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भगवान् महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सवके उपलक्ष्यमें
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
[ तृतीय भाग]
मध्यप्रदेश
भारतीय ज्ञानपीठके संयोजन, सम्पादन एवं निर्देशनके अन्तर्गत
लेखक बलभद्र जैन
प्रकाशक
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी,
हीराबाग, बम्बई-४
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भगवान महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सवके उपलक्ष्यमें
भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ
[ तृतीय भाग] मध्यप्रदेश
भारतीय ज्ञानपीठके संयोजन, सम्पादन एवं निर्देशनके अन्तर्गत
लेखक बलभद्र जैन
प्रकाशक भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी,
हीराबाग, बम्बई-४
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग-३ मध्यप्रदेश
प्रकाशक: भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, हीराबाग, बम्बई-४
प्रथम संस्करण : १९७६ मुल्य : तीस रुपये
Bharatavarshiya Digamber Jain Tirthakshetra Committee, Hirabaug, Bombay-4
प्राप्ति-स्थान:
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, हीराबाग, बम्बई-४ • भारतीय ज्ञानपीठ, बी/४५-४७ कॅनॉट प्लेस, नयी दिल्ली-११०००१
मुद्रक सन्मति मुद्रणालय दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-२२१००५
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प्रामुख
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीको इस बातका बहुत हर्ष है कि उसने भगवान् महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्षके उपलक्ष्यमें 'भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ' ग्रन्थको पांच या छह भागोंमें प्रकाशित करनेकी जिस योजनाका समारम्भ किया था उसका अब यह ततीय भाग भी प्रकाशित होकर आपके हाथोंमें पहुंच रहा है। इसका सम्बन्ध मध्यप्रदेशके जैन तीर्थोंसे है। पूर्व प्रकाशित इसके प्रथम एवं द्वितीय भागोंमें क्रमशः उत्तरप्रदेश (दिल्ली तथा पोदनपुर-तक्षशिला सहित ) और बंगाल-बिहार-उड़ीसाके तीर्थोंका उनके पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, स्थापत्य एवं कला आदिके सन्दर्भमें विस्तृत विवेचन किया गया है।
__ वास्तव में हमारी पीढ़ीका यह परम सौभाग्य है कि हमें भगवान महावीरके निर्वाणके ढाई हजारवें वर्षकी परिसमाप्तिके इस महान् पर्वको मनानेका अवसर प्राप्त हुआ। हमारी सद्-आस्थाको आधार देनेवाले, हमारे जीवनको कल्याणमय बनानेवाले, हमारी धार्मिक परम्पराकी अहिंसामूलक संस्कृतिकी ज्योतिको प्रकाशमान रखनेवाले, जन-जनका कल्याण करनेवाले हमारे तीर्थकर ही हैं। जन्म-मरणके भवसागरसे उबारकर अक्षय सुखके तीरपर ले जानेवाले हमारे तीर्थंकर प्रत्येक युगमें 'तीर्थ' का प्रवर्तन करते हैं अर्थात् मोक्षका मार्ग प्रशस्त करते हैं। तीर्थंकरोंकी इस महिमाको अपने हृदयमें बसाये रखने और अपने श्रद्धानको अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिए हमने उन सभी विशेष स्थानोंको 'तीर्थ' कहा जहाँ-जहाँ तीर्थंकरोंके जन्म आदि 'कल्याणक' हुए, जहांसे केवली भगवान्, महान् आचार्य और साधु 'सिद्ध हुए, जहाँके 'अतिशय' ने श्रद्धालुओंको अधिक श्रद्धायुक्त बनाया, उन्हें धर्म-प्रभावनाके चमत्कारोंसे साक्षात्कार कराया। ऐसे पावन स्थानों में से कुछ हैं जो ऐतिहासिक कालके पूर्वसे ही पूजे जाते हैं और जिनका वर्णन पुराण-कथाओंकी परम्परासे पुष्ट हुआ है। अन्य तीर्थों के साथ इतिहासकी कोटिमें आनेवाले तथ्य जुड़ते चले गये हैं और मनुष्यकी कलाने उन्हें अलंकृत किया है । स्थापत्य और मूर्तिकलाने एवं विविध शिल्पकारोंने इन स्थानोंके महत्त्वको बढ़ाया है । अनादि-अनन्त प्रकृतिका मनोरम रूप और वैभव तो प्रायः सभी तीर्थोंपर विद्यमान है।
ऐसे सभी तीर्थ-स्थानोंकी वन्दनाका प्रबन्ध और तीर्थोकी सुरक्षाका दायित्व समाजकी जो संस्था अखिल भारतीय स्तरपर वहन करती है, उसे गौरवको अपेक्षा अपनी सीमाओंका ध्यान अधिक रहता है, और यही ऐसी संस्थाओं के लिए शुभ होता है, यह ज्ञान उन्हें सक्रिय रखता है। इस समय तीर्थक्षेत्र कमेटीके सामने इन पवित्र स्थानोंकी सुरक्षा, पुनरुद्धार और नव-
निर्माणकी दिशामें एक बड़ा और व्यापक कार्यक्रम है। इसे पूरा करनेके लिए हमारे प्रत्येक भाई-बहनको यथासामर्थ्य योगदान करनेको अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह प्रेरणा मूर्त रूप ले और यात्री भाई-बहनोंको तीर्थ-वन्दनाका पूरा सुफल, आनन्द और ज्ञान प्राप्त हो, तीर्थक्षेत्र कमेटीका इस ग्रन्थमालाके प्रकाशनमें यह दृष्टिकोण रहा है।
ग्रन्थ प्रकाशनकी इस परिकल्पनाको पग-पगपर साधनेका सर्वाधिक श्रेय श्री साह शान्तिप्रसादजीको है, जिनके सभापतित्व कालमें इस ग्रन्थकी सामग्रीके संकलन और लेखनका कार्य प्रारम्भ हुआ और अब तक इसके तीन भागोंका प्रकाशन उनके निर्देशनमें सम्पन्न हुआ। आगेके भाग भी, जिनका सम्बन्धं राजस्थानगुजरात-महाराष्ट्र तथा दक्षिण भारतके तीर्थ-स्थलों एवं कलाक्षेत्रोंसे है, उनके निर्देशनमें तैयार हो रहे हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
हमारा पूरा प्रयत्न है कि ये सभी भाग शीघ्र ही प्रकाशमें आ जायें। तीर्थक्षेत्र कमेटीकी ओरसे इस अवसरपर मैं एक बार फिरसे श्री साहजीके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करता है।
तीर्थक्षेत्र कमेटी और भारतीय ज्ञानपीठके संयुक्त तत्त्वावधान में इस ग्रन्थमालाकी सामग्रीका संकलन, लेखन और प्रकाशन हुआ है, हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशनमें जिन महानुभावोंका सहयोग प्राप्त हुआ है, मैं उन सभीका तीर्थक्षेत्र कमेटीकी ओरसे आभारी है।
लालचन्द हीराचन्द
सभापति भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई
दिनांक २९ जून १९७६
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प्रस्तुति
'भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ' ग्रन्थमालाका यह तीसरा भाग है जो प्रथम दो भागोंकी ही भाँति भगवान् महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्षकी पुण्य स्मृतिमें समर्पित है। ग्रन्थमालाको प्रकाशन योजनाके पूर्ण होने में इसके अभी दो या तीन भाग और शेष रह जाते हैं। सर्वेक्षण, सामग्री-संकलन, लेखन एवं सम्पादन कार्य चल रहा है । प्रयास यही है कि शेष सभी भाग भी आपके हाथोंमें यथाशीघ्र पहुँचें।
जैसा कि अब तक प्रकाशित इन तीन भागोंके अवलोकनसे स्पष्ट होगा, तीर्थोके परिचयात्मक वर्णनमें पौराणिक, ऐतिहासिक और स्थापत्य एवं कलापरक सामग्रीका संयोजन बहुत ही परिश्रम और सूझ-बूझसे किया गया है । ग्रन्थ-लेखक पं. बलभद्रजीको इस कार्यमें व्यापक अनुभव है, लगन तो है ही। सामग्रीको सर्वांगीण बनाने की दिशामें जो भी सम्भव था, कमेटीके साधन, ज्ञानपीठका निर्देशन एवं श्री साहू शान्तिप्रसादजीका मार्गदर्शन और प्रेरणा पण्डितजीको उपलब्ध रही है। भारतीय ज्ञानपीठकी ओरसे सामग्रीका न केवल सम्पादकीय नियमन हआ है अपितु सारे मानचित्रोंका निर्माण प्रथम बार कराया गया है। तीर्थक्षेत्र कमेटीने यात्राओंके नियोजन, सामग्री-संकलन, सम्पादन, लेखन तथा फोटोग्राफ्स प्राप्त कराने, मानचित्र बनवाने और ग्रन्थमालाको प्रकाशित करने में पर्याप्त धन व्यय किया है। इस सारी सामग्रीपर और इसके संयोजनप्रकाशनपर भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीका सम्पूर्ण अधिकार है।
सामग्री संकलन, लेखन-कार्य और मद्रण-प्रकाशनपर यद्यपि अधिक धनराशि व्यय हुई है फिर भी तीर्थक्षेत्र कमेटीने इस ग्रन्थमालाको सर्व-सुलभ बनानेकी दृष्टिसे केवल लागत मूल्यके आधारपर दाम रखनेका निर्णय किया है। भारतीय ज्ञानपीठका व्यवस्था सम्बन्धी जो व्यय हुआ है, और जो साधन-सुविधाएं इस कार्यके लिए उपलब्ध की गयी है, उनका समावेश इस व्यय-राशिमें नहीं किया गया है। भाग १ और २ की तरह इस भागकी भी अलग-अलग जनपद सम्बन्धी पुस्तिकाएँ छपायी गयी हैं ताकि सम्बन्धित तीर्थक्षेत्र, चाहें तो, उतने ही अंशकी प्रतियां भी प्राप्त कर सकें।
तीर्थक्षेत्र कमेटी तथा भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा नियोजित की गयी पं. बलभद्रजीकी यात्राओंके अवसरपर तीर्थों के मन्त्रियों और प्रबन्धकोंसे जो लेखन-सामग्री या सूचनाएं उपलब्ध हुई तथा जो सहयोग प्राप्त हुआ उसके लिए हम अपना हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं ।
हमारा विश्वास है कि यह प्रकाशन पर्याप्त उपयोगी, सुन्दर, ज्ञानवर्धक और तीर्थ-वन्दनाके लिए प्रेरणादायक माना जायेगा।
पूरा प्रयत्न करनेपर भी त्रुटियाँ रह जाना सम्भव है। अतः इस ग्रन्थके सम्बन्धमें सुझावों और संशोधनोंका हम स्वागत करेंगे।
लक्ष्मीचन्द्र जैन मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-११०००१ दिनांक : २७ जून, १९७६
जयन्तीलाल एल. परिख
महामन्त्री भा. दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई
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प्राक्कथन
तीर्थ
तीर्थ-मान्यता
प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय में तीर्थोंका प्रचलन है । हर सम्प्रदायके अपने तीर्थ हैं, जो उनके किसी महापुरुष एवं उनकी किसी महत्त्वपूर्ण घटनाके स्मारक होते हैं । प्रत्येक धर्मके अनुयायी अपने तीर्थोंकी यात्रा और वन्दना के लिए बड़े भक्ति भावसे जाते हैं और आत्म-शान्ति प्राप्त करते हैं । तीर्थ स्थान पवित्रता, शान्ति और कल्याणके धाम माने जाते हैं । जैन धर्ममें भी तीर्थ क्षेत्रका विशेष महत्त्व रहा । जैन धर्मके अनुयायी प्रति वर्ष बड़े श्रद्धा भावपूर्वक अपने तीर्थोंकी यात्रा करते हैं । उनका विश्वास है कि तीर्थ यात्रा से पुण्य संचय होता है और परम्परासे यह मुक्ति-लाभका कारण होती है । अपने इसी विश्वासके कारण वृद्ध जन और महिलाएँ भी सम्मेद शिखर, राजगृही, मांगीतुंगी, गिरनार-जैसे दुरूह पर्वतीय क्षेत्रोंपर भी भगवान्का नाम स्मरण करते हुए चढ़ जाते हैं। बिना आस्था और निष्ठाके क्या कोई वृद्धजन ऐसे पर्वतपर आरोहण कर सकता है ?
उपाय,
तीर्थंकी परिभाषा
तीर्थं शब्द तृ धातुसे निष्पन्न हुआ है । व्याकरणकी दृष्टिसे इस शब्दको व्युत्पत्ति इस प्रकार है'तीर्यन्ते अनेन अस्मिन् वा ।' 'तू प्लवनतरणयोः ' ( स्वा. प से) । 'पातृतुदि : - ( उ २७ ) इति थक् । अर्थात् तु धातु के साथ थक् प्रत्यय लगाकर तीर्थं शब्दकी निष्पत्ति होती है । इसका अर्थ है - जिसके द्वारा अथवा जिसके आधारसे तरा जाये । कोषके अनुसार तीर्थ शब्द अनेक अर्थोंमें प्रयुक्त होता है । यथा
निपानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ ।
- अमरकोष, तृ. काण्ड, श्लोक ८६ तीर्थं शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायनारीरजःसु च । अवतारषिजुष्टाम्बुपात्रोपाध्यायमन्त्रिषु ॥
— मेदिनी
इस प्रकार कोषकारों के मतानुसार तीर्थ शब्द जलावतरण, आगम, ऋषि जुष्ट जल, गुरु, क्षेत्र, स्त्री-रज, अवतार, पात्र, उपाध्याय और मन्त्री इस विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है । जैन शास्त्रोंमें भी तीर्थ शब्दका प्रयोग अनेक अर्थोंमें किया गया
। यथा
संसाराब्धेस्पारस्य तरणे तीर्थमिष्यते ।
चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थ संकथा ॥
- जिनसेनकृत आदिपुराण ४१८
अर्थात् जो इस अपार संसार-समुद्रसे पार करे उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवान्का चरित्र ही हो सकता है । अतः उसके कथन करनेको तीर्थाख्यान कहते हैं ।
यहाँ जिनेन्द्र भगवान् के चरित्रको तीर्थं कहा गया है ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
आचार्य समन्तभद्रने भगवान् जिनेन्द्रदेवके शासनको सर्वोदय तीर्थ बताया है
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
-युक्त्यनुशासन ६२ अर्थात् "आपका यह तीर्थ सर्वोदय ( सबका कल्याण करनेवाला ) है। जिसमें सामान्य-विशेष, द्रव्याथिक-पर्यायार्थिक, अस्ति-नास्ति रूप सभी धर्म गौण-मुख्य रूपसे रहते हैं, ये सभी धर्म परस्पर सापेक्ष हैं, अन्यथा द्रव्यमें कोई धर्म या गुण रह नहीं पायेगा। तथा यह सभीकी आपत्तियोंको दूर करनेवाला है और किसी मिथ्यावादसे इसका खण्डन नहीं हो सकता । अतः आपका यह तीर्थ सर्वोदय-तीर्थ कहलाता है।"
यह तीर्थ परमागम रूप है, जिसे धर्म भी कहा जा सकता है।
बृहत्स्वयंभू स्तोत्रमें भगवान् मल्लिनाथकी स्तुति करते हए आचार्य समन्तभद्रने उनके तीर्थको जन्ममरण रूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियोंके लिए प्रमुख तरण-पथ ( पार होनेका उपाय ) बताया है
तीर्थमपि स्वं जननसमुद्रत्रासितसत्त्वोतरणपथोऽगम् ॥१०९ पुष्पदन्त-भूतबलि प्रणीत षट्खण्डागम ( भाग ८, पृ. ९१ ) में तीर्थंकरको धर्म-तीर्थका कर्ता बताया है। आदिपुराणमें श्रेयान्सकुमारको दान-तीर्थका कर्ता बताया है। आदिपुराणमें (२।३९) मोक्षप्राप्तिके उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रको तीर्थ बताया है।
आवश्यक नियुक्तिमें चातुर्वर्ण अर्थात् मुनि-अजिका श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध संघ अथवा चतुर्वर्णको तीर्थ माना है । इनमें भी गणधरों और उनमें भी मुख्य गणघरको मुख्य तीर्थ माना है और मुख्य गणधर ही तीर्थंकरोंके सूत्र रूप उपदेशको विस्तार देकर भव्यजनोंको समझाते हैं, जिससे वे अपना कल्याण करते हैं । कल्पसूत्र में इसका समर्थन किया गया है ।
तीर्थ और क्षेत्र-मंगल
कुछ प्राचीन जैनाचार्योंने तीर्थके स्थानपर 'क्षेत्र-मंगल' शब्दका प्रयोग किया है। षट्खण्डागम (प्रथम खण्ड, पृ. २८) में क्षेत्र-मंगलके सम्बन्धमें इस प्रकार विवरण दिया गया है
तत्र क्षेत्रमंगलं गुणपरिणतासन-परिनिष्क्रमण केवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणक्षेत्रादिः। तस्योदाहरणम्ऊर्जयन्त-चम्पा-पावानगरादिः । अर्धाष्टारल्यादि-पञ्चविंशत्युत्तरपञ्च-धनुःशतप्रमाणशरीरस्थितकैवल्याद्यवष्टब्धाकाशदेशा वा, लोकमात्रात्मप्रदेशलॊकपूरणापूरितविश्वलोकप्रदेशा वा ।
अर्थात् गुण-परिणत-आसन क्षेत्र अर्थात् जहाँपर योगासन, वीरासन इत्यादि अनेक आसनोंसे तदनुकूल अनेक प्रकारके योगाभ्यास, जितेन्द्रियता आदि गुण प्राप्त किये गये हों ऐसा क्षेत्र, परिनिष्क्रमण क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्ति क्षेत्र और निर्वाण क्षेत्र आदिको क्षेत्र-मंगल कहते हैं। इसके उदाहरण ऊर्जयन्त ( गिरनार), चम्पा, पावा आदि नगर क्षेत्र हैं। अथवा साढ़े तीन हाथसे लेकर पांच सौ पचीस धनुष तकके शरीरमें स्थित और केवलज्ञानादिसे व्याप्त आकाश प्रदेशोंको क्षेत्र-मंगल कहते हैं। अथवा लोक प्रमाण आत्म-प्रदेशोंसे लोकपुरणसमुद्घात दशामें व्याप्त किये गये समस्त लोकके प्रदेशोंको क्षेत्र-मंगल कहते हैं।
बिलकुल इसी आशयकी ४ गाथाएँ आचार्य यतिवृषभने तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थमें (प्रथम अधिकार गाथा २१-२४ ) निबद्ध को हैं और उन्होंने कल्याणक क्षेत्रोंको क्षेत्र-मंगलकी संज्ञा दी है।
गोम्मटसारमें बताया हैक्षेत्रमंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनाम् ।।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तीर्थ शब्दके आशयमें ही क्षेत्र-मंगल शब्दका प्रयोग मिलता है। यदि अन्तर है तो इतना कि तीथं शब्द व्यापक है। तीर्थ शब्दसे उन सबका व्यवहार होता है, जो पार करने में
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प्राक्कथन
साधन हैं । इन साधनोंमें एक साधन तीर्थ-भूमियाँ भी हैं। इन तीर्थ-भूमियोंको ही क्षेत्र-मंगल शब्दसे व्यवहृत किया गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि तीर्थ शब्दका आशय व्यापक और क्षेत्र-मंगल शब्दका अर्थ व्याप्य है। तीर्थ शब्दके साथ यदि भूमि या क्षेत्र शब्द और जोड़ दिया जाये तो उससे वही अर्थ निकलेगा जो क्षेत्र-मंगल शब्दसे अभिप्रेत है।
मूलत
तीर्थों की संरचनाका कारण
तीर्थ शब्द क्षेत्र या क्षेत्र-मंगलके अर्थमें बहुप्रचलित एवं रूढ़ है। तीर्थ-क्षेत्र न कहकर केवल तीर्थ शब्द कहा जाये तो उससे भी प्रायः तीर्थ-क्षेत्र या तीर्थ-स्थानका आशय लिया जाता है। जिन स्थानोंपर तीर्थकरोंके गर्भ, जन्म, अभिनिष्क्रमण, केवलज्ञान और निर्वाणकल्याणकोंमें से कोई कल्याणक हुआ हो अथवा किसी निर्ग्रन्थ वीतराग तपस्वी मुनिको केवलज्ञान या निर्वाण प्राप्त हआ हो, वह स्थान उन वीतराग महर्षियोंके संसर्गसे पवित्र हो जाता है। इसलिए वह पूज्य भी बन जाता है। वादीभसिंह सूरिने क्षत्रचूड़ामणि (६।४-५ ) में इस बातको बड़े ही बुद्धिगम्य तरीकेसे बताया है । वे कहते हैं
पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ।। सद्भिरघ्युषिता धात्री संपूज्येति किमद्भुतम् ।
कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ॥ अर्थात महापुरुषोंके संसर्गसे स्थान भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जहाँ महापुरुष रह रहे हों वह भूमि पूज्य होगी ही, इसमें आश्चर्यकी क्या बात है। जैसे रस अथवा पारसके स्पर्श मात्रसे लोहा सोना बन जाता है।
मूलतः पृथ्वी पूज्य या अपूज्य नहीं होती। उसमें पूज्यता महापुरुषोंके संसर्गके कारण आती है। पूज्य तो वस्तुतः महापुरुषोंके गुण होते हैं किन्तु वे गुण ( आत्मा) जिस शरीरमें रहते हैं, वह शरीर भी पूज्य बन जाता है । संसार उस शरीरकी पूजा करके ही गुणोंकी पूजा करता है । महापुरुषके शरीरकी पूजा भक्तका शरीर करता है और महापुरुषके आत्मामें रहनेवाले गुणोंकी पूजा भक्तकी आत्मा अथवा उसका अन्तःकरण करता है । इसी प्रकार महापुरुष, वीतराग तीर्थकर अथवा मुनिराज जिस भूमिखण्डपर रहे, वह भूमिखण्ड भी पूज्य बन गया । वस्तुतः पूज्य तो वे वीतराग तीर्थंकर या मनिराज हैं। किन्तु वे वीतराग जिस भूमिखण्डपर रहे, उस भूमिखण्डकी भी पूजा होने लगती है। उस भूमिखण्डकी पूजा भक्तका शरीर करता है, उस महापुरुषको कथा-वार्ता, स्तुति-स्तोत्र और गुण-संकीर्तन भक्तकी वाणी करती है और उन गुणोंका अनुचिन्तन भक्तकी आत्मा करती है। क्योंकि गुण आत्मा में रहते हैं, उनका ध्यान, अनुचिन्तन और अनुभव आत्मामें ही किया जा सकता है।
वीतराग तीर्थंकरों और महर्षियोंने संयम, समाधि, तपस्या और ध्यानके द्वारा जन्म-जरा-मरणसे मुक्त होने की साधना की और संसारके प्राणियोंको संसारके दुखोंसे मुक्त होने का उपाय बताया। जिस मिथ्यामार्गपर चलकर प्राणी अनादि कालसे नाना प्रकारके भौतिक और आत्मिक दुःख उठा रहे हैं, उस मिथ्यामार्गको ही इन दुखों का एकमात्र कारण बताकर प्राणियों को सम्यक मार्ग बताया। अतः वे महापुरुष संसारके प्राणियोंके अकारण बन्धु हैं उपकारक हैं। इसीलिए उन्हें मोक्षमार्गका नेता माना जाता है। उनके उपकारोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और उस भूमि-खण्डपर घटित घटनाकी सतत स्मृति बनाये रखने और इस सबके माध्यमसे उन वीतराग देवों और गुरुओंके गुणोंका अनुभव करनेके लिए उस भूमिपर उन महापुरुषका
रक बना देते हैं । संसारकी सम्पूर्ण तीर्थभूमियों या तीर्थ-क्षेत्रोंकी संरचनामें भक्तोंकी महापुरुषोंके प्रति यह कृतज्ञताकी भावना ही मूल कारण है ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तीर्थोके भेद
दिगम्बर जैन परम्परामें संस्कृत निर्वाण-भक्ति और प्राकृत निर्वाण-काण्ड प्रचलित हैं। अनुश्रुतिके अनुसार ऐसा मानते हैं कि प्राकृत निर्वाण-काण्ड ( भक्ति ) आचार्य कुन्दकुन्दकी रचना है। तथा संस्कृत निर्वाण-भक्ति आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित कही जाती है । इस अनुश्रुतिका आधार सम्भवतः क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य हैं । उन्होंने लिखा है कि संस्कृत भक्तिपाठ पादपूज्य स्वामी विरचित है। प्राकृत निर्वाण-भक्तिके दो खण्ड हैं-एक निर्वाण-काण्ड और दूसरा निर्वाणेतर-काण्ड । निर्वाण-काण्ड में १९ निर्वाणक्षेत्रोंका विवरण प्रस्तुत करके शेष मुनियोंके जो निर्वाण क्षेत्र हैं उनके नामोल्लेख न करके सबकी वन्दना की गयी है । निर्वाणेतर काण्डमें कुछ कल्याणक स्थान और अतिशय क्षेत्र दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत निर्वाण-भक्तिमें तीर्थभूमियोंकी इस भेद कल्पनासे ही दिगम्बर समाजमें तीन प्रकारके तीर्थ-क्षेत्र प्रचलित हो गये-सिद्ध क्षेत्र (निर्वाण क्षेत्र ), कल्याणक क्षेत्र और अतिशय क्षेत्र ।
संस्कृत निर्वाण-भक्ति में प्रारम्भके बीस श्लोकोंमें भगवान् वर्धमानका स्तोत्र है। उसके पश्चात् बारह पद्योंमें २५ निर्वाण क्षेत्रोंका वर्णन है। वास्तवमें यह भक्तिपाठ एक नहीं है। प्रारम्भमें बीस श्लोकोंमें जो वर्धमान स्तोत्र है वह स्वतन्त्र स्तोत्र है। उसका निर्वाण भक्तिसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह इसके पढ़नेसे ही स्पष्ट हो जाता है। द्वितीय पद्यमें स्तुतिकार सन्मतिका पांच कल्याणकोंके द्वारा स्तवन करने की प्रतिज्ञा करता है और बीसवें श्लोकमें इस स्तोत्रके पाठका फल बताता है । यहाँ यह स्तोत्र समाप्त हो जाता है । फिर इक्कीसवें पद्यमें अर्हन्तों और गणघरोंकी निर्वाण-भूमियोंकी स्तुति करनेकी प्रतिज्ञा करता है। और बत्तीसवें श्लोकमें उनका समापन करता है। जो भी हो, संस्कृत निर्वाण-भक्तिके रचयिताने प्राकृत निर्वाण-भक्तिकारकी तरह तीर्थ-क्षेत्रोंके भेद नहीं किये। सम्भवतः उन्हें यह अभिप्रेत भी नहीं था। उनका उद्देश्य तो निर्वाणक्षेत्रोंकी स्तुति करना था।
इन दो भक्तिपाठोंके अतिरिक्त तीर्थक्षेत्रोंसे सम्बन्धित कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ दिगम्बर परम्परामें उपलब्ध नहीं है । जो हैं, वे प्रायः १६वीं, १७वीं शताब्दीके बादके हैं ।
किन्तु दिगम्बर समाजमें उक्त तीन ही प्रकारके तीर्थक्षेत्रोंकी मान्यताका प्रचलन रहा है-(१) निर्वाण क्षेत्र, (२) कल्याणक क्षेत्र और (३) अतिशय क्षेत्र ।
निर्वाण क्षेत्र-ये वे क्षेत्र कहलाते हैं, जहाँ तीर्थंकरों या किन्हीं तपस्वी मुनिराजका निर्वाण हुआ हो। संसारमें शास्त्रोंका उपदेश, व्रत-चारित्र, तप आदि सभी कुछ निर्वाण प्राप्तिके लिए है । यही चरम और परम पुरुषार्थ है। अतः जिस स्थानपर निर्वाण होता है, उस स्थानपर इन्द्र और वेव पूजाको आते हैं । अन्य तीर्थों की अपेक्षा निर्वाण क्षेत्रोंका महत्त्व अधिक होता है। इसलिए निर्वाण-क्षेत्र के प्रति भक्त जनताकी श्रद्धा अधिक रहती है। जहाँ तीर्थंकरोंका निर्वाण होता है, उस स्थानपर सौधर्म इन्द्र चिह्न लगा देता है। उसी स्थानपर भक्त लोग उन तीर्थंकर भगवान्के चरण-चिह्न स्थापित कर देते हैं। आचार्य समन्तभद्रने स्वयम्भूस्तोत्रमें भगवान् नेमिनाथकी स्तुति करते हुए बताया है कि ऊर्जयन्त (गिरनार.) पर्वतपर इन्द्रने भगवान् नेमिनाथके चरण-चिह्न उत्कीर्ण किये।
तीर्थंकरोंके निर्वाण-क्षेत्र कुल पांच है-कैलास, चम्पा, पावा, ऊर्जयन्त और सम्मेदशिखर । पूर्वके चार क्षेत्रोंपर क्रमशः ऋषभदेव, वासुपूज्य, महावीर और नेमिनाथ मुक्त हए। शेष बीस तीर्थंकरोंने सम्मेदशिखरसे मुक्ति प्राप्त की। इन पांच निर्वाण क्षेत्रोंके अतिरिक्त अन्य मुनियोंकी निर्वाणभूमियाँ हैं, जिनमें से कुछ के नाम निर्वाण-भक्तिमें दिये हुए हैं।
. कल्याणक क्षेत्र-ये वे क्षेत्र है, जहाँ किसी तीर्थंकरका गर्भ, जन्म, अभिनिष्क्रमण ( दीक्षा ) और केवलज्ञान कल्याणक हुआ है । जैसे मिथिलापुरी, भद्रिकापुरी, हस्तिनापुर आदि ।
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प्राक्कथन
अतिशय क्षेत्र-जहाँ किसी मन्दिरमें या मूर्तिमें कोई चमत्कार दिखाई दे, तो वह अतिशय क्षेत्र कहलाता है। जैसे श्री महावीरजी, देवगढ़, हम्मच, पद्मावती आदि । जो निर्वाण-क्षेत्र अथवा कल्याणक-क्षेत्र नहीं हैं, वे सभी अतिशय-क्षेत्र कहे जाते हैं ।
तीर्थोंका माहात्म्य
संसारमें प्रत्येक स्थान समान हैं, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका प्रभाव हर स्थानको दूसरे स्थानसे पृथक कर देता है। द्रव्यगत विशेषता, क्षेत्रकृत प्रभाव और कालकृत परिवर्तन हम नित्य देखते हैं। इससे भी अधिक व्यक्तिके भावों और विचारोंका चारों ओरके वातावरणपर प्रभाव पड़ता है जिनके आत्मामें विशुद्ध या शुभ भावोंकी स्फुरणा होती है, उनमें-से शुभ तरंगें निकलकर आसपासके सम्पूर्ण वातावरणको व्याप्त कर लेती हैं । उस वातावरण में शुचिता, शान्ति, निर्वैरता और निर्भयता व्याप्त हो जाती है। ये तरंगें कितने वातावरणको घेरती हैं, इसके लिए यही कहा जा सकता है कि उन भावोंमें, उस व्यक्तिशुचिता आदिमें जितनी प्रबलता और वेग होगा, उतने वातावरणमें वे तरंगें फैल जाती हैं। इसी प्रकार जिस व्यक्तिके विचारोंमें जितनी कषाय और विषयोंकी लालसा होगी, उतने परिमाणमें, वह अपनी शक्ति द्वारा सारे वातावरणको दूषित कर देता है। इतना ही नहीं, वह शरीर भी पुदगल-परमाण और उसके चारों ओरके वातावरणके कारण दूषित हो जाता है। उसके अशुद्ध विचारों और अशुद्ध शरीरसे अशुद्ध परमाणुओंकी तरंगें निकलती रहती हैं, जिससे वहाँके वातावरणमें फैलकर वे परमाणु दूसरेके विचारोंको भी प्रभावित करते हैं।
प्रायः सर्वस्वत्यागी और आत्मकल्याणके मार्गके राही एकान्त शान्तिकी इच्छासे वनोंमें, गिरिकन्दराओंमें, सुरम्य नटी-तटोंपर आत्मध्यान लगाया करते थे। ऐसे तपस्वी-जनोंके शुभ परमाण उस सारे वातावरण में फैलकर उसे पवित्र कर देते थे। वहाँ जाति-विरोधी जीव आते तो न जाने उनके मनका भय
और संहारकी भावना कहाँ तिरोहित हो जाती। वे उस तपस्वी मुनिकी पुण्य भावनाकी स्निग्ध छाया में परस्पर किलोल करते और निर्भय विहार करते थे।
इसी आशयको भगवजिनसेनने आदिपुराण २।३.२६ में व्यक्त किया है। मगध नरेश श्रेणिक गौतम गणधरकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं-"आपका यह मनोहर तपोवन जो कि विपुलाचल पर्वतके चारों ओर विद्यमान है, प्रकट हुए दयावनके समान मेरे मनको आनन्दित कर रहा है। इस ओर ये हथिनियां सिंहके बच्चेको अपना दूध पिला रही है और ये हाथीके बच्चे स्वेच्छासे सिंहनीके स्तनोंका पान कर रहे हैं।"
इस प्रकारका चमत्कार तो तपस्वी और ऋद्धिधारी वीतराग मुनियोंकी तपोभूमिमें भी देखनेको मिलता है । जो उस तपोभूमिमें जाता है, वह संसारकी आकुलता-व्याकुलताओंसे कितना ही प्रभावित क्यों न हो, मुनिजनोंकी तपोभूमिमें जाते ही उसे निराकुल शान्तिका अनुभव होने लगता है और वह जबतक उस तपोभूमिमें ठहरता है, संसारकी चिन्ताओं और आधि-व्याधियोंसे मुक्त रहता है।
जब तपस्वी और ऋद्धिधारी मुनियोंका इतना प्रभाव होता है तो तीन लोकके स्वामी तीर्थंकर भगवान्के प्रभावका तो कहना ही क्या है। उनका प्रभाव तो अचिन्त्य है, अलौकिक है। तीर्थंकर प्रकृति सम्पूर्ण पुण्य प्रकृतियोंमें सर्वाधिक प्रभावशाली होती है और उसके कारण अन्य प्रकृतियोंका अनुभाग सुखरूप परिणत हो जाता है । तीर्थंकर प्रकृतिकी पुण्य वर्गणाएँ इतनी तेजस्वी और बलवती होती हैं कि तीर्थंकर जब माताके गर्भमें आते हैं, उससे छह माह पूर्वसे ही वे देवों और इन्द्रोंको तीर्थकरके चरणोंका विनम्र सेवक बना देती हैं । इन्द्र छह माह पूर्व ही कुबेरको आज्ञा देता है-"भगवान् त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर प्रभुका छह माह पश्चात् गर्भावतरण होनेवाला है । उनके स्वागतकी तैयारी करो। त्रिलोकीनाथके उपयुक्त निवास स्थान बनाओ। उनके आगमनके उपलक्ष्यमें अभीसे उनके जन्म पर्यन्त रत्न और स्वर्णकी वर्षा करो; जिससे उनके नगरमें कोई निर्धन न रहे।"
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ऐसे वे तीर्थंकर भगवान् जिस नगर में जन्म लेते हैं, वह नगर उनकी चरण-धूलिसे पवित्र हो जाता है । जहाँ वे दीक्षा लेते हैं, उस स्थानका कण-कण उनके विराग रंजित कठोर तप और आत्मसाधनासे शुचिताको प्राप्त हो जाता है । जिस स्थानपर उन्हें केवलज्ञान होता है, वहीं देव समवसरणकी रचना करते हैं, जहाँ भगवान्की दिव्य ध्वनि प्रकट होकर धर्मचक्रका प्रवर्तन होता है और अनेक भव्य जीव संयम ग्रहण करके आत्म-कल्याण करते हैं, वहाँ तो कल्याणका आकाशचुम्बी मानस्तम्भ ही गड़ जाता है, जो संसारके प्राणियोंको आमन्त्रण देता है-'आओ और अपना कल्याण करो।' इसी प्रकार जहां तीर्थंकर देव शेष अघातिया कर्मोंका विनाश करके निरंजन परमात्म दशाको प्राप्त होते हैं, वह तो शान्ति और कल्याण का ऐसा अजस्र स्रोत बन जाता है, जहाँ भक्ति-भावसे जानेवालोंको अवश्य शान्ति मिलती है और अवश्य ही उनका कल्याण होता है । निर्वाण ही तो परम पुरुषार्थ है, जिसके कारण अन्य कल्याणकोंका भी मूल्य और महत्त्व है।
यह माहात्म्य अन्य मुनियों के निर्वाण-स्थानका भी है। यह माहात्म्य उस स्थानका नहीं है, किन्तु उन तीर्थंकर प्रभुका है या उन निष्काम तपस्वी मुनिराजोंका है, जिनके अन्तरमें आत्यन्तिक शुद्धि प्रकट हुई, जिनकी आत्मा जन्म-मरणसे मुक्त होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो चुकी है। इसीलिए तो आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णवमें कहा है
सिद्धक्षेत्रे महातीर्थ पुराणपुरुषाश्रिते।
कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धिः प्रजायते ।। सिद्धक्षेत्र महान् तीर्थ होते हैं। यहाँपर महापुरुषका निर्वाण हुआ है। यह क्षेत्र कल्याणदायक है तथा पुण्यवर्द्धक होता है। यहाँ आकर यदि ध्यान किया जाये तो ध्यानकी सिद्धि हो जाती है। जिसको ध्यान-सिद्धि हो गयी, उसे आत्म-सिद्धि होने में विलम्ब नहीं लगता।
तीर्थ-भूमियोंका माहात्म्य वस्तुतः यही है कि वहाँ जानेपर मनुष्योंकी प्रवृत्ति संसारकी चिन्ताओंसे मुक्त होकर उस महापुरुषकी भक्तिसे आत्मकल्याणकी ओर होती है। घरपर मनुष्यको नाना प्रकारकी सांसारिक चिन्ताएँ और आकुलताएं रहती हैं। उसे घरपर आत्मकल्याणके लिए निराकुल अवकाश नहीं मिल पाता । तीर्थ-स्थान प्रशान्त स्थानोंपर होते हैं। प्रायः तो वे पर्वतोपर या एकान्त वनोंमें नगरोंके कोलाहलसे दूर होते हैं । फिर वहाँके वातावरणमें भी प्रेरणाके बीज छितराये होते हैं। अतः मनुष्यका मन वहाँ शान्त, निराकुल और निश्चिन्त होकर भगवान्की भक्ति और आत्म-साधनामें लगता है। संक्षेपमें, तीर्थक्षेत्रोंका माहात्म्य इन शब्दोंमें कहा जा सकता है
श्रीतीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति तीर्थेषु विभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति ।
तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः पूज्या भवन्ति जगदीशमथाश्रयन्तः ॥ ___अहा ! तीर्थभूमिके मार्गको रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आश्रयसे मनुष्य रजरहित अर्थात् कर्म मल रहित हो जाता है। तीर्थोपर भ्रमण करनेसे अर्थात् यात्रा करनेसे संसारका भ्रमण छूट जाता है। तीर्थपर धन व्यय करनेसे अविनाशी सम्पदा मिलती है। और जो तीर्थपर जाकर भगवान्की शरण ग्रहण कर लेते हैं अर्थात् भगवान् के मार्गको जीवन में उतार लेते हैं, वे जगत्पूज्य हो जाते हैं ।
ता।
तीर्थ-यात्राका उद्देश्य
तीर्थ-यात्राका उद्देश्य यदि एक शब्दमें प्रकट किया जाये तो वह है आत्म-विशुद्धि । शरीरकी शुद्धि तेल-साबुन और अन्य प्रसाधनोंसे होती है। वाणीकी शुद्धि लवंग, इलायची, सौंफ आदिसे होती है, ऐसी लोक-मान्यता है । कुछ लोगोंकी मान्यता है कि पवित्र नदियों, सागरों और भगवान्के नाम संकीर्तनसे सर्वांग विशुद्धि होती है। कुछ मानते हैं कि तीर्थ-क्षेत्रकी यात्रा करने मात्रसे पापोंका क्षय और पुण्यका संग्रह हो जाता है। किन्तु यह बहिर्दृष्टि है। बहिर्दृष्टि अर्थात् बाहरी साधनोंकी ओर उन्मुखता। किन्तु तीर्थ-यात्राका उद्देश्य
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बाह्यशुद्धि नहीं है, वह हमारा साध्य नहीं है, न हमारा लक्ष्य ही बाह्यशुद्धि मात्र है। वह तो हम घरपर भी कर लेते हैं । तीर्थ-यात्राका ध्येय आत्म-शुद्धि है, आत्माकी ओर उन्मुखता, परसे निवृत्ति और आत्म-प्रवृत्ति हमारा ध्येय है । बाह्य-शुद्धि तो केवल साधन है और वह भी एक सीमा तक । तीर्थ यात्रा करने मात्रसे ही आत्म-शुद्धि नहीं हो जाती । तीर्थ-यात्रा तो आत्म-शुद्धिका एक साधन है। तीर्थपर जाकर वीतराग मुनियों और तीर्थंकरोंके पावन चरित्रका स्मरण करके हम उनकी उस साधनापर विचार करें, जिसके द्वारा उन्होंने शरीर-शुद्धिकी चिन्ता छोड़कर आत्माको कर्म-मलसे शुद्ध किया। यह विचार करके हम भी वैसी साधनाका संकल्प लें और उसकी ओर उन्मुख होकर वैसा प्रयत्न करें।
कुछ लोगोंकी ऐसी धारणा बन गयी है कि जिसने तीर्थकी जितनी अधिक बार वन्दना की अथवा किसी स्तोत्रका जितना अधिक बार पाठ किया या भगवान्की पूजामें जितना अधिक समय लगाया, उतना अधिक धर्म किया। ऐसी धारणा पुण्य और धर्मकी एक माननेकी परम्परासे पैदा हुई है। जिस क्रियाका आत्म-शुद्धि, आत्मोन्मुखतासे कोई नाता नहीं, वह क्रिया पुण्यदायक और पुण्यवर्द्धक हो सकती हैं, वह भी तब, जब मनमें शुभ भाव हों, शुभ राग हों।
पुण्य या शुभ राग साधन है, साध्य नहीं। पुण्य बाह्य साधन तो जुटा सकता है, आत्माकी विशुद्धि नहीं कर सकता । आत्माकी विशुद्धि आत्माके निज पुरुषार्थसे होगी और वह शुभ-अशुभ दोनों रागोंके निरोधसे होगी । तीर्थ-भूमियाँ हमारे लिए ऐसे साधन और अवसर प्रस्तुत करती हैं। वहाँ जाकर भक्त जन उस भूमिसे सम्बन्धित महापुरुषका स्मरण, स्तवन और पूजन करते हैं तथा उनके चरित्रसे प्रेरणा लेकर अपनी
आत्माको ओर उन्मुख होते हैं । पुण्यकी प्रक्रिया सरल है, आत्म-शुद्धिकी प्रक्रिया समझने में भी कठिन है और . करने में भी।
किन्तु एक बात स्मरण रखनेकी है। भक्त जन घाटेमें नहीं रहता। वह पाप और अशुभ संकल्पविकल्पोंको छोड़कर तीर्थ-यात्राके शुभ भावोंमें लीन रहता है। वह अपना समय तीर्थ-वन्दना, भगवान्का पूजन, स्तुति आदिमें व्यतीत करता है। इससे वह पुण्य संचय करता है और पापोंसे वचता है। जब वह आत्माकी ओर उन्मुख होता है तो कर्मोंका क्षय करता है, आत्म-विशुद्धि करता है। अर्थात् स्वकी ओर उपयोग जाता है तो असंख्यात गुनी कर्म-निर्जरा करता है और पर ( भगवान आदि ) की ओर उपयोग जाता है तो पुण्यानुबन्धी पुण्य संचय करता है । यही है तीर्थ-यात्राका उद्देश्य और तीर्थ-यात्राका वास्तविक ला
तीर्थ-यात्रासे आत्म-शुद्धि होती है, इस सम्बन्धमें श्री चामुण्डराय 'चारित्रसार' में कहते हैं
तत्रात्मनो विशुद्धध्यानजलप्रक्षालितकर्ममलकलङ्कस्य स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तरशुचित्वं, तत्साधनानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रतपांसि तद्वन्तश्च साधवस्तदधिष्ठानानि च निर्वाणभूम्यादिकानि । तत्प्राप्त्युपायत्वाच्छुचिव्यपदेशमर्हन्ति ।
(अशुचि अनुप्रेक्षा) अर्थात् विशुद्ध ध्यानरूपी जलसे कर्म-मलको धोकर आत्मामें स्थित होनेको आत्माकी विशुद्धि कहते हैं । यह विशुद्धि अलौकिक होती है । आत्म-विशुद्धिके लिए सम्यग्दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र, सम्यक्तप और इनसे युक्त साधु और उनके स्थान निर्वाणभूमि आदि साधन हैं। ये सब आत्म-शुद्धि प्राप्त करने के उपाय हैं । इसलिए इन्हें भी पवित्र कहते हैं।
गोम्मटसारमें आचार्य नेमिचन्द्रने कहा है"क्षेत्रमंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनां निष्क्रमणकेवलज्ञानादिगुणोत्पत्तिस्थानम् ।" अर्थात् निष्क्रमण ( दीक्षा ) और केवल-ज्ञानके स्थान आत्मगुणोंकी प्राप्तिके साधन हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तीर्थ-पूजा वसुनन्दी श्रावकाचारमें क्षेत्र-पूजाके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है
'जिणजम्मण णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थतिण्हेसु ।
णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा' ॥४५२॥ अर्थात् जिन-भगवान्की जन्मकल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्ति स्थान, तीर्थचिह्न स्थान और निषोधिका अर्थात् निर्वाण-भूमियोंमें पूर्वोक्त विधानसे को हुई पूजा क्षेत्र-पूजा कहलाती है।
आचार्य गुणभद्र 'उत्तर-पुराण' में बतलाते हैं कि निर्वाण-कल्याणकका उत्सव मनाने के लिए इन्द्रादि देव स्वर्गसे उसी समय आये और गन्ध, अक्षत आदिसे क्षेत्रकी पूजा की और पवित्र बनाया।
'कल्पानिर्वाणकल्याणमन्वेत्यामरनायकाः । गन्धादिभिः समभ्यर्च्य तत्क्षेत्रमपवित्रयन् ।।
-उत्तरपुराण ६६।६३... पाँच कल्याणकोंके समय इन्द्र और देव भगवान की पूजा करते हैं। और भगवान्के निर्वाण-गमनके बाद इन कल्याणकोंके स्थान ही तीर्थ बन जाते हैं। वहाँ जाकर भक्त जन भगवान्के चरणचिह्न अथवा मूर्तिकी पूजा करते हैं तथा उस क्षेत्रकी पूजा करते हैं। यही तीर्थ-पूजा कहलाती है। वस्तुतः तीर्थ-पूजा भगवान्का स्मरण कराती है क्योंकि तीर्थ भी भगवान्के स्मारक हैं । अतः तीर्थ-पूजा प्रकारान्तरसे भगवान्की ही पूजा है। तीर्थ-क्षेत्र और मूर्ति-पूजा
जैन धर्म में मूर्ति-पूजाके उल्लेख प्राचीनतम कालसे पाये जाते हैं। पूजा पूज्य पुरुषकी की जाती है। पूज्य पुरुष मौजूद न हो तो उसकी मूर्ति बनाकर उसके द्वारा पूज्य पुरुषकी पूजा की जाती है। तदाकार स्थापनाका आशय भी यही है। इसलिए इतिहासातीत कालसे जैन मूर्तियाँ पायी जाती है और जैन मूर्तियों के निर्माण और उनकी पूजाके उल्लेखसे तो सम्पूर्ण जैन साहित्य भरा पड़ा है। जैन धर्ममें मूर्तियोंके दो प्रकार बतलाये गये हैं-कृत्रिम और अकृत्रिम । कृत्रिम प्रतिमाओंसे अकृत्रिम प्रतिमाओंकी संख्या असंख्य गुणी बतायी है । जिस प्रकार प्रतिमाएँ कृत्रिम और अकृत्रिम बतलायी हैं, उसी प्रकार चैत्यालय भी दो प्रकारके होते हैं-कृत्रिम और अकृत्रिम। . . ये चैत्यालय नन्दीश्वर द्वीप, सुमेरु, कुलाचल, वैताढ्य पर्वत, शाल्मली वृक्ष, जम्बू वृक्ष, वक्षारगिरि, चैत्य वृक्ष, रतिकरगिरि, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, मानुषोत्तर पर्वत, इष्वाकारगिरि, अंजनगिरि, दधिमुख पर्वत, व्यन्तरलोक, स्वर्गलोक, ज्योतिर्लोक और भवनवासियों के पाताललोकमें पाये जाते हैं । इनकी कुल संख्या ८५६९७४८१ बतलायी गयी है। इन अकृत्रिम चैत्यालयों में अकृत्रिम प्रतिमाएं विराजमान हैं। सौधर्मेन्द्रने युगके आदिमें अयोध्यामें पांच मन्दिर बनाये और उनमें अकृत्रिम प्रतिमाएं विराजमान की।
कृत्रिम प्रतिमाओंका जहां तक सम्बन्ध है, सर्वप्रथम भरत क्षेत्रके प्रथम चक्रवर्ती भरतने अयोध्या श्रीर कैलासमें मन्दिर बनवाकर उनमें स्वर्ण और रत्नोंकी मूर्तियां विराजमान करायीं । इनके अतिरिक्त जहाँपर बाहुबली स्वामीने एक वर्ष तक अचल प्रतिमायोग धारण किया था, उस स्थानपर उन्हींके आकारकी अर्थात् पाँच सौ पचीस धनुषकी प्रतिमा निर्मित करायी। ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि दूसरे तीर्थंकर अजितनाथके कालमें सगर चक्रवर्तीके पुत्रोंने तथा बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथके तीर्थमें मुनिराज वाली और प्रतिनारायण रावणने कैलास पर्वतपर इन बहत्तर जिनालयोंके तथा रामचन्द्र और सीताने बाहुबली स्वामी की उक्त प्रतिमाके दर्शन और पूजा की थी।
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पुरातात्त्विक दृष्टिसे जैन मूर्ति कलाका इतिहास सिन्धु सभ्यता तक पहुँचता है । सिन्धु घाटीकी खुदाई में मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पासे जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, उनमें मस्तकहीन नग्न मूर्ति तथा सीलपर अंकित ऋषभ जिनकी मूर्ति जैन धर्मसे सम्बन्ध रखती हैं । अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओंने यह स्वीकार कर लिया है कि कायोत्सर्गासन में आसीन योगी-प्रतिमा आद्य जैन तीर्थंकर ऋषभदेवकी प्रतिमा है ।
भारत में उपलब्ध जैन मूर्तियों में सम्भवतः सबसे प्राचीन जैन मूर्ति तेरापुरके लयणोंमें स्थित पार्श्वनाथकी प्रतिमाएँ हैं । इनका निर्माण पौराणिक आख्यानोंके अनुसार कलिंगनरेश करकण्डुने कराया था, जो पार्श्वनाथ और महावीर के अन्तरालमें हुआ था । यह काल ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी होता है ।
इसके बादकी मौर्यकालीन एक मस्तकहीन जिनमूर्ति पटनाके एक मुहल्ले लोहानीपुरसे मिली है । वहाँ एक जैन मन्दिरकी नींव भी मिली है । मूर्ति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। वैसे इस मूर्तिका हड़प्पासे प्राप्त नग्नमूर्ति के साथ अद्भुत साम्य है ।
ईसा पूर्व पहली दूसरी शताब्दी के कलिंगनरेश खारवेल के हाथी - गुम्फा शिलालेखसे प्रमाणित है कि कलिंग में सर्वमान्य एक 'कलिंग - जिन' की प्रतिमा थी, जिसे नन्दराज ( महापद्मनन्द ) ई. पूर्व. चौथी- पाँचवीं शताब्दी में कलिंगपर आक्रमण कर अपने साथ मगध ले गया था । और फिर जिसे खारवेल मगधपर आक्रमण करके वापस कलिंग ले आया था ।
इसके पश्चात् कुषाण काल ( ई. पू. प्रथम शताब्दी तथा ईसाकी प्रथम शताब्दी ) की और इसके बादकी तो अनेक मूर्तियां मथुरा, देवगढ़, पभोसा आदि स्थानोंपर मिली हैं ।
तीर्थ और मूर्तियों पर समयका प्रभाव
ये मूर्तियाँ केवल तीर्थ क्षेत्रोंपर ही नहीं मिलतीं, नगरोंमें भी मिलती हैं । तीर्थकरोंके कल्याणकस्थानों और सामान्य केवलियोंके केवलज्ञान और निर्वाण स्थानोंपर प्राचीन कालमें, ऐसा लगता है, उनकी मूर्तियां विराजमान नहीं होती थीं । तीर्थंकरोंके निर्वाण स्थानको सौधर्मेन्द्र अपने वज्रदण्डसे चिह्नित कर देता था । उस स्थानपर भक्त लोग चरण-चिह्न बनवा देते थे । तीर्थंकरोंके पाँच निर्वाण स्थान हैं। उनपर प्राचीन काल से अबतक चरण चिह्न ही बने हुए हैं और सब उन्हींकी पूजा करते हैं । शेष तीर्थ स्थानों पर प्राचीन कालमें चरण चिह्न रहे । किन्तु वहाँ मूर्तियाँ कबसे विराजमान की जाने लगीं, यह कहना कठिन है । इसका कारण यह है कि वर्तमान में किसी भी तीर्थपर कोई मन्दिर और मूर्ति अधिक प्राचीन नहीं है । भारतीय इतिहास की कुछ शताब्दियां जैनधर्म और जैन धर्मानुयायियों के लिए अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण रहीं, जबकि लाखों जैनोंको बलात् धर्म-परिवर्तन करना पड़ा, लाखोंको अपना मातृ-स्थान छोड़कर विस्थापित होना पड़ा और अपने अस्तित्वको रक्षा और निवासके लिए नये स्थान खोजने पड़े । ऐसे ही कालमें अनेक तीर्थक्षेत्रोंसे जैनोंका सम्पर्क टूट गया । वे क्षेत्र विरोधियोंके क्षेत्र में होनेके कारण वहाँकी यात्रा बन्द हो गयी । अनेक मन्दिरोंको विरोधियोंने तोड़ डाला, अनेक मन्दिरोंपर जैनेतरोंने अधिकार कर लिया । ऐसे ही कालमें जैन लोग अपने कई तीर्थों का वास्तविक स्थान भूल गये। फिर भी उन्होंने तीर्थ - भक्ति से प्रेरित होकर उन तीर्थोंकी नये स्थानोंपर उन्हीं नामोंसे, स्थापना और संरचना कर ली । कुछ जैन तीर्थोंका नवनिर्माण पिछली कुछ शताब्दियों में ही किया गया है । उनके मूल स्थानोंकी खोज होना अभी शेष है ।
तीर्थोंपर प्रायः चरणचिह्न ही रहते थे और उनके लिए एकाध मन्दिर बनाया जाता था । जब मन्दिरोंका महत्त्व बढ़ने लगा तो तीर्थोंपर भी अनेक मन्दिरोंका निर्माण होने लगा ।
तीर्थोंपर तीर्थंकरोंकी जो मूर्तियाँ निर्मित होती थीं उनका अध्ययन करनेसे हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि वे सभी नग्न वीतराग होती थीं। जितनी प्राचीन प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं, वे सभी नग्न हैं ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
सम्भवतः मथुरामें सर्वप्रथम ऐसी मूर्तियां उपलब्ध होती हैं, जिन प्रतिमाओंके चरणोंके पास वस्त्र खण्ड मिलता है । कडोरा या लंगोटसे चिह्नित प्रतिमाओंके निर्माणका काल तो गुप्तोत्तर युग माना जाता है और उस समय भी इस प्रकारकी प्रतिमाओंका निर्माण अपवाद ही माना जा सकता है ।
I
जब निर्ग्रन्थ जैन संघ में से फूटकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय निकला, तो उसे एक सम्प्रदाय के रूपमें व्यवस्थित रूप लेनेमें ही काफी समय लग गया । इतिहासकी दृष्टिसे इसे ईसाकी छठी शताब्दी माना गया इसके भी पर्याप्त समयके बाद वीतराग तीर्थंकर मूर्तियोंपर वस्त्रके चिह्नका अंकन किया गया। धीरे-धीरे यह विकार बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच गया कि जिन-मूर्तियाँ वस्त्रालंकारोंसे आच्छादित होने लगीं और उनकी वीतरागता इस परिग्रहके आडम्बर में दब गयी । किन्तु दिगम्बर परम्परामें भगवान् तीर्थकरके वीतराग रूपकी रक्षा अबतक अक्षुण्ण रूपसे चली आ रही है ।
तीर्थ क्षेत्रों में प्राचीन कालसे स्तूप, आयागपट्ट, धर्मचक्र, अष्ट प्रातिहार्य युक्त तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण होता था और वे जैन कलाके अप्रतिम अंग माने जाते थे। किन्तु ११वीं - १२वीं शताब्दियों के बादसे तो प्रायः इनका निर्माण समाप्त-सा हो गया । इस बीसवीं शताब्दी में आकर मूर्ति और मन्दिरोंका निर्माण संख्याकी दृष्टिसे तो बहुत हुआ है किन्तु अब तीर्थंकर मूर्तियाँ एकाकी बनती हैं, उनमें न अष्ट प्रातिहार्य की संयोजना होती है, न उनका कोई परिकर होता है । उनमें भावाभिव्यंजना और सौन्दर्यका अंकन सजीव होता है । पूजाकी विधि और उसका क्रमिक विकास
श्रावक के दैनिक आवश्यक कर्मोंमें आचार्य कुन्दकुन्दने प्राभृतमें तथा वरांगचरित और हरिवंश पुराण में दान, पूजा, तप और शील ये चार कर्म बतलाये हैं । भगवज्जिनसेनने इसको अधिक व्यापक बनाकर पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तपको श्रावकके आवश्यक कर्म बतलाये । सोमदेव और पद्मनन्दिने देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षडावश्यक कर्म बतलाये ।
इन सभी आचार्योंने देव पूजाको श्रावकका प्रथम आवश्यक कर्तव्य बताया है। परमात्म प्रकाश ( १६८ ) में तो यहाँ तक कहा गया है कि " तूने न तो मुनिराजोंको दान ही किया, न जिन भगवान्की पूजा ही की, न पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार किया, तब तुझे मोक्षका लाभ कैसे होगा ?" इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान्की पूजा श्रावकको अवश्य करनी चाहिए। भगवान्की पूजा मोक्ष प्राप्तिका एक उपाय है।
आदि-पुराण - पर्व ३८ में पूजाके चार भेद बताये हैं— नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूजा और अष्टाह्निकपूजा । अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह ( पूजा ) कहलाता है । मन्दिर और मूर्तिका निर्माण करना, मुनियोंकी पूजा करना भी नित्यमह कहलाता है । मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा की गयी पूजा चतुर्मुख पूजा कहलाती है । चक्रवर्ती द्वारा की जानेवाली पूजा कल्पद्रुम पूजा होती है । और अष्टाह्निकामें नन्दीश्वर द्वीपमें देवों द्वारा की जानेवाली पूजा अष्टाक पूजा कहलाती है ।
पूजा अष्टद्रव्य से की जाती है - जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल । इस प्रकार के उल्लेख प्रायः सभी आर्ष ग्रन्थोंमें मिलते हैं । तिलोयपण्णत्ति (पंचम अधिकार, गाथा १०२ से १११ ) में नन्दीश्वर द्वीपमें अष्टाह्निकामें देवों द्वारा भक्तिपूर्वक की जानेवाली पूजाका वर्णन है । उसमें अष्टद्रव्योंका वर्णन आया है | धवला टीकामें भी ऐसा ही वर्णन है । आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण ( पर्व १७, श्लोक २५२ ) में भरत द्वारा तथा पर्व २३, श्लोक १०६ में इन्द्रों द्वारा भगवान् की पूजाके प्रसंग में अष्टद्रव्यों का वर्णन आया है ।
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प्राक्कथन
पूजन विधि प्रसंग में समाज में कुछ मान्यता - भेद | अष्टद्रव्यों के नामोंके सम्बन्धमें कोई मत है । केवल मतभेद है सचित्त और अवित्त ( प्रासुक ) सामग्री के बारेमें । एक वर्गकी मान्यता है कि द्रव्यों में जो नाम हैं, पजनमें वे ही वस्तु चढ़नी चाहिए। इसके विपरीत दूसरी मान्यता है कि सचित्त वस्तु जीव होते हैं, उनकी हिंसाकी सम्भावनासे बचने के लिए प्रासुक वस्तुओंका ही व्यवहार उचित है ।
मतभेदका दूसरा मुद्दा है - भगवान्पर केशर चर्चित करनेका । इसके पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि अष्टद्रव्यों में दूसरा द्रव्य चन्दन या गन्ध है । उसका एक मात्र प्रयोजन है भगवान्पर गन्ध विलेपन करना । दूसरा पक्ष इस बातको भगवान् वीतराग प्रभुकी वीतरागताके विरुद्ध मानता है और गन्धलेपको परिग्रह स्वीकार करता है ।
पूजनके सम्बन्धमें तीसरा विवाद इस बातको लेकर है कि पूजन बैठकर किया जाये या खड़े होकर । चौथा विवादास्पद विषय है भगवान्का पंचामृताभिषेक अर्थात् घृत, दूध, दही, इक्षुरस और जल । पाँचवाँ मान्यता-भेद है स्त्रियों द्वारा भगवान्का प्रक्षाल ।
इन मान्यता-भेदों के पक्ष-विपक्ष में पड़े बिना हमारा विनम्र मत है कि भगवान्का पूजन भगवान् के प्रति अपनी विनम्र भक्तिका प्रदर्शन है । यह कषायको कृश करने, मनको अशुभसे रोककर शुभमें प्रवृत्त करने और आत्म-शान्ति प्राप्त करनेका साधन है । साधनको साधन मानें, उसे साध्य न बना लें तो मान्यता-भेदका प्रभाव कम हो जाता है । शास्त्रोंको टटोलें तो इस या उस पक्षका समर्थन शास्त्रों में मिल जायेगा । जिस आचार्यने जिस पक्षको युक्तियुक्त समझा, उन्होंने अपने ग्रन्थ में वैसा ही कथन कर दिया। उन्हें न किसी पक्षका आग्रह था और न किसी दूसरे पक्षके प्रति द्वेष भाव ।
हमें लगता है, अपने पक्षके प्रति दुराग्रह और दूसरे पक्ष के प्रति आक्रोश और द्वेष-बुद्धि, यह कषायमें-से उपजता है । इसमें सन्देह नहीं कि सचित्त फलों और नैवेद्य ( मिष्टान्न आदि ) का वर्णन तिलोय पण्णत्ति में नन्दीश्वर द्वीपमें देवताओंके पूजन प्रसंग में मिलता है, अन्य शास्त्रोंमें भी मिलता है । किन्तु हमारी विनम्र मान्यतामें जब शुद्धाशुद्धि और हिंसा आदिका विशेष विवेक नहीं रहा, उस काल और क्षेत्रमें सुधारवादी प्रवृत्ति चली और इसपर बल दिया गया कि जो भी वस्तु भगवान् के आगे अर्पण की जाये, वह शुद्ध हो, प्रासुक हो, सूखी हो, जिसमें हिंसाकी सम्भावनासे बचा जा सके । यही बात गन्ध - विलेपन और पंचामृताभिषेक के सम्बन्ध है ।
धर्म और पुण्य कार्यको कषायका साधन न बनावें । मनकी चंचलता, मनके संकल्प-विकल्पसे दूर होकर आप भगवान् के गुणोंके संकीर्तन चिन्तन और अनुभव में अपने आपको जिस उपायसे, जिस विधि से केन्द्रित करें वही विधि आपके लिए उपादेय है । दूसरा व्यक्ति क्या करता है, क्या विधि अपनाता है, और उस विधि में क्या त्रुटि है, आप इसपर अपने उपयोगको केन्द्रित न करके यह आत्म-निरीक्षण करें कि मेरा मन भगवान् के गुणों में आत्मसात् क्यों नहीं हुआ, मेरी कहाँ त्रुटि रह गयी, तब फिर क्या मतभेद मन-भेद बन सकते हैं ? तीन सौ तिरेसठ विरोधी मतोंके विविध रंगी फूलोंसे स्याद्वादका सुन्दर गुलदस्ता बनानेवाला जैन धर्म एक ही वीतराग जिनेन्द्र भगवान्के भक्तोंको विविध प्रकारकी पूजन-विधियों के प्रति अनुदार और असहिष्णु बनकर उनकी मीमांसा करता फिरेगा ? और क्या जिनेन्द्र प्रभुका कोई भक्त कषायको कृश करने की भावनासे जिनेन्द्र प्रभुके समक्ष यह दावा लेकर जायेगा कि जिस विधिसे मैं प्रभुकी पूजा करता हूँ, वही विधि सबके लिए उपादेय है ? नहीं, बिलकुल नहीं। हमारे अज्ञान और कुज्ञानमें से दम्भ घूरता है और दम्भ अर्थात् मदमें से स्वके प्रति राग और परके प्रति द्वेष निपजता है । यह सम्यक् मार्ग नहीं है, यह मिथ्या मार्ग है । [३]
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
तीर्थ-यात्राका समय
यों तो तीर्थ यात्रा कभी भी की जा सकती है। जब भी यात्रा की जाये, पुण्य-संचय ही होगा। किन्तु अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देखकर यात्रा करना अधिक उपयोगी रहता है। द्रव्यकी सुविधा होनेपर यात्रा करना अधिक फलदायक होता है। यदि यात्राके लिए द्रव्यकी अनुकूलता न हो, द्रव्यका कष्ट हो और यात्राके निमित्त कर्ज लिया जाये तो उससे यात्रा में निश्चिन्तता नहीं आ पाती, संकल्प-विकल्प बने रहते हैं । किस या किन क्षेत्रोंकी यात्रा करनी है, वे क्षेत्र पर्वतपर स्थित हैं, जंगलमें हैं, शहरमें हैं अथवा सुदूर देहाती अंचलमें हैं । वहाँ जानेके लिए रेल, बस, नाव, रिक्शा-तांगा या पैदल किस प्रकारको यातायातकी सुविधा है, यह जानकारी यात्रा करनेसे पूर्व कर लेना आवश्यक है। इसके साथ-साथ कालकी अनुकूलता भी आवश्यक है। जैसे सम्मेदशिखरकी यात्रा तीव्र ग्रीष्म ऋतुमें अथवा वर्षा ऋतुमें करनेसे बड़ी कठिनाई उठानी पड़ती है । उत्तराखण्डके तीर्थोंके लिए वर्षा ऋतु अथवा सर्दीकी ऋतु अनुकूल नहीं है। उसके लिए ग्रीष्म ऋतु ही उपयुक्त है । कई तीर्थोपर नदियों में बाढ़ आनेपर यात्रा नहीं हो सकती। कुछ तीर्थोंको छोड़कर उदाहरणतः उत्तराखण्डके तीर्थ-शेष तीर्थोंकी यात्राका सर्वोत्तम अनुकूल समय अक्टूबरसे लेकर मार्च तकका है । इसमें मौसम प्रायः साफ रहता है, बाढ़ आदिका प्रकोप समाप्त हो चुकता है, ठण्डे दिन होते हैं । गर्मीकी बाधा नहीं रहती। शरीर में स्फूति रहती है। यह मौसम पर्वतीय और मैदानी, शहरी और देहाती सभी प्रकारके तीर्थोंकी यात्राके लिए अनुकूल है। भावोंकी अनुकूलता यह है कि यात्रापर जानेके पश्चात् अपने भावोंको भगवान्की भक्ति-पूजा, स्तुति, स्तोत्र, जाप, कीर्तन, धर्म-चचों, स्वाध्याय और आत्मध्यान लगाना चाहिए । अन्य सांसारिक कथाएँ, राजनीतिक चर्चाएँ नहीं करनी चाहिए। तीर्थ यात्राका अधिकार
तीर्थ-यात्राका उद्देश्य, जैसा कि हम निवेदन कर आये हैं, पापोंसे मुक्ति और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करना है। जो भी व्यक्ति इन उद्देश्योंसे तीर्थ-यात्रा करना चाहता है, वह कर सकता है। उसके लिए मुख्य शतं है जिनेन्द्र प्रभुके प्रति भक्ति । जो प्रदर्शनके लिए ही तीर्थोपर जाना चाहते हैं, उनके लिए अधिकारका प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु जो विनय और भक्तिके साथ, वहाँके नियमोंका आदर करते हुए तीर्थवन्दनाको जाना चाहें, वे वहां जा सकते हैं। तीर्थ-यात्रा अधिकारका प्रश्न न होकर कर्तव्यका प्रश्न है। जो कर्तव्यको अपना अधिकार मानते हैं, उनके लिए अधिकारका कोई प्रश्न नहीं उठता। किन्तु जो अधिकारको ही अपना कर्तव्य बना लेते हैं, उनका उद्देश्य तीर्थ-वन्दना नहीं होता, बल्कि उस तीर्थकी व्यवस्थापर अपना अधिकार करना होता है। तीर्थ तीर्थंकरों या केवलियोंके स्मारक हैं। उनकी उपदेश-सभामें सब जाते थेमनुष्य, देव, पशु-पक्षी तक । उनके पावन स्मारकस्वरूप तीर्थोंमें सब जायें, मनुष्य मात्र जायें, सभी तीर्थव्यवस्थापकोंकी यह हार्दिक कामना होती है। किन्तु उनकी इस सदिच्छाका दुरुपयोग करके कुछ लोग उस तीर्थपर ही अधिकार जताने लगें तो यह प्रश्न यात्राका न रहकर व्यवस्थाके स्वामित्वका बन जाता है । जहाँ प्राणीके कल्याण और विश्व-मैत्रीका घोष उठा था, वहाँ यदि कषायके निर्घोष गंजने लगें तो फिर तीर्थों की पावनता कैसे बनी रह सकती है और तीर्थोके वातावरणमें-से पावनताका वह स्वर मन्द पड़ जाये तो तीर्थों का माहात्म्य और उनका अतिशय कैसे बना रह सकता है। आज तीर्थोंपर वैसा अतिशय नहीं दीख पड़ता, जैसा मध्यकाल तक था। और उसके जिम्मेदार हैं वे लोग, जो योजनानुसार आये दिन तीर्थक्षेत्रोंके उन्मुक्त वीतराग वातावरणमें कषायका विषैला धुआँ छोड़कर वहाँ घुटन पैदा किया करते हैं। प्राचीन कालमें तीर्थ-यात्रा
प्राचीन कालमें तीर्थ यात्रा कैसे होती थी, इसके लिए कुछ उल्लेख शास्त्रोंमें मिलते हैं अथवा उनके यात्रा-विवरण उपलब्ध होते हैं । उनसे ज्ञात होता है कि पूर्वकालमें यात्रा-संघ निकलते थे। संघका एक संचा
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प्राक्कथन
लक होता था, जो संघका व्यय उठाता था। संघमें विविध वाहन होते थे-हाथी, घोड़े, रथ, गाड़ी आदि । संघके साथ मुनि भी जाते थे। उस समय यात्रामें कई-कई माह लग जाते थे। महाराज अरविन्द जब मुनि बन गये और जब वे एक बार एक संघके साथ सम्मेद-शिखरकी यात्राके लिए जा रहे थे, अचानक एक जंगली हाथी आक्रमणके उद्देश्यसे उनपर आ झपटा । अरविन्द अवधि-ज्ञानी थे । उन्होंने जाना कि यह तो मेरे मन्त्री मरुभूतिका जीव है । अतः उन्होंने उस हाथीको सम्बोधित करके उपदेश दिया। हाथीने अणुव्रत धारण कर लिये और प्रासुक जल और सूखे पत्तोंपर निर्वाह करने लगा। वही जीव बादमें पार्श्वनाथ तीर्थंकर बना। इस प्रकारका कथन पौराणिक साहित्यमें मिलता है।
भैया भगवतीदास कृत 'अर्गलपुर जिन-वन्दना' नामक स्तोत्र है। उससे ज्ञात होता है कि रामपुरके श्रावकोंके साथ भैया भगवतीदास यात्रा करते हए अर्गलपुर (आगरा) आये थे। उन्होंने अपने स्तोत्रमें आगराके तत्कालीन जैम मन्दिरोंका परिचय दिया है। इससे यह भी पता चलता है कि उस समय जैन समाजमें कितना अधिक साधर्मी वात्सल्य था। तब यात्रा संघके लोग किसी मन्दिरमें दर्शनार्थ जाते थे तो उस मुहल्लेके जैन बन्धु संघके लोगोंको देखकर बड़े प्रसन्न होते थे और उनका भोजन, पानसे सत्कार करते थे। दुख है कि वर्तमानमें साधर्मी वात्सल्य नहीं रहा और न यात्रा-संघोंके स्वागत-सत्कारका ही वह रूप रहा ।
यात्रा संघोंके अनेक उल्लेख विभिन्न ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों आदिमें भी मिलते हैं। तीर्थ-यात्रा कैसे करें ?
