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कौमार] ३७६, जैन-लक्षणावली
क्रमानेकान्त] क्रियाभाक्, तद्भावः कौत्कुच्यम् । (सा. ध. स्वो. भिन्न नाम का सूत्रदोष है। जैसे—स्पर्शन, रसन, टी. ५-१२)। १५. प्रहासवागशिष्टवाक्प्रयोगौ घ्राण, चक्षु और कर्ण के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और पूर्वोत्तौ द्वावपि तृतीयेन दुष्टेन कायकर्मणा संयुक्तौ शब्द विषय हैं; ऐसा न कह कर उनके स्पर्श, रूप, कोत्कुच्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३२)। १६. दोषः शब्द, गन्ध और रस विषय हैं; इस प्रकार संख्याकौत्कुच्यसंज्ञोऽस्ति दुष्टकायक्रियादियुक्। पराङ्ग- क्रम को भंग करके कहना । स्पर्शनं स्वाङ्गरदिन्याङ्गनादिषु ।। (लाटीसं ६, क्रमवर्तित्व क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं १४२)।
विशिष्टं च । स भवति भवति न सोऽयं भवति ३ भ्र, नेत्र, मुख, श्रोठ, हाथ, पांव और कान आदि तथाऽथ च तथा न भवतीति ।। (पंचाध्यायी १, के द्वारा इस प्रकार की चेष्टा करना कि जिसे देख १७५)। कर अन्य जन हंसने लग जावें, पर स्वयं न हंसे, यह वह है' किन्तु वह नहीं है; अथवा 'यह वैसा यह कायकौत्कुच्य है। इसी प्रकार वचन के द्वारा है' किन्तु वैसा नहीं है। इस प्रकार व्यतिरेकपूर्वक ऐसा सम्भाषण करना कि जिसे सुन कर अन्य जन विशिष्टता को क्रमवतित्व कहते हैं। हास्य को प्राप्त हों, इसके अतिरिक्त मख से मोर, क्रमवर्ती-ग्रस्त्यत्र यः प्रसिद्धः क्रम इति धातुश्च बिल्ली और कोयल आदि अनेक जीवों के शब्द का पादविक्षेपे । क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिअनुकरण करना व वाजे प्रादि की ध्वनि को क्रमादेषः ।। वर्तन्ते तेन यतो भवितं शीलास्तथा करना; यह वाचनिक कौत्कुच्य कहलाता है। इस स्वरूपेण । यदि वा स एव वर्ती येषां क्रमवतिनस्त प्रकार की कौत्कुच्य क्रिया में निरत व्यक्ति कौत्कु- एवार्थात् ।। अयमर्थः प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते च्यवान् कहा जाता है।
चकः । अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथा कौमार-कौमारं बालवैद्यं मासिक-सांवत्सरिकादि- देशम् ।। (पंचाध्यायी १,१६७-६६)। ग्रहत्रासनहेतु: शास्त्रम् । xxx एवमष्टप्रकारेण 'क्रम' धातु पादविक्षेप अर्थ में प्रसिद्ध है। 'क्रमति चिकिन्साशास्त्रेणोपकारं कृत्वाहारादिकं गृह्णाति, इति क्रमः' इस निरुक्ति के अनुसार उससे निष्पन्न तदानीं तस्याष्टप्रकार श्चिकित्सादोषो भवत्येव । क्रम शब्द का अर्थ पद्धति के अनुसार एक-एक के (मूला. वृ. थ-३३)।
अनन्तर होने वाली पर्याय होता है। जिससे (जैसे कौमार अर्थात् बालवैद्य सम्बन्धी तथा मासिक व मिट्टी से) जो अवस्था में (स्थास, कोश, कुशल वार्षिक प्रादि ग्रहों के त्रास के कारणभूत चिकित्सा प्रादि) स्वभावत: उत्पन्न होने वाली हैं, वे अथवा शास्त्र के प्राश्रय से उपकार करके यदि प्राहार जिनका स्थास, कोश, कुशूलादि का वह (मिट्टी) ग्रहण करता है तो यह कौमार नाम का चिकित्सा- अनुसरण करता है वे (स्थासादि) क्रमव! कही दोष होता है।
जाती हैं। कारण यह कि पहिले एक अवस्था क्रमभाव-अविनाभाव-पूर्वोत्तरचारिणोः कार्य- (स्थास) होती है, फिर उसके नष्ट होने पर दूसरी कारणयोश्च क्रमभावः। (परीक्षा. ३-१३) । (कोस) अवस्था होती है, तत्पश्चात् उसके भी पूर्वचर और उत्तरचर पदार्थों में-जैसे कृत्तिका विनष्ट होने पर अन्य (कुशल) अवस्था होती है। और शकट नक्षत्रों में तथा कार्य-कारण में जो इस प्रकार ऐसी अवस्थाओं की 'क्रमवर्ती' यह अविनाभाव सम्बन्ध है, उसे क्रमभाव नियम अवि- सार्थक संज्ञा है। नाभाव कहते हैं।
क्रमानेकान्त - मुक्त-इतराऽनेक क्रमिधर्मापेक्षया क्रमभिन्न- भिन्नं यत्र यथासंख्यमन देशो न क्रमानेकान्तः, आयुगपदेव तत्सम्भवात् । (न्यायकु. क्रियते । यथा 'स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः श्रोत्रा- २-७, पृ. ३७२)। णामर्थाः स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्दाः इति वक्तव्ये । मुक्त और अमुक्त (संसारी) रूप अनेक ऋमिक स्पर्श-रूप-शब्द-गन्ध-रसाः इति ब्रूयात् । (प्राव. धर्मों की अपेक्षा से क्रमानेकान्त होता है। कारण नि. हरि. वृ. ८८२, पृ. ३७५)।।
कि मुक्तत्व-अमुक्तत्व प्रादि धर्म एक साथ सम्भव संख्याक्रम के अनुसार उल्लेख नहीं करना, यह क्रम- नहीं हैं-ऐसे परस्पर विरोधी धर्म क्रम से ही उप
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