ७-३४)।
स्नोति । (प्रव. सारो. १०७-८); यदेतान्यावश्यक१ प्रणयती श्रावक दिवसादिरूप काल के नियम. स्वाध्यायादीनि स्थानानि सर्वथा न करोत्यथवा पूर्वक जो प्रतिदिन दिग्वत में ग्रहण किये विशाल हीनाधिकानि करोति प्रतिषिद्धकालकरणादिदोषदेश का संकोच किया करते हैं, इसे देशावकाशिक- दुष्टानि वा करोति तदा देसावसन्नो भवतीत्यर्थः । व्रत कहा जाता है। ५ दिग्व्रत में जो सौ योजनादि (प्रब. सारो. व. १०७-८)। रूप दिशा का प्रमाण किया गया है उसमें प्रतिदिन जो प्रतिक्रमणादि प्रावश्यक, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, संक्षेप करके एक योजन, कोश, प्राम व गृह मादि भिक्षा (गोचरी), ध्यान, भोजन, मागमन, निर्गमन, का प्रमाण करना; यह देशावकाशिकवत कह- स्थान (कायोत्सर्गादि में प्रवस्थान), निषीदम लाता है।
(बैठना) और स्वरवर्तन (शयन); इन प्रावश्यक देशावधि-भवं प्रतीत्य यो जातो गुणं व प्राणि- क्रियानों को या तो सर्वथा ही नहीं करता है या नामि देशावधिः स विज्ञेयो दृष्टिमोहाद् विपर्ययः॥ होनाधिक रूप में करता है, प्रयवा निषित काल में (त. श्लो. १, ३२, ११३, पृ. २६७)। उन्हें करता है वह देशावसन्न (साघु) कहलाता भव या गुण (क्षयोपशम) के माश्रय से जो जीवों है जो वन्दना के अयोग्य होता है। के अवधिज्ञान होता है उसे देशावधि कहते हैं । वह देशोपशमना-१. मूलुत्तरकम्माणं पगडिद्वितिमावर्शनमोह के उदय से विपर्यय (विभंग) हुमा करता दि होइ चउमेया। देशकरणेहिं देसं समेह जं देस
समणातो॥ (पंचसं. उपश. ६५, पृ. २०६) । देशावधिमरण-यत्सांप्रतमुदत्यायुर्यथाभूतं तथा- २. देशोपशमना करणकृता करणरहिता च । xx भूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद् देशावधिमरणम्। र तत्र या करणरहिता तस्या व्याख्या नास्ति, (भ. प्रा. बिजयो. २५; भा. प्रा. टी ३२)। तद्वतृणामभावात् । सा च गिरिनदीपाषाणवत्तावर्तमान समय में जैसा प्रायकर्म उदय में पा रहा दिभाववत् संसारस्थजीवानां करण-विशिष्टगणा. है, उसी प्रकार का यदि एक देश रूप से बांषता है भ्यां विनापि वेदनानुभवनादिकारणभवति । (पंचसं. तो इसे देशावधिमरण कहते हैं।
स्वो. व. उपश. १); मूलोत्तरकर्माणि प्रकृतिदेशावरण-देशं ज्ञानस्याऽऽभिनिबोषादिमावृणो- स्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदाच्चतुर्द्धा भवन्ति, देशकरण: तीति देशज्ञानावरणीयम् । xxx मत्याद्या- (णाभ्यां) यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंजः (ज्ञाभ्या) देशं वरणं तु धनातिच्छादितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवल- किञ्चिन्मानं प्रकृति-स्थित्यादीनां यत उपशामज्ञानदेशस्य कट-कुटयादिरूपावरणतुल्यमिति देशा- यति प्रतो देशोपशमना भण्यते । (पंचसं. स्वो.. वरणमिति । (स्थाना. अभय. व. २, ४, १०५, उपश. ६५, पृ. २०६) । ३. देशोपशमना विधा पृ. ६१)।
करणकृता करणरहिता च । xxx करणानि जान के देशभत प्राभिनिवोष प्रादि को जो पाच्छा- यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिसंज्ञानि, ते कृता करणकृता।
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