वर्तमानमें यातायातके साधनोंकी बहुलता और सुलभताके कारण यात्रा करना पहले-जैसा न तो कष्टसाध्य रहा है और न अधिक समय-साध्य । यात्रा-संघोंमें यात्रा करनेके पक्ष-विपक्षमें तर्क दिये जा सकते हैं। किन्तु एकाकीकी अपेक्षा यात्रा-संघोंके साथ यात्रा करनेका सबसे बड़ा लाभ यह है कि अनेक परिचित साथियों के साथ यात्राके कष्ट कम अनुभव होते हैं, समय पूजन, दर्शन, शास्त्र-चर्चा आदिमें निकल जाता है; व्यय भी कम पड़ता है। रेलकी अपेक्षा मोटर बसों द्वारा यात्रा करने में कुछ सुविधा रहती है।
जब यात्रा करनेका निश्चय कर लें तो उसी समयसे अपना मन भगवान्की भक्तिमें लगाना चाहिए और जिस समय घरसे रवाना हों, उसी समयसे घर-गृहस्थीका मोह छोड़ देना चाहिए, व्यापारको चिन्ता छोड़ देनी लाहिए तथा अन्य सांसारिक प्रपंचोंसे मुक्त हो जाना चाहिए।
___ यात्रामें सामान यथसम्भव कम ही रखना चाहिए किन्तु आवश्यक वस्तुएँ नहीं छोड़नी चाहिए। उदाहरणके रूप में यदि सर्दी में यात्रा करनी हो तो ओढवे-बिछानेके रुईवाले कपड़े (गद्दा और रजाई) तथा पहननेके गर्म कपड़े अवश्य अपने साथमें रखने चाहिए। विशेषतः गुजरात, मद्रास आदि प्रान्तोंके यात्रियोंको उत्तर प्रदेश, बिहार आदि प्रदेशोंके तीर्थोकी यात्रा करते समय इस बातको ध्यानमें रखना चाहिए। कपड़ोंके अलावा स्टोव, आवश्यक बरतन और कुछ दिनोंके लिए दाल, मसाला, आटा आदि भी साथमें ले जाना चाहिए।
मैदानी इलाकोंके तीर्थोकी यात्रा किसी भी मौसममें की जा सकती है। जिन दिनों अधिक गर्मी पड़ती और वर्षा होती है, उन्हें बचाना चाहिए-जिससे असुविधा अधिक न हो।
तीर्थक्षेत्रपर पहुँचनेपर यह ध्यान रखना चाहिए कि तीर्थक्षेत्र पवित्र होते हैं। उनकी पवित्रताको किसी प्रकार आन्तरिक और बाह्य रूपसे क्षति नहीं पहुँचनी चाहिए। ज्ञानार्णवमें आचार्य शुभचन्द्रने कहा है
"जनसंसर्गवाचित्तपरिस्पन्दमनोभ्रमाः। उत्तरोत्तरबीजानि ज्ञानिजनमतस्त्यजेत् ॥" अर्थात् अधिक मनुष्योंका जहाँ संसर्ग होता है, वहां मन और वाणी में चंचलता आ जाती है और मनमें विभ्रम उत्पन्न हो जाते हैं । यही सारे अनर्थोकी जड़ है। अतः ज्ञानी पुरुषोंको अधिक जन-संसर्ग छोड़ देना चाहिए ।
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भारतके दिगम्बर जैन तोयं
यदि शास्त्र-प्रवचन, तत्त्व-चर्चा, प्रभु-पूजन, कीर्तन, सामायिक प्रतिक्रमण या विधान प्रतिष्ठोत्सव आदि धार्मिक प्रसंग हों तो जन-संसर्ग अनर्थका कारण नहीं है, क्योंकि वहीं सभीका एक ही उद्देश्य होता है और वह है - धर्म - साधना । किन्तु जहाँ जनसमूहका उद्देश्य धर्म-साधना न होकर सांसारिक प्रयोजन हो, यहाँ जन-संसर्ग संसार-परम्पराका ही कारण होता है ।
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तीर्थ क्षेत्रों पर जो जनसमूह एकत्रित होता है, उसका उद्देश्य धर्म साधन होता है । यदि उस समूहमें कुछ तत्त्व ऐसे हों जो सांसारिक चर्चाओं और अशुभ रागवर्द्धक कार्योंमें रस लेते हों तो तीर्थोपर जाकर ऐसे तत्त्वोंके सम्पर्कसे यथासम्भव बचनेका प्रयत्न करना चाहिए तथा अपने चित्तको शान्ति और शुद्धि बढ़ानेका ही उपाय करना चाहिए । यही आन्तरिक शुद्धि कहलाती है ।
शुचिता का प्रयोजन बाहरी शुद्धि है। तीर्थक्षेत्रोंपर जाकर गन्दगी नहीं करनी चाहिए। मल`मूत्र यथास्थान ही करना चाहिए। बच्चों को भी यथास्थान ही बैठाना चाहिए। दीवालोंपर अश्लील वाक्य नहीं लिखने चाहिए। कूड़ा, राख यथास्थान डालना चाहिए। रसोई यथास्थान करनी चाहिए। सारांश यह है कि तीर्थोंपर बाहरी सफाईका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
. स्त्रियोंको एक बातका विशेष ध्यान रखना चाहिए । मासिक धर्मके समय उन्हें मन्दिर, धर्म सभा, शास्त्र - प्रवचन, प्रतिष्ठा मण्डप आदिमें नहीं जाना चाहिए। कई बार इससे बड़े अनर्थ और उपद्रव हो जाते हैं ।
जब तीर्थ क्षेत्र के दर्शनके लिए जायें, तब स्वच्छ धुला हुआ ( सफेद या केशरिया ) धोती- दुपट्टा पहनकर और सामग्री लेकर जाना चाहिए। जहाँ तक हो, पूजनकी सामग्री घरसे ले जाना चाहिए। यदि मन्दिर • की सामग्री लें तो उसकी न्यौछावर अवश्य दे देनी चाहिए । जहाँसे मन्दिरका शिखर या मन्दिर दिखाई देने लगे, वहींसे 'दृष्टाष्टक' अथवा कोई स्तोत्र बोलते जाना चाहिए। क्षेत्रके ऊपर यात्रा करते समय या तो स्तोत्र पढ़ते जाना चाहिए अथवा अन्य लोगोंके साथ धर्म-वार्ता और धर्म चर्चा करते जाना चाहिए ।
क्षेत्रपर और मन्दिर में विनयका पूरा ध्यान रखना चाहिए। सामग्री यथास्थान सावधानीपूर्वक चढ़ानी चाहिए। उसे जमीन में, पैरोंमें नहीं गिरानी चाहिए। गन्धोदक भूमिपर न गिरे, इसका ध्यान रखना आवश्यक है । गन्धोदक कटि भागसे नीचे नहीं लगाना चाहिए। पूजनके समय सिरको ढकना और केशरका तिलक लगाना आवश्यक है ।
जिस तीर्थपर जायें और जिस मूर्ति के दर्शन करें, उसके बारेमें पहले जानकारी कर लेना जरूरी है । इससे दर्शनों में मन लगता है और मनमें प्रेरणा और उल्लास जागृत होता है ।
तीर्थ-यात्रा के समय चमड़ेकी कोई वस्तु नहीं ले जानी चाहिए। जैसे— सूटकेस, बिस्तरबन्द, जूते, बैल्ट, घड़ीका फीता, पर्स आदि ।
अन्तमें एक निवेदन और है । भगवान् के समक्ष जाकर कोई मनौती नहीं मनानी चाहिए, कोई कामना लेकर नहीं जाना चाहिए । निष्काम भक्ति सभी संकटोंको दूर करती है । स्मरण रखना चाहिए कि भगवान्से सांसारिक प्रयोजन के लिए कामना भक्ति नहीं, निदान होता है । भक्ति निष्काम होती है, निदान सकाम होता है । निदान मिध्यात्व कहलाता है और मिथ्यात्व संसार और दुखका मूल है ।
विषापहार स्तोत्र में कवि धनंजयने भगवान् के समक्ष कामना प्रकट करनेवालोंको आँखोंमें उँगली डालकर उन्हें जगाते हुए कितने सुन्दर शब्दोंमें कहा है
इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद् वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातरुं संश्रयतः स्वतः स्यात् कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥
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प्राक्कथन
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अर्थात् हे देव ! स्तुति कर चुकनेपर मैं आपसे कोई वरदान नहीं मांगता। मांगूं क्या, आप तो वीतराग हैं। और मांगें भी क्यों ? कोई समझदार व्यक्ति छायावाले पेड़के नीचे बैठकर पेड़से छाया थोड़े ही मांगता है । वह तो स्वयं बिना मांगे ही मिल जाती है। ऐसे ही भगवान्की शरणमें जाकर उनसे किसी बातको कामना क्या करना । वहां जाकर सभी कामनाओं की पूर्ति स्वतः हो जाती है।
तीर्थ-ग्रन्थकी परिकल्पना भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी बम्बईकी बहुत समयसे इच्छा और योजना थी कि समस्त दिगम्बर जैन तीर्थों का प्रामाणिक परिचय एवं इतिहास तैयार कराया जाये। सन् १९५७-५८ में तीर्थक्षेत्र कमेटीके सहयोगसे मैंने लगभग पांच सौ पृष्ठकी सामग्री तैयार भी की थी और समय-समयपर उसे तीर्थ-क्षेत्र कमेटी के कार्यालयमें भेजता भी रहता था। किन्तु उस समय उस सामग्रीका कुछ उपयोग नहीं हो सका।
सन् १९७० में भगवान् महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सवके उपलक्ष्यमें भारतवर्षके सम्पूर्ण दिगम्बर जैन तीर्थोके इतिहास. परम्परा और परिचय सम्बन्धी ग्रन्थके निर्माणका पुनः निश्चय किया गया। यह भी निर्णय हुआ कि यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठके तत्त्वावधान में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बईकी ओरसे प्रकाशित किया जाये। भगवान महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सवकी अखिल भारतीय दिगम्बर जैन समितिके मान्य अध्यक्ष श्रीमान साह शान्तिप्रसादजीने, जो तीर्थक्षेत्र कमेटीके भी तत्कालीन अध्यक्ष थे, मुझे इस ग्रन्थके लेखन-कार्यका दायित्व लेने के लिए प्रेरित किया और मैंने भी उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।
प्रस्तुत भाग ३ की संयोजना प्रस्तुत भाग ३ मध्यप्रदेशके तीर्थक्षेत्रोंसे सम्बन्धित है। इसकी रूपरेखा और सामग्रीकी संयोजना निम्नप्रकार की गयी है(अ) सुविधाके लिए मध्यप्रदेश निम्नलिखित प्राचीन जनपदोंमें विभाजित किया गया है
(१) चेदि जनपद, (२) सुकोशल जनपद, (३) दशार्ण-विदर्भ जनपद और (४) मालव-अवन्ती
जनपद। (आ) इन जनपदोंमें मध्यप्रदेशके जैन तीर्थों का विभाजन इस प्रकार किया गया है
(१) चेदि जनपद सिहौनिया, ग्वालियर, मनहरदेव, सोनागिरि, पनिहार-बरई, खनियाधाना, गोलाकोट, पचराई, बजरंगढ़, थूबीन, चन्देरी, खन्दार, गुरीलागिरि, बूढ़ी-चन्देरी, आमनचार, भियादांत, बीठला, भामोन, पपौरा, अहार, बन्धा, खजुराहो, द्रोणगिरि, रेशन्दीगिरि, पजनारी, बीना-बारहा, पटनागंज, अजयगढ़, कारीतलाई और पतियानदाई। (२) सुकोशल जनपद कुण्डलपुर, लखनादौन, मढ़िया, त्रिपुरी, बरहठा, कोनी, पनागर और बहोरीबन्द । (३) दशार्ण-विदर्भ जनपद उदयगिरि, पठारी, उदयपुर और ग्यारसपुर । (४) मालव-अवन्ती जनपद मक्सी पार्श्वनाथ, उज्जयिनी, बदनावर, गन्धर्वपुरी, चूलगिरि, तालनपुर, पावागिरि, सिद्धवरकूट, बनड़िया।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ (इ) परिशिष्ट-१
मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थोंका संक्षिप्त परिचय और उनका यात्रा मार्ग। इस भागके नक्शे भी इसीके अनुसार तैयार कराये गये हैं-सम्पूर्ण मध्यप्रदेशके तीर्थोंका एक तथा चार जनपदोंके तीथोंके चार नक्शे । ग्रन्यके अन्त में अधिकांश तीर्थक्षेत्रोंके मुख्य मन्दिरों, मूलनायक अथवा अतिशय सम्पन्न प्रतिमाओं और कलात्मक एवं पुरातात्त्विक महत्त्वके शिखरों, मूर्तियों और अन्य कला सामग्रीके चित्र दिये गये हैं।
आभार-प्रदर्शन किसी ग्रन्थके प्रणयन, उसकी साज-सज्जा और उसके लिए आवश्यक सुविधाएँ जुटाने में अनेक सहयोगी और कृपालु सज्जनोंका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग, परामर्श, आशीर्वाद और शुभेच्छाएँ काम करती है। यह प्रकाशन भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बईका है और इसका समस्त व्यय-भार उसीने वहन किया है। अतः मैं तीर्थक्षेत्र कमेटीका हृदयसे आभारी हैं। इस ग्रन्थके संयोजन, निर्देशन तथा प्रकाशनकी सारी व्यवस्था भारतको प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था भारतीय ज्ञानपीठकी ओरसे हुई है । अतः मैं उसके अध्यक्ष ख्यातनामा साहू शान्तिप्रसादजी और सुयोग्य मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द्रजीका भी अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे ग्रन्थ-निर्माणके लिए सभी आवश्यक सुविधाएं प्रदान की। इस अवसरपर ज्ञानपीठकी दिवंगत अध्यक्षा माननीया रमा रानीजीको स्मृतिसे मेरे मनःप्राण भावाभिभूत हो उठे हैं । यदि वे आज जीवित होती तो इस ग्रन्थको देखकर उन्हें कितना आह्लाद और सन्तोष होता। मैं उनके प्रति अपनी विनत श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
मैं सभी तीर्थक्षेत्रोंके मन्त्रियों और व्यवस्थापकोंके प्रति भी अपना आभार व्यक्त किये बिना नहीं रह सकता । मैं जिस क्षेत्रपर भी गया, वहाँ उन्होंने उस क्षेत्रकी आवश्यक जानकारी दी, मूर्तियों आदिका माप, चित्र और विवरण लेने के लिए आवश्यक सुविधाएं प्रदान की।
अन्तमें मैं भारतीय ज्ञानपीठमें कार्यरत अपने मित्र डॉ. गुलाबचन्द्रजीके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिन्होंने भाषा आदिकी दृष्टिसे पाण्डुलिपिमें संशोधन-सम्पादन कर उसकी प्रेस कापी तैयार की, नक्शे तैयार कराये तथा चित्र-चयन करने आदि कार्यों में मुझे अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया।
माघ कृष्णा चतुर्दशी (ऋषभदेव-निर्वाण-दिवस) दिनांक : ३० जनवरी १९७६
-बलभद्र जैन
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अनुक्रम
मध्यप्रदेश : पृष्ठभूमि और कला
३-२८
चेदि जनपद
२९-१८८ सिहौनिया, ग्वालियर, मनहरदेव, सोनागिरि, पनिहार-बरई, खनियाधाना और उसके निकटवर्ती क्षेत्र, बजरंगढ़, थूबौन, चन्देरी, खन्दारगिरि, गुरीलागिरि, बूढ़ी चन्देरी, आमनचार, भामौन, भियादाँत, बीठला, पपौरा, अहार, बन्धा, खजुराहो, द्रोणगिरि, रेशन्दीगिरि (नैनागिरि), पजनारी, बीना-बारहा, पटनागंज, अजयगढ़, कारीतलाई, पतियानदाई ।
१८९-२३०
सुकोशल जनपद
कुण्डलपुर, लखनादौन, मढ़िया, त्रिपुरी, बरहटा, कोनीजी, पनागर, बहोरीबन्द ।
२३१-२४४
दशाणं-विदर्भ जनपद
उदयगिरि, उदयपुर, पठारी, ग्यारसपुर ।
मालव-अवन्ती जनपद
२४५-३२७ मक्सी पार्श्वनाथ, उज्जयिनी, बदनावर, गन्धर्वपुरी, चूलगिरि, तालनपुर, पावागिरि, सिद्धवरकूट, बनैड़िया।
३२९-३४१
परिशिष्ट-१
मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थों का संक्षिप्त परिचय और उनका यात्रा-मार्ग ।
३४३-३४४
सन्दर्भ ग्रन्थसूची चित्र सूची
३४५-३४६
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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मध्यप्रदेश : पृष्ठभूमि और कला
मध्यप्रदेश : स्थिति
मध्यप्रदेश भारतके मध्यमें अवस्थित है। स्वतन्त्रता प्राप्तिसे पूर्व यह प्रदेश अनेक छोटीबड़ी रियासतोंमें बँटा हुआ था। किन्तु स्वतन्त्रताके पश्चात् रियासतोंका भारतमें विलीनीकरण हुआ और यह प्रदेश मध्यप्रदेश, विन्ध्यप्रदेश और मध्यभारत इन तीन प्रदेशोंके रूपमें उभरा। यह प्रयोग अधिक समय तक नहीं चल पाया। इस प्रयोगमें जनताकी आकांक्षाओंके पूर्ण करनेकी क्षमता नहीं थी, अपेक्षित प्रगति भी नहीं हुई थी। अतः इन तीनों प्रदेशोंका एकीकरण करके 'मध्यप्रदेश के नामसे केवल एक प्रदेश बना दिया गया। क्षेत्रफलकी दृष्टिसे यह भारतका सबसे बड़ा प्रदेश है । इसके भालपर विन्ध्याचल और सतपुड़ाका हिम-किरीट सुशोभित है। इसके आंचलको बेतवा, नर्मदा, कावेरी आदि नदियाँ पखारती हैं।
प्राचीन जनपद-भगवज्जिनसेनके 'आदिपुराण के अनुसार भगवान् ऋषभदेवकी आज्ञासे इन्द्रने भारतको ५२ जनपदोंमें विभाजित किया था। उनके नाम इस प्रकार हैं
सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दर्शार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल,
, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कोशल, चोल, केरल, दोरु, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, वाह्लीक, तुरुष्क, शक और केकय ।
इन जनपदोंमें निम्नलिखित जनपद मध्यप्रदेश में स्थित थेसुकोशल, अवन्ती, मालव, दशार्ण और चेदि।
सुकोशल-इसकी सीमाएं इस प्रकार बतायी गयी हैं'-उत्तरमें अमरकण्टकमें नर्मदाके मुहानेसे दक्षिणमें महानदी तक तथा पश्चिममें वानगंगासे लेकर पूर्वमें हरदा और जोंक नदियों तकका सम्पूर्ण भूभाग। इसमें वर्तमान छत्तीसगढ़ और रायपुरके जिले भी सम्मिलित थे। यह कलचुरि नरेशोंका शासित प्रदेश था।
___ अवन्ती-मालवाका प्राचीनतम नाम (कथासरित्सागर, अ. १९)। इस प्रदेशको राजधानी उज्जयिनी थी। (अनर्घराघव, अंक ७)। गोविन्द-सुत्त (दीघ-निकाय) के अनुसार माहिष्मती इसकी राजधानी थी। अवन्तीको ही सातवीं-आठवीं शताब्दीसे मालवा कहने लगे (Rhys David's Buddhist India, p. 28)
8. The Geographical Dictionary of Ancient & Mediaevel India
by Nundolal Dey. २. Tivara Deva's Inscription, found at Rajim in Asiatic Researches xV, 508.
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मालव १-विक्रमादित्य आदिके कालमें इसकी राजधानी उज्जयिनी थी। राजा भोजके कालमें इसकी राजधानी धारा नगरी हो गयी। सातवीं-आठवीं शताब्दीसे पहले मालवको अवन्ती कहते थे।
२-मालव या मल्लोंका देश, जिसकी राजधानी मुलतान थी। 'हर्षचरित' में वर्णितमालवराज सम्भवतः मुलतानके मल्लोंका राजा था।
दशाण-महाभारतमें दशाणं नामके दो देशोंका उल्लेख मिलता है-एक पश्चिमकी ओर, जिसे नकुलने जीता था ( सभा पवं, अ. ३२) । दूसरा पूर्व में, जिसे भीमने जीता था ( सभा पर्व, अ. ३०) । पश्चिम दशाणमें पूर्वी मालवा तथा भोपाल सम्मिलित थे। इसकी राजधानी विदिशा थी। अशोकके कालमें इसकी राजधानी चैत्यगिरि या चेतियगिरि थी। पूर्वी दशार्णमें वर्तमान छत्तीसगढ़ जिला और आदिवासियोंकी पटना भी सम्मिलित थी।
चेदि-बुन्देलखण्ड । इसकी सीमाएं इस प्रकार श्री-पश्चिममें काली सिन्ध, पूर्वमें टोंस । 'टाड राजस्थान' (१,४३) में चेदिकी पहचान चन्देरीसे की गयी है तथा इसे शिशुपालकी राजधानी बताया है। 'आइने-अकबरी' में बताया है कि यह एक बहुत बड़ा शहर है और इसमें एक किला भी है। डॉ. फ्यूरर, जनरल कनिंघम और डॉ. 'हू लरका मत है कि दहल मण्डल या बुन्देलखण्ड ही प्राचीन चेदि है। दहल नर्मदाका तटवर्ती भाग है। गुप्तकालमें कालंजर इसकी राजधानी थी और महाभारत कालमें शक्तिमती उसकी राजधानी थी। चेदिको इसकी राजधानी त्रिपुरीके कारण त्रिपुरी भी कहा जाता था। त्रिपुरीको वर्तमानमें तेवर कहते हैं। सिद्धक्षेत्र
प्राचीन कालमें मध्यप्रदेशके सुरम्य शैल-मालाओं और नदी-तटोंपर, कलकल निनाद करते हुए अजस्र निर्झरों और वन-वीथियोंमें मुनिजन तपस्या किया करते थे। प्रकृतिको गोदमें बैठकर जब वे वीतराग योगी आत्मोपलब्धिके लिए ध्यानलीन बैठ जाते तो प्रकृति-पूत्र वन्य जीव उनके निकट निर्भय और निर्वैर होकर परस्पर केलि किया करते थे। कोटि-कोटि निग्रन्थ मुनियोंकी आत्म-साधना इस प्रदेशके पर्वत शिखरोंपर, गुहाओं और नदी-तटोंपर बैठकर या कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यान करते हुए सफल हुई है। उन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ। किन्हीं मुनियोंने केवलज्ञान प्राप्तिके पश्चात् गन्धकुटीमें विराजमान होकर जगत्के जीवोंको कल्याण और हितका उपदेश दिया
और आयुकर्म पूर्ण होनेपर यहींसे मुक्त हो गये। कुछ मुनियोंके ऊपर घोर उपसर्ग हुआ और वे अन्तकृत केवली होकर सिद्ध परमात्मा बन गये। इस प्रदेशमें ऐसे कुछ स्थान हैं, जहाँ मनियोंका निर्वाण हुआ और इसलिए जो सिद्धक्षेत्र या निर्वाण क्षेत्र कहे जाते हैं। इन सिद्धक्षेत्रोंके नाम इस प्रकार हैं
१. महाभारत, सभा पर्व, अ. ३२ । Me Crindle's Invasion of India by Alexander, ___. 352; Cunnnigham's Arch. S. Report V, p. 129; बृहत्संहिता अ. १४ । २. Epigraphia Indica, Vol. I, P. 70. ३. Dr. Bhandarkar's History of Dekkan, Sec. III. . 7. Journal of Asiatic Society of Bengal 1905, pp. 7-14. ५. अलबरूनीका भारत, प्रथम खण्ड, पृ २०२। हेमकोश । अनर्थ्य राघव, अंक ७ में बताया है कि कलचरि
कालमें माहिष्मती चेदिमण्डलको राजधानी थी। .
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ पावागिरि, सिद्धवरकूट, चूलगिरि, रेशंदीगिरि, द्रोणगिरि, सोनागिरि।
पावागिरि-प्राकृत निर्वाण काण्डके अनुसार पावागिरिके शिखर पर, चलना नदीके तटपर सुवर्णभद्र आदि चार मुनीश्वर निर्वाणको प्राप्त हुए। संस्कृत निर्वाण भक्तिमें कर्मविजेता सुवर्णभद्रकी मुक्ति नदीके तटसे बतायी है। यह नदी निश्चय ही चलना नदी थी और उस स्थानका नाम पावागिरि था।
अनुश्रति है कि मालवराज बल्लालने यहाँ ९९ मन्दिर. ९९ सरोवर और ९९ कएँ बनवाये थे। इस राजाके कालके ११ मन्दिर कुछ अच्छी दशामें तथा शेष मन्दिरोंके भग्नावशेष यहाँपर अब तक मिलते हैं।
सिद्धवरकूट-यहाँसे रेवाके दोनों तटोंपर रावणके दो पुत्र तथा साढ़े पांच करोड़ मुनि मुक्त हुए थे। इनके अतिरिक्त दो चक्रवर्ती, दस कामकुमार और साढ़े तीन करोड़ मुनि भी यहाँसे मुक्त हुए थे।
कुल २४ कामदेव हुए हैं, जिनके नाम हैं-बाहुबली, अमिततेज, श्रीधर, दशभद्र, प्रसेनजित चन्द्रवणं, अग्निमुक्ति, सनत्कुमार, वत्सराज, कनकप्रभ, मेघवर्ण, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, विजयराज, श्रीचन्द्र, नल, हनुमान, बलगजा, वसुदेव, प्रद्युम्न, नागकुमार, श्रीपाल और जम्बूकुमार।
इनमें से कौन-से १० कामकुमार यहाँसे मुक्त हुए हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका।
चक्रवतियोंमें दो चक्रवर्ती यहाँसे मुक्त हुए हैं। सम्भवतः उनके नाम हैं मघवा और सनत्कुमार।
चूलगिरि-बड़वानी नगरसे दक्षिणकी ओर चूलगिरि शिखरसे इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण मुनियोंने मुक्ति प्राप्त की थी। यहाँपर भारतकी सबसे विशाल प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवकी है जो कायोत्सर्ग मुद्रामें एक ही पाषाणमें उत्कीर्ण ८४ फुट ऊँची है । इसे बावनगजाजी कहते हैं। इस प्रदेशमें प्राचीन कालमें एक हाथको ही कच्चा गज माननेका रिवाज था, अतः ५२ हाथको बावनगजा कहने लगे। यह पहाड़के सहारे खड़ी है। भगवान्के मुखपर जो वीतरागता और शान्तिके भाव अंकित हैं, उन्हें देखकर दर्शक स्वतः अभिभूत हो जाता है।
रेशंदोगिरि-इस क्षेत्रका नाम नैनागिरि है। रेशंदीगिरिको ही नैनागिरि मान लिया गया है। यहाँसे भगवान् पार्श्वनाथके समवसरणमें वरदत्त आदि पांच मुनियोंको मोक्ष प्राप्त हुआ है।
द्रोणगिरि-फलहोड़ी ग्रामके पश्चिममें द्रोणगिरि पर्वतके शिखरसे गुरुदत्त आदि मुनियोंकी मुक्ति हुई है । वर्तमानमें यह क्षेत्र सेंधपा ग्राम (जिला-छतरपुर ) के निकट माना जाता है।
सोनागिरि-यहांसे नंगकुमार, अनंगकुमार आदि साढ़े पांच करोड़ मुनि मोक्ष पधारे हैं। अतः यह क्षेत्र सिद्धक्षेत्र है। यह क्षेत्र झांसी-दतियाके निकट है।
इन सिद्धक्षेत्रोंके अतिरिक्त कई स्थान ऐसे हैं, जिनको अभी तक सिद्धक्षेत्र तो नहीं माना जाता, किन्तु आर्ष ग्रन्थोंमें जहाँसे मुनिजनोंके मुक्त होनेके उल्लेख मिलते हैं। जैसे
उज्जयिनीमें अभयघोष मुनि पधारे और वीरासनसे ध्यानारूढ़ हो गये। तभी उनके पुत्र चण्डवेगने उनके ऊपर घोर उपसर्ग किया, उनके चारों हाथ-पैर काट दिये। मुनिराज समरसीभावमें निमग्न थे। उन्हें तत्काल केवलज्ञान हो गया और वहींसे कुछ ही क्षणोंमें उन्हें मोक्ष हो गया। इस प्रकार उज्जयिनी भी निर्वाण क्षेत्र है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
अननुबद्ध केवलियों में अन्तिम केवली श्रीधर मुनि कुण्डलपुरसे मुक्त हुए। उपर्युक्त आधारपर कुछ विद्वान् कुण्डलपुर क्षेत्रको श्रीधर मुनिकी निर्वाण-भूमि मानकर उसे निर्वाण-क्षेत्र मानते हैं।
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कुछ लोग अहारको निर्वाण क्षेत्र मानते हैं। इनकी मान्यता है कि मदनकुमार और विष्कंवल केवली यहाँसे मुक्त हुए थे ।
मध्यप्रदेश के उपर्युक्त सिद्धक्षेत्रों में चूलगिरि ( बड़वानी ) को छोड़कर शेष सभी सिद्धक्षेत्रोंकी अवस्थिति सम्बन्धमें विवाद है । कुछ लोग मानते हैं कि वर्तमानमें पावागिरि, सिद्धवरकूट, रेशंदीगिरि, द्रोणगिरि और सोनागिरि जहाँ हैं, वस्तुतः ये क्षेत्र अपने मूल स्थानपर नहीं रहे । जैन समाज इनके मूल स्थानोंको भूल चुकी है और कुछ खण्डहरों या मन्दिरोंको देखकर विभिन्न स्थानों पर इन तीर्थों की स्थापना कर ली है। इनमें से कुछ क्षेत्र तो इसी शताब्दीमें ५० वर्षके भीतर ही स्थापित किये गये हैं । अतः यह स्वाभाविक है कि इन क्षेत्रोंके वास्तविक स्थानका पता लगाया जाये ।
दूसरा पक्ष यह है कि ये क्षेत्र अपने वास्तविक स्थानपर ही हैं। इसके लिए वे विभिन्न प्रमाण भी उपस्थित करते हैं ।
किन्तु इन दोनों पक्ष-विपक्षोंसे व्यतिरिक्त एक तीसरा तटस्थ पक्ष भी है। उसका कहना है कि प्रत्येक क्षेत्र जहाँ था, उस स्थानको खोज होना अत्यन्त आवश्यक है । क्षेत्रोंके वास्तविक | स्थानोंका अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है । उनके अनुसन्धानकी बड़ी आवश्यकता है । किन्तु जबतक क्षेत्रोंकी वर्तमान स्थितिके विरुद्ध ठोस प्रमाण प्राप्त न हों, तबतक इन क्षेत्रोंको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जहाँ १२ वर्ष तक भक्तजन यात्रा, पूजन और दर्शनों के लिए जाते रहते हैं, वह स्थान पवित्र तीर्थक्षेत्र बन जाता है । फिर इन क्षेत्रोंकी मान्यताको तो कई १२ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इन तीर्थक्षेत्रोंके साथ असंख्य भक्तजनोंका भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ चुका है । अतः बिना किसी ठोस आधारके इन तीर्थक्षेत्रोंको अमान्य नहीं ठहराया जा सकता ।
यहाँ एक बात विशेष उल्लेखनीय है । मध्यप्रदेशमें किसी तीर्थंकरका एक भी कल्याणक नहीं हुआ। उत्तरप्रदेश में १८ तीर्थंकरोंके गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए । ऋषभदेवका निर्वाण कल्याणक भी उत्तरप्रदेशमें ही हुआ । नेमिनाथके केवल गर्भं और जन्म कल्याणक ही उत्तरप्रदेशमें . शेष कल्याणक गुजरात हुए, प्रदेशमें हुए । इसी प्रकार बिहार प्रदेशमें भी ६ तीर्थंकरोंके गर्भं, जन्म, तप, केवलज्ञान कल्याणक हुए तथा २२ तीर्थंकरोंके निर्वाणकल्याणक हुए । गुजरातमें भगवान् नेमिनाथके तप, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याण हुए।
कुछ लोगों की मान्यता है कि उदयगिरि ( विदिशा ) में भगवान् शीतलनाथ के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए थे । यद्यपि इसके लिए कोई ठोस आधार उपलब्ध नहीं हैं ।
अतिशय क्षेत्र
मध्यप्रदेश अतिशय क्षेत्रोंके मामलेमें अत्यन्त समृद्ध है। इस प्रदेशमें जितने अतिशय क्षेत्र विद्यमान हैं, उतने अतिशय क्षेत्र किसी दूसरे प्रदेश में नहीं मिलते। इन अतिशय क्षेत्रोंसे सम्बन्धित •अनेक सरस और रोचक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कुछ किंवदन्तियां तो सामान्य ( Common ) हैं जो कई अतिशय क्षेत्रोंके लिए समान रूपसे प्रचलित हैं। जैसे रांगका चांदी बन जाना, बावड़ीमें एक पर्ची पर बरतनोंका नाम लिखकर डालना और बावड़ीसे तदनुरूप बरतन निकलना । कुछ
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ किंवदन्तियां किन्हीं व्यक्तियोंसे सम्बन्धित हैं, जिनकी मनोकामना वहां पूजा-पाठ करनेसे पूर्ण हो गयी । किन्तु कुछ किंवदन्तियां अवश्य ही ऐतिहासिक महत्त्वकी हैं । जैसे- .
-महमूद गजनवी (अथवा मालवाका कोई सुलतान ) अपनी विशाल वाहिनीको लेकर भारतके विभिन्न प्रान्तोंको रौंदता, जनताको लूटता और मन्दिर-मूर्तियोंको तोड़ता हुआ मक्सी आया और गांवके बाहर एक उद्यानमें ठहर गया। उसकी योजना मन्दिर और मूर्तियोंको प्रातःकाल होनेपर तोड़नेकी थी। किन्तु रातमें वह ऐसा बीमार हो गया कि उसे पलंगसे उठना भी कठिन हो गया। उसे अन्तःप्रेरणा हुई कि यह मक्सीके पार्श्वनाथका चमत्कार है। सुबह होते ही उसने फौजमें आदेश प्रचारित किया कि कोई इस मन्दिरको हाथ न लगावे। वह स्वयं मन्दिरमें गया और पार्श्वनाथको नमस्कार किया तथा इस घटनाकी स्मृतिस्वरूप मन्दिरके मुख्य द्वारपर पांच कंगूरोंका निशान बनानेका आदेश दिया । वे निशान अब तक वहां मौजूद हैं । इन निशानोंको देखकर बादमें भी किसीने इस मन्दिरको हाथ नहीं लगाया।
-कुण्डलपुर क्षेत्रपर जब मुस्लिम बादशाहने आक्रमण करके मूर्तियोंको तोड़ना चाहा और हथौड़ा चलाया तो मूर्तिमें से दूधकी धार बह निकली और मधुमक्खियोंने आकर शाही फौजपर धावा बोल दिया, जिनसे सारी फौजको वहाँसे भागना पड़ा। इसी प्रकार यहां आकर महाराज छत्रसालकी मनोकामना पूर्ण हो गयी और उन्हें उनका राज्य पुनः मिल गया।
-बनैडियाके मन्दिरके सम्बन्धमें किंवदन्ती है कि एक भटारक गजरातसे एक मन्दिरको आकाश-मार्ग द्वारा पूर्व दिशामें किसी स्थानपर स्थापित करनेके लिए ले जा रहे थे। इतने में प्रातःकाल हो गया और मन्दिर जमीनपर आ लगा। इसीलिए यह नींवसे शिखर तक खण्डित है। बादमें इसे जोड़-तोड़कर ठीक किया गया।
इस प्रदेशके अतिशय क्षेत्रोंके नाम इस प्रकार हैं
बजरंगढ़, थूबौन, चन्देरी, बहुरीबन्द, सिहोनिया, पनागर, पटनागंज, बन्धा, अहार, गोलाकोट, पचराई, पपौरा, कुण्डलपुर, मनहरदेव, कोनी, तालनपुर, मक्सी, पार्श्वनाथ, बनैड़िया, बीना-बारहा, गुरीलागिरि, बूढ़ी चन्देरी, खन्दार, लखनादौन, मड़िया। कलाक्षेत्र
___ इस प्रदेशमें ऐसे स्थानोंकी कमी नहीं है जो न सिद्धक्षेत्र हैं, न अतिशय-क्षेत्र, किन्तु फिर भी जो कला, पुरातत्त्व और इतिहासकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं और तीर्थक्षेत्र माने जाते हैं। इससे ज्ञात होता है कि जैन समाज अपनी कला और इतिहासको धरोहरको उतना ही अधिक महत्त्व देती है जितना अन्य तीर्थों और मन्दिरोंको। इसका प्रमाण यह है कि इस प्रदेशमें जिन स्थानोंपर जैन पुरातत्त्व अधिक संख्यामें मिला है, ऐसे कई स्थानोंपर जैन समाजने मूर्तियोंका संग्रह एक स्थानपर कर लिया है। जैसे अहार, पपौरा, थूबौन, सिहौनिया, पावागिरि, चूलगिरि, द्रोणगिरि, बहुरीबन्द, सोनागिरि, खजुराहो, विदिशा, बीना-बारहा, गुरीलागिरि, उज्जयिनी । इनमें अहार, उज्जयिनी और सोनागिरिमें तो व्यवस्थित जैन संग्रहालय बन चुके हैं। शेष स्थानोंपर अभी संग्रहालय तो नहीं बन पाये, किन्तु संग्रहालय बनानेकी योजना चल रही है।
ऐसे पुरातात्त्विक महत्त्वके स्थान भी, जो सिद्धक्षेत्र या अतिशय-क्षेत्र नहीं हैं, तीर्थक्षेत्र माने जाते हैं। इन्हें कलातीर्थ कहा जा सकता है। ऐसे स्थानोंमें ग्वालियर, अजयगढ़, खजुराहो, गन्धर्वपुरी, ग्यारसपुर, उदयगिरि, कारीतलाई, पतियानदाई, पनिहार-बरई, त्रिपुरी, वदनावर, उदयपुर, पठारी, बड़ोह आदि हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जैन पुरातत्व
मध्यप्रदेशमें लगभग सभी जिलोंमें, वनों और पर्वतोंपर जैन पुरातत्त्व की सामग्री बिखरी पड़ी है। जितने प्रचुर परिमाणमें जेन पुरावशेष इस प्रदेशमें मिलते हैं, उतनी संख्यामें सम्भवतः भारतके किसी अन्य प्रदेशमें नहीं मिलेंगे। यहाँका जैन पुरातत्त्व प्रचुरताकी दृष्टिसे ही नहीं, ऐतिहासिक और कलाको दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ।
कालक्रमकी दृष्टिसे हम इस प्रदेशके जैन पुरातत्वको सुविधाके लिए तीन भागोंमें बांट सकते हैं-गुप्तकालीन, मध्यकालीन और उत्तरकालीन। इसी प्रकार यहाँकी पुरातन कलाकृतियों
और कलावशेषोंको भी अपनी सुविधाके लिए हम चार भागोंमें विभाजित कर सकते हैं(१) तीर्थंकरमूर्तियां, (२) शासन देवी-देवताओंकी मूर्तियां, (३) देवायतन, (४) अभिलेख । तीर्थकर मूर्तियां ____ इस प्रदेशमें तीर्थंकर-मूर्तियां हजारोंकी संख्यामें उपलब्ध होती हैं । इनमें खड्गासन मूर्तियोंकी संख्या पद्मासन मूर्तियोंकी अपेक्षा कम है। अधिकांश अतिशय क्षेत्रोंपर मूलनायक प्रतिमाएँ प्रायः खड्गासन मिलती हैं। विशेषतः बुन्देलखण्डके अतिशय क्षेत्रोंपर विशाल अवगाहनावाली शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमाएं स्थापित करनेकी परम्परा-सी रही है। मध्यप्रदेशमें खडगासन प्रतिमाओंमें सर्वोन्नत प्रतिमा चूलगिरि ( बड़वानी ) में स्थित भगवान् आदिनाथकी है। इसकी ऊँचाई ८४ फुट है। भारतमें इतनी ऊंची प्रतिमा दूसरी नहीं है। ग्वालियर किलेकी आदिनाथ भगवान्की ५७ फुट ऊँची प्रतिमाको दूसरा स्थान दिया जा सकता है। इसकी गणना उरवाही समूहकी प्रतिमाओंमें की जाती है । इसी दुर्गके दक्षिण-पूर्व समूहकी लगभग २० प्रतिमाएं २० से ४० फुट तक ऊंची हैं। खन्दारमें शान्तिनाथ भगवान्की ३५ फुट ऊँची मूर्ति है।
इनके अतिरिक्त अन्य कई क्षेत्रोंपर भी काफी समुन्नत खड्गासन प्रतिमाएं हैं, किन्तु वे इनसे आकारमें छोटी हैं। जैसे बजरंगढ़में शान्ति, कुन्थु और अरनाथकी १८ फुट ऊँची, अहारमें १७ फुट, सिहोनियामें शान्तिनाथकी १६ फुट, थूबौनमें शान्तिनाथको १८ फुट, बीना-बारहामें शान्तिनाथकी १५ फुट ऊंची प्रतिमाएं हैं। बहुरीबन्द, पटनागंज, कुण्डलपुर, बीना-बारहा आदिमें १२ फुट अवगाहनावाली प्रतिमाएं मिलती हैं।
पद्मासन प्रतिमाओंमें सर्वोन्नत प्रतिमा ग्वालियर दुर्गके 'एक पत्थरकी बावड़ी' समूहकी सुपार्श्वनाथ तीर्थकरकी है जो ३५ फुट ऊंची है। इतनी विशाल पद्मासन मूर्ति सम्भवतः अन्यत्र कहींपर भी उपलब्ध नहीं होती । कुण्डलपुरमें आदिनाथ भगवान्की मूर्ति, जिसे 'बड़े बाबा' कहा जाता है, १२ फुट ऊंची है। ग्वालियर दुर्गमें अन्य भी कई पद्मासन मूर्तियां विशाल आकारकी पायी जाती हैं।
इस प्रदेशमें उपलब्ध होनेवाली तीर्थंकर मूर्तियोंमें वैविध्यके भी दर्शन होते हैं। जैसे द्विमूर्तिका, त्रिमूर्तिका, सर्वतोभद्रिका, पंचबालयति, चतुर्विंशति पट्टिका मूर्तियोंमें, यों तो सभी २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं, किन्तु आदिनाथ, शान्तिनाथ, पाश्वनाथ और महावीरकी मूर्तियां बहु संख्यामें मिलती हैं। आदिनाथकी जटामण्डित मूर्तियां इस प्रदेशमें भी मिलती हैं। किन्तु उनकी संख्या अत्यल्प है। ऐसी मूर्तियाँ कुण्डलपुर, कारीतलाई आदिमें हैं। बीना-बारहा आदि कई स्थानोंपर आदिनाथेतर कई तीर्थंकर मूर्तियोंपर भी स्कन्धचुम्बी लटें अंकित मिलती हैं । पाश्वनाथकी प्रतिमाएं प्रायः सप्तफणावलि युक्त प्राप्त होती हैं, नव और एकादश फणावलि युक्त पार्श्वनाथ प्रतिमा विरल ही उपलब्ध होती हैं। पटनागंजमें सहस्रफणमण्डित दो
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
पार्श्वनाथ मूर्तियाँ हैं । ऐसी मूर्तियाँ इस प्रान्तमें अन्यत्र नहीं हैं ।
जिस प्रकार चूलगिरिकी ८४ फुट उत्तुंग आदिनाथ प्रतिमा और ग्वालियरकी ३५ फुट उत्तुंग पद्मासन सुपार्श्वनाथ प्रतिमाकी समानता अवगाहनाकी दृष्टिसे भारतकी अन्य कोई प्रतिमा नहीं कर सकती, इसी प्रकार चन्देरीकी चौबीसी ( अर्थात् चौबीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओं) की समता कोई दूसरी चौबीसी नहीं कर सकती । चन्देरीकी ये २४ तीर्थंकर मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर हैं, सभी मूर्तियों का वर्णं वही है जो शास्त्रोंमें तीर्थंकरोंका बताया गया है। ये मूर्तियाँ अलग-अलग गर्भगृहों में विराजमान हैं । मूर्तियोंकी चौबीसीके समान मन्दिरोंकी चौबीसी पपौरामें विद्यमान है । वह भी अपने में अनुपम है ।
ऐतिहासिक कालक्रमकी दृष्टिसे इस प्रदेशकी तीर्थंकर मूर्तियोंपर विचार करनेपर हमें कुछ रोचक निष्कर्ष प्राप्त होते हैं । इस प्रदेशमें जो तीर्थंकर मूर्तियां उपलब्ध हैं, उनमें गुप्तकालसे प्राचीन कोई मूर्ति नहीं है । अर्थात् यहाँ उपलब्ध तीर्थंकर मूर्तियोंका प्राचीनतम काल गुप्तकाल है । मध्यप्रदेशपर मौर्य वंश, शुंग वंश, नाग वंश, शक क्षत्रप, परिव्राजक, उच्चकल्प आदि राजवंशोंका शासन रहा । इन कालों से सम्बन्धित कुछ सिक्के भी प्राप्त हुए हैं । त्रिपुरीमें ईसासे तीन शताब्दी पूर्वके पाये हुए सिक्कोंपर रेवाकी मूर्ति अंकित मिलती है । इससे त्रिपुरीका इतिहास मौर्यं युग तक पहुँच जाता है। इसी प्रकार कारीतलाईके निकटकी गुफाओंमें २००० वर्ष प्राचीन शिलालेख मिले हैं। उनकी लिपि ब्राह्मी है । गुप्त संवत् १७४ (ई. स. ४९३-९४) का एक ताम्रपत्र भी कारीतलाईमें मिला था । इस ताम्रपत्र में उच्चकल्प ( उचहरा ) के महाराज जयनाथ द्वारा नागदेव सन्तक (नागौद) में स्थित छन्दापल्लिका नामक गाँवके दानका उल्लेख है । यहाँ यह सब देनेका उद्देश्य यह है कि मध्यप्रदेश के अनेक स्थानोंका सम्बन्ध प्राचीन इतिहास - कालसे रहा है । किन्तु गुप्तकाल से पूर्वकी कोई जैन मूर्ति इस प्रदेशमें उपलब्ध नहीं हुई । श्वेताम्बर साहित्यिक साक्ष्योंके अनुसार भगवान् महावीरकी एक मूर्ति उनके जीवन कालमें बन गयी थी । इस सम्बन्ध में यह कथा मिलती है—
अवन्तिके चण्डप्रद्योतने सिन्धु सौवीर नरेश उदयनकी एक सुन्दर दासीका अपहरण कर लिया । दासी अपने साथ जीवन्त स्वामीकी प्रतिमा भी ले गयी थी । उदयनको जब इस काण्डका पता चला तो उसने प्रद्योतपर आक्रमण कर दिया । प्रतिमा मिलीं नहीं, दासी बचकर भाग निकली। उदयनने चण्डप्रद्योतको गिरफ्तार कर लिया और उसके सिरपर एक स्वर्ण-पट्टिका बाँध दी, जिसपर लिखा था-मम दासीपतिः । मार्ग में पर्युषण पर्वके दिन प्रारम्भ हो गये । उदयनने पर्युषणके उपलक्ष्यमें उपवास किया और रसोइयासे कह दिया- "तुम चण्डप्रद्योत नरेशसे पूछ लो, वे क्या खायेंगे। उनकी इच्छानुकूल भोजन बना देना ।" रसोइयाने चण्डप्रद्योत से पूछा । चण्डप्रद्योतको सन्देह हुआ कि आज मेरे भोजनमें विष डालकर मुझे मार डालनेका उपक्रम किया जा रहा है । किन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि पर्युषण पर्वके कारण उदयन उपवास कर रहा है तो उसने भी उपवास करनेकी अपनी इच्छा प्रकट की । यह बात रसोइयाने उदयनसे कह दी । उदयनको यह जानकर अत्यन्त दुःख हुआ कि मैंने अपने एक साधर्मी बन्धुका घोर अपमान किया है । वह तत्काल चण्डप्रद्योतके निकट पहुँचा और अपने कृत अपराधके लिए क्षमा-याचना की तथा चण्डप्रद्योतको आदर सहित मुक्त कर दिया । चण्डप्रद्योतने मुक्त होकर विदिशामें जीवन्त स्वामीकी उस प्रतिमाको विराजमान कर दिया ।
१. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, आवश्यकचूणि, निशीथचूर्ण, वसुदेव हिण्डी ।
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"भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ श्वेताम्बर साहित्य-'त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र' आदिके अनुसार जैनधर्मका सर्वाधिक प्रचार अशोकके पौत्र सम्प्रतिके राज्यकालमें हुआ। इस कालमें विदिशामें महावीर स्वामीकी चन्दननिर्मित जीवन्त स्वामीकी प्रतिमा विद्यमान' थी।
दिगम्बर परम्परामें जीवन्त स्वामीकी प्रतिमाओंका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बर साहित्यमें उल्लिखित कोई जीवन्त स्वामी प्रतिमा अब मध्यप्रदेश में नहीं मिलती।
अब तककी शोध-खोजके परिणामस्वरूप यह स्वीकार करना पड़ता है कि मध्यप्रदेशमें गुप्तकालसे पूर्वकी कोई जैन प्रतिमा नहीं है। हां, गुप्तकालकी कई जैन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। इन मूर्तियोंमें गुप्तकालीन कलाके सभी वैशिष्ट्य परिलक्षित होते हैं। इस कालकी प्रतिमाओंमें सौन्दर्य और अलंकरणकी ओर विशेष ध्यान दिया गया है । उष्णीष, प्रभावलय, परिकर आदि कोई अंग सौन्दर्यसे अछूता नहीं रहने पाया है। तीर्थंकरोंके चिह्नोंका प्रचलन इस काल तक अधिक नहीं हो पाया था, तथापि उनका उपयोग प्रारम्भ हो गया था।
यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है कि मथुरा आदिमें गुप्तकालके पूर्वकी शक-कुषाण कालकी जैन मूर्तियां जितनी प्रचुर संख्यामें प्राप्त हुई हैं, उतनी जैन मूर्तियां गुप्तकालकी नहीं मिलती, वाकाटक-कालकी भी नहीं मिलती, जबकि गुप्तवंशी राजा शैव या वैष्णव होते हुए भी जैनधर्मके प्रति सहिष्ण और उदार बताये जाते हैं। गप्तकालमें कलाका-चहमखी विकास हुआ था और हिन्द देवी-देवताओंकी इस कालकी मूर्तियां बहु संख्यामें पायी जाती हैं। तब उतनी जैनधर्मसे सम्बन्धित मूर्तियाँ इस कालकी क्यों नहीं मिलती। इतिहास अब तक इस अनसुलझे प्रश्नका कोई उत्तर नहीं दे पाया है।
____ गुप्त शासनके उत्तरवर्ती काल अर्थात् सातवींसे बारहवीं शताब्दी तकके कालको हम मध्यकाल मानकर चलते हैं। प्रायः सातवीं-आठवीं शताब्दीको ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पूर्व मध्यकाल अथवा सन्धिकालके नामसे भी उल्लिखित किया जाता है। किन्तु सुविधाकी दृष्टिसे हम मध्यकालको पूर्वमध्यकाल अथवा उत्तर-मध्यकालके रूपमें विभाजित न करके इस कालको केवल मध्यकालके रूपमें ही अभिहित करेंगे।
मध्यप्रदेशमें मध्यकालकी जैन मूर्तियां प्रचुर संख्यामें मिलती हैं। यहाँके अनेक क्षेत्रोंकी स्थापना इसी कालमें हुई थी और उन क्षेत्रोंपर इसी कालमें जैन मन्दिरोंका निर्माण किया गया था। इसलिए इस कालकी जैन मूर्तियोंका बहुसंख्यामें पाया जाना स्वाभाविक है। जहाँ कोई तीर्थक्षेत्र नहीं रहा, उन स्थानोंपर भी इस कालकी जैन मूर्तियाँ अत्यधिक संख्यामें मिलती हैं।
विन्ध्यप्रदेश, महाकोशल और मध्यभारतको तो जैन पुरातत्त्वका गढ़ ही कहना चाहिए। यहां कोई वन, पर्वत, जलाशय, दुर्ग ऐसा नहीं है, जहाँ जैन मूर्तियाँ खण्डित और अखण्डित दशामें सैकड़ोंकी संख्यामें न मिलती हों। इन भूभागोंमें चन्देल, कलचुरि, प्रतिहार, तोमर और परमार शासकोंके राज्य-कालमें कलाका विकास द्रुत गतिसे हुआ। यहाँके कलाकारोंने युगकी बदलती कला-प्रवृत्तियोंको भी अनूठे ढंगसे आत्मसात् करके जैन संस्कृतिके मौलिक रूपको सुरक्षित रखनेका पूरा प्रयास किया। " गुप्तयुग और मध्ययुगके सन्धिकालकी भी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। मूर्तिके अलंकरण और प्रतिमा-शैलीके आधारपर मूर्तिका निर्माण-काल निर्धारित किया जाता है। एक मूर्ति जबलपुरके निकट स्लिमनाबादमें एक वृक्षके नीचेसे प्राप्त हुई थी। इस शिलाफलकमें अष्ट प्रातिहार्य
मा
१. आवश्यक नियुक्ति १२७८ ।
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ
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युक्त तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। उसके चारों ओर नवग्रहोंकी खड़ी हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं | नवग्रहों की प्रमुखता जिनमूर्तिका अंकन अत्यन्त आकर्षक बन पड़ा है । लोग इसे सिन्दूर पोतकर खैरामाईके नामसे अबतक पूजते रहे हैं। इस प्रकारकी न जाने कितनी जैन मूर्तियाँ इस प्रान्तमें खैरामाईके नामसे पूजी जाती हैं । जसो, मैहर, उचहरा, रीवाँ आदिमें जैन मूर्तियोंको खैरामाईके नामसे पूजने का चलन अब भी देखा जा सकता है ।
विन्ध्यप्रदेश में इस युगमें विविध स्थानोंपर जैनधर्मके सबल केन्द्र रहे थे । यहाँका कण-कण प्राचीन काल से ही भारतीय शिल्प-स्थापत्य कलासे सम्पन्न रहा है । भारत और विदेशोंके अनेक संग्रहालय इसी प्रदेशसे गये हुए पुरातत्त्वसे श्रीसम्पन्न हैं । भरहुत स्तूप - जैसी विश्वविश्रुत कलाकृति इसी प्रदेशकी देन है। खजुराहोके कलायतन इसी भूमिके ज्योतित रत्न हैं । इस प्रदेशके कलाकारों की कल्पनाशक्ति, शिल्पवैविध्य, सुललित अंकन, शारीरिक गठन एवं उत्प्रेरक तत्त्व यहाँकी कलाकृतियोंमें आज भी परिलक्षित होते हैं । इस प्रदेशमें पुरातन सामग्री के अवशेष जहाँपर भी मिलते हैं, उनमें जैन सामग्रीका भाग बहुत बड़ा होता है । यहाँके कई मकानोंकी दीवालों, फर्शो और सीढ़ियों में जैन पुरातत्त्वका स्वच्छन्द उपयोग मिलता है । कलकत्ता, प्रयाग, रीवां आदि अनेक संग्रहालयोंमें यहाँकी पुरातत्त्व सामग्री सुरक्षित है । आज भी इस प्रदेशके खेतोंमें जुताईके समय अनेक जैन मूर्तियाँ भूगर्भसे निकलती हुई सुनी जाती हैं । देवतलाब, मऊ, प्योहारी, गुर्गी, नागौद, जसो, लखुरबाग, नचना, उचहरा, मेहर, अजयगढ़, पन्ना, सतना, खजुराहो, छतरपुर तथा उनके निकटवर्ती स्थानोंपर जैन अवशेषोंके ढेर इस बातके साक्षी हैं कि यह सम्पूर्ण भूभाग कभी जैनोंका केन्द्र रहा होगा । आज स्थिति यह है कि इन अवशेषोंमें बिखरी हुई पुरातत्त्व सामग्रीकी नितान्त उपेक्षा हो रही है । इनमें से कई स्थानों पर तो जैनोंका एक भी घर नहीं रहा ।
इस काल और इस प्रदेशकी मूर्तियोंकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं । इस कालकी और इस प्रदेशकी तीर्थंकर - मूर्तियाँ प्रायः अष्ट प्रातिहार्यंयुक्त होती हैं । इसी प्रकार मूर्तिके दोनों ओर यक्षयक्षी और भक्त श्रावक-श्राविकाका अंकन भी प्रायः मिलता है। इस प्रदेश में अनेक स्थानोंपर तोरणद्वार भी मिले हैं । इनमें ललाट बिम्बपर तीन जिन-प्रतिमाएँ होती हैं और शेष भागमें कीर्तिमुख आदि । किसी-किसी में तीर्थंकरोंके अभिषेकका दृश्य भी अंकित होता है । कुछमें गोम्मट स्वामी की मूर्ति बनी होती है । कुछ ऐसी भी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें २४ तीर्थंकरोंके साथ गोम्मट स्वामीकी भी मूर्ति बनी हुई है । दिगम्बर परम्परामें बाहुबलीकी मूर्तियोंका प्रचलन प्राचीन कालसे चला आ रहा है । विन्ध्यप्रदेश और महाकोशलमें बाहुबलीकी मूर्तियाँ तीर्थंकर मूर्तियोंके साथ भी अंकित मिलती हैं। उनकी स्वतन्त्र मूर्तियां सम्भवतः इस कालकी कोई नहीं मिलीं, जबकि ७-८वीं शताब्दीमें बाहुबलीकी स्वतन्त्र प्रतिमाओंका निर्माण होने लगा था । बादामी गुफा में बाहुबलीकी ७॥ फुट ऊँची प्रतिमा मिली है। यह सातवीं शताब्दीमें निर्मित हुई थी । ऐलोरा गुफाके छोटे कैलास मन्दिरको इन्द्र सभाकी दक्षिणी दीवारपर भी बाहुबलीकी मूर्ति बनी हुई है । इसका निर्माण काल आठवीं शताब्दी माना जाता है । देवगढ़के शान्तिनाथ मन्दिरमें ई. सन् ८६२ की बाहुबलीकी मूर्ति है, जिसमें बामी, कुक्कुट, सर्पोंके साथ बिच्छूछिपकली और माधवी लताएँ भी मिलती हैं ।
इस प्रदेशमें कुछ स्थान तो ऐसे हैं, जहाँ पुरातन शिल्पावशेष इतनी प्रचुरतामें उपलब्ध होते हैं, जिनसे एक संग्रहालय मजेमें बन सकता है। रीवाँ ऐसा ही स्थान है । यहाँके कलावशेषोंकी सामग्री अनेक मकानोंमें लगी है, उन अवशेषोंसे कई नये मन्दिर बन गये हैं । रीवांके लक्ष्मण बागवाले नूतन मन्दिरका निर्माण गुर्गीके कलापूर्ण अवशेषोंसे हुआ है। रीवाँके कुछ पुरावशेष
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____ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ व्यंकट विद्या सदनमें सुरक्षित हैं। इसमें ताम्रपत्र, शिलालेख, प्राचीन मूर्तियां, हस्तलिखित ग्रन्थ
और शस्त्रास्त्रोंका अच्छा संग्रह है। इस संग्रहालयका बहुभाग जन सामग्रीसे युक्त है। जैन सामग्रीमें ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थंकरकी अष्टप्रातिहार्य, यक्ष-यक्षी और परिकरयुक्त प्रतिमाओंके अतिरिक्त अम्बिका और पद्मावतीकी मूर्तियाँ, तोरण, चौबीसी, मानस्तम्भका शिरोभाग आदि प्राप्त होते हैं। यह सामग्री प्रायः उत्तरकालीन मानी जाती है अर्थात् १२वीं शताब्दीके बादकी है।
___ सतनासे रीवा जानेवाले मार्गमें दसवें मीलफ्र 'रामवन' नामक एक आश्रममें भी पुरातत्त्व सामग्री संग्रहीत है। अधिकांश सामग्री वाकाटक और गुप्तकालकी हैं। इसमें कुछ खण्डित और अखण्डित जैन प्रतिमाएं भी सुरक्षित हैं। यह सामग्री लखुरबाग और नचनासे लायी हुई है । जैन प्रतिमाओंमें पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ, चौबीसी प्रतिमाएं हैं। पन्नामें प्राप्त एक महावीर प्रतिमा भी यहाँ सुरक्षित है जो गुप्तकालकी है।
जसो तो जैन मूर्तियोंका घर है, जैसा कि ऊपर निवेदन किया जा चुका है। यहाँकी सामग्रीसे आज भी कई संग्रहालय सम्पन्न हैं। यहाँ जालपादेवीके मन्दिरके अहातेमें जैन पुरातत्त्वकी बहुतसी सामग्री संग्रहीत है । इसमें अधिकांश सामग्री तो विकृत की हुई है। कुछ जैन मूर्तियोंपर सिन्दूर भी पुता हुआ है। इन मूर्तियोंमें भगवान् ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीरकी प्रतिमाएँ पद्मासन और खड्गासन दोनों ही आसनों में मिलती हैं। यहाँके इन कलावशेषोंमें अम्बिकाकी एक असाधारण.प्रतिमा सुरक्षित है । आम्रवृक्षके मध्य भागपर नेमिनाथ तीर्थंकरको प्रतिमा है । अधोभागमें गोमेद यक्ष सहित अम्बिका विराजमान हैं। एक नग्न स्त्री वृक्ष-स्थाणु पर चढ़ती हुई दीख पड़ती है । निकट ही एक गुफा अंकित है। सम्भवतः यह दृश्य राजीमतिसे सम्बन्धित है जो नेमिनाथके निकट जा रही है। ___इस मन्दिरके निकटवाले मकानकी दीवालमें कई जैन मूर्तियां लगी हुई हैं। इसी प्रकार यहांके कुम्हड़ा मठ, राम मन्दिर, जलकुण्ड, तालाब, दुर्ग, अनेक निजी मकानों आदिमें भी जैन मूर्तियाँ मिलती हैं। लखुरबाग, नचना और उचहरा भी जैन कलावशेषोंके केन्द्र रहे हैं । यहाँके महत्त्वपूर्ण अवशेष कलकत्ताके संग्रहालयमें पहुंचा दिये गये हैं। किन्तु अब भी इन स्थानोंपर जैन पुरातत्त्व-सामग्री यत्र-तत्र बिखरी हुई पड़ी है। कुछ जैन मूर्तियाँ यहाँ खैरामाई या खैरदइयाके रूपमें पूजी जाती हैं। मैहर, पौंडी आदिमें और उनके निकटवर्ती स्थानोंपर भी जैन मूर्तियाँ मिली हैं। पौंड़ीसे उपलब्ध एक प्रतिमापर संवत् ११५७ का लेख भी अंकित है। इस मूर्तिके ऊपर ग्रामीण लोग हँसिया, खुरपी आदि औजार रगड़कर तेज करते थे। उससे यह लेख काफी अस्पष्ट हो गया है।
_ विन्ध्यप्रदेशके तीर्थोंका जहां तक सम्बन्ध है, उनके मन्दिरों, मूर्तियों और अन्य पुरातत्त्व शिल्प सामग्रीके आनुमानिक निर्माण-कालका विभाजन शताब्दी क्रमसे हम इस प्रकार कर सकते हैं।
५वीं शताब्दीसे ८वीं शताब्दी तक तुमैन ( खनियाधानाके निकट ) में गुप्त सं. ११६ (सन् ४३५ ) का एक अभिलेख उपलब्ध हुआ है, जिसमें एक हिन्दू मन्दिरके निर्माणका उल्लेख है। अनुमान किया जाता है कि इसी कालमें यहां जैन मन्दिर और मूर्तियोंकी भी प्रतिष्ठा प्रारम्भ हो गयी होगी। ____९वीं-१०वीं शताब्दीकी मूर्तियां-खजुराहोके घण्टई मन्दिर और पार्श्वनाथ मन्दिरका निर्माण १०वीं शताब्दीमें हुआ था। अतः वहाँकी मूलनायक प्रतिमाओंका निर्माण-काल भी यही
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ हो सकता है। गोलाकोटकी मूर्तियोंके लेखानुसार ये वि. सं. १००० से १२०० तककी हैं। अतः इनमें कुछ मूर्तियाँ १०वीं शताब्दीकी हैं। पतियानदाईमें गुप्तकालका अथवा ९-१०वीं शताब्दीका अम्बिका देवीका एक मन्दिर जीर्णशीर्ण दशामें खड़ा हुआ है । इसमें २४ जैन देवियोंकी मूर्तियाँ एक शिलाफलकमें उत्कीर्ण हैं। उनके मध्य में अम्बिका देवीकी मूर्ति है। इसी प्रकार कारीतलाई, रखेतरा, बीना-बारहाके मन्दिरोंमें १०वीं शताब्दीमें प्रतिहार-शासन कालमें बनी हुई मूर्तियाँ मिलती हैं।
११-१२वीं शताब्दीकी जैन मूर्तियाँ-विन्ध्यप्रदेशमें इस कालकी अनेक जैन मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं । इन मूर्तियोंपर चन्देल और प्रतिहार कलाका पूरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस कालकी मूर्तियां रेशन्दीगिरि, बन्धा, अहार, पपौरा, खजुराहो, अजयगढ़, खनियाधाना, गोलाकोट, पचराई, भियादांत, बीठला, आमनचार, बुढ़ियाखो, भामौन आदि क्षेत्रोंपर प्राप्त होती हैं।
उत्तरकालीन जैन मूर्तियाँ-१२वीं शताब्दीके परवर्तीकालकी मूर्तियां तो प्रायः सभी क्षेत्रोंपर उपलब्ध होती हैं।
महाकोशल प्रदेशमें प्रस्तर प्रतिमाएं दो प्रकारकी उपलब्ध होती हैं-परिकरसहित और परिकररहित पद्मासन और दूसरी परिकरसहित और परिकररहित खड्गासन। परिकरसहित पद्मासन प्रतिमाओंमें सर्वश्रेष्ठ मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है जो हनुमानतालस्थित दिगम्बर जैन मन्दिरमें विराजमान है। यह मूर्ति त्रिपुरीसे लाकर यहां विराजमान की गयी है। यह कलचुरि कलाकी एक सर्वश्रेष्ठ रचना कही जा सकती है। कलापक्ष और भावपक्ष दोनों ही दृष्टियोंसे इसका परिकर इतना प्रभावक बन पड़ा है कि इस कोटि की एक भी मूर्ति इस प्रदेश में मुश्किल से मिलेगी। यह ५ फुट ऊंची और ३।। फुट चौड़ी है। .
त्रिपुरीसे कलचुरि कालकी कई प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं जो वर्तमानमें नागपुर संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। कई प्रतिमाएं उपर्युक्त मन्दिर नं. ४ (हनुमानताल जबलपुर) में हैं । नागपुर संग्रहालयमें त्रिपुरीकी जो जिन प्रतिमाएं सुरक्षित हैं, उनमें एकके सिंहासन पीठपर संस्कृतमें लेख भी है,
या गया है कि माथरान्वयके धौलके पत्र देवचन्द्रने संवत ९०० में यह प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी। इसी प्रकार एक प्रतिमाके लेखसे ज्ञात होता है कि वह संवत् ९५१ ज्येष्ठ सुदी तीजको प्रतिष्ठित की गयी। इन संवतोंसे प्रायः भ्रम हो जाता है । ये न शक-संवत्के सूचक हैं, न विक्रम संवत् के । अपितु ये कलचुरि संवत्के द्योतक हैं। कलचुरि संवत् ईसवी सन् २४८ में प्रारम्भ हुआ। अतः ये प्रतिमाएं १२वीं शताब्दीकी हैं।
एक खण्डित प्रतिमा प्राप्त हुई है, जिसमें अलंकार धारण किये हुए स्त्री-पुरुष हैं। उनके मध्यमें एक वृक्षकी शाखा दिखाई देती है। शाखाके ऊपर सम्भवतः धर्मचक्र बना हुआ है। उ
। ऊपरकी ओर आसनपर जिन-मूर्ति बनी हुई है। इस मूर्तिके दोनों ओर खड्गासन जिन मूर्तियाँ हैं। उनके बगलमें कोनों पर पद्मासन जिन-मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं। सभी प्रतिमाओंके कानोंके पास पत्तियाँ बनी हुई हैं। इस प्रकारकी जिन-प्रतिमाएं और भी मिलती हैं।
कुछ विद्वान् दम्पतीको अशोककी पुत्री संघमित्रा और पुत्र महेन्द्र बताते हैं तथा वृक्षको बोधि-वृक्ष बताते हैं। उन्हें यह क्लिष्ट कल्पना क्यों करनी पड़ी, सम्भवतः इसका कारण जैनमूर्तिकलाके सम्बन्धमें उनकी अनभिज्ञता है। उन्हें यह कल्पना करते समय तीर्थंकर-मूर्तियोंका स्मरण नहीं आया। वस्तुतः यह मूर्ति पंच-बालयतियोंकी है । इनमें मुख्य प्रतिमा नेमिनाथ स्वामीकी है। स्त्री-पुरुष नेमिनाथ भगवान्को यक्षी अम्बिका तथा यक्ष गोमेद हैं। वृक्षकी शाखा आम्रवृक्ष है। आम्रवृक्ष अम्बिकाकी मूर्तियोंके साथ पाया जाता है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ : इस प्रदेशमें ऐसी भी मूर्तियां मिली हैं, जिनमें मध्यमें तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई हैं और उसके परिकरमें केवल नवग्रह बने हुए हैं।
महाकोशलके जैन तीर्थों में बहुरीबन्द और त्रिपुरीके निकटवर्ती कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ गुप्तकालीन मन्दिर और मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। बहुरीबन्दके आसपास तिगवा, रूपनाथ, ककरहटा आदिमें मौर्यकालके अवशेष मिलते हैं। रूपनाथमें तो सम्राट अशोकका पाषाणपर उत्कीणं शासनादेश अब तक विद्यमान है। बहुरीबन्दमें खुदाईमें १७ जैन मूर्तियाँ निकली थीं। यह सम्भावना है कि यहाँ तिगवाके समान कोई गुप्तकालीन मन्दिर रहा हो । इसीके निकटवर्ती भुभारा में भी गुप्तकालका एक शिलालेख मिला है। किन्तु इन स्थानोंसे गुप्तकाल या उससे पूर्वकी कोई जैन शिल्प-सामग्री उपलब्ध नहीं हुई, जबकि हिन्दू और बौद्ध सामग्री मिलती है। यहाँसे जो जैन सामग्री मिली है, वह ९-१०वीं शताब्दी या इसके बादकी है।
बहुरीबन्दकी शान्तिनाथ-प्रतिमा, जो आकारमें १३ फुट ९ इंच ऊँची और पौने चार फुट चौड़ी है, की प्रतिष्ठा कलचुरिनरेश गयकर्णदेवके शासनकालमें शक सं. १०७० (सन् ११४८) में की गयी थी।
कोनीके भी मन्दिर और कुछ मूर्तियां ९-१०वीं शताब्दीकी हैं। लखनादौनमें डॉ.हीरालालजी कटनीको एक अभिलिखित द्वार-शिलाखण्ड मिला था। उससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि यहाँ ९-१०वीं शताब्दीका कोई मन्दिर अवश्य होगा। उसीका यह द्वार-शिलाखण्ड होगा। अभी कुछ समय पहले खेतमें हल जोतते हुए महावीर स्वामीको चार फुट ऊँची और सवा दो फुट चौड़ी प्रतिमा सपरिकर मिली थी। इसकी गणना प्रदेशको सर्वश्रेष्ठ प्रतिमाओंमें की जा सकती है। पाषाण, रचना-शैली आदिसे यह भी ९-१०वीं शताब्दीकी लगती है। त्रिपुरीमें उपलब्ध जैन मूर्तियोंका काल १२वीं शताब्दी माना गया है।
पनागर, मढ़िया आदिको मूर्तियां उत्तरकालीन हैं ।
मध्यभारतका सम्पूर्ण भूभाग जैन पुरातत्त्व सामग्रीसे सम्पन्न है। सम्भवतः इस भूभागका कोई जिला ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें विपुल परिमाणमें जैन कलावशेष बिखरे हुए न हों। 'उज्जयिनी'से सम्बन्धित लेखमें हमने उज्जैनके निकटवर्ती अनेक स्थानोंकी सूची दी है, जहाँ जैन पुरातत्त्व सम्बन्धी सामग्री मिलती है। सुविधाके लिए मध्यभारतमें हमने इन्दौर, उज्जैन, धार, देवास, गुना, शिवपुरी, ग्वालियर, विदिशा आदि जिलोंको लिया है।
मध्यभारतमें विशालताकी दृष्टिसे सबसे विशाल प्रतिमा बड़वानीके निकट 'बावनगजाजी' के नामसे प्रसिद्ध ८४ फुट ऊंची आदिनाथ-मूर्ति है जिसका उल्लेख संक्षेपमें हम अभी कर चुके हैं। इसके दोनों ओर यक्ष-यक्षी भी उत्कीणं हैं। उसके पश्चात् नम्बर आता है ग्वालियर दुर्गकी आदिनाथ मूर्तिका जो ५७ फुट ऊंची है। इस दुर्गकी अन्य खड्गासन और पद्मासन मूर्तियाँ भी इसी क्रममें आगे स्थान पा सकती हैं। ___मध्यभारतमें कालकी दृष्टि से सबसे प्राचीन मूर्ति विदिशामें प्राप्त तीन तीर्थंकर-मूर्तियां हैं तथा विदिशाके निकट उदयगिरि गुफा नं. २० में पार्श्वनाथकी वह मूर्ति भी है जो अब वहां नहीं है। ये चारों मूर्तियाँ गुप्तवंशके रामगुप्तके काल की हैं। इनमें चन्द्रप्रभकी मूर्तिकी चरण-चौकीके लेखमें तिथि तो नहीं दी है, किन्तु महाराजाधिराज श्री रामगुप्तका नामोल्लेख मिलता है। उदयगिरिकी गुफा नं. २० में एक तिथियुक्त अभिलेख मिला है जो उक्त पार्श्वनाथकी मूर्तिसे सम्बन्धित है। इसमें गुप्तवंशीय राजाओंके शासन कालके १०६वें वर्ष में ( ई. स. ४२६ ) कार्तिक कृष्णा ५ को गुहा-द्वार में पार्श्वनाथ-मूर्ति बनवानेका उल्लेख है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ गुप्तकालीन एक जैन मूर्ति वेसनगरसे प्राप्त हुई थी। यहाँ भरहुत स्तूपके कुछ भाग और अभिलिखित वेदिका-स्तम्भ मिले हैं. जिनपर अशोक शैलीके लेख उत्कीर्ण हैं। ये ईसा पूर शताब्दीके माने जाते हैं। यहाँ आरोहीयुक्त गज, सिंहमूर्ति, मकरवाहिनी गंगा आदि अनेकविध पुरातत्त्व सामग्री मिली है। किन्तु जैन मूर्ति या अन्य जैन सामग्री इस कालकी उपलब्ध नहीं हुई।
___ इस प्रदेशमें मध्यकालकी सामग्री विपुल परिमाणमें मिलती है । इस मध्यकालीन सामग्रीका अधिकांश परमारवंशी नरेशोंके शासन-कालकी देन है। उज्जयिनीके जैन संग्रहालय और विक्रम विश्वविद्यालयके पुरातत्त्व संग्रहालयमें स्थित जैन सामग्रीका काल ९वीं या उसके बादकी शताब्दियां हैं। यह सम्पूर्ण सामग्री उज्जैन और उसके निकटवर्ती स्थानोंसे लायी गयी है।
उज्जयिनीमें क्षिप्राके दूसरे तटपर जो मण्डप बना हुआ है, उसके एक स्तम्भमें जैन मूर्ति बनी हुई है। इसमें तो सन्देह नहीं है कि यह मण्डप अत्यन्त प्राचीन है। एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है। उज्जयिनीमें भट्टारकोंकी गद्दी थी और यहां सन् ६२९ से १०५८ तक व्यवस्थित भट्टारक-परम्परा चलती रही। प्रायः भट्टारकोंकी गद्दी वहीं बनायी जाती थी, जहाँके मन्दिरकी पहलेसे प्रसिद्धि रही हो । सन् ६२९ में जब यहां भट्टारक-गद्दीकी स्थापना की गयी, उस समय यहाँ कोई जैन मन्दिर ऐसा अवश्य था. जिसकी ख्याति जनतामें बहत समयसे और दूर-दूर तक थी। हमारा अनुमान है, वह और कोई नहीं, जैनोंका ही मन्दिर था जो भगवान् महावीरके उपसर्गकी स्मृतिमें यहाँ बनाया गया था।
ग्वालियर दुर्गकी मूर्तियोंका निर्माण तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह और उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंहके शासनकालमें हुआ था। डूंगरसिंहका राज्य शासन वि. संवत् १४८१ से १५१० और कीर्तिसिंहका राज्य-काल संवत् १५१० से १५३६ तक था । इन ५५ वर्षों में यहाँ मूर्तियोंके निर्माणके अतिरिक्त अनेक ग्रन्थोंका भी निर्माण हआ। अपभ्रंश भाषाके महाकवि रइध इसी कालमें हए थे। ५७ फुट ऊंची प्रतिमाकी प्रतिष्ठा उन्होंने ही करायी थी। ग्वालियर संग्रहालयमें जो जैन कला-सामग्री है, वह कला और समय दोनों ही दृष्टियोंसे उल्लेखनीय है । जिस जैन मन्दिरको मुगलकालमें मसजिद बना दिया गया था, उसमें एक कमरा जमीनके नीचे मिला है, जिसमें जैन मूर्तियां विराजमान हैं। यहाँ वि. सं. ११६५ का एक लेख भी मिला है। इससे ज्ञात होता है कि ये मूर्तियाँ भी १२वीं शताब्दीकी हैं।
शिवपुरीका संग्रहालय एक प्रकारसे जैन संग्रहालय ही है। इसमें प्रायः सम्पूर्ण कला सामग्री जैनोंसे सम्बन्धित है । यह सामग्री परमारकालीन है । कला-वस्तुओं अर्थात् मूर्तियों आदिमें परमार कालकी विकसित कलाको पूर्णतः अभिव्यक्ति मिली है।
ग्वालियरके निकट सिहौनियाके सम्बन्धमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि सन् २७५ में वहाँ राजा सूरजसेनकी रानी कोकनवतीने कोकनपुर मठका बड़ा जैन मन्दिर बनवाया था। अब तो वहाँ भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। जो मन्दिर वर्तमानमें वहाँ हैं, वे इतने प्राचीन नहीं लगते। अतः सम्भव है, रानी द्वारा बनवाया हुआ मन्दिर भग्न हो गया हो और इन अवशेषों में पड़ा हो।
चूलगिरिमें मन्दिरके एक सभा-मण्डपमें चार शिलालेख अंकित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वि. सं. १११६,-१२२३ और १५०८ में यहाँके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया गया था। इसका अर्थ यह है कि ये मन्दिर इस कालसे कम से कम २-३ शताब्दी पूर्व में निर्मित हुए होंगे। तब इन मन्दिरोंका निर्माण काल ८-९वीं शताब्दी माना जा सकता है।
पावागिरि ऊनमें राजा बल्लालने जिन ९९ हिन्दू और जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया था, उनमें से ११ मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें अब भी खड़े हैं। इनमें ३ जैन मन्दिर भी हैं। बल्लाल
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ की मृत्यु सन् ११४३ में परमारवंशी यशोधवलके हाथों हुई थी। इतिहासकारोंका यह कथन सत्य ही है कि खजुराहोके पश्चात् एक पावागिरि ही ऐसा स्थान है जहाँ इतने प्राचीन मन्दिर अब तक खड़े हैं। यहाँको मूर्तियोंके पादपीठपर वि. सं. १२१८, १२५२, १२६३, १३३२ के लेख मिलते हैं । इन लेखोंसे ज्ञात होता है कि ये मन्दिर और मूर्तियाँ १२वीं शताब्दी और उसके परवर्ती कालमें निर्मित हुए थे। मनहरदेव, सोनागिरि, बजरंगढ़, गन्धर्वपुरी और सिद्धवरकूटमें १५-१२वीं शताब्दीकी जिन-मूर्तियां मिलती हैं। ___ उत्तरवर्ती कालकी जिन-मूर्तियाँ प्रायः सभी तीर्थोपर प्राप्त होती हैं।
'हमने अबतक मध्यप्रदेशमें प्राप्त पाषाणोत्कीर्ण तीर्थंकर प्रतिमाओं और मन्दिरोंका ऐतिहासिक क्रमसे काल-निर्धारण करनेका प्रयत्न किया है। उपर्युक्त विश्लेषणसे एक तथ्य और भी उजागर हो जाता है कि मध्यप्रदेशको विन्ध्यभूमिकी जैन कलाकृतियोंपर मुख्यतः चन्देल कलाकी छाप है, महाकोशल विभागकी जैनाश्रित कला कलचुरि कलासे प्रभावित रही है और मध्यभारत सम्भागपर परमार कलाका प्रभाव अंकित है। तीनों ही गोलियोंकी अपनी-अपनी विशेषताएँ रही हैं, किन्तु किन्हीं कलाकृतियोंपर इन शैलियोंका साँझा प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। इन शैलियोंकी अपेक्षा मन्दिरों पर अधिक आसानीसे पहचाना जा सकता है।
धातु मूर्तियाँ प्रायः ५-६वीं शताब्दीके बाद निर्मित होनी प्रारम्भ हुई, इससे पूर्वकी कोई धातु-प्रतिमा उपलब्ध नहीं होती, अब तक ऐसी धारणा चली आ रही थी। इस धारणाके अनुसार चौसा ( जिला शाहाबाद, बिहार ) से प्राप्त धातु मतियां सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती हैं। वे आजकल पटना संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। यद्यपि इन मूर्तियोंमें से किसीके भी पाद-पीठपर लेख नहीं है, किन्तु इनका निर्माण-काल ५-६वीं शताब्दी माना जाता है।
. भारत-कला-भवन वाराणसीमें एक लघु जैन धातु-मूर्ति रखी हुई है। मूलत: यह सोनागिरिके भट्टारकको है । इसका निर्माण-काल गुप्तकाल अनुमानित किया जाता है।
मध्यप्रदेशमें धातु-प्रतिमाएं उपलब्ध तो होती हैं, किन्तु वे विशेष प्राचीन नहीं हैं। शासन-देवताओंको मूर्तियां
__ मध्यप्रदेशमें शासन-देवताओंकी मूर्तियां बहुलतासे प्राप्त होती हैं। शासन देवताओंकी मूर्तियाँ तीर्थंकर-मूर्तियोंके साथ भी मिलती हैं और स्वतन्त्र भी मिलती हैं। प्रत्येक तीर्थंकरके अनुषंगी एक यक्ष और एक यक्षी माने गये हैं। तीर्थकर-मूर्तिके दायें-बायें प्रायः इन यक्ष-यक्षियोंका अंकन प्राप्त होता है । कुछ प्राचीन प्रतिमाएँ ऐसी भी मिलती हैं, जिनमें इनका अंकन नहीं मिलता, किन्तु तीर्थंकरके परिकरमें इनका अंकन आवश्यक माना गया है। ऐसी सपरिकर तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्रायः सभी तीर्थ क्षेत्रों और प्राचीन स्थानोंपर मिलती हैं। इन शासन देवताओंके अतिरिक्त भी कुछ देव-देवियोंका अंकन जैन प्रतिमाओं पर मिलता है तथा जैन प्रतिष्ठा ग्रन्थोंमें इन देव-देवियोंका उल्लेख भी प्राप्त होता है। इन देव-देवियोंमें सोलह विद्या देवता, नवग्रह, दस दिक्पाल, अष्ट मातका सम्मिलित हैं। जैन संग्रहालय उज्जैनमें स्थित एक ताम्र-यन्त्रपर ६४ जैन शासन-देवियोंके नाम उत्कीर्ण हैं। जो नाम उसमें दिये गये हैं, वे किस आधारसे दिये गये हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका।
इसी संग्रहालयमें मूर्ति क्रमांक १५६ में चार देवियां बालक लिये हुए अंकित हैं । उनके नीचे उनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं-देवीदासी, रसादगुणदेवी, विभारवती और त्रिसला। मूर्ति क्रमांक १४१ में ६ शासन-देवियाँ अंकित हैं। उनके नीचे उनके नाम हैं-वारिदेवी, सिमिदेवी,
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ उमादेवी, सुबयदेवी, वर्षादेवी और सवाईदेवी। इन देवियोंके नाम किसी दिगम्बर अथवा श्वेताम्बर ग्रन्थमें नहीं मिलते। हो सकता है, ये देवियां न होकर मूर्ति प्रतिष्ठापिका गृहस्थ स्त्रियाँ हों।
यक्ष-यक्षियोंको स्वतन्त्र मूर्तियां तो मिलती ही हैं, इनके स्वतन्त्र मन्दिर भी रहे हैं। ऐसा लगता है, इन यक्ष-यक्षियोंकी मान्यता तीर्थंकर-मूर्तियोंके निर्माण-कालके कुछ अनन्तर ही प्रारम्भ हो गयी थी। कुषाण-कालसे पूर्वकी तीर्थंकर मूर्तियोंकी संख्या उँगलियों पर गिनने लायक है। कुषाण-कालमें मथुरामें मूर्ति-कलाका विकास हुआ। इस कालमें निर्मित मूर्तियोंकी संख्या सैकड़ों है। इसी कालमें यक्ष और यक्षियोंकी मूर्तियाँ भी निर्मित होने लगी थीं। इस कालमें तीर्थंकर मूर्तिके दोनों पावों में इनका अंकन होने लगा था तथा साथ ही इनका स्वतन्त्र निर्माण भी होने लगा था। इस सम्बन्धमें हम किसी क्रमिक विकासकी कल्पना करना चाहें तो यह एक कठिन कल्पना ही कहलायेगी। मथुरा संग्रहालयमें कंकाली टीलेसे प्राप्त प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवकी यक्षी चक्रेश्वरीकी एक मूर्ति कुषाण-कालकी सुरक्षित है। यह दसभुजी और ढाई फुट ऊंची है। यह गरुड़ासना है। इसके ऊपर पद्मासन जिनप्रतिमा है। इस मूर्तिके अतिरिक्त मथुराके कंकाली टीलेसे सरस्वती, नैगमेश आदि देव-देवीकी मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं।
___मध्यप्रदेश में शासन-देवियोंके स्वतन्त्र मन्दिर कई स्थानोंपर पाये गये हैं। जैसे-कटनीके समीप बिलहरी ग्राममें 'लक्ष्मणसागर' के तटपर चक्रेश्वरीका एक प्राचीन मन्दिर बना हुआ है। चक्रेश्वरी गरुडपर विराजमान है और उसके मस्तकपर आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव विराजमान हैं। यह मूर्ति आजकल खैरमाईके नामसे पूजी जा रही है।
- इसी प्रकार सतनाके निकट पतियानदाईका एक प्राचीन मन्दिर है। एक शिलाफलकमें चौबीस यक्षियोंकी एक मूर्ति है। मध्यमें अम्बिका विराजमान है तथा दोनों पाॉमें तीर्थंकर और यक्षी मूर्तियां बनी हुई हैं । यह प्रतिमा आजकल प्रयाग संग्रहालयमें सुरक्षित है तथा मन्दिर भग्न दशामें खड़ा है। लगभग ६ फुट ऊंचे और साढ़े तीन फुट चौड़े शिलाफलकपर लगभग ४१ इंचकी चतुर्भुजी अम्बिका अंकित है। इसके चारों हाथ खण्डित हैं। कण्ठमें हार मुक्तामाला, बाँहोंमें भुजबन्द, हाथोंमें नागावलि सुशोभित है। केश-विन्यास त्रिवल्यात्मक है। मुखपर ओज, लावण्य और भाव-विमुग्धताको सुललित छवि है। कटि भागमें रत्नमेखला कई लड़ोंकी है। चरणमें नूपुर और तोड़ोंका अंकन है। प्रतिमाके दायीं ओर एक बालक सिंहपर आरूढ़ है, बायीं ओर एक बालक खड़ा है। नीचेके भागमें एक स्त्री और पुरुष अंजलिबद्ध खड़े हैं। देवीके मस्तकपर भगवान् नेमिनाथको पद्मासन प्रतिमाका अंकन है। शंखका चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इस परिकरमें कुल १३ जिन-मूर्तियां तथा अम्बिकाके अतिरिक्त २३ देवी-मूर्तियां बनी हुई हैं। इस शिलाफलकके अधोभागमें एक पंक्तिका लेख उत्कीर्ण है।
कलाकी दृष्टिसे अम्बिकाकी ऐसी सर्वांग सम्पूर्ण मूर्ति तथा २४ यक्षियोंकी ऐसी भव्य मूर्तियां अन्यत्र देखने में नहीं आयीं। सम्भवतः यह मूर्तिफलक १०-११वीं शताब्दीका है। इसे चन्देल कलाकी प्रतिनिधि रचना माना जा सकता है।
प्रयाग संग्रहालयमें भुभारा, भरहुत, खजुराहो, नागौद और जसो आदिसे लायी हुई जैन मूर्तियां रखी हैं । इन मूर्तियोंमें शासन-देवियोंकी ६ मूर्तियां ऐसी हैं, जिन्हें अद्भुत कहा जा सकता है। यक्षोंकी कोई स्वतन्त्र मूर्ति यहां नहीं मिली है। देवियोंकी मूर्तियोंमें एक मूर्ति (क्रमांक २३५) साढ़े तीन फुटी शिलाफलकपर है। मूर्ति आद्य तीर्थंकर ऋषभदेवकी है। इसके दोनों ओर डेढ़ फुट अवगाहनावाली दो खडगासन जिन-मूर्तियां हैं। नीचेके भागमें एक ओर गृहस्थ दम्पती हाथ जोड़े
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य घुटने टेककर बन्दना कर रहा है। उसके बगलमें सुखासनमें एक मूर्ति बनी हुई है। कुछ विद्वानोंकी सम्मतिमें यह गोमेद यक्षकी मूर्ति हो सकती है। कुछ लोगोंका मत है कि यह कुबेर-मूर्ति है। इसके बायीं ओर आम्रलुम्ब लिये और बायें हाथसे एक बालकको कमरपर थामे अम्बिकाकी मूर्ति है। ऋषभदेवकी अधिष्ठात्री देवी चक्रेश्वरी है, किन्तु इस शिलाफलकमें ऋषभदेवके साथ अम्बिका दी हुई है। ____मूर्ति क्रमांक ६१० और भी अद्भुत है। यह खड्गासन प्रतिमा है। इसका आकार है ३८ इंच ४ ११॥ इंच । प्रतिमाके ऊपर सप्तफण है। लांछन शंख स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। प्रतिमाके मस्तकके ऊपर आम्रवृक्षकी शाखाएँ हैं। मस्तकके बायें भागमें एक देवी-मूर्ति है। उसके बाँयें घटनेपर बालक बैठा हआ है। तीर्थकरके मस्तकके ऊपरी भागमें शासन-देवताकी मूर्ति प्रायः मिलती नहीं। शिल्पपरम्परा यही है कि शासन-देवताके मस्तकके ऊपरी भागमें जिन-प्रतिमा अंकित की जाये । ऐसी मूर्तियाँ सैकड़ोंकी संख्यामें मिलती हैं। दूसरी बात यह है कि सप्तफणावलियुक्त प्रतिमा पार्श्वनाथकी मानी जाती है, किन्तु इसके नीचे लांछन शंखका है जो कि नेमिनाथका चिन्ह है। आम्रशाखाएँ और गोदका बालक अम्बिकाका प्रतीक है। फिर पार्श्वनाथके साथ अम्बिकाकी क्या संगति हो सकती है। किन्तु देवगढ़ आदिमें पार्श्वनाथके साथ अम्बिकाकी कई मूर्तियाँ मिलती हैं। यह खजुराहोसे लायी गयी थी। यह मूर्ति लगभग १०वीं शताब्दीकी है।
_ मूर्ति क्रमांक ६११ लगभग ३८ इंच x ३० इंच आकारकी है। यह खण्डित है। मूर्तिके सिरपर केशगुच्छक हैं । स्कन्धपर पड़ी हुई केशावलीसे यह ऋषभदेवकी मूर्ति निश्चित होती है। इसमें भी अधिष्ठातृ देवी अम्बिका है। दक्षिण भागमें खण्डित घुटनोंवाली दो खड्गासन जिन-मूर्तियाँ हैं। इनके ऊपर भी तीन खड्गासन मूर्तियाँ हैं। सम्भवतः यह चतुर्विंशति शिलापट्ट रहा होगा। यह मूर्ति ९-१०वीं शताब्दीकी होगी।
एक और मूर्ति इससे भी अद्भुत है। इसमें तीन तीर्थंकर-मूर्तियाँ हैं। दोनों ओरकी मूर्तियाँ क्रमशः पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथकी हैं, जिनके सिरपर क्रमशः सात और पाँच फणावलियाँ हैं। मध्यमें ऋषभदेवकी मूर्ति है। इन मूर्तियोंके मस्तकपर शिखराकृतियाँ बनी हुई हैं। तीनोंके उभय पाश्वमें दो-दो खड्गासन-प्रतिमाएँ अंकित हैं और मध्यवर्ती भागमें दायीं ओर अम्बिका और बायीं ओर चक्रेश्वरी अपने आयुधों सहित बैठी हुई हैं। शिखरोंके अग्रभागपर भी एक-एक पद्मासन जिन-मूर्ति है। आश्चर्यकी बात यह है कि इनमें देवियोंके अगल-बगलमें जिन-प्रतिमाएं हैं जो प्रायः अन्यत्र देखनेमें नहीं आतीं। पतियानदाईका चतुर्विंशति यक्षी पट भी इसी प्रकारका है। किन्तु ऐसी मूर्तियाँ विरल हैं। ... - एक अन्य मूर्ति भी विलक्षण है। एक वृक्षको दो शाखाएं फैली हुई हैं। उनके सिरेपर दो देवियाँ हैं जो पुष्पमाला धारण किये हुए हैं। वृक्षकी छायामें दायीं ओर पुरुष और बायीं ओर स्त्री बैठी हुई है। दोनोंके बायें घुटनेपर एक-एक बालक बैठा हुआ है। श्री दायें हाथमें सम्भवतः आम्रफल लिये है। बालक भी फल लिये है। पुरुषके सिरपर मुकुट और गलेमें रत्नाभरण हैं। वृक्षकी पत्रावलियोंके बीचमें जिन-प्रतिमा दृष्टिगोचर होती हैं। निम्न भागमें उपासकोंकी सात मूर्तियाँ बनी हुई हैं जो आमने-सामने मुख किये हुए हैं। अवश्य ही यह गोमेद यक्ष और अम्बिका यक्षीकी मूर्ति है। ऊपर भगवान् नेमिनाथकी मूर्ति है।
मनोवेगा देवीकी एक मूर्ति बदनावरसे प्राप्त हुई है। देवी चतुर्भुजी है। वह अश्वपर आरूढ़ है। उसके दोनों दायें हाथ खण्डित हैं। ऊपरके बायें हाथमें ढाल है तथा नीचेके बायें हाथसे रास सँभाले हुए है। उसका एक पैर रकाबमें है और दूसरा पैर जंघाके ऊपर रखा है। देवीके
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१९ गलेमें मौक्तिक माला और कानोंमें कुण्डल हैं। देवीके ऊपर एक मण्डप-सा बना हुआ है, जिसपर तीन जिन-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। चारों कोनोंपर भी छोटी-छोटी जिन-मूर्तियाँ हैं। मूर्तिकी चरणचौकीपर अभिलेख भी है। उसके अनुसार देवी-प्रतिमाको सं. १२२९ (सन् १९७२) में कुछ कुटुम्बोंके व्यक्तियोंने वर्धमानपुर (बदनावर ) के शान्तिनाथ मन्दिर में विराजमान किया। इसी मन्दिरमें शक सं. ७०५ ( ई.७८३ ) में आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराणकी रचना पूर्ण की थी।
जैन संग्रहालय उज्जैनमें बदनावरसे प्राप्त कई देवियोंकी मूर्तियां सुरक्षित हैं। यहाँ अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, महामानसी, रोहिणी, गोमेधा, निर्वाणी और ब्रह्माणी की कई स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी हैं।
विक्रम विश्वविद्यालयमें चक्रेश्वरी देवीकी एक अद्भुत प्रतिमा उपलब्ध है। देवी अष्टभुजी और गरुड़ासना है। किन्तु पांच हाथ भग्न हैं। शेष हाथोंमें चक्र और वज्र हैं । गरुड़ मनुष्याकृतिके रूपमें प्रदर्शित है और वह अपने दोनों हाथोंको ऊपर उठानेका उपक्रम करता प्रतीत होता है। देवीके मस्तकके ऊपर ऋषभदेव जिनकी प्रतिमा है। एक वृक्षका अंकन है, जिसपर दो वानर प्रदर्शित हैं। देवीके दोनों पावों में उनके सेवक-सेविका, देव-देवी आकाशगमन कर रहे हैं। मध्य भागमें नवग्रहोंका अंकन बहुत ही कलापूर्ण और भव्य बन पड़ा है। किसी देवी-प्रतिमाके साथ नवग्रहोंका अंकन प्रायः देखने में नहीं आता।
इनके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, ज्वालामालिनी, सरस्वती, मनोवेगा आदि देवियोंको दुर्लभ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं---- कारीतलाई, खजुराहो, पावागिरि, ग्यारसपुर, सिद्धवरकूट, सोनागिरि, गन्धर्वपुरी, बीना बारहा, थूबौन, द्रोणगिरि, रेशंदीगिरि, गुरीलागिरि, खन्दार, चूलागिरि, रखेतरा आदि।
खजराहोके आदिनाथ मन्दिरके द्वारके सिरदलपर देवियोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। मन्दिरकी बाह्य भित्तियोंपर १६ देवियोंकी मूर्तियां बनी हुई हैं जो सम्भवतः १६ विद्या देवियां हैं। यहाँके पार्श्वनाथ मन्दिरके महामण्डप और प्रवेशद्वारके ऊपर ललाट-बिम्बपर दसभुजी चक्रेश्वरी, त्रिमुख ब्रह्माणी, चतुर्भुज सरस्वती, चतुर्भुज लक्ष्मी, षड्भुजी सरस्वती आदि देवियोंका अंकन मिलता है। यहाँके सभी प्राचीन जैन मन्दिरोंके शिखरकी रथिकाओं और तोरणपर इन शासन-देवताओंकी मूर्तियाँ बहुसंख्यामें मिलती हैं। - इस प्रकार मध्यप्रदेशमें चन्देल, कलचुरि, परिहार और परमार कालकी अनेक देव-देवी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। यह काल ७वीं से १२वीं शताब्दी तकका माना जाता है। लगता है, इस कालमें शासन-देवियोंकी मान्यता मध्यप्रदेशमें विशेष बढ़ी हुई थी। यद्यपि इस कालकी २४ यक्षियों, १६ विद्या देवताओं और ६४ अधिष्ठात देवियोंकी समवेत अथवा एकाकी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु इन देवियोंमें भी अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, सरस्वती और लक्ष्मीकी मूर्तियाँ अत्यधिक मिलती हैं।
देवायतन
.. देवालय साधना और अर्चनाके स्थान होते हैं। वहाँ जाकर मनुष्यके मनको आध्यात्मिक शान्ति और सन्तोषका अनुभव होता है। साहित्यिक साक्ष्योंके आधारपर कहा जा सकता है कि कर्मभूमिके प्रारम्भिक कालसे जिनायतनोंका निर्माण होता रहा है। भगवज्जिनसेनकृत 'आदिपुराण'के अनुसार इन्द्रने जब अयोध्याकी रचना की तो उसने सर्वप्रथम पांच जिनालयोंकी रचना की अर्थात् चारों दिशाओंमें एक-एक तथा एक जिनालय नगरके मध्यमें। इसके पश्चात् भगवान्
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ आदिनाथके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती द्वारा ७२ जिनालयोंके निर्माणके उल्लेख मिलते हैं । इसके बाद अनेक व्यक्तियोंने जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया, इस प्रकारके उल्लेख पुराण साहित्यमें स्थान-स्थानपर उपलब्ध होते हैं ।
__इतिहास और पुरातत्वके विद्वानोंका अभिमत है कि अति प्राचीन कालमें मन्दिरोंका निर्माण नहीं होता था, स्तूप बनाये जाते थे । पूज्य पुरुषोंके निधन-स्थानपर स्तूपोंका निर्माण होता था। उनकी किसी विशेष घटनाको स्मृतिको सुरक्षित रखनेके लिए भी स्तूप निर्मित किये जाते थे। मथुरामें स्तूपके अवशेष मिले हैं। इन्हींका विकास होते-होते गुफा-चैत्य अथवा गुहा-मन्दिर बनाये जाने लगे। इसी कालमें विहारोंका भी निर्माण होना प्रारम्भ हुआ। सम्भवतः गहा-मन्दिरोंके आधारपर ही स्वतन्त्र मन्दिरोंके निर्माणको परम्परा चली। मन्दिरोंके संरचनात्मक शिल्पमें जो वैविध्य उपलब्ध होता है, वह सब प्रान्त, रुचि और संस्कृतिके विभेदके कारण है। वास्तु-कला और शिल्पका ज्यों-ज्यों विकास होता गया, मन्दिरोंकी संरचना और शिल्पमें भी उसी प्रकार परिवर्तन होते गये।
___यद्यपि प्राचीन स्तूप वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है किन्तु गुहा-मन्दिर अब तक उपलब्ध होते हैं। वे न केवल प्राचीन वास्तुकागके ही निदर्शन हैं, अपितु उनसे तत्कालीन सामाजिक स्थिति और इतिहासपर भी विशद प्रकाश पड़ता है । जैनाश्रित कलासे सम्बन्धित गुहा-मन्दिरोंमें सर्वाधिक प्राचीन महाराष्ट्र प्रदेशके उस्मानाबाद. जिलेमें तेरापुरकी गुफाएं हैं। जैन साहित्यिक स्रोतोंके अनुसार ये महाराज करकण्डु द्वारा निर्मित करायी गयी थीं। करकण्डु नरेशका काल ईसा पूर्व ८०० से ६०० के बीचका है।
___ इसी प्रकार भद्रबाहु गुफा ( श्रवणबेलगोला), सोन भण्डार गुफा (राजगिरि), पभोसाकी गुफाएं, उदयगिरि-खण्डगिरि (उड़ीसा), उदयगिरि (विदिशा), बाबा प्यारामठकी गुफाएँ (जूनागढ़), सित्तन्नवासल, बादामी, ऐहोल, ऐलोरा, अंकाई-तंकाई आदिकी गुफाएँ मौर्यकालसे लेकर ११-१२वीं शताब्दी तककी हैं। इनमें से कुछ गुफाएँ केवल मुनियोंके ध्यान-अध्ययनके ही काममें आती थीं, किन्तु अधिकांश गुफाओंमें तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मध्यप्रदेशमें उदयगिरि, ग्वालियर आदि कुछ ही स्थानोंपर गुहा-मन्दिर हैं। - जैनोंमें विहारोंकी परम्परा प्राचीन कालसे रही है। इन विहारोंका उपयोग मुनियोंके आवास और गरुकलके रूपमें होता था। ऐसे ही एक विहारका उल्लेख पहाडपर (जिला राजशा बंगाल) के ताम्रलेखमें आया है। लेखानुसार इसका काल गुप्त सं. १५९ (ई० सन् ४७२) है। इस लेखमें पंचस्तूप निकायके निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहन्दि और उनके शिष्योंसे अधिष्ठित विहार मन्दिरके लिए दिये हुए दानका उल्लेख किया गया है । इस लेखमें जिस विहारका उल्लेख किया गया है, संयोगसे उत्खननके फलस्वरूप वह विहार भूगर्भसे प्रकट हो चुका है । यह विहार अत्यन्त विलक्षण है। इसमें लगभग १७५ गुफाकार कोष्ठ हैं। चारों दिशाओं में द्वार बने हए हैं तथा मध्यमें सर्वतोभद्र मन्दिर बना हुआ है । मन्दिर तीन मंजिलका है। दुःख है कि इस विहारके अतिरिक्त अन्य कोई जैन बिहार नहीं मिला। पहाड़पुरके ताम्रपत्रमें उल्लिखित गुहन्दि आचार्य पंचस्तूपान्वयी थे। इसी परम्परामें षट्खण्डागमके विद्वान् टीकाकार वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्य हुए। पहाड़पुरका यह विहार ईसाकी पहली दूसरी शताब्दीसे विद्या और जैनधर्मका महान् केन्द्र रहा था। - जब हम जैन मन्दिरोंके सम्बन्धमें विचार करते हैं तो हमें लगता है, जबसे जैन मूर्तियां उपलब्ध होती हैं, तभोसे जेन मन्दिर भी मिलते हैं। अबतक उपलब्ध मूतियोंमें सर्वाधिक प्राचीन मूर्ति लोहानीपुर (पटना) की मानी जाती है । यहां दो जिन-मूर्तियां उपलब्ध हुई थीं-एक मूर्तिका
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ तो कबन्ध मात्र है। उसमें भी आधी भुजाएँ और घुटनोंसे नीचेका भाग नहीं है। दूसरी मूर्ति सिरके आधे भागसे गरदन तक ही है। दोनों ही तीर्थंकर-मूर्तियां हैं और ओपदार पालिशके कारण इन्हें मौर्यकालीन स्वीकार किया गया है । यहां एक जैन मन्दिरकी नींव भी मिली है। यहाँकी ईंटें मौर्यकालीन सिद्ध हो चुकी हैं । यहाँ एक मौर्यकालीन रजतमुद्रा भी प्राप्त है।
मध्यप्रदेशमें गुप्तकालसे पूर्वके किसी चैत्य, स्तूप या विहारके अवशेष उपलब्ध नहीं हुए। यहां मध्यकालसे पूर्वका भी कोई जैन मन्दिर अथवा उसके अवशेष भी उपलब्ध नहीं हुए । ग्यारसपुरका वज्रमठ और खजुराहोका पार्श्वनाथ मन्दिर सम्भवतः मध्यप्रदेशके जैन मन्दिरोंमें सर्वाधिक प्राचीन हैं। इनका निर्माणकाल १०वीं शताब्दी है। कुछ विद्वानोंके मतानुसार ग्यारसपुरका यह भग्न मन्दिर १०वीं शताब्दीसे भी पूर्वका है। फर्गुसन साहब तो इसे ७वीं शताब्दीका अनुमानित करते हैं। खजुराहोंके आदिनाथ और शान्तिनाथ मन्दिर इसके कुछ काल बादके हैं। ११-१२वीं शताब्दीके मन्दिरोंमें उल्लेखनीय है पावागिरि ऊनके चौबारा डेरा, नहाल अवारका डेरा और ग्वालेश्वर मन्दिर, रेशंदीगिरिका पार्श्वनाथ मन्दिर, खनियाधानाके आसपास गूड़र, गोलाकोट, तेरहीके भग्नप्राय मन्दिर भी इसी कालके लगते हैं। पतियानदाईका मन्दिर अपने संरचनात्मक शिल्पके कारण गुप्तकालीन कलाके साथ समानता रखता है, किन्तु इसे मध्यकालका माना गया है।
___ मन्दिरोंके निर्माण-कालका निर्णय उसकी संरचनात्मक विशेषता, शिखरको शैली आदि तत्त्वोंके आधारपर किया जाता है। मन्दिरोंमें प्रायः निर्माण-काल-सूचक अभिलेख लगानेकी परम्परा नहीं रही । अतः मन्दिरमें विराजमान मूर्तियोंके लेखके आधारपर मन्दिर-प्रतिष्ठाका काल-निर्णय कर लिया जाता है, किन्तु मूर्ति-लेखोंका आधार इस सम्बन्धमें सदा ही विश्वसनीय सिद्ध नहीं हो पाता । कारण स्पष्ट है । कभी-कभी मन्दिर और मूर्तिके प्रतिष्ठापक भिन्न-भिन्न और भिन्नकालीन व्यक्ति होते हैं । अनेक बार मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा किसी स्थानपर करा ली जाती है और आवश्यकता एवं सुविधाको दृष्टिसे किसी मन्दिरमें विराजमान कर दी जाती है। एक ही मन्दिरमें विभिन्न कालोंकी विभिन्न व्यक्तियों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां मिलती हैं। मन्दिरके काल-निर्णयमें वे ही मूर्तिलेख सहायक सिद्ध हो सकते हैं, जिनके सम्बन्धमें यह निश्चित हो जाये कि मन्दिर और मूर्तिको प्रतिष्ठा एक साथ हुई है। इन कारणोंसे अभिलेखके अभावमें किसी मन्दिरके निर्माणकालका निश्चय करना अत्यन्त कठिन होता है। इसीलिए हमने उपर्युक्त मन्दिरोंके अतिरिक्त अन्य मन्दिरोंका उल्लेख नहीं किया।
जहाँ तक हमारी जानकारी है, मध्यकालके जैन मन्दिरोंमें केवल खजुराहो, ग्यारसपुर और उनके मन्दिर ही कुछ अच्छी दशामें हैं, शेष मन्दिर तो अर्धभग्न दशामें खड़े हैं। इन स्थानोंके जिनालयोंके ऊपर शिखरकी भी संयोजना है। किन्तु इनमें भी खजुराहोके शिखरोंकी रचना और अलंकृति अति भव्य है। इन मन्दिरोंमें पार्श्वनाथ मन्दिरकी कला तो अनुपम है। शिल्पीके हस्तकौशलने पाषाणोंमें मानो प्राण डाल दिये हों। वैसे इन तीनों स्थानोंके मन्दिरोंकी कला और शिखर-संयोजनामें अद्भुत साम्य पाया जाता है। .--यहाँ खजुराहोके अन्य तीन मन्दिरोंके सम्बन्धमें जेम्स फर्गुसनके अभिमतका उल्लेख करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता। चौंसठ योगिनी मन्दिरकी प्रमिति और देवकुलिकाओंको देख कर उनकी यह धारणा बनी कि 'मन्दिर निर्माणकी यह रीति जैनोंकी अपनी विशेषता है, अतः-मूलतः इसके जेन होनेमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है।' मध्यवर्ती मन्दिर अब नहीं है। फर्गुसन साहबके मतानुसार सम्भवतःप्राचीन बौद्ध चैत्योंके समान यह काष्ठका रहा हो। सम्भवतः खजुराहोके
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिर समूहमें यही मन्दिर प्राचीनतम रहा हो। घण्टाई मन्दिरी रचना शैलीके आधारपर इसे भी फर्गुसन साहबने जैन स्वीकार किया है। यहाँ प्राप्त खण्डित लेखकी लिपिके आधारपर कनिधम साहबने इसे छठी-सातवीं शताब्दीका माना है। फर्गुसन साहब भी इसकी रचना शैलीके आधारपर यही काल मानते हैं।
मध्यप्रदेशके तीर्थोपर गहरा चिन्तन करनेपर उनकी एक विशेषता और सामने आती है। यहाँके कुछ तीर्थ तो वास्तवमें मन्दिरोंके नगर हैं। जैसे सोनागिरमें छतरियों सहित १०० मन्दिर हैं । इसी प्रकार पपौरामें १०७, कुण्डलपुरमें ६०, रेशंदीगिरिमें ५२, मढ़ियामें ३२, द्रोणगिरि में २९, थूबौनमें २५ और पटनागंजमें २५ मन्दिर हैं। लगता है, ये तीर्थ मन्दिरोंकी बस्तियों हों। इन स्थानोंपर मन्दिरोंके अतिरिक्त प्रायः और कोई बस्ती नहीं हैं। यदि है भी तो नाममात्रको इसलिए भी इन्हें मन्दिरोंका नगर या बस्ती कहा जा सकता है। इन तीर्थोंमें पपारा और पटनामंजको छोड़कर शेष सभी मन्दिर पर्वतोंके ऊपर हैं। पर्वतोंपर ऊपर-नीचे छितराये हुए इन मन्दिरोंके कारण अद्भत दृश्य प्रतीत होता है। निर्जन एकान्तमें नीरव खड़े हुए और अपने समुन्नत शिखरोंसें आकाशसे बतियाते ये मन्दिर विचित्र रहस्यमय वातावरणकी सृष्टि करते हैं।
__पपौरामें मन्दिरोंकी अद्भुत चौबीसी बनी हुई है। मध्यवर्ती मन्दिरको चारों दिशाओं में छह-छह मन्दिर हैं। ऐसी चौबीसी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। वस्तुतः यह किसी उर्वर कल्पनाशील मस्तिष्ककी देन है।
भोयरे भी मन्दिरोंके ही लघु संस्करण हैं। उनकी कल्पना आपत्कालमें की गयी प्रतीत होती है। जब विदेशी आक्रान्ता मन्दिरों और मूर्तियोंका विध्वंस करने लगे, उस समय मूतियोंकी सुरक्षाके लिए भूगर्भ में भोयरे निर्मित हुए। वहां मूर्तियां पहुंचा दी गयीं। वास्तवमें भोयरों में रखी हुई मूर्तियां आक्रान्ताओंकी दृष्टिसे बची रहीं, इसलिए वे सुरक्षित रहीं। विशेष शान्तिपूर्ण वातावरणकी सृष्टिके लिए भी सम्भवतः ऐसे भोंयरोंका निर्माण होता रहा हो। मध्यप्रदेशमें इन भोयरोंको संख्या केवल ७ हैं। ये भोयरे सोनागिरि, पपौरा, अहार, पनिहार, बीना-बारहा, बन्धा क्षेत्रोंमें बने हुए हैं। पपौरामें २ भोयरे हैं। इन भोयरों में कुछ मूर्तियां. ११-१२वीं शताब्दीकी उपलब्ध होती हैं । भोयरों में रखी हुई मूर्तियां प्रायः अन्य मन्दिरोंसे लायी गयी हैं।
चैत्यस्तम्भ और मानस्तम्भ भी जेन स्थापत्य और जैन मन्दिर शिल्पमें विशिष्ट स्थान रखते हैं। जयसिंहपुरा दिगम्बर जैन मन्दिर उज्जैनके संग्रहालयमें अजीतखो, गुना, इन्दरगढ़, और ईसागढ़से लाये चार चैत्यस्तम्भ सुरक्षित हैं। इनमें चारों दिशाओंमें पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान हैं। विदिशासे उपलब्ध रामगुप्त-अभिलेखवाली प्रतिमाओंसे इनका शैलीमत साम्य प्रतीत होता है। इसलिए पुरातत्वविद् इन्हें गुप्तकालीन मानते हैं। सोनागिरि, पटनागंज, द्रोणगिरि आदि तीर्थोपर भी चैत्यस्तम्भ मिलते हैं।
- इस प्रदेशमें मानस्तम्भ विशेष प्राचीन नहीं मिले हैं। प्राचीन कालमें मानस्तम्मोंकी परम्परा रही है। कहाऊँ ( देवरिया ) में उपलब्ध समुद्रगुप्तकालीन मानस्तम्भसे इसकी पुष्टि होती है। देवगढ़में ११वीं शताब्दीके बने हुए कई मानस्तम्भ अबतक मिलते हैं। किन्तु मध्यप्रदेशमें मध्यकाल तकके २-४ ही मानस्तम्भ मिले हैं, शेष जो विद्यमान हैं, वे सब उत्तरकालीन है। बजयगढ़ किलेमें बना हुआ मानस्तम्भ चन्देल राजाओंके कालका है। अतः यह ११-१२वीं शताब्दीका माना जाता है। यह मानस्तम्भ अद्भुत है। इसके ऊपर सैकड़ों तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। खनियाधानाके तिकट तेरही ग्राममें १०वीं शताब्दीके दो जिन मन्दिर हैं। एक मानस्तम्भ भी
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२३ बना हुआ है जो सम्भवतः इन्हींके समकालीन हैं। इसी प्रकार इसके थोड़ी दूर सकरां गाँवमें भी एक प्राचीन मानस्तम्भ खड़ा हुआ है। अहार क्षेत्रपर दो मानस्तम्भ हैं जो १०वीं शताब्दीके हैं।
नन्दीश्वर जिनालय और सहस्रकूट जिनालय भी जिनालय-शिल्पकी एक विशिष्ट विधा हैं। कोनी, पटनागंज, थूबौन, पनागर आदिमें अब भी ये मिलती हैं। अभिलेख
. मध्यप्रदेशमें अभिलेखोंका बाहुल्य है । इन अभिलेखोंका विशेष महत्त्व है। इनसे इतिहासके अनावृत पृष्ठोंपर प्रकाश पड़ता है तथा शिल्पकलाके क्रमिक विकासकी जानकारी मिलती है। अभिलेख दो प्रकारके होते हैं-शिलालेख और प्रतिमालेख । मध्यप्रदेशमें उपलब्ध जैन शिला- . लेखोंमें सर्वप्राचीन लेख उदयगिरि (विदिशा ) के गुफा मन्दिरके हैं। यह वहाँकी गुफा नं. २० की एक भित्तिपर अंकित है। यह अभिलेख गुप्त संवत् १०६ ( ई. सन् ४२५ ) का है। उस समय कुमारगुप्त प्रथमका शासन था। इसी स्थानको एक मूर्तिकी चरण-चौकीपर रामगुप्तकालीन अभिलेख भी उपलब्ध हुआ है। ये ही दोनों लेख मध्यप्रदेशके जैन अभिलेखोंमें सर्वाधिक प्राचीन माने जाते हैं।
इसके पश्चात् लगभग ५ शताब्दीका काल अन्धकार युग कहा जा सकता है। इस कालका कोई जैन अभिलेख इस प्रदेशमें प्राप्त नहीं हुआ। सम्भव है, इस कालके शिलालेख और मूर्तिलेख खण्डित हो गये हों। किन्तु निश्चित रूपसे कुछ कहा नहीं जा सकता कि इस लम्बे अन्तरालमें कोई जैन अभिलेख न मिलनेका क्या ऐतिहासिक कारण रहा है। ग्यारसपुरमें वज्रमठ जैन मन्दिरके निकट आठ खम्भे खड़े हुए हैं। उनमें से एक स्तम्भपर एक अभिलेख है जिसमें वि. सं. १०३९ में किसी भक्त द्वारा यहाँकी यात्रा करनेका उल्लेख किया गया है। खजुराहोके घण्टई मन्दिरमें दो लेख अंकित हैं जो वि. सं. १०११ और १०१२ के हैं। चूलगिरिके एक मन्दिरके सभामण्डपसें ४ शिलालेख उत्कीर्ण हैं। ये वि. सं. १११६, १२२३ और १५०८ के हैं। ग्वालियरके संग्रहालयमें वि. सं. १३१९ का भीमपुरका महत्त्वपूर्ण शिलालेख सुरक्षित है। इन्दौर संग्रहालयमें जैन मन्दिरके प्रवेशद्वारके शिरदलपर अंकित वि. सं. १३३२ का वह लेख सुरक्षित है जो पावागिरि ऊनसे यहां लाया गया था।
प्रायः सभी जैन मूर्तियोंपर लेख मिलते हैं। लेख मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर होते हैं। किन्तु अनेक मूर्तियाँ खण्डित कर दी गयी हैं। इससे लेख भी खण्डित होनेसे पढ़े नहीं जा सकते। कुछ मूर्तियोंके लेख अधिक प्राचीन होनेसे अस्पष्ट हो गये हैं। तुमैन, तेरही, नाचना कुठार, उछहरा, भूभरा आदि कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ मौर्य और गुप्तकालके लेख हिन्दू और बौद्ध कलाकृतियोंपर मिलते हैं। उन स्थानोंपर भग्न जैन मन्दिरों और मूर्तियोंके अवशेष प्रचुर परिमाणमें मिलते हैं, जिनके सम्बन्धमें अनुमान किया जाता है कि ये भी वहींकी हिन्दू या बौद्ध कलाकृतियोंके ही समकालीन होंगे, किन्तु दुख है कि इन स्थानोंके जैन अवशेषोंमें कोई लेख उपलब्ध नहीं हुआ।
वर्तमानमें जो मूर्ति-लेख मिलते हैं, वे प्रायः ११वीं शताब्दीके या उसके पश्चात्कालीन हैं। ११वीं शताब्दीके मूर्तिलेख खजुराहोके शान्तिनाथ मन्दिरमें मूलनायक शान्तिनाथ तीर्थंकर तथा वहीं अहातेमें रखी हुई एक तीर्थंकर प्रतिमाके पादपीठपर अंकित है। इसके अतिरिक्त अहार, सोनागिरि, बजरंगढ़में इस शताब्दीके मूर्तिलेख अनेक स्थानोंपर उपलब्ध होते हैं, जैसे अहार, सोनागिरि, चूलगिरि, खण्डवा, पपौरा, खजुराहो, बजरंगढ़, ग्यारसपुर, गन्धर्वपुरी, बन्धा, आमनचार तथा रायपुर, जबलपुर, विक्रम विश्वविद्यालय संग्रहालय एवं जयसिंहपुरा जैन मन्दिर,
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भारतके दिगम्बर जन तीर्थ उज्जैन संग्रहालय। १३वीं शताब्दीके मूर्ति-लेख अहार, चूलगिरि, ऊन तथा इस प्रदेशके विभिन्न संग्रहालयोंमें मिले हैं। इसके पश्चात्कालके मूर्तिलेख तो विभिन्न तीर्थक्षेत्रों और मन्दिरोंकी अनेक मूर्तियोंकी पादपीठिकापर मिलते हैं।
सारांशतः मध्यप्रदेश जैन पुरातत्त्वको दृष्टिले अत्यन्त समृद्ध है। परिमाणको दृष्टिसे कोई अन्य प्रदेश जैन पुरातत्त्वके क्षेत्रमें मध्यप्रदेशके साथ समता नहीं कर सकता। यह इस प्रदेशका सौभाग्य है कि यहाँके वन-उपवन, पर्वत, उपत्यका, नदी, सरोवर, दुर्ग, वापिका सर्वत्र जैन पुरातत्त्वकी सामग्री प्रचुर संख्यामें बिखरी पड़ी है। और यह इस प्रदेशका दुर्भाग्य है कि यहाँके घरोंकी दीवालों, आँगन, सीढ़ियों और पाखानों तकमें जैन मूर्तियां लगी हुई मिलती हैं, धोबी जैन मूर्तियोंकी पीठपर कपड़े पछीटते हैं, अन्धभक्त तीर्थकर मूर्तियोंके आगे बलि देते हैं। यदि स्थानीय जैन समाज प्रयत्न करे अथवा पुरातत्त्व विभाग सक्रिय होकर कुछ कार्य करे तो कलाको यह विडम्बना और विनाश रुक सकता है।
संक्षेप में मध्यप्रदेशमें ११-१२वीं शताब्दी तक प्राप्त होनेवाले पुरातत्त्वकी तालिका दी जा रही है । इस पुरातत्त्वमें मन्दिर, मूर्तियाँ, अभिलेख, स्तम्भ आदि सम्मिलित हैं । यह तालिका पुरातत्त्वके छात्रों और शोधकर्ताओंके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
सिहौनिया-यहाँ नवीन जिनालयमें भगवान् शान्तिनाथकी लगभग १६ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इसके दोनों ओर कुन्थुनाथ और अरनाथकी ८-८ फुट ऊँची प्रतिमाएं हैं। इनका निर्माणकाल ११ वीं शताब्दी है। इस मन्दिरमें भूगर्भसे प्राप्त कुछ प्रतिमाएं रखी हैं तथा मन्दिरसे लगभग एक फलांग दूर एक पाषाण स्तम्भ है जो सम्भवतः मानस्तम्भ रहा होगा । इनका काल भी वही लगता है। ग्वालियर-दुर्गमें पाषाण शिलाओंमें उकेरी हुई लगभग १५०० मूर्तियाँ हैं। अधिकतम अवगाहनावाली मूर्तियोंमें खड्गासनमें आदिनाथ भगवान्की ५७ फुटकी और पद्मासनमें सुपार्श्वनाथ भगवान्की ३५ फुटकी है।
दुर्ग स्थित संग्रहालयमें पर्यकपर शयन करती हुई तीर्थंकर माता और उनके पाश्वमें लेटे हुए बाल तीर्थकरकी एक मूर्ति है। चार दिक्कुमारिकाएँ तीर्थकर माताकी सेवामें रत हैं। यह मूर्ति बड़ोहके गडरमल मन्दिरसे यहाँ लायी गयी है। यह जेन मन्दिर ९वीं शताब्दीका है। उक्त मूर्ति भी इसी कालकी है। संग्रहालयमें पाश्र्वनाथ, आदिनाथ आदिकी कई मूर्तियाँ ११-१२वीं शताब्दीकी हैं। यहाँ उदयगिरि गुहा मन्दिरसे लाया गया एक शिलालेख गुप्त संवत् १०६ ( सन् ४३५ ई.) का हैं जिसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथको प्रतिमाके निर्माण करानेका उल्लेख है। दो अन्य शिलालेख १३वीं शताब्दीके हैं।
सोनागिरि-पर्वतके ऊपर ७७ जिनालय, १३ छतरियाँ, ५ क्षेत्रपाल तथा तलहटीमें १७ जिनालय हैं। पर्वतके ऊपर मन्दिर नं. ४५, ५४, ५७, ७६ में ११-१२वीं शताब्दीकी कई मूर्तियाँ हैं।
बजरंगढ़-सेठ पाड़ाशाह द्वारा निर्मित शान्तिनाथ भगवान्की १५ फुट ऊंची प्रतिमा है। इसके दोनों पावोंमें कुन्थुनाथकी ११ फुट ऊँची प्रतिमाएं हैं। ये तीनों सं. १२३६ (ई. सन् ११७९) की हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ विक्रम सं. १०७५, ११५५, १२२५, १२५० की भी कई प्रतिमाएं विद्यमान हैं।
चन्देरो-यहाँकी चौबीसी ( २४ तीर्थंकरोंकी ) मूर्तियाँ अत्यन्त विख्यात एवं भव्य हैं यहाँ कई मूर्तियाँ १०-११वीं शताब्दीकी हैं।
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मध्यप्रदेशके दिनमार जैन तीर्थ अहार-पाड़ाशाह द्वारा प्रतिष्ठित शान्तिनाथ भगवान्की १८ फुट ऊंची प्रतिमा सं. १२३७ (सन् १९८० ) की है । यहांके संग्रहालयमें ११-१२वीं शताब्दीकी अनेक मूर्तियाँ हैं।
धूबौन-शान्तिनाथ भगवान्की १८ फुट ऊंची प्रतिमा है जिसकी प्रतिष्ठा सेठ पाड़ाशाह द्वारा हुई बतायी जाती है। १६, १५ और १२ फूटकी भी कई मतियां हैं। यहाँ विशेष प्राचीन मूर्ति कोई नहीं है। सम्भवतः शान्तिनाथ मूर्ति १२वीं शताब्दीकी है। यहाँ कुल २५ मन्दिर हैं। इनमें एक गुमटी हनुमान्जीकी है। हनुमान्जीकी मूर्ति ७ फुट ऊँची, पूंछ और वानर मुखवाली है। उनके दोनों कन्धोंपर दो दिगम्बर मुनि बैठे हुए हैं। यह दृश्य पद्मपुराणमें वर्णित उस प्रसंगका स्मरण दिलाता है, जब जलते हुए दो मुनियोंका उपसर्ग हनुमान्जीने दूर किया था।
कुण्डलपुर-यहाँ कुल ६० जिनालय हैं-४० पर्वतके ऊपर और २० तलहटीके मैदानमें। मैदानके मन्दिरों और पर्वतके बीच में वर्धमानसागर नामक विशाल सरोवर है। यहाँ मन्दिर नं. २५ में एक मूर्ति बारहवीं शताब्दी ( वि. सं. ११५७ ) की है।
रेशंदीगिरि-यहां कुल ५१ जिनालय हैं-३६ पहाड़ीके ऊपर और १५ मैदानमें । मन्दिर नं. ११ (पार्श्वनाथ मन्दिर) उत्खननके फलस्वरूप निकला था। उसके साथ १३ मूर्तियाँ भी निकली थीं। ये मन्दिर और मूर्तियाँ सं. ११०९ ( ई. सन् १०५२ ) के हैं । यहाँ एक सरोवरके मध्यमें एक जिनालय बना हुआ है। दृश्य बहुत सुन्दर है। .
बीना-बारहा-यहाँ कुछ प्राचीन मूर्तियाँ हैं। कुछ तो यहींकी हैं, कुछ अन्य स्थानोंसे उत्खनन आदिसे प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ मूर्तियाँ अनुमानतः ११-१२वीं शताब्दीकी हैं। यहाँ मन्दिरोंकी दीवालों और द्वारोंके सिरदलोंपर कुछ मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। उनमें कई मूर्तियाँ अद्भत हैं। एक मूर्ति पार्श्वनाथकी माता वामादेवीकी है। माता शय्यापर लेटी हुई हैं। उनके सिरपर सर्पफण-मण्डप है। देवी चरण सेवा कर रही है। शीर्ष भागपर पद्मावती देवी सर्पफण-मण्डप सहित बैठी है । देवियाँ नृत्य द्वारा माताका मनोरंजन कर रही हैं। एक अन्य तीर्थंकर माताकी मूर्ति है। माता लेटी हैं। दिक्कुमारियाँ सेवारत हैं । शीर्षभागपर पद्मभासन तीर्थकर मूर्ति है । सरस्वतीकी एक मूर्ति बड़ी अद्भुत है। मध्यमें सरस्वती बैठी है। उसके एक और अष्टमातृकाएँ हैं तथा दूसरी ओर नवग्रह बने हुए हैं।
दो बातें यहाँ और भी अद्भत हैं। प्रथम तो यह कि १३ फुट ऊँची भगवान् महावीरको पद्मासन मूर्ति दीवालमें चिनी हुई हैं। यह ईंट-गारे द्वारा बनी हुई है। द्वितीय यह कि ऋषभदेवको मूर्तियोंके समान यहाँ अन्य तीर्थंकर मूर्तियोंपर भी केशोंकी लटें दिखाई पड़ती हैं। यहाँ शान्तिनाथ भगवान्की १५ फुट उत्तुंग एक खड्गासन प्रतिमा है।
__ पनागर-मूल नायक भगवान् ऋषभदेवको ८ फुट ऊंची खड्गासन प्रतिमा अनुमानतः ११-१२वीं शताब्दीकी प्रतीत होती है।
बहुरीबन्द-भगवान् शान्तिनाथकी १४ फुट ऊँची खड्गासन मुद्रावाली यह प्रतिमा सं. १०७० ( ई. सं. १०१३ ) में प्रतिष्ठित हुई थी।
कोनी- यहाँके मन्दिर पर्याप्त प्राचीन लगते हैं। यहाँका सहस्रकूट चैत्यालय और नन्दीश्वर जिनालय रचना-शैलीकी दृष्टि से अद्भुत हैं।
पटनागंज-यहां नदी-तटपर २५ जिनालय हैं। यहाँ मूर्तियां अधिक प्राचीन नहीं हैं। किन्तु सहस्रफणावलि युक्त दो पाश्वनाथ प्रतिमाएँ विशेष दर्शनीय हैं।
मढ़िया-यहाँ १३ मन्दिर और २४ मन्दरियाँ हैं । यहाँ पुरातत्त्व सामग्री कुछ भी नहीं है। सिद्धवरकूट-क्षेत्रपर कुल १० मन्दिर हैं । यहाँ ओंकारेश्वरके पुरावशेषोंमें से २-३ मूर्तियां
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ रखी हुई हैं जिनका अनुमानिक काल १०-११वीं शताब्दी है। कावेरीके तटवर्ती जंगलमें भग्न जैन मन्दिर और मूर्तियां पड़ी हुई हैं। इनमें एक मूर्ति ५ फुट ऊँची है। एक वस्त्रालंकार-सज्जित राजपुरुष है, उसके शीर्षपर पद्मासन मुद्रामें अर्हन्त प्रतिमा विराजमान है। यह मूर्ति १०-११वीं शताब्दीकी प्रतीत होती है।
चूलगिरि-यहाँ भारतकी सबसे विशाल प्रतिमा भगवान् ऋषभदेवकी विराजमान है जो ८४ फीट ऊंची है। क्षेत्रपर कुल २९ जिनालय हैं-८ पहाइपर और २१ मैदानमें। क्षेत्रपर दो प्रतिमाएं संवत् ११३१ ( ई. सन् १०७४ ) तथा दो प्रतिमाएं संवत् १२४२ ( ई. सन् ११८५ ) की हैं। संवत् १३८० की प्रतिमाओंकी संख्या लगभग ५० होगी। चूलगिरि मन्दिरके महामण्डपमें संवत् १११६ ( सन् १०५९ ) और संवत् १२२३ (सन् ११६६ ) के शिलालेख भी हैं। - तालनपुर-भूगर्भसे प्राप्त ५ मूर्तियां मन्दिरमें विराजमान हैं जो संवत् १३२५ ( ई. सन् १२६८ ) की हैं।
पावागिरि-यहाँ ३ प्राचीन जिनालय हैं-वालेश्वर, चोवारा डेरा नं. १ और चोवारा डेरा नं. २। ये तीनों ही १२वीं शताब्दोके हैं। ग्वालेश्वर (शान्तिनाथ ) जिनालय जैनोंके अधिकारमें हैं, शेष दोनों पुरातत्त्व विभागके अधिकारमें हैं। धर्मशालामें स्थित महावीर मन्दिर और ग्वालेश्वर मन्दिरमें कई मूर्तियां १२वीं शताब्दी की हैं। पुरातत्त्व विभागके संग्रहालयमें भी १२वीं शताब्दीकी जैन मूर्तियां बहुत हैं। यहाँकी कुछ मूर्तियाँ, तोरण शिलालेख आदि इन्दौर संग्रहालयमें सुरक्षित हैं जो १२वीं शताब्दीके हैं । यहाँके प्राचीन मन्दिरोंका शिल्प अत्यन्त कलापूर्ण और मनोहर है। शिखरकी रूप पट्टिकाओं और रथिकाओंपर यक्ष-यक्षी, सुर-सुन्दरियोंकी मूर्तियां और मिथुन मूर्तियां अंकित हैं।
- ग्यारसपुर-कलाके समृद्ध आगारोंमें ग्यारसपुरका मालादे मन्दिर और वज्रमठ अपना . विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं । ये मन्दिर ९-१०वीं शताब्दीमें निर्मित हुए थे। मालादे मन्दिरमें १४ तीर्थंकर मूर्तियां रखी हुई हैं। द्वारपर शान्तिनाथ तीर्थंकरकी यक्षी महामानसी बनी हुई है। शिखरको जंघा और रथिकाओंमें तीर्थंकर और यक्ष-यक्षियोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। बज्रमठमें ४ तीर्थंकर मूर्तियाँ विराजमान हैं। उसके प्रवेश-द्वारोंके सिरदलोंपर अर्हन्त मूर्तियाँ हैं। इसकी बाह्य भित्तियों और शिखरकी अलंकरण-पट्टिकाओंमें जैन यक्ष-यक्षियोंकी मूर्तियाँ हैं। अतः ये मन्दिर और मूर्तियाँ जैन हैं और ९-१०वीं शताब्दीके हैं। इसी कालकी एक मूर्ति बस्तीके जैन मन्दिर में है।
खजुराहो-यहां एक ही अहातेमें ३२ जिनालय हैं। इसमें पार्श्वनाथ, आदिनाथ आदि कई जिनालय १०-११वीं शताब्दीके बने हुए हैं। इनकी अन्तः तथा बाह्य भित्तियोंपर तीर्थंकरमूर्तियां, बाहुबलीकी मूर्ति तथा पौराणिक कथानकोंसे सम्बन्धित दृश्य-जैसे राम और सीता, अशोक वाटिकामें हनुमान् आदि, तीर्थंकरोंके सेवक यक्ष-यक्षी, सुरसुन्दरियाँ विभिन्न आकर्षक मुद्राओंमें अंकित हैं। ये भी उपर्युक्त कालकी हैं । मन्दिर नं. १ में शान्तिनाथ जिनालयमें शान्तिनाथ भगवान्की १६ फुट ऊंची खड्गासन मूर्ति संवत् १०८५ ( ई. स. १०२८) की है। मन्दिर नं.८ में भगवान् चन्द्रप्रभकी मूर्ति १२वीं शताब्दीकी है। यहाँका घण्टई मन्दिर १०वीं शताब्दीका है । इन मन्दिरोंकी शिल्प-शैली और सज्जा अत्यन्त उत्कृष्ट कोटिकी है। इनकी भित्तियों, रथिकाओं और द्वारशाखाओंपर यक्षियोंकी बहुभुजी मूर्तियाँ हैं। दशभुजी चक्रेश्वरी, चतुर्भुजी लक्ष्मी, अम्बिका, पद्मावती, गजलक्ष्मी-गंगा-जमुना, सरस्वती एवं चतुर्भुजी त्रिमुख ब्रह्माणीको मूर्तियां बड़ी मनोज्ञ हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ यहाँके संग्रहालयमें कई जैन मूर्तियां संवत् १२०५ की हैं।
गन्धर्वपुरी-सरकार तथा ग्राम पंचायतके संग्रहालयमें अनेक प्राचीन मूर्तियां संग्रहीत हैं। इनमें अनेक मूर्तियाँ १०-११वीं शताब्दीकी हैं। यहां चक्रेश्वरीकी एक षोडशभुजी मूर्ति अत्यन्त सुन्दर है।
गोलाकोट–यहाँका मन्दिर और मूर्तियां विक्रम संवत् १००० से १२०० तककी हैं। - पचराई–यहाँ २८ जिनालय हैं। इनमें ११वीं शताब्दीकी अनेक मूर्तियां हैं। शीतलनाथ भगवान्की एक मूर्ति १२ फुट ऊँची है।
बन्धा-भगवान् अजितनाथकी मूलनायक प्रतिमा विक्रम सं. ११९९ ( ई. स. ११४२ ) की है। इसके दोनों पार्यो में स्थित ऋषभदेव और सम्भवनाथ तीर्थंकरोंकी दो मूर्तियां संवत् १२०९ ( ई. स. ११५२ ) की हैं। अन्य भी कई मूर्तियाँ इसी कालकी हैं।
उदयगिरि-यहाँ गुफा नं. १ और २० जैनोंसे सम्बन्धित हैं। गुफा नं. २० में एक शिला
वत १०६ (ई.स.४२५) का है। इसमें शंकर नाम व्यक्ति द्वारा पार्श्वनाथ तीर्थंकरकी मूर्ति निर्माण कराये जानेका उल्लेख है। यहाँको एक तीर्थकर-मूर्ति विदिशा संग्रहालयमें तथा अन्य दो तीर्थंकर मूर्तियां भोपाल संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। विदिशा संग्रहालयकी यह प्रतिमा अद्भुत है और सम्राट् रामगुप्तने उसकी प्रतिष्ठा करायी थी। यहां उदयगिरिसे प्राप्त एक प्रतिमा सुरक्षित है जो संवत् १२१४ में प्रतिष्ठित हुई थी। इस संग्रहालयमें, श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजीके मन्दिरमें एवं उपयुक्त दोनों गुफाओमें कई मूतियाँ ६वीं शताब्दीसे १०वीं शताब्दी तककी हैं। इस प्रकार उदयगिरिमें गुप्तकालके गुहा मन्दिर, अभिलेख और मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। सम्भवतः मध्यप्रदेशमें इससे प्राचीन जैन शिलालेख, मन्दिर और मूर्ति अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती। इस दृष्टिसे उदयगिरिका जैन पुरातत्त्व मध्यप्रदेशके जैन पुरातत्त्वमें सर्वाधिक प्राचीन है। ..
उदयपुर-यहाँ १०-११वीं शताब्दीकी तीर्थंकर मूर्तियां और मन्दिर हैं।
पठारी-यहां गडरमल मन्दिर, वन-मन्दिर तथा अन्य कई जैन मन्दिर एवं तीर्थंकर मूर्तियाँ ८-९वीं शताब्दीके विद्यमान हैं।
बदनावर-यहांकी अनेक मूर्तियां जैन संग्रहालय उज्जैनमें हैं। इन मूर्तियोंपर संवत् ११२२, १२०२, १२०५, १२१६, १२१९, १२२८, १२२९, १२३४ तथा इसके पश्चात्कालके लेख हैं। इस प्रकार बदनावरका पुरातत्त्व ११-१२वीं शताब्दी तक पहुंचता है। बदनावरमें इन शताब्दियोंके मन्दिरोंका अवशेष और खण्डित मूर्तियोंके ढेर पड़े हुए हैं।
कारीतलाई-यहांकी अनेक जैन मूर्तियां रायपुर और जबलपुर संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। इनमें कई मूर्तियाँ १०-११वीं शताब्दीकी हैं।
___उज्जयिनी-यहां जैन संग्रहालय और विक्रम विश्वविद्यालयके संग्रहालयमें निकटवर्ती अनेक स्थानोंसे लायी हुई जैन सामग्री सुरक्षित है। इसमें अजीतखो, गुना आदिसे लाये हुए मानस्तम्भके शीर्षभाग अथवा चैत्य सम्मिलित हैं। ये गुप्तकालीन कहे जाते हैं । यहाँ ११-१२वीं शताब्दी. की अनेक प्रतिमाएं विद्यमान हैं।
पपौरा-एक परकोटेके अन्दर १०७ मन्दिर हैं। एक भोयरेमें दो मूर्तियां संवत् १२०२ ( ई. स. ११४५ ) की हैं।
लखनादौन-भगवान् महावीरकी प्रतिमा १०-११वीं शताब्दीकी है। पतियानवाई-यहांका मन्दिर गुप्तकालका माना जाता है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ विशेष उल्लेखनीय
उक्त सन्दर्भ में कुछ विशेष उल्लेखनीय बातोंपर प्रकाश डालना आवश्यक लगता है
भोयरा-मध्यप्रदेशमें सोनागिरि, अहार, पपौरा, बन्धा, बीना-बारहा और पनिहार इन क्षेत्रोंपर भोयरे बने हुए हैं।
- मेरु-मन्दिर-अहार, सोनागिरि, रेशंदीगिरि, खजुराहो, द्रोणगिरि, पटनागंज क्षेत्रपर मेरुमन्दिर निर्मित हैं।
... सहस्रकूट जिनालय-कोनी, पटनागंज, कारीतलाई ( रायपुर संग्रहालय ), ग्वालियर संग्रहालयमें हैं।
____ नन्दीश्वर जिनालय की रचना कई स्थानों पर मिलती है, जैसे थूबौन, सोनागिरि, कोनी, पटनागंज, पनागर, रायपुर संग्रहालय, मक्सी पार्श्वनाथ ।।
मानस्तम्भ-अहार, कुण्डलपुर, सोनामिरि, चूलगिरि, पावागिरि, सिद्धवरकूट, मढ़िया, थूबौन, पपौरा, रेशंदीगिरि, द्रोणगिरि, गूडर इन क्षेत्रोंमें मानस्तम्भ हैं। द्रोणगिरि पर्वतके ऊपरका और अहारमें एक मानस्तम्भ पर्याप्त प्राचीन प्रतीत होते हैं। सिहोनिया और पटनागंजमें पाषाण-स्तम्भ बने हुए हैं । सम्भवतः वे भी मानस्तम्भ रहे हों।
समवसरण रचना-किसी क्षेत्रपर प्राचीन कालकी समवसरण रचना उपलब्ध नहीं होती। सेमवसरणकी आधुनिक रचना मढ़िया और कुण्डलपुरमें है।
भट्टारक पीठ-मध्यप्रदेशमें पनागर, उज्जैन, ग्वालियर और सोनागिरि इन चार स्थानोंपर भट्टारक पीठ रहे हैं । इन्दौरमें भी भट्टारकोंकी गद्दी थी, ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं।
संग्रहालय-मध्यप्रदेशके निम्नलिखित तीर्थक्षेत्रोंपर सरकार या समाजकी ओरसे संग्रहालय स्थापित किये गये हैं अथवा मूर्तियोंका संग्रह हो चुका है और संग्रहालय स्थापित करनेकी योजना है-विदिशा, पावागिरि, ऊन, गन्धर्वपुरी, उज्जयिनी, ग्वालियर, सोनागिरि, अहार, चन्देरी, थूबौन, बीना-बारहा, खजुराहो।
संवत् और सन्-इस ग्रन्थमें प्रसंगानुसार अनेक संवतों और संवत्सरोंका उल्लेख आया है। इनको समझनेमें अनेक विद्वानोंको भी भ्रम हो जाता है। इसका प्रभाव किसी ऐतिहासिक व्यक्ति और घटना कालके निर्णयपर पड़ता है। पाठकोंकी सुविधाके लिए यहाँ ग्रन्थमें आये हुए संवतों-संवत्सरोंका नामोल्लेख करते हुए उनका ईस्वी सन् से अन्तर बताया जा रहा है।
गुप्त संवत् और ईस्वी सन्में ३१९ वर्षका अन्तर है अर्थात् गुप्त संवत् ई. सन् ३१९ में हुआ। कलचुरि संवत्-जिसका दूसरा नाम चेदि संवत् भी है-का प्रारम्भ ईस्वी सन् २४९में हुआ। शक और ईस्वी सन्में ७८ वर्षका अन्तर है अर्थात् ई. सन् ७८में शक संवत्का प्रारम्भ हुआ। विक्रम संवत् और ईस्वी सन्में ५७ वर्षका अन्तर है अर्थात् विक्रम संवत् ५७ में ईस्वी
विक्रम संवत् और शक संवत्में १३५ वर्षका अन्तर है अर्थात् विक्रम संवत् १३५ में शक संवत् प्रारम्भ हुआ।
'हिजरी और ईस्वी सन्में ६०२ वर्षका अन्तर है अर्थात् ई. सन् ६०२ में हिजरी सन् प्रारम्भ हुआ।
कामाका
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चेदि जनपद
सिहौनिया ग्वालियर मनहरदेव सोनागिरि
पनिहार-बरई खनियाधाना और उसके निकटवर्ती क्षेत्र
बजरंगढ़
थूवौन
चन्देरी खन्दारगिरि गुरोलागिरि बूढ़ी चन्देरी आमनचार
भामौन भियादांत बीठला पपौरा अहार
बन्धा खजुराहो द्रोणगिरि रेशन्दीगिरि
पजनारी बीना-बारहा पटनागंज
अजयगढ़ कारीतलाई पतियानदाई
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ग
रा
आ . भ र तर
इटा वा
सम्मा पहनिया भिण्ड
चेदि जनपद
बमबी
सवाई माधोपुर
सबलगढ़
बरदेशवालियर
जा लौ न
-
मरा
पनिहार आंतरी
चादर नाहना मनहादेव सोनागि
बांदा बां
दा
पोहरी
शिवपुरी
म्हौरी बरात हमी र पुर।
नव
इलाहा. बाद
कोटा
मिलाकर
खनियाधान
ch
सोहाग
मिजी पुर
ठलागार मात्र
टीकमगढ़
छतरपुर पालगंज
भियांति
लतपुर/
भागोड-
सतना
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41
PRबिजावर करानगद
प्रमोकनगर
लाल
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मलहरा हीरापुर
चीचट
चाचट
झालावाड़
"हटा
सी
घी
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शन्द्रागिरि बार
कारीतलाई
जनारी
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राज गोद
शहडोल
) वि
संकेत
जबल पुरी ।
-नदियों
पटनागंज
बौना मारहा/दमोह
रांय से न
देवरी
..--.--राज्य की सीमा ------जिला की सीमा |० जिला मुख्यालय
० नगर -- बही रेलवे लाईन
-कोटी रेलवे लाईन
- राजकीय मथ -- अन्य पक्के पथ ---- करचे पथ
जैन तीर्थ प्राचीन स्थल
नरसिंहपुर
१. भारतके महासर्वेक्षककी अनुज्ञानुसार भारतीय सर्वेक्षण विभागीय मानचित्रपर आधारित। © भारत सरकारका प्रतिलिप्यधिकार, १९७६ २. मानचित्रमें दिये गये नामोंका अक्षर-विन्यास विभिन्न सूत्रोंसे लिया गया है।
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सिहौनिया
इतिहास
सिहोनिया क्षेत्र अहसिन नदीके तटपर अवस्थित है। इस नगरके सुद्धनपुर, सुधानियापुर, सुहानिया, सिहोनिया, सुधीनपुर, सिंहपाणीय आदि कई नाम मिलते हैं। इस नगरकी स्थापनाके सम्बन्धमें कहा जाता है कि यह नगर ग्वालियरके संस्थापक राजा सूरजसेनके पूर्वजोंने दो हजार वर्ष पूर्व स्थापित किया था। प्रारम्भसे ही यह नगर जैन संस्कृतिका केन्द्र रहा है। पहले इस नगरका नाम क्या था यह तो पता नहीं चलता किन्तु वर्तमान नाम सिहोनिया सूरजसेनके नामपर ही पड़ा है। कहा जाता है कि जब राजा सूरजसेनका कुष्ठ रोग ग्वालियर किलेमें स्थित कुण्डके जलमें स्नान करनेके कारण दूर हो गया, तब उसने अपना नाम शोधनपाल या शुद्धनपाल रख लिया। उनके इस नाम-परिवर्तनकी स्मृति सुरक्षित रखनेके लिए नगरवासियोंने इस नगरका नाम सुद्धनपुर या सुघानियापुर रख लिया। यही नाम बदलते-बदलते सुहानिया या सिहोनिया हो गया।
इस राजाकी जैन धर्ममें गाढ़ श्रद्धा थी। उसकी रानी कोकनवती भी जैन धर्मकी अनुयायी थी। उसने सन २७५ में कोकनपूर मठका बड़ा जैन मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर ग्वालियरके किलेमें विद्यमान है। इसके अतिरिक्त इसने सुहानियाके निकट भी एक जैन मन्दिर बनवाया था । यहां चौथी-पांचवीं शताब्दीमें जैसवाल जैनोंके बनवाये हुए ११ जैन मन्दिर थे, इस प्रकारके उल्लेख भी मिलते हैं। ___ यह भी कहा जाता है कि यह नगर अपने वैभव-कालमें १२ कोसमें विस्तृत था। चारों दिशाओंमें नगरके चार फाटक थे। कहा नहीं जा सकता कि यह बात कहां तक ठीक है । किन्तु इसके चारों ओर एक-एक, दो-दो कोसकी दूरीपर बिलोनी, बोरीपुरा, पुरवास और बाढ़ा नामक ग्रामोंमें दरवाजोंके अवशेष और चिह्न अब तक मिलते हैं। यदि ये अवशेष प्राचीन सुहानिया नगरके ही हों तो इसमें सन्देह नहीं कि यह नगर अवश्य ही इतना विशाल रहा होगा।
१०वीं शताब्दी तक यहाँ जैन धर्मका प्रभावशाली प्रचार रहा । किन्तु उसके पश्चात् यहाँ आक्रमण होने लगे और कोई शासन अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रह सका। फलतः नगर उजड़ने लगा। इन्हीं दिनों मुस्लिम शासकोंने यहांके मन्दिर और मूर्तियोंका ध्वंस कर दिया। सम्भवतः तब से अब तक यह स्थान उपेक्षित दशामें पड़ा रहा।
अब बीसवीं शताब्दीमें जैनोंका ध्यान इसके जीर्णोद्धार की ओर गया है। क्षेत्रका इतिहास
___ लगभग ५० वर्ष पूर्व अम्बाहनिवासी ब्रह्मचारी गुमानीमलजी धर्म-प्रचार करते हुए कमतरी (अम्बाहके निकट एक गांव) पहुंचे। रात्रिमें उन्हें स्वप्नमें उस ग्रामके निकटवर्ती जंगलमें भगवान् जिनेन्द्रकी अति मनोज्ञ मूर्तियां दिखाई दीं। प्रातःकाल होते ही वे स्वप्नमें देखी हुई मूर्तियोंके अन्वेषणके लिए जंगलोंमें चल दिये। खोज करते हुए वे सिहोनिया पहुंचे। वहां उन्हें वही टीला
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
दिखाई दिया जो उन्हें स्वप्नमें दीखा था। उन्होंने उस टीलेकी खुदाई की तो उन्हें मूर्तिका सिर दीख पड़ा। यह समाचार आसपासके गाँवोंमें भी पहुँचा । वहाँसे अनेक बन्धु आ जुटे । सावधानी के साथ खुदाई की गयी तो एक अत्यन्त भव्य और विशाल प्रतिमा भूगर्भसे प्रकट हुई। इसके साथ अन्य भी कई मूर्तियाँ निकलीं। वहाँ भक्तजनोंका मेला लग गया। वहाँ नित्यप्रति सैकड़ों व्यक्ति भगवान्के दर्शनोंके लिए आने लगे । अनेक व्यक्ति मनौतियाँ माननेके लिए आते और उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जातीं। इस प्रकारकी घटनाएं अनुश्रुतियाँ बनकर चारों ओर फैलने लगीं, जिससे इस स्थानकी प्रसिद्धि अतिशय क्षेत्रके रूपमें होने लगी ।
ब्रह्मचारी गुमानीलालजी मन्दिरके निर्माणके लिए चिन्तित थे । मूर्तियाँ खुले मैदानमें रखी हुई थीं। एक रात्रिको उन्हें स्वप्त दिखाई दिया । स्वप्नमें एक व्यक्ति उनसे कह रहा था - "तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारा मनोरथ सफल होगा। मन्दिर निर्माणके लिए तुम्हें पर्याप्त धन मिलेगा । इस भविष्यवाणीसे ब्रह्मचारीजी आश्वस्त हुए और उन्होंने दूसरे दिनसे ही विभिस स्थानोंपर जाकर धन-संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया । अल्पकालमें ही मन्दिरका निर्माण हो गया। मूर्ति जहाँ प्रकट हुई थी, उसी स्थानपर विराजमान है । मन्दिर निर्माणके पश्चात् यहाँ और आसपास कुछ जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं ।
अतिशय
ि
शान्तिनाथ भगवान्की मूर्तिमें महान् अतिशय है, इस प्रकारकी मान्यता इधरके प्रदेशकी जैन और जेनेतर जनतामें बहुप्रचलित है। यहाँ अनेक चामत्कारिक घटनाएँ घटित भी हो चुकी हैं। कहते हैं, एक बार क्षेत्रका प्रथम मेका श्री मोतीराम कुंजलाल करारीवालोंने बड़ी धूमधामसे कराया। उन्होंने सभी समागत यात्रियोंको प्रीतिभोज भी दिया। मेलेमें लगभग २० हजार जनसमुदाय एकत्र हुआ था । किन्तु जलकी समस्या विकट थी । नदीसे गाड़ियोंमें टंकियां भरकर मँगानेकी व्यवस्था की गयी थी । किन्तु इतने व्यक्तियोंके भोजमें इतनी दूरसे जलकी व्यवस्था करनेसे जलकी सन्तोषजनक पूर्ति नहीं हो पा रहीं थी । स्थिति बड़ी असन्तोषजनक थी। यह देखकर चिन्तामग्न ब्रह्मचारीजी प्रभु शान्तिनाथके चरणोंमें जा लेटे और बड़े गद्गद कण्ठसे प्रार्थना करने लगे - 'प्रभो ! पानीका बड़ा संकट है। क्षेत्रकी लाज तेरे हाथ है ।'
इधर मन्दिरमें ब्रह्मचारीजी भक्तिभरी स्तुति कर रहे थे और दूसरी ओर मन्दिरके निकट एक कुएँ में स्वयमेव पानी आ गया और बढ़ता गया । जनताको किरमिचके पुरहों द्वारा जल खींचकर सन्तुष्ट किया गया । जनतामें शान्तिनाथ भगवान् के इस चमत्कारकी बड़ी चर्चा रही . और सबके हृदय इस चमत्कारके कारण भक्तिसे भर गये ।
इस प्रकारके चमत्कार यहाँ आये दिन होते रहते हैं। इस प्रदेशकी जैनेतर जनता भी भगवान् शान्तिनाथकी भक्त है । वह इसे चेतनाथ बाबाके नामसे मानती है । लगता है, 'चेतनाथ'
नाथका अपभ्रंश है। सम्भवत: प्राचीन कालमें यहाँ कोई मन्दिर था, उस मन्दिरको चैत्यालय कहा जाता था अथवा इस मन्दिरमें चैत्य रहा होगा । अतः यहाँके मूलनायक भगवान् शान्तिनाथको चैत्यनाथ कहा जाने लगा होगा । फिर चैत्यनाथसे बिगड़कर धीरे-धीरे चेतनाथ हो गया । अस्तु !
- इधर आसपास के ग्रामोंमें जब भी कोई मनुष्य अथवा पशु बीमार पड़ जाता है तो लोग बाबा चेतनाथकी बोलारी बोलते हैं । फलतः उसको तत्काल आराम हो जाता है ज
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र वर्शन - सिहौनिया ग्रामके बाहर जहां पुलिस स्टेशन है, वहां मैदानमें पाषाणका प्राचीन मानस्तम्भ बना हुआ है। यह एक टीलेपर अवस्थित है। यह भूमिके ऊपर आठ फुट ऊंचा है। किन्तु इसका कुछ भाग भमिके नीचे भी दबा हुआ है। यद्यपि वर्तमानसे इसके शीर्षपर कोई मति नहीं है. किन्त ध्यानपूर्वक देखनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसके शीर्ष भागपर पहले कोई वेदिका और उसमें तीर्थंकर मूर्तियां रही होंगी। प्रतिष्ठाशास्त्रोंके अनुसार मानस्तम्भका निर्माण जिन-मन्दिरके सामने होता है। जिस टीलेपर प्रस्तुत मानस्तम्भ बना हुआ है, यदि उस टीलेकी खुदाई की जाये तो प्राचीन मन्दिरके अवशेष प्राप्त होनेकी सम्भावनाको इनकार नहीं किया जा सकता।
____ यहाँसे लगभग एक किलोमीटर दूर सिहोनिया अतिशय क्षेत्र है । क्षेत्रके मन्दिरके तीन ओर धर्मशालाके कमरे बने हुए हैं। उनमें कुछ पूर्ण निर्मित हैं, कुछ अर्धनिर्मित हैं । मन्दिरके सामनेवाले भागमें अभी कुछ नहीं बना है, किन्तु वहाँ मुख्य प्रवेशद्वार तथा कार्यालय आदि बनानेकी योजना है।
प्रांगणके मध्यमें जिनालय बना हुआ है। जिनालयमें केवल महामण्डप ( हॉल ) है। प्रवेश-द्वारके बिलकुल सामने दीवालके सहारे भगवान् शान्तिनाथ सस्मित मुद्रामें खड़े हुए हैं। छवि अत्यन्त सौम्य है। मुखकी छविसे करुणा, शान्ति और वीतरागताकी त्रिधारा प्रवाहित होती हुई प्रतीत होती है। आकुल-व्याकुल करनेवाले जीवन-प्रसंगोंसे ऊबे हुए व्यक्तिको यहां भगवान्के चरणोंमें पहुंचते ही अपूर्व शान्तिका अनुभव होता है। भगवान् शान्तिनाथका सबसे बड़ा अतिशय यही है।
भगवान् शान्तिनाथकी यह मूर्ति बलुए पाषाणकी हलके कत्थई वर्णकी खड्गासन मुद्रा में है। ऊपरसे चरणों तकका भाग भूमिके ऊपर है और पीठासन अभी भूमि-गर्भमें है। मूर्तिकी अवगाहना १३ फुट है तथा अनुमानतः ३ फुट भूमिके गर्भमें पीठासन है। मूर्तिके दायें कन्धेके निकट एक शिलालेख अंकित है। लेख अस्पष्ट है, किन्तु प्राचीन है। उसमें संवत् १४१ पढ़ने में
आया है । सम्भवतः प्रारम्भका अंक १ पढ़नेमें नहीं आता। मूर्तिकी रचना-शैलीको देखकर यह ग्यारहवीं शताब्दीकी अनुमित की जाती है। इस मूर्तिके दोनों ओर भगवान् कुन्थुनाथ और अरनाथकी मूर्तियां विराजमान हैं । ये दोनों मूर्तियां भी खड्गासन मुद्रामें हैं तथा इनकी अवगाहना आठ फुट है। इनके पादपीठपर क्रमशः बकरा और मछली ये लांछन उत्कीणं हैं। मध्यप्रदेशमें विशेषतः बुन्देलखण्डमें अतिशय क्षेत्रोंपर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ–तीनोंकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करानेका प्रचलन मध्यकालमें विशेष रूपसे रहा है। ये तीनों ही कामदेव, चक्रवर्ती, हस्तिनापुरके निवासी और तीर्थंकर थे। सम्भवतः जीवन-समानताका यह तथ्य ही तीनों तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंको एकत्र प्रतिष्ठित करानेमें प्रेरक कारण रहा है।
___इन तीनों मूर्तियोंके अतिरिक्त यहाँ १९ मूर्तियां और हैं। ये सभी मूर्तियाँ सिहौनियामें भूगर्भसे ही प्रकट हुई हैं। इनमें एक मूर्ति पांच फुट नौ इंच ऊँची है। यह मूर्ति बड़ी प्रभावपूर्ण है। इसके सिरपर जटाजूट, मुखपर भव्य दाढ़ी, गलेमें गलहार, स्कन्धसे बगलमें लटकता हुआ यज्ञोपवीत, सिरके पीछे प्रभावतुल, कटिमें मेखला, कलाईमें दस्तबन्द और बांहोंमें भुजबन्द हैं। दायां हाथ जंघे पर रखा हुआ है तथा बायें हाथमें परशु है। चरणोंके दोनों ओर करबद्ध सेवकसेविका खड़े हैं। यह मूर्ति लोकपाल या दिक्पालकी है। लोकपाल या दिक्पालकी इस प्रकारकी मूर्तियाँ खजुराहोमें भी मिलती हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन लो ___ इसके अतिरिक्त शेष १८ मूर्तियां तीर्थंकरोंकी हैं। इनमें खड्गासन और पद्मासन दोनों ही प्रकारकी मूर्तियां हैं। किन्तु अधिकांश मूर्तियां पद्मासन हैं। ये मूर्तियां कमसे कम ९ इंचकी हैं
और अधिकतम अवगाहनावाली मूर्ति तीन फुटकी है। एक मूर्ति चतुर्मुखी ( सर्वतोभद्रिका ) है। इन मूर्तियोंके लिए अभी तक वेदी नहीं बनी है। अतः ये मूर्तियाँ अभी भूमिपर ही रखी हुई हैं।
" मूलनायक प्रतिमाको भित्तिके पीछे खुले आकाशके नीचे भूगर्भसे प्राप्त कुछ खण्डित मूर्तियां रखी हुई हैं।
• उपर्युक्त सभी खण्डित और अखण्डित मूर्तियां मध्यकालकी, विशेषतः १०-११वीं शताब्दी
की हैं।
पुरातत्त्व
मध्यप्रदेशमें पुरातत्त्व और कलाकी दृष्टिसे जिन स्थानोंका-सर्वाधिक महत्त्व है, उनमें सिहोनियाका भी अपना विशिष्ट स्थान है। यहाँ उपलब्ध पुरातत्त्वावशेष मन्दिर और मूर्तियाँइस बातकी साक्षी हैं। सिहोनिया मध्ययुगमें एक सम्पन्न नगर था। इसका पता हमें यहां प्राप्त हिन्दू और जैन मन्दिरोंके अवशेषोंसे चलता है। इस समय यह गांव बहुत साधारण और छोटा-सा रह गया है, किन्तु इस समय भी यहां प्राचीन गौरवकी परिचायक कुछ सामग्री-मन्दिर और मूर्तियाँ-बची हुई हैं। जैसे काकनमठ, अम्बिकादेवीका मन्दिर, हनुमान्की मूर्ति, पाषाण-स्तम्भ और जैन मूर्तियाँ।
इनमें पाषाण-स्तम्भ तो असन्दिग्ध रूपसे किसी जैन मन्दिरका मानस्तम्भ था। क्या यह कल्पना करना संगत होगा कि शान्तिनाथ मन्दिर ( जिसमें शान्ति. कन्थ और अरनाथकी विशाल मूर्तियां विराजमान थीं) उस कालमें इतना विशाल बना हुआ था कि उक्त मानस्तम्भ उस मन्दिरके सामने पड़ता था। यह कल्पना कुछ तर्कसंगत भी प्रतीत होती है क्योंकि अब तक जितनी जैन मूर्तियां यहाँ उपलब्ध हुई हैं, वे सभी वर्तमान जैन मन्दिर और पाषाण-स्तम्भके मध्यवर्ती क्षेत्रमें ही मिलती हैं । इसमें भी सन्देह नहीं है कि उपलब्ध जैन तीर्थंकर मूर्तियां और यह पाषाणस्तम्भ समकालीन हैं। यह भी सम्भव है कि यह मानस्तम्भ निकटवर्ती किसी अन्य जैन मन्दिरका रहा हो।
सिहौनिया और उसके निकटवर्ती स्थानोंपर जो पुरातत्त्व-सामग्री प्राप्त हुई है, वह कछवाहा अथवा परिहार नरेशोंके शासनकालकी है। ग्वालियर-दुर्ग में बने हुए सास-बहूके मन्दिरमें उत्कीर्ण एक लेखसे ज्ञात होता है कि कछवाहानरेश कीर्तिराजने सिहौनियामें शिवका एक विशाल मन्दिर बनवाया था। कीर्तिराजने ग्वालियर-दुर्गपर लगभग १००० ई. में राज्य किया था। लेखमें सिहोनियाका नाम 'सिंहपाणीय' दिया है। यह शिवमन्दिर कौन-सा था, इस सम्बन्धमें कुछ विद्वानोंको मान्यता है कि काकनमठ ही वह शिव मन्दिर है । इन विद्वानोंको सम्मतिमें काकनमठका निर्माण रानी काकनवतीने कराया था और यह कोतिराजको पत्नी थी। कुछ अन्य विद्वान् इस मठको मूलतः जैन मन्दिर मानते हैं। इस मन्दिरमें इस समय कोई मूर्ति नहीं है। इसका सभामण्डप स्तम्भोंपर आधारित है। मण्डपके ऊपर शिखर है। पहले यह भूतलसे १०० फूट ऊँचा था। अब तो मन्दिरकी ऊंची चौकी जमीनके अन्दर दबी हुई है। इस मन्दिरके स्तम्भों और बाह्य भागपर नाना दृश्य उत्कीर्ण थे जो अब नष्ट या अस्पष्ट हो गये हैं। इस मठके चारों ओर बिखरे हुए भग्नावशेषोंसे ज्ञात होता है कि इसके चारों ओर अनेक मन्दिर बने हुए थे किन्तु अब तो उनके अवशेष ही पड़े मिलते हैं। काकनमठ गांवसे दो मील उत्तर-पश्चिममें है।
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मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ अम्बिका देवीका मन्दिर और हनुमान् मूर्ति गांवके निकट ही हैं। सिहौनियामें पुरातत्त्वसामग्री विपुल परिमाणमें उपलब्ध हुई है। यह सामग्री प्रायः १०-११वीं शताब्दीकी है। यह सम्पूर्ण सामग्री ग्वालियर-दुर्गमें स्थित संग्रहालयमें सुरक्षित है। इस सामग्रीमें विष्णु, नरबराह, नरसिंह, राम-सीता, वैद्यनाथ, पार्वती, अग्नि, सूर्य, ब्रह्माणी, सरस्वती, इन्द्र आदि देव-देवियोंकी मूर्तियाँ हैं । कुछ नारी-मूर्तियां भी हैं, जिनमें से कुछ तो अप्सराओंकी हैं और एक मूर्ति शालभंजिकाकी है । शालभंजिकाकी मूर्ति सरस लोक-जीवनका प्रतिनिधित्व करती है। कुछ ऐसी भी नारीमूर्तियाँ यहाँ मिली हैं, जिनमें स्त्री सिरपर भरा हुआ घड़ा रखकर और दोनों हाथोंमें दीपक लिये इठलाती हुई जा रही है। शायद यह भारतीय नारीकी ही विशेषता है कि वह भरे हुए घड़ेको सिरपर रखकर उसे बिना पकड़े साधकर सहज हीमें ले जा सकती है। इसी विशेषताको प्रदर्शित करनेवाली ये मूर्तियां वस्तुतः भारतके तत्कालीन लोक-जीवनपर प्रकाश डालती हैं।
इस सबसे लगता है कि सिहौनिया मध्ययुगमें अत्यन्त समृद्ध था। तत्कालीन समाजमें कलाके प्रति अत्यधिक रुचि थी, कलाने केवल कल्पना न रहकर, वास्तविक रूप ग्रहण कर लिया था; और विकसित दशाको प्राप्त हो चुकी थी। इस कालको कलाकी दृष्टिसे हम उसका प्रौढ़ काल कह सकते हैं। सिहौनिया कलाको अपना महत्त्वपूर्ण योगदान करनेमें किसीसे पीछे नहीं रहा। मार्ग
सिहौनिया क्षेत्र आगरा-वालियरके मध्य स्थित मुरैनासे ३० कि. मी. है। मुरैनासे बड़ागांव होकर सिहोनिया तक पक्की सड़क है और बसें चलती हैं। बस गाँवके बाहर थाने तक जाती है। वहाँसे सिहौनिया दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्रका मन्दिर कच्चे मार्गसे लगभग एक किलोमीटर दूर है।
ग्वालियर स्थिति और मार्ग
ग्वालियर सेण्ट्रल रेलवेकी मुख्य लाइनपर आगरा-झांसीके मध्यमें आगरासे ११८ कि. मी. और झांसीसे ९७ कि. मी. दूर एक प्रसिद्ध शहर है। यह एक समय ब्रिटिश शासनकालमें भारतकी रियासतोंमें चौथे नम्बरपर था और उसके नरेश सिन्धिया वंशके थे। आजकल तो यह मध्यप्रदेशका एक प्रमुख शहर मात्र रह गया है और कुछ प्रशासकीय कार्यालयोंके अतिरिक्त उसका कोई विशेष राजनैतिक महत्त्व नहीं है। किन्तु प्राचीन कालमें इसका बड़ा राजनैतिक महत्त्व रहा है और अनेकों राजनैतिक घटनाएँ यहाँ घटित हुई हैं। दक्षिण-भारतका द्वार होनेके कारण इसको विशेष राजनैतिक महत्व मिल चुका है। जैन इतिहास, जैन कला और पुरातत्त्वकी दृष्टिसे भी इसका गौरवपूर्ण स्थान रहा है।
यह शहर तीन भागोंको मिलकर बना है-ग्वालियर, लश्कर और मुरार । ग्वालियर पहाड़ीपर बने हुए किलेके उत्तरमें स्थित है, लश्कर किलेके दक्षिणमें तथा मुरार किलेके पूर्व में है। लश्कर सन् १८१० में दौलतराव सिन्धियाके फोजी लश्कर या छावनीके रूपमें बस गया और मुरारमें पहले अंगरेजोंकी छावनी रहती थी। ग्वालियर आगरासे दक्षिणमें ११८ कि. मी., दिल्ली
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ से ३१७ कि. मी. और बम्बईसे १२२५ कि. मी. दूर है। ग्वालियरसे इन्दौर होते हुए बम्बई तक, आगरा होते हुए दिल्ली तक और कानपुर होते हुए कलकत्ता तक पक्की सड़कें हैं। ग्वालियर हवाई मार्गपर भी है। 'एयर इण्डिया सर्विस' ग्वालियरको दिल्ली-बम्बईसे जोड़ती है। गोपाचल दुर्ग
पुरातन कालमें ग्वालियरके कई नाम जैन वाङ्मयमें उपलब्ध होते हैं जैसे गोपाद्रि, गोपगिरि, गोपाचल, गोपालाचल, गोवागिरि, गोवालगिरि गोपालगिरि, गोवालचलहु, ग्वालियर । ये सब नाम ग्वालियरके दुर्गके कारण पड़े हैं। इस दुर्गका अपना एक इतिहास है। कुछ लोगोंका कथन है कि यह दुर्ग ईसासे ३००० वर्ष पूर्वका है। कुछ पुरातत्त्वज्ञ इसे ईसाकी तीसरी शताब्दीमें निर्मित मानते हैं । इस दुर्गकी गणना भारतके प्राचीन दुर्गोमें की जाती है।
इस दुर्गकी स्थापनाके सम्बन्धमें कई किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। एक किंवदन्तीके अनुसार यहाँ पहाड़ीपर ग्वालिय नामक एक साधु रहते थे। एक दिन नगरके नरेश सूर्यसेन, जिन्हें कुष्ठ रोग हो गया था, घूमते हुए इस पहाड़ीपर आ निकले और उनकी उक्त साधुसे भेंट हो गयी। नरेशने साधुको प्रणाम करके अपने कुष्ठ रोगका कुछ उपचार पूछा। साधुने राजासे वहाँ बने हुए तालाबमें स्नान करनेका परामर्श दिया। राजाने वैसा ही किया और स्नान करते ही उनका कुष्ठ रोग जाता रहा । राजाने उस साधुके इच्छानुसार उस पहाड़ीपर एक दुर्ग बनवाया और उसका नाम ग्वालिगढ़ रखा और पश्चात् उस नगरका नाम भी ग्वालियर रख दिया। सम्भवतः यह घटना ईसाकी तीसरी शताब्दीकी है।
ऐतिहासिक दृष्टि से इसका सर्वप्रथम उल्लेख हूण सरदार मिहिरकुलके सूर्य मन्दिरवाले शिलालेखमें मिलता है। इसमें राज्यके १५३ वर्षमें गोपगिरिपर मातृचेल द्वारा सूर्य मन्दिरको स्थापनाका उल्लेख है। इसी प्रकार चतुर्भुज मन्दिरके वि. सं. ९३२-९३३ के शिलालेखमें भी उक्त दुर्गका उल्लेख मिलता है। यह शिलालेख कन्नौजके राजा भोजदेवके समयका है। उस कालमें इस दुर्गपर कन्नौज-नरेशका अधिकार था।
इस प्रकार यह किला इससे पूर्वका होना चाहिए। वह जलाशय अब भी है, जिसका नाम सूर्यकुण्ड है किन्तु लगता है, उसके जलमें पहले-जैसा चमत्कार नहीं रह गया।
यह किला ३०० फुट ऊंची पहाड़ीपर बना हुआ है। उत्तरसे दक्षिणकी ओर इसकी लम्बाई पौने दो मील है तथा पूर्वसे पश्चिम तक इसकी चौड़ाई ६०० से २८०० फुट तक है। किलेमें चार हिन्दू और दो मुस्लिम इमारतें विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं-मान मन्दिर, गुजरी महल, करण मन्दिर, विक्रम मन्दिर, जहाँगीर महल और शाहजहानी महल । कुछ महत्त्वपूर्ण हिन्दू मन्दिर भी यहाँ दर्शनीय हैं-जैसे सूर्यदेव, ग्वालिया, चतुर्भुज, जयन्ती थोरा, तेलीका मन्दिर, सास-बहू ( बड़ा), सास-बह ( छोटा ), माता देवी, धीन्धदेव और महादेव । इनके अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिर भी किलेमें है, जिसका पता सन् १८४४ में कनिंघमने लगाया था। गोपाचल दुर्गपर विभिन्न राजवंशोंका शासन
सूरजपालने यहाँ ३६ वर्ष राज्य किया। इस केशमें रसकपाल, नहरपाल, भीमपाल, अमरपाल, गंगपाल, भोजपाल, पदमपाल, अनंगपाल. इन्द्रपाल, जीतपाल, ढाण्डपाल, लक्ष्मणपाल नहरपालं, मण्डरपाल, अजीतपाल, बुद्धपाल आदि ८४ राजाओंने राज्य किया। इनका राज्यकाल लगभग ९८९ वर्ष रहा । फिर यहाँ परिहारवंशका १०२ वर्ष तक राज्य रहा । उपर्युक्त शिलालेखोंसे
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ यह पता चलता है कि प्रतिहार राजा भोजने इसे जीतकर अपने कन्नौज राज्यमें मिला लिया था। विक्रमकी ११वीं शताब्दीमें कच्छपघाटवंशी वज्रनाभन नामक नरेश (१००७-१०३७ राज्य शासन) ने ग्वालियरको जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया। वि. सं. १०३४ में उसने एक जैनमूर्तिकी प्रतिष्ठा भी करायी थी, जैसा कि मूर्ति-लेखसे ज्ञात होता है। इससे पता चलता है कि जैन धर्मके प्रति इस नरेशकी गहरी आस्था थी। इस वंशके अनेक राजा हुए-जैसे मंगतराज, कीर्तिराज, भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यपाल, महीपाल, भुवनपाल, मधुसूदन आदि-जिन्होंने ग्वालियरपर शासन किया। फिर प्रतिहारवंशकी द्वितीय शाखाने इसपर अपना अधिकार कर लिया। वि. सं. १२४९ में दिल्लीके शासक अल्तमशने दुर्गपर घेरा डाल दिया और काफी
श किया। सारंगदेव और १५०० वीर राजपत वीरतापूर्वक लडे और मातभमिके लिए बलि हो गये । राजपूत स्त्रियोंने हजारोंकी संख्यामें अग्निकी भयंकर ज्वालाओंमें कूदकर जौहर-व्रत लिया और इस प्रकार अपने सतीत्वकी रक्षा की। राजमहलकी ७० रानियाँ पहले आगमें कूदी, फिर अन्य स्त्रियाँ कूदीं । जहाँ जौहर हुआ, वह जौहर ताल अब भी मौजूद है। किलेपर अल्तमशका अधिकार हो गया।
वि. सं. १४५५ में जब कूदी तैमूरलंगने भारतपर प्रबल वेगसे आक्रमण किया, उस समय अराजकतापूर्ण स्थितिसे लाभ उठाकर वीरसिंह नामक एक तोमरवंशी सरदारने ग्वालियरपर अधिकार कर लिया। यह अलाउद्दीनके सेनापति सिकन्दरखां की नौकरीमें था और ईसामणि भोला ( डाण्डरौली परगना ) का रहनेवाला था। ग्वालियरपर इस वंशका अधिकार वि. सं. १५९३ तक रहा। इस वंशमें अनेक नरेश हुए जिन्होंने ग्वालियरपर १०५ वर्ष तक शासन किया। उन नरेशोंके नाम इस प्रकार हैं-वीरसिंह, उद्धरणदेव, विक्रमदेव ( वीरमदेव ), गणपतिदेव, डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह, कल्याणमल, मानसिंह, विक्रमसाह, रामसाह, शालिवाहन, उनके दो पुत्र श्यामसाह और मित्रसेन । अपने शासन-कालमें इन सभी राजाओंका जैन धर्मके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रहा । अतः इनके शासनकालमें जैन धर्म और जैन कलाको फलने-फूलनेका खूब अवसर प्राप्त हुआ। इन तोमरवंशी नरेशोंमें-से महाराज दूंगरसिंह अथवा दूंगरेन्द्रदेव और कीर्तिसिंहकी आस्था जैन धर्मपर पूर्ण-रूपसे रही। डूंगरसिंहका शासन-काल तीस वर्ष था और कीर्तिसिंहने पचीस वर्ष तक शासन किया। इन दोनों ही नरेशोंके राज्यकालमें गोपाचलपर अनेक भव्य और विशाल मूर्तियोंका निर्माण हुआ और अनेक प्रतिष्ठोत्सव हुए।
तोमरवंशके बाद दुर्गपर लोदीक्श, मुगलवंश, सिन्धियावंश और अंगरेजोंका शासन रहा। ताजुल-मआसिरके लेखक एक मुगल इतिहासकारने इस किलेको हिन्दके गलेमें पड़े हुए किलोंके रत्नहारका एक उज्ज्वल रत्न बताया है। किसीने इसे दक्षिण भारतका प्रवेश-द्वार बताया है। किलेके इस महत्त्वके कारण ही इसे इतना राजनैतिक महत्त्व प्राप्त हुआ और इसपर विभिन्न राजवंशोंके आक्रमण निरन्तर होते रहे। -------- जैन प्रतिमाएँ
-~-ऊपर कनिंघम द्वारा खोजे गये जिस जैन मन्दिरका उल्लेख किया गया है, वह किलेमें हाथी दरवाजा और सास-बहूके मन्दिरके मध्यमें अवस्थित है। कनिंघमके अनुसार इसे मुगल शासन-कालमें मसजिदके रूपमें परिवर्तित कर दिया गया था। खुदाई करते समय नीचे एक कमरा मिला है। उसमें कई दिगम्बर जैन मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासन और कायोत्सर्गासन दोनों ही प्रकारकी हैं। एक लेख वि. सं. ११६५ का मिला है। इस कमरेमें दो वेदियाँ बनी हुई हैं। उत्तरकी
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वेदीमें दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तियां विराजमान हैं, जिनमें एक मूर्ति सप्तफणमण्डित भगवान् पावनाथकी है। मध्यमें ६ फुट ८ इंच लम्बा आसन है, जिसपर कोई मूर्ति विराजमान नहीं है। दक्षिणकी भीतमें पांच वेदियां हैं, जिनमें दोके स्थान रिक्त हैं। केवल दो दिगम्बर जैन मूर्तियां विद्यमान हैं। लगता है, शेष मूर्तियां आततायियोंने नष्ट कर दी। - इस गढ़में जितनी मूर्तियाँ बनी हुई हैं, उनका निर्माण महाराज डूंगरसिंह और कीर्तिसिंहके शासन-कालके ५५ वर्षों में हो पाया था। मूर्तियोंके निर्माणका प्रारम्भ तो महाराज डूंगरसिंहके कालमें ही हो गया, किन्तु मूर्तियोंका निर्माण अधिकांशतः महाराज कीर्तिसिंहके कालमें पूर्ण हुआ। महाराज इंगरसिंहके शासनकालमें तो पहाड़की ऊबड़-खाबड़, आड़ी-तिरछी शिलाओं और चट्टानोंको छेनी-हथौड़ोंकी सहायतासे साफ और चिकना बनानेका उपक्रम चलता रहा। फिर कलाकारोंने चट्टानोंके कठिन हृदयोंको भेदकर उनके भीतरसे सौम्यता, शान्ति और वीतरागताको प्रतिमाके मुखपर अंकित करनेमें सफलता प्राप्त की। सारे पर्वतको उधेड़कर जिनेन्द्र प्रभुके विशाल और कमनीय रूपको उजागर करने में कलाकारने पूर्णतः सफलता प्राप्त की। उन्होंने सम्पूर्ण दुर्गको जैन प्रतिमाओंका भव्य मन्दिर बना दिया। प्रतिमाओंकी इस विशालतामें भी कलाकारकी छेनी और हथौड़ा चूके नहीं हैं और सब कहीं समुचित रूपमें भावनाओं और रेखाओं तकका उभार हुआ है। यह कलाकारोंके नैपुण्यको प्रदर्शित करनेके लिए पर्याप्त है।
सुविधाके लिए ग्वालियर किलेकी इन मूर्तियोंको हम पांच भागोंमें बांट सकते हैं(१) उरवासी समूह, (२) दक्षिण-पश्चिम समूह, ( ३ ) दक्षिण-पूर्व समूह, (४) उत्तर-पश्चिम । समूह और ( ५ ) उत्तर-पूर्व समूह। इनमें उरवाही समूह और दक्षिण-पूर्व समूह अत्यन्त महत्त्व
पूर्ण हैं । उरवाही समूह अपनी विशालताके कारण तथा दक्षिण-पूर्व समूह अलंकृत कलाके कारण सबको अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं।
इन मूर्तियोंकी जानकारीके लिए इनके सम्बन्धमें संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है। - इस पर्वतपर कुल जैन मूर्तियोंकी संख्या १५०० के लगभग है। इनमें ६ इंचसे लेकर ५७ फुट तककी मूर्तियां सम्मिलित हैं। यहाँकी सबसे विशाल मूर्ति भगवान् आदिनाथकी है जो उरवाही दरवाजेके बाहर है, खड्गासन मुद्रामें है और ५७ फुट ऊंची है। इसके पैरोंकी लम्बाई ९ फुट है। श्वेताम्बर आचार्य शीलविजय और आचार्य सौभाग्यविजयने अपनी तीर्थमालामें इस मूर्तिको बावनगजा बताया है और बाबरने अपने आत्मचरित (बाबरनामा) में इस मूर्तिको ४० फूटका लिखा है, किन्तु ये दोनों ही धारणाएँ गलत हैं । एक पत्थरकी बावड़ीमें सुपाश्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है जो ३४ फुट ऊँची और ३० फुट चौड़ी है । पद्मासन प्रतिमाओंमें यह भारतमें सबसे विशाल है।
महावीर धर्मशाला नयी सड़कसे किलेका उरवाही द्वार लगभग ६ किलोमीटर है। किलेकी बाहरी दीवारमें कुछ अर्धनिर्मित मूर्तियां बनी हुई हैं। सम्भवतः मूर्तियाँ बनानेकी योजना थी, किन्तु किसी कारणवश छत्र आदि खोदकर छोड़ दिया गया।
बायीं ओरको सर्वप्रथम पहाड़में तीन खड्गासन मूर्तियां मिलती हैं। तीनों कमलासनपर खड़ी हैं। तीनों मूर्तियोंके मध्य स्थानोंमें शिलालेख उत्कीर्ण हैं। पहाड़के सभी शिलालेख देना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यहां केवल एक शिलालेख जानकारीके लिए दिया जा रहा है
"सं. १५१० वर्षे माघ सुदी ८ सोमे गोपालदुर्गे तोमरवंशान्वये महाराजाधिराज राजा श्री डूंगरेन्द्रदेव राज्य पवित्रमाने श्री काष्ठाष्ठासंघ माथुरान्वये भट्टारक श्री गुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री यशकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री मलयकीर्ति देवास्ततो भट्टारक गुणभद्रदेव पंडितवयं रइधू तदाम्नाये
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मध्यप्रवेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३७ अग्रोतवंशे वासिल गोत्रे साकेलहा भार्या निवारी तयोः पुत्रः विजयष्ट शाह सहजा तत्पुत्र शाह नाथू तेउ नाथ पत्री मालादे भौसा तेज पत्री गोविन्ददेवजीमहारथी बालमती साध मालहा भार्या सिरो पुत्र संघाधिपतिदेव भार्या मालेही द्वितीय लोछि तयोः पुत्र शंकर मसीजाकरमासारे पति पुत्र नेम भार्या हेमराज हि चतुर्थ साहीगा पुत्र सेई माघ पुत्र बीजा जोडसी कुमरा पन्नवसा चेला पुण्याधिदा द्वितीय भोला तृतीय अलूसा जीदा पुत्र माणिकुटी धारतरु सहारापु डालू पुत्र देवीदास इस वंश निर्देश एतेषां मध्ये साधु श्री माल्हा पुत्र संघाधिपति देउताय पुत्र संघाधिपति करमसीहा श्री चन्द्रप्रभु जिनबिंब महाकाय प्रतिष्ठापितं प्रणमति कर्णासी श्री साध्वी वीर जिनपद चक्र अंगुष्ठ मातृ विमान जिनसा क्रिया प्रतिष्ठापयतो महुतया कुलं वलं राज्यमनंतसौख्यं तवस्य विच्छित्तिरथोविमुक्तिः । शुभं भवतु देशवृषयोः।"
इस शिलालेखमें कुल १५ पंक्तियाँ हैं और यह लगभग पौने दो फुट लम्बा और इतना ही चौड़ा है।
__ बायीं ओरसे प्रतिमाएं इस प्रकार हैं-तीर्थकर मूर्ति, दोनों ओर इन्द्र और इन्द्राणी हैं। फिर तीर्थंकर चन्द्रप्रभकी मूर्ति है। उसके दोनों ओर इन्द्र-इन्द्राणी हैं। फिर तीर्थंकर महावीरकी मूर्ति है । उसके बगलमें इन्द्र विनम्र मुद्रामें खड़ा है। ___ इस समूहमें विशाल खड्गासन मूर्तियाँ ४०, पद्मासन मूर्तियाँ २४, स्तम्भों और दीवारोंमें लघु तीर्थंकर मूर्तियाँ ८४०, उपाध्याय और साधु मूर्तियाँ ४, यक्ष और शासन देवी-मूर्तियाँ १२ हैं। ४ चैत्य स्तम्भ भी बने हुए हैं। उनके ऊपर दीवारमें शिखर बने हुए हैं। इस समूहमें कुल १० शिलालेख हैं जिनमें से कई तो संवत् १५१० और १५२२ के हैं।
उरवाही द्वारकी ओर जानेपर दायीं ओरके मूर्ति-समूहके सम्बन्धमें आवश्यक ज्ञातव्य
निम्न प्रकार है
दायीं ओरसे बायीं ओरको-इस समूहमें ४७ खड्गासन मूर्तियां हैं, ३१ पद्मासन मूर्तियाँ, ६ यक्ष और देवी-मूर्तियाँ, ६ चैत्य-स्तम्भ और ३ शिलालेख हैं। इस पर्वतकी मूर्तियोंमें सबसे विशाल अवगाहनावाली मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है जो इसी समूहमें है और जिसकी अवगाहना ५७ फुटकी है। इस मूर्तिके पादपीठके सारे भागपर मूर्तिलेख है. तथा इस मूतिके दोनों ओर भी लेख है । मूर्ति-लेखके अनुसार इस मूर्तिके प्रतिष्ठाकारक साहू कमलसिंह तथा प्रतिष्ठाचार्य रइधू थे। यहाँ ५ मतियां ऐसी हैं, जिनमें महाराज श्रेयांस द्वारा भगवान ऋषभदेवको आहार देते हए प्रदर्शित किया गया है । इस समूहमें एक कोष्ठकमें चैत्यालय बना हुआ है। इसमें तीन वेदियां बनी हुई हैं। प्रत्येक वेदीके ऊपर शिखर निर्मित हैं। एक स्थलपर सम्भवतः मुनियोंके ध्यानके लिए एक गुफा और एक कक्ष बने हुए हैं। एक मूर्ति तीर्थंकर माताकी बनी हुई है जो उपधानके सहारे शयनमुद्रामें दीख पड़ती है। सम्भवतः यह स्वप्न-दर्शनके अवसरकी मूर्ति है। कई स्थानोंपर दीवारमें लघु मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। एक स्थानपर ७१ मूर्तियां बनी हुई हैं। किन्तु सब मूर्तियोंकी गणना करना सम्भव नहीं लगता। कुछ मूर्तियां बड़ी अस्पष्ट और अर्धनिर्मित हैं। कुछ बड़ी मूर्तियाँ भी अर्धनिर्मित दशामें हैं । शिल्पीको उन्हें पूर्ण करने में क्या बाधा आयी, यह अनुमानसे बाहर है।
- आगे बढ़नेपर उरवाही द्वार मिलता है। द्वारके दोनों ओर दो खड्गासस तीर्थंकर मूर्तियां खड़ी हैं, किन्तु इनकी कमर तक ईंटें चुन दी गयी हैं तथा मूर्तियोंपर सफेदी कर दी गयी है।
उरवाही द्वारसे सिन्धिया स्कूल होते हुए आगे बढ़नेपर सासका बड़ा मन्दिर और बहूका छोटा मन्दिर मिलते हैं । सास-बहूके इन दोनों मन्दिरोंमें गर्भगृहमें कोई मूर्ति नहीं है । बड़ा मन्दिर १०५ फुट लम्बा, ७५ फुट चौड़ा और १०० फुट ऊँचा है। मन्दिरके बीचका हॉल ३२ फुट लम्बा
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३८
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ और ३१ फुट चौड़ा है। इसमें एक चौकोर चबूतरा बना हुआ है। चारों कोनोंपर स्तम्भ हैं । स्तम्भों और दीवारोंपर विविध प्रकारके दृश्य अत्यन्त कलापूर्ण रीतिसे उत्कीर्ण किये गये हैं। द्वार और छतका अलंकरण दर्शनीय है। यहाँपर लगे हए एक शिलालेखसे प्रकट होता है कि कछवाहा राजपूत महीपालने इसे संवत् १०९३ में पूर्ण किया। शिलालेखसे यह प्रकट नहीं होता कि यह मन्दिर किस देव या भगवान्को अर्पित किया गया। किन्तु परम्परागत मान्यता है कि उक्त भक्त राजपूतने आष्टाह्निक व्रतके उपलक्ष्यमें नन्दीश्वर द्वीपकी अनुकृतिपर यह जैन मन्दिर बनवाया था। नन्दोश्वर द्वीपमें जानेवाले देव-देवियोंकी मूर्तियाँ नृत्य एवं विभिन्न मुद्राओंमें मन्दिरके सभी भागोंमें उत्कीर्ण करायीं। सम्भवतः मुस्लिम कालमें इसकी मूर्तिका भंजन कर दिया गया। यही कहानी इसके निकट बने बहूके मन्दिरको है । ये दोनों ही मूलतः जैन मन्दिर रहे हैं। किन्तु कुछ आधुनिक इतिहासकार सास-बहूके स्थानपर सहस्रबाहुका मन्दिर बताकर इन्हें विष्णु मन्दिर सिद्ध करते हैं। इसके समर्थनमें कोई अभिलेख या अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। अतः निश्चित रूपसे इस सम्बन्धमें कुछ कहना सम्भव नहीं है। -
इन मन्दिरोंसे आगे बढ़नेपर तेलीका मन्दिर मिलता है। इस मन्दिरका निर्माण नौवीं शताब्दीमें द्रविड़ शैलीमें हुआ है। यह १०० फुट ऊँचा है। इसमें भी वेदी सूनी पड़ी है। इसके चारों ओर बाटिकामें जैन मन्दिर या मन्दिरोंके पाषाण-स्तम्भ तथा तीर्थंकर मूर्तियां रखो हुई हैं। ये मूर्तियाँ किस मन्दिरको हैं तथा ये खुले मैदानमें क्यों रखी गयी हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका। हमारा अनुमान है कि यह सामग्री तेलीके मन्दिर और उसके निकट बने हुए एक जीणं जैन मन्दिरकी है। तेलोका मन्दिर भी मूलतः जैन मन्दिर था। कुछ लोग इसका नाम तिलगना ( तैलंग ) कल्पित करके इसे विष्णु मन्दिर मानते हैं।
___ इस मन्दिरके निकट एक जीर्ण-शीर्ण कमरा बना हुआ है। सन् १८४४ में कनिंघमने इस ३५ फुट लम्बे और १५ फुट चौड़े कमरेको जैनोंके २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथका मन्दिर माना था। इसका निर्माण सन् ११०८ में हुआ बताया जाता है । इसके पास ही सिखोंका गुरुद्वारा बना हुआ है। इसके सम्बन्धमें बड़ी रोचक कहानी प्रचलित है। मुगल सम्राट् जहाँगीरने सिखोंके छठे गुरु हरगोविन्दको बन्दी बनाकर इस किलेमें रखा था। थोड़े दिनोंके बाद जहाँगीर बीमार पड़ गया। कुछ लोगोंने बादशाहको परामर्श दिया कि गुरुको छोड़ दो। जहाँगीरने तदनुरूप आदेश दे दिया। किन्तु गुरुने अपने साथियोंको पहले रिहा करनेकी शर्त रखी। अपनी बढ़ती हुई बीमारीके कारण जहाँगीरको गुरुकी बात माननी पड़ी। जिन लोगोंने गुरुका दामन पकड़ा, वे सब मुक्त कर दिये गये । इसलिए गुरुका नाम 'दाता बन्दी छोड़' पड़ गया। गुरुके कारण सिखोंके लिए यह तीर्थस्थान बन गया और उन्होंने गुरुकी स्मृति सुरक्षित रखनेके लिए यहाँ गुरुद्वारा बनवा लिया।
यहाँसे कुछ आगे जानेपर सिन्धिया स्कूलके छात्रावासके सामने सूरज-कुण्ड बना हुआ है। यह वही कुण्ड बताया जाता है जिसके जलमें स्नान करनेसे राजा सूरजसेनका कुष्ठ रोग दूर हो गया था। कुण्डके चारों ओर पक्के घाट और सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । कुण्डके मध्यमें और किनारेपर हिन्दुओंने कुछ मन्दिर बना लिये हैं।
. इससे आगे बढ़नेपर मान-मन्दिर मिलता है। राजा मानसिंह तोमरवंशके नरेशोंमें प्रभावशाली नरेश था । वह सन् १४८६ में गद्दीपर बैठा। वह अत्यन्त कला प्रेमी था । उसके क्लएरेसका हो नमूना यह मान-मन्दिर है । कलाकी दृष्टि से भारतके भवनोंमें इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यह भवन मानसिंहका निवास स्थान था। इसकी यद्यपि दो मंजिलें हैं किन्तु पहाड़की ओर झुके हुए पश्चिमी भागमें दो मंजिलें जमीनके नीचे भी हैं। इसमें जालीकी महीन कारीगरी और रंग
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३९ विन्यास दर्शनीय है। कहते हैं, इस राजप्रासादमें लगे प्रत्येक पत्थरपर छत्तीस दिन तक खुदाईका काम किया गया। मानसिंह ललित कलाओंका बड़ा प्रेमी था। उसने संगीतको प्रोत्साहन देनेके लिए एक संगीत महाविद्यालयको भी स्थापना की थी। बादशाह अकबरके दरबारके नवरत्नोंमें प्रसिद्ध गायक तानसेन इसी विद्यालयकी देन था। मानसिंह स्वयं भी गायन-कलामें निष्णात था । उसने तथा उसके प्रोत्साहनपर अन्य गायकोंने उस समय कई नये रागोंका आविष्कार किया जो बादमें बड़े लोकप्रिय हो गये।
इस महलके नीचेके भागमें एक जौहर कुण्ड भी बना हुआ है। कहा जाता है कि जब मुसलमानोंने इस दुर्गपर अधिकार कर लिया तो रानियों तथा अन्य स्त्रियोंने इस कुण्डमें आग जला लीं और उसमें कूदकर अपने शीलकी रक्षा की थीं। यहींपर मुगल बादशाह औरंगजेबने अपने भाई मुरादको कैद करके रखा और फाँसी दी थी। उसने यहींपर अपने पुत्र सुलतान मुहम्मद, दाराके पुत्र सुलेमान शिकोह आदि परिवार-जनोंको बन्दी बनाकर रखा और उन्हें नाना प्रकारकी क्रूर यातनाएँ देकर मार डाला।
मानसिंह महलका पश्चिमी भाग ३०० फुट तथा दक्षिणी भाग १५० फुट लम्बा और लगभग ६० फुट ऊँचा है। इसको दीवारें नीले, हरे और पीले रंगकी कारीगरीसे मण्डित हैं। इसकी बाहरी दीवारपर नानाविध देवताओंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। पाँच तीर्थंकर मूर्तियां भी हैं। इनमें एक खड्गासन तीर्थंकर मूर्ति विशाल है।
इस महलसे थोड़ा आगे चलनेपर गूजरी महल बना हुआ है। वह महल राजा मानसिंहने अपनी प्रियतमा रानी मृगनयनीके लिए बनवाया था। आजकल इस महलमें सरकारी संग्रहालय है।
गूजरी महलसे ग्वालियर गेट होते हुए एक पत्थरकी बावड़ीपर जाते हैं। यह स्थान फूलबाग गेटके पास है। ग्वालियर गेटसे यह स्थान लगभग २-३ कि. मी. है। सड़कसे किलेकी बाहरी दीवार तक, जहाँ यह स्थान है, २ फलाँगकी चढ़ाई है। मार्ग पक्का है, किन्तु चढ़ाई थका देनेवाली है। यहाँ किलेके प्राचीरके बाहरी भागमें, पर्वतके एक कोने में एक ही पत्थरकी खुदी हुई प्राकृतिक बावड़ी है। यह लगभग २० फुट लम्बी और इतनी ही गहरी है। इसमें किसी अज्ञात स्रोतसे जल आता है और बारहों महीने निरन्तर आता रहता है। जल शीतल एवं मीठा है। बावड़ी एक प्राकृतिक गुफामें बनी हुई है। दुर्गके इस प्राचीरके बाहर विशाल अवगाहनावाली खड्गासन और पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ पहाड़में बनायी गयी हैं। यह दक्षिण-पूर्व समूह कहलाता है। यह समूह समुन्नत मूर्ति-कलाकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह समूह लगभग २ फलांगके क्षेत्रमें फैला हुआ है। इस समूहकी मूर्तियाँ उरवाही द्वारकी मूर्तियोंकी अपेक्षा अधिक कलापूर्ण, सुघड़ और सौम्य हैं। इस समूहकी मूर्तियाँ अत्यन्त कुशल, अनुभवी और निष्णात शिल्पियों द्वारा निर्मित हुई प्रतीत होती हैं। मूर्तियोंका सौष्ठव, अंगविन्यास और भावाभिव्यंजना सभी कलाकारोंकी निपुणताके मूक साक्षी हैं। यहाँ मूर्तियोंके पीछेकी दीवारको तराशकर चिकना बनाया गया है, मूर्तियोंके अभिषेकके लिए सोपान बने हुए हैं तथा मूर्तियोंकी ग्रीवाके सामने पाषाण-पट्टिकाएँ बनी हुई हैं जिनपर खड़े होकर सुगमतासे अभिषेक किया जा सकता है। ९ मूर्तियोंके आगे ऊँची दीवार उठाकर और मूर्तियोंके ऊपर शिखर बनाकर जिनालयका रूप प्रदान किया गया है। मूर्तियोंके पीछे भामण्डल, सिरके ऊपर छतमें चन्दोवा और हाथोंमें कमल बने हुए हैं और वे अत्यन्त कलापूर्ण हैं। प्रत्येक मूर्तिके दोनों ओर गजलक्ष्मीका अंकन किया गया है, जिनमें गजराज अपनी सूंडमें कलश लिये हुए भगवान्का अभिषेक करते दिखाई पड़ते हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
बावड़ी बगलमें दायीं ओर पद्मासन पार्श्वनाथ मूर्ति है। इसके ऊपर बहुत सुन्दर छत्र बना हुआ है । इसके आगे २० से ३० फुट ऊंची खड्गासन मूर्तियाँ हैं । पादपीठपर बने हुए लांछनोंके अनुसार ये मूर्तियां जिन तीर्थंकरोंकी हैं उनके नाम इस प्रकार हैं : ( १ ) शान्तिनाथ, (२) पद्मप्रभ, (३) शान्तिनाथ, ( ४ ) पद्मप्रभ, (५) बाहुबली, (६) शान्तिनाथ, (७) पद्मप्रभ, (८) नेमिनाथ, (९) शान्तिनाथ ।
४०
इनसे आगे ९ मूर्तियोंके आगे दीवार में द्वार बने हैं और ऊपर शिखर बने हैं जो मन्दिर प्रतीत होते हैं । ये मूर्तियां इस प्रकार हैं : (१) कुन्थुनाथ, (२) सुपार्श्वनाथ, (३) पद्मासन, (४) आदिनाथ पद्मासन, ( ५ ) शान्तिनाथ खड्गासन, ( ६-७ ) पद्मासन, (८) शान्तिनाथ, ( ९ ) सम्भवनाथ ।
इनसे आगे पुष्पदन्त, नेमिनाथ और ऋषभदेवकी खड्गासन तथा पद्मप्रभकी पद्मासन मूर्तियाँ हैं । इनके पश्चात् कई छोटी मूर्तियाँ हैं । एक मूर्तिके आगे दोनों ओर मानस्तम्भ बने हुए हैं। आगे एक गुफा मिलती है । इसमें छोटी-बड़ी लगभग १२५ प्रतिमाएँ दीवारोंमें उत्कीर्ण हैं । इसके पश्चात् तीन खड्गासन मूर्तियां बनी हुई हैं । अन्तमें दो गुफाओं में कुछ मूर्तियाँ हैं । इनमें ऋषभदेवकी एक खड्गासन मूर्ति है जो ३५ फुट ऊँची और १० फुट चौड़ी है। सभी मूर्तियां खण्डित हैं। मुगल बादशाह बाबरने दुर्गंकी सभी मूर्तियोंको खण्डित करा दिया था । किन्तु एक मूर्तिके ऊपर उसकी क्रूरताका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह है सुपार्श्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा, जो ३५ फुट ऊँची और ३० फुट चौड़ी है। यह मूर्ति खण्डित नहीं हो सकी, इसका क्या कारण था । इस सम्बन्ध में विविध और विचित्र किंवदन्तियां प्रचलित हैं । तथ्य जो भी हो, इसमें सन्देह नहीं है कि दुर्ग सभी मूर्तियाँ खण्डित हैं, किन्तु यह अखण्डित है । पद्मासन मूर्तियों में यह सबसे विशाल मूर्ति है । इसके अतिरिक्त एक मूर्ति और भी अखण्डित है । वह है महावीर भगवान्की मूर्ति जो बावड़ीके निकट, पार्श्वनाथ भगवान्की मूर्तिके नजदीक विराजमान है ।
उपर्युक्त चार मूर्ति समूहों के अतिरिक्त उरवाही द्वारके प्राचीरके पीछे कोलेश्वरमें भी कुछ मूर्तियां बनी हुई हैं। एक मूर्ति ८ फुट लम्बी शिलापर बनी हुई है । यह तीर्थंकर माताकी शयनमुद्रा में है । इसपर ओपदार पालिश है । एक शिलाफलक में एक स्त्री, पुरुष और बालक बने हुए हैं । सम्भवतः यह मूर्ति गोमेद यक्ष और अम्बिकाकी है ।
मूर्तियोंका निर्मम भंजन
ग्वालियर दुर्गंकी इन मूर्तियोंका निर्माण तोमरवंशी नरेश डूंगरसिंह और उनके उत्तराधिकारी पुत्र करनसिंह ( अथवा कीर्तिसिंह ) के शासन कालके ३३ वर्षों (सन् १४४० से ७३ ) में हुआ था। महाराज मानसिंहने कुछ मूर्तियोंका निर्माण करवाकर इसमें वृद्धि की । इन मूर्तियोंका निर्माण केवल इन नरेशोंने ही नहीं कराया, अपितु इस पुण्य कार्यमें अनेक भक्त श्रावकोंने भी भाग लिया और करोड़ों रुपये व्यय करके अक्षय पुण्य और कीर्तिका संचय किया ।
सन् १५५७ में बाबरके सेनापति रहीमदादखाने दुर्गके पास रहनेवाले एक फकीर शेख मोहम्मद गौसकी मदद से इब्राहीम लोदी के सूबेदार तातारखांको पराजित करके दुर्गंपर अधिकार कर लिया। जब बाबरने विजेता के रूपमें दुगंमें प्रवेश किया तो वह इन विशाल और भीमकाय मूर्तियों को देखकर बड़ा झुंझलाया और उसने इन मूर्तियों को ध्वस्त करनेका आदेश दे दिया । इस बातका उल्लेख उसने अपने 'बाबरनामा' में किया है। इसका आदेश पाकर सैनिकोंने इन मर्तियोंके ऊपर हथौड़ों के निर्मम प्रहार किये, जिसके फलस्वरूप अधिकांश मूर्तियोंकी मुखाकृति ही नष्ट
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ हो गयी। अनेक मूर्तियोंके हाथ-पैर खण्डित कर दिये गये। इस प्रकार प्रायः सभी मूर्तियां क्षतविक्षत कर दी गयीं। धर्मोन्मादकी ज्वालामें इतिहास, पुरातत्त्व और कलाकी न जाने कितनी बहुमूल्य सामग्री नष्ट कर दी गयी, इसका मूल्यांकन कौन कर सकता है। मूर्ति-लेखोंका एक अध्ययन ____ ग्वालियर दुर्गकी जैन मूर्तियों, उनके अभिलेखों और वहाँ उपलब्ध शिलालेखोंका सांगोपांग और विधिवत् अध्ययन अभी तक नहीं हो पाया है और न अब तक कोई ऐसा ग्रन्थ ही प्रकट हुआ है जिसमें वहाँकी सभी मूर्तियों, अभिलेखों और कलाकी विवेचना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यमें की गयी हो । यदि इन मूर्तियों और अभिलेखोंका तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो उससे तत्कालीन इतिहासपर अभिनव प्रकाश पड़ सकता है। इस अध्ययनमें तत्कालीन साहित्य अत्यन्त सहायक सिद्ध हो सकता है। वस्तुतः यह अध्ययन तभी सर्वांगपूर्ण बन सकेगा। इससे तोमरवंशके नरेशों, गोपाचल पीठके भट्टारकों, उस कालमें हुए महाकवि रइधू , कवि विबुध श्रीधर, पद्मनाभ आदि प्रसिद्ध कवियों, संघवी कमलसिंह, मन्त्रिवर कुशराज, खेल्हा ब्रह्मचारी, असपति साहू, रणमल साहू, खेऊ साहू, लोणा साहू, हरसी साहू, भुल्लण साहू, तोसठ साहू, हेमराज, खेमसिंह साहू, आढू साहू, संघवी नेमदास, श्रमणभूषण कुन्थुदास, होलू साहू जैसे कला एवं साहित्यरसिक दानियों, मूर्ति प्रतिष्ठाकारकों, प्रतिष्ठाचार्यों एवं गोपाचलकी तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं कलात्मक प्रवृत्तियोंके इतिहासपर प्रामाणिक प्रकाश पड़ सकेगा । वस्तुतः ऐसे सम्पूर्ण अध्ययनकी आवश्यकतासे इनकार नहीं किया जा सकता। यह किसी शोध-प्रबन्धका स्वतन्त्र विषय हो सकता हैं। किन्तु विषय और अवसरकी मर्यादाओंको दृष्टिमें रखते हुए हमें यहाँ मूर्तियोंसे सम्बन्धित प्रतिष्ठाकारकों एवं प्रतिष्ठाचार्योंके सम्बधमें ही संक्षेपमें विचार करना है।
यहाँके मूर्तिलेखोंके अध्ययनसे स्पष्टतः चार बातोंपर प्रकाश पड़ता है, जिनके सम्बन्ध में यहाँ कुछ आवश्यक ज्ञातव्य बातें दी जा रही हैं
(१) तोमरवंशी नरेश डूंगरसिंह, उनके पुत्र कीर्तिसिंह तथा कीर्तिसिंहके पौत्र मानसिंहके शासन-कालमें इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई। इन नरेशोंने अपनी ओरसे किसी मूर्तिका निर्माण और प्रतिष्ठा करायी हो, ऐसा कोई अभिलेख हमारे देखने में नहीं आया। सम्भवतः मानमहलकी दीवारमें जो जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, उनका निर्माण महाराज मानसिंहने कराया था। किन्तु इस सम्बन्धमें अभी असन्दिग्ध प्रमाण खोजनेकी आवश्यकता है। फिर भी जिन नरेशोंके शासनकालमें उन्हींकी इच्छा और आज्ञासे गोपाचल दुर्गके प्राचीरका बाह्य और भीतरी भागको विशाल और लघु प्रतिमाएं उकेरकर एक विशाल देवालय बना दिया गया, उन नरेशोंकी जैन धर्मके प्रति उत्कट श्रद्धा और अपने भट्टारक गुरुओंके प्रति उनकी निश्छल भक्तिमें सन्देह नहीं किया जा सकता। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ये नरेश अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु अथवा अनुदार रहे। निश्चय ही वे उदार शासक थे और सभी धर्मोंका समान आदर करते थे। धर्म-श्रद्धा उनके व्यक्तिगत जीवन तक सीमित थी किन्तु शासनकी नीतिमें समस्त धर्म और प्रजा उनके लिए समान थे।
(२) गोपाचल पीठकी भट्टारक-परम्परा एवं वे भट्टारक, जिनकी प्रेरणासे अथवा जिनके द्वारा यहाँ मूर्ति-प्रतिष्ठाएं हुईं। यहाँके मूर्तिलेखोंमें यहाँकी भट्टारक-परम्परा इस प्रकार मिलती है-"श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये भट्टारक श्रीगुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री यशकीर्तिदेवास्तत्पट्टे
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ श्री मलयकीर्ति देवास्ततो भट्टारक गुणभद्रदेवः।" इनमें भट्टारक गुणकीर्ति महाराज वीरमदेव, गणपतिदेव और दूंगरसिंहके शासनकालमें थे। इन भट्टारकजीके प्रति इन नरेशों-विशेषतः डूंगरसिंहकी अत्यन्त भक्ति थी। इन भट्टारकजीके सम्पर्क और उपदेशोंके कारण ही डूंगरसिंहकी रुचि जैन धर्मकी ओर हो गयी। इन्हींकी प्रेरणा और प्रभावके कारण डूंगरसिंहके शासनकालमें गोपाचलपर अनेक मूर्तियोंका उत्खनन हुआ। इसी प्रकार कीर्तिसिंहके शासनकालमें भट्टास्क गुणभद्रके उपदेशसे अनेक मूर्तियोंका निर्माण एवं प्रतिष्ठा हुई। उरवाही द्वारके मूर्ति-समूहमें चन्द्रप्रभकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा इन्हीं गुणभद्रके उपदेशसे हुई थी। अन्य भी कई मूर्तियां इनकी प्रेरणासे प्रतिष्ठित की गयीं। भट्टारक महीचन्द्रने एक पत्थरकी बावड़ीके गुफा-मन्दिरको प्रतिष्ठा करायी थी। भट्टारक सिंहकीर्तिने बावड़ी मूर्ति-समूहकी पार्श्वनाथ प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी। महाराज गणपतसिंहके शासनकालमें मूलसंघ नन्दी तटगच्छ कुन्दकुन्द आम्नायके भट्टारक शुभचन्द्रदेवके मण्डलाचार्य पण्डित भगवतके पुत्र खेमा और धर्मपत्नी खेमादेने धातुको चौबीसी मूर्तिको प्रतिष्ठा करायी थी ( संवत् १४७९ वैशाख सुदी ३ शुक्रवार )। यह मूर्ति आजकल नया मन्दिर लश्करमें विराजमान है। इस प्रकार भट्टारकों द्वारा या उनके उपदेशसे ही गोपाचलकी समस्त मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई थी।
__ (३) अनेक मूर्तिलेखोंमें प्रतिष्ठाचार्यके रूप में पण्डितवयं रइधूका नाम आता है। अपभ्रंश भाषाके मूर्धन्य कवियोंमें रइधूका एक विशिष्ट स्थान है। इनका जो कुछ परिचय उपलब्ध होता है, वह इनके साहित्यसे ही होता है। इनका समय विक्रम सं. १४५०-१५४६ निश्चित किया गया है। वे संघाधिप देवरायके पौत्र और हरिसिंहके पुत्र थे। इनकी माताका नाम विजयश्री था। उनकी जाति पद्मावती पूरवाल थी। वे किस स्थानके निवासी थे, वे विवाहित थे या अविवाहित, यह उनके किसी ग्रन्थकी प्रशस्तिसे प्रकट नहीं होता। बलभद्रचरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्तिके १७वें कड़वकसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके दो भाई और थे, जिनके नाम थे 'बाहोल और माहणसिंह। इसी ग्रन्थकी आद्य प्रशस्तिके चतुर्थ कड़वकके अनुसार रइधूके गुरुका नाम आचार्य ब्रह्मश्रीपाल था जो भट्टारक यशःकीतिके शिष्य थे। यद्यपि.उन्होंने यशोधरचरित आदि ग्रन्थोंमें कई स्थानोंपर भट्टारक यशःकीर्ति और भट्टारक कमलकीतिका उल्लेख गुरुके रूपमें किया है, किन्तु ये उल्लेख केवल श्रद्धावश ही किये गये हैं । वे भट्टारकीय पण्डित तो थे ही, अतः वे सभी भट्टारकोंको अपना गुरु मानते थे। ___ग्वालियरमें कविवर नेमिनाथ और वर्धमान जिनालयमें रहकर साहित्यसृजन करते थे। वे अल्प समयमें ही अपनी दिव्यप्रतिभा, अगाध वैदुष्य, उच्च कोटिकी रचनाओं और अपने मधुर स्वभावके कारण जन-जनके लोकप्रिय कवि बन गये। उन दिनों गोपाल दुर्गके शासक महाराज डूंगरसिंह थे, जो विद्यारसिक और जैनधर्मके परम श्रद्धालु थे। उनके कानोंमें भी इस महान् लोक-कविका यशोगान पहुंचा। उन्होंने कविवरको आदरसहित दुर्गमें बुलाया। महाराज कविवरके व्यक्तित्व और प्रतिभासे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कविवरसे दुर्गमें रहकर उसे ही अपनी साहित्य-साधनाका केन्द्र बनानेका अनरोध किया। कविवरने उसे स्वीकार कर लिया और वहीं रहकर साहित्य-सृजन और प्रतिष्ठा-कार्य करने लगे।' यह क्रम महाराज डूंगरसिंहके पश्चात् उनके पुत्र महाराज कीर्तिसिंहके शासनकालमें भी चलता रहा। ___कविवरने ३० से अधिक ग्रन्थोंका प्रणयन किया था, जिनमें से २४ ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं।
१. गोवाग्गिरिदुग्गमि णिवसंतउ बहुसुहेण तहि-सम्मइजिणचरिउ ११३।१०
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ उनको भाषा सन्धिकालीन अपभ्रंश है, किन्तु कुछ ग्रन्थ प्राकृत एवं हिन्दी तथा कुछ पद्य संस्कृतके भी उपलब्ध होते हैं। ____कविवर रइधूके व्यक्तित्वका एक दूसरा रूप भी था। वह था प्रतिष्ठाचार्यका। उन्होंने अपने जीवनमें कितनी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी, यह तो नहीं कहा जा सकता; किन्तु उन्होंने ग्वालियर दुर्ग में तथा अन्य नगरोंमें भी अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी थी, यह बात कविवरकी ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं मूर्ति-लेखोंसे ज्ञात होती है। उरवाही द्वारके मूर्ति-समूहमें भगवान् आदिनाथकी ५७ फुट ऊँची मूर्ति तथा चन्द्रप्रभ भगवान्की विशाल मूर्तिके लेखोंमें पण्डितवर्य रइधू द्वारा प्रतिष्ठित होना बताया है। अन्य सभी मूर्तिलेख अब तक नहीं पढ़े गये, अन्यथा यह पता चल जाता कि दुर्गमें कितनी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा रइधूने करायी थी। कविवरने 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व', 'सम्मइजिणचरिउ' आदि काव्योंमें कई मूर्ति-निर्माताओं और प्रतिष्ठाकारकोंका उल्लेख किया है।
एक अभिलेखके अनुसार कविवर रइधूने चन्द्रपाट नगर (वर्तमान चन्दवार-फीरोजाबादके पास ) में चौहानवंश। नरेश रामचन्द्र और युवराज प्रतापचन्द्रके शासनकालमें अग्रवालवंशी संघाधिपति गजाधर और भोला नामक प्रतिष्ठाकारकोंके अनुरोधपर भगवान् शान्तिनाथके बिम्बकी प्रतिष्ठा करायी थी।
कविवर के समयमें ग्वालियर दुर्गमें जैन मूर्तियोंका इतना अधिक निर्माण हुआ, जिन्हें देखकर उन्हें यह लिखना पड़ाअगणिय अण पडिम को लक्खइ । सुरगुरु ताह गणण जइ अक्खइ ।
सम्मत्त. ११३१५ इस पद्यमें कविवरने गोपाचलकी जैन मूर्तियोंको अगणित कहा है। कविवरकी विद्वत्ता, राजसम्मान और लोकप्रियताको देखकर यह कल्पना करना असंगत नहीं प्रतीत होता कि यहांकी अधिकांश मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा उन्हींके हाथों हुई थी।
(४)मूर्ति-निर्माता और प्रतिष्ठाकारक-कविवर रइधूके ग्रन्थोंमें कुछ ऐसे व्यक्तियोंका नामोल्लेख आया है, जिन्होंने मूर्तियोंका निर्माण और उनकी प्रतिष्ठा गोपाचल दुर्गपर करायी। उनमें से कुछ नाम ये हैं-संघवी कमलसिंह, खेल्हा ब्रह्मचारी, असपति साहू, संघाधिप नेमदास आदि।
संघवी कमलसिंह-इन्हें कविवर रइधूने ग्रोपाचलका तीर्थ-निर्माता कहा है। इन्हींकी प्रेरणासे कविवरने 'सम्मत्त गुण णिहाण' काव्यकी रचना की थी। इस काव्यकी प्रशस्तिमें संघवीका परिचय दिया गया है। इसके अनुसार इनका कुल अग्रवाल और गोत्र गोयल था। इनके पिताका नाम क्षेमसिंह और माताका नाम निउरादे था। इनकी पत्नीका नाम सरासइ और पुत्रका नाम मल्लिदास था। इन्होंने भगवान् आदिनाथकी ११ हाथ ऊंची प्रतिमाका निर्माण और प्रतिष्ठा महाराज डूंगरसिंहके राज्य-कालमें प्रार्थना करके रइधूसे करवायी थी। उस प्रतिमाकी प्रशंसा करते हुए कविवर लिखते हैं
जो देवहिदेव तित्थंकरु, आइणाहु तित्थो य सुहंकरु । तह पडिमा दग्गइणिण्णासणि, जा मिच्छत्त गिरिंद सरासणि ॥ जा पुणु भबह-सुहगइ सासणि, जा महिरोय सोय दुहु णासणि। सा एयारहकर अविहंगी, काशवियणिरुवम अरतुंगी॥
१. प्राचीन जैन लेख संग्रह-बा. कामताप्रसाद द्वारा सम्पादित ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस प्रशस्तिमें भगवान आदिनाथकी जिस प्रतिमाका उल्लेख किया गया है, वह आदिनाथकी उस प्रतिमासे भिन्न प्रतीत होती है जो ५७ फुट ऊंची है। इसके दो कारण हैं-प्रथम तो दोनों प्रतिमाओंके आकारमें अन्तर है, एक ५० फुटकी है तो दूसरी १६|| फुट की। दूसरा कारण यह है कि बड़ी मूर्तिके लेखमें प्रतिष्ठाका काल संवत् १४९७ दिया गया है, जबकि प्रशस्तिमें उल्लिखित प्रतिमा इससे पूर्वकी है क्योंकि उक्त ग्रन्थ ( सम्मत्त गुणणिहाण ) की रचना' संवत् १४९२ में हो चुकी थी। अतः यह प्रतिमा इससे पूर्वको होनी चाहिए। हाँ, बड़ी मूर्तिके प्रतिष्ठाकारक भी उक्त संघवी ही हैं। यह बात तो उसके मूर्ति-लेखसे भी सिद्ध होती है। वास्तवमें संघवीजीने एकाधिक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी थी और वे अन्य मूर्ति-निर्माताओं और प्रतिष्ठाकारकोंको पूर्ण सहयोग देते थे।
खेल्हा ब्रह्मचारी-इनके अनुरोध और भट्टारक यश कीर्तिके आदेशपर कविवरने 'सम्मइजिणचरिउ' ग्रन्थकी रचना की थी। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें खेल्हाके वंशका विस्तत परिचय दिया है। उससे ज्ञात होता है कि वे हिसारके अग्रवालजातीय गोयल गोत्रीय साहू तोसउके ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका विवाह तेजा साहूको पुत्री क्षेमोके साथ हुआ था। किन्तु सन्तान-लाभ न होनेके कारण इन्होंने अपने भतीजे हेमाको गोद ले लिया और गृहस्थीका सब भार उसे सौंपकर ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया। उसी समयसे वे ब्रह्म खेल्हा कहलाने लगे। उन्होंने ग्वालियर दुर्गमें चन्द्रप्रभ भगवान्की मूर्तिका निर्माण कराया, संघवी कमलसिंहके सहयोगसे शिखरबन्द मन्दिरका निर्माण और मूर्ति-प्रतिष्ठाका कार्य सम्पन्न किया। इस सम्बन्धमें कविवरने लिखा है
अम्हहं पसाएण भव दुह-कयंतस्स, ससिपह जिणेदंस्स पडिमा विसुद्धस्स ।
काराविया मई जि गोवायले तुंग, उडुचाविणामेण तित्थम्मि सुहसंग ॥ असपति साहू-इनके पिता महाराज डूंगरसिंहके अमात्य थे। कुछ विद्वानोंका मत है कि वे खाद्य-मन्त्री थे। साहू असपति भी सम्भवतः महाराज कीर्तिसिंहका मन्त्री या सेनापति था। अपने व्ययसे तीर्थयात्रा-संघ निकालनेके कारण इसे संघपतिकी उपाधि प्राप्त हुई थी। इसने अनेक जैन मूर्तियों और मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी थी। कविवरने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
पुणु वीयउ णंदणु सकियच्छे । रज्जकज्जधुर धरणसमच्छे । संघाहिउ असपत्ति असंकिउ । ससिपहकरणिम्मल जस अंकिउ॥ णिरसियपावपडलणिउरंवर । जेण पइट्टाविय जिणविवइ ।
-सावयचरिउ ६।२६।६-८ संघाधिप नेमदास-कविवरने संघाधिप नेमदासकी प्रेरणासे 'पुण्णासव कहाकोस'को रचना की थी। उस ग्रन्थको प्रशस्तिमें कविवरने नेमदासका परिचय देते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की है। उसके अनुसार नेमदास योगिनीपुर ( दिल्ली ) के निवासी साहू तोसउके चार पुत्रोंमें-से ज्येष्ठ पुत्र थे। उन दिनों चन्द्रवाड़नगर बहुत प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। अन्य नगरोंके अनेक व्यापारी व्यापारके निमित्त वहाँ आते-जाते थे। अनेक व्यापारी तो स्थायी रूपसे वहीं बस गये थे। नेमदास भी वहीं आकर रहने लगे और उन्होंने वहां व्यापारमें अपार धन कमाया। वे अत्यन्त उदार और धर्मपरायण व्यक्ति थे। उन्होंने धातु, पाषाण, विद्रुम और रत्नोंकी अनेक .
१. चउदह सय वाणउ उत्तरालि, वरिसइ गय विक्कमराय कालि।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जिने मूर्तियां बनवायों और एक विशाल जिनालय बनवाकर उसमें इन्हें प्रतिष्ठित किया। वहाँके नरेश चौहानवंशी प्रतापरुद्रने उनका बड़ा सम्मान किया था। सम्भवतः व्यापारिक कार्यसे वे ग्वालियर भी आते-जाते थे। वहाँ संघवो कमलसिंहके माध्यमसे वे कविवर रइधूके सम्पर्कमें आये। धीरे-धीरे यह सम्पर्क प्रगाढ़तर होता गया। कविवरके आदेश या उपदेशसे उन्होंने ग्वालियर दुर्गमें भी मूर्ति-प्रतिष्ठा करायो । 'पुण्णासव कहाकोस'में कविवरने इस बातका उल्लेख इस प्रकार किया है
भो रइधू बुह वढियपमोय ।..... संसिद्ध जाइ तुहु परममित्तु । तउ वयणामियपाणेण तित्तु ।। पइ किय पइट्ठमहु सुहमणेण । जाजयपूरिय धणकंचणेण ।।
पुणु तुव उवएसे जिणविहारु । काराविउ मइ दुरियावहारु ॥१।६।८-११ अर्थात् हे बुद्धिमान रइधू ! मेरा आपके प्रति अत्यन्त प्रमोद है। तुम मेरे परममित्र हो । आप जो कहिये, मैं धन-कंचनसे आपको सन्तुष्ट करूँगा। आपने बड़े हर्षसे जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठा की है । तुम्हारे उपदेशसे मैंने जिन-बिहार ( मन्दिर ) का निर्माण कराया है। तुमने मेरे पापोंका क्षय कराया है।
संघाधिप कुशराज-ये ग्वालियरके गोलाराडान्वयी सेउ साहूके पुत्र थे। इनकी प्रेरणासे कविवर रइधूने 'सावयचरिउ' ग्रन्थकी रचना की थी। इन्होंने महाराज कीर्तिसिंहके शासन-कालमें विशाल जिन-मन्दिरका निर्माण कराया।
__कुमुदचन्द्र-ये गोलालारे जातीय थे। इन्होंने संवत् १४५८ में बाबड़ीकी ओर भट्टारक सिंहकीर्ति द्वारा पार्श्वनाथ-मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी थी।
___ साहू पद्मसिंह-ये जैसवाल वंशके उल्हा साहूके ज्येष्ठ पुत्र थे। इन्होंने २४ जिनालयोंका निर्माण कराया था तथा एक लाख ग्रन्थ लिखवाकर साधुओं, श्रावकों एवं मन्दिरोंको भेंट किया था।
___ मंत्री कुशराज-ये जैसवाल वंशके भूषण थे और महाराज वीरमदेवके महामन्त्री थे। इनके पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम लोणा था। इनके पांच भ्राता थे। इन्होंने भट्टारक विजयकीर्तिके उपदेशसे चन्द्रप्रभ भगवान्का मन्दिर बनवाया था। ..
संघपति सहदेव-कविवर रइधूने 'सम्मइ जिणचरिउ' में साहू सहजपालके पुत्र संघपति सहदेवके सम्बन्धमें लिखा है कि उन्होंने ग्वालियर दुर्गमें मूर्ति-प्रतिष्ठा करायी। तथा गिरनारकी यात्राका संघ चलाया और उसका सम्पूर्ण व्ययभार उठाया। १. जिणबिंब अणेय विसुद्धवोह । णिम्मविवि दुग्गइ पहणिरोह ॥ ___सुपइट्ठ काराविउ सुहमणेण । तित्थेसगोत्तु बंधियउ जेण ॥ पुण्णासव. १।५।८-९
बहुबिह धाउफलिहविटुममउ । कारावेप्पिणु अगणिय पडिमउ ॥ --- पतिठ्ठाविवि सुहु आवज्जिह । सिरितित्थेसरगोत्तु समज्जिउ ।।पुण्णासव. १३।२।३-४ २. विज्जुल चंचलु लच्छी सहाउ । आलोइ विहुउ जिणधम्मभाऊ ॥
जिणगंथु लिहावउ लक्खु एकु। सावय लक्खा हारीति रिक्खु । मुणि भोजन भुंजाविय सहासु । चउबीस जिणालउ किउ सुभासु ।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति, सं. पृ. १४४
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मुहम्मद गौसका मकबरा
यह ग्वालियर किलेके पास बना हुआ है। इस मकबरेका भी एक इतिहास है। ग्वालियर दुर्ग इब्राहीम लोदीके सूबेदार तातार खांके अधिकारमें था। बाबरकी सेनाओंने दुर्गपर आक्रमण कर दिया। किन्तु किलेंमें कैसे प्रवेश किया जाये, यह समस्या थी। मुगल सेनाने किलेके पास रहनेवाले एक फकीर शेख मोहम्मद गोसकी मदद ली । एक बरसती रातमें किलेके प्रत्येक द्वारपर शेखने अपने शिष्योंको किसी प्रकार नियुक्त कर दिया। आधी रातको सेना किलेमें प्रवेश कर पायी। किलेपर मुगलोंका अधिकार हो गया। इस उपकारके कारण मुगल घरानेमें अकबरले समय तक इनका बड़ा सम्मान रहा। शेख ८० वर्षको आयुमें मरे । उनकी मृत्युपर अकबरने उनका भव्य स्मारक बनवानेकी इच्छा व्यक्त की। स्मारक तुरन्त तैयार नहीं हो सकता था, अतः शवको पूर्वनिर्मित एक भव्य भवनमें दफना दिया गया। यह भवन जैन मन्दिर था जो अत्यन्त कलापूर्ण बना हुआ था। किन्तु बाबरके सैनिकोंने इसको वेदियां, मूर्तियाँ आदि नष्ट कर दी थीं। उसी जैन मन्दिरको अकबरने शेख मुहम्मद गोसका मकबरा बना दिया। इसकी बनावटसे ही प्रतीत होता है कि यह मूलतः जैन मन्दिर था। संग्रहालयमें जैन पुरातत्त्व
ग्वालियरका केन्द्रीय पुरातत्त्व संग्रहालय दुर्गके गूजरो महलमें स्थित है। गूजरी महल न केवल एक प्राचीन स्मारक ही है, अपितु वह स्थापत्य कलाका एक अनुपम उदाहरण भी है। इस महलके साथ एक प्रेम-कथानक जुड़ा हुआ है जो मध्यभारतमें बड़ा लोकप्रिय है। राजा मानसिंहको शिकार खेलनेका बड़ा शौक था। एक दिन वे दुर्गके उत्तर-पश्चिममें स्थित 'राय' गाँवमें शिकार खेलते हुए पहुँच गये । गाँवमें एक जगह दो भैंसोंमें युद्ध हो रहा था। दोनों भयंकर क्रोधके कारण एक-दूसरेसे गुंथे हुए थे। दर्शकोंका भारी शोर हो रहा था। कुछ गुजरियां सिरपर घड़े रखे हुए राह साफ होनेकी प्रतीक्षामें वहां खड़ी थीं। किसीमें यह साहस नहीं था कि भैंसोंको अलग कर दे । सहसा एक गूजरी आगे बढ़ी, घड़े उतारकर एक ओर रख दिये, भैंसोंके पास पहुंची और अपने बलिष्ठ हाथोंसे उनके सींग पकड़कर दोनोंको अलग कर दिया। राजा मानसिंह खड़े हुए देख रहे थे। वे एक नारीके इस अतुल साहस और शारीरिक बलको देखकर उसकी ओर आकर्षित हो गये। उसके सौन्दर्यने उसका मन हर लिया। राजाने गूजरीसे विवाहका प्रस्ताव किया। सुन्दरीके परिजन और पुरजन राजाका प्रस्ताव सुनकर गर्वसे फूल उठे। किन्तु गूजरी कन्या सहसा विवाहके लिए तैयार नहीं हुई। उसने एक शर्त पेश की-यदि राय ग्रामकी नदीसे महल तक हर समय जल पहुंचानेकी व्यवस्था कर दी जाये तो वह विवाह कर सकती है क्योंकि राय ग्रामकी नदीके जलके कारण ही तो वह इतनी शक्तिवती है। राजाने यह शर्त स्वीकार कर ली। बम्बों द्वारा पानी लानेकी व्यवस्था कर दी गयी। विवाहके बाद गूजरीका नाम 'मृगनयना' रखा गया। उसके रहनेके लिए एक सुन्दर महल बनवाया गया। वह 'गूजरी महल' के नामसे विख्यात है तथा 'रानी सागर' इस बातका स्मरण दिलाता है कि राजा मानसिंहने अपनी प्यारी रानीके लिए जलकी विशेष व्यवस्था की थी।
__ इस संग्रहालयमें जो जैन पुरातत्त्व-सामग्री संग्रह की गयी है, वह प्रायः तीन स्थानों सेप्राचीन ग्वालियर, पधावली और भिलसा। ग्वालियरसे आयी मूर्तियां प्रायः तोमरवंशके शासनकाल ( १५-१६वीं शताब्दी ) की हैं, कुछ ११-१२वीं शताब्दीकी हैं। एक पद्मासन मूर्ति, मूर्तिलेखके अनुसार, महाराजाधिराज मानसिंहके शासनकालमें विक्रम सं. १५५२ में प्रतिष्ठित की
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ गयी थी। दूसरी मूर्ति पार्श्वनाथकी विक्रम सं. १४७६ की है। एक अन्य पाश्वनाथकी मूर्ति ११-१२वीं शताब्दीकी है। ग्वालियरकी मूर्तियोंमें नेमिनाथ, धर्मनाथ और चन्द्रप्रभकी मूर्तियाँ हैं एवं चौमुखी मूर्तियाँ हैं। इनमें क्रमशः ऋषभनाथ, अजितनाथ, महावीर और पार्श्वनाथकी मूर्तियाँ हैं।
भिलसासे भी एक चतुर्मुखी प्रतिमा मिली है। उसमें भी मूर्तियोंका क्रम उपर्युक्त रीतिसे है । भिलसासे प्राप्त ऋषभदेवकी एक मूर्ति अपने अद्भुत केश-विन्यासके कारण विशेष उल्लेखनीय जान पड़ती है।
पधावलीकी मूर्तियोंमें आदिनाथ, धर्मनाथ, पद्मप्रभ, अजितनाथ और पार्श्वनाथकी मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ पधावलीके पश्चिममें स्थित पहाड़ीसे लायी गयी थीं। ये सब १२-१४वीं शताब्दी की हैं।
__ये सब मूर्तियाँ गूजरी महलके फाटकमें घुसते ही गैलरीमें रखी हैं, अथवा गैलरी नं. २० ( जैनकक्ष ) में सुरक्षित हैं । इन मूर्तियोंका क्रमिक विवरण इस प्रकार है
१. पाश्वनाथ-मूर्तिका सिर
२. पद्मासन प्रतिमा, अवगाहना ढाई फुट। ऊपर दोनों सिरोंपर दो पद्मासन अर्हन्त प्रतिमाएं हैं। उनके नीचे दो देवियां वाद्य यन्त्र लिये हुए हैं। उनसे नीचे चमरवाहक हैं।
३-साढ़े चार फुट शिलाफलक पर दो खड्गासन तीर्थकर-मूर्तियाँ हैं । सिरके ऊपर छत्र हैं । कोनोंपर आकाशचारी गन्धर्व हैं। भगवान्के हाथोंके पास दोनों ओर दो-दो चमरेन्द्र खड़े हैं। पाषाणका वर्ण कुछ हल्का पीला है। .
४. दुसरे बरामदेमें-सहस्रकट चैत्यालय । ५. सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं पद्मासन मुद्रामें, अवगाहना चार फुट। ६. सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ खड्गासन मुद्रामें। चारों कोनोंपर चमरवाहक। ७. पूर्वोक्त प्रतिमा-जैसी है। चमरवाहक नहीं है। जैन कक्ष नं. २० में मूर्तियोंका क्रम इस प्रकार है१. सवा दो फुट ऊंची पद्मासन प्रतिमा। गरदनसे ऊपरका भाग नहीं है। २. सर्वतोभद्रिका।
३. पद्मासनमुद्रामें सवा दो फुट उन्नत प्रतिमा पुष्पदन्त तीर्थकरकी। परिकरमें ऊपर कोनोंपर गजारूढ़ इन्द्र, नभचारी देव और मध्यमें चमरेन्द्र ।
___४. तीर्थकर मूर्तिका केवल पीठासन भाग है, शेष खण्डित है। मध्यमें बोधिवृक्ष बना हुआ है। उसके दोनों ओर खड़े हुए भक्त उसकी पूजा कर रहे हैं। उसके ऊपर तो पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं । उनके दोनों ओर यक्ष और यक्षी खड़े हैं। मूर्तिलेखके अनुसार इस मूर्तिको प्रतिष्ठा संवत् १५५२ ज्येष्ठ सुदी ९ सोमवारको सम्पन्न हुई थी।
५. खड्गासन मुद्रा में ७ फुट उन्नत तीर्थंकर प्रतिमा। परिकरमें आकाशचारी गन्धर्व और चमरेन्द्र। ......६. ढाई फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति । सिरके पीछे प्रभालय हैं।
७. पंचबालयतिकी मूर्ति । मध्यमें खड्गासन पार्श्वनाथ है। ऊपर दो पद्मासन तथा नीचे दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं । उनके दोनों ओर चमरवाहक हैं।
८. एक खण्डित मूर्ति केवल पद्मासन (पथोली) का भाग अवशिष्ट है। मूर्ति-लेखके अनुसार संवत् १४९२ में प्रतिष्ठित।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
९. एक भव्य तीर्थंकर प्रतिमा । पद्मासन मुद्रामें अवगाहना साढ़े चार फुट । छत्र और भामण्डल कलापूर्ण है । दोनों ओर दो खड्गासन मूर्तियां हैं, किन्तु खण्डित हैं ।
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१०. सात फुट उन्नत, पद्मासन मुद्रामें तीर्थंकर मूर्ति छत्रत्रयी है । ऊपर दोनों कोनोंपर माला लिये हुए देव देवियाँ बनी हुई हैं। दो खड्गासन तथा दोनों ओर दो-दो मुगल मूर्तियाँ पद्मासन मुद्रा में । नृत्य-मुद्रामें चमरेन्द्र खड़े हैं। दोनों कोनोंपर यक्ष और यक्षी हैं। दो सिंह बने हुए हैं। शेष भाग खण्डित है ।
११. भगवान् पार्श्वनाथकी ५ फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा । सिरपर फणावली, उसके ऊपर छत्र और भामण्डल सुशोभित हैं। ऊपर पावों में दोनों ओर गज बने हुए हैं । नीचे दोनों ओर दो-दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं । अलंकरणमें हिरण और देवियाँ उत्कीर्ण हैं ।
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१२. पाँच फुटकी खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा । उसके सिरके ऊपर छत्रत्रयी और पीछे भामण्डल सुशोभित हैं। ऊपर दोनों सिरोंपर नभचारी गन्धवं हैं। उनके नीचे दोनों ओर एक खड्गासन और एक पद्मासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। मूर्तिके दोनों किनारोंपर अलंकरण हैं । १३. सवा दो फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा है । सिरके पीछे भामण्डल सुशोभित है । १४. सात फुटके एक शिलाफलकपर भगवान् ऋषभदेवकी खड्गासन मूर्ति है । उसके दोनों ओर चार खड्गासन मूर्तियाँ हैं। उनसे नीचे चमरवाहक चमर लिये हुए भगवान्की सेवामें खड़े हैं। पादपीठपर वृषभलांछन अंकित है ।
१५. पाँच फुटके शिलाफलकपर पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण है । बायीं ओर ९ लघु पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं, दायीं ओरका भाग खण्डित है । शिलाफलक भी टूटा हुआ है । १६. भगवान् अजितनाथकी खड्गासन प्रतिमा । बायीं ओर तीन लघु खड्गासन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । दूसरी ओरका भाग खण्डित है । पादपीठपर गजका लांछन अंकित है । १७. पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमाके ऊपर छत्र हैं। छत्रके ऊपर ३ पद्मासन प्रतिमाएँ हैं । दायीं और बायीं ओर २-२ पद्मासन और १-१ खड्गासन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं।
१८. सर्वतोभद्रका प्रतिमा । एक स्तम्भमें चारों दिशाओंमें चार पद्मासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।
१९. किसी मूर्तिका ऊपरका भाग, जिसमें केवल छत्र मध्यमें और दो हाथी दोनों सिरों पर बने हुए हैं।
२०. एक पद्मासन प्रतिमा । सिर कटा हुआ है ।
२१. कक्ष नं. २० के सामने मैदानमें एक पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति रखी हुई है । उसके सिरके पीछे भामण्डल और सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। दोनों पार्श्वोमें दो पद्मासन प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। उनसे नीचे चमरेन्द्र चमर लिये हुए खड़े हैं । मूर्ति पर भव्य अलंकरण किया हुआ है । कुछ मूर्तियाँ ऐसी हैं, जो अन्य कक्षोंमें रखी हुई हैं । वे विवादास्पद कही जा सकती हैं। उनमें से एक है वदोह (विदिशा जिला ) से प्राप्त तीर्थंकर माताकी मूर्ति । माता पर्यंकपर लेटी हुई
। उनके बगल में सद्य:जात बाल तीर्थंकर लेटे हुए हैं। तीर्थंकर माताके सिरके पीछे भामण्डल है । उनके निकट इन्द्र द्वारा माताकी सेवाके लिए भेजी गयी चार देवियां खड़ी हैं। उनके हाथों में चामर आदि वस्तुएँ हैं। ये चार देवियाँ कोन थीं अथवा क्या कर रही थीं, इसका समाधान हमें 'हरिवंश पुराण' से इस भांति हो जाता है
सहैव रुवकप्रभारुचकया तदाद्याभया परा च रुचकोज्ज्वला सकलविद्युदग्रे सराः ।
दिशां च विजयादयो युवतयश्चतस्रो वरा जिनस्य विदधुः परं सविधिजातकर्मंश्रिताः || ३८ ३७
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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अर्थात् विद्युत्कुमारियोंमें प्रमुख रुचकप्रभा, रुचका, रुचकाभा और रुचकोज्ज्वला ये चार देवियाँ तथा दिक्कुमारियोंमें प्रमुख विजया आदि चार देवियाँ जिनेन्द्रदेवके जातकर्म करनेमें जुट गयीं ।
मूर्तिको ध्यानपूर्वक देखनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें बनी हुई चार देवियाँ हरिवंशपुराण में वर्णित चार विद्युत्कुमारियाँ हैं अथवा चार दिक्कुमारियाँ हैं । प्रतीकके रूपमें मूर्ति में चार देवियाँ अंकित कर दी गयी हैं । निश्चय ही यह तीर्थंकर माता तथा सद्यः जात बालक तीर्थंकरकी मूर्ति है तथा देवियाँ माताका जातकर्म करके माताकी सेवामें खड़ी हुई हैं ।
यह मूर्ति वदोह गडरमल मन्दिरसे प्राप्त हुई थी । यह मन्दिर ९वीं शताब्दीका अनुमानि किया जाता है । मुस्लिम आक्रान्ताओंने इस मन्दिरका जीर्णोद्धार करवा लिया । मूलतः यह जैन मन्दिर रहा है और अब भी इसमें जैन मूर्तियाँ हैं ।
किन्तु कोई विद्वान् आग्रहवश इसे देवकी और कृष्णकी मूर्ति मानते हैं । तथा यह आक्षेप भी करते हैं कि इस मन्दिरपर जैनोंने अधिकार कर लिया तथा बादमें अपनी मूर्तियाँ वहाँ रख दीं । किन्तु उन्होंने अपनी मान्यताके समर्थन में कोई प्रमाण नहीं दिया । उनकी निराधार कल्पनाको केवल उनके आग्रहके कारण स्वीकार करनेमें किसी भी विवेकशील व्यक्तिको कठिनाई होगी । उनके आग्रह एकाधिक उदाहरण और भी हैं । जेसे ग्यारसपुरका मालादे मन्दिरपर जैनोंने अधिकार कर लिया है और उसमें अपनी मूर्तियाँ रख दी हैं । जेन यक्षी अम्बिकाके सम्बन्धमें भी यही बात है । अस्तु ।
शिलालेख
शिलालेखों की दृष्टिसे यह संग्रहालय अत्यन्त समृद्ध है । इसमें कुछ जैन शिलालेख भी हैं जो ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । एक शिलालेख उदयगिरि ( जिला विदिशा ) गुहासे उपलब्ध हुआ है जो गुप्त संवत् १०६ ( सन् ४२५ ई.) का है । इसमें उल्लेख है कि कुरुदेश के शंकर स्वर्णकारने कर्मारगण ( स्वर्णकार संघ ) के हित के लिए गुहा मन्दिर में तीर्थंकर पार्श्वनाथ - की प्रतिमाका निर्माण कराया ।
एक शिलालेख १३वीं शताब्दीका है । यह यज्वपाल वंशके असल्लदेवका नरवर शिलालेख है जो विक्रम सं. १३१९ ( सन् १२६२ ) का है। इसमें गोपगिरि दुर्गके माथुर कायस्थ परिवारकी वंशावली दी गयी है । सर्वप्रथम भुवनपालका नाम है जो धार नरेश भोजका मन्त्री था । उसने जैन तीर्थंकर मन्दिरका निर्माण कराया, नागदेवने उसमें तीर्थंकर प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी और यह शिलालेख वास्तव्य कायस्थ ( श्रीवास्तव ) ने लिखा ।
एक अन्य शिलालेख उपर्युक्त असल्लदेवके पुत्र गोपालदेव नरवरका है जिसमें आशादित्य कायस्थ द्वारा एक वापिका बनवाने और वृक्ष लगाये जानेका उल्लेख है ।
ग्वालियर में तोमर राजवंशके कालमें जैनधर्म
तोमर राजवंश प्राचीन भारतीय राजवंशों में अत्यन्त प्रतिष्ठित राजवंश माना जाता है । तोमरवंशने अपनी वीरता, साहस और सूझबूझसे भारतीय इतिहासपर उल्लेखनीय प्रभाव डाला है । तोमरवंशके राजा अनंगपालने दिल्लीको बसाया था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसका समर्थन दिल्ली संग्रहालय में उपलब्ध निम्नलिखित श्लोकसे होता है—
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ देशोऽस्ति हरियानाख्यः पृथिव्यां स्वर्गसन्निभः ।
ढिल्लिकाख्यपुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता । यहाँ तोमरोंसे अभिप्राय अनंगपालसे है। इस सम्बन्धमें विस्तृत विवेचन इस ग्रन्थके भाग १ में किया जा चुका है।
इसी तोमरवंशकी एक शाखा ग्वालियरमें शासन करती थी। इस वंशके शासनकालमें जैनधर्मको प्रगति करनेका पूर्ण अवसर मिला। जैनधर्मके प्रति तोमरवंशके शासकोंका व्यवहार उदार और सहानुभूतिपूर्ण रहा । इस वंशके कई राजा तो जैनधर्मके अनुयायी भी थे। कई राजाओंके मन्त्री जैन थे। यहाँके राजाओंपर भट्टारकोंका बड़ा प्रभाव था और वे उनके शिष्य थे। इस कारण इस कालमें ग्वालियरमें अनेक मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण हुआ। अनेक प्रतिष्ठोत्सव हुए तथा अनेक जैन ग्रन्थोंका प्रणयन और प्रतिलिपि हुई।
___महाराज वीरमदेवका मन्त्री कुशराज था। वह जैसवाल जैन वंशमें उत्पन्न हुआ था। इस मन्त्रीने ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिन मन्दिर बनवाया था और उसका प्रतिष्ठोत्सव बड़े समारोहके साथ किया था। - कुशराजने पद्मनाभनामक एक कायस्थ विद्वान्से यशोधरचरित्र नामका एक काव्य ग्रन्थ लिखनेका अनुरोध किया था। पद्मनाभने उनके अनुरोधको स्वीकार करके भट्टारक गुणकीर्तिके संरक्षणमें इस संस्कृत काव्य-ग्रन्थकी रचना की।
___वीरमदेवके राज्यकालमें यहाँ अनेक ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ भी हुई जो अब भी विभिन्न शास्त्र-भण्डारोंमें मिलती हैं। जैसे सं. १४६० में गोपाचलमें साहू वरदेवके चैत्यालयमें भट्टारक हेमकीतिके शिष्य मुनि धर्मचन्द्रने सम्यक्त्व कौमुदीकी प्रति आत्म-पठनाथं लिखी, यह तेरापन्थी मन्दिर जयपुरके शास्त्र-भण्डारमें सुरक्षित है।
सं. १४६८ में भट्टारक गुणकोतिको आम्नायमें साहू मरुदेवकी पुत्री देवसिरोने 'पंचास्तिकाय' टीकाकी प्रति करवायी, जो कारंजाके शास्त्रभण्डारमें है।
सं. १४६९ में आचार्य अमृतचन्द्र कृत प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका टीका लिखी गयी थी।
संवत् १४७९ में जौतुको स्त्री सरोने षट्कर्मोपदेशको प्रति लिखवाकर अर्जिका विमलमतीको पूजा-महोत्सवके साथ समर्पित की। यह प्रति आमेरके शास्त्र-भण्डारमें विद्यमान है।
महाराज डूंगरसिंहकी जैनधर्ममें पूर्ण आस्था थी। वह कुशल राजनीतिज्ञ, अप्रतिम साहसी और पराक्रमी योद्धा था। नरवरको जीतकर उसने अपने राज्यका बहुत विस्तार कर लिया था। नरवरके दुर्गमें उसने अपनी विजयके उपलक्ष्यमें जयस्तम्भ भी बनवाया। गोपाचल दुर्गकी ऊबड़खाबड़ चट्टानोंमें सम, सुडौल और विशाल प्रतिमाओंका निर्माण उसके शासनकालमें प्रारम्भ हुआ। यह सिलसिला उसके पुत्र कीर्तिदेवके शासनकालके अन्त तक चला।
- इनके शासनकालमें अनेक नये ग्रन्थोंका निर्माण हुआ। भट्टारक यशःकीतिने संवत् १४९७ में पाण्डवपुराण, १५०० में हरिवंशपुराणको रचना अपभ्रंश भाषामें की। जिनरात्रिकथा, रविव्रतकथा और चन्द्रप्रभ चरित आदि ग्रन्थ भी इन्होंने बनाये। स्वयंभूदेवके हरिवंशपुराणकी जीर्ण-शीर्ण प्रतिका भी उद्धार इन्होंने कराया।
___ अपभ्रंश भाषाके महाकवि रइधू ग्वालियरके ही रहनेवाले थे। महाराज डूंगरसिंह और उनके पुत्र महाराज कीर्तिसिंह दोनों ही नरेश इस महान कविके भक्त थे। रइधूने अपनी रचनाओंमें जो प्रशस्तियाँ लिखी हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें उन्होंने ग्वालियर, पद्मावती, उज्जयिनी, दिल्ली, हिसार आदि स्थानोंको तत्कालीन राजनैतिक, आर्थिक और
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ सामाजिक परिस्थितियां भी दी हैं; अपने समकालीन राजाओं, सेठों, कवियों और भट्टारकोंके भी परिचय दिये हैं।
महाराज कीर्तिसिंहके शासनकालमें संवत् १५२१ में जैसवालकुलभूषण उल्हा साहुके ज्येष्ठ पुत्र पद्मसिंहने २४ जिनालयोंका निर्माण कराया और उनकी प्रतिष्ठा करायी। संवत् १५३१ में इन्होंने महाकवि पुष्पदन्तके आदिपुराणको प्रतिलिपि करायी। इस ग्रन्थके दानकर्ताकी प्रशस्तिमें लिखा है कि उन्होने ग्रन्थोंको एक लाख प्रतिलिपियाँ कराकर विभिन्न मन्दिरोंमें भेजी।
भ. गुणभद्रने यहाँके श्रावकोंकी प्रेरणासे अनेक कथाओंका निर्माण कराया था।
संवत् १५२१ में यहाँके एक लुहाड़िया गोत्रीय खण्डेलवाल जैनने 'पउमचरिउ'की प्रतिलिपि करायी।
महाराज डूंगरसिंहका शासन संवत् १४८१ से १५१० तक रहा तथा महाराज कीर्तिसिंहका राज्यकाल संवत् १५१० से १५३६ तक है। वस्तुतः ग्वालियरमें जैनधर्मका यह स्वर्ण-काल माना जाता है।
इनके पश्चात् महाराज मानसिंहके राज्यकालमें कुछ सांस्कृतिक कार्य होनेके उल्लेख प्राप्त होते हैं । संवत् १५५८ में गोपाचल दुर्गमें भट्टारक सोमकीर्ति और भट्टारक विजयसेनके शिष्य ब्रह्मकलामें षट्कर्मोपदेशकी प्रतिलिपि करायी। इसी संवत्में नागकुमार चरितकी प्रति करायी गयी। संवत् १५६९ में गोपाचलमें श्रावक सिरीमलके पुत्र चतरुने ४४ पद्योंमें नेमीश्वर गीतकी रचना की।
इस प्रकार तोमर-वंशके राज्य-कालमें गोपाचलमें जैनोंके विविध सांस्कृतिक कार्य हुए। इस कालमें निर्मित मूर्तियोंके लेखोंमें गोपाचलके नरेशोंका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। जिन ग्रन्थोंका इस कालमें निर्माण हुआ या प्रतिलिपि हुई, उनकी प्रशस्तिमें भी इन नरेशोंका उल्लेख सम्मानके साथ किया गया है। ग्वालियरमें भट्टारक-पीठ
___ ग्वालियर काष्ठा संघ माथुर गच्छका भट्टारक-पीठ था। ग्रन्थ-प्रशस्तियों और मूर्ति-लेखोंमें इस संघके साथ काष्ठासंघ माथुरान्वय बलात्कार गण सरस्वती गच्छका प्रयोग मिलता है। ग्वालियरके भट्टारकोंका उल्लेख कविवर रइधूके ग्रन्थों, मूर्तिलेखों और पट्टावलियोंमें प्राप्त होता है। उनसे प्रतीत होता है कि इस शाखाका प्रारम्भ माधवसेनसे हआ। भद्रारक माधवसेनके दो शिष्य थे-उद्धरसेन और विजयसेनकी शिष्य-परम्परामें देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, यशःकीर्ति, मलयकीर्ति, गुणभद्र और गुणचन्द्र भट्टारक हुए।
भट्टारक गुणचन्द्रके शिष्य ब्रह्ममण्डनने संवत् १५७६ में सोनपतमें इब्राहीम लोदीके शासनकालमें स्तोत्रादिका एक गुटका लिखा था। उसकी प्रशस्तिमें अपने गुरुओंकी पट्टावलीका उल्लेख इस प्रकार किया है___'स्वस्तिश्री विक्रमाकं संवत्सर १५७६ जेठ वदि १ पडिवा शुक्र दिने कुरुजांगले सुवर्णपथनाम्नि सदर्गे सिकंदरसाहि तत्पूत्र सुल्तान इब्राहिम राज्य प्रवर्तमाने काष्ठासंघ माथुर पुष्करगणे आचार्य श्री माहवसेनदेवाः तत्पट्टे भ. उद्धरसेन देवाः तत्पट्टे भ. देवसेन देवाः तत्पट्टे भ. विमलसेन देवाः तत्पट्टे भ. धर्मसेन देवाः तत्पट्टे भ. भावसेन देवाः तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. गुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. यशःकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. मलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्री गुणभद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणचन्द्र तच्छिष्य ब्रह्मांडण एषां गुरुणामाम्नाये....'
च्छि
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इसी प्रकार माधवसेनके दूसरे शिष्य विजयसेनसे दूसरी परम्परा प्रारम्भ हुई। इस परम्परामें विजयसेन, नयसेन, श्रेयांससेन, अनन्तकीर्ति, कमलकीर्ति, क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, कमलकीर्ति हुए। कमलकीतिके दो शिष्य थे-शुभचन्द्र और कुमारसेन । शुभचन्द्रने अपनी पीठ सोनागिरिमें स्थापित की। इनके शिष्य यशःसेन थे। कमलकीतिके दूसरे शिष्य कुमारसेनकी शिष्य-परम्परामें हेमचन्द्र, पद्मनन्दि, यशःकीर्ति हुए। यशःकीतिके पट्ट-शिष्य दो हुए-गुणचन्द्र और क्षेमकीर्ति । गुणचन्द्रके शिष्य सकलचन्द्र और उनके शिष्य महेन्द्रसेन हुए। यशःकीर्तिकी शिष्य
रम्परामें क्षेमकीर्ति और त्रिभवनकीर्ति हए । इनका पदाभिषेक हिसार में हआ। इनकी परम्परामें सहस्रकीर्ति, महीचन्द्र, देवेन्द्रकीर्ति, जगत्कीर्ति, ललितकीर्ति, राजेन्द्रकीर्ति और मुनीन्द्रकीर्ति हुए। .. इन भट्टारकोंका अपने समयमें राजा और प्रजा दोनोंपर ही अद्भुत प्रभाव था। इन्होंने अनेक मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा की, अनेक भट्टारकोंने स्वयं शास्त्र लिखे तथा दूसरे विद्वानोंको प्रेरणा देकर शास्त्र लिखवाये, शास्त्रोंकी प्रतिलिपि करायी। इन भट्टारकोंमें-से जिन्होंने कुछ विशेष कार्य किये, उनका संक्षिप्त उल्लेख यहां किया जा रहा है
विमलसेन–समय १४वीं शताब्दीका उत्तरार्ध । वि. सं. १४१४ में इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक पद्मासन धातु चौबीसी जयपुरके पाटौदी मन्दिरमें विराजमान है। सं. १४२८ में प्रतिष्ठित आदिनाथकी एक मूर्ति दिल्लीके नया मन्दिरमें विद्यमान है। - धर्मसेन-समय विक्रमकी १५वीं शताब्दी। इनके द्वारा प्रतिष्ठित पाश्वनाथ, अजितनाथ
और वर्धमान तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ जैन मन्दिर हिसारमें विराजमान हैं। . गुणकोति-इनके तप और चरित्रका प्रभाव तोमरवंशके शासकोंपर पड़ा और वे जैनधर्मकी ओर आकर्षित हुए। ये अत्यन्त प्रभावशाली थे। राजा डूंगरसिंहके शासनकालमें जैन मूर्तियोंके उत्कीर्णनका जो महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ, उसका श्रेय इन्हीं भट्टारकको है। . यश कीति-ये गुणकीर्तिके लघुभ्राता और शिष्य थे। ये बड़े विद्वान् थे। इनकी रचनाओंमें पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण, आदित्यवारकथा और जिनरात्रिकथा मुख्य हैं। इन्होंने महाकवि स्वयम्भूके खण्डित और जीर्ण-शीर्ण हरिवंशपुराणका उद्धार ग्वालियरके पास पनिहार जिन चैत्यालयमें बैठकर किया था।
भट्टारक गुणभद्र-आप प्रकाण्ड विद्वान् थे। आपने लोगोंके आग्रहसे १५ कथाओंकी
रचना की।
. भानुकोति-इनकी लिखी हुई रविव्रतकथा प्राप्त होती है। -
___कमलकोति-इनके समयमें कविवर रइधूने चन्द्रवाड़में भगवान् चन्द्रप्रभ-मूर्तिकी प्रतिष्ठा की। ग्वालियरमें जैन मन्दिर और वार्षिक मेले
___ ग्वालियर, लश्कर और मुरार इन तीन भागोंको मिलाकर ग्वालियर शहर कहलाता है। इनमें से ग्वालियरमें ४ मन्दिर और ४ चैत्यालय हैं, लश्करमें कुल २० मन्दिर और ३ चैत्यालय हैं, तथा मुरारमें २ मन्दिर और २ चैत्यालय हैं। : । यहाँ जैन समाजकी ओरसे २६ जनवरीको रथयात्रा निकाली जाती है। असौज कृष्ण २ को ग्वालियर किलेके उरवाही द्वारके नीचे पंचायती मेला होता है। असौज कृष्ण ४ को दिगम्बर जैन जैसवाल मन्दिर दानाओलीसे भगवान्की प्रतिमाको एक पत्थरकी बावड़ीपर ले जाकर
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ विराजमान करते हैं और वहां मेला भरता है। असौज अमावस्याको वासुपूज्य मन्दिर ग्वालियरसे श्रीजीको जलेव एक पत्थरकी बावड़ीपर जाती है । यह मेला बड़ा होता है। जैनधर्मशालाएँ
यहाँ लश्करमें ९, ग्वालियरमें २ तथा मुरारमें १ जैन धर्मशालाएँ हैं। इनमें नयी सड़क ( लश्कर ) में महावीर धर्मशाला अधिक सुविधाजनक है।
मनहरदेव
मार्ग
- श्री मनहरदेव क्षेत्र ग्वालियर जिलेकी तहसील पिछौरमें स्थित है। सेण्ट्रल रेलवेके आन्तरी और डवरामण्डी स्टेशनोंसे यह लगभग १९ कि. मी. दूर है। चिनौर तक पक्की सड़क है। वहाँसे ५ कि. मी. कच्चा रास्ता है। इसका पोस्ट ऑफिस करहिया ( जिला ग्वालियर, मध्यप्रदेश ) है। करहियासे यह ८ कि. मी. दूर पड़ता है। यह क्षेत्र चैत्य नामक ग्रामके निकट एक छोटी-सी पहाड़ीपर स्थित है। अतिशय-क्षेत्र
__श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र मनहरदेव एक पहाड़ीपर है। पहाड़ी विशेष ऊँची नहीं है। पर्वतपर एक जैन मन्दिर है तथा ११ मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें विद्यमान हैं। पर्वतकी तलहटीमें भी दो मन्दिर हैं। पर्वतपर स्थित मन्दिरमें मूलनायकके रूपमें सेठ पाड़ाशाह द्वारा प्रतिष्ठित भगवान् शान्तिनाथकी १५ फुट उत्तुंग कायोत्सर्गासन दिगम्बर जैन प्रतिमा विराजमान थी, जो अब सोनागिर क्षेत्रपर पहुंचा दी गयी है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ और अतिशयसम्पन्न है। इसके अतिशयोंके सम्बन्धमें जनतामें अनेक किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं। जैन जनताके समान निकटवर्ती अजैन जनतामें भी इस क्षेत्रकी अत्यधिक मान्यता रही है और वह इसे चैत्य-क्षेत्रके नामसे पूजती हैं। वास्तवमें चैत्य-क्षेत्र उसी क्षेत्रको कहा जाता है जहाँ चैत्य अर्थात् जैन मूर्ति और जैन मन्दिर हों। इसी कारण गांवका नाम भी चैत्य पड़ गया है।
यह मूर्ति मनको हरनेवाली है। इसलिए सर्वसाधारणमें यह मनहरदेवके नामसे प्रसिद्ध रही है। प्रतिमाकी चरण-चौकीपर कोई लांछन स्पष्ट नहीं है। करहिया निवासी पं. लेखराजजीने 'वरैया विलास' नामक ग्रन्थमें इस मूर्तिको ऋषभदेवकी मूर्ति के रूपमें उल्लेखित किया है। किन्तु जैन समाजमें भगवान् शान्तिनाथकी मूर्तिके नामसे यह प्रसिद्ध है । इस प्रसिद्धिका कारण सम्भवतः यह मान्यता है कि इस मूर्ति के प्रतिष्ठाकारक सेठ पाडाशाह थे और पाडाशाहने सर्वत्र शान्तिनाथकी मूर्ति ही मूलनायकके रूपमें प्रतिष्ठित की है। यह मान्यता अधिक साधार रही है, अतः सर्वसाधारणमें यही मान्यता प्रचलित रही है और सभी इस मूर्तिको शान्तिनाथकी ही मूर्ति मानते हैं। - यह क्षेत्र नितान्त एकान्तमें है और इस क्षेत्रपर एवं इसके निकटवर्ती प्रदेशमें जैन पुरातत्त्वकी सामग्री विपुल परिमाणमें असुरक्षित दशामें बिखरी हुई पड़ी है। ऐसे स्थान मूर्तिचोरोंको अपनी सुरभिसन्धि पूरी करने में बहुत अनुकूल पड़ते हैं। इस क्षेत्रपर भी इन लोगोंने अपने कुत्सित कृत्यों द्वारा कला, इतिहास और धार्मिक भावनाओंको गहरा आघात पहुँचाया है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस क्षेत्रपर मनहरदेवकी मूलनायक प्रतिमाके अतिरिक्त भगवान् चन्द्रप्रभ और भगवान् नेमिनाथकी दो विशाल मूर्तियाँ हैं। मूर्तिचोरोंने इन दोनों मूर्तियोंका शिरोच्छेदन और हस्तविच्छेदन कर दिया है। सन् १९६७ में मूर्तिचोरोंने इस क्षेत्रपर १९ मूर्तियोंके सिर काट दिये।
इन घटनाओंके कारण क्षेत्रपर असुरक्षा और आतंकका वातावरण बन गया। इसलिए भगवान् शान्तिनाथकी मूर्तिको वहाँसे हटाकर किसी सुरक्षित स्थानपर ले जानेका निर्णय किया गया। इसके लिए सोनागिरको सर्वाधिक सुरक्षित स्थान मानकर मूर्तिको हटानेकी व्यवस्था की गयी और माघ शुक्ला १३ संवत् २०२५ (३० जनवरी सन् १९६९ ) को-सोनागिरमें भट्टारक चन्द्रभूषणजीको कोठीमें अलग वेदी बनवाकर विराजमान कर दी गयी। मूर्तिको हटानेमें उसके होठों और हाथोंको कुछ क्षति अवश्य पहुंची है, किन्तु अब वह मूर्ति पूर्णतः सुरक्षित हो गयी है। . भगवान् शान्तिनाथके कारण ही यह स्थान 'श्री दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र मनहरदेव' कहलाता था। उस मूर्तिके हटनेसे अब इस स्थानका पूर्ववत् महत्त्व नहीं रह गया है। यहाँ तलहटीके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार वि. सं. २००४ में हो चुका है किन्तु अभी तक पहाड़ीके ऊपरके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार नहीं हो पाया। यहाँपर बिखरी हुई पुरातत्त्वसामग्रीको एकत्रित और सुरक्षित करनेकी आवश्यकता है। यहाँ पर ११-१२वीं शताब्दीकी भी मूर्तियां उपलब्ध होती हैं।
सोनागिरि अवस्थिति
सोनागिरि जिसे स्वर्णगिरि, श्रमणगिरि आदि भी कहते हैं, परम पावन सिद्धक्षेत्र है। यह मध्यप्रदेशके दतिया जिलेमें दतियासे रेलमार्गसे ११ कि. मी. दूर पर अवस्थित है। पहाड़की तलहटीमें सनावल नामक एक ग्राम है। यहीं सोनागिरि क्षेत्रका कार्यालय और धर्मशाला है। सेण्ट्रल रेलवेको ग्वालियर-झाँसी लाइनपर ग्वालियरसे ६१ कि. मी. आगे सोनागिरि स्टेशन है, वहाँसे क्षेत्र ५ कि. मी. है। स्टेशनसे क्षेत्र तक पक्की सड़क है। सड़कका निर्माण दिगम्बर जैन समाजकी ओरसे तोर्थक्षेत्र कमेटीने कराया है। ट्रेनसे जाते समय पर्वतपर स्थित मन्दिरोंके उत्तुंग शिखरोंके दर्शन होते हैं । इसका पोस्ट ऑफिस सोनागिरि ही है। सिद्धक्षेत्र
___ सोनागिरि स्वर्णगिरिका हिन्दी रूपान्तर है। बोलचालमें सोनागिरि नाम ही प्रसिद्ध है। यह सोनागिरि सिद्धक्षेत्र है। यहाँसे नंग, अनंग आदि साढ़े पाँच जोटि मुनि तपस्या करके मुक्त हुए हैं। प्राकृत निर्वाण काण्डमें इस सम्बन्धमें निम्नलिखित गाथा उपलब्ध होती है
धंगाणंगकुमारा कोटी पंचद्ध मुणिवरा सहिआ।
सोनागिरि वरसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥५॥ अर्थात्, सोनागिरिके शिखरसे नंग-अनंगकुमार साढ़े पांच करोड़ मुनियों सहित मोक्ष पधारे।
कई प्रतियोंमें सवणागिरि पाठ मिलता है। कुछ प्रतियोंमें 'सुवण्णगिरि मत्थ-यत्थे' पाठ है। सवणागिरिका संस्कृत रूप श्रमणगिरि होता है और सुवण्णगिरिका संस्कृत रूप सुवर्णगिरि। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। श्रमणसे सवन, सोन और सोनागिरि बन गया। इसी प्रकार सुवर्णसे सोनागिरि बन जाता है। इस सोनागिरि क्षेत्रसे साढ़े पांच करोड़ मुनि मोक्ष पधारे । अतः यह क्षेत्र अत्यन्त पवित्र है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ नंग-अनंग कुमार आदिका निर्माण
यौधेय देशमें श्रीपुर नगरके नरेश अरिंजय और उनकी रानी विशालाके दो पुत्र थे-नंग और अनंग। दोनों कुमार रूप, गुण, बल, विद्या और बुद्धिमें अनुपम थे। उन्होंने गुरुके समीप थोड़े समयमें ही विविध विद्याओं और कलाओंमें निपुणता प्राप्त कर ली। एक बार मालव देशके अरिष्टपुर नगरके नरेश धनंजयके ऊपर तिलिंग देशके नरेश अमृत विजयने आक्रमण कर दिया । धनंय महामाण्डलिक राजा था। उसके अधीन अनेक राजा थे। धनंजयको अमृतविजयकी योजनाका जैसे ही पता लगा, उसने अपने मित्र राजाओंको सेनासहित शीघ्र पधारनेके लिए विशेष दूतोंके द्वारा आमन्त्रण-पत्र भिजवा दिये। राजा अरिंजयके पास भी निमन्त्रण-पत्र आया। पत्र प्राप्त होते ही अरिंजय सेना लेकर प्रस्थानकी तैयारी करने लगे। जैसे ही नंग-अनंग दोनों कुमारोंने अपने पिताको युद्धके लिए प्रस्थान करते देखा, वे बोले-'पिताजी ! आप कहां जा रहे हैं ?' पिताने उत्तर दिया-'महाराज धनंजयने युद्ध में सहायता देनेके लिए बलाया है. वहीं जा रहा हूँ।' कमार बोले-'पिताजी ! हम लोगोंके रहते हुए युद्धके लिए आपका जाना हमारे लिए लज्जाकी बात है। आप यहीं रहकर राज्य-कार्य देखें, हम लोग युद्धके लिए जायेंगे। पिताने उन्हें बहुत समझाया, किन्तु उनके आग्रह-अनुरोधके आगे पिताको उनकी बात स्वीकार करनी पड़ी और वे दोनों कुमार सेना सहित चल दिये। जब वे अरिष्टपुर पहुंचकर महाराज.धनंजयसे मिले तो देवकुमारोंके समान रूपवान् और बलवान् उन कुमारोंको देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ और उनका यथोचित सत्कार किया।
दूसरे दिन दोनों सेनाओंका भयानक युद्ध हुआ। जब तिलिंगराजने धनंजयकी सेनाको रौंदना शुरू कर दिया, तब वे दोनों कुमार आयुध लेकर युद्ध-भूमिमें कूद पड़े। कुमार नंग तिलिंगराजसे जा भिड़ा और अनंगकुमारने उसके सामन्तोंका प्रतिरोध करना प्रारम्भ कर दिया। तिलिंगराज और उनके सामन्तोंकी उन कुमारोंके समक्ष एक न चली। दोनों ही सिंह-शावक शत्रुरूपी हिरणोंपर टूट पड़े। कुमार नंगने अपनी अमोघ बाण-वर्षासे दिनको अन्धकारमय बना दिया। उसने तिलिंगराजकी ध्वजा, छत्र, मुकुट, घोड़े, सारथी सबको मार गिराया और अपने हाथीसे फुर्तीसे प्रतिपक्षीके रथपर कूदकर शत्रुको बन्दी बना लिया। शत्रुके बन्दी बनते ही शत्रुसेना भाग खड़ी हुई। युद्ध बन्द हो गया। महाराज धनंजयने नंग और अनंग कुमारोंका बड़ा सत्कार किया तथा शत्रुके साथ भी सहृदयताका व्यवहार किया। किन्तु तिलिंगराजको अपनी पराजय और पराभवके कारण मनमें विराग उत्पन्न हो गया।
जब अरिष्टपुरमें विजयोत्सव मनाया जा रहा था, तभी अष्टम तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभका समवसरण नगरके बाहर आया। बनपालने आकर महाराज धनंजयको भगवान् चन्द्रप्रभके पधारनेका शुभ समाचार दिया। समाचार मिलते ही सभी राजा और प्रजा भक्तिभावसे समवसरणमें पहुंचे और भगवान्की प्रदक्षिणा कर उनके चरणोंकी पूजा की। फिर भगवान्का हितकारी उपदेश सुना, जिसे सुनकर धनंजय अमृतविजय, नंग, अनंग आदि १५०० राजाओंको वैराग्य हो गया। वे भगवान्के समवसरणमें ही संयम धारण करके मुनि बन गये।
उज्जयिनीनरेश श्रीदत्तकी रानी विजयाके कोई सन्तान नहीं थी। एक दिन पुत्र न होनेके कारण रानी अत्यन्त दुखी हो रही थी। तभी दो चारणऋद्धिधारी मनि वहाँ पधारे। राजदम्पतिने सन्तान होनेके बारेमें उनसे पूछा तो मुनियोंने उत्तर दिया- 'तुम यात्रासंघ निकालकर स्वर्णगिरिकी यात्रा करो, उस क्षेत्रकी पूजा करो तो तुम्हारे सन्तान होगी।' राजाने पत्र भेजकर
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अनेक मित्र राजाओं को स्वर्णगिरिके यात्रासंघ में सम्मिलित होनेका निमन्त्रण दिया । यथासमय विशाल यात्रासंघ लेकर राजा श्रीदत्त वहाँसे चला ।
जब यात्रासंघ स्वर्णगिरि पहुँचा, उस समय भगवान् चन्दप्रभका समवसरण वहाँपर ही विराजमान था। राजा श्रीदत्त तथा अन्य यात्रियोंको भगवान्का दर्शन करके अत्यन्त हषं हुआ । सबने भगवान्के दर्शन किये, पूजन- स्तुति की और उनका दिव्य उपदेश सुना । उपदेश सुनकर अनेक लोगोंने वहीं मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली ।
एक बार मुनि नंग-अनंग कुमार अनेक मुनियोंके साथ विहार करते हुए पुनः स्वर्णगिरिपर पधारे। सभी मुनि वहीं पर उग्र तप करने लगे । तप करते हुए वहाँपर मुनि नंगसेन, मुनि अनंगसेन आदि अनेक मुनियोंको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और कुछ समय पश्चात् इसी पवित्र पर्वतसे अनेक मुनियोंको निर्वाण प्राप्त हुआ ।
इन मुनियोंके निर्वाणका समाचार सुनकर श्रीदत्तके पुत्र सुवर्णभद्रने भी अपने पिताकी तरह एक विशाल यात्रासंघ स्वर्णगिरि की यात्राके लिए निकाला । इस यात्रासंघ में मुनि, अर्जिका, श्रावक और श्राविका थे, अनेक देशोंके राजा थे और हजारों धार्मिक स्त्री-पुरुष सम्मिलित थे । यह यात्रासंघ सानन्द यात्रा करके वापस आया । कुछ समय पश्चात् सुवर्णभद्रको भी संसारसे वैराग्य हो गया और उसने मुनिव्रत अंगीकार कर लिया। उन्होंने स्वर्णगिरिपर तपस्या करके पाँच हजार मुनियोंके साथ मुक्ति प्राप्त की ।
इस प्रकार नंग, अनंग, चिन्तागति, पूर्णचन्द्र, अशोकसेन, श्रीदत्त, सुवर्णसेन आदि अनेक मुनियोंकी निर्वाण-भूमि होनेके कारण यह क्षेत्र निर्वाण-क्षेत्र माना जाता है ।
क्षेत्र-दर्शन
सोनागिरि क्षेत्र के लिए ग्वालियरसे सीधी बस सेवा चालू है । यह बस क्षेत्रके फाटक के बाहर उतारती है । जो लोग ग्वालियर-सोनागिरि बस सेवासे न जा सकें, वे ग्वालियर - दतिया आदि बसों द्वारा सोनागिरिके मोड़पर उतर जायें । वहाँसे क्षेत्र केवल ४ कि. मी. है। इसी प्रकार जो ट्रेनसे सोनागिरि स्टेशनपर उतरते हैं, उन्हें क्षेत्र ५ कि. मी. दूर पड़ता है । दोनों ही स्थानों पर, स्टेशन तथा मोड़पर ताँगे मिलते हैं। उनके द्वारा भी क्षेत्र तक जा सकते हैं ।
क्षेत्रके सदर फाटकमें घुसते ही तलहटीके मन्दिरों और धर्मशालाओंका क्रम प्रारम्भ हो जाता है । तलहटी में कुल १७ मन्दिर और ५ छतरी हैं । यहाँ कुल १५ धर्मशालाएँ हैं । यह क्षेत्र दिगम्बर जैन समाज के आधिपत्य में है । इस क्षेत्रपर किसी अन्य सम्प्रदाय या धर्मवालोंका किसी प्रकारका विवाद नहीं है, अर्थात् यह शुद्ध दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र है । किन्तु यहाँके तलहटीके सभी मन्दिरों और धर्मशालाओंकी व्यवस्था एक प्रबन्धक समितिके अन्तर्गत नहीं है, सबकी व्यवस्था भिन्न-भिन्न है, जबकि पहाड़के ऊपर जो ७७ मन्दिर, १३ छतरियाँ और ५ क्षेत्रपालके स्थान हैं, उन सबकी व्यवस्था 'श्री दिगम्बर जैन सोनागिरि सिद्धक्षेत्र संरक्षिणी कमेटी' के अधीन है। धर्मशालाओं की व्यवस्था पृथक् होनेपर भी कोई भी यात्री इच्छानुसार किसी भी धर्मशाला में ठहर सकता है । क्षेत्र कमेटीका कार्यालय दिल्लीवाले मन्दिरमें है ।
तलहटीके मन्दिरोंका निर्माण जिस समाज अथवा महानुभावोंने कराया है, उनके नाम इस प्रकार हैं :
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिर नं. १-२-६ तेरहपंथी आम्नाय, सर्राफा बाजार, लश्कर
खरौआ जैन समाज, मौ. ( भिण्ड ) गोलसिंघारे जैन समाज, खैरोली ( भिण्ड ) पद्मावती पुरवार जैन समाज, एटा
जैसवाल जैन समाज, मुरार ८-९-११-१७ स्व. भट्टारक चन्द्रभूषण जी, सोनागिरि
सेठ गुलाबचन्द गणेशीलाल दोशी, मुरार श्री मुन्नालाल करहिया वाले ( मन्दिर खाली है) श्री गुन्दीलाल वैशाखिया झाँसीवाले श्री सोनागिरि दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी (बीसपन्थी आम्नाय, चम्पाबाग, ग्वालियर )
जैसवाल जैन समाज, राजाखेड़ा . ये सभी मन्दिर शिखर-बद्ध हैं। इनमें से मन्दिर नं. १५ ग्वालियरके भट्टारकका बनवाया हुआ है। इसका निर्माण विक्रम संवत् ८०० का बताया जाता है। यह बहुत विशाल है। इस मन्दिरमें मूलनायक भगवान् अरहनाथकी प्रतिमा है। इस मन्दिरको चहारदीवारीके अन्दर एक प्राचीन बावड़ी है। कहा जाता है कि पहले इस वापिकाका जल बड़ा स्वास्थ्यवर्द्धक था। अब भी इसका जल बड़ा स्वादिष्ट है और क्षेत्रपर जलकी 'अधिकांश आवश्यकताको पूर्ति इसी वापिका द्वारा होती है। इसी मन्दिरमें भट्टारकजीकी गद्दी थी। इस मन्दिरके बगल में से होकर पहाड़के ऊपर जानेका पक्का मार्ग है।
पहाड़पर कुल ७७ जैन मन्दिर हैं। प्रत्येक मन्दिरके ऊपर मन्दिरकी क्रम संख्या पड़ी हुई है तथा प्रत्येक मन्दिरमें वहाँके मूलनायक भगवान्को अध्यं चढ़ानेका पाठ भित्तिपर लिखा हुआ है। प्रत्येक मन्दिर तक पहुंचनेके लिए पक्का मार्ग बना हुआ है। प्रत्येक मन्दिरमें विद्युत्को व्यवस्था है। पहाड़ी अधिक ऊँची नहीं है। पहाड़ोके चारों ओर परिक्रमा-पथ बना हुआ है। उसके चारों कोनोंपर चार छत्रियाँ हैं, जिनमें चरण-चिह्न बने हुए हैं, यह परिक्रमा-पथ ही क्षेत्रकी सीमा-रेखा है । यह सीमा-रेखा पहाड़पर जैनोंके स्वामित्व और अधिकारकी रेखा है। पहाड़के किसी ऊँचे स्थलपर खड़े होकर देखें तो पहाड़पर शिखरबद्ध मन्दिरोंकी श्रृंखला, शिखरोंपर सूर्यके प्रकाशमें चमकते हुए कलश और उनके ऊपर लहराती हुई ध्वजाएँ बड़ी मनोरम और मनोमुग्धकारी प्रतीत होती हैं। मन्दिरोंको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कोई पर्वताकार पुरुष गलेमें मन्दिरोंकी श्वेत मुक्तमाल पहनकर खड़ा हो। मेलेके दिनोंमें तो यहाँकी छटा और भी मनोहर लगने लगती है, जब रात्रिमें विद्युत् प्रकाशसे सारा पर्वत जगमगा उठता है। भक्ति-विह्वल स्त्री, पुरुष और बच्चे भक्तिगान और जयघोष करते हुए परिक्रमा-पथ पर चलते हैं तो यहाँका दृश्य एक अद्भत स्वप्नलोक-सा प्रतीत होता है और यहाँके वातावरणमें एक अलौकिक उल्लास, भक्ति और अध्यात्मका अद्भुत सौरभ भर जाता है। यह सिद्धक्षेत्र है, भक्तोंके मनका यह विश्वास ही यहां आनेपर उन्हें एक दिव्य पुलकसे भर देता है।
यहाँका मन्दिर नं. ५७ मुख्य मन्दिर है। यह चन्द्रप्रभ मन्दिर है और इसमें मूलनायक भगवान् चन्द्रप्रभ हैं। यह मूर्ति विशाल, भव्य और अतिशयसम्पन्न है। इस पर्वतपर चन्द्रप्रभ भगवान्की इस विशालकाय मूर्तिको मूलनायकके रूपमें विराजमान करना सोद्देश्य है। नंग-अनंगकुमारके चरितमें ऊपर बताया जा चुका है कि भगवान् चन्द्रप्रभका समवसरण इस पर्वतपर आया
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था । नंग-अनंगकुमार आदिने भगवान् चन्द्रप्रभका उपदेश सुनकर उन्होंके चरणों में यहीं पर संयम धारण किया था । इस प्रकार भगवान् चन्द्रप्रभके पावन जीवनके साथ इस पर्वतका विशिष्ट सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । इसलिए इस पर्वतपर चन्द्रप्रभ भगवान्को मूलनायकके रूपमें महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । इस मन्दिरके निकट एक छत्रीमें मुनि नंगकुमार, मुनि अनंगकुमारके चरणचिह्न विराजमान हैं । एक प्रकारसे ये चरण-चिह्न उन साढ़े पाँच कोटि मुनियोंके प्रतीक हैं जो यहाँसे निर्वाणको प्राप्त हो चुके हैं ।
पर्वतपर स्थित मन्दिरोंका परिचय इस प्रकार है
१. नेमिनाथ मन्दिर - केवल गर्भगृह बना हुआ है। उसमें भगवान् नेमिनाथकी पाँच फुट ऊँची कायोत्सर्गासन प्रतिमा विराजमान है । यह श्यामवर्ण है और विक्रम संवत् १२१९ में इसकी प्रतिष्ठा हुई थी । प्रतिष्ठाकारक थे झिरिवाले चौधरी हरीसिंह ।
इस मन्दिरके बगल में फाटक है । उसमें प्रवेश करके और सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरा मन्दिर मिलता है ।
२. नेमिनाथ मन्दिर – भगवान् नेमिनाथकी श्यामवर्णं पद्मासन सवा दो फुट अवगाहनावाली मूर्ति विराजमान है जो संवत् १८८८ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके आचायं विजयकीर्तिजीके द्वारा प्रतिष्ठित की गयी । प्रतिष्ठाकारक झाँसीवाले सि. बुलाकीदास हेमराज थे । मन्दिर में केवल गर्भगृह है ।
३. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथकी पद्ममासन श्वेतवर्णं डेढ़ फुट अवगाहनावाली प्रतिमा संवत् १९६१ में प्रतिष्ठित है । मन्दिरमें केवल गर्भगृह है । इसके बराबर एक छत्री में किसी मुनिराज के चरण विराजमान हैं ।
४. आदिनाथ मन्दिर - मन्दिरमें केवल गर्भगृह है । इसमें भगवान् आदिनाथ की श्वेतवर्णं पद्मासन सोलह इंच अवगाहनावाली प्रतिमा है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १८५५ में हुई थी ।
इसके आगे एक छत्रीमें एक शिलाफलकपर २४ तीर्थंकरोंके संवत् १८८८ में प्रतिष्ठित चरण-चिह्न विराजमान हैं ।
५. पार्श्वनाथ मन्दिर - भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेतवर्णं पद्मासन १४ इंच ऊँची प्रतिमा है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १५४८ में सेठ जीवराज पापड़ीवालने करायी थी ।
६. चन्द्रप्रभ मन्दिर - केवल गर्भगृह है । भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्णं पद्मासन एक फुट अवगाहना की मूर्ति है जो संवत् १९३० में प्रतिष्ठित की गयी ।
७. नेमिनाथ मन्दिर - भगवान् नेमिनाथकी श्यामवर्णं खड्गासन पौने तीन फुट : ऊँची मूर्ति है । प्रतिष्ठा-संवत् १८८९ है । मन्दिरमें केवल गर्भगृह है ।
८. पद्मप्रभ मन्दिर - भगवान् पद्मप्रभकी श्वेतवर्णं पद्मासन १२ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है । प्रतिष्ठाकारक हैं श्री छीतरमल पन्नालाल अलवरवाले । मन्दिर में अर्धमण्डप और गर्भगृह हैं। ९. पार्श्वनाथ मन्दिर - भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेतवर्णं पद्मासन दो फुट ऊँची प्रतिमा है । प्रतिष्ठा संवत् १९४२ है । मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह हैं । प्रतिष्ठाकारकका नाम है श्री चतुर्भुज गोरमीवाले ।
१०. पार्श्वनाथ मन्दिर - इस मन्दिरमें तीन वेदियाँ हैं। मध्यकी वेदीपर मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी श्यामवर्णं पद्मासन पौने तीन फुट ऊँची मूर्ति है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९२१ में भट्टारक चारु चन्द्रभूषणजी द्वारा सकल जैसवाल वरैया जैन समाज शमशाबाद
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(आगरा ) की ओरसे हुई । बायीं ओरकी वेदीमें भगवान् अभिनन्दननाथकी खड्गासन श्वेतवर्णं २१ इंच अवगाहनावाली और वीर संवत् २४८५ में प्रतिष्ठित मूर्ति है। दायीं ओरकी वेदीपर पद्मासन बिस्कुटी वर्णकी २ फुट ऊँची प्रतिमा है, जो वीर संवत् २४९० में प्रतिष्ठित हुई । मन्दिर में अर्धमण्डप, आँगन और गर्भगृह हैं ।
११. ऋषभदेव मन्दिर - भगवान् ऋषभदेवकी खड्गासन कृष्णवर्णं साढ़े तीन फुट अवगाहना वाली मूर्ति है । प्रतिष्ठा संवत् १८२७ है । मन्दिर में अर्धमण्डप और गर्भगृह हैं । . प्रतिष्ठाकारक हैं अग्रवाल पंचान कोलारस ।
१२. नेमिनाथ मन्दिर - भगवान् नेमिनाथकी श्यामवर्णं, खड्गासन, पौने पाँच फुट अवगाहनावाली मूर्ति है । प्रतिष्ठा संवत् नहीं है । मन्दिरमें गर्भगृह है तथा उसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ बना हुआ है । प्रतिष्ठा सुमावलीकी जैन पंचानने करायी ।
१३. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथको दो पद्मासन श्वेतवर्णं मूर्तियां वेदीमें विराजमान हैं। दोनों ही एक-एक फुट ऊँची हैं । बायीं ओर की मूर्तिकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४७० ओकी मूर्ति की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १९९० में हुई थी । मन्दिर में गर्भगृह और
अर्धमण्डप हैं ।
१४. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथकी कत्थई वर्णकी खड्गासन २१ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है। वीर सं. २४६९ में प्रतिष्ठित है । मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हुए हैं ।
१४ अ - आदिनाथ मन्दिर - मूर्ति के पीठासनपर ध्यानपूर्वक देखनेसे वृषभका लांछन दिखाई पड़ता है । कुछ लोग भ्रमवश उसे सिंह मानकर प्रतिमाको महावीरकी मानते हैं । यह पद्मासन श्वेतवर्ण २१ इंच ऊँची और वीर सं. २४९७ में प्रतिष्ठित हुई है । इस मन्दिरमें केवल
है।
इसके बगल में एक चबूतरेपर किन्हीं मुनिराजके चरण बने हुए हैं ।
१५. मुनिसुव्रतनाथ मन्दिर - भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी श्यामवर्ण, खड्गासन, साढ़े तीन फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान है । प्रतिष्ठा वि. सं. १५४४ में हुई है । इस मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हुए हैं ।
१६. महावीर मन्दिर - भगवान् महावीरकी बिस्कुटी वर्णकी पद्मासन प्रतिमा २७ इंच अवगाहना वाली विराजमान है । ऊपर देवियां पुष्पमाल लिये हुए उड़ती हुई दीख पड़ती हैं । उनसे नीचे दोनों ओर दो-दो पद्मासन तीर्थंकर - मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इनमें एक प्रतिमा नहीं रही । सम्भवतः यह शिलाफलक पंचबालयतियोंका है । यद्यपि लांछन बड़ा अस्पष्ट है, पर उसका आकार शूकर- जैसा लगता है। लेकिन ध्यानसे देखनेपर यह आकार शूकर अथवा वृषभकी अपेक्षा सिंहसे अधिक मिलता-जुलता है। अतः इस मूर्तिको महावीरकी मूर्ति मानना अधिक तर्कसंगत लगा । पंचबालयतिको दृष्टिसे भी इसे महावीरकी मूर्ति मानना ही उचित लगता है । मूर्तिके अधोभागमें चमरेन्द्र चमर लिये हुए भगवान् की सेवा करते दीख पड़ते हैं ।
मन्दिर केवल अर्धमण्डप और गर्भगृह हैं ।
१७. पार्श्वनाथ मन्दिर - भगवान् पार्श्वनाथको पद्मासन श्वेतवर्ण १५ इंच ऊँची और संवत् १७४५ में प्रतिष्ठित मूर्ति विराजमान है । मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हुए हैं।
१८. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथकी यह मूर्ति पद्मासन श्वेतवर्ण १५ इंच ऊँची और संवत् १९२३ की प्रतिष्ठित है । मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हुए हैं ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ १९. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथ कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानमग्न हैं, श्यामवर्ण हैं, अवगाहना सवा दो फुट है । बायों ओर गजारूढ़ यक्ष तथा दायीं ओर नृत्यमुद्रामें यक्षो खड़ी हुई है। लेख नहीं है । मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हैं।
२०. चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभ पद्मासन श्वेतवर्ण १६ इंच अवगाहनावाले वीर सं. २४७० में प्रतिष्ठित यहाँ विराजमान हैं। मन्दिरके तीन ओर बरामदे बने हुए हैं। भीतर आँगन और गर्भगृह हैं।
२१. पार्श्वनाथ मन्दिर-भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा श्वेतवर्ण पद्मासन १५ इंच ऊंची विराजमान है। इस मन्दिरको प्रतिष्ठा सकल पंच घोंटाने संवत् १९२१ में करायी थी। मन्दिरमें गर्भगृह और अर्धमण्डप निर्मित हैं।
२२. अरहनाथ मन्दिर-भगवान् अरहनाथकी यह खड्गासन प्रतिमा बादामी वर्णकी पौने पांच फुट अवगाहनावाली है। इनके केशवलय अद्भुत शैलीके बने हुए हैं, लगता है जैसे सिरपर सात वलयको पगड़ी लगी हुई हो। प्रतिमाके सिरके दोनों ओर गजलक्ष्मी हैं, सिरके ऊपर छत्रत्रय सुशोभित है। ऊपर कोनोंपर पुष्पमाल लिये हुए आकाशचारी देव हैं। प्रतिमाके चरणोंके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं । मन्दिरमें गर्भगृह और अर्धमण्डल बने हुए हैं। - २३. सुपार्श्वनाथ मन्दिर-भगवान् सुपार्श्वनाथकी पद्मासन श्वेतवर्ण यह प्रतिमा १६ इंच अवगाहनाकी है। सिरपर नौ सपं-फणावली है तथा पीठासनपर स्वस्तिक लांछन बना हआ है। इसी लांछनके आधारपर इसे सुपार्श्वनाथकी प्रतिमा माना जाता है। स्वस्तिकका आकार बड़ा अद्भुत बना हुआ है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८८४ में भट्टारक सुरेन्द्रभूषणजीने करायी थी। प्रतिष्ठाकारक थे श्री आछेलाल बल्देव भिण्डवाले।'
इस मन्दिरके एक बरामदेमें पार्श्वनाथकी प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमाके सिरपर सप्त फणावली है। प्रतिमा श्वेतवर्ण पद्मासन १५ इंच अवगाहनावाली है और संवत् १९१० में इसकी प्रतिष्ठा हुई है।
इस मन्दिरमें बरामदे, आंगन और खुला गर्भगृह हैं।
२४. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी प्रतिमा श्यामवर्ण, खड्गासन और ४ फुट २ इंच आकारकी है। मूर्तिके सिरके ऊपर तीन छत्र तथा सिरके पीछे भामण्डल सुशोभित हैं। चमरेन्द्र के स्थानपर दोनों ओर दो करबद्ध भक्त खड़े हुए हैं। उनके मुकुट टोपीनुमा हैं, अतः बड़े अद्भुत प्रतीत होते हैं । इसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् १९८६ में श्री सौभाग्यसिंह झिरिवालोंने करायी थी। मन्दिरमें गर्भगृह तथा प्रदक्षिणा-पथ बना हुआ है।
२५. मल्लिनाथ मन्दिर-भगवान् मल्लिनाथकी प्रतिमा कृष्णवर्ण, पद्मासन डेढ़ फुट अवगाहनावाली है। इसकी प्रतिष्ठा सेठ फूलझारीलाल करहलवालोंमे संवत् १९२५ में करायी थी। इस मन्दिरमें गर्भगृह चार स्तम्भोंपर आधारित है तथा प्रदक्षिणा-पथ डबल बने हुए हैं।
२६. नमिनाथ मन्दिर-यहाँ नमिनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसका आकार एक फुटका है। इसके पादपीठपर नील कमलका चिह्न अंकित है। अतः इसे नमिनाथकी मूर्ति माना जाता है। इसकी प्रतिष्ठा खिरकोवाले श्री दीनदयाल घमण्डीलालने करायी थी। इस मन्दिरमें गर्भालय और अधमण्डप बने हुए हैं।
२७. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथको यह प्रतिमा कृष्ण पाषाणकी, पद्मासन और २१ इंच अवगाहनवाली है । मन्दिरमें केवल गर्भगृह और अर्घमण्डप बने हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २८. चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभकी इस मूर्तिकी अवगाहना सवा पांच फुटकी है। इसका वर्ण चितकबरा ( जिसमें हरे और पीले रंगकी बूंदें हैं ) है तथा यह कायोत्सर्गासनमें विराजमान है । प्रतिमाके सिरपर छत्रत्रय बने हुए हैं। सिरके दोनों ओर आकाशविहारी गन्धर्व पुष्पवर्षा कर रहे हैं। सौधर्म और ऐशान इन्द्र हाथोंमें चमर लिये हुए भक्तिमुद्रामें खड़े हुए हैं। मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं। गर्भगृह चार स्तम्भोंपर आधारित एवं मण्डपनुमा इसकी प्रतिष्ठा गोरमीकी जैन पंचायतने करायी थी।
२९. पाश्र्वनाथ मन्दिर-भगवान् पार्श्वनाथकी यह प्रतिमा चितकबरे पाषाणकी है। कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थित है। इसका आकार छह फुट तीन इंच है। इसके सिरके दोनों ओर गजलक्ष्मी तथा पुष्पमाल लिये नभचारी गन्धर्व बने हुए हैं। मन्दिरमें अर्धमण्डप, गर्भगृह और आँगन हैं । इसके प्रतिष्ठाकारक हैं झिरिवाले श्री पातेराम पटवारी। इस मन्दिरके बगल में एक पक्का कुण्ड है, तथा एक चबूतरा बना हुआ है जो मुनियोके ध्यान, तपके लिए उपयोगमें आता था।
३०. चन्द्रप्रभ मन्दिर-कायोत्सर्गासन, वणं चितकबरा, अवगाहना ६ फुट । सिरपर छत्रत्रय । छत्रोंमें दोनों ओर आधारदण्ड लगा हआ है। सिरके ऊपर दोनों ओर गजलक्ष्मी उत्कीर्ण है। गजलक्ष्मीके निकट हाथ जोड़े हुए भक्त खड़े हैं । अधोभागमें दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं । इस मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं। इस मन्दिरके भी प्रतिष्ठाकारक झिरिवाले श्री पातेराम पटवारी हैं।
३१. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी श्यामवर्ण, कायोत्सर्गासन तथा ४ फुट अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है। सिरके ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है। उनके दोनों ओर गजलक्ष्मी है । मूर्तिके एक ओर कमलासीन चतुर्भुज यक्ष है तथा दूसरी ओर सिंहारूढ़ा यक्षी बनी हुई है। सम्भवतः ये गोमेद यक्ष और अम्बिका यक्षी हैं। देवीके नीचे एक वृक्ष दीख पड़ता है। सम्भवतः यह आम्रवृक्ष है जो देवीसे सम्बन्धित है। इसे बोधिवृक्ष मानना शायद संगते न होगा क्योंकि बोधिवृक्ष देवीके नीचे नहीं बनाया जाता, वह प्रायः चरण-चौकीपर अंकित किया जाता है । मन्दिरमें अधमण्डप और गर्भगृह हैं। इसकी प्रतिष्ठा झाँसीवाले श्री बुलाकीदासने करायी थी।
३२. अजितनाथ मन्दिर-सवा दो फुटके एक शिलाफलकपर भगवान् अजितनाथकी श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। सिरके ऊपर छत्रत्रयी है । उसके दोनों ओर अष्ट मंगलद्रव्य बने हैं। नीचे भगवान्के दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं। इसको प्रतिष्ठा श्री नानूराम कन्हैयालाल जयपुरवालोंने विक्रम संवत् १९९२ में करायी थी। मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हुए हैं।
३३. सुमतिनाथ मन्दिर-यह मन्दिर नं.३२ के समान है। केवल तीर्थंकरका अन्तर है। शेष सब समान है।
इसके आगे ज्ञानगुदड़ी शिला है । उससे थोड़ा ऊपर चढ़कर एक छतरी बनी हुई है, जिसमें संवत् १९०२ के तीन चरण बने हुए हैं।
३४. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् आदिनाथकी कृष्णवर्ण, खड्गासन, छह फुट अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है। सिरके ऊपर छत्र हैं, बगलमें चमर लिये गन्धवं खड़े हैं। नीचे एक
१. इस क्षेत्रपर इस प्रकारके चितकबरे पाषाणकी प्रतिमाओंकी संख्या काफी है। सम्भवतः यह पाषाण इस
पर्वतपर उपलब्ध नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि इन मूर्तियोंका शिल्पी एक ही व्यक्ति था, जो मूर्तिनिर्माण-कलामें अकुशल था। इस पाषाणकी प्रायः सभी मूर्तियाँ बेडौल और विषमानुपातवाली हैं। आगे इस पाषाणका वर्ण चितकबरा ही लिखा जायेगा।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ओर चतुर्भुज यक्ष ( गोमुख ) और दूसरी ओर यक्षी (चक्रेश्वरी ) बनी हुई है। प्रतिष्ठाकारक झाँसीवाले श्री बुलाकीदास हैं। - एक अन्य वेदीमें नन्दीश्वर द्वीपकी रचना है। आकार १ फुट ८ इंच है। इसमें चारों ओर खड्गासन ५२ प्रतिमाएं बनी हुई हैं। यह रचना संवत् १२३६ की है।
इस मन्दिरके पीछे एक छतरीमें क्षेत्रपालकी खड़ी हुई मूर्ति विराजमान है, इससे कुछ आगे पेड़ोंके झुण्डमें एक चबूतरा बना हुआ है।
३५. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् आदिनाथकी खड्गासन, चितकबरा वर्ण, साढ़े तीन फुटको अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है । संवत् १६४० में प्रतिष्ठित है।
३६. अजितनाथ मन्दिर-भगवान् अजितनाथकी यह प्रतिमा पद्मासन, मटमैला वणं, १५ इंच आकारकी है। जैन पंचान रानीपुरने इसकी प्रतिष्ठा करायी। मन्दिरमें केवल गर्भगृह है।
३७. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी पद्मासन, श्वेतवणं, ११ इंच आकारकी यह प्रतिमा भट्टारक सुरेन्द्र भूषणजी द्वारा संवत् १८८४ में ब्रह्मचारी दौलतसागरजीकी ओरसे प्रतिष्ठित की गयी। मन्दिरमें केवल गर्भगृह है।
३८. आदिनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें तीन दरकी एक वेदीमें मूलनायक भगवान् आदिनाथकी प्रतिमा पद्मासन कृष्णवर्णकी विराजमान है। इसके दोनों ओर महावीर स्वामीकी खड्गासन २८ इंच अवगाहनावाली प्रतिमाएं विराजमान हैं । इसकी प्रतिष्ठा भट्टारक सतेन्द्रभूषणने संवत् ९९५० में जैन पंचान आगराको ओरसे की। मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह हैं।
३९. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी यह मूर्ति खड्गासन, कृष्णवर्ण है और इसकी अवगाहना सवा छह फुट है। मूर्तिके सिरपर छत्रत्रयी सुशोभित है। मध्यमें चमरेन्द्र खड़े हैं । अधोभागमें भगवान् नेमिनाथके यक्ष-यक्षी बने हुए हैं। दायीं ओर पुरुषारूढ़ गोमेध यक्ष हाथ ...जोड़े हुए हैं तथा बायीं ओर सिंहारूढ़ा अम्बिका है। मन्दिरमें चार स्तम्भोंपर आधारित मण्डपनुमा गर्भगृह बना हुआ है । उसके चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ है।
इसकी प्रतिष्ठा श्री नाथूराम मैनपुरीवालोंने संवत् १९४० में करायी।
४०. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी यह प्रतिमा पद्मासन और कृष्णवर्णवाली है। इसकी अवगाहना २ फुट है। इसकी प्रतिष्ठा श्री नाथूराम मैनपुरीवालोंने करायी थी। मन्दिरमें अर्धमण्डप और गर्भगृह हैं ।
४१. चन्द्रप्रभ मन्दिर–चन्द्रप्रभकी प्रतिमा पद्मासन, श्वेतवर्ण, २२ इंच अवगाहनाकी है। इसकी प्रतिष्ठा डबरावाले श्री मोहनलाल मोदीने संवत् १९५५ में करायी। मन्दिरमें अर्धमण्डप और प्रदक्षिणा-पथ हैं।
४२. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् आदिनाथकी मूर्ति खड्गासन, चितकबरे वर्ण और आठ फुट अवगाहनावाली है । इसके सिरके ऊपर छत्र, दोनों ओर छत्रके दण्डधर गज और हाथ जोड़े हुए भक्त तथा चरणोंके दोनों ओर चमरवाहक बने हुए हैं। इसका गर्भगृह चार स्तम्भोंपर आधारित है और उसके चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ निर्मित हैं। प्रतिष्ठाकारक हैं सकल जैन पंचान वामौरा।
४३. नेमिनाथ मन्दिर-यह प्रतिमा खड्गासन है, वर्ण काला-भूरा है तथा अवगाहना ६ फुट है । सिरके ऊपर छत्र हैं। मूर्तिके दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं। नीचे यक्ष-यक्षी बने हुए हैं। इसकी प्रतिष्ठा झांसोवाले श्री बुलाकीदासने करायी थी। यह मन्दिर है, टोंकनुमा नहीं है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
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४४. चन्द्रप्रभ मन्दिर - यह मूर्ति खड्गासन, काला-भूरा वर्णं और ५ फुट ३ इंच अवगहनावाली है । इस मूर्तिके सिरपर छत्र हैं । दोनों और चमरवाहक हैं। नीचे एक ओर यक्ष हाथ जोड़े हुए खड़ा है। दूसरी ओर वृषभपर चतुर्भुजी यक्षी आरूढ़ है । इस मन्दिरका गर्भगृह चार स्तम्भों पर आधारित है । उसके चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ बना हुआ है । इसकी प्रतिष्ठा सकल पंचान कलेसराने संवत् १८७० में करायी थी । इसके आगे एक मन्दिरमें क्षेत्रपाल स्थापित हैं । दायीं ओर भी मढ़ियामें एक क्षेत्रपाल विराजमान हैं ।
४५. पार्श्वनाथ मन्दिर - इस मन्दिरमें पाँच वेदियाँ हैं । बायीं ओरसे (१) शान्तिनाथ - खड्गासन, कृष्णवर्णं, अवगाहना ढाई फुट । दोनों ओर चमरवाहक हैं। मूर्ति संवत् १९८२ में प्रतिष्ठित हुई तथा इसके दायें हाथका ऊपरी भाग खण्डित है । (२) पार्श्वनाथ - पद्मासन, हल्का कत्थई वर्णं, संवत् ११६३ की प्रतिष्ठित । (३) पार्श्वनाथ – खड्गासन, कृष्णवर्ण, अवगाहना-४ फुट । बायीं ओर चमरेन्द्र खड़ा है तथा दायीं ओर कमलासना चतुर्भुजी पद्मावती देवी । उसके हाथों में अत्र हैं । (४) नेमिनाथ- पद्मासनं, कृष्णवर्णं, सवा दो फुट आकार । संवत् १३४० में प्रतिष्ठित । (५) महावीर – खड्गासन, हल्का कत्थई वर्णं, ३ फुट अवगाहना । हाथोंसे नीचे यक्ष-यक्षी खड़े हैं । मन्दिरकी प्रतिष्ठा झाँसीवाले सिंघई अछरमलने करायी ।
४६. नेमिनाथ मन्दिर - यह प्रतिमा पद्मासन, चितकबरा वर्णं और तीन फुट अवगाहनाकी है । ये वाटीवाले महाराज कहलाते हैं । प्रतिष्ठाकारक हैं सिंघई अछरमल झाँसीवाले ।
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४७. आदिनाथ मन्दिर - यह प्रतिमा कायोत्सर्गासन, चितकबरे वर्णवाली और सवा छह फुट अवगाहना की है। गर्भगृह स्तम्भोंपर आधारित है । उसके चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ बना हुआ है। इसकी प्रतिष्ठा सकल जैन पंचान, झाँसीने करायी थी ।
४८. चन्द्रप्रभ मन्दिर - यह मूर्ति खड्गासन, चितकबरे वर्णकी और साढ़े पाँच फुट अवगाहना वाली है । इस मन्दिरका गर्भगृह मण्डपनुमा है । उसके चारों ओर प्रदक्षिणा - पथ बना हुआ है | झाँसीकी जैन पंचायतने इसकी प्रतिष्ठा करायी थी ।
४९. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथकी खड्गासन, चितकबरे वर्ण और ६ फुट अवगाहनावाली मूर्ति विराजमान है । स्तम्भोंपर गर्भगृह आधारित है। उसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ निर्मित हैं । मन्दिरकी प्रतिष्ठा जैन पंचान, कटकने करायी ।
५०. विमलनाथ मन्दिर - यह मूर्ति खड्गासन है, मूँगिया वर्ण है, अवगाहना ६ फुट है । मन्दिर संवत् १८३६ में प्रतिष्ठित हुआ । इसमें गर्भगृह और अर्धमण्डप बना हुआ है ।
इसके बगलमें पत्थरकी पटियोंका बना हुआ एक लम्बा मण्डप है । कहते हैं, इसमें पहले जैन मूर्तियाँ विराजमान थीं। इसकी जीर्णं दशा देखकर मूर्तियाँ मन्दिर नं. ५० में पहुँचा दी गयीं । ५१. शान्तिनाथ मन्दिर - यह प्रतिमा खड्गासन, मूँगिया वर्णं ओर ६ फुट अवगाहना की है । मन्दिर में गर्भगृह और प्रदक्षिणा - पथ हैं ।
५२. महावीर मन्दिर - एक शिलाफलकपर भगवान् महावीरकी प्रतिमा पद्मासन, हलके कत्थई वर्णं और ढाई फुट अवगाहनावाली है । सिरके ऊपर छत्र, सिरके पीछे भामण्डल, ऊपर कोनों पर पुष्पमाल लिये हुए आकाशचारी गन्धवं दिखाई पड़ते हैं । दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं ।
हाथ जोड़े हुए दो भक्त दीख पड़ते हैं । इस मन्दिरमें गर्भगृह, महामण्डप और अर्धमण्डप बने हुए हैं। यह मन्दिर प्राचीन है । बाहर दालान में दो प्राचीन चरण बने हुए हैं ।
५३. नेमिनाथ मन्दिर - यह प्रतिमा कायोत्सर्गासन, मूँगिया वर्णं और पौने तीन फुट अवगाहनावाली है । यह प्रतिमा एक शिलाफलक में बनी हुई है। सिरपर छत्रत्रयी है। उसके दोनों
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ओर सैंडमें माला लिये हुए गजराज खड़े हैं। भगवान्के एक ओर सौधर्मेन्द्र और दूसरी ओर उसकी शची चमर लिये हुए खड़ी है। इस शिलाफलकपर दोनों ओर दो-दो पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। प्रतिमाओंके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं। चरण-चौकीपर मध्यमें शंख लांछन अंकित हैं। उसके दोनों ओर भक्त उसे हाथ जोड़ रहे हैं। वस्तुतः यह शिलाफलक पंचबालयति तीर्थंकरोंका है।
___ इस मन्दिरमें गर्भगृह, अर्धमण्डप और आंगन बने हैं। इसके प्रतिष्ठाकास्क हैं श्री छोटेलाल जौहरी, ग्वालियरवाले।
५४. नेमिनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें दो वेदियां हैं। एक वेदीपर भगवान् नेमिनाथकी संवत् १११२ की. पद्मासन, श्यामवर्ण तथा १८ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है। दूसरी वेदीपर भी नेमिनाथकी मूर्ति है जो वीर संवत् २४८१ की प्रतिष्ठित है तथा जो पद्मासन, श्वेतवर्ण और ११ इंचकी है । मन्दिरमें गर्भगृह, अर्धमण्डप और आंगन हैं।
५५. सर्वतोभद्रिका-मन्दिर नं. ५४ के बाहर एक छतरीके नीचे एक पाषाण-स्तम्भमें सर्वतोभद्रिका प्रतिमा बनी हुई है। इसमें क्रमशः चन्द्रप्रभ, धर्मनाथ, पद्मप्रभ और महावीरको प्रतिमाएँ हैं । अवगाहना ३ फुट है । अधोभागमें तीन तीर्थंकर प्रतिमाएं बनी हुई हैं। यह प्रतिमा लगभग ११वीं शताब्दीको है।
५६. आदिनाथ मन्दिर-यह मूर्ति खड्गासन, मुंगिया वणं और साढ़े तीन फुट अवगाहनावाली है। मन्दिरमें केवल गर्भगृह हैं। मन्दिरके बाहर एक आलेमें चरण बने हुए हैं। मन्दिरको प्रतिष्ठा जैन पंचायत, करहराने करायी थी।
इस मन्दिरके बाहर चौकमें एक पक्की सुन्दर छत्रीमें दो चरण-चिह्न मुनिराज नंगकुमार और मुनिराज अनंगकुमारके बने हुए हैं। इन चरण-चिह्नोंको हम यहाँसे मुक्त हुए साढ़े पाँच कोटि मुनियोंका स्मारक-प्रतीक मान सकते हैं।
५७. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह यहाँका सर्वप्रमुख मन्दिर है। इस मन्दिरमें मूलनायकके अतिरिक्त सात वेदियाँ बनी हुई हैं। बायीं ओर बरामदेमें वेदी है जिसमें भगवान् महावीरकी श्वेतवर्ण, पद्मासन, १४ इंच ऊँची, वीर संवत् २४८१ में प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है।
___ बरामदेके दूसरे छोरपर वेदीमें पार्श्वनाथ विराजमान हैं। ये कृष्णवणं, पद्मासन और १८ इंच अवगाहनावाले हैं तथा संवत् १९३० में प्रतिष्ठित हुए। ___सामने बायीं ओरके गर्भगृहमें भगवान् शीतलनाथकी प्रतिमा एक पाषाण-फलकमें बनी हई है। यह खड़गासन, मंगिया वर्ण और सवा छह फूट अवगाहनाकी है। प्रतिमाके सिरपर छत्रत्रयी सुशोभित है। इस फलकपर दो तीर्थंकर प्रतिमाएं और बनी हुई हैं। यह संवत् १३९२ में प्रतिष्ठित हुई थी।
___इस गर्भगृहमें-से उतरकर मूल गर्भगृहमें पहुंचते हैं। यहाँ दीवालमें भगवान् चन्द्रप्रभकी भव्य प्रतिमा बनी हुई है। सम्भवतः यह प्रतिमा इसी स्थानपर पर्वतमें उकेरी गयी है। प्रतिमाके चरण तकका भाग ही दिखाई पड़ता है। उसका पीठासन भूमिके नीचे दबा हुआ है। प्रतिमाका वर्ण भूरा है, खड्गासन मुद्रामें है, मूर्तिकी अवगाहना साढ़े नौ फुट है। प्रतिमाके सिरके ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है तथा सिरके पीछे भामण्डल बना हुआ है। उनके दोनों ओर लेख उत्कीर्ण हैं, जो प्राचीन लेखकी नकल बताया जाता है। इस लेखके अनुसार मूर्तिकी प्रतिष्ठा संवत् ३३५ में हुई थी और संवत् १८८३में सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी मथुरावालोंने इस मन्दिरका पुनर्निर्माण कराया। मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है। यदि भक्तिपूर्वक इसकी ओर कुछ देर तक टकटकी लगाकर देखा जाये
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ तो लगेगा कि मूर्तिकी आंखोंमें तेज प्रस्फुटित हो रहा है, इसका रहस्यमय मौन दिव्य सन्देश विकीर्ण कर रहा है। ऐसा सन्देश, जो हृदयको छूता चला जा रहा है। यहाँके स्निग्ध वातावरणमें अलोकिक शान्ति, विराग और भक्तिका सौरभ घुला हआ है।
इससे आगे बढ़नेपर गर्भगृहमें पार्श्वनाथकी खड्गासन, साढ़े छह फुट अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है। सिरपर छत्रत्रय है। छत्रके दोनों ओर एक-एक अर्हन्त प्रतिमा बनी हुई है। नीचे गजारूढ़ चमरेन्द्र हैं । मूर्तिके अधोभागमें दो भक्त हाथ जोड़े हुए खड़े हैं।
इससे आगेको वेदीमें मूलनायक नेमिनाथके अतिरिक्त पाश्र्वनाथ, चन्द्रप्रभ और शान्तिनाथकी श्वेतवर्ण, पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान हैं।
अगली वेदीपर कृष्णवर्ण पार्श्वनाथ और श्वेतवर्ण चन्द्रप्रभ विराजमान हैं।
अन्तिम छोरपर बनी हुई वेदीमें भगवान् सुपार्श्वनाथकी पद्मासन श्वेतवर्ण भव्य प्रतिमा विराजमान है। इसके सिरपर नौ फणावली सुशोभित है। नीचे स्वस्तिक चिह्न होनेके कारण इसे सुपार्श्वनाथकी प्रतिमा कहा जाता है। मूर्ति-लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा भट्टारक धर्मचन्द्रजीने संवत् १२७२ में करायी थी। इससे आगे श्रेयान्सनाथ, विमलनाथ और कुन्थुनाथ विराजमान हैं। ये तीनों मूर्तियां श्वेतवर्ण और पद्मासन हैं।
__ यह मन्दिर बहुत विशाल है। इस सम्पूर्ण मन्दिरके अन्दर और बाहर चौकमें संगमरमरका फर्श बना हुआ है।
मन्दिरके बाहर एक छतरीमें बाहुबली स्वामीकी खड्गासन श्वेत, संगमरमरकी साढ़े सात फुट ऊँची वीर संवत् २४७७ में प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है।
मन्दिरके सामने संगमरमरका बना हुआ एक समुन्नत मानस्तम्भ है। उसकी शीर्ष वेदिकामें पद्मासन चन्द्रप्रभ भगवान्की चारों दिशाओंमें चार प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४६८ में हुई थी।
___मानस्तम्भसे कुछ आगे चलकर समवसरण मन्दिर बना हुआ है । समवसरणको गन्धकुटीमें चतुर्मुखी श्वेत पाषाणको प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा श्री मुखीमल जैन, आगराने वीर संवत् २४९३ में करायी।
चन्द्रप्रभ मन्दिरके अधोभागमें संग्रहालय बनानेकी योजना है।
५८. पाश्र्वनाथ मन्दिर-भगवान् पाश्वनाथकी प्रतिमा खड्गासन, मुंगिया वणं, ६ फुट अवगाहनावाली है। इस मन्दिरमें दो कक्षों में दो प्रतिमाएं और विराजमान हैं-भगवान् आदिनाथ और भगवान् महावीर। इनकी भी अवगाहना ६ फुट है। सि. देवकीनन्दन, झांसीने इसकी प्रतिष्ठा करायी।
५९. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् आदिनाथको खड्गासन, मुंगिया वर्ण, ६ फुट अवगाहनावाली मूर्ति है । इस मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हैं। प्रतिष्ठा जैन पंचान, छतरपुरने करायी।
६०. पिसनहारीका मन्दिर-यह मन्दिर चक्कीनुमा अथवा तीन कटनीवाली पाण्डुक शिला-जैसी आकृतिका बना हुआ है। इसमें भगवान् सुपार्श्वनाथकी प्रतिमा पद्मासन, हलका पीला वर्ण, २ फुट अवगाहनावाली विराजमान है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १५४९ में हुई थी।
इस मन्दिरके निर्माणके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रचलित है कि यह मन्दिर एक निर्धन पिसनहारी महिलाने अपनी मजदूरीमें-से पैसे जोड़कर बनवाया था। कहते हैं, इसी कारण इस मन्दिरका आकार चक्कीके पाटों-जैसा बनाया गया। इस प्रकारको किंवदन्तियाँ कई स्थानोंके
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" भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सम्बन्धमें प्रचलित हैं-जैसे मढ़िया ( जबलपुर ) का जैन मन्दिर, उदयपुर ( बीना और विदिशाके बीच वारेथ स्टेशनसे छह कि. मी. दूर ) का हिन्दू मन्दिर। ये दोनों ही मन्दिर पिसनहारीके मन्दिर कहलाते हैं। कहते हैं, मढ़ियाका जैन मन्दिर आटा पीसनेवाली एक स्त्रीने बनवाया था और उदयपुरका हिन्दू मन्दिर वहाँके उदयेश्वर मन्दिरके निर्माण कार्यमें मजदूरी करनेवाली एक स्त्रीने पत्थर पीसनेकी कमाईसे बनवाया। इसी प्रकारकी किंवदन्ती सोनागिरके प्रस्तुत मन्दिरके सम्बन्धमें प्रचलित है। यहाँके मन्दिरके सम्बन्धमें इस प्रकारको किंवदन्ती प्रचलित होनेका कारण इस मन्दिरका आकार चक्की-जैसा होना बताया जाता है। किन्तु इस आकारके मन्दिर अयोध्या आदि कई स्थानोंपर पाये जाते हैं। हमें लगता है, वह मन्दिर मूलतः पाण्डुक शिला थी जो बादमें मन्दिरके रूपमें परिवर्तित कर दी गयी। . ... ६१. नेमिनाथ मन्दिर-यह प्रतिमा कृष्णवर्ण, खड्गासन, ३ फुट अवगाहनावाली है। इस . मन्दिरमें केवल गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ हैं। इसको प्रतिष्ठा जैन पंचान, मऊरानीपुरने करायी।
६२. महावीर मन्दिर-यह प्रतिमा मूगिया वणं, खगासन और ६ फुट आकारवाली है। मन्दिर में गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं। प्रतिष्ठाकारक मऊरानीपुरकी जैन पंचायत है।
६३. पार्श्वनाथ मन्दिर-पार्श्वनाथकी मूर्ति खड्गासन, मूंगिया वर्ण और ६ फुट अवगाहनावाली है । मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ हैं। इसकी प्रतिष्ठा श्री बरया ललितपुरने करायी थी।
६४. पार्श्वनाथ मन्दिर-यह मूर्ति पद्मासन, कृष्णवर्ण और १८ इंच ऊँची है। श्री पंछीलाल मैनपुरीवालोंने संवत् १९३० में इसकी प्रतिष्ठा करायो।
. . ६५. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह मूर्ति पद्मासन, श्वेतवर्ण और एक फुट ऊंची है। इसकी प्रतिष्ठा श्री देवाबाई, खुरजाने संवत् १९८० में करायो । मन्दिरमें गर्भगृह और उसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ बने हैं। . इस मन्दिरसे आगे एक छतरीमें किन्हीं मुनिराजके दो चरण-चिह्न बने हुए हैं।
६६. सम्भवनाथ मन्दिर-यह मूर्ति पद्मासन, श्वेतवर्ण और १० इंच ऊंची है। इसकी प्रतिष्ठा श्री अशरफीबाई, अलीगढ़ने संवत् १८८५ में करायी। इस मन्दिरमें लघु गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ हैं।
। ६७. महावीर मन्दिर-यह मूर्ति खड्गासन, मूंगिया वर्ण, ३ फुट ९ इंच अवगाहनावाली है। इस मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं।
इस मन्दिरसे आगे एक गुफामें एक देवीको मूर्ति है, उसकी गोदमें सात बच्चे हैं। इसके आगे दो छत्रियाँ बनी हुई हैं जिनमें दो चरण-चिह्न विराजमान हैं। .. ..६८. महावीर मन्दिर-यह मूर्ति पद्मासन, कत्थई वर्ण और २१ इंच ऊँची है। इस मन्दिरमें - गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं। प्रदक्षिणा-पथमें भगवान् चन्द्रप्रभकी मूर्ति विराजमान है। यह पद्मासन, कत्थई वर्ण और २ फुट अवगाहनावाली है। संवत् १८५१ में इसकी प्रतिष्ठा हुई। इससे आगे बढ़कर एक कोने में एक ओर वेदी बनी हई है, जिसमें एक शिलाफलकमें पद्मासन महावीर स्वामीकी प्रतिमा विराजमान है । सिरके ऊपर छत्रत्रयी बनी हुई है । शीर्षपर दोनों ओर गजलक्ष्मी और सर्प लिये हुए गन्धर्व दीख पड़ते हैं। मूर्तिके सिरके दोनों ओर खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियां बनी हुई हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं । अधोभागमें दो सिंह बने हुए हैं।
.६९. आदिनाथ मन्दिर-यह मूर्ति खड्गासन, मुंगिया वर्णकी और ३ फुट ऊँची है। श्री दयाराम, लश्करने इसकी प्रतिष्ठा करायी। मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हैं। यहाँसे
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
૬૭ एक मार्ग बाजनी शिलाकी ओर गया है। रास्तेमें एक छत्रीमें क्षेत्रपाल विराजमान है। इससे आगे बढ़नेपर एक छोटा-सा कुण्ड बना हुआ है, जिसका आकार नारियल-जैसा है। इसलिए इसे नारियल-कुण्ड कहा जाता है। यह एक गज चौड़ा और लगभग १७ गज गहरा है। इसके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती है कि एक मुनिराजने प्याससे व्याकुल एक बालकको दुखी देखकर एक यात्रीसे नारियल फोड़नेके लिए कहा। नारियलके फूटते ही यहां एक कुण्ड उमड़ पड़ा। इसमें सभी ऋतुओंमें जल भरा रहता है। लोगोंका विश्वास है कि यदि कोई निःसन्तान व्यक्ति उस कुण्डमें बादाम डाले और बादाम जलके ऊपर तैरने लगे तो उसे अवश्य सन्तान प्राप्त होगी। इसके पास ही एक पहाड़ी शिला टिकी हुई है, जिसे बजानेसे मधुर ध्वनि निकलती है। उसे 'बाजनी शिला' कहते हैं। यह १५ फुट लम्बी और १० फुट चौड़ी है। इसके सिरेपर मनुष्यके सिरेके आकारका एक गहरा गड्ढा बना हुआ है। इनके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रचलित है कि यहाँ एक मुनिराज तपस्या कर रहे थे। अकस्मात् इनके सिरपर यह शिला गिर पड़ी। पत्थरमें सिर धंस गया किन्तु मुनिराजके कोई चोट नहीं आयी। शिलामें मनुष्यके सिर समाने लायक गड्ढा है। नारियल-कुण्डके बगलमें मुनिराजके चरण बने हुए हैं। .... ७०. पार्श्वनाथ मन्दिर-मन्दिरमें एक छत्रीके नीचे ३ फुट ऊँची एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा विराजमान है, जिसमें चारों दिशाओंमें आदिनाथ, वासुपूज्य, अनन्तनाथ और कुन्थुनाथकी प्रतिमाएं बनी हुई हैं । वणं नील है।
७१. पाश्वनाथ मन्दिर-यह प्रतिमा खड्गासन, मुंगिया वर्णकी और ६ फुट ऊँची है। इसकी प्रतिष्ठा चौधरी खड्गसेन बरैया करहियाने करायी। इस मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ बने हुए हैं। . ७२. पार्श्वनाथ मन्दिर–इसमें पार्श्वनाथकी खड्गासन, कृष्णवर्ण ४० इंचकी प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा मगरौनीकी बरैया पंचायतने संवत् १८८४ में करायी थी। इसी मन्दिरमें एक और वेदी बनी हुई है, जिसके ऊपर भगवान् चन्द्रप्रभकी खड्गासन और ५ फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान है। इसकी भी प्रतिष्ठा संवत् १८८४ में हुई। इस मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं।
७३. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान्की यह प्रतिमा खड्गासन, मगिया वणं और साढ़े चार फुटकी है। सिरके ऊपर तीन छत्र और सिरके पीछे भामण्डल बना हुआ है। अधोभागमें एक ओर यक्ष है तथा दूसरी ओर वृषभकी पीठपर चतुर्भुजी यक्षी आरूढ़ है। मन्दिरमें गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ बने हुए हैं।
__७४. महावीर मन्दिर-इस मन्दिरमें कुल सात वेदियाँ ऊपरके भागमें बनी हुई हैं। मुख्य वेदीपर भगवान महावीरको पद्मासन, श्वेतवर्ण, ३ फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान है। इसकी संवत् १८३८ में प्रतिष्ठा हुई। इसके बायीं ओरकी वेदीपर कत्थई वर्ण, खड्गासन, २३ फुट ऊंची महावीर प्रतिमा विराजमान है तथा दायीं ओरकी वेदीपर मनिसव्रतनाथकी पद्मासन. श्वेतवर्ण. १ फुट अवगाहनावाली और संवत् १८२६ में प्रतिष्ठित प्रतिमा है। बरामदेमें पार्श्वनाथकी एक प्रतिमा विराजमान है जो कृष्णवर्ण, पद्मासन, १५ इंच ऊँची है और उसकी प्रतिष्ठा संबत् १९३० में हुई। एक दूसरे बरामदेमें गर्भगृहमें तीन वेदियां बनी हुई हैं। मध्य वेदीपर चन्द्रप्रभ भगवान्की श्वेतवर्ण, पद्मासन, डेढ़ फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४७० में हुई। बायीं ओरको वेदियोंपर कृष्णवर्ण, पद्मासन, १ फुट अवगाहनावाली पार्श्वनाथ प्रतिमाएं हैं।
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भारतके विगम्बर जैन तोथं
मन्दिरके नीचे भोंयरेमें पार्श्वनाथकी श्वेतवर्ण, पद्मासन, ४ फुट उन्नत प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८३८ में हुई ।
शान्तिनाथ भगवान् की एक मूर्ति श्वेतवर्ण, पद्मासन, डेढ़ फुट अवगाहनावाली यहाँ विराजमान है। इस वेदीका वीर संवत् २४९१ में जीर्णोद्धार हुआ था ।
एक वेदीमें मुनिराज के चरण विराजमान हैं ।
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इसके कुछ आगे जानेपर क्षेत्रपालकी बड़ी मूर्ति मिलती है। इससे आगे आमने-सामने दो छत्रियाँ बनी हुई हैं। दोनोंमें चरण चिह्न बने हुए हैं।
७५. चन्द्रप्रभ मन्दिर - इसमें भगवान् चन्द्रप्रभकी कृष्णवर्ण, पद्मासन, २१ फुट अवगाहनावाली मूर्ति विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १३५० में हुई । इस मूर्तिके बगलमें एक फुट ऊँची एक तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है । इस मन्दिर में अर्धमण्डप और गर्भगृह बने हुए हैं ।
७६. चन्द्रप्रभ मन्दिर - इसमें चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा हलके पीले वर्णकी, खड्गासन मुद्रा में विराजमान है। यहां तीन मूर्तियां और हैं - (१) कृष्णवणं, पद्मासन पार्श्वनाथ, (२) श्वेतवर्ण, पद्मासन आदिनाथ और ( ३ ) श्वेतवर्णं, पद्मासन महावीर ।
यहाँ गैलरीमें निकटवर्ती प्रदेशसे प्राप्त खण्डित और अखण्डित, प्राचीन मूर्तियों का संग्रह सुरक्षित है। इनमें एक नीलवर्णं पार्श्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा संवत् ११०१ की सम्मिलित है । प्रतिमा छोटी है किन्तु बहुमूल्य है - कलाकी दृष्टिसे भी और पुरातत्त्वकी दृष्टिसे भी ।
७७. महावीर मन्दिर - यहाँ महावीर स्वामीकी डेढ़ फुट ऊँची श्यामवर्णं, पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसके परिकर में हाथमें देवियाँ सर्प लिये हुए हैं, विमानमें दोनों ओर दो-दो देव| देवियाँ आ रहे हैं । चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र भगवान्की सेवामें चमर लिये हुए खड़े हैं । पीठासनपर मध्य में सिंह तथा दोनों ओर दो भक्त खड़े हुए हैं। इस मन्दिरमें एक दालान और गृह बने हुए हैं।
इसके सामने छत्रीमें चरण बने हुए हैं। उतरते समय मार्ग में एक छत्री और मिलती है । उसमें भी चरण है ।
इस प्रकार जिस फाटकसे यात्रा प्रारम्भ की थी, उसीपर आकर पर्वतके सम्पूर्ण मन्दिरोंकी वन्दना पूर्ण होती है ।
मनहरदेव के शान्तिनाथ भगवान् - मनहरदेव क्षेत्रपर मूर्तिचोरोंने अनेक मूर्तियोंके सिर काट लिये । इससे इस निर्जन क्षेत्रपर शान्तिनाथ भगवान्की इस विशाल मूर्तिकी सुरक्षा में आशंका उत्पन्न हो गयी । फलतः पाड़ाशाह द्वारा प्रतिष्ठित शान्तिनाथ स्वामीकी यह प्रतिमा श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मनहरदेव चैतग्राम ( जिला ग्वालियर) से विक्रम संवत् २०२५ में सोनागिरि सिद्धक्षेत्रपर लायी गयी और सुरक्षाकी दृष्टिसे भट्टारक चन्द्रभूषणजीकी कोठीमें अलग वेदी बनाकर प्रतिष्ठित की गयी । इतनी दूर लाने में इसके होंठ और हाथमें साधारण क्षति पहुँची है। इसके दोनों ओर चमरधारिणी हैं । नीचे एक छोटी अर्हन्त प्रतिमा बनी हुई है ।
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भट्टारक गद्दी
क्षेत्रपरभट्टारकोंकी चार गद्दियाँ रही थीं । प्रायः सभी प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा इन्हीं गद्दियोंके भट्टारकों द्वारा की गयी है । यहाँको भट्टारक गद्दी गोपाचल ( ग्वालियर ) के भट्टारककी एक शाखापीठ रही है । अभिलेखोंसे सिद्ध है कि भट्टारक विश्वभूषणके समय तक गोपाचल, सोनागिर और वटेश्वर ये तीनों स्थान एक ही भट्टारकके अधीन रहे । एक स्थानका भट्टारक तीनों स्थानों
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
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की देखभाल किया करता था । सोनागिर क्षेत्र मूलतः बलात्कारगणके भट्टारकों का था; अतः विश्वभूषण के पश्चात् यहाँको गद्दीपर स्वतन्त्र रूपसे भट्टारक अभिषिक्त होने लगे । इस परम्परामें देवेन्द्रभूषण, जिनेन्द्रभूषण, नरेन्द्रभूषण एवं चन्द्रभूषण आदिके नाम उपलब्ध होते हैं । १५वीं शती के अपभ्रंश भाषा के विद्वान् कवि रइधूने 'रिहणोमिचरिउ' की प्रशस्ति में सोनागिरिका उल्लेख कनकगिरिके नामसे किया है
'कमल कित्ति उत्तम खम धारउ, भव्वह भव-अंकोणिहि-तारउ । तस्स पट्ट 'कणयद्दि' परिट्ठउ, सिरि सुहचन्द सु-तव-उक्कंठिउ ।'
इसमें कमलकीर्ति भट्टारकके पश्चात् शुभचन्द्रका अभिषेक सोनागिरपर हुआ बताया गया है । कमलकीर्ति काष्ठासंघी, माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक हेमकीर्तिके शिष्य थे । वि. सं. १५०६, १५१०, १५३० और १६३९ के अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि हेमकीर्तिके पट्टपर कमलकीर्ति, उनके पट्टपर शुभचन्द्र और उनके पट्टपर यशः सेन देव आसीन हुए । भट्टारक कमलकीर्तिने तत्त्वसारटीकाकी रचना की । यशः सेन द्वारा प्रतिष्ठापित एक दशलक्षण यन्त्र वि. सं. १६३९ का मिलता है ।
कमलकीर्ति के दो शिष्य थे - शुभचन्द्र और कुमारसेन । सोनागिर क्षेत्रका अधिकार शुभचन्द्र और उनकी शिष्य-परम्पराके अधीन रहा । उनका अधिकार १७वीं शताब्दी के मध्य तक रहा, अर्थात् तबतक माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक यहाँको गद्दींके अधिकारी रहे । १७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्धसे यह क्षेत्र कुछ दिनों तक बलात्कारगणकी अटेर शाखाके भट्टारकोंके हाथोंमें रहा ।
जीर्णोद्वार
श्री चन्द्रप्रभ मन्दिरका जीर्णोद्धार संवत् १८८३ में जगत् सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी मथुरावालोंने कराया था। उस समयके दो लेख मन्दिरमें उपलब्ध हैं । इनमें से एक लेख, जो किसी जीर्ण मन्दिरके शिलालेखका सारांश बताया जाता है, इस प्रकार है
मन्दिर सह राजत भये, चन्द्रनाथ जिन ईस । पोशसुदी पूनम दिना, तीन सतक पैंतीस ॥ मूल संघ अर गण करो ( यो ) बलात्कार सम । श्रवणसेन अरु दूसरे, कनकसेन दुइ भाई ॥ नीजक अक्षर नांचके, कियो सु निश्चय राम । और लिख्यो तो बहुत सो सो तह पर्यो लखाय ॥ द्वादश सतक बरुतरा, पुन्यी जीवनसार । पारसनाथ-चरण तरे, तासों विदी ( धी) विचार ॥
इसमें बताया है कि संवत् ३३५ पौष सुदी १५ का उक्त जीर्ण शिलालेख था । और उसमें मूलसंघ बलात्कारगणके श्रवणसेन - कनकसेन दो भाइयोंका उल्लेख था ।
सम्भवतः प्राचीन लेख जीर्णोद्धार के समय चरणोंके नीचे लिखा हुआ था, उसके आधारसे यह संवत् उद्धृत किया गया और मूल लेख दब गया। यदि यह उल्लेख किन्हीं भी प्रमाणों या साक्ष्योंके आधारपर सत्य सिद्ध हो पाता तो वस्तुतः इसका ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़ा महत्त्व होता ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थकिन्तु उक्त जीणं शिलालेख अस्पष्ट था, अतः उसका संवत् ठीक पढ़ा नहीं गया। अतः जो संवत् ३३५ दिया गया है, वह सही नहीं है । उसका कारण स्पष्ट है । लेखमें मूलसंघ बलात्कारगण दिया गया है, किन्तु ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दीमें बलात्कारगण था ही नहीं।
प्राचीन लेख अस्पष्ट होनेके कारण पढ़ा नहीं जा सका, यह बात लेख लिखनेवालेने भी स्वीकार की है। लगता है, यह संवत् ३३५ न होकर १०३५ रहा होगा. जो अस्पष्टताके कारण ३३५ पढ़ लिया गया। ज्योतिषको काल-गणनाके अनुसार डॉ. नेमिचन्दजीने सिद्ध किया है कि संवत् १०३५ में पौष पूर्णिमा रविवारको पड़ती है। दिनाका अर्थ ज्योतिषशास्त्रके अनुसार रविवार भी होता है। अतः शुद्ध पाठ 'एक सहस्र पेंतीस' होना चाहिए। सारांशमें भगवान् पार्श्वनाथके पदतलके लेखका समय १२१२ संवत् दिया है अर्थात् इस संवत्की प्रतिमा उस समय यहाँ विद्यमान थी।
पुरातत्त्व
इस क्षेत्रको मान्यता कबसे प्रचलित है अथवा यहाँ मन्दिर निर्माणका अधिकतम काल कितना प्राचीन है, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। यहाँ सबसे प्राचीन मूर्ति वि. सं. १२३३ की है जो मन्दिर नं. १६ में विराजमान है। यदि उपर्युक्त ज्योतिष काल-गणनाके आधारपर चन्द्रप्रभ मन्दिरके शिलालेखका काल वि.सं. १०३५ मान लिया जाये तो सोनागिरिकी मान्यता ग्यारहवीं शताब्दी तक पहुँच जाती है। क्षेत्रपर चारों ओर ध्वंसावशेष बिखरा पड़ा है। उसमें से कुछ सामग्री एक संग्रहालयमें ( मन्दिर नं. ७६ में ) रख दी गयी है। इस सामग्रीका अध्ययन अभी तक पूर्णतः नहीं किया गया है, किन्तु यह कहा जा सकता है कि यहाँ ११वीं शताब्दी तककी मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। क्षेत्रीय व्यवस्था __ इस क्षेत्रको व्यवस्था एक निर्वाचित प्रबन्धकारिणी कमेटीके अधीन है, और वह कमेटी भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीके अन्तर्गत है। पर्वतके समी मन्दिरोंको व्यवस्था प्रबन्धकारिणो कमेटी करतो है, जबकि तलहटीके मंन्दिरों और धर्मशालाओंकी व्यवस्था विभिन्न पंचायतें करती हैं। धर्मशाला और दिल्लोवाले मन्दिरको व्यवस्था प्रबन्धकारिणी कमेटी करती है।
धर्मशालाएं-यात्रियोंको ठहरनेको यहां पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहाँ तलहटीमें १५ धर्मशालाएँ बनी हुई हैं । यात्री इच्छानुसार किसी धर्मशालामें ठहर सकता है।
मेले-क्षेत्रपर वार्षिक मेला चैत कृष्णा १ से ५ तक भरता है । क्षेत्रपर वि. सं. १८८५ में गजरथ, वि. सं. २००७ में मानस्तम्भ-प्रतिष्ठा और वीर सं. २४८० में बाहबली-महामस्तकाभिषेक हआ। इन अवसरोंपर उल्लेख-योग्य मेले भरे और हजारोंको संख्या में यात्री पधारे थे।
क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं-इस समय क्षेत्रपर नंगानंग पुस्तकालय, नंगानंग औषधालय और जैन संग्रहालय नामक तोन संस्थाएं हैं। इनकी व्यवस्था क्षेत्रको प्रबन्धकारिणी कमेटी करती है।
__ स्वर्णगिरि या श्रमगगिरि-प्राकृत निर्वाण-काण्डकी उपर्युक्त गाथाका तीसरा चरण कुछ विवादास्पद रहा प्रतीत होता है। इस विवादका कारण विभिन्न प्रतियोंमें पाठ-भेद है। किन्हीं प्रतियोंमें 'सुवण्णगिरिवर सिहरे' पाठ प्राप्त होता है। पहले पाठके अनुसार क्षेत्रका नाम सुवर्णगिरि है, जबकि दूसरे पाठके अनुसार इस निर्वाण-भूमिका नाम श्रमणगिरि है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जो विद्वान् इस निर्वाण-क्षेत्रका नाम श्रमणगिरि मानते हैं, वे वर्तमान सोनागिरिको निर्वाणक्षेत्र माननेके विरुद्ध हैं । उनका तर्क इस प्रकार है
संस्कृत निर्वाण भक्तिके नौवें पद्यमें 'ऋष्यद्रिके' पाठ आया है। निर्वाण भक्तिकी टोका करते हुए श्री प्रभाचन्द्रने 'ऋष्यद्रिके' का अर्थ 'श्रमणगिरौ' किया है अर्थात् ऋषिगिरि ही श्रमणगिरि कहलाता था। निर्वाण भक्तिके उक्त श्लोकमें 'वैभार, विपुल और नलाहकके बीचमें' ऋषिगिरिका नाम आया है, अतः ऋषिगिरि राजगृहके पर्वतसे भिन्न नहीं हो सकता। राजगृह नगरके निकट पाँच पहाड़ हैं-वैभार, विपुल, उदय, रत्न और श्रमणगिरि ( ऋषिगिरि )। - कुछ विद्वानोंने हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओंमें तीर्थवन्दना' और जयमालाओंकी रचना को है। लगता है, इन कवियोंमें भी 'श्रमणगिरि' और 'सुवर्णगिरि के बारेमें मतभेद रहे हैं । गुणकीर्ति (१५वीं शताब्दी ) और चिमणा पण्डित (१७वीं शताब्दी ) ने मराठी भाषामें 'तीर्थवन्दना'की रचना की है तथा मेघराज (१६वीं शताब्दी ) ने गुजराती भाषामें 'तीर्थवन्दना' लिखी है। इन तीनों ही विद्वानोंने शवणागिरि, सिवनागिरि और सिवणागिरि शब्दोंका प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है श्रमणगिरि। दूसरी ओर भट्टारक विश्वभूषण ( १७वीं शताब्दी) ने हिन्दी-संस्कृत मिश्रित 'सर्व त्रैलोक्य जिनालय जयमाला' बनायी है तथा पं. दिलसुख ( १९वीं शताब्दी ) ने हिन्दी-संस्कृत मिश्रित 'अकृत्रिम चैत्यालय नभमाला' की रचना की है। इन दोनोंने ही 'सोनागिरि' शब्दका प्रयोग किया है।
यद्यपि सुवण्णगिरि, सवणागिरि, शवणागिरि, सिवणागिरि, सुवर्णगिरि और सोनागिरि आदि शब्द भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं तथा इन शब्दोंका प्रयोग करनेवाले लेखकोंमें इन शब्दोंको लेकर मतभेद प्रतीत होता है, किन्तु इन शब्दोंकी गहराईसे. छानबीन करें तो कोई मतभेद प्रतीत नहीं होता। सुवर्णगिरिपर असंख्य श्रमण तपस्या करते थे, इसलिए सुवर्णगिरिको श्रमणगिरि भी कहा जाता था। ऋषिगिरिको भी श्रमणगिरि इसी अर्थमें कहा जाता था क्योंकि श्रमण साधु वहाँ तपस्या करते थे। वस्तुतः इन दोनों पर्वतोंका नाम श्रमणगिरि नहीं था, बल्कि इनका नाम तो सुवर्णगिरि और ऋषिगिरि ही था। नंग-अनंगकुमार आदि मुनि का समवसरण सुवर्णगिरिपर आया था। चन्द्रप्रभ भगवान्के चरित-ग्रन्थोंसे इसका समर्थन होता है। परम्परासे भी वर्तमान सोनागिरिको ही नंगानंगकुमार मुनियोंकी निर्वाण-भूमि होनेकी मान्यता चली आ रही है । अतः सोनागिरिको निर्वाण-भूमि माननेमें कोई बाधा नहीं है।
कुछ विद्वान् सोनागिरिके विरोधमें यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि 'गोपाचल ( ग्वालियर ) में भट्टारक-पीठकी स्थापनाके पश्चात् सोनागिरिमें उसकी शाखा-पीठ स्थापित की गयी, अतः सोनागिरि गोपाचलकी शाखा-पीठके बाद तीर्थके रूपमें मान्य हआ। हमारी विनम्र मान्यता है कि सोनागिरिको एक निर्वाण-क्षेत्रके रूप में उस समय भी मान्यता प्राप्त थी जबकि गोपीचलकी शाखा-पीठ वहाँ स्थापित भी नहीं हुई थी। जनता सोनागिरिको निर्वाण-क्षेत्र मानती थी, उसकी यात्रा करती थी, इसीसे तो आकर्षित होकर गोपाचलके भट्टारकने सोनागिरिमें अपनी शाखा-पीठ स्थापित की, अन्यथा उनके लिए सोनागिरिको शाखा-पीठ बनानेमें आकर्षण क्या था? दूसरी बात यह है कि गोपाचल और सोनागिरिमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। फिर इतने निकट अपनी दूसरी गद्दी बनानेका अर्थ ही यह है कि उन दिनोंमें सोनागिरि क्षेत्रकी मान्यता बहुत अधिक थी। इसीसे प्रेरित होकर इतने निकट भट्टारकजोने अपनी दूसरी गद्दी स्थापित की। सोनागिरिकी मान्यताके लिए यह एक प्रबल तर्क है। .
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
___ पनिहार-वरई अवस्थिति और मार्ग
ग्वालियरसे आगरा-शिवपुरी रोडपर ३२ कि. मी. पर सड़कके दायीं ओर ८ फलांगपर बरई गांव अवस्थित है तथा मुख्य सड़कसे बायीं ओर पनिहारको मार्ग गया है। यद्यपि पनिहार ग्राम सड़कसे लगभग १ कि. मी. दूर पड़ता है, किन्तु सड़कसे लगभग ३ फलांग चलनेपर बायों
ओर एक टीला मिलता है। उसके बगलसे एक कच्चा मार्ग पनिहारके प्रसिद्ध मन्दिरको जाता है । यह मन्दिर अधिक दूर नहीं है । पनिहारका चौबीसी मन्दिर
यह मन्दिर लाल पाषाणका निर्मित है। खुले आँगनके मध्यमें स्तम्भोंपर आधारित एक मण्डप ( बारहदरी ) बना हुआ है। मण्डपके दायों और बायीं ओर दालान बने हुए हैं। उनमें एक-एक छोटी कोठरी है तथा भोयरा बना हुआ है। दायीं ओरका भोयरा तथा दोनों कोठरियां खाली हैं। किन्तु बायीं ओरके भोयरेमें मूर्तियाँ हैं । मूर्तियोंकी कुल संख्या १८ है जो तीन पंक्तियोंमें विभाजित हैं। दायों ओरको वेदीपर ६, सामनेकी वेदीपर ५ और बायीं ओरकी वेदीपर ७ । सभी मूर्तियाँ श्वेत पाषाण द्वारा निर्मित हैं और पद्मासन मुद्रामें हैं। दायीं ओरसे बायों ओर की मूर्तियोंका क्रम इस प्रकार है
१. ऋषभदेव अवगाहना पौने तीन फुट पाठपीठपर वृषभ लांछन २. मुनिसुव्रतनाथ , २ फुट ५ इंच , कच्छप ३. सम्भवनाथ
३ फुट
घोड़ा ४. मल्लिनाथ __. सवा दो फुट ." कलश ५. ऋषभदेव
साढ़े तीन फुट , ६. चन्द्रप्रभ
ढाई फुट ७. सुपार्श्वनाथ पौने तीन फुट
स्वस्तिक ८. शान्तिनाथ
सवा दो फुट
हिरण ९. धर्मनाथ
वज्रदण्ड १०. मुनिसुव्रतनाथ ३ फुट
कच्छप ११. अजितनाथ
सवा दो फुट १२. शान्तिनाथ सवा दो फुट
हिरण १३. अजितनाथ
हाथी १४. शान्तिनाथ
२ फुट २ इंच
हिरण १५. पद्मप्रभ ___ ढाई फुट , कमल १६. अनन्तनाथ १७. अजितनाथ
ढाई फुट , १८. शीतलनाथ , सवा दो फुट
कल्पवृक्ष " इस मन्दिर और मूर्तियोंको देखकर ऐसा लगा कि यह कोई मन्दिर नहीं, यह तो निषधिका या समाधि-स्थान होगा। यहाँकी मूर्तियाँ भी इस स्थानकी नहीं लगतीं। सम्भव है, ये किसी दूसरे
वृषभ
चन्द्र
हाथी
सेही
हाथी
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७३
मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जिनालयमें विराजमान रही होंगी और जब उस स्थानपर संकट आनेकी सम्भावना प्रतीत हुई होगी तो वे मूर्तियां इस मन्दिरमें और बादमें भोयरे में सुरक्षित पहुँचा दी गयी होंगी। इन मूर्तियोंके सम्बन्धमें जनतामें एक भ्रम व्याप्त है। मतियोंकी २४ संख्याको देखकर जनतामें यह धारणा जम गयी है कि ये मूर्तियाँ चौबीस तीर्थंकरोंकी हैं, इसलिए लोग इन्हें चौबीसी कहते हैं। इन २४ मूर्तियोंमें-से २ मूर्तियाँ प्यारेलालजीका मन्दिर, मामाका बाजार, लश्करमें विराजमान कर दी गयी हैं। ४ मूर्तियाँ खण्डित कर दी गयीं जो इसी भोयरेमें रखी हुई हैं। शेष १८ मूर्तियां यहां विराजमान हैं। इन मूर्तियोंको चरणचौकीपर उत्कीर्ण चिह्नोंको देखनेपर यह स्वीकार करना पड़ता है कि ये सभी २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियां नहीं हैं, अतः उस अर्थमें इन्हें चौबीसी नहीं कहा जा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये मूर्तियाँ मूर्ति-कलाका मूर्तिमान रूप हैं। इन मूर्तियोंमें अद्भत द्वन्द्वके दर्शन होते हैं। मुखपर अद्भुत सुकुमारता झलक रही है, किन्तु उनकी भुजाएँ और श्रीवत्स लांछनयुक्त मांसल और चौड़ी छाती उनके विश्वविजयी वीर होनेका संकेत करती हैं। उनके चेहरेपर लास्ययुक्त हास्य फूटा पड़ता है किन्तु उनके होंठोंपर विरागकी अभिव्यंजना है।
____ इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा इनके मूर्ति-लेखोंके अनुसार विक्रम संवत् १४२९ में हुई। उस समय दिल्लीपर फीरोजशाह तुगलक शासन कर रहा था। वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था । उसने कुछ मन्दिर-मूर्तियोंको तुड़वाया तथा नवीन मन्दिरोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध लगा दिया। किन्तु जबसे उसने नन्दिसंघके भट्टारक प्रभाचन्द्रको-जो दिगम्बर मुनि थे-अपने महलोंमें बुलाकर उनसे उपदेश सुना था, लगता है, तबसे जैनोंके प्रति वह कुछ उदार बन गया था। अथवा दिल्लीसे सुदूर इस प्रदेशमें उसके आदेश कठोरतापूर्वक लागू नहीं किये जा सकते थे, अतः भक्तोंने इन भव्य मूर्तियोंका निर्माण कराया। विश्वासपूर्वक यह कह सकना कठिन है कि इन मूर्तियोंका निर्माण यहीं हुआ अथवा किसी दूसरे स्थानपर हुआ; यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन मूर्तियोंका पाषाण किस खानसे निकाला गया। किन्तु इन मूर्तियोंके अनुपम शिल्प-सौन्दर्यको देखकर यही कहा जा सकता है कि इस कालमें (१४-१५वीं शताब्दीमें ) मूर्ति-कला अत्यन्त समुन्नत हो चुकी थी। इन मूर्तियोंपर चन्देल कलाका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।
___ उस कालमें यहाँ जैनोंको संख्या पर्याप्त रही होगी, किन्तु अब असुरक्षाका भय और जीविकोपार्जनके साधन न होनेके कारण यहाँके जैन ग्वालियर आदि नगरोंमें चले गये। पनिहार ग्राममें अब जैनोंके दो-एक घर ही शेष बचे हैं। ग्राममें जैन मन्दिर भी है। इन जैन बन्धुओंको ही ग्रामके मन्दिर और उक्त चौबीसी मन्दिरको व्यवस्था करनी पड़ती है, अतः सन्तोषजनक व्यवस्था हो नहीं पाती।
बरई
मुख्य सड़कसे दायीं ओर एक सड़क जाती है। उससे ८ फलांग जाकर बरई ग्राम है। ग्राममें कोई जैन नहीं है। सम्भवतः प्राचीन कालमें यहाँ जैन अच्छी संख्यामें रहते होंगे। यहाँ जो भी मन्दिर और मूर्तियाँ मिलती हैं, वे सब तोमर शासनकालकी हैं। लगता है, जब पनिहारमें मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई थी, उस समय बरईमें कोई जैन मन्दिर या मूर्ति नहीं थी। पनिहारकी मूर्तियोंके लगभग १०० वर्ष बाद बरईमें मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण हुआ। इस समय यहाँ दो स्थानोंपर जैन मन्दिर उपेक्षित दशामें खड़े हुए हैं। जब मुख्य सड़कसे बरई गाँवकी ओर जाते हैं, उस समय लगभग ५ फलांग चलनेपर दायें हाथ एक कच्चा मार्ग जाता है। उससे ३ फलांग
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
चलनेपर एक भग्न मन्दिर मिलता है। कहते हैं, यह जैन मन्दिर था । यह तोमरवंशी मानसिंह नरेश कालका बना हुआ है। वर्तमानमें इसमें कोई मूर्ति नहीं है ।
यहाँसे लगभग ३-४ फलींग आगे जानेपर एक ऊंचे टीलेपर प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्ना•वशेष विस्तृत भूभागमें बिखरे पड़े हैं । भग्नावशेषोंके मध्य एक जीर्ण-शीर्णं जैन मन्दिर खड़ा हुआ है, मानो जरासे जर्जरित वह अपनी मृत्युकी घड़ियाँ गिन रहा हो । मन्दिरमें केवल गर्भगृहका ही कुछ भाग अवशिष्ट है । उसमें लगभग १८ फुट उन्नत तीर्थंकर - मूर्ति कायोत्सर्गासन में विराजमान है । उसका सिर काट लिया गया है। इसके अतिरिक्त हाथ, लिंग और पैर भी खण्डित हैं । मूर्तिका पीठासन मिट्टी में दबा हुआ है। मूर्तिके बायीं ओर यक्षी खड़ी है । कानोंमें 'कुण्डल, गले में गलहार है । घुटनोंसे नीचे का भाग दबा हुआ है । दूसरी ओर यक्षकी मूर्ति नहीं है, सम्भवतः वह नष्ट कर दी गयी । मूर्ति अभिषेकके लिए दोनों पार्श्वोमें कुछ सीढ़ियाँ हैं । मन्दिर के ऊपर विशाल शिखर बना हुआ है जो मीलों दूरसे दिखाई देता है । मन्दिरका द्वार और मूर्तिके पृष्ठभागकी दीवार टूटी पड़ी है। गर्भगृहमें मलबा पड़ा हुआ है ।
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वहाँ से लौटकर उसी स्थानपर पहुँचते हैं जहाँसे कच्चा मार्ग प्रारम्भ हुआ था । वहाँ बायीं ओरको एक मागं एक ऊँचे टीलेकी ओर गया है। वहाँके मन्दिर और शिखर दूरसे ही दिखाई पड़ते हैं । लगभग ६ फर्लांग चलनेपर एक पक्का अहाता मिलता है, जिसमें एक ही पंक्ति में ४ गर्भगृह बने हुए हैं तथा प्रत्येकके ऊपर विशाल शिखर निर्मित हैं। चारों ही शिखर विशाल हैं । चारों गर्भगृहों का परिचय दायीं ओरसे बायीं ओर को
प्रथम गर्भगृहका द्वार पाषाण निर्मित है । द्वारके शीर्ष पर तीन कोष्ठकों में तीन पद्मासन ( प्रत्येक कोष्ठक में एक ) अहंन्त प्रतिमाएँ हैं। मध्यकी प्रतिमाका आकार सवा फुट और दोनों ओरकी प्रतिमाओं का आकार एक फुट है। द्वारके स्तम्भोंमें सूक्ष्म अलंकरण हैं तथा स्तम्भों में नीचे के भागमें द्वारपाल बने हुए हैं ।
द्वारसे दो सीढ़ियाँ नीचे उतरकर गर्भगृहमें पहुँचते हैं। गर्भगृह लगभग १२ फुट लम्बा और इतना ही चौड़ा है । इसमें १६ फुट ऊँची तीर्थंकर प्रतिमा कायोत्सर्गासन में विराजमान है । प्रतिमाके दोनों ओर चमरवाहिका खड़ी हुई हैं । प्रतिमाका अभिषेक करनेके लिए दोनों ओर सीढ़ियाँ तथा प्रतिमा की छाती के सामने पाषाण- पट्टिका ( प्लेटफॉर्म ) बनी हुई है ।
दूसरे गर्भगृह द्वारपर भी तीन पद्मासन अर्हन्त प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। गर्भगृहमें १८ फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है । मूर्ति लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १५२६ वैशाख सुदी ६ को हुई थी। पादपीठपर शंख लांछन बना हुआ है । अतः यह मूर्ति बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथकी है। मूर्ति बड़ी भव्य है । मूर्तिके सिरपर अद्भुत केशवलय है । घुटनोंसे ऊपर दोनों ओर कमलपुष्प हाथमें लिये हुए दो देव खड़े हैं। उनके नीचे दोनों ओर वाद्य-यन्त्र लिये और अलंकार धारण किये हुए गन्धवं खड़े हैं। उनके नीचे यक्ष और यक्षी ( गोमेद और अम्बिका ) खड़े हुए हैं ।
बायीं ओर पीठासनपर ८ फुट ऊँची एक तीर्थंकर मूर्ति खड्गासनमें विराजमान है किन्तु मूर्तिचोर इसका सिर काटकर ले गये ।
तीसरे गर्भगृह पाषाण-द्वारके ऊपर एक अर्हन्त प्रतिमा बनी हुई है । अन्दर १३ फुट ऊँची खड्गासन मुद्रामें तीर्थंकर - प्रतिमा विराजमान है ।
चौथे गर्भगृह द्वारमें भी एक अहंन्त प्रतिमा बनी हुई है। गर्भगृहमें विशाल तीर्थंकरप्रतिमा बनी हुई है, किन्तु इसका भी सिर मूर्तिचोर काटकर ले गये ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ यद्यपि इस प्राचीन मन्दिरकी दशा अभी बहुत शोचनीय नहीं है किन्तु कोई व्यवस्था और देखभाल न होनेसे मन्दिरको क्षति पहुंच रही है। अहाता टूटा हुआ है। अतः अवांछनीय लोगों और पशुओंका यहाँ अव्याहत प्रवेश है। गर्भगृहोंमें किवाड़ें नहीं हैं। गर्भगृहोंके द्वारोंपर कँटीली झाँड़ियाँ लगी हुई हैं, जिस किसी प्रकार इन्हें हटाकर भीतर प्रवेश भी किया जाये तो गर्भगृहोंमें कडा-कचरा पडा हआ है। चमगादडों, ततैयों और मकडियोंने सारे गर्भगहोंको अपना डेरा बना लिया है । देखभाल न होनेके कारण ही यहाँ दो मूर्तियोंके सिर कट चुके हैं। इस मन्दिरके चारों
ओर जंगल है। आसपासमें भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। यहाँके जंगलोंमें-से भगवान् शान्तिनाथकी १८ फुट ऊँची एक मूर्तिको ले जाकर नसियाजी रामकुई, लश्करमें विराजमान कर दिया गया है। सुरक्षाकी दृष्टिसे यह कार्य बहुत प्रशंसनीय कहा जायेगा। किन्तु उचित यही है कि प्राचीन मूर्तियाँ अपने मूले स्थानपर रहें और वहीं उनकी सुरक्षाको समुचित व्यवस्था हो। इसका अपना पृथक् ऐतिहासिक महत्त्व है।
खनियाधाना और उसके निकटवर्ती क्षेत्र मार्ग
खनियाधाना मध्यप्रदेशमें सेण्ट्रल रेलवेके बसई स्टेशनसे ३७ कि. मी., चन्देरीसे ५३ कि. मी. और शिवपुरीसे १०२ कि. मी. दूर है। प्राचीन मूर्तियां
यहाँ दो दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। इनमें से एक मन्दिरमें वि. सं. ११००, १२१० और १३१८ की प्राचीन प्रतिमाएं विराजमान हैं । मन्दिरके सामने एक प्राचीन मानस्तम्भ भी है। __इस क्षेत्रको चौरासी दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कहते हैं। इसकी एक कमेटी है तथा इसका कार्यालय यहींपर है। यहाँ तथा इसके निकट अनेक स्थान ऐसे हैं जहाँ जैन पुरातत्त्वको सामग्री प्रचुर मात्रामें मिलती है। इस सामग्रीमें मन्दिर, मूर्तियां, मानस्तम्भ और अभिलेख सम्मिलित हैं। यह सामग्री प्रायः ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दीके बादकी है। इनके निर्माता जैन श्रावकश्राविका ही थे। यह काल चन्देल, कलचुरि, प्रतिहार आदि वंशोंके उत्कर्ष-अपकर्षका रहा है किन्तु इन वंशोंके नरेशोंने कला और संस्कृतिको पूर्ण प्रश्रय और संरक्षण प्रदान किया था। फलतः इस कालमें इन नरेशोंके राज्योंमें हिन्दू और जैन संस्कृति एवं कलाको पल्लवित होनेका समुचित अवसर मिला । इस काल तक बौद्ध धर्म भारतसे प्रायः लुप्त हो चुका था। अतः इस कालमें बौद्ध कला निष्क्रिय रही।
इस कालमें अन्य स्थानोंके समान खनियाधाना और उसके निकटवर्ती स्थानोंपर भी जैन कलाको बहुविध संरचना हुई, कलाके नव-नवीन रूपोंको उद्भावना हुई और कलाके क्षितिजपर नये आयाम प्रकाशमें आये। इस बातका समर्थन खनियाधानाके आसपास मिलनेवाली प्रचुर जैन पुरातन सामग्री और उसके भग्नावशेषोंसे सहज ही हो जाता है।
यहां ऐसे ही कुछ क्षेत्रोंका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। ये सब शिवपुरी जिलेमें हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ गूड़र
यह एक छोटा-सा गांव है।.. यह खनियाधानासे ८ कि. मी. दूर एक पहाड़ीकी तलहटीमें स्थित है। यहां कई खेतोंमें जैन प्रतिमाएं खण्डित दशामें पड़ी हुई हैं। कुछ प्रतिमाओंपर की गयी ओपदार पालिश विशेष दर्शनीय है। गांवके एक कुएंमें दो जैन प्रतिमाएं चिनी हुई हैं । कुएंको ध्यानपूर्वक देखनेसे ज्ञात होता है कि इस कुएंमें जो सामग्री प्रयुक्त की गयी है, वह किसी या किन्हीं प्राचीन जैन मन्दिरोंकी है।
यहाँपर पहाड़ीके ऊपर एक प्राचीन जैन मन्दिर बना हुआ है। इसके चारों ओर प्राचीन मन्दिरोंके भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। मन्दिरको दशा ठीक है। एक मन्दिर गांवमें है, जिसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १७१८ में हुई थी। मन्दिरके सामने वि. सं. १८१२ का बना हुआ मानस्तम्भ है। मन्दिरोंके अवशेषोंको देखकर ऐसा लगता है कि कभी यहाँपर जैनोंकी संख्या और दशा काफी अच्छी रही होगी किन्तु आजकल तो वहाँ केवल चार-पांच ही जैन गृहस्थ रहते हैं। गोलाकोट
__यह क्षेत्र गूडर ग्रामसे प्रायः ३ कि. मी. और खनियाधानासे ६ कि. मो. है। गूडर ग्रामसे आधा मील चलनेपर एक रमणीय सरोवर मिलता है। इस सरोवरमें एक बाँध द्वारा पानी दिया जाता है। गोलाकोट क्षेत्रका मार्ग बांधके ऊपर होकर ही जाता है। बांधका मार्ग समाप्त होते ही गोलाकोट पहाड़ी मिलती है। पहाड़ीका आकार गोल है, सम्भवतः इसीलिए इसका गोलाकोट नाम पड़ा है। तलहटीमें एक भव्य सरोवर है जिसके तटपर झाँकती हुई पहाड़ी और पहाड़ीके मार्गके दोनों ओर हरसिंगारके वृक्ष यात्रीके स्वागतमें पुष्प विकीर्ण करते हुए बड़े सुन्दर प्रतीत होते हैं।
_मार्ग पैदलका है। पहाड़ीपर चढ़ते ही कुछ दूरपर एक छतरी दिखाई पड़ती है। उससे । कुछ आगे मन्दिरको चहारदीवारी दीखने लगती है। यह चहारदीवारी या कोट लगभग ८०
फुटका है। कहीं-कहीं कोटकी दीवार गिर चुकी है। इस कोटके भीतर ही विशाल जैन मन्दिर बना हुआ है। यहाँपर ११९ मूर्तियाँ हैं। पहले यहाँपर १४५ मूर्तियां थीं। इन मूर्तियोंपर वि. संवत् १००० से १२०० तक अर्थात् ई. स. ९४३ से ११४३ तकके लेख मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये मूर्तियाँ और मन्दिर १०वीं शताब्दी या उससे पूर्व निर्मित हुए थे। असुरक्षित अवस्थामें रहनेके कारण मूर्तिभंजकों और कर्तकोंने कुछ मूर्तियाँ नष्ट कर दी।
यह क्षेत्र शिवपुरी जिलेमें है। पचराई
श्री दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र पचराई मध्यप्रदेशके शिवपुरो जिलेमें है। यह खनियाधानासे १६ कि. मी. है। सेण्ट्रल रेलवेके बसई स्टेशनसे यह स्थान खनियाधाना होकर ४८ कि. मी. पड़ता है। तथा कोटा-बीना लाइनपर टकनेरी स्टेशनसे ईसागढ़ होकर यह ५६ कि. मी. पड़ता है। ईसागढ़से यह कच्चे मार्गसे १७ कि. मी. है।
___यहाँके सभी मन्दिर एक परकोटेके अन्दर हैं। यहाँ कुल २८ मन्दिर हैं । परकोटेके दो भाग हैं। सभी मन्दिर शिखरबद्ध हैं। मुख्य मन्दिर भगवान् शीतलनाथका है। शीतलनाथकी मूर्तिकी अवगाहना १२ फुट है और वह खड्गासन है। यहाँकी मूर्तियोंमें एक मूर्ति, जो श्वेत पाषाणकी है, नवीन है और शेष सभी मूर्तियां प्राचीन हैं। इन सब मूर्तियोंपर चमकदार पालिश
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ की हुई है, जो अभी तक यथावत् है। कहते हैं, यह पालिश हीरेकी घोटसे की हुई है। यहां अधिकतम प्राचीन प्रतिमा ११वीं शताब्दीकी विद्यमान है। इससे स्पष्ट है कि यह क्षेत्र ११वीं शताब्दीसे अस्तित्वमें आया है। यहाँकी कुछ मूर्तियाँ खण्डित कर दी गयी हैं।
इन मन्दिरोंके पृष्ठ भागमें एक तालाब है। परकोटेके अन्दर एक धर्मशाला और एक कुआं है । परकोटेके आगे बहुत बड़ा मैदान है । पचराई गाँव यहाँसे आधा मील दूर है । इस गाँवमें कोई जैन नहीं है । यहाँसे २ कि. मी. पर पिपरौदा नामक गाँव है । वहाँ जैनोंके कुछ घर हैं।
यहाँ पहले प्रतिवर्ष माघ शुक्ला प्रतिपदासे पंचमी तक वार्षिक मेला लगता था। इस अवसरपर विमानोत्सव भी मनाया जाता था।
निकटवर्ती पुरातत्त्व-खनियाधानाके आसपास अनेक स्थानोंपर प्राचीन जैन मूर्तियों और मन्दिरोंके भग्नावशेष विपुल परिमाणमें उपलब्ध होते हैं। इन स्थानोंमें एक स्थान तुमैन है। प्राचीन कालमें इसका नाम सम्भवतः तुम्बवन था । ग्रीक इतिहासकार टोलेमी ( Ptolemy ) न थालोबन (Tholobana) का उल्लेख एक प्राचीन महत्त्वपूर्ण स्थानके रूपमें किया है। कनिंघमने इसकी पहचान बहुरीबन्दसे की है और लिखा है कि इस प्राचीन नगरके आसपास कई स्थानोंपर गुप्तकालके मन्दिर उपलब्ध होते हैं। किन्तु हमारी विनम्र मान्यता है कि टोलेमीका थोलोबन बहुरीबन्द नहीं है, बल्कि वर्तमान तुमैन है, जिसका कि प्राचीन नाम 'तुम्बवन' था। बहुरीबन्दमें गुप्तकालकी कोई सामग्री प्राप्त नहीं हुई, जबकि तुमैनमें गुप्त संवत् ११६ ( ई. सं. ४३५ ) का एक संस्कृत अभिलेख उपलब्ध हुआ है, जिसमें एक हिन्दू मन्दिरके निर्माणका उल्लेख है। यहाँपर जैन मन्दिरोंके अवशेष और खण्डित जैन मूर्तियाँ मिलती हैं जिनका निर्माण-काल ईसाकी पांचवीं शताब्दीसे लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक अनुमान किया जाता है। यहाँकी कई मूर्तियाँ गुप्तकालीन शैलीसे अधिक समानता रखती हैं। यहाँ एक विशाल पद्मासन जैन मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है, जिसे स्थानीय लोग 'बैठा देव' के नामसे पुकारते और पूजते हैं।
दूसरा गाँव है तेरही। यह स्थान महुआसे २ कि. मी. है और पचराई से ६ कि. मी. । यहाँ कुछ जैन मूर्तियाँ खेतोंमें पड़ी हुई हैं । छह फुट ऊंचा एक मानस्तम्भ भी यहाँपर है। पुरातत्त्व विभागकी ओरसे यहाँ एक संग्रहालय भी बना हुआ है । यहाँ १०वीं शताब्दीके दो मन्दिर भी बने हुए हैं। इनमें जो बड़ा मन्दिर है, वह गांवके बीचमें बना हुआ है तथा छोटा मन्दिर गाँवके बाहर है। इस मन्दिरके सामने, मन्दिरसे २० फुट दूर अत्यन्त अलंकृत तोरणद्वार बना हुआ है। यह २० फुट ऊँचा है और मन्दिरके समान चौड़ा है।
इसके पास ही दो अभिलिखित स्तम्भ पड़े हुए हैं। दोनोंपर ही विक्रमकी दसवीं शताब्दीके लेख अंकित हैं। एक स्तम्भके लेखानुसार वि. सं. ९१० भाद्रपद वदी ४ शनिवारको मधुवनके महासामन्ताधिपति श्री गुणराज उण्ड भटने श्री चण्डी मन्दिरको भेंट की। दूसरा लेख अस्पष्ट है । जो पढ़ा जा सका, उसके अनुसार वि. सं. ९२० भाद्रपद वदी १४ शनिवारको श्री रु ......भटने देवी अम्बिका भेंट की। यह स्तम्भ अम्बिका देवीके मन्दिरका होगा और सम्भवतः यह अम्बिका बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथको यक्षी होगी। यदि हमारा यह अनुमान सही हो तो कहना होगा कि १०वीं शताब्दीमें यहाँपर तीर्थंकर नेमिनाथका मन्दिर रहा होगा और उसमें उनकी यक्षी अम्बिकाकी भी मूर्ति होगी।
___इसी प्रकार निवोदा, देखो, महुआ, इन्दौर, सकरी, लखारी, सिमलार आदि कई निकटवर्ती स्थान हैं जहाँ जैन मूर्तियाँ मिलती हैं । निवोदा खनियाधानासे १३ कि. मी. है। यहां कुछ खण्डित जैन मूर्तियां पड़ी हुई हैं । देखो गाँव खनियाधानासे १९ कि. मी. है। यहां दो मूर्तियाँ पड़ी हुई हैं
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जो काट दी गयी हैं। महुआ पचराईसे ५ कि. मी. है। यहाँ खण्डित जैन मूर्तियां मिलती हैं। इन्दौर खनियाधानासे ३२ कि. मी. है। यहाँ मन्दिरोंके भग्नावशेष बहुत दूर तक बिखरे पड़े हैं। उनसे लगता है कि प्राचीन कालमें यहाँ अनेक जैन मन्दिर रहे होंगे। आसपासके गाँवोंके बहुत-से घरोंमें दीवारोंमें जैन मूर्तियाँ चिनी हुई हैं। यह भी सुनने में आया कि लगभग ३०-३५ वर्ष पहले यहाँसे कुछ लोग १२ लारियोंमें मूर्तियाँ भरकर ले गये थे। इसमें कहाँ तक सत्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता । इन्दौर एक छोटा-सा ग्राम है। .
___ सकर्रा इन्दौरसे ३ कि. मी. है। यहाँ ३ जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं तथा ४ जैन प्रतिमाएं भी हैं। खुले मैदानमें एक मानस्तम्भ अब तक सुरक्षित दशामें खड़ा है। लखारी गांव खनियाधानासे २९ कि. मी. दूर है। यहाँ कई मन्दिरोंके अवशेष बिखरे पड़े हैं तथा २५ जैन मूर्तियाँ इधर-उधर पड़ी हुई हैं। सिमलार खनियाधानासे लगभग २२ कि. मी. है और लखारीके मार्गमें पड़ता है । सन् १९६० में यहाँ एक किसानको हल चलाते समय भगवान् पार्श्वनाथकी सवा फुट ऊँची एक प्रतिमा मिली थी। जैनोंको जब ज्ञात हुआ तो वे आकर उसे विनयपूर्वक ले गये और खनियाधाना क्षेत्रपर विराजमान कर दिया जो अब भी वहाँ विद्यमान है। प्रतिमा सांगोपांग और अत्यन्त मनोज्ञ है।
बजरंगढ़
अवस्थिति
श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र बजरंगढ़ गुना मण्डलके मुख्यालय गुनासे ७ कि. मी. दक्षिण दिशाकी ओर है। यह क्षेत्र तो समतल भूमिपर अवस्थित है किन्तु चारों ओरकी पर्वतमालाओंके कारण यहाँका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त मनोहर और नयनाभिराम हो गया है । यहाँका सबसे बड़ा अतिशय यहाँपर विराजमान भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथकी कायोत्सर्ग मुद्रामें अवस्थित भव्य प्रतिमाएं हैं। इनकी प्रतिष्ठा जिनेन्द्रभक्त पाड़ाशाह द्वारा संवत् १२३६ में की गयी थी। इन प्रतिमाओंका अनिन्द्य कला-सौष्ठव, भावाभिव्यंजना और शिल्पविधान अनुपम है। इनके दर्शन करते ही मनमें आह्लाद, भक्ति और अध्यात्मकी पावन मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है। भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ तीनों ही चक्रवर्ती थे तथा मनुष्यको उपलभ्य सम्पूर्ण सम्पदाके स्वामी थे। तीनों ही कामदेव थे, उन्हें अनिन्द्य रूपछटा उपलब्ध थी। उनके अन्तःपुरमें ९६००० स्त्रियाँ थीं, मानो संसार-भरका समवेत रूप-सौन्दर्य वहीं एक स्थानपर आ जुटा हो। इस प्रकार उन्हें अनुपम रूप, भोगकी सामग्री और भोगकी शक्ति सब-कुछ प्राप्त थी। किन्तु संसारके इन भोगोंको क्षणिक जानकर उन्होंने संसारसे विराग ले लिया और आत्मकल्याणकी राहपर चल पड़े। उन्होंने निष्ठा, संकल्प और साधनाके द्वारा अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया और वे शुद्ध बुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा बन गये। इन तीनों विशाल प्रतिमाओंकी भावाभिव्यक्ति इन्हीं भावोंको लेकर हुई है। प्रतिमाओंकी मुखमुद्रा सौम्य और शान्त है। साथ ही उनके ऊपर विरागकी छवि स्पष्ट अंकित है। उनके मुखपर कामदेवकी रूप-माधुरी है। उनके शरीरमें लोकविजेताकी शक्ति है। इसी शक्तिसे उन्होंने कामदेवको भी विजित कर लिया था। इन्हीं भावोंका अंकन इन प्रतिमाओंपर हार है।
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प्रतिष्ठाकारक पाड़ाशाह
इन प्रतिमाओं के प्रतिष्ठाकारक श्री पाड़ाशाहके जीवनपर इतिहास- ग्रन्थों अथवा मूर्तिलेखोंसे विशेष कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। किंवदन्तियोंसे इतना ही ज्ञात होता है कि श्री पाड़ाशाह गहोई नामक वैश्य जातिके रत्न थे । वे चन्देरी परगने के थूबोन गाँवके रहनेवाले थे । जैन धर्म में उनकी अगाध आस्था थी । वे एक कुशल व्यापारी थे । अतः उनके ऊपर लक्ष्मीकी भी कृपा थी । इस मन्दिर और प्रतिमाओंके सम्बन्ध में एक किंवदन्ती बहुप्रचलित है कि पाड़ाशाह पाड़ों (भैंसों ) पर माल लादकर बनिज किया करते थे । सम्भवतः इसी कारण उनका नाम पाड़ाशाह पड़ गया । एक बार वे बजरंगढ़की ओर जा रहे थे । पठारपर उनका एक पाड़ा गुम हो गया। इससे श्री पाड़ाशाह बड़े परेशान हुए। वे पाड़ेकी खोज करते-करते पठारपर जा रहे थे, तभी उन्हें एक पारस पथरी मिली। पारस पथरी पाकर उनके मनमें धर्मं-भावना प्रबल हो उठी । उन्होंने मन्दिर और मूर्तियाँ निर्मित करके उनकी प्रतिष्ठा करनेका संकल्प किया और सबसे प्रथम बजरंगढ़में ही पाड़ाडीह नामक स्थानसे लगभग २ कि. मी. दक्षिणमें भगवान् शान्तिनाथके भव्य जिनालयका निर्माण कराया और उसमें इन तीनों तीर्थंकरोंकी विशाल प्रतिमाएँ फाल्गुन सुदी ६ विक्रम संवत् १२३६ को प्रतिष्ठित करायीं । पाड़ाशाह द्वारा निर्मित मन्दिर और मूर्तियाँ अन्य कई स्थानों पर भी हैं । उन्होंने जो भी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करायी हैं, वे प्रायः विशाल अवगाहनावाली हैं । उनके बनवाये हुए जिनालयोंकी ठीक संख्या तो ज्ञात नहीं है, किन्तु निम्नलिखित स्थानोंपर उनके द्वारा निर्मित जिनालय अब भी विद्यमान हैं - अहारजी, खानपुर, झालरापाटन, थूबोन, भियादाँत, बर्री, भामोन, सतना, सुम्मेका पहाड़, पचराई, सेरोनजी । प्रायः उन्होंने शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायीं। उनमें सर्वत्र मूलनायक भगवान् शान्तिनाथकी प्रतिमाको ही रखा। कहीं-कहीं तो उन्होंने अकेले शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा ही प्रतिष्ठित करायी । इससे ऐसा लगता है कि धर्मवत्सल पाड़ाशाहको यद्यपि सभी तीर्थंकरों के प्रति अगाध श्रद्धा थी, किन्तु शान्तिनाथ भगवान् के प्रति उनका विशेष आकर्षण था । सम्भवतः शान्तिनाथ भगवान् के दर्शन, पूजन और नाम स्मरणसे उन्हें अपेक्षाकृत अधिक शान्ति प्राप्त होती थी ।
इन तीन तीर्थंकरोंकी जितनी भी प्रतिमाएँ उन्होंने प्रतिष्ठित करायीं, वे सभी हलके लाल पाषाण अथवा कत्थई वर्णकी हैं । किन्तु माणिक्यकी बनी हुई सत्रह इंच ऊँची पद्मप्रभु तीर्थंकरकी प्रतिमा भी उनके द्वारा प्रतिष्ठित हुई मिलती है जो बूढ़ी चन्देरीके जंगलमें बहनेवाली नदीके किनारे बीठलीके जैन मन्दिरमें अब तक विराजमान है ।
क्षेत्र-दर्शन
गुनासे आरोन जानेवाली सड़क के किनारे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बजरंगढ़ स्थित है । मन्दिरके सामने मैदान है जो चहारदीवारीसे घिरा हुआ है । मैदानमें १५ फुट ऊँची चौकीपर मन्दिरका पूर्वाभिमुखी प्रवेशद्वार है । द्वारपर भव्य छतरी बनी हुई है । प्रवेशद्वारपर ही क्षेत्रका कार्यालय बना हुआ है । द्वार में प्रवेश करनेपर सामने ही एक चबूतरेपर वेदी बनी हुई है । उसके बिलकुल पीछे मुख्य गर्भगृह है जिसमें मूलनायक शान्तिनाथ विराजमान हैं। गर्भगृह साधारण है । उसमें १० सीढ़ियाँ उतरकर जाना पड़ता है । सामने दीवार के सहारे भगवान् शान्तिनाथकी मूलनायक विशालकाय प्रतिमा कायोत्सर्गासन में विराजमान है। मूर्तिको अवगाहना १४ फुट ६ इंच है तथा पीठासनसहित इसका आकार १८ फुट है। इसके दायीं और बायीं ओर क्रमशः
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कुन्थुनाथ और अरहनाथको मूर्तियाँ हैं। ये दोनों ही खड्गासन हैं। इनकी अवगाहना १० फुट ९ इंच तथा पीठासनसहित १७ फुट है।
शान्तिनाथ भगवान्के पीठासनपर मूर्तिका प्रतिष्ठा-काल संवत् १२३६ फाल्गुन सुदी ६ उत्कीर्ण है। तीनों ही प्रतिमाओंपर धुंघराले कुन्तल हैं। मुद्रा ध्यानमग्न है। अर्धोन्मीलित नयन, स्कन्धचुम्बी कर्ण, गोलाकार मुख, पतले होंठोंपर विरागरंजित स्मिति, चौड़ा वक्षस्थल और उसके मध्यमें श्रीवत्स लांछन, क्षीण कटिभाग इन प्रतिमाओंका वैशिष्ट्य है। मुखपर तेज, लावण्य और शान्ति है। प्रतिमाओंके हाथ जंघोंसे मिले हुए नहीं हैं, पृथक् हैं, हाथोंपर कमल भी नहीं हैं, जैसे परवर्ती कालको ग्वालियर दुर्ग, पनिहार-बरई, सोनागिरि आदिकी विशाल मूर्तियोंमें उपलब्ध होते हैं । इन स्थानोंकी मूर्तियोंके हाथोंकी हथेलियोंपर अलगसे कमल बने हुए मिलते हैं। तीनों ही प्रतिमाओंकी भुजाएँ जानुपर्यन्त भी नहीं हैं, जैसा कि प्रायः खड्गासन तीर्थंकर-मूर्तियोंमें मिलती हैं। प्रतिष्ठा-शास्त्रोंमें तीर्थंकरोंको आजानुबाहु कहा गया है और उनकी मूर्तियां भी वैसी ही निर्मित करनेका विधान है। किन्तु अनेक तीर्थंकर-प्रतिमाओंकी भुजाएं घुटनोंसे ऊपर ही तक बनी हुई देखी जाती हैं। ११-१२वीं शताब्दीमें बनी हुई अनेक प्रतिमाओंमें प्रतिष्ठा-शास्त्रोंके उक्त नियमका पालन पूर्णतः नहीं हो पाया। अस्तु ।
तीनों प्रतिमाओंके हाथोंसे नीचे पृथक-पृथक् सौधर्मेन्द्र और उनकी शची हाथोंमें चमर लिये हुए खड़े हैं । इन्द्र और इन्द्राणी दोनों विविध अलंकार धारण किये हुए हैं। तीनों प्रतिमाओंके पीठासनोंपर उनके चिह्न हरिण, छाग और मत्स्य बने हुए हैं। इन प्रतिमाओंके अभिषेकके लिए दोनों ओर दीवारोंके सहारे सीढ़ियां बनी हुई हैं।
दोनों ओरकी दीवारोंमें पांच पैनल बने हुए हैं-दायीं ओरकी दीवारमें दो और बायीं ओरकी दीवारमें तीन । दायीं ओरकी दोवारके पहले पैनलकी चौड़ाई ५७ इंच और ऊँचाई ४० इंच है। इसके मध्यमें पार्श्वनाथकी मूर्ति है, जिसके नीचे सर्प लांछन बना हुआ है। मूर्तिके दोनों ओर स्तम्भ तथा चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। पैनलमें वाम पार्श्वमें ऋषभदेव और दक्षिण पार्श्वमें नेमिनाथकी मूर्तियां हैं, जिनके नीचे क्रमशः गोमुख, यक्ष और शंख बने हुए हैं जिनसे उनकी पहचान हो सकती है।
दायीं ओरकी दीवारके दूसरे पैनलमें भगवान् अजितनाथकी खड्गासन मूर्ति है। मूर्तिके नीचे दो हाथी और उनके मध्यमें अजितनाथका यक्ष महायक्ष बना हुआ है। उनके नीचे दोनों
ओर दो-दो सिंह और मध्यमें भगवान्की यक्षिणी रोहिणी बनी हुई है। इस पैनलकी चौड़ाई ५७ इंच और ऊँचाई २४ इंच है।
बायीं ओरकी दीवारमें एक पैनलमें खड्गासन अजितनाथकी मूर्ति बनी हुई है। उसके नीचे दो गज और मध्यमें यक्ष है । उसके नीचे दो-दो हाथी और उनके मध्यमें यक्षी बनी हुई है।
__एक अन्य पैनलमें चार खड्गासन मूर्तियां हैं। दोनों ओर चौबीस खड्गासन तीर्थकर मूर्तियाँ और दो स्तम्भ हैं। नीचे सिद्धायिका यक्षी ( महावीरकी यक्षी ) बनी हुई है। इस पैनलकी चौड़ाई ५७ इंच तथा ऊँचाई ४२ इंच है।
तीसरा पैनल दायीं ओरकी दीवारके पैनलके समानान्तर बना हुआ है।
दायीं ओरकी दीवारके एक पैनलमें पढ़े गये लेखके अनुसार ये सभी मूर्तियां बड़ी मूर्तियोंके समय ही अर्थात् संवत् १२३६ में प्रतिष्ठित की गयी थीं। इस गर्भगृहके ऊपर शिखर बना हुआ है।
मूल वेदोके पीछे पाँच वेदियाँ बनी हुई हैं। बायीं ओरकी वेदीमें मूलनायकके अतिरिक्त कुछ प्राचीन मूर्तियाँ एक चबूतरेनुमा वेदीपर विराजमान हैं, जिनमें संवत् १०७५, ११५५, १२२५,
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ १३१२, १३२०, १३२१, १३२९ की भी मूर्तियां सम्मिलित हैं। इस प्रकार दायीं ओरकी चतुर्थ वेदोपर पाषाणनिर्मित कृष्णवर्णकी द्वाराकृतिमें २४ तीर्थकर मूर्तियां बनी हुई हैं। यह द्वाराकृति ५८ इंच ऊंची है। द्वाराकृतिके मध्य ललाटपर छत्रत्रयी सुशोभित है। द्वाराकृतिके खुले हुए मध्यभागमें भगवान् नेमिनाथकी कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। इसकी अवगाहना २१ इंच है तथा यह संवत् १२५० में प्रतिष्ठित हुई थी। पहले इसके स्थानपर इस चौबीसीके साथ भगवान् ऋषभदेवकी खड्गासन मूर्ति विराजमान थी। यह संवत् १९०३ में प्रतिष्ठित की गयी थी। किन्तु संवत् १९४३ में आततायियोंने इस मूर्तिको खण्डित कर दिया। इस दुर्घटनामें गुफामें स्थित मूर्तियोंको भी क्षति पहुंची थी। इस काण्डके परिणामस्वरूप विमान निकालनेमें भी बाधा पड़ गयी थी। तब पारस्परिक सहमति और बोर्ड ( तत्कालीन रियासती बोर्ड) से विमान निकालनेकी आज्ञा प्राप्त हुई। ऋषभदेवकी खण्डित मूर्ति जलमें प्रवाहित कर दी गयी और उसके स्थानपर भगवान् नेमिनाथकी प्राचीन मूर्ति प्रतिष्ठित कर दी गयी।
___इसी पंक्तिमें अन्तिम वेदीपर पाषाणनिर्मित कृष्णवर्ण भगवान पार्श्वनाथकी भव्य मति विराजमान है। मूलनायक मूर्तिके साथ अन्य मूर्तियां भी वेदीपर विराजमान हैं जो क्रमशः संवत् १५४८, १२०८ और १३२४ को प्रतिष्ठित हैं। मूलनायक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा सं. १९४९ फाल्गुन शुक्ल ५ है। मूर्तिके सिरपर सपं अपने ग्यारहमुखी फणों द्वारा आभा विकीर्ण कर रहा है। इस वेदोपर कांचका कार्य कलात्मक रीतिसे किया गया है। जिसके कारण इस वेदीको 'चतुरानवाली वेदी' कहकर पुकारा जाता है।
इन तीनों वेदियोंके अतिरिक्त शेष दो वेदियोंमें से एक वेदीकी प्रतिष्ठा संवत् १९४३ में हुई व दूसरी श्वेत संगमरमरकी छह फुट अवगाहनावाली बाहुबली स्वामीकी खड्गासन प्रतिमा विक्रम संवत् २०२५ में श्री महावीरजी के पंचकल्याणक महोत्सवमें प्रतिष्ठित कराके यहाँ प्रतिष्ठित की गयी।
इस मन्दिरको दीवारोंपर कुशल चित्रकारों द्वारा पौराणिक आख्यान आलेखित किये गये हैं। वे बोधप्रद तो हैं ही, चित्रकलाकी दृष्टिसे दर्शनीय भी हैं। छतके ऊपर मुख्य शिखरके निकट एक स्तम्भपर एक शिलालेख है, किन्तु उसका आशय अभी तक दुर्बोध बना हुआ है। शिलालेखमें शान्तिनाथको मूर्ति बनी हुई है तथा प्रारम्भमें शान्तिनाथका नामोल्लेख भी है किन्तु लेख अशुद्ध होनेके कारण उसे समझने में कठिनाई है।
___इस मन्दिरका फर्श और बाहरी सीढ़ियां आदि मकरानेकी हैं। इसका शिखर भूमितलसे ९० फीट ऊंचा है। ----
इस मन्दिरके अतिरिक्त बजरंगढ़ नगरमें दो मन्दिर और हैं। दूसरा मन्दिर क्षेत्रसे कुछ ही दूर बाजारके समीप मुख्य रास्तेपर स्थित है। इस मन्दिरको प्रतिष्ठा संवत् १९४९ में हुई थी। इस मन्दिरमें विराजमान प्रायः सभी मूर्तियां इसी उत्सवमें प्रतिष्ठित हुई थी। इसमें मूलनायकके रूपमें भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। क्षेत्र-मन्दिरके समान इस मन्दिरका भी बाहरी भाग तथा इसके शिखर अत्यन्त समुन्नत और भव्य हैं। कहा जाता है कि इस मन्दिरका निर्माण सेठ झोलूशाहने कराया था।
इस मन्दिरके पृष्ठ भागमें धर्मशाला बनी हुई है। इसमें १४ कमरे, कुआं, विशाल सहन आदि बने हुए हैं। कहते हैं, पहले इस नगरमें जैनोंकी संख्या विशाल थी। उस कालमें सभी धार्मिक और सामाजिक आयोजन इसी स्थानपर होते थे। किन्तु समय परिवर्तनशील है। व्यापार आदिके कारण यहाँके अधिकांश जैन अन्य नगरों में चले गये, यहाँ तो अब कुछ ही जैन
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परिवार रह गये हैं । क्षेत्रपर आनेवाले यात्री भी प्रायः गुना शहरमें ही ठहर जाते हैं। इन सब कारणोंसे मन्दिर और धर्मशाला में पहले जैसी रोनक नहीं रह गयी । धर्मशाला में यात्रियोंके लिए पूर्ण सुविधाएँ हैं। इसमें समय- समयपर आदर्श विवाह और गोट होती रहती है ।
इस नगरका तीसरा जिनालय नगरके बाह्य अंचलमें चोपेट नदीके किनारेपर अवस्थित है । इस मन्दिरको 'रकावाला मन्दिर' कहा जाता है। इसका निर्माण संवत् १९८० में सेठ हरिचन्द्रने कराया था। सुरक्षा आदिकी दृष्टिसे इस मन्दिर की सभी मूर्तियाँ क्षेत्र - मन्दिर में ले जाकर प्रतिष्ठित कर दी गयी हैं। अब इस जिनालयका उपयोग संग्रहालयके रूपमें किया जा रहा है । यहाँ आसपाससे उपलब्ध खण्डित मूर्तियाँ सुरक्षित रखी जा रही हैं ।
इस मन्दिर निर्माण सम्बन्धमें बड़ी अद्भुत और रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। इस मन्दिर के निर्माता सेठ हरिचन्द्र बड़े सम्मान्य और सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय इस नगरपर खीची राजवंशके नरेश जयसिंहका शासन था। एक बार सेठजीने राजाको अपने घरपर आमन्त्रित किया । राजाके प्रति अपनी निष्ठा और सम्मान प्रकट करनेके लिए सेठजीने राजमहलसे लेकर अपने निवास तक चाँदीके पत्रोंका बिछावा बिछवा दिया तथा राजाको स्वर्ण पात्रोंमें भोजन कराया । इस सम्मान से सेठजीपर राजाको मुग्ध होते देख दरबारियोंने ईर्ष्यावश राजाके कान भरे कि 'सेठजी ने आपको नीचा दिखाने और दुनियामें अपना वैभव प्रदर्शित करनेका प्रयत्न किया है। इस तरह आपकी अवज्ञा करके सेठने घोर अपराध किया है। इसका प्रतिकार होना आवश्यक है, अन्यथा राज्य में राज-मर्यादा स्थिर नहीं रह सकेगी ।'
राजा उन मत्सरी व्यक्तियोंकी बातोंमें आ गया। उसने राजापमानके अभियोगमें सेठजीको बन्दी बनाकर कारागारमें डाल दिया तथा उनके समस्त स्वर्ण और रजत पात्रों एवं अन्य सामग्रीको जब्त करके राजकोष में जमा करा दिया। समस्त जनताको राजाके इस व्यवहारको देखकर बड़ा आश्चर्य एवं क्षोभ हुआ। उधर सेठजीने प्रतिज्ञा की कि वे बिना देव दर्शन किये भोजन नहीं करेंगे तथा कारावाससे मुक्त होते ही जिनालय बनवायेंगे ।
दूसरे दिन ऐसा चमत्कार हुआ कि राजाने सेठजीको कारावाससे स्वयं ही मुक्त कर दिया, किन्तु एक शर्त के साथ कि बन्दी अपने घरपर केवल पीतलकी धातुका ही उपयोग कर सकेगा । सेठजी कारावाससे मुक्त होकर अपनी प्रतिज्ञापूर्ति में जुट गये और पीतल बेच - बेचकर इस जिनालय - का निर्माण किया ।
अतिशय
इस क्षेत्रपर होनेवाले नाना प्रकारके अतिशय जनता में किंवदन्तियोंके रूपमें प्रचलित हैं । दशलक्षण पर्वके दिनों में भगवान् शान्तिनाथका पूजन करने देवगण यहाँ आते हैं । उनके भक्तिमय संगीत और वाद्योंकी मधुर ध्वनि निकटवर्ती अनेक निवासियोंने मध्य रात्रिमें सुनी है ।
सं. १९४३ में जबकि ग्राममें पालकी निकल रही थी, सुनसान मन्दिर जानकर कुछ आततायियोंने मन्दिर में प्रवेश कर गर्भगृहस्थित मूर्तियोंको क्षति पहुँचानेका दुस्साहस किया तो तत्काल अग्निवर्षा होने लगी और आततायी प्राण बचाकर भाग गये ।
एक बार संवत् १९६१-६२ की बात है। क्षेत्रका बागवान भागचन्द मन्दिरकी सफाई तथा अपने कार्यसे थककर मन्दिरके अन्दर ही लेट गया । लेटते ही उसे निद्रा आ गयी। रात्रिमें देवोंने उसे मन्दिरके अन्दरसे उठाकर बाहर लाकर सुला दिया।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ अनेक जैन और जैनेतर व्यक्ति मनमें कामनाएँ लेकर यहां आते हैं। शान्तिनाथकी भक्तिसे उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं-भगवान्ने उनकी सुन ली। दूसरे कहते हैं-भगवान्के सेवक देव लोग भक्तोंकी कामनाएँ पूर्ण करके अपने आराध्य प्रभुका माहात्म्य-विस्तार करते हैं। दोनों ही बातोंमें सत्यांश है। भगवान् शान्तिनाथकी मूर्तिको देखकर जिनकी दृष्टि भगवान्की वीतरागता और शुद्ध परिणतिसे आत्माके शुद्ध स्वरूपकी ओर जाती है, उन्हें आत्म-शुद्धि प्राप्त होती है। जिनकी परिणति तीर्थंकर भगवान्की निर्मल भक्ति द्वारा शुभोपयोगमय हो जाती है, उन्हें शुभोदयके कारण अपनी सांसारिक कामनाओंकी पूर्ति होती है। कितना बड़ा चमत्कार है यह भगवान्का ! यहाँ आध्यात्मिक शान्ति भी मिलती है और लौकिक इच्छाओंकी भी पूर्ति होती है। वस्तुतः भगवान् या देव तो निमित्त मात्र हैं। फल अपनी भावनाओंसे मिलता है। अतिशय भगवान्का कहलाता है क्योंकि भक्तोंकी भावनामें जो तात्कालिक शुद्धता अथवा शुभरागता आयो, उसमें भगवान् उस समय निमित्त कारण हैं।
इस दृष्टिसे इस क्षेत्रपर कब कितने अतिशय हुए, उनका लेखा-जोखा रखना क्या सम्भव है ? क्षेत्रकी एकान्त शान्ति, वीतराग भगवान्का सान्निध्य और भक्तिपूर्ण वातावरण इन सबने मिलकर भक्तोंके मनमें अतिशयोंकी आस्था उत्पन्न कर दी है, जिसके कारण यहाँ आते ही मनकी भावनामें अद्भुत परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है और सोचा हुआ कार्य पूर्ण हो जाता है। इतिहास
___ इस नगरने इतिहासके अनेक उत्थान-पतन और राजनीतिकी अनेक उथल-पुथल देखी हैं । इतिहासमें इस नगरके कई नाम प्राप्त होते हैं-जैसे मूसागढ़, झरखोन, सारखोन, बजरंगढ़, जैनागर, जयनगर। इन नामोंका अपना-अपना एक इतिहास भी है। इतिहास-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि लगभग १००० वर्ष पूर्व इस नगरका नाम मूसागढ़ था। उस समय किले में छोटी-सी बस्ती थी। किलेपर वैरगढ़ियोंका शासन था। एक बार झिरवार रघुवंशियोंने किलेपर आक्रमण कर दिया। युद्धमें वैरगढ़िये हार गये। किलेपर झिरवारोंका आधिपत्य हो गया। नगरका नाम बदलकर झरखोन हुआ और वह फिर बदलते-बदलते सारखोन हो गया। कुछ समय पश्चात् पुनः वैरगढ़ियोंने नगरपर अधिकार कर लिया। पर नगरका नाम सारखोन ही चलता रहा।
सारखोनके निकटवर्ती राघोगढ और उसके आसपासके प्रदेशपर उस समय चौहानवंशी खीची राजपूतोंका राज्य था। ये चौहान खिलचीपुरके निवासी होनेके कारण खीची कहलाते थे। इस वंशके राजा धीरजसिंह उस समय शासन कर रहे थे। धीरजसिंह महत्त्वाकांक्षी शासक थे। उस समय इस प्रदेशमें मुगल सल्तनत विच्छृखल हो रही थी। सारा मालव प्रदेश छोटे-छोटे राज्योंमें बँट गया था। ऐसी अव्यवस्थाके समय धीरजसिंहने सारखोन पर आक्रमण कर दिया और वैरगढ़ियोंको पराजित कर दिया। किन्तु खीची चौहानोंका यह विजयोल्लास शीघ्र ही पराजयके विषादमें डूब गया। जब गढ़ीमें विजयोल्लास मनाया जा रहा था और महाराज धीरजसिंह इसमें सम्मिलित होने जा रहे थे, अकस्मात् एक वैरगढ़ियेने महाराजके ऊपर आक्रमण कर दिया और उनकी हत्या कर दी। इसके पश्चात् वैरगढ़ियोंने पुनः गढ़ीपर अधिकार कर लिया। खीची चौहान खीचीवाड़ा (राघोगढ़ और उसका निकटवर्ती प्रदेश) पर शासन करते रहे । महाराज धीरजसिंहकी हत्याकी घटना १८वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें घटित हुई थी। किन्तु इसी शताब्दीके उत्तरार्धमें धीरजसिंहके प्रपौत्र बलवन्तसिंहने इस नगरपर आक्रमण करके वैरगढ़ियोंको मार भगाया और इस प्रकार अपने प्रपितामहकी हत्याका प्रतिशोध लिया। उसने नगरका नाम-परिवर्तन करके बजरंगढ़ कर
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दिया। उसने नवीन किला बनवाया। उसके पश्चात् उसके पुत्र जयसिंहने किलेका निचला भाग बनाया और उसका नाम जैनागर रखा। इसको जयनगर भी कहते थे। उस समय इस नगर में लगभग दो सौ घर जैनोंके थे । राज्यमें जैनोंका बड़ा सम्मान और प्रभाव था। - संवत् १८७२ में इस नगरपर ग्वालियरके सिन्धिया नरेशके सेनापति सर जॉन वैप्टिसने
करक उस ग्वालियर राज्यमें सम्मिलित कर लिया। स्वतन्त्रताके पश्चात देशी रियासतोंके भारतमें विलय होनेपर बजरंगढ़ मध्यप्रदेशके गुना जिलेके अन्तर्गत आ गया।
___ बजरंगढ़ आज भी है, उसके किले, महल आदि भी हैं, किन्तु बिलकुल श्रीहीन। नगरकी चहल-पहल और रौनक भी नहीं रही। जैन लोग भी प्रायः गुना आदि बड़े शहरोंमें जा बसे। किन्तु श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र नगरमें मस्तकपर लगे हुए सौभाग्य-बिन्दुकी तरह अब भी आकाशमें जयध्वज लहराता हुआ खड़ा है। उसके आकाशचुम्बी श्वेत शिखरोंपर स्वर्णकलश सूर्यको खिलती धूपमें अब भी अपना तेज चारों ओर विकीर्ण कर रहे हैं। सृष्टि परिवर्तनशील है, किन्तु भगवान् शान्तिनाथके चरणोंमें लोटा हुआ बजरंगढ़ सदा जीवित है। शान्तिके अधिष्ठाता महाप्रभुका आशीर्वाद जो उसे प्राप्त है।
मार्ग
__ श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र बजरंगढ़ जानेके लिए पश्चिमी रेलवे लाइनके कोटा-बीना रेल-मार्ग द्वारा गुना आ सकते हैं। बस मार्गसे आगरा-बम्बई सड़कपर अथवा इन्दौरग्वालियर सड़कपर गुना पड़ता है। बजरंगढ़ गुना-आरौन मार्गपर गुनासे सात कि. मी. दूर है । यह क्षेत्र सड़कके निकट ही है। बजरंगढ़में यात्री प्रमुख मन्दिर बाजारके जैन मन्दिरकी धर्मशालामें ठहर सकते हैं । अथवा गुनामें ठहरकर वहाँसे लोकल बसों द्वारा या ताँगों द्वारा बजरंगढ़ क्षेत्रकी
यात्रा कर सकते हैं। गुना जिलेका मुख्यालय है और अच्छा शहर है। यहाँ एक जैन धर्मशाला । और दो जैन मन्दिर हैं । गुनासे बजरंगढ़के लिए सुबहसे शाम तक लोकल बसें चलती रहती हैं। व्यवस्था
क्षेत्रको व्यवस्थाके लिए एक प्रबन्ध समिति बनी हुई है, जिसमें गुना और बजरंगढ़के सदस्य हैं।
थूवौन अतिशय क्षेत्र
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र थूवीन मध्यप्रदेशके ग्वालियर संभागमें गुना जिलेके अन्तर्गत तहसील मुंगावलीमें पार्वत्य प्रदेशमें अवस्थित है। यह अतिशय-क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध है। यहाँपर देवकृत अतिशयोंकी अनेक घटनाएँ किंवदन्तीके रूपमें प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि सेठ पाडाशाहका रांगा यहाँ आकर चांदी हो गया था। पाड़ाशाहको लेकर इस प्रकारकी न जाने कितनी किंवदन्तियाँ विभिन्न क्षेत्रोंपर प्रचलित हैं। बजरंगढ़में उन्हें एक पारसमणि मिली थी, जिससे वे सोना बनाकर मन्दिर बनवाया करते थे। अहारजीमें एक शिलापर राँगा उतारनेपर वह सारा राँगा चाँदी हो गया। थूवौनमें भी उनका रांगा चांदी हो गया और भी न जाने किन-किन क्षेत्रोंपर
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ उनका राँगा चाँदी हुआ हो। आधुनिक समीक्षकोंका विचार है कि पाड़ाशाह राँगाके बहुत बड़े व्यापारी थे। उनके पास रांगाका बहुत बड़ा स्टाक था। परिस्थितिवश राँगा महंगा हो गया। इससे सेठ पाड़ाशाहकी चांदी हो गयी और उस मुनाफेके धनसे उन्होंने खलारा, बल्हारपुर, सुखाहा, भामौन, सुमेका पहाड़, शेषई, राई, पनवाड़ा, आमेट, दूवकुण्ड, थूवीन, आरा ( अगरा ), पचराई, गोलाकोट, सोनागिर, अहार, बजरंगढ़ आदि अनेक स्थानोंपर जैन मन्दिर बनवाये और उनकी धर्मपत्नीने-जो वैष्णव धर्मकी अनुयायी थी-वैष्णव मन्दिर बनवाये।
वास्तवमें इस क्षेत्रका अतिशय यह नहीं है कि यहां किसी व्यक्तिविशेषका रांगा चांदी हो गया, वरन् क्षेत्रका अतिशय यह है कि यहाँ जो व्यक्ति भक्तिवश दर्शनार्थ आता है, उसके मानसपर यहाँको एकान्त शान्ति, पवित्र वातावरण और भगवान् जिनेन्द्रदेवको वीतराग मूर्तियोंका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह कुछ कालके लिए सांसारिक चिन्ताओंसे मुक्त होकर आत्मिक शान्ति और आह्लादका अनुभव करने लगता है। इस शान्ति और आह्लादको पानेके लिए यहाँ देवगण भी आते हैं और यहां आकर वे भाव-भक्तिसे वीतराग प्रभुके दर्शन, वन्दन और पूजन करते हैं।
किन्तु साधारण जनोंके मनमें चमत्कारों और अतिशयोंके माध्यमसे भगवान्की भक्तिका अंकुरारोपण होता है। वे ऐसे चमत्कारों और अतिशयोंसे ही अतिशय प्रभावित होते हैं। इसलिए उनकी सन्तुष्टिके लिए यहाँ ऐसी कुछ घटनाओंका उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो किंवदन्तियोंके रूपमें इस प्रदेशमें बहुप्रचलित हैं
-एक बार आततायियोंने इस क्षेत्रपर आक्रमण किया। वे जब-मूर्तिभंजन करनेके लिए आगे बढ़े तो उन्हें मूर्ति ही दिखाई नहीं दी। तब वे लोग मन्दिरको ही क्षति पहुँचाकर वापस चले गये।
-मन्दिर नं. १५ में भगवान् आदिनाथकी ३० फुट ऊंची प्रतिमाको खड़ा करना था। सभी सम्भव प्रयत्न किये गये किन्तु सफलता प्राप्त नहीं हुई। तब प्रतिष्ठाकारक आये और मूर्तिके समक्ष बैठ गये। उन्होंने भगवान्की स्तुति करते हुए कहा-"प्रभो ! क्या इसी प्रकार उपहास और लोकनिन्दा होती रहेगी!" यह कहकर भक्तिकी उमंगसे उन्होंने 'भगवान् ऋषभदेवकी जय' बोलकर मूर्तिको उठानेका प्रयत्न किया और सबने आश्चर्यके साथ देखा कि मूर्ति सुगमतासे उठ गयी है।
-क्षेत्रके चारों ओर भयानक जंगल है। पहले इसमें सिंहादि क्रूर जानवर भी रहते थे। क्षेत्रके आसपास और क्षेत्रपर पशु चरते-फिरते रहते थे, किन्तु कभी किसी पशुपर कोई बाधा आयी हो, ऐसा सुननेमें नहीं आया।
-भगवान् आदिनाथ-मन्दिर ( क्रम संख्या १५) में फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिककी अष्टाह्निका तथा पyषण-पर्वमें अर्धरात्रिमें देवोंके पूजनकी मधुर ध्वनि और वाद्य-यन्त्रोंके मधुर स्वर सुनाई पड़ते हैं।
-अनेक ग्रामीण लोग पुत्रकी कामना लेकर या अपने पशुओंके खो जानेपर यहां आकर आदिनाथ भगवान्के आगे मनौती मानते हैं और मनोकामना पूर्ण होनेपर भगवान्के चरणोंमें श्रीफल भेंट करते रहे हैं। क्षेत्रका प्राकृतिक सौन्दर्य
वेत्रवती ( वेतवा ) की एक सहायक नदी उर्वशी ( उर ) से एक कि. मी. दूर एक सपाट - चट्टानपर मन्दिर है । मन्दिरके उत्तरकी ओर एक छोटी-सी नदी लीलावती (लीला) है । इस प्रकार
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इन युगल सरिताओंके मध्य स्थित क्षेत्रको प्राकृतिक सुषमा अवर्णनीय है । ये नदियां कलकल ध्वनि करती हुई पर्वत-शिलाओंसे टकराती, उछलती, मचलती, बहती अत्यन्त लुभावनी लगती हैं । एक ओर पर्वतमालाएँ, उनपर छितराये हुए सघन वनकी हरीतिमा और उसके बीच सिर उठाकर झांकते हुए जिनालयोंके उत्तुंग शिखर तथा उनके शीर्षपर फहराती हुई धर्म-ध्वजाएँ-ये सब मिलकर इस सारे अंचलको, सारे वातावरणको एक स्वप्नलोक-सा बना देते हैं। और भक्त-हृदय आध्यात्मिक साधनाके उपयुक्त इस प्रशान्त पावन लोकमें आकर सारे भौतिक अवसादोंको भूल जाता है। उसका मन अध्यात्मको रंगोनियोम डूब जाता है। क्षेत्रके नामकी व्युत्पत्ति
जिस प्रकार बौद्ध साहित्यमें 'तुम्बवन' का नाम आता है जो अब 'तूमैन' कहलाता है, उसी प्रकार प्राचीन कालमें इस क्षेत्रका नाम 'तपोवन' रहा होगा। तपोवन शब्द विकृत होकर 'थोवन' हो गया। कुछ लोग इसे थूवौन भी कहते हैं। क्षेत्र-दर्शन
क्षेत्रपर मन्दिरोंकी कुल संख्या २५ है । दर्शनार्थियोंकी सुविधाके लिए मन्दिरोंपर जो क्रमांक लिखे हुए हैं, उनके अनुसार इन मन्दिरोंका विवरण इस प्रकार है
चन्देरी-अशोकनगर सड़कके किनारे ही क्षेत्र अवस्थित है। बस क्षेत्रके प्रवेशद्वारपर रुकती है। प्रवेशद्वारमें प्रवेश करते ही क्षेत्रका कार्यालय है। यह धर्मशाला है। इसमें कुल २६ कमरे हैं। धर्मशालामें बिजलीकी व्यवस्था है। जलके लिए कुआँ है। इस धर्मशालासे मिली हुई एक पुरानी और कच्ची धर्मशाला है । इसमें कमरोंके ऊपर खपरैल पड़ी हुई है।
धर्मशालाके पृष्ठभागमें मन्दिरों तक जानेका मार्ग है।
मन्दिर नं. १. पार्श्वनाथ जिनालय-इसमें भगवान् पाश्वनाथकी मूलनायक प्रतिमा लगभग १५ फुट ऊँची खड्गासन है । निकटवर्ती थूवौन ग्रामके निवासी लछमन मोदी और पंचम सिंघईने संवत् १८६४ में वैशाख शुक्ला पूर्णमासीके दिन इसकी प्रतिष्ठा करायी। मूलनायकके दोनों
ओर दो खड्गासन और उनसे नीचे दो पद्मासन प्रतिमाएं हैं तथा मन्दिरके ऊपर तीन शिखर बने हुए हैं, जिनमें तीन मूर्तियां विराजमान हैं। मूलनायकके सिरके ऊपर सर्पफण-मण्डप बना है। इसमें फणावली पृथक्-पृथक् सोके द्वारा अति कलापूर्ण ढंगसे बनायी गयी है। ये सर्प प्रतिमाके कन्धोंके दोनों पावों में स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। प्रतिमाके चरणोंके दोनों पार्यो में चमरेन्द्र खडे हैं। गर्भगृहका आकार ११ फुट ३ इंच ४१० फुट १० इंच है।
२. पाश्र्वनाथ जिनालय-इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी कायोत्सर्गासनमें मूलनायक प्रतिमा है। इसकी अवगाहना १२ फुट है। इसके दोनों ओर दो खड्गासन और दो पद्मासन बिम्ब हैं । इस मन्दिरका निर्माण थूवौननिवासी श्री खुशालराय मोदीने कराया और संवत् १८६९ में माघ शुक्ला त्रयोदशीको प्रतिष्ठा करायी । गर्भगृहका आकार ११ फुट २ इंच x १० फुट १० इंच है।
३. नेमिनाथ जिनालय-इसमें मूलनायक भगवान् नेमिनाथकी खड्गासन मूर्ति विराजमान है। यह पांच फुट ऊँची है। मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है। छत्रके बगल में दो पद्मासन बिम्ब बने हुए हैं। मूलनायककी नाक, हाथकी अंगुली और छोटी मूर्तियोंके मुख खण्डित हैं। मन्दिरके निर्माता मोहरी ग्रामनिवासी कल्ले सिंघई थे जिनके वंशज अभी पिपरई गांवमें हैं। प्रतिष्ठा संवत् १८७२
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मध्यप्रदेशके विवम्बर जैन तीर्थ में वैशाख शुक्ला पंचमीको हुई। मूर्तिके अधोभागमें हाथीपर चमरवाहक खड़े हैं। मन्दिर-द्वारके ललाट-बिम्बपर १ पद्मासन और २ खड्गासन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं।
इस मन्दिरसे संलग्न दो कोठरियोंमें कुछ खण्डित-अखण्डित मूर्तियाँ वरौं ग्रामसे लाकर रखी गयी हैं। दायीं ओरकी कोठरीमें तीन खड्गासन मूर्तियां हैं जिनमें मध्यकी मूर्ति भगवान् सम्भवनाथकी ७ फुट ४ इंच है। मूर्तिलेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् १६९४ में हुई थी। बायीं ओर भगवान् ऋषभदेवकी ४ फुट ९ इंच तथा दायीं ओर भगवान् महावीरकी ४ फुट ४ इंच ऊँची मूर्ति है। बायीं ओरको कोठरीमें चार मूर्तियाँ रखी हैं। भगवान् चन्द्रप्रभकी मूर्ति ६ फुट ८ इंच, भगवान् सम्भवनाथकी ४ फुट ९ इंच तथा भगवान् अरनाथकी ४ फुट ६ इंच है। इन सबके पीठासनपर लांछन अंकित है। एक अन्य मूर्ति १ फुट ३ इंच की है। इसमें लांछन नहीं है। इनके अतिरिक्त तीन खण्डित मूर्तियां हैं।
इस मन्दिरके पीछे चबूतरेपर कुछ प्राचीन प्रतिमाएं रखी हैं जो इधर-उधरसे एकत्रित की गयी हैं। इनमें चतुर्मुखी ( सर्वतोभद्रिका ), शासनदेवता, कुबेर और तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। .
४-एक हॉलमें संग्रहालय बनाया जा रहा है। इसमें कुछ प्राचीन मूर्तियाँ संग्रहीत हो चुकी हैं। इनमें एक मूर्ति कायोत्सर्गासनमें है और १२ फुट ऊँची है। इसका भामण्डल अति भव्य है। मूर्तिके दोनों ओर यक्ष-यक्षी बने हुए हैं। यह मूर्ति भामौनसे लायी गयी है। संग्रहालयके बाहर लाल पाषाणकी ५ फुट ४ इंच अवगाहनावाली पद्मासन मूर्ति रखी हुई है, जो अति भव्य है। ये मूर्तियाँ भामौन, वरौं, पाटखेड़ा आदि ग्रामोंसे संग्रहीत की गयी हैं।
५. शान्तिनाथ जिनालय-मूलनायक भगवान् शान्तिनाथकी खड्गासन प्रतिमा है जो १८ फुट ऊँची और ६ फुट ७ इंच चौड़ी ( कन्धे से कन्धे तक ) है। शीर्षके दोनों पार्यों में पुष्पमाल लिये हुए गन्धर्व हैं। उनसे नीचे दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियां हैं। दोनों ही मूर्तियोंके दोनों पार्यों में चमरवाहक हैं। मूतिके अधोभागमें बायीं ओर पद्मावती देवी है और दायीं ओर अम्बिका। इनकी अवगाहना साढ़े पांच फुट है । अम्बिकाकी गोदमें एक बालक है, दूसरा बालक उँगली पकड़े हुए खड़ा है। शीर्षपर आम्रस्तबक है और मध्यमें नेमिनाथ भगवान् विराजमान हैं। पद्मावती चतुर्भुजी है। उसके दो हाथोंमें कमल हैं, शेष दो भुजाएँ खण्डित हैं। देवी चूड़ियां, कड़े, गलहार, मेखला आदि रत्नाभरणोंसे सज्जित है। देवीके सिरपर सर्पफण-मण्डप है जो उसके नागकुमार जातिको इन्द्राणी होनेका सूचक है। फणके ऊपर भगवान् पार्श्वनाथ विराजमान हैं। उनके दोनों ओर किन्नर नृत्यमुद्रामें अंकित हैं।
शान्तिनाथ भगवान्की मूर्ति समचतुरस्र संस्थानवाली है। उसके प्रत्येक अवयवमें समानुपातिक उभार और सौन्दर्य है। सिरके कुन्तल मोहक हैं। कणं स्कन्धचम्बी हैं। मखका लावण्य और रूपच्छटा मोहक है। इस मूर्तिके प्रतिष्ठाकारक और इस मन्दिरके निर्माता सेठ पाड़ाशाह कहे जाते हैं। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मन्दिर-मूर्तियोंपर कहीं भी मूर्तिलेख, निर्माता और प्रतिष्ठाकारकके नाम आदि उत्कीर्ण हुए नहीं मिलते। केवल अनुश्रुतिके आधारपर ही विभिन्न स्थानोंके समान यहां भी उन्हें इस मन्दिर और मूर्तिका प्रतिष्ठाकारक मान लिया गया है। . ...
___ इस मन्दिरके सामने सभामण्डप था जो मन्दिरके साथ ही बनाया गया होगा। उसे चारों ओरसे बन्द करके हॉलका रूप दे दिया गया है और उसमें संग्रहालय बनाया जा रहा है।
६. छोटे पंचभइयोंका मन्दिर-भगवान् आदिनाथकी कायोत्सर्ग मुद्रावाली ६ फुट ऊंची मूर्ति है । इनकी जटाएं अद्भुत हैं और पादचुम्बी हैं । ऐसी पादचुम्बी जटाएं अन्यत्र दुर्लभ हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ... इनके दोनों ओर पार्श्वनाथ भगवान्की ४ फुट ७ इंच ऊँची खड्गासन मूर्तियां विराजमान हैं। पार्श्वनाथके पार्श्वमें एक पद्मासन प्रतिमा पांच फुटकी है। द्वारपर ११ पंक्तियोंका लेख है। इससे ज्ञात होता है कि मन्दिरका निर्माण सन् १६८० में हुआ है।
७. पार्श्वनाथ मन्दिर-यह मन्दिर बड़े पंचभइयोंका कहलाता है। मूलनायक प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथकी है। यह खड्गासन है और इसकी अवगाहना १५ फुट है। इस प्रतिमाके दोनों ओर दो खड्गासन और दो पद्मासन मूर्तियां हैं। मूलनायकके हाथोंसे अधोभागमें गजपर चमरेन्द्र खड़े हैं। सबसे नीचेके भागमें दोनों ओर दो-दो भक्त हाथ जोड़े बैठे हुए हैं।
बायीं ओरकी दीवारमें भगवान् चन्द्रप्रभकी १३ फुट ३ इंच तथा भगवान् नेमिनाथकी ८ फुट ऊँची मूर्तियां विराजमान हैं। इसी प्रकार दायों ओरकी दीवारमें भगवान् शान्तिनाथकी ८ फुट और भगवान् महावीरको १३ फुट ३ इंच मूर्तियाँ विराजमान हैं। ये सभी मूर्तियाँ कायोत्सर्गासनमें हैं।
भगवान् महावीरकी चरणचौकीपर मूर्तिलेख अंकित है, जिसके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला ५ संवत् १६७१ को मूलसंघ, बलात्कारगणके भट्टारक धर्मकीतिके उपदेशसे संघपति भवानीदासने बुन्देलवंशी राय मनोहरदासके राज्यमें करायी। मूर्तिलेखमें भट्टारक धर्मकीर्तिकी गुरु-परम्परा इस प्रकार दी गयी है–भट्टारक भुवनकीर्ति, तत्पट्टे भट्टारक सहस्रकीर्ति, तत्पट्टे भट्टारक पद्मनन्दि, तपट्टे भट्टारक यशकीर्ति, तत्पट्टे भट्टारक ललितकीर्ति, तत्पट्टे भट्टारक धर्मकीर्ति।
८. यह गुमटी हनुमान्जीकी है। अनुश्रुति प्रचलित है कि यह मन्दिर सेठ पाड़ाशाहने अपनी वैष्णव पत्नीकी प्रसन्नताके लिए बनवाया था। जैन पुराणोंमें यद्यपि हनुमानजी कामदेव और विद्याधर बताये गये हैं किन्तु जैन धर्मानुयायी सेठने केवल अपनी पत्नीको प्रसन्न करनेके लिए ही हनुमान्जीको वानरमुख और पूंछयुक्त बनवाया। फिर भी सेठने इस वैष्णव आकारमें जैन रंग , भर दिया। पुराणोंमें वर्णन मिलता है कि रामने सीताका पता लगानेके लिए हनुमान्को लंका
भेजा। मार्गमें उन्होंने दो मुनियोंको जलते हुए देखा। उन्होंने उनका उपसर्ग दूर किया। हनुमान्जीकी इस मूर्तिके कन्धोंपर दो मुनिराज विराजमान हैं। यह दृश्य जैन पुराणोंके उपर्युक्त उपसर्गनिवारणके प्रसंगका स्मरण दिलाता है। यह मूर्ति ७ फुट ऊंची है।
...९. शासनदेवीकी ५ फुट ३ इंच ऊँची मूर्ति है। शीर्षपर मध्यमें पद्मासन और दोनों पार्योमें खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियां हैं। यह किस यक्षीको मूर्ति है, यह स्पष्ट नहीं हो पाया।
इसके पार्श्वमें सरस्वतीको ३ फुट ६ इंच अवगाहनावाली भव्य मूर्ति है। देवी अपने वाहन हंसके ऊपर आसीन है और अष्टभुजी है। एक हाथ अक्षमालासहित वरद मुद्रामें है। दूसरे हाथमें कमण्डलु है । शेष भुजाएं खण्डित हैं । देवी वीणा धारण किये हुए है।
दायीं-बायीं ओर देवियां खड़ी हुई हैं। दोनों हाथ वरद मुद्रामें हैं।
दायीं दीवारके सहारे एक शिलाफलकमें अम्बिकाकी खण्डित मूर्ति है। उसकी गोदमें बालक है । उसके दायीं ओर आम्रगुच्छक लटक रहे हैं । हाथ खण्डित है तथा छातीका भी ऊपरी भाग खण्डित है।
इसी गर्भालयमें चार स्तम्भ-खण्ड रखे हुए हैं। इनमें से दोमें तीर्थंकर मूर्तियां हैं तथा दोमें यक्षी-मूर्तियां हैं। गर्भालयके प्रवेशद्वारके ललाट-बिम्बके ऊपर पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा स्थित है।
इस मन्दिरके सम्बन्धमें भी अनुश्रुति प्रचलित है कि इसे सेठ पाड़ाशाहने अपनी वैष्णव पत्नीको प्रभावित करनेके लिए बनवाया था।
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मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ १०. एक मढ़िया या छतरीमें दो पाषाण-स्तम्भ रखे हुए हैं। एक स्तम्भमें चारों ओर आठ तीर्थकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। दूसरे स्तम्भमें चारों दिशाओंमें १३-१३ मूर्तियोंका अंकन है जो नन्दीश्वरके ५२ जिनालयोंका प्रतीक प्रतीत होता है।
११. एक शिलाफलकमें एक खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है। अवगाहना ७ फुट है। सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। उसके दोनों पाश्ॉमें दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। अधोभागमें चमरेन्द्र चमर लिये भगवान्की सेवा कर रहे हैं।
इसके बायीं ओर सप्तफणावलीयुक्त पार्श्वनाथ हैं तथा दायीं ओर पंचफणावलीयुक्त सुपार्श्वनाथ हैं । पीठके पीछे सर्पकुण्डली अत्यन्त कलापूर्ण ढंगसे निर्मित है।
एक शिलाफलकमें ३ फुट ९ इंच ऊँची एक तीर्थंकर मूर्ति है। शीर्षभागके दोनों पार्यों में पुष्पमाल लिये गन्धवं दिखाई पड़ते हैं। अधोभागमें दो करबद्ध भक्त बैठे हुए हैं। मध्यमें मुख्य प्रतिमाके दोनों ओर १० तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
एक मूर्ति भगवान् चन्द्रप्रभकी ३ फुट अवगाहनाकी है।
१२. पार्श्वनाथ जिनालय-इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी १६ फुट अवगाहनावाली मूलनायककी खड्गासन प्रतिमा है। कन्धोंसे ऊपर दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। हाथीपर चमरवाहक खड़े हैं। यह मन्दिर रावतोंका कहलाता है। परवार जातिमें ईडरीमूरको रावत कहते हैं। किन्तु लेख न होनेसे निर्माताका नाम और निर्माणका काल ज्ञात नहीं हो पाया।
१३. पार्श्वनाथ जिनालय-इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी मूलनायक प्रतिमा १६ फुट ( आसनसहित ) है । प्रतिमाके सिरके ऊपर नौ फणावलीवाला सर्पफण-मण्डप बना हुआ है। इस फणावलीमें नौ सर्प पृथक्-पृथक् बने हुए हैं। फणावलीके दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। गजारूढ़ चमरेन्द्र भगवान्की सेवामें संलग्न हैं। चरणोंके दोनों ओर दो भक्त महिलाएं भगवान्के आगे हाथ जोड़े हुए खड़ी हैं। इस मन्दिरके शिखरमें पूर्व, दक्षिण और उत्तर तीनों ओर तीन बिम्ब हैं। इसका प्रतिष्ठाकाल शकाब्द १६४५ (विक्रम संवत् १७८०) है। लगता है, यह काल आनुमानिक हे । प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी थे।
१४. शान्तिनाथ जिनालय-मूलनायक भगवान् शान्तिनाथको मूर्ति आसनसहित १२ फुट ऊँची कायोत्सर्गासनमें विराजमान है। छत्रत्रयके दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। सिंहासनपीठपर हरिण, लांछन तथा मूर्तिलेख हैं। गजोंके ऊपर चमरवाहक खड़े हुए हैं। इसके शिखरमें तीन बिम्ब हैं। मूर्तिलेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा माघ शुक्ला ५ संवत् १८५५ में हुई थी। यह मन्दिर साढौरावालोंका कहलाता है। साढौरा ग्राममें भी पुराना जिनालय है ।
मन्दिर क्रमांक ११ से १४ तक पास-पासमें और एक पंक्तिमें हैं। क्रम-संख्या १५ कुछ दूर है और उसका द्वार भी उस पंक्तिकी विपरीत दिशामें है ।
१५. आदिनाथ जिनालय-मूलनायक भगवान् ऋषभदेवकी २५ फुट अवगाहनावाली खडगासन प्रतिमा है। इसके अंगोंमें शिल्पविधानके अनुसार समानुपात है। मति अत्यन्त भव्य है। गलेमें त्रिवली बड़ी सुन्दर प्रतीत होती है । छातीपर श्रीवत्स लांछन है । मूर्ति अखण्डित है । इसके दोनों ओर चमरधारी यक्ष हैं। चरणतलमें श्रावक-श्राविकाका भक्त-युगल बैठा हुआ है। सम्भवतः ये प्रतिष्ठाकारक पति-पत्नी हैं। मूर्तिके दोनों ओर दो खड्गासन और दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। इस मन्दिरके निर्माता खण्डेलवालजातीय सेठ बिहारीलाल काला हैं। इसकी प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला ५ संवत् १६७२ में हुई।
३-१२
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ:
___ इस मन्दिरको मूलनायक प्रतिमा अत्यन्त अतिशयसम्पत्र है। अतिशयोंके कारण यह क्षेत्र अतिशय क्षेत्र कहलाता है। यही मन्दिर यहाँका बड़ा मन्दिर कहलाता है। अनेक भक्तजन इसी मुर्तिके आगे भक्तिभावसे मनौती मानने आते हैं।
१६. अजितनाथ जिनालय-भगवान् अजितनाथको १६ फुट ऊंची खड्गासन प्रतिमा इस मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा है। इसके मुखपर वीतराग-छवि और होंठोंपर मधुर स्मित अंकित है। ऊपरी भागमें दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं तथा अधोभागमें दोनों ओर चमरवाहक हैं। बायीं ओरकी दीवारमें ६ फुट ६ इंच ऊँची सम्भवनाथ भगवान्की खड्गासन मूर्ति है। इसकी उंगली खण्डित है। ऊपरी भागमें दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। इनमें एकका मुख खण्डित है। अधोभागमें चमरवाहक हैं।
इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा मन्दिर नं. १५ के साथ ही वैशाख शुक्ला ५ संवत् १६७२ में हुई थी। प्रतिष्ठाकारक कोई पुरवार-जातीय थे, किन्तु नाम पढ़नेमें नहीं आता। पत्नीका नाम लालमणि और पुत्रका नाम दमन था। प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक धर्मकीर्ति थे, जिन्होंने मन्दिर नं. ७ की भी प्रतिष्ठा करायी थी।
इस मन्दिरके पीछे एक मूर्ति अर्धनिर्मित दशामें रखी हुई है।
१७. अभिनन्दननाथ जिनालय-इसमें भगवान् अभिनन्दननाथकी १६ फुट ऊँची खड्गासन मूर्ति विराजमान है। ऊपरके भागमें दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। नीचेके भागमें चमरेन्द्र हाथीपर खड़े हैं। मन्दिरको प्रतिष्ठा संवत् १७०८ में नेकानने करायी थी। इसके शिखरमें तीन ओर तीन बिम्ब हैं। १८. अरहनाथ जिनालय-इसमें मूलनायक भगवान् अरहनाथकी ४ फुट ९ इंच ऊँची
है। मन्दिरको प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला १३ संवत् १९२३ में अमरोदनिवासी श्री थोवनलाल मोदीने करायी थी।
१९ महावीर जिनालय-इसमें मूलनायक भगवान् महावीरको ६ फुट ६ इंच ऊंची खड़गासन प्रतिमा विराजमान है। चन्देरीकी श्रीमती अमरोबाईने मन्दिरको प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला १३ संवत् १९२३ को मन्दिर नं. १८ के साथ करायी।
२०. चन्द्रप्रभ जिनालय-इसमें चन्द्रप्रभ भगवानकी ८ फुटकी खड्गासन प्रतिमा मूलनायकके रूप में विराजमान है। श्रीमती नोवाबाईने इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा मन्दिर नं.१८-१९ के साथ ही वैशाख शुक्ला १३ संवत् १९२३ को करायी थी। - २१ महावीर जिनालय-इसमें मूलनायक भगवान् महावीर स्वामीकी ८ फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा अशोकनगरकी एक वृद्धा महिलाने मन्दिर नं. १८-१९-२० के साथ ही करायी थी। एक आलेमें एक फुटकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है।
२२. शान्तिनाथ जिनालय-इस मन्दिरमें शान्तिनाथ भगवान्की मूलनायक प्रतिमा कायोत्सर्गासनमें विराजमान है। इसका आकार ८ फुट है। चन्देरीनिवासी चौधरी रामचन्द्रने मन्दिर नं. १८ के साथ इसकी प्रतिष्ठा करायी। हाथीपर चमरेन्द्र खड़े हैं। ऊपरके भागमें दो पद्मासन प्रतिमाएं हैं। मन्दिरमें एक मूर्ति १ फुट ९ इंचकी है। मन्दिरके आगे एक चबूतरेपर श्वेत पाषाणका ३० फुट ऊँचा एक मानस्तम्भ बना हुआ है, जिसका निर्माण वीर निर्वाण संवत् २४८१ में मुंगावलीके सवाई सिंघई नाथूराम राजमल परवार और ओडेरनिवासी स. सि. लखमीचन्द्र ने कराया तथा उसके चारों बिम्बोंकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा दो गजरथ चलाकर पृथकपृथक् करायी।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
९१
I
२३. पार्श्वनाथ जिनालय - भगवान् पार्श्वनाथकी मूलनायक प्रतिमा कायोत्सर्गासन में विराजमान है । अवगाहना ६ फुट ३ इंच है । ऊपर दोनों ओर दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं । नीचे चमरवाहक हैं । मन्दिर के निर्माता प्रानपुरा निवासी कोई मोदी हैं । नाम अस्पष्ट है । इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा मन्दिर नं. १८ के साथ हुई थी । इस प्रकार मन्दिर नं. १८ से २३ तक ६ मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा एक साथ हुई थी । ये मन्दिर एक पंक्ति में हैं । ये मूर्तियाँ विशेष मनोज्ञ नहीं हैं । सम्भवतः सब मूर्तियों का शिल्पकार एक ही व्यक्ति था ।
I
२४. चन्द्रप्रभ जिनालय - यह मन्दिर आधुनिक है। इसका निर्माण किसी उदासीन श्रावकने कराया था । परन्तु मूर्ति विराजमान करानेके पूर्व ही वे स्वर्गवासी हो गये । अतः मन्दिर कुछ वर्षों तक रिक्त पड़ा रहा। फिर अथाईखेड़ा निवासी मदनलाल बुद्धूलाल सर्राफने इसमें वेदी बनवाकर संवत् १९७० के मार्गशीर्ष में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करायी । मूलनायक भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्णं डेढ़ फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा है । इसके अतिरिक्त इस वेदीपर पाषाण और धातुको १० प्रतिमाएँ हैं ।
इस मन्दिरके बाहर बरामदे में बाहरसे लायी हुई कुछ प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं । एक मूर्ति बरौदिया ग्रामसे लायी गयी है, जो ३ फुट ऊँची है। इसकी चौड़ाई ढाई फुट है । यह श्वेतवर्ण है और पद्मासन है । मूर्ति के शीर्ष भागपर कोष्ठक में अर्हन्त विराजमान है । उसके दोनों पावों में पुष्पवर्षा करते हुए आकाशचारी गन्धर्बं हैं । चरणोंके दोनों ओर वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत चमरेन्द्र हाथमें चमर लिये हुए खड़े हैं । मूर्तिके शेष भागमें भव्य अलंकरण है ।
कुछ मूर्तियाँ पुराने थूवन से लाकर यहाँ रखी गयी हैं । सम्भवतः ये मूर्तियाँ वहाँ उत्खननमें या खेतों में प्राप्त हुई थीं ।
२५. ऋषभदेव जिनालय - भगवान् ऋषभदेवकी १६ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा विराजमान है । छत्रके दोनों ओर दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं । नीचे चमरवाहक खड़े हैं । चरणचौकीपर दोनों ओर हाथी खड़े हैं। मध्यमें वृषभ लांछन अंकित है । इसकी प्रतिष्ठा सभासिंह (सवाई सिंह ) चन्देरीनिवासीने संवत् १८७३ में वैशाख शुक्ला ३ ( अक्षय तृतीया ) के दिन करायी थी । इन्होंने ही इसके बीस वर्ष बाद चन्देरीकी विख्यात चौबीसीकी भी प्रतिष्ठा करायी थी । इस विशाल मूर्ति के पीठासनपर लेख उत्कीर्ण है । इस लेखसे प्रतिष्ठाकारक, प्रतिष्ठाकाल, तत्कालीन राज्यकाल आदि महत्त्वपूर्ण बातोंपर प्रकाश पड़ता है । वह लेख इस प्रकार है
'अथ शुभ संवत्सरे विक्रमादित्य राज्योदयात् १८७३ मासोत्तम मासे वैशाखे शुभे शुक्लपक्षे ३ भौमवासरे श्री मूलसंचे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाम्नाये प्रवर्तिते श्री महाराजा - धिराज श्री दौलतराव आलीजा बहादुर राज्ये कर्नल जान वतीस ( वैप्टिस) बहादुर राज्ये चौधरी सवाई राजधर हिरदेशाह चौधरी फतहसिंह वोहरा गोत्रे गुमाश्ता सवाईसिंह, भार्या कमला खण्डेलवाल वंशे बज गोत्रे एते सपरिवारो नित्यं जिनपदे प्रणमति ।'
मन्दिर संख्या २४ को छोड़कर सभी मन्दिरोंकी मूर्तियाँ देशी पाषाणकी हैं और अधिकतर मूलनायक प्रतिमाएँ खड्गासन हैं ।
क्षेत्रस्थ मन्दिरोंका जीर्णोद्धार समय-समयपर होता रहा है । जीर्णोद्धार करानेवालों में अन्यतम दानवीर साहू शान्तिप्रसादजीका नाम उल्लेखयोग्य है ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
मार्ग
सेण्ट्रल रेलवेके ललितपुर स्टेशनपर उतरकर वहाँसे सड़क-मार्गसे ३४ कि. मी. चन्देरी है। चन्देरी-अशोकनगर सड़क-मार्गपर चन्देरीसे १४ कि. मी. और अशोकनगरसे लगभग ५०कि.मी. दूर पिपरौल ग्राम है। वहाँसे ८ कि. मी. कच्चे मार्ग द्वारा थवौन क्षेत्र है। दूसरा मार्ग अशोकनगरसे सीधा २६ कि. मी. है। इस मार्गपर आठ महीने मोटरका आवागमन रहता है। पश्चिमी रेलवेकी कोटा-बीना लाइनपर मुंगावली स्टेशन उतरकर वहाँसे भी चन्देरी जा सकते हैं। इस प्रकार ललितपुर, अशोकनगर, मुंगावली तीनों ही स्थानोंसे क्षेत्रपर जा सकते हैं और मार्गकी दूरी भी लगभग समान पड़ती है।
चन्देरी...
चौबीसी मन्दिर
चन्देरी चौबीसी अर्थात् चौबीस तीर्थंकरोंकी अत्यन्त कलापूर्ण और तीर्थंकरोंके ही वर्णकी मूर्तियोंके कारण बुन्देलखण्डके तीर्थक्षेत्रोंको पंक्तिमें अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। चौबीस तीर्थंकरोंकी ये मूर्तियाँ यहाँके बड़े मन्दिर में विराजमान हैं। यहाँके एक स्तम्भ-लेखमें संवत् १३५० अंकित होनेसे यह मन्दिर इतना या इससे भी प्राचीन प्रतीत होता है। इसी मन्दिरमें चौबीस शिखरयुक्त कोठरियोंमें २४ तीर्थंकरोंकी पद्मासन मूर्तियाँ हैं। मूर्तियोंका वर्ण वही है जो शास्त्रोंमें विभिन्न तीर्थंकरोंका बताया गया है, अर्थात् १६ स्वर्ण वर्णका । वर्णकी, २ श्याम वर्णकी, २ हरित वर्णकी और २ रक्त वर्ण की। सभी मूर्तियोंकी रचना-शैली एकसी है। ये मूर्तियाँ जयपुरसे बनवाकर मँगायी गयी हैं। इनकी कला अनुपम है। ऐसी सुन्दर और शास्त्रोक्त वर्णकी चौबीसी अन्यत्र नहीं है। उत्तर भारत और दक्षिणमें अनेक चौबीसी मन्दिर हैं जहाँ चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ एक साथ मिलेंगी अथवा विभिन्न वेदियोंपर होंगी। बहुधा सभी मूर्तियाँ श्वेत या श्याम वर्णको मिलती हैं किन्तु यथावर्ण नहीं। चन्देरीको चौबीसीके निर्माणमें कलाकारने कलाको पराकाष्ठापर पहुंचा दिया है।
___ इस विख्यात चौबीसीके निर्माता संघाधिपति सवाईसिंह वजगोत्री खण्डेलवाल थे, जो सवाई चौधरी हिरदेशाह फतहसिंह फौजदारके गुमाश्ता थे। सवाईसिंहकी भार्याका नाम कमला था। इस चौबीसीकी प्रतिष्ठा संवत् १८९३ फाल्गुन कृष्णा ११ को हुई। सोनागिरिके भट्टारक चन्द्रभूषण इसके प्रतिष्ठाचार्य थे। मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण है जिससे मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा, प्रतिष्ठाकाल, प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्यके सम्बन्धमें पूरा प्रकाश पड़ता है- “संवत् १८९३ फाल्गुन कृष्णा ११ भृगौ सुवर्णाचले भट्टारक चन्द्रभूषणस्योपदेशात् चन्द्रावत्यां सवाई सिंघई राजधर हिरदेशाह चौधरी मर्दनसिंहस्य शुभचिंतक संघरधिपति लाला सवाईसिंह नित्यं प्रणमन्ति प्रतिष्ठा कारपिता गजरथ सहित ।”
इस मन्दिरके अतिरिक्त नगरमें एक दिगम्बर जैन मन्दिर, एक दिगम्बर जैन चैत्यालय और एक श्वेताम्बर जैन मन्दिर है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ भारतीय साहित्यमें चेदि जनपद . जैन पुराणों और कथाग्रन्थोंमें 'चेदि' राष्ट्रका नाम आता है। श्रीमज्जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराणके अनुसार कर्मभूमिके प्रारम्भमें इन्द्र द्वारा जिन ५२ जनपदोंकी रचना की गयी थी, उनमें चेदि जनपद भी था। इसी प्रकार भगवान् आदिनाथने जिन देशोंमें विहार किया था, उनमें चेदिका नामोल्लेख मिलता है। आचार्य जिनसेनकृत हरिवंशपुराण १७४३६में चेदि राष्ट्रकी स्थापना हरिवंशी राजा वसुके पिता अभिचन्द्र द्वारा विन्ध्याचलके ऊपर बतायी गयी है। इसी पुराणमें शिशुपालको चेदिनरेश बताया गया है।
महाभारत आदि हिन्दू पुराणोंमें भी हैहयवंशी शिशुपालको चेदिनरेश बताया गया है। शिशुपालके पितामह चिदि थे। सम्भवतः चेदि नाम इसी चिदिके नामपर पड़ा। चिदिका उत्तराधिकारी उसका पुत्र दमघोष था। इस प्रकार जैन और हिन्दू पुराणोंमें चेदि राष्ट्रका उल्लेख तो मिलता है किन्तु चन्देरीका नाम देखने में नहीं आता। इन संस्कृत ग्रन्थोंके हिन्दी टीकाकारोंने चेदिका अर्थ चन्देरी किया है।
बौद्ध ग्रन्थोंमें चेदि, चेति और चेतिय शब्दोंका प्रयोग अनेक स्थानोंपर मिलता है। अंगुत्तर निकायमें सोलह महाजन जनपदोंके सम्बन्धमें सूचना मिलती है। इन सोलह जनपदोंमें अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जी, मल्ल, चेति, वंस (वत्स), कूरु, पांचाल, मच्छ (मत्स्य), सूरसेन, अस्सक, अवन्ती, गन्धार और कम्बोज सम्मिलित थे। इनमें चेति महाजनपदका भी नाम है। इसी जातकमें लिखा है कि बुद्धने चेति जनपदके सहजाति नगरमें भी विहार किया था। चेतिय जातकमें कहा गया है कि चेति देशके राजा उपचरके पाँच पुत्रोंने हासिपुर, अस्सपुर, सीहपुर, उत्तर पांचाल और दद्दरपुर इन पाँच नगरोंको बसाया। इसीमें एक स्थानपर बताया गया है कि चेति राज्यकी राजधानी सोत्थिवति नगरी थी। बुद्धत्व-प्राप्तिके पश्चात् बुद्धने अपना तेरहवाँ वर्षावास चेति या चेतिय राष्ट्रके चालिय या चालिक पर्वतपर किया, जो उसी राष्ट्रके प्राचीन वंसदायमें था और जिसके पास ही जन्तुगाम और किमिकाला नदी थी।
बौद्ध साहित्यके आधारपर चेति या चेतिय जनपद वंस ( वत्स ) जनपदके दक्षिणमें, यमुना नदीके पास, उसकी दक्षिण दिशामें स्थित था। इसके पूर्व में काशी जनपद, दक्षिणमें विन्ध्य पर्वत, पश्चिममें अवन्ती और उत्तर-पश्चिममें मत्स्य और सूरसेन जनपद थे। वत्स जनपद और चेति जनपद दोनों एक दूसरेसे सटे हुए थे। चेति जनपदकी राजधानी सोस्थिवति बतायी गयी है। इस नगरीको नन्दोलाल डेने शुक्तिमतीसे मिलाया है। पाजिटर और डॉ. हेमचन्दराय चौधरी आधुनिक बाँदाके समीप इसकी स्थिति मानते हैं । किन्तु वस्तुतः यह नगरी हस्तिनापुरके पश्चिममें थी। सहजाति चेति राज्यका दूसरा बड़ा नगर था। यह स्थल और जल दोनों मार्गोपर अवस्थित था। सहजातिकी पहचान आधुनिक भीटाके भग्नावशेषोंसे की जाती है जो इलाहाबादसे ८-९ मील दक्षिण-पश्चिममें है। यह नगर गंगा-यमनाके संगमके समीप था। इस विवरणसे यह निश्चित होता है कि चेति या चेदि राष्ट्र वर्तमान बुन्देलखण्ड और उसके आसपासके प्रदेशसे मिलकर बना था।
१. अंगुत्तर निकाय, जिल्द पहली, पृष्ठ २१३, पालि टैक्स्ट सोसाइटी । २. अंगुत्तर निकाय, जिल्द पांचवीं, पृ. ४१ ।
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भारतके विगम्बर जैन तीर्थ
टाड (राजस्थान) ने चन्देरीको ही चेदि माना है। आईने अकबरीके अनुसार प्राचीन कालमें चन्देरी बहुत बड़ा शहर था। कुछ इतिहासकारोंकी मान्यता है कि महाभारत कालमें चेदि जनपदकी राजधानी शुक्तिमती थी और गुप्त-कालमें कालिंजर था। अनघं राघवके अनुसार कलचुरि कालमें चेदि मण्डलकी राजधानी माहिष्मती थी। चन्देरीका नामकरण
चन्देरी नगर बहुत प्राचीन नहीं प्रतीत होता । चन्देरीका नामकरण किस प्रकार हुआ, इस सम्बन्धमें प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एम. वी. गर्दे ने 'ए गाइड टु चन्देरी' नामक पुस्तकमें तीन विकल्प दिये हैं
१. चेदिसे चन्देरी बन गया हो।
२. चन्द्रगिरिसे चन्देरी नाम पड़ा हो। वर्तमान चन्देरीमें जिस पहाड़ोपर किला है, वह चन्द्रगिरि माना गया है।
३. चन्देलोंकी राजधानी होनेसे इस नगरका नाम चन्देली पड़ा। चन्देलीसे चन्देरी हो गया । कुछ शिलालेखोंमें 'चन्देली' शब्द भी मिला है। ऐतिहासिक महत्त्व
वर्तमान चन्देरीसे १४ कि. मी. उत्तर-पश्चिममें प्राचीन चन्देरीके भग्नावशेष हैं। गजेटियर और गाइडमें प्राचीन चन्देरीके लिए अंगरेजीमें 'ओल्ड चन्देरी' लिखा जाता रहा है, जिसका अनुवाद हिन्दीमें पुरानी न करके बूढ़ी कर दिया। इस प्रकार 'बूढ़ी चन्देरी' शब्द अधिक पुराना नहीं है। बूढ़ी चन्देरी वह स्थान कहलाता है जहां ऐतिहासिक और प्राचीन चन्देरी नगर आबाद था और वर्तमानमें जहाँपर उस प्राचीन नगरके भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं।
ग्वालियरके गूजरी महलमें पुरातत्त्व संग्रहालय है। वहाँ चन्देरीसे प्राप्त एक शिलालेखमें प्रतिहारवंशी १३ राजाओंके नाम हैं । इनमें से सातवें राजा कीर्तिपाल देवने प्राचीन नगरके दक्षिणपूर्वमें एक दुर्ग बनाया और अपनी राजधानी वहीं ले गये। दुर्गका नाम राजाने अपने नामपर कीर्तिगढ़ रखा तथा दुर्गके पीछे एक सरोवर और मन्दिर बनवाया जो राजाके नामपर 'कोतिनारायणका मन्दिर' कहलाया। किला और तालाब तो अभी हैं, पर मन्दिर नहीं है। सम्भवतः वह टूट गया। शिलालेखमें कीर्तिपालका समय अंकित नहीं है । नवीन चन्देरी बसानेकी यह घटना सम्भवतः ग्यारहवीं शताब्दीके प्रथम चरणमें हुई । सम्भवतः यह वही कीर्तिपाल अथवा कीर्तिराज था, जिसने महमूद गजनवीके समक्ष सन् १०२१ में आत्मसमर्पण किया था। इसके पश्चात् यहाँ मुसलमानोंके जितने भी आक्रमण हए. सभी वर्तमान चन्देरीपर ही हए।
मुस्लिम इतिहासकारोंमें चन्देरीका सर्वप्रथम उल्लेख अलबेरुनीने किया है। यह विद्वान् महमूद गजनवीके आश्रयमें रहता था। यह महमूद गजनवीके साथ भारत आया था और यहाँसे लौटकर उसने 'किताबुल हिन्द' लिखी थी। मुस्लिम सल्तनत-कालमें अनेक बार चन्देरी दुर्गपर आक्रमण हुए। तेरहवीं शताब्दीमें चन्देरी चन्देलनरेश चाहड़देवके अधिकारमें चली गयी। सन् १२५१ में नासिरुद्दीन महमूदके प्रधानमन्त्री बलवनने चन्देरीपर आक्रमण किया और इसे हस्तगत कर लिया। किन्तु थोड़े दिनों बाद यह नगरी फिर चन्देल राजाओंके अधिकारमें चली गयी। सन् १३०४ में अलाउद्दीन खिलजीके सेनापति आइनुलमुल्कने इसपर आक्रमण किया। इसके बाद फीरोजशाह तुगलक और सिकन्दर लोदीने आक्रमण किये।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ मुगल वंशके संस्थापक बाबरने चन्देरीके राजा मेदिनीराय चौहानपर आक्रमण किया। इस युद्ध में राजाने वीरगति पायी। जब मुसलमानोंने किला जीत लिया तो हजारों वीरांगनाओंने २८ जनवरी सन् १५२८ को हंसते-हंसते जौहर-व्रत किया अर्थात् अपने शीलकी रक्षाके लिए जलती हुई अग्निमें कुदकर अपने प्राण दे दिये।
जहाँगीरने ओरछानरेश मधुकरशाहके ज्येष्ठ पुत्र रामशाह बुन्देलाको राजाकी उपाधि देकर सन् १६०५ में चन्देरीका शासक बनाया। बुन्देला वंशके १२ राजाओंने इस नगरपर शासन किया। बुन्देला देवीसिंहने सिंहपुरमें, उनके पुत्र दुर्गासिंहने पंचम नगरमें, उनके पुत्र दुर्जनलालने रामनगरमें महल बनवाये। अन्तिम बुन्देला राजा मरदानसिंहने सन् १८५७ में झाँसीकी रानी लक्ष्मीबाईका साथ दिया। इस कारण अँगरेजोंने उन्हें राज्यच्युत कर दिया। मुगल कालमें चन्देरी राज्यमें १८ परगने थे और २२ लाखकी वार्षिक आय थी।
__ बादमें ग्वालियरके सिन्धिया राजाओंका आधिपत्य इस नगरीपर हो गया। १९४८ ई. में ग्वालियर राज्यका विलीनीकरण मध्यभारतमें हो गया और १९५६ ई. में मध्यभारत मध्यप्रदेशमें आ गया । ग्वालियर राज्यमें चन्देरी गुना जिलेमें थी और अब भी है। यहाँकी साड़ियाँ भारतमें आज भो प्रसिद्ध हैं । यहाँ राजपूत राजाओं द्वारा बनवाये हुए महल, मन्दिर और सरोवर आज भी दर्शनीय हैं और मुस्लिम शासकों द्वारा बनवाये हुए मकबरे, मसजिदें, ताल और बावड़ी भी द्रष्टव्य हैं।
यह नगर समुद्र-तलसे १७०० फुटकी ऊँचाईपर स्थित है तथा दुर्गका निर्माण नगरसे २०० फीट ऊँची पहाड़ीपर हुआ है। नगरके चारों ओर पर्वतमालाएँ हैं। पहाड़ियोंमें प्राकृतिक सरोवर और झरने हैं । इसके पूर्वमें ८ मीलपर बेतवा और पश्चिममें आठ मीलपर उर्वशी नदी बहती है। जैन संस्कृतिका केन्द्र
विन्ध्य भूमि जैन संस्कृतिके लिए उर्वर क्षेत्र रही है। अति प्राचीन कालसे यहाँ जैनधर्मका प्रचार-प्रसार रहा है । चन्देरी भी जैन संस्कृतिका केन्द्र था। इसके चारों ओर प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं-जैसे सिद्धक्षेत्र श्रमणगिरि ( सोनागिर ) एवं अतिशय क्षेत्र देवगढ़, खजुराहो, पवा, पपौरा, सेरौन, अहार, तपोवन (थूवौन ), गोलाकोट, पचराई, भियादांत, भामोन, तूमैन, आमनचार, गुरीलागिरि आदि। क्षेत्र-दर्शन
मन्दिरके मुख्य द्वारमें प्रवेश करनेपर एक चौक मिलता है, जिसमें एक ओर पुजारियोंके लिए स्नानघर है । दालानमें स्वाध्याय और सामायिक करनेकी सुविधा है । दालानमें ही प्रवेशद्वार है। इस द्वारमें प्रवेश करनेपर दूसरा चौक मिलता है जिसमें चारों ओर बरामदोंमें १२ वेदियाँ बनी हुई हैं । इनमें ९-१०वीं वेदीमें कुछ प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं। ये कहाँसे आयीं यह ज्ञात नहीं हो सका । ये सभी मूर्तियां अपनी शैली आदिसे १०-११वीं शताब्दीकी प्रतीत होती हैं। यद्यपि एक मूर्तिपर लेख है किन्तु अस्पष्ट होनेके कारण पढ़नेमें नहीं आता।
" इसके पश्चात ततीय चौकमें जाते हैं। इसी में चारों ओर २४ गर्भगह बने हए हैं। प्रथम पंक्तिमें ४ गभंगृह हैं । द्वितीय पंक्तिमें ८, तृतीय पंक्तिमें ७ और चतुर्थ पंक्तिमें ५ गर्भगृह हैं।
- प्रथम गर्भगृहमें ऋषभदेव भगवान्की स्वर्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। भूतिकी अवगाहना ३ फुट ५ इंच है। गर्भगृहका आकार ७ फुट ३ इंच: ५ फुट ३ इंचा है। "
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'१६.
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ___ इसके मूर्ति-लेखसे ज्ञात होता है कि मूर्तिकी प्रतिष्ठा सुवर्णाचल (सोनागिर) पर हुई थी। लेखमें प्रतिष्ठाकारकको चन्द्रावती नगरका निवासी बताया गया है। चन्देरीको सम्भवतः चन्द्रावती भी कहते थे।
अजितनाथ, सम्भवनाथ और अभिनन्दननाथकी मूर्तियोंकी अवगाहना, वर्ण और गर्भगृहका आकार प्रथम गर्भगृहके समान है।
सुमतिनाथ भगवान्का वर्ण स्वर्ण है और अवगाहना बिना आसनके ३ फुट १ इंच है। गर्भगृहका आकार ६ फुट ६ इंच ४४ फुट ७ इंच है।
पद्मप्रभ भगवान्का वर्ण रक्त है, अवगाहना ३ फुट ७ इंच है। गर्भगृह ६ फुट ४ इंचx ४ फुट ५ इंच है।
पार्श्वनाथ भगवान्का वर्ण हरित है तथा मूर्तिको अवगाहना ४ फुट २ इंच है। शेष मूर्तियाँ और गर्भगृह ऋषभदेवकी मूर्ति और गर्भगृहके समान हैं । केवल वर्णमें अन्तर है । चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त श्वेतवर्णके, मुनि सुव्रतनाथ और नेमिनाथ नील वर्णके, वासुपूज्य और पद्मप्रभ रक्तवर्णके तथा सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ हरित वर्णके हैं । शेष तीर्थंकरोंकी मूर्तियां स्वर्ण वर्णकी हैं। प्रत्येक गर्भगृहके ऊपर शिखर है।
___महावीर स्वामीके गर्भगृहके पाश्वमें एक गन्धकुटी बनी हुई है। इसमें अधोभागमें ८, मध्यभागमें ४ और उपरिभागमें ४ एवं शोर्षवेदिकामें ४, इस प्रकार २० कलिकाएं बनी हुई हैं। सम्भवतः निर्माणके पश्चात् इनमें कभी मूर्ति प्रतिष्ठित नहीं की गयी। इसके निर्माणका क्या उद्देश्य था, यह भी किसीको ज्ञात नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है, यह विदेह क्षेत्रके २० तीर्थंकरोंके लिए बनायी गयी होगी। निर्माताकी भावना सम्भवतः यह रही होगी कि इस युगके भरत क्षेत्र सम्बन्धी २४ तीर्थंकरोंकी असाधारण मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हो गयीं, और क्षेत्रके वर्तमान २० तीर्थंकरों (विरहमानों) की मूर्तियां प्रतिष्ठित करके उनकी नवीनता और असाधारणतासे भक्तोंको चमत्कृत और प्रभावित किया जाये। किन्तु किसी कारणवश निर्माताकी भावना पूर्ण नहीं हो सकी। तबसे यह असाधारण रचना उपेक्षित दशामें पड़ी हुई है। हमें आश्चर्य नहीं होगा, यदि यह सुन्दर कृति शीघ्र ही जीर्णशीर्ण होकर बिखर जाये।
चौबीसी चौकके मध्यमें एक स्तम्भ है । इसके ऊपर कोई प्रतिमा नहीं है, किन्तु यह मानस्तम्भ स्थानीय प्रतीत होता है। मन्दिरके द्वितीय चौकके बरामदेमें भूगर्भके लिए जीना बना हुआ है। यह भूगर्भ में बने हुए एक कुएँकी ओर जाता है। पहले मन्दिरके अभिषेक और पूजनके लिए इसी कुएँसे जल लाया जाता था। मन्दिर बहुत विशाल है। उसके बगलमें एक धर्मशाला बनी हुई है, जिसमें त्यागी व्रतीजनोंके ठहरनेकी व्यवस्था है। इसीमें एक पक्का कुआं बना हुआ है। एक पृथक् धर्मशाला भी बनी हुई है, जिसमें कन्या पाठशाला चल रही है। इसीमें यात्रियोंके ठहरनेकी भी व्यवस्था है।
खन्दारगिरि
मार्य
चन्देरीसे पुरानी कचहरी होकर लगभग दो कि. मी. कच्चा मार्ग है । अथवा सड़क कटी घाटीके पाससे मिलती है। इससे क्षेत्र लगभग ३ कि. मी. दूर पड़ता है। यह क्षेत्र चन्देरीके
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
किलेके दूसरे-तीसरे दरवाजेके बीचमें पड़ता है । क्षेत्रकी मूर्तियाँ और गुफाएँ यहाँको चट्टानों में से बनायी गयी हैं । इसके निकट ही बुढ़िया खोह, भड़ियाखोह आदि गुफाएँ हैं । बुढ़िया खोह के निकट संवत् ११३२ का एक शिलालेख और मन्दिरोंके भग्नावशेष मिलते हैं ।
इतिहास
वर्तमान चन्देरीमें कुछ शताब्दी पूर्व बलात्कारगणकी जेरहट शाखाका अत्यधिक प्रभाव था । लगता है, कुछ भट्टारकोंने यहाँ अपना उपपीठ भी बना रखा था । वे समय-समयपर यहाँ आकर ठहरते थे और लोगोंको मन्दिर निर्माण और मूर्ति प्रतिष्ठाके लिए प्रेरित करते रहते थे । पपौराके एक मूर्तिलेख में उल्लेख है - " संवत् १७१८ वर्षे फाल्गुने मासे कृष्णपक्षे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्री ६ धर्मकीर्ति तत्पट्टे भ. श्री ६ पद्मकीर्ति तत्पट्टे भ. श्री ६ सकलकीर्ति उपदेशेनेयं प्रतिष्ठा कृता....।” इसी प्रकार अहारके एक मूर्तिलेख में 'श्री धर्मकीर्ति उपदेशात्' तथा अहारके ही एक अन्य मूर्तिलेखमें 'भ. श्री सकलकीर्तिउपदेशात्' ऐसे उल्लेख उपलब्ध होते हैं । इनसे इस बातकी पुष्टि होती है कि बलात्कारगणकी जेरहट शाखाके भट्टारकोंने पपौरा अहार आदि क्षेत्रोंपर अनेक मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी थी । इन्हीं भट्टारकोंके उपदेशसे चन्देरी नगरके निकट एक पहाड़ी में गुहा - मन्दिरोंका निर्माण किया गया । कन्दराओंके कारण ही इस स्थानको बोलचालमें कन्दराजी कहा जाता है जो बिगड़ते-बिगड़ते अब खन्दारजी कहलाने लगा है। इन भट्टारकोंमें से कुछकी छतरी और चबूतरे यहाँ पहाड़की तलहटीमें बने हुए हैं । इनमें सबसे विशाल स्मारक भट्टारक पद्मकीर्तिका है । एक पाषाण चरणपर संवत् १७१७ मार्गशीषं सुदी १४ बुधवासरे अंकित है । उपर्युक्त भट्टारकोंका भट्टारकीय काल क्रमशः धर्मकीर्ति संवत् १६४५-१६८३, पद्मकीर्ति संवत् १६८३ - १७११, सकलकीर्तिं संवत् १७११-१७२० है ।
क्षेत्र-दर्शन
पहाड़ के नीचे तलहटीमें भट्टारकोंकी छतरी और चबूतरोंके पास एक पाषाणशिलामें क्षेत्रपाल उकेरे हुए हैं । उसके सामने सड़क के दूसरी ओर मानस्तम्भ बना हुआ है, जिसमें चतुमुंखी तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। इसके निकट ही धर्मशाला, कुआँ तथा पूजनादिके लिए मण्डप बना हुआ है । मानस्तम्भ के निकट ऊपर पहाड़ीपर गुहा-मन्दिरों तक जाने के लिए सीढ़ियाँ नी हुई हैं । यद्यपि यहाँ मुख्य दो गुफाएं हैं- एक तो मुख्य मूर्तिके दायीं ओर और दूसरी उसके बायीं ओर - किन्तु कुल गुफाओं की संख्या ६ है । इनमें से पाँच गुफाएँ १६वीं शताब्दीमें निर्मित हुई हैं और मात्र एक गुफा १३वीं शताब्दीकी है ।
गुफा नं. १ - यह गुफा बायीं ओरकी पहाड़ीपर है । इस ओर अन्य कोई गुफा नहीं है । इसके लिए पृथक् सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं । गुफा-द्वार बहुत ही छोटा है तथा भीतर भी खड़े होने लायक ही ऊँचाई है । यह गुफा १६वीं शताब्दीकी है। इसमें मूलनायक भगवान् सम्भवनाथ की प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित है और ३ फुट ६ इंच ऊँची है । इसके परिकरमें गजपर खड़े हुए चमरवाहक इन्द्र हैं जो प्रतिमाके दोनों ओर बने हुए हैं। इसके दोनों ओर तीर्थंकर प्रतिमाएँ विराजमान हैं जो ऊँचाईमें क्रमशः छोटी होती गयी हैं । मूलनायकके दायीं ओर चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ ( दोनों संवत् १९९१), कुन्थुनाथ ( संवत् १९९० ) और पुष्पदन्त ( संवत् १६९० ) की प्रतिमाएँ है । इसी प्रकार बायीं ओर मूलनायकसे आगे अनन्तनाथ, महावीर, पार्श्वनाथ, पद्मप्रभ और सम्भवनाथको मूर्तियाँ हैं । ये भी क्रमशः छोटी होती गयी हैं ।
३-१३
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यहाँ कायोत्सर्ग मुद्रा में बाहुबली स्वामीको एक अद्भुत मूर्ति है। इसे ग्रामीण लोग 'औघड़ बाबा' भी कहते हैं। उनके गलेमें दो सर्प लिपटे हैं। कटिके दोनों पार्यो में भी सर्प लिपटे हुए हैं। नाभिसे ऊपर दोनों ओर दो चूहे बने हुए हैं। दोनों हाथोंपर दो छिपकली बनी हुई हैं तथा पैरोंमें जंघेपर एक घुमावके साथ सर्प बने हैं।
मूर्तियोंके दोनों ओर स्थान कम होनेके कारण दो प्रतिमाओंके बीच एक चमरवाहक बनाकर उसके दोनों हाथोंमें चमर दे दिया गया है जिससे दोनों ओर चमरधारी प्रतीत होते हैं । जहां स्थान अधिक है, वहाँ दोनों ओर पृथक्-पृथक् चमरेन्द्र बनाये गये हैं।
- गुफा नं. २-यहाँसे नीचे उतरकर गुफा नं. २ मिलती है । यह सभीके मध्यमें है। यही गुफा यहाँको सर्वाधिक दर्शनीय और लोकप्रिय है। इसमें एक ही चट्टानमें ३५ फुट ऊँची शान्तिनाथ भगवान्की खड्गासन प्रतिमा है । मूर्ति काले पाषाणकी है। मूर्ति खण्डित है।
इस मूर्तिके चरणोंके अधोभागमें ६ खड्गासन प्रतिमाएं हैं। उनके भी अधोभागमें ५ पद्मासन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं । चरणोंके दोनों पार्यो में हाथियोंपर खड़े चमरधारी भगवान्की सेवा कर रहे हैं।
बड़ी प्रतिमाके दायीं ओर १६ फुट उत्तुंग कायोत्सर्ग मुद्रामें तीर्थंकर मूर्ति है । बायीं और इतनी ही बड़ी पार्श्वनाथको मूर्ति थी। उसे काटकर निकाल लिया गया है किन्तु सर्पफण अभी तक बने हुए हैं।
गुफा नं. ३-गुफा नं. २ से सीढ़ियों द्वारा कुछ ऊपर जानेपर प्रक्षिप्त चट्टानके नीचे पर्वतमें उकेरी हुई तीन प्रतिमाएं हैं। इनमें श्रेयान्सनाथकी प्रतिमा १६ फुटकी है। शेष दो प्रतिमाएं ८-८ फुटकी हैं। ये तीनों १६वीं शताब्दीकी हैं। तीनों प्रतिमाओंके दोनों पार्यों में गजपर चमरवाहक खड़े हुए हैं।
यहाँ पाषाण-चरण भी बने हुए हैं। इनपर संवत् १७१७ मार्गशीर्ष सुदी १४ बुधवासरे अंकित है।
____ गुफा नं. ४-गुफा नं. ३ से कुछ ऊपरको नीचे झुकी हुई चट्टानपर एक आलेमें तीन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। मध्यमें एक तीर्थंकर प्रतिमा है और उसके दोनों ओर पार्श्वनाथ हैं। ये तीनों पद्मासनमें हैं और इनका आकार लगभग ३ फुट ६ इंच है। इनके दोनों ओर गजपर खड़े हुए चमरधारी हैं। पार्श्वनाथकी दोनों मूर्तियोंके दोनों ओर धरणेन्द्र-पद्मावती हैं तथा सिरपर सर्पफणावली है। यह गुफा १६वीं शताब्दीकी है।
गुफा नं. ३ से कुछ ऊपर जानेपर एक बड़ा चबूतरा मिलता है। वहां खड़े होकर इन मूर्तियोंके दर्शन हो सकते हैं।
गुफा नं. ५ --गुफा नं. ४ के समान चट्टानमें दो मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। एक तीर्थंकर प्रतिमा है जो पद्मासनमें ध्यानावस्थित है। दूसरी प्रतिमा बाहुबली स्वामीकी है। यह कायोत्सर्ग मुद्रामें है। गलेमें, कटिपर तथा जंघे तक सर्प लिपटे हुए हैं। श्रीवत्सके दोनों ओर नाभि तक दो चूहे बने हुए हैं तथा दोनों भुजाओंपर छिपकलियाँ हैं। कामदेव बाहुबलोके सुघड़ सलोने शरीरपर इन क्षुद्र जन्तुओंके कारण चित्रांकन-जैसा प्रतीत होता है। ,
गुफा नं. ६-गुफा नं. १ के दायें सिरेपर यह गुफा बनी हुई है। पहले इस गुफामें खड़ा होने योग्य स्थान नहीं था, झुककर दर्शन करने पड़ते थे। किन्तु अब उसकी छतको काटकर खड़ा होने योग्य स्थान बना दिया गया है। यही गुफा यहाँकी सबसे प्राचीन गुफा है। इसके मूर्ति-लेखोंमें संवत् १२८३ उत्कीर्ण है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ इस गुफामें १० तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं तथा ३ प्रतिमाएं यक्षीको हैं । यक्षी प्रतिमाएं अम्बिकाकी हैं । देवी एक बालकको गोदमें लिये हुए खड़ी है, दूसरा बालक उसकी उँगली पकड़े खड़ा है। तीर्थंकर प्रतिमाओंमें एक प्रतिमा खड्गासन है, शेष सभी पद्मासन मुद्रामें हैं। ये सभी मूर्तियाँ संवत् १२८३ की हैं, इनमें से कुछ मूर्तियाँ संवत् १२८३ में ज्येष्ठ सुदी ३ गुरुवारको अन्तेशाह लम्बकंचुक ( लंवेचू) द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं।
इस क्षेत्रके जीर्णोद्धारका कार्य एवं सड़कका निर्माण दानवीर साहू शान्तिप्रसादजीकी ओरसे किया गया है।
वार्षिक मेला-चन्देरीके वार्षिक विमानोत्सवके दिन भगवान्का विमान खन्दारको आता है। महावीर जयन्तीका चल-समारोह भी यहाँपर आता है। वर्षा ऋतुमें जैन और जैनेतर लोग यहां वन-विहार और वन-भोजके लिए आते हैं। इस ऋतुमें यहाँको प्राकृतिक छटा निराली होती है।
गुरीलागिरि
मार्ग
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र गुरीलागिरि मध्यप्रदेशके गुना जिलेमें मुंगावली तहसीलमें अवस्थित है। ललितपुर-चन्देरी मार्गपर ललितपुरसे २५ कि. मी. सड़क किनारे प्राणपुर गाँव है। यहाँसे, पगडण्डीसे ४ कि. मी. और चन्देरीसे ६ कि. मी. दूर सिद्धपुरा नामक ग्राम है। यहाँसे पहाड़ीपर ६ फलाँग चलनेपर यह क्षेत्र पड़ता है। प्राणपुरसे ५-६ कि. मी. कच्चे मार्गसे पैदल या बैलगाड़ी द्वारा सिरसौद ग्राम पहुँच सकते हैं। यहाँ जैन धर्मशाला और मन्दिर भी हैं। यहाँसे क्षेत्र एक-डेढ़ कि. मी. है। यहाँका जैन समाज तीर्थयात्रियोंके लिए बैलगाड़ी तथा सुरक्षाके लिए आदमीको भी व्यवस्था कर देता है। यही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है। इतिहास
सेठ पाड़ाशाह १२वीं शताब्दीके विख्यात धर्मात्मा थे जिन्होंने अनेक स्थानोंपर भगवान् शान्तिनाथकी विशालकाय प्रतिमाओं और मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी। उन्होंने राँगेके व्यापारमें अपार धन अर्जित किया और उसका उपयोग मन्दिर-मूर्तियोंके निर्माणमें किया। जैनधर्मके प्रति उनकी श्रद्धा अगाध थी। अतः उन्होंने जैन मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण कराया। उनकी धर्मपत्नी वैष्णव थीं। अतः उन्होंने कई स्थानोंपर वैष्णव मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी। मन्दिरों और मूर्तियोंके निर्माण तथा प्रतिष्ठाओंमें विपुल धनका व्यय होते देखकर जनतामें यह धारणा व्याप्त हो गयी कि सेठको कहींसे पारसमणि मिल गयी है और उसीसे सोना बनाकर वे मन्दिर आदि बनवाते हैं। कोई यह कहने लगा कि कहीं उन्होंने अपना राँगा सन्ध्याके समय उतारा था और देखा तो वह चाँदी हो गया था जिसे बेचकर सारा धन मन्दिरों-मूर्तियोंमें लगा दिया। इस प्रकार उनकी धर्मरुचिके सम्बन्धमें जनतामें नाना भाँतिकी किंवदन्तियाँ प्रचलित हो गयीं। इतना ही नहीं, उन्होंने जहाँ-जहाँ मन्दिर बनवाये, उनके सम्बन्धमें भी किंवदन्तियाँ फैल गयीं कि वे सभी स्थान अतिशय क्षेत्र बन गये। ___इसी सेठने गुरीलागिरिके ऊपर भी एक मन्दिर बनवाया। इसमें भी भगवान् शान्तिनाथकी भव्य मूर्ति विराजमान है। यहाँ बादमें १०-१२ मन्दिर और भी बने।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - पहले यहाँ कोई बड़ी बस्ती रही होगी। आज भी यहाँपर पाषाणनिर्मित सैकड़ों भवनोंकी चौकियां और अवशेष मन्दिरके चारों ओर बिखरे पड़े हैं। जल और व्यापार आदिकी असुविधा होनेपर यहाँके निवासी शनैः-शनैः इस स्थानको छोड़कर पहाड़की तलहटीमें जा बसे। जैनोंकी अधिकताके कारण इस गांवका नाम सिद्धपुरा हो गया। सन् १५२८ में मुगल बादशाह बाबरने चन्देरीके हिन्दूनरेश मेदिनी रायपर भयानक वेगसे आक्रमण किया | हिन्दू ललनाओंने जौहर किया और वे अपने धर्मकी रक्षा करनेके लिए अग्नि-ज्वालाओंमें हँसते-हँसते कूद पड़ीं। हिन्दू वीरोंने केसरिया बाना पहनकर मुसलमानी सेनाके साथ भयंकर युद्ध किया किन्तु प्राण देकर भी वे मातृभूमिकी रक्षा न कर सके। विजयी मुगल सैनिकोंने लूट, बलात्कार और अपहरणके काण्डों द्वारा बाबरके जिहादको सफल बनाया। मार्गमें उन्हें जो भी मन्दिर और मूर्तियाँ मिलती गयीं, उनका भंजन करते गये। लगता है, गरीलाके मन्दिर और मतियाँ इसी जिहादमें तोडी गयीं। वहाँके मकान भी नष्ट कर दिये गये। गुरीला और सिद्धपुराके निवासी गांव छोड़कर भागनेपर बाध्य हुए। जिहादके इस क्रूर काण्डको औरंगजेबके समयमें भी शायद दुहराया गया।
___यहाँ भग्न भवनों और मन्दिरोंको देखनेपर प्रतीत होता है कि इनमें दो प्रकारके पाषाणोंका प्रयोग किया गया है-भूरे और काले। मन्दिर जिस पाषाणके बनाये गये, उनकी मूर्तियाँ भी उसी पाषाणकी बनायी गयी हैं। मन्दिर बनाने में ईंट-गारेका प्रयोग नहीं किया गया, केवल पाषाण ही काममें लाये गये हैं। अतिशय - इस क्षेत्रके अतिशयोंके प्रति जैन और अजैन दोनोंमें ही गहरी आस्था है। ग्रामीण लोग विभिन्न अवसरोंपर यहां मनौती मानने आते हैं। अगर किसीका पशु खो जाता है तो सिद्धबाबा ( एक शिला ) को चढ़ावा ( नारियल ) चढ़ाता है। उसका पशु मिल जाता है। अतिवृष्टि हो या अनावृष्टि, दोनों ही अवसरोंपर यहाँ आकर ग्रामीण बन्धु कीर्तन करते हैं और उनकी कामना पूर्ण हो जाती है। - इधर एक विचित्र किंवदन्ती प्रचलित है। यदि कोई व्यक्ति इस पहाड़ीपर आकर मार्ग भूल जाता है तो उसे एक बावड़ी दिखाई देती है। उसमें से उसे भोजन और जल मिलता है। तब कोई-न-कोई व्यक्ति आ मिलता है। फिर बाबड़ी अदृश्य हो जाती है।
___ इस क्षेत्रके प्रति इधरकी ग्रामीण जनताके मन में इतनी श्रद्धा है कि प्रचलित प्रथाके अनुसार प्रत्येक नवजात शिशुका मुण्डन-संस्कार यहीं कराया जाता है। उल्लेखनीय स्थान
शान्तिनाथ मन्दिरके निकट दो स्थान विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनसे १००० वर्षोंसे पहाड़ीपर जैनोंके धार्मिक आधिपत्य और प्रभावका पता चलता है। एक तो सिद्धबब्बा है। यह एक शिला है। यहीं लोग मनौती मानने आते हैं। यहाँके चमत्कारके सम्बन्धमें एक प्रत्यक्षदर्शीने हमें बताया-कई वर्ष पहलेकी घटना है। सिद्धबब्बापर कीर्तन हो रहा था। कीर्तनके पश्चात् प्रसाद बाँटा गया। किसी व्यक्तिने सिद्धबब्बापर ही वह प्रसाद खा लिया। देखते-देखते कहींसे कई फुट लम्बी-चौड़ी एक शिला हवामें उड़ती हुई आयी और उस व्यक्तिके पैरपर आकर गिर पड़ी। उसका सारा पैर बुरी तरह कुचल गया। तब सबने मिलकर पुनः कीर्तन किया और बाबा खुश हो गये। वह शिला जिस आकस्मिक ढंगसे आयो थी, वैसे ही वह उड़ती हुई एक स्थानपर जा गिरी।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०१ वह व्यक्ति इसके पश्चात् पहाड़से गिर पड़ा। वह शिला अब तक वहाँ ही रखी हुई है और लोग अब उसकी भी पूजा करते हैं।
दूसरा है वह मार्ग जो पहाड़से नीचे सरोवर तक जाता है। उसका नाम है पड़ाशाह घाट। यह नाम पाड़ाशाहके नामपर ही पड़ा है, जिन्होंने यहाँ मन्दिर और मूर्ति बनवाये और जो इसी मार्गसे पाड़ों ( भैंसों) पर राँगा लादकर लाये थे। जनताने पाड़ाशाहके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करनेके लिए इस मार्गका नाम पाड़ाशाह-घाट रख दिया जो बोलचालकी भाषामें पड़ाशाहघाट कहलाने लगा। क्षेत्र-दर्शन
सिद्धपुरा ग्रामसे पहाड़ीकी चढ़ाई लगभग ३ फलांग है। पहाड़ीके ऊपर समतल भूमिपर भी लगभग २-३ फलांग चलना पड़ता है। कहते हैं, पहले यहां हजारों जैन प्रतिमाएं थीं किन्तु उपेक्षा, धर्मोन्माद और निकृष्ट साधनसे धनोपार्जन करनेकी लालसाके कारण उन सभी प्रतिमाओंका विनाश हो गया। आततायियोंने धर्म-द्वेषवश अनेक मूर्तियोंको नष्ट कर दिया। धनके लोभसे मूर्तिचोर यहांकी अनेक मूर्तियोंके सिर काटकर ले गये। जैनोंकी उपेक्षाके कारण इस प्रकारको निन्द्य वृत्तिवालोंको अनुकूल अवसर प्राप्त हुआ। विनष्ट होनेसे जो कुछ बच रहा है, उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
___ मन्दिर नं. १-यह शान्तिनाथ मन्दिर है। मन्दिरके द्वारपर ललाटबिम्बपर एक फलकमें पद्मासन मुद्रामें एक तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्ण है। उसके सिरके दोनों पार्यों में दो गज बने हुए हैं जो ऐरावत प्रतीत होते हैं । वे इन्द्र भगवान्की सेवामें भक्ति-भावसे बैठे हुए हैं। उनके अधोभागमें उनकी इन्द्राणी भी बैठी हुई है।
. इस मन्दिरमें भूरा पाषाण काममें लिया गया है। इसकी प्रतिमाएँ भी भूरे पाषाणकी हैं। इस मन्दिरमें गर्भगृह एक ही है। उसमें भगवान् शान्तिनाथकी १६ फुट ऊँची एक प्रतिमा कायोत्सर्गे मुद्रामें ध्यानावस्थित है। यह प्रतिमा एक ही शिलासे उकेरी गयी है। मूर्तिके सिरपर तीन छत्र सुशोभित हैं। छत्रोंके ऊपर दुन्दुभिवादक हैं। भगवान्के चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र सेवारत हैं। दो श्राविकाएं, जो वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत हैं, सामग्री लिये भगवान्के चरणोंमें नमन करती दीख पड़ती हैं।
एक शिलाफलकपर भगवान् नेमिनाथकी खड्गासन प्रतिमा है। इसके दोनों पार्यों में दो देवियां हैं। दायीं ओरकी देवी ललितासनमें बैठी हुई है। बायीं ओरकी देवी खड़ी हुई है । उसकी उँगली पकड़े हुए शुभंकर बालक खड़ा है। देवी अपने दूसरे हाथसे बालक प्रीतिकरको गोदमें लिये हुए है। इन देवियोंके दोनों ओर पावंद खड़े हैं। ये देवी-मूर्तियां अम्बिकाकी हैं, जो मातृदेवीका रूप है।
एक शिलाफलकमें पाश्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है । फणावली खण्डित हो गयी है। पीठासन धरणेन्द्रपर आधारित है। प्रतिमाके दोनों ओर दो-दो खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं बनी हुई हैं। दायीं ओरकी एक प्रतिमा खण्डित कर दी गयी है । यह मूर्ति पंचबालयतिकी है।
पार्श्वनाथकी एक पद्मासन प्रतिमाकी केवल फणावलो अवशिष्ट है । भामण्डलके ऊपर दोनों ओर गजका अंकन है।
एक फलकमें पंचबालयतिकी प्रतिमा है। मध्यकी मूर्ति पद्मासन मुद्रामें है तथा उसके दोनों पार्यो में दो-दो खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ एक शिक्षाफलकमें छह तीर्थंकरोंका अंकन है। तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानमग्न हैं। २-३ प्रतिमाएं ऐसी हैं जो अधिक क्षतिग्रस्त हैं। अतः उन्हें पहचानना कठिन है।
मन्दिर नं. २-यह चौबीसी मन्दिर कहलाता है। यह काले पाषाणका बना हुआ है। मूर्तियां भी काले पाषाणको बनी हुई हैं । इनकी अवगाहना ४ फुट है । इसी आकारकी भूरे पाषाणकी बाहुबली स्वामीकी प्रतिमा भी यहां विराजमान है। सभी प्रतिमाओंके सिर कटे हुए हैं । कुछ सिर यहीं विद्यमान हैं। इन प्रतिमाओंके दोनों ओर एक-एक सेविकादेवी बनी हुई है। इसके गलेमें अक्षमाला और तिराना तथा कटिमें मेखला सुशोभित है। मन्दिरके स्तम्भोंपर नत्य-मद्रामें पुरुष और स्त्रियाँ प्रदर्शित हैं । मन्दिरके द्वारकी चौखटपर मध्यमें पद्मासन और दोनों कोनोंपर खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं।
दो पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ ४८ दलवाले कमलपर विराजमान हैं। इनके भी सिर कटे हुए हैं। मन्दिरकी धरनपर मध्य में पद्मासन और उसके दोनों कोनोंपर कायोत्सर्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।
इन दोनों मन्दिरोंके अतिरिक्त कुछ मन्दिर भग्न बशामें पड़े हुए हैं। इनकी लगभग ६०० मूर्तियां मन्दिरके परकोटेकी दीवारोंसे टिकाकर रखी हुई हैं। एक शिलाफलकपर चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं और अखण्डित दशामें हैं। कुछ वर्ष पूर्व उसे सिरसौद गाँवके मन्दिरमें प्रतिष्ठित कर दिया गया है। इस फलकमें दो पंक्तियोंमें १२-१२ प्रतिमाएं हैं। सभी खड्गासन हैं और २ इंच अवगाहना की हैं।
यहाँ मन्दिरोंके सामने एक मानस्तम्भ है जो गिर चुका है। उसमें पद्मासनमें पद्मप्रभकी प्रतिमा बनी हुई है।
यहाँकी सभी मूर्तियोंके शारीरिक अवयव समानुपातिक हैं और उनकी गठन भरावदार है।
बूढ़ी चन्देरी
मार्ग
बूढ़ी चन्देरी या प्राचीन चन्देरी वर्तमान चन्देरीसे उत्तर और उत्तर-पश्चिमकी ओर १४ कि. मी. दूर है । मार्ग इस प्रकार है-चन्देरीसे खनियाधाना-शिवपुरीकी तरफ जानेवाली सड़कपर ९ कि. मी. दूर मोहनपुरसे ५ कि. मी. कच्चा मार्ग है। साथ ही चन्देरी-ईसागढ़-रोडपर चन्देरीसे १३ कि. मि. दूर भाण्डरीसे भियादात होते हुए ८ कि. मी. कच्चा रास्ता है। बेतवा नदीपर बने हुए रानीघाटसे भी पश्चिम और उत्तर-पश्चिममें लगभग इतनी ही दूर यह स्थान पड़ता है। बूढ़ी चन्देरी जंगलोंसे घिरी है। मीलों तक बस्ती नहीं है। एक पहाड़ीपर कोट और गढ़ीके भग्नावशेष हैं। सारी पहाड़ी इन अवशेषोंसे पटी पड़ी है। चन्देरीसे बूढ़ी चन्देरीके लिए पक्की सड़क बन चुकी है। इतिहास
शताब्दियोंसे यहाँ भग्नावशेष पड़े हुए हैं। इस विनाशको देखकर मनमें सहज ही यह प्रश्न उठता है कि ऐसा निर्मम विनाश किन हाथों द्वारा किया गया, किन्तु कोई समाधान नहीं मिलता। इतिहास-ग्रन्थोंको देखनेसे पता चलता है कि मालवापर जब मुसलमानोंने अधिकार किया, तभी
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ इस नगरपर भी उनका अधिकार हो गया था। यहाँके तत्कालीन हिन्दू शासकने अपनी राजधानी यहाँसे हटाकर नवीन चन्देरीमें स्थापित कर ली। यह समय सम्भवतः १५वीं शताब्दी था । विजयी मुसलमानोंने इस नगरको जीतकर मन्दिरों और मूर्तियोंका भीषण विनाश किया। उन्होंने यहाँ कुछ महल और मसजिदें भी बनायों जिनके चिह्न यहाँ अब तक उपलब्ध होते हैं।
चन्देरीका सर्वप्रथम उल्लेख फारसीके इतिहासकार फरिश्ताने किया है। उसने लिखा है कि दिल्लीके नासिरुद्दीन महमूदने हिजरी सन् ६४९ ( ई. सन् १२५१ ) में चन्देरी और मालवापर अधिकार करके वहाँ सूबेदार नियुक्त कर दिया। मुहम्मद तुगलकके कालमें, सन् १३३५ में, इब्न बतूता नामक इतिहासप्रसिद्ध यात्री भारत आया था। उसने भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि-'तब हम चन्देरी शहर पहुंचे जो एक बड़ा नगर है।' इस चन्देरीसम्बन्धी सम्पूर्ण विवरणसे लगता है कि यह उल्लेख बूढ़ी चन्देरीके लिए किया गया है।
इसके पश्चात् सन् १४३४ में महमूद खिलजीने चन्देरीपर अधिकार कर लिया। इसके आगामी वर्ष चित्तौड़नरेश राणा कुम्भाने यहांके मुस्लिम सूबेदारको मार भगाया। तब महमूद यहाँ स्वयं युद्ध करने आया। वह आठ माह तक किलेपर घेरा डाले पड़ा रहा। आखिर महमूद विजयी हुआ। चूंकि इस घटनामें दुर्गकी विजयका उल्लेख है, अतः यह निश्चित रूपसे नवीन चन्देरी ( वर्तमान चन्देरी ) होनी चाहिए।
इन उल्लेखोंसे हम इस निश्चित परिणामपर पहुंच सकते हैं कि सन् १३३५ या इसके आसपास इब्न बतूताके कालमें (बढ़ी) चन्देरी सुरक्षित और सम्पन्न नगर था। किन्तु सन १४३४ में युद्धका केन्द्र वर्तमान चन्देरी नगर बन गया। इससे लगता है कि सन् १३३५ और १४३४ के बीच बूढ़ी चन्देरीका महत्त्व समाप्त हो गया और उसका विनाश कर दिया गया। हमारे विचारसे यह कार्य मालवाके स्वयम्भू सुलतानों में से किसीका हो सकता है। इस नगरकी स्थापना महोबाके चन्देल राजाओंने की थी, जिनका शासन सन् ७०० से १९८४ तक रहा।
बूढ़ी चन्देरी एक पहाड़ीपर स्थित है। बेतवाके पश्चिमी तटपर स्थित यह पहाड़ी ३०० फुट ऊंची है। यह नगर तो अब खण्डहरोंके रूपमें पड़ा है किन्तु नगरके बिखरे हुए अवशेषोंसे प्रतीत होता है कि प्राचीन कालमें यह नगर अत्यन्त समृद्ध था। यहाँ जैन शिल्प और स्थापत्यका उल्लेखयोग्य वैभव बिखरा पड़ा है। उससे लगता है कि यह कभी जैन धर्मका बहुत बड़ा केन्द्र था। शताब्दियोंसे ये कलावशेष उपेक्षित दशामें पड़े रहे, किसीका ध्यान इनकी ओर नहीं गया। किन्तु संवत् २००१ में जैन समाजने इस ओर ध्यान दिया। तब जीर्णोद्धारका कार्य प्रारम्भ किया गया। सैकड़ों मतियां जमीन खोदकर या जंगलोंमें.खोजकर प्राप्त की गयीं। यहाँको कलामें एक वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। यहाँकी मूर्तियां अलंकृत हैं। उनके अंग-विन्यासमें समानुपात है। वे अष्ट प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षीसहित हैं। उनके मुखपर ईषत् मुसकान है। मूर्तिलेख और श्रीवत्स किसी मूर्तिपर नहीं है। कुछ मूर्तियोंपर लांछन भी नहीं है। विपुल परिमाणमें ऐसी सुन्दर मूर्तियाँ देवगढ़को छोड़कर अन्यत्र दुर्लभ हैं। कुछ वर्षोंसे मूर्तियोंके सिर खण्डित किये जाने लगे हैं। यह विध्वंस-लीला यहाँ भी हुई। सैकड़ों मूर्तियाँ सिरविहीन हो गयीं। तब केन्द्रीय पुरातत्त्व विभागने अवशिष्ट मूर्तियोंको चन्देरीमें लाकर एकत्र कर दिया। शासनकी ओरसे यहाँ एक संग्रहालय बनानेकी योजना है। किन्तु अब भी खण्डित और अखण्डित अनेक मूर्तियाँ वहाँ बिखरी और दबी पड़ी हुई हैं।
प्राचीन कालमें यह तीर्थक्षेत्र रहा होगा, किन्तु अब यह कोई तीर्थ नहीं रह गया है। फिर भी हम इसे कला-तीथं अवश्य कह सकते हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
आमनचार मार्ग
आमनचार चन्देरीसे लगभग २९ कि. मी. है। मुंगावली रोड-पर पथौरा तक २६ कि. मी. पक्की सड़क है तथा ३ कि. मी. कच्चा मार्ग है। चन्देरी और मुंगावली रोडके मध्य सेहराई गांव है। दोनों स्थानोंसे यह १९ कि. मी. है। वहाँसे क्षेत्र ३ कि. मी. है।
पुरातत्त्व
यहां गांवके भीतर और बाहर, गली-बाजारमें, घरोंमें, कुओंपर, पेड़ोंके नीचे सब जगह जैन मूर्तियां पड़ी हुई हैं। गांवमें एक जैन मन्दिर है। इसमें प्राचीन कालका एक सहस्रकूट चैत्यालय है। यह शिल्प-सौष्ठवका अद्भुत नमूना है।
___ मूर्तियोंको शैली आदिसे ऐसा अनुमान है कि वे ११-१२वीं शताब्दीकी हैं।
भामौन
. भामौन बीठलासे ६ कि. मी. है। ईसागढ़से १३ कि. मी. और महौलीसे ८ कि. मी. है। सभी मार्ग कच्चे हैं। पुरातत्त्व
___ अन्तिम ३ कि. मी. भागमें भामौन तक और उसके चारों ओर मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हए हैं। इन अवशेषोंमें जैन मूर्तियाँ भी बड़ी संख्यामें हैं। लगभग १०० मूर्तियोंके खण्डित भाग भी मिलते हैं । भामौनके आसपासकी पहाड़ियोंपर भी प्राचीन मूर्तियाँ मिलती हैं।
भियादाँत
मार्ग
भियादात मध्यप्रदेशमें चन्देरी-ईसागढ़ रोडसे १३ कि. मी. दूर भाण्डरी गांवसे ५ कि. मी. की दूरीपर उर्वशी नदीके किनारे एक पहाड़ीपर स्थित है। यह क्षेत्र गुना जिलेकी मुंगावली तहसीलमें है। इसका निकटतम रेलवे स्टेशन मुंगावली ( कोटा-बोना लाइन ) ५३ कि. मी. है तथा अशोकनगर ५० कि. मी. है। साथ ही चन्देरी-ईसागढ़ रोडसे १७ कि. मी. दूर महौलीसे ५कि. मी. कच्चे मार्गपर है।
पुरातत्त्व
यहाँ जैन पुरातत्त्व और कलाकी सामग्री विपुलतासे मिलती है। यहाँके मन्दिरमें पद्मासन तीर्थंकर-मूर्ति मूलनायकके रूपमें प्रतिष्ठित है। ग्रामीण लोग इसे 'बैठा देव' कहते हैं। प्रतिमा अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक है। इस प्रतिमाके कारण ही लोग इस स्थानको अतिशय
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०५ क्षेत्र कहते हैं । अहीर और गूजर इसे भीमसैन बाबा कहते हैं। जब उनकी गाय-भैंस बच्चे देती है, तब ये लोग आकर यहाँ भगवान्के ऊपर दूध चढ़ाते हैं।
यहाँ एक गुफा है जो मीलों तक चली गयी है। उसके सिरेपर एक तालाब है।
बीठला मार्ग
चन्देरीसे ईसागढ़ जानेवाले रोडपर १३ कि मी. पर भाण्डरी गांवसे ८ कि. मो. भियादाँत होते हुए बोठला क्षेत्र है। चन्देरीसे १७ कि. मी. दूर सड़कपर महौली है। वहाँसे यह क्षेत्र ६ कि. मी. है । मार्ग कच्चा है । यह क्षेत्र गुना जिलेमें है। .
पुरातत्त्व
इस गाँवसे दो फलांगपर एक प्राचीन जैन मन्दिर खड़ा हुआ है। इसके आसपास कई जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं। इन अवशेषोंमें कुछ तीर्थंकरोंकी खण्डित मूर्तियाँ पड़ी हुई हैं। मूर्ति-चिह्नोंसे सम्भवनाथ और मुनिसुव्रतनाथकी मूर्तियां पहचानी जा सकती हैं। ये मन्दिर और मूर्तियां लगभग १२वीं शताब्दीकी प्रतीत होती हैं।
आसपासमें इस प्रकारके कई स्थान हैं जहाँ प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष मिलते हैं तथा जहाँ खण्डित-अखण्डित मूर्तियाँ इधर-उधर पड़ी हुई हैं, जैसे नादारी, इन्सारी।
पपौरा
स्थिति और मार्ग
पपौरा अतिशय क्षेत्र है। यह मध्यप्रदेशके टोकमगढ़ जिलेमें कानपूर-सागर-मार्गपर टीकमगढ़से पूर्व दिशामें ५ कि. मी. है। यहाँ जानेके लिए सेण्ट्रल रेलवेके ललितपुर स्टेशनपर उतरना होता है। यहाँसे टीकमगढ़ ५८ कि. मी. है और वहाँ तक पक्की सड़क है। बसें बराबर मिलती हैं। टीकमगढ़से पपौरा तक भी सड़क पक्की है। बस, तांगे या स्कूटर द्वारा वहाँ जा सकते हैं। सड़कसे क्षेत्र लगभग एक फलांग है । मन्दिरोंकी नगरी
सुरम्य वृक्षावलीसे घिरे हुए विशाल मैदानके बीचमें एक परकोटेके अन्दर १०७ गगनचुम्बी मन्दिर हैं। मन्दिर नं. २४ अ और ब को एक ही माना है। इन्हें दो मन्दिर माननेपर १०८ मन्दिर हो जाते हैं। किन्तु वस्तुतः मन्दिरोंकी संख्या इतनी नहीं है क्योंकि नवनिर्मित बाहुबली मन्दिरमें २४ तीर्थंकरोंकी २४ मन्दरियाँ बनी हुई हैं। वे भी पृथक् मन्दिरोंके रूपमें उक्त संख्यामें सम्मिलित कर ली गयी हैं। इसी प्रकार मन्दिर नं.७६ में २४ तीर्थंकरोंके पृथक्-पृथक् गर्भगृह बने हए हैं। इन्हें २४ मन्दिर मानकर मन्दिरोंकी गणना कर ली गयी है। यदि बाहबली मन्दिर और चौबीसी मन्दिरको एक-एक मन्दिर मानें तो क्षेत्रपर मन्दिरोंकी संख्या १०७ न होकर ६०
३-१४
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ रह जायेगी क्योंकि तब ४७ मन्दिर कम हो जायेंगे। मन्दिरोंकी इस नगरीमें श्वेत मन्दिरोंपर श्वेत उत्तुंग शिखर, शिखरोंपर हवा में झूमती-लहराती ध्वजाएं कितनी भव्य प्रतीत होती हैं ! जैन मन्दिरोंकी यह नगरी अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और शान्त वातावरणके कारण आत्मसाधकों और भक्त श्रावकोंके लिए तो आकर्षणका केन्द्र है ही, साथ ही यह कलाप्रेमियों, शोध-छात्रों और इतिहासकारोंको भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।
यहाँके मन्दिरोंको कालकी दृष्टिसे विभाजित करना चाहें तो यह कहा जा सकता है कि यहाँ १ मन्दिर १२वीं शताब्दीका, १ मन्दिर १४वीं शताब्दीका, ३ मन्दिर १५वीं शताब्दीके, ४ मन्दिर १७वीं शताब्दीके, १ मन्दिर १८वीं शताब्दीका, ६१ मन्दिर १९वीं शताब्दीके और ३३ मन्दिर २०वीं शताब्दीके हैं। ४ मन्दिरोंके निर्माण-कालका पता नहीं चलता। उनके लेख या तो अस्पष्ट हैं, अथवा हैं ही नहीं। १२वीं शताब्दीका जो मन्दिर बताया गया है, वह मन्दिर नहीं, भोयरा है। सम्भव है, यहाँके किसी मन्दिरमें इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई हो, और आततायियोंके आतंकसे मूर्तियोंकी सुरक्षाके लिए बादमें भोयरा बनाया गया हो, यह अनुमान मात्र ही है क्योंकि यहाँ कोई मन्दिर १२वीं शताब्दीका प्रतीत नहीं होता, न ही उस कालके भग्नावशेष यहाँ उपलब्ध होते हैं। इस विषयमें शोधकी आवश्यकता है। यहाँके सबसे प्राचीन चार मन्दिर हैं-महावीर मन्दिर (मन्दिर क्रमांक ५), चन्द्रप्रभ मन्दिर (मन्दिर क्रमांक ७), पाश्र्वनाथ मन्दिर (क्रमांक ४१) और चन्द्रप्रभ मन्दिर (क्रमांक ४२), ये चारों ही मन्दिर संवत् १४३०, १५२४ और १५४२ के हैं। इनमें दो मेरु-मन्दिर हैं। लगभग इसी कालमें मेरु-मन्दिरोंकी इसी प्रकारकी रचना अहार और सोनागिरमें हुई। अहारका मेरु-मन्दिर संवत् १५४८ में बनकर प्रतिष्ठित हुआ और सोनागिरिके मेरु-मन्दिरकी प्रतिष्ठा ( जिसे पिसनहारीका मन्दिर कहा जाता है ) संवत् १५४९ में हुई। खजुराहो, रेशन्दीगिरि, द्रोणगिरि, पटनागंज आदि क्षेत्रोंपर मेरु-मन्दिरोंकी रचना इन्हींकी अनुकृतिपर हुई। मेरु-मन्दिरकी अन्तःपरिक्रमावाली रचनाका प्रारम्भ कब और कहाँ हुआ, यह अभी विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता, किन्तु मध्यप्रदेशके मेरु-मन्दिरोंमें सर्वाधिक प्राचीन पपौराके ये दो मेरु-मन्दिर लगते हैं जिनका अनुकरण अन्य कई तीर्थोपर किया गया।
इन मन्दिरोंको छोड़कर केवल ५ मन्दिर ही ऐसे हैं जो १७-१८वीं शताब्दीके हैं, शेष तो १९-२०वीं शताब्दीके हैं। शिल्पकारोंके समक्ष मन्दिरोंकी नानाविध शैलियाँ, रूप और प्रकार विद्यमान थे। इसलिए उन्होंने पपौराके मन्दिर-शिल्पमें उनका अनुकरण करके उसे वैविध्य प्रदान किया है। इसलिए हमें यहाँ एक ओर नागर-शैलीके मन्दिरोंके दर्शन होते हैं, दूसरी ओर यहाँके मन्दिरोंके कई शिखरोंपर द्रविड़ शैलीकी भी छाप पड़ी है। यहाँका शिल्पी पारम्परिक सीमाओंमें बँधकर चलता दीख पड़ता है किन्तु फिर भी वह शिल्पको नयो विधा देनेमें सफल रहा है। मन्दिरको रथ या मुकुलित कमलका आकार देने में शिल्पीकी प्रतिभाका परिचय मिलता है। मन्दिरकी चौबीसीके निर्माणमें भी विशिष्ट कल्पना और सूझबूझ झलकती है।
यहाँके मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा कब हुई, इस सम्बन्धमें कहीं कोई लेख प्राप्त नहीं होता। किन्तु प्रायः मूलनायककी प्रतिष्ठाके समय ही मन्दिर और वेदीकी प्रतिष्ठा होती है। अतः प्रत्येक मन्दिरकी मलनायक प्रतिमाके लेखके द्वारा उस मन्दिरका भी प्रतिष्ठा-काल ज्ञात हो जाता है। इस आधारपर मन्दिरोंकी प्रतिष्ठाका इस प्रकार वर्गीकरण कर सकते हैं-संवत् १४३० में १ मन्दिर और संवत् १५२४ में १ मन्दिरको प्रतिष्ठा हुई ; संवत् १५४२ में २ मन्दिरों की; १६८४ में १; १६८७ में १; १७१६ में १; १७१८ में १, १७७९ में १; १८६० में १; १८६५ में १; १८६९ में १; १८७२ में २; १८७५ में १; १८७६ में १, १८८२ में २; १८८३ में ३; १८८८ में १; १८९०
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०७ में १; १८९२ में ६; १८९३ में ३; १८९४ में १; १८९७ में २; १९०० में २; १९०३ में १; १९१६ में २६; १९३९ में १; १९४० में १; १९४२ में २; १९५५ में १; २०१६ में १ और संवत् २०२५ में मन्दिर नं. ४४ से ६८ तकके २५ मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा की गयी। १२ मन्दिरोंका प्रतिष्ठा-काल ज्ञात नहीं हो सका है। इस विवरणसे यह निष्कर्ष निकलता है कि १४वीं शताब्दीसे १८वीं शताब्दी तक यहाँ कुल ९ जिनालय निर्मित हुए। यह गणना मूर्तिलेखोंके आधारपर की गयी है। किन्तु मूर्तिलेखोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि १८वीं शताब्दी तकके किसी मूर्तिलेखमें पपौरा क्षेत्रका नामोल्लेख नहीं किया गया। संवत् १८६० के मूर्तिलेखमें सर्वप्रथम पपौराका उल्लेख प्राप्त होता है, और वह भी क्षेत्र पपौराके रूपमें। इसके उत्तरकालीन मूर्तिलेखोंमें क्षेत्र पपौराका उल्लेख बराबर मिलता है। कुछ उल्लेखनीय विशेषताएँ
इस क्षेत्रपर कई चीजें ऐसी हैं जो ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक दृष्टिसे उल्लेख योग्य कही जा सकती हैं और दर्शक जिनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। ऐसी कुछ विशेषताओंका उल्लेख यहाँ किया जा रहा हैभोयरे
__यहाँ दो भोयरे ( भू-गर्भगृह ) हैं। एक भोयरे में तीन कमरे हैं। भोयरा काफी विशाल है। कमरोंकी छतें भी बहुत ऊँची हैं। इन कमरोंमें एक कमरेको लम्बाई-चौड़ाई २० फुट ९ इंच है। किन्तु इस भोयरेमें कोई मूर्ति नहीं है।
एक दूसरा भोयरा भी है जो यहाँका सबसे प्राचीन स्थान है। इसमें भगवान् आदिनाथकी कृष्ण पाषाणकी पालिशदार प्रतिमा अति मनोज्ञ है। भगवान्के मुखपर वीतरागता, शान्ति और सौन्दर्यका अद्भुत संगम है । ऐसी मनोज्ञ मूर्तियाँ भारतमें बहुत कम प्राप्त होती हैं।
इस मूर्तिके दोनों ओर दो मूर्तियाँ ८०० वर्षसे कुछ अधिक प्राचीन हैं। जैसा कि उनके पीठासनोंपर अंकित लेखोंसे प्रकट होता है, दोनों ही मूर्तियां संवत् १२०२ की हैं। दायीं ओर की मूर्तिकी प्रतिष्ठा संवत् १२०२ आषाढ़ वदी १० बुधवारको गोलापूर्वी साहु गल्ले और उनकी स्त्रीने करायी। दूसरी प्रतिमाको प्रतिष्ठा इसी मुहूर्तमें गोलापूर्व साहु टुड़ा और उनके परिवारने करायी। ये तीनों ही मूर्तियाँ अपने शिल्प-सौन्दर्य और प्राचीनताकी दृष्टिसे बहुमूल्य हैं।
इस भोयरेसे ऐसा लगता है कि अहार, बन्धा, पपौरा आदि स्थानोंके भोयरे एक ही कालमें बने हुए हैं। उस समय इस क्षेत्रपर कोई मन्दिर आदि नहीं था। भोयरे कोई कलाकी वस्तु नहीं थे। उनके निर्माणका उद्देश्य मूर्तियोंकी सुरक्षा करना था। वह काल ऐसा था, जब बाहरसे आनेवाले मुसलमानोंके आक्रमण शुरू हो चुके थे और वे आक्रमण करते समय मन्दिरों और मूर्तियोंका भी विध्वंस कर रहे थे। इन आततायियोंका आतंक उत्तर भारतमें सर्वत्र फैल चुका था। ऐसे ही कालमें उन स्थानोंपर भोयरे बनाये गये, जो प्राकृतिक दृष्टिसे सुरक्षित थे और जिनकी ओर आततायियोंका ध्यान न जा सके । नगरोंमें कुछ मन्दिरोंके नीचे गर्भगृह बनाये गये और कुछ गर्भगृह पर्वतों, वनों और एकान्त स्थानोंमें बनाये गये । स्थानीय स्तरपर ही ये प्रयत्न किये गये। अतः भोंयरोंकी संख्या अधिक नहीं हो सकी। बुन्देलखण्डके भोंयरोंका अध्ययन करनेपर हम इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि केवल सुरक्षित स्थान देखकर ही वहाँ ये भोयरे बनाये गये । भोंयरोंके निर्माणसे पूर्व यहाँ कोई मन्दिर रहा हो अथवा तीर्थको मान्यता रही हो, ऐसा भी नहीं लगता। यही कारण
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
है कि इन स्थानों पर ११-१२वीं शताब्दीसे पूर्वके कोई मन्दिर नहीं मिलते। इस सम्भावनाको भी इनकार नहीं किया जा सकता कि १० से १२वीं शताब्दी तक की जो मूर्तियां इन भू-गर्भालयों में उपलब्ध होती हैं, वे उस स्थानकी न हों जहाँ वे वर्तमान हैं, बल्कि अन्यत्रसे लाकर प्रतिष्ठित कर गयी हों ।
प्राचीन समुच्चय
यह यहाँका सबसे प्राचीन स्थान माना जाता है। इस स्थानके बीचमें एक मन्दिर बना हुआ है और उसके चारों ओर पुराने ढंगके बारह मठ हैं। लोग इस स्थानको 'सभा मण्डप' कहते हैं ।
चौबोसी - मूर्तियोंकी चौबीसी तो कई स्थानोंपर मिलती है किन्तु यहाँ मन्दिरोंकी चौबीसी बनी हुई है। एक मन्दिरके चारों ओर अर्थात् चारों दिशाओंमें छह-छह मन्दिरोंकी पंक्तियाँ हैं । मन्दिरोंकी ऐसी चौबीसी शायद अन्यत्र कहीं नहीं है ।
क्षेत्रपर अतिशय
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इस क्षेत्रके अतिशयोंके सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ जनता में प्रचलित हैं । कई किंवदन्तियाँ तो ऐसी भी हैं जो अन्य कई क्षेत्रोंपर भी प्रचलित हैं, जैसे बावड़ी द्वारा बरतनोंका दान, महिलाका सूखे कुएँमें उतरना और उसके ऊपर आनेपर जलका ऊपर आना आदि । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इन किंवदन्दियोंमें कितना सत्यांश और कितनी कल्पना है । यदि इनमें कुछ सत्यांश भी है तो ये घटनाएँ वस्तुतः किस क्षेत्रपर घटित हुईं, यह नहीं कहा जा सकता ।
यहाँ जो किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं
१. यहाँ एक पुरानी बावड़ी है। जब किसी यात्रीको बरतनोंकी जरूरत पड़ती थी तो वह एक पर्चीपर बरतनोंके नाम लिखकर उसे उस बावड़ी में डाल देता था। थोड़ी देर में बरतन पानी के ऊपर आ जाते थे । काम पूरा होनेपर वह उन बरतनोंको पुनः पानीमें डाल देता था। एक बार एक यात्रीकी नीयत खराब हो गयी । उसने बरतन पानी में नहीं डाले । तबसे बावड़ीने बरतन देना बन्द कर दिया ।
२. मन्दिर नं. १ बन रहा था । एक वृद्ध महिला इस मन्दिरका निर्माण करा रही थी । मन्दिरकी नींव भरी जा चुकी थी । भोज होनेवाला था । किन्तु कुएँका पानी सूख गया । वह वृद्धा रस्सोंसे बँधी चौकीपर बैठकर भगवान् के नामकी माला फेरती हुई कुएँ में उतरी। जब वह वापस आने लगी तो जैसे-जैसे वह ऊपर आती गयी, कुएँका पानी चौकोको छूता हुआ ऊपर उठने लगा ।
वह महिला बाहर निकली तो कुएँका पानी भी कुएँसे बाहर बहने लगा । भोजका काम सानन्द सम्पन्न हुआ। वह कुआँ अब भी मौजूद है और उसका नाम तबसे ही 'पतराखन' हो गया है ।
३. अनेक लोग भोंयरे और चन्द्रप्रभ मन्दिर में मनोकामना लेकर आते हैं । स्त्रियाँ सन्तान - की इच्छासे यहाँ मनौती मानती हैं और हाथके छापे लगाती हैं ।
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ऐतिहासिक सामग्री
यहाँकी मूर्तियों के पीठासनोंपर लेख उत्कीर्णं हैं । उनमें इतिहासकी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है । उपलब्ध मूर्ति-लेखों का अध्ययन और विश्लेषण करनेपर अनेक बातोंपर प्रकाश पड़ता है, जैसे
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ भट्टारक-परम्परा, राजाओंके नाम, प्रतिष्ठाकारकोंके परिवार, उनकी जाति, गोत्र, वंश आदि । यहाँ विस्तृत विवेचन न करके उनके केवल नाम ही दिये जा रहे है
भट्टारक-धर्मकीर्ति तत्पट्टे पद्मकीर्ति तत्पट्टे सकलकीर्ति, चन्द्रपुरी पट्टे भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति । ललितकीर्ति तत्पट्टे रत्नकीर्ति ।
ओरछा-नरेश-(महाराजकुमार महेन्द्र बहादुर महाराजाधिराज यह पदवी सभी राजाओं: के साथ है) विक्रमाजीत, धर्मपाल, तेजसिंह, सुजानसिंह, हमीरसिंह, उद्योतसिंह।
___ नगरोंके नाम-टेहरी, पपौरा, टीकमगढ़, छत्रपुर, चन्देरी, भोपाल, परतापगंज, सुनवारा, भामोन।
जाति-परवार, गोलालारे, गोलापूर्व, पौरपट्ट।।
गोत्र-कोछल्ल, वासल्ल, भारल्ल, गोइल्ल, गोहिल्ल, कासिल्ल, वाछल्ल, वेरिया, कासिय, वाझल्ल, पडेले, श्वान बिहार ।
मूर-ओछल्लि, बहुरिया, भारु, वैशाखिया, मागेर, नारद, देवा, गोदू, रकिया, डेरिया। क्षेत्र-दर्शन
मुख्य सड़कसे थोड़ा चलकर विशाल गोपुर ( मुख्य द्वार ) मिलता है। इस द्वारके ऊपर ही रथाकार जिनालय बना हुआ है। द्वारसे प्रवेश करते ही दोनों ओर दो-दो मानस्तम्भ दिखाई पड़ते हैं जिनकी वेदीमें चार-चार प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। दायीं ओर वीर विद्यालय भवन और छात्रावास है तथा बायीं ओर विशाल हॉल और व्रती भवन है। आगे बढ़नेपर दोनों ओर प्राचीन और नवीन क्षेत्र-कार्यालय हैं। पुराने कार्यालयके निकट ही पतराखन कुआँ है और आगे भोजनशाला। सामने मैदान पार करके धर्मशाला है। नवीन कार्यालयके निकट ही मन्दिरोंकी तालिका प्रारम्भ हो जाती है। प्रत्येक मन्दिरपर क्रम-संख्या लिखी हुई है। इससे यात्रीको दर्शन करनेमें असुविधा नहीं होती। इन मन्दिरोंका क्रमशः परिचय इस प्रकार है
१. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् ऋषभदेवकी १० फुट ऊँची स्वर्णवर्ण खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। सिरपर छत्र और पीछे भामण्डल हैं। सिरके दोनों ओर गगनविहारी देवियाँ पूष्पवर्षा कर रही हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं। उनसे नीचे चतुर्भुजी गोमेद यक्ष और अष्टभुजी चक्रेश्वरी यक्षी हैं। बिलकुल अधोभागमें दोनों ओर भक्तगण हैं।
इसके अतिरिक्त पाषाणकी २ तथा धातुको १० प्रतिमाएँ हैं। प्रतिष्ठा-संवत् १८७२ है।
२. सुपाश्वनाथ मन्दिर-एक गन्धकुटीमें भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है । अवगाहना डेढ़ फुट है । एक धातु-मूर्ति भी इसके आगे आसीन है।
___ मुख्य वेदीमें सुपाश्वनाथकी कृष्ण पाषाणको सवा दो फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है। प्रतिष्ठाका संवत् मिट गया है । वह संवत् १८८३ प्रतीत होता है।
३. चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभकी २ फुट उत्तुंग कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिष्ठाका संवत् १८९२ है।।
४. श्रेयान्सनाथ मन्दिर-भगवान् श्रेयान्सनाथकी ३ फुट ७ इंच उत्तुंग कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिष्ठा-काल संवत् १८८२ है। इसके आगे श्वेत पाषाणको चन्द्रप्रभप्रतिमा विराजमान है जो २ फुट २ इंच ऊँची है।
५. महावीर मन्दिर-एक वेदीमें मूलनायक भगवान् महावीरकