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परिवाद] ६८४, जैन-लक्षणावली
[परिहार गृहीत्वा यद्दीयते तत्परिवर्तितम् । (योगशा. स्वो. परिष्ठापनासंयम-भक्त-पानादिकमनेषणीयं वस्त्रविव. १-३८)।
पात्रादिकं चानुपकारकं संसक्तं वा निर्जन्तुके स्थ१ शालि धान के भात प्रादि को पड़ोसी के घर में ण्डिले परिष्ठापयतः परिष्ठापनासंयमः। (योगशा. कोदों (एक क्षुद्र धान्य) प्रादि से बदल कर देने पर स्वो. विव. ४-६३)। परिवर्तित दोष होता है।
नहीं ग्रहण करने के योग्य अन्न-पानादि को एवं परिवाद-परिवादो मिथ्योपदेशोऽभ्युदय-निःश्रेय- शरीर के लिए अनुपयोगी अथवा सम्बद्ध ऐसे वस्त्रसार्थेषु क्रियाविशेषेष्वन्यस्यान्यथा प्रवर्तनम् । (रत्न- पात्रादि को जन्तु रहित शुद्ध भूमि पर रखना, क. टी. ३-१०)।
इसे परिष्ठापनासंयम कहते हैं। स्वर्ग-मोक्ष की साधनभूत विशेष क्रियाओं के विषय परिहरण-वंतुच्चारसरिच्छं कम्मं सोउमवि में मिथ्या उपदेश देकर दूसरे को विपरीत प्रवर्ताना, कोवियो भीओ। परिहरइ सावि य दुहा विहिइसका नाम परिवाद है। यह सत्याणुव्रत का एक अविहीए य परिहरणा । (पिण्डनि. १९७)। प्रतीचार है।
जो प्राधाकर्म वान्ति या विष्ठा के समान है उसे परिव्राजक–परि समन्तात् पापवर्जनेन व्रजति सुनकर विद्वान् भयभीत होता हुआ जो विधि या गच्छतीति परिव्राजकः। (दशवै. हरि. वृ. पृ. ८४)। प्रविधि के साथ उसका परित्याग करता है, यह जो 'परि' अर्थात् सब प्रोर पापों के परित्याग के उक्त प्राधाकर्म का परिहरण है। साथ 'वजति' अर्थात् जाता है--प्रवृत्ति करता है- परिहार-देखो पिच्छ । १. पक्ष-मासादिविभागेन उसे परिव्राजक कहते हैं। यह परिव्राजक की सार्थक दूरतः परिवर्जनं परिहारः । (स. सि. ६-२२; त. संज्ञा है।
इलो. ६-२२मला. व. ११-१६) । २. परिहारो परिशातनाकृति-तेसिं चेव अप्पिदसरीरपोग्ग- मासिकादिः । (त. भा. ९-२२) । ३. पक्ष-मासालक्खंधाणं संचएण विणा जा णिज्जरा सा परिसादणा दिविभागेन दूरतः परिवर्जनं परिहारः। पक्ष-मासाकदी णाम । (धव. पु. ६, पृ. ३२७)। दिविभागेन संसर्गमन्तरेण दूरतः परिवर्जनं परिहार विवक्षित औदारिकादि शरीररूप पुद्गलस्कन्धों की इत्यवध्रियते। (त. वा. ९, २२, ६)। ४. परिसंचय के विना जी निर्जरा होती है उसे परिशातना ह्रियते अस्मिन् सति वन्दनालापानपानप्रदानादिक्रिकृति कहते हैं।
यया साधुभिरिति परिहारः । स च मासादिकः परिषह, परीषह– १. त एते बाह्याभ्यन्तरद्रव्य- षण्मासान्तः । (त. भा. सिद्ध. व. १-२२) । परिणामा: शारीर-मानसप्रकृष्टपीडाहेतवः क्षुधादयो ५. परिहारस्तु मासादिविभागेन विवर्जनम्। (त. द्वाविंशतिः परीषहाः प्रत्येतव्याः । (त. वा. ६, ६, सा. ७-२६)। ६. विधिवद् दूरात्त्यजनं परिहारो १)। २. परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गा- निजगणानुपस्थानम् । सपरगणोपस्थानं पारञ्चिकच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहाः। मित्ययं त्रिविधः ॥ (अन. ध. ७-५६)। ७. पक्ष(उत्तरा. शा. व. २, पृ. ७२ उत्थानिका)। मासादिभेदेन दूरतः परिवर्जनम्। (प्रायश्चित्तस. ३. परीषहाः क्षुत्तृट्शीतोष्णादयः । (मूला. वृ. ५, टी. ७-२१)। ८. दिवसादिविभागेनैव दूरतः परि१९८) । ४. शारीर-मानसोत्कृष्टबाधाहेतून् क्षुदादि- वर्जनं परिहारः । (भावप्रा. टी. ७८) । ६. दिवसकान् । प्राहुरन्तर्बहिर्द्रव्यपरिणामान् परीषहान् ॥ पक्ष-मासादिविभागेन दूरतः परिवर्जनं परिहारो नाम (अन. घ. ६-८४) । ५. एते (क्षुदादयः) सर्वे वेद- प्रायश्चित्तम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। नाविशेषाः द्वाविंशतिपरीषहाः मुमुक्षुणा सहनीयाः। १ अपराधी साधु को पक्ष-मास प्रादि के लिए संघ (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)।
से दूर करने उससे कुछ सम्बन्ध न रखने-को १ शारीरिक एवं मानसिक उत्कृष्ट पीडा की हेतु- परिहार प्रायश्चित्त कहते हैं । ४ जिस प्रायश्चित्त में भत जो बाह्य व अभ्यन्तर परिणाम स्वरूप क्षुधादि साधु जन अपराधी साधु का वन्दना, सम्भाषण और हैं उन्हें परीषह कहा जाता है। ये संख्या में अन्न-पानप्रदानादि क्रिया से परिहार कर देते हैंबास ।
उससे वन्दना व सम्भाषण प्रादि नहीं किया करते
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