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________________ नित्यनिगोत, नित्यनिगोद] ६०८, जैन-लक्षणावली [नित्यमह जिस रूप से पूर्व में देखी गई है उस रूप का सदा का दोष होता है । बना रहना, यही उस वस्तु को नित्यता है । २ जो नित्यपूजा-देखो नित्यमह। १. स्वगेहे चैत्यगेहे वा वस्तु सत्-अन्वयी अंश-से विनष्ट नहीं होती है जिनेन्द्रस्य महामहः। निर्माप्यते यथाम्नाय नित्यउसे नित्य कहा जाता है। पूजा भवत्यसो ॥ (भावसं. वाम. ५५५)। २. जलानित्यनिगोत, नित्यनिगोद-१. विष्वपि कालेषु दुधातपूताङ्ग हान्नीत जिनालयम् । यदच्यन्ते जिना त्रसभावयोन्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोताः। युक्त्या नित्यपूजाऽभ्यधायि सा ।। (घर्मसं.धा. ६, (त. वा. २, ३२, २७) । २. जे सबकालं णिगो- २७)। देसु चेव अच्छति ते णिच्चणिगोदा णाम । (धव. पु. १ अपने घर पर अथवा चैत्यालय में जो प्राम्नाय १४, प. २३६) । ३. अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण के अनुसार जिनेन्द्र की पूजा की जाती है उसे पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंकइपउरा णिगो- नित्यपूजा कहते हैं। दवासं ण मंचंति ।। (धव. पु. ४, पृ. ४७७ उद्, गो. नित्यमरग-नित्यमरणं समये समये स्वायुरा. जी. १९७)। ४. सत्वं ये प्रपद्यन्ते कालानां त्रितये- दीनां निवृत्तिः । (त. वा. ७, २२, २, चा. सा. ऽपि नो । ज्ञेया नित्यनिगोतास्ते भूरिपापवशीकृताः। पृ. २३)। (अन. ध. स्वो. टी. ४-२२ उद्.)। ५. यनिगोदजीव. प्रतिसमय जो आयु आदि का विनाश होता रहता स्त्रासानां द्वीन्द्रियादीनां परिणामः पर्यायः कदाचि- है-उनकी उत्तरोत्तर हीनता होती जाती है-उसे दपि न प्राप्तः ते जीवा अनन्तानन्ता अनादी संसारे नित्यमरण कहते हैं। निगोदभवमेवानुभवन्तो नित्यनिगोदसंज्ञा सर्वदा नित्यमह-देखो नित्यपूजा। १. तत्र नित्यमहो सन्ति । xxx एकदेशाभावविशिष्टसकलाथ- नाम शश्वत् जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानावाचिना प्रचुरशब्देन कदाचिदष्ट समयाधिकषण्मासा- ऽर्चा गन्ध-पुष्पाक्षतादिका॥ चैत्य-चैत्यालयादीनां भ्यन्तरे चतगतिजीवराशे निर्गत्य अष्टोत रषट्शत- भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च जीवेष मुक्ति गतेष तावन्तो जीवा नित्यनिगोदभवं ग्रामादीनां सदार्चनम् ।। या च पूजा विमुच्य चतू गतिभवं गच्छन्तीत्ययमर्थः प्रतिपादितो नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाज्ञातव्यः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. १९७)। शक्त्युपकल्पितः ॥ (म. पु. ३८, २७-२६) । १जो जीव तीनों ही कालों में त्रस पर्याय के योग्य २. नित्यमहो नित्यं यथाशक्ति जिनगृहेभ्यो निजनहीं होते हैं वे नित्यनिगोत या नित्यनिगोद कह- गृहाद् गन्ध-पुष्पाक्षतादिनिवेदनं चैत्य चैत्यालयं लाते हैं। ५ गोम्मटसार जी बकाण्ड की उक्त गाथा- कृत्वा ग्राम-क्षेत्रादीनां शासनदानं मुनिपूजनं च । गत 'प्रचुर' शब्द के अनुसार पाठ समय अषिक (चा. सा. पृ. २१, कातिके. टी. ३६१)। ३. प्रोक्तो छह मासों के भीतर जब ६०८ जीव चतुर्गति नित्यमहोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धादिना पूजा सम्बन्धी जीवराशि में से निकल कर मक्ति को चैत्यगृहेऽहंतः स्वविभवेश्चत्यादिनिर्मापणम् । भक्त्या प्राप्त हो जाते हैं तब उतने ही जीव नित्यनिगोद ग्राम-गृहादिशासनविधादान त्रिसाध्याश्रया सेवा अवस्था को छोड़कर चतुर्गति जीवराशि में प्रा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ।। जाते हैं। (सा. घ. २-२५)। ४. तेषु नित्यमहो नाम स नित्यपिण्ड-प्रतिदिनं तवैतावन्मानं दास्यामि, नित्यं यज्जिनोऽर्यते । नीतश्चंत्यालयं स्वीय गेहाद मद्गृहे नित्यमागन्तव्यमिति निमंत्रितस्य नित्यं गन्धाक्षतादिभिः ।। (प्रतिष्ठासा. १-५)। ५.नित्यं गृह्णतो नित्यपिण्डः। (प्रव. सारो. व. १०५, पृ. स्वयं निजगृहाज्जल-चन्दनादि लात्वा जिनेन्द्रभवने २५)। किल भावशुद्धया। ईपियप्रचलनेन शुभोपयोगाआपके लिए मैं इतना पाहार प्रतिदिन दूंगा, प्राप दर्चा हि सा प्रतिदिनाचन मुक्त मुच्चः ।। (वसु. प्रति. मेरे घर पर गोवरी के लिए प्रतिदिन प्राइये, इस १३-५५) । प्रकार से निमत्रित होकर प्रतिदिन गृहस्थ के घर १ निरन्तर अपने घर से जिनालय में गन्ध-पुष्पादि जानेनौर प्राहार के ग्रहण करने पर नित्यपिण्ड नाम . सामग्री को ले जाकर पूजा करना, प्रतिमा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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