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[पुण्य
पीठमर्दक
७११, जैन-लक्षणावली तिः) दीयते सा पिहिता । (कार्तिके. टी. ४४८-४६, पीतलेश्या--पीतवर्णद्रव्यावष्टम्भात् पीतलेश्या । पृ. ३३८)।
(त. भा. सिद्ध. वृ. २-६) । सचित्त मिट्टी आदि के प्रावरण को हटाकर जो पीतवर्ण वाले द्रव्य के प्राश्रय से होने वाली वसति दी जाती है वह पिहित दोष से दूषित प्रात्मपरिणति पीतलेश्या कहलाती है।। होती है।
पुण्डरीक-१. पुंडरीयं देवेसु असुरेसु णेरइएसु च पीठमर्दक—कामशास्त्राचार्यः पीठमर्दकः । (नीति- तिरिक्ख-मणुस्साणमुववादं छक्कालविसे सिदं परूवा. १४-२२)।
वेदि । (धव. पु. ६, पृ. १६१)। २. भवनवास्याकामशास्त्र के प्राचार्य को पीठमर्दक कहा जाता है। दिदेवेषु उत्पत्तिकारणतपःप्रभृतिप्रतिपादकं पुण्डपीडा-पीडा दण्ड-कशाद्यभिधातः । (रत्नक. टी. रीकम् । श्रुतभ. टी. २६, प.१८०)। ३. पुण्डरीक टो. ३-८)।
नाम शास्त्र भावन-व्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासिविलाठी या चाबुक आदि से ताडित करने का नाम मानेषु उत्पत्तिकारणदान-पूजा-तपश्चरणाकामनिर्जरापीडा है।
सम्यक्त्व-संयमादिविधानं तत्तदुपपादस्थान-वैभवविपीडाजनित पार्तध्यान-१. अतिर्दुःखमसातजा- शेषं च वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २६८)। तजनितं स्यादातमतौं भवम्, पापाऽऽदाननिदानमार्द्र- ४. देवपदप्राप्तिपुण्य निरूपकं पुण्डरीकम् । (त. वृत्ति. सिचयं यद्वद्रजःसंश्रयम् । मिथ्यादष्टिगुणादिषड्गुणपदं श्रुत. १-२०)। ५. पुंडरियणामसत्थं णमामि णिच्चं येन प्रमादास्पदं-दुर्लेश्यात्रयजं सूदुःखजनक तिर्य- सहावेण ॥ भावण-वितर-जोइस-कप्पविमाणेसु जत्थ ग्गतिप्रापकम् ।। (प्राचा. सा. १०-१६) । २. सन्ता- वणिज्जइ। उप्पत्तीकारण खलु दाणं पूयं च तवयपेन पीडाचिन्तनेन वात-पित्त-श्लेष्मोदभवकूठंवर- रणं ॥ सम्मत्त संजमादि अकामणिज्जरणमेव जत्थ भगंदर-शिरोति-जठरपीडावेदनानां सन्तापेन पीडितेन पुणो । तमवा-[मुववा-] दट्ठाण-वेहब-सुह-संपत्ती च प्रवृत्तः विकल्प: चिन्ताप्रबन्धः कथं वेदनाया विनाशो जीवाणं ।। (अंगप. ३१-३३, पृ. ३१०)। भविष्यतीति पुनः पुनश्चिन्तनम्, अंगविक्षेपाक्रन्द- १ जो अंगबाह्य श्रुत सुषमसुषमादि छह कालों के करणादि पीडाचिन्तनं तृतीयमार्तध्यानम्। (कातिके. आश्रय से तिर्यंच और मनुष्यों की देवों, असुरों और टी. ४७३-७४)।
नारकियों में उत्पत्ति का निरूपण करता है उसे १ अति नाम दुःख का है जो असातावेदनीय के पुण्डरीक कहा जाता है। उदय से होता है, इस दुःख में जो चिन्तन होता है पुण्य-१. सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गवह प्रार्तध्यान कहलाता है; यह उसका निरुक्त हगुणेहिं । जो परिणदो स पुण्णो XXX ॥ लक्षण है । जिस प्रकार गीला वस्त्र धूलि के आश्रय (मूला. ५-३७) । २. पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यका कारण है उसी प्रकार यह प्रार्तध्यान पाप के मिति जिनशासते दृष्टम् । ((प्रशमर. २१६)। पाने का कारण है, मिथ्यादृष्टि आदि छह गुणस्थानों ३. पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । (स. सि. में रहने वाला है, प्रमाद का स्थान है, तीन अशुभ- ६-३) । ४. पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । लेश्याओं के निमित्त से होता है, अतिशय दुःख को कर्मणः स्वातंत्र्यविवक्षायां पुनात्यात्मानं प्रीणयतीति उत्पन्न करने वाला है, तथा तिर्यंचगति की प्राप्ति पुण्यम्, पारतंत्र्यविवक्षायां करणत्वोपपत्तेः पूयतेऽनेका कारण है।
नेति वा पुण्यम्, तत् सद्वेद्यादि । (त. वा. ६, पीतलेश्य-विद्यावान् करुणासिन्धूः कार्याकार्य- ३, ४,)। ५. XXX पुण्यं सत्कर्मपुदगलाः । विचारकः । लाभालाभे सदाप्रीतस्तेजोलेश्य उदाहृतः॥ (षड्द. स. ४६, पृ. १३८) । ६. सुहपयडीयो (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ५, पृ. २०)।
पुण्णं । (धव. पु. १३, पृ. ३५२)। ७. शुभपरिणामो विद्यावान्, दया के समुद्र (दयालु), कर्तव्य-अकर्तव्य । जीवस्य तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च के विचारक तथा लाभ-अलाभ में सदा प्रसन्न रहने पुण्यम् । (पंच. का. अमृत. वृ. १०८) । ८. पुण्यं वाले पुरुष को पीतलेश्य (पीतलेश्या वाला) कहा शुभकर्मप्रकृतिलक्षणम् । (सूत्रकृ. शी. वृ. २, ५, जाता है।
१६, पृ. १२७) । ६. पुण्णं शुभप्रकृतिस्वरूपपरिणत
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