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जीवपुद्गलयुति]
४६६, जैन-लक्षणावली [जीवविषया दृशिक्रिया जोव-पद्गलयुति-जीवाणं पोग्गलाणं च मेलणं स्वभाव वाले जीव का जो प्रौपाधिक राग-द्वेष.. जीवपोग्गलजुडी णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३४८)। मोहरूप पर्यायों के साथ एकत्व परिणाम होता है जीवों और पुदगलों के सम्मेलन का नाम जीव- उसे जीवबन्ध कहते हैं। पुद्गलयुति है।
जीवमंगल-तत्र जीवविषयं यथा सिन्धुविषये जोवप्रयोगकरण-१. जीवापयोगकरण दुविहं अग्नेमंगल मिति नाम । (प्राव. मलय. ब. प.६)। मूलप्प प्रोगकरणं च । उत्तरपयोगकरण पंचसरीराइं जीव-विषयक मंगल को जीवमंगल कहते हैं। जैसे पढमंमि ।। पोरालिया इमाई पोहेणियर पयोगग्रो -सिन्धु देश में अग्नि का 'मंगल' यह नाम । जमिह । णिप्फण्णा णिप्फज्ज इ पाइल्लाणं तं तिण्हं॥ जोवमलप्रयोगकरण-देखो जीवप्रयोगकरण । (प्राव. भा. १५८-५९)। २. एतदुक्तं भवति- जीवविचय-'जीवविचयं जीव उपयोगलक्षणो पञ्चानामौदारिकसरीराणामाद्यं सङ्घातकरणं मूल- द्रव्यार्थादनाद्यनन्तोऽसंख्येयप्रदेशः स्वकृतशभाशुभप्रयोगकरणमुच्यते । अङ्गोपाङ्गादिकरण तूत्तरकग्ण- कर्मफलोपभोगी गुणवान् प्रारमोपात्तदेहमात्र: प्रदेशमौदारिकादीना त्रयाणाम्, न तु तेजस-कार्मणयोः, संहरण-विसर्पणधर्मा सूक्ष्मः अव्याघात ऊध्र्वगतिस्वतदसम्भवात् । (प्राव. भा. हरि. वृ. १५८-५, · भाव अनादिक मंबनमनबद्धस्तत्क्षयान्मोक्षभागी इत्याप. ४५८)। ३. जीवन उपयोगलक्षणेन यदौदारि- दिनाम-स्थापना-द्रव्य-भाव-निर्देशादि-सदादि-प्रमाण कादिशरीरमभिनिर्वय॑ते तज्जीवप्रयोगकरणम् । नय-निक्षेपविषय इत्यादि जीवस्वभावानुचिन्तनं वा (उत्तरा. नि. शा.व. ४-१८८, पृ. १६७)। जीवा उपयोगमया अनाद्यनिधना मुक्ते तररूपा जीव१जीवप्रयोगकरण मलप्रयोगकरण और उत्तर प्रयो. स्वरूपचिन्तन जीवविचयः तृतीयं धर्म्यम । (कातिगकरण के भेद से दो प्रकार का है। प्रौदारिक के. टी. ४८२)। प्रादि पांच शरीर सामान्य से प्रथम मलप्रयोगकरण जीव उपयोगमयी है, द्रव्याथिकनय से अनादिहैं। प्रादि के तीन-ौदारिक, वैक्रियिक और अनन्त है, असंख्यातप्रदेशी है, स्वकृत शभाशभ कर्म प्राहारक शरीरों के अंग-उपांग जो प्रयोग से निष्पन्न के फल का भोक्ता है, गणवान है, प्राप्त शरीर के हैं या निष्पन्न किये जाते हैं, यह इतर-जीव प्रमाण है, संकोच-विस्तारस्वभाव वाला है, सूक्ष्म है, उत्तरप्रयोगकरण है।
अव्याघाती है तथा ऊर्ध्वगतिस्वभाव वाला है; जीवप्रादोषिकी-जीवप्रदोषिकी तावत् पुत्र-कल- इत्यादि प्रकार से जीब के स्वभाव के चिन्तवन त्रादिस्व-परजनविषया। (त. भा. सिद्ध वृ. ६-६)। करने को जीवविचय धर्मध्यान कहते हैं। स्त्री-प्रत्रादि स्वकीय वा परकीय जनविषयक जीवविप्रमुक्त-एवमुक्तेन विधिना जोवेनप्रादोषिकी क्रिया को जीवप्रादोषिको कहते हैं। मात्मना विविधमनेकधा प्रकर्षण मक्तं जीवविप्र. जीवबन्ध-१. बंधो जीवस्स रागमादीहिं xx मुक्तम् । तथा चान्य रप्युक्तम् - बघणछेदतणयो x। (प्रव. सा. २-८५)। २. एगसरीरट्रिदाण- आउक्खयउव्व जीवविप्पयजढं । विजढति पगारेणं मणंताणताणं णिगोदजीवाणं अण्णोण्णबंधो सो जीव- जीवणभावद्वितो जीवो।। (प्रनयो. हरि. व. प. बंधो णाम | xxx जेण कम्मेण जीवा अणंता. १४)। जंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंधो जीव के द्वारा विधिपूर्वक जिस शरीर को अनेक गाम । (धव. पु. १३, पृ. ३४७) । ३. यस्तु जीव. प्रकार से छोड़ा गया है वह जीवविप्रमुक्त कहस्यौपाधिकमोह-राग-द्वेषपर्यायरेकत्वपरिणामः स लाता है। केवलजीवबन्धः । (प्रव, सा. ममत. व. २-२५)। जीवविषया दृशिक्रिया-तत्र प्रमादिनो नप२ एक शरीर में स्थित अनन्तानन्त निगोद जीवों निर्याण-प्रवेश-स्कन्धावार-सन्निवेश-नट-तंक मल्लका जो परस्पर बन्ध होता है उसका नाम जीवबन्ध मेष-वृष-युद्धादिष्वालोकनादरो यः सा जीवविषया है, जिस कर्म के निमित्त से अनन्तानन्त जीव एक दृशिक्रिया । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। शरीर में रहते हैं उस कर्म को जीवबन्ध कहा प्रमादी मनुष्य के जो राजा का निर्गमन व प्रवेश, नाता है। ३ अमर्त ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्यादि सेना का पड़ाव, नट का खेल, नतंक का नृत्य तथा
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