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कर्मसिद्ध ]
वनस्पतयो विषमं विषमकालं प्रवालिनः परिणमन्ति - प्रवालः पल्लवाङ्कुरस्तद्युक्ततया परिण मन्ति तथा नृत्स्व [ श्रनृतुष्व ] स्व-स्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं फलं च ददाति प्रयच्छति, तथा वर्ष पानीयं न सम्यक् यस्मिन् संवत्सरे मेघो वर्षति तमाहुर्महर्षयः संवत्सरं कम्मं, कर्मसंवत्सरमित्यर्थः । ( सूर्य प्र. मलय. वृ. १०, २०, ५८, पृ. १७२) । १ बारह म.स, चौबीस पक्ष या तीन सौ साठ दिन रात प्रमाण काल को कर्मसंवत्सर कहते हैं । ३ जिस वर्ष में वृक्षों के पत्र, पुष्प और फल अपनी ऋतु के पूर्व ही श्री जावें या बिना ऋतु के भी श्रा जावें, और जिस वर्ष मेघ समय पर जलवर्षा न करें, उसे भी कर्मसंवत्सर कहते हैं । कर्मसिद्ध–कम्मं जमणायरिश्रवएस सिप्पमण्णा ऽभिहि । किसिवाणिज्जाईयं घड-लोहाराइभेयं च ॥ जो सव्वकम्मकुसलो जो जत्थ सुपरिनिट्ठियो होइ । सज्झगिरिसिद्धश्रो विवस कम्मसिद्ध त्तिविन्नेो ॥ ( श्राव. नि. ६२८ - २६) । जो सह्यगिरिसिद्धक के समान अनाचार्योपदिष्ट असि, मषि, कृषि आदि कर्मों में कुशल है उसे कर्मसिद्ध कहते हैं ।
कर्म स्थिति - १ X XX सव्वकम्माणं ठिदीप्रो
पति, किंतु एकस्सेव कम्मट्ठदी घेप्पदि । कुदो ? गुरुवदेसादो । तत्थ वि दंसणमोहणीयस्स चेव सत्तरिसागरोपमकोडा कोडिमेत्ताए गहणं कादव्वं, पाहण्णियादो । कुदो पहाणत्त ? संगहिदासेस क्रम्मद्विदीए । ( धव. पु. ४, पृ. ४०३); कम्मट्ठदित्ति वृत्ते सत्तरिसागरोपमकोडाकोडिमेत्ता (हिंदी)
घेत्तव्वा । (घव. पु. ७, पृ. १४५ ) । कर्मों में दर्शनमोहनीय की जो सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, उसी का 'कर्मस्थिति से ग्रहण होता है, अन्य सब कर्मस्थितियों का नहीं । कर्मस्थित्यनुयोगद्वार - कम्मद्विदित्ति प्रणियोगद्दारं सव्वकम्माणं सत्तिकम्मट्ठदिमुक्कड्डणोकडुणदिदि च परुवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. २३६); कम्मट्ठदित्ति प्रणियोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जदिणी संतकम्मं करेंति, महावाचया द्विदिसंतकम्मं पयाति । ( धव. पु. १६, पृ. ५७७ ) । जिस अधिकार में सब कर्मों को शक्तिस्थिति
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३२४, जैन-लक्षणावली
[ कर्मेन्द्रिय और उत्कर्षण - श्रपकर्षणजनित स्थिति की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम कर्मस्थिति है । यह महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के कृति - वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में से २२वां अनुयोगद्वार है ।
कर्महानि - कर्महानिर्मिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वप्रतिबन्धककर्मणां यथासम्भवमुपशमः क्षयोपशमः क्षयो वा । (सा. ध. स्व. टी. १-६ ) । सम्यक्त्व के रोकने वाले मिथ्यात्वादिक कर्मों का जो यथासम्भव उपशम, क्षय श्रथवा क्षयोपशम होता है; इसका नाम कर्महानि है ।
कर्महुङ्गित - कर्महुङ्गितः कृतब्रह्महत्यादिमहापातक: । (श्र. दि. पृ. ७४) ।
ब्रह्महत्या आदि महापापों के करने वाले पुरुष को कर्महुङ्गित कहते हैं ।
कर्मार्य - - १. कर्मार्या यजन- याजनाध्ययनाध्यापनप्रयोग कृषि-लिपि-वाणिज्य-योनिपोषणवृत्तयः । (त. भा. ३ - १५ ) । २. कर्मार्यास्त्रेधा - सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति । सावद्यकर्मार्याः षोढा - असि मषी - कृषि विद्या-शिल्प वणिक्कर्मभेदात् । X X X षडप्येते प्रविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकर्मार्याः । अल्पसावद्यकर्मार्याः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात् । श्रसावद्यकर्मार्याः संयताः, कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात् । (त. वा. ३, ३६, २) । ३. यजनैर्याजनः शास्त्राध्ययनाध्यापनैरपि । प्रयोगैर्वाप्तियावृत्तिमन्त कर्मार्यकाः स्मृताः ॥ ( त्रि.ष. पु. च. २, ३, ६७६ ) ।
१ यजनयाजन, अध्ययन-अध्यापन, प्रयोग, कृषि, लेखन, व्यापार और योनिपोषण कर्मों से श्राजीविका करने वालों को कर्मा कहते हैं । २ सावद्यकर्मार्य, अल्पसावद्यकर्मार्य श्रौर असावद्यकर्मार्य के भेद से कर्मा तीन प्रकार हैं। सावद्यकर्मार्थ - श्रसि-मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले । अल्प सावद्यकर्मा - देशविरति के परिपालक श्रावक श्रौर श्राविका । श्रसाद्य कर्मार्थ - सर्व कर्मक्षय में उद्यत संयत (महाव्रती ) ।
कर्मेन्द्रिय - x x x कर्मेन्द्रियाणि वागादीनि वचनादिक्रियानिमित्तानि सन्ति XXX उपयोगसाधनेषु हीन्द्रियव्यवदेशो युक्तो न क्रियासाधनेषु । (त. वा. २, १५, ५-६) ।
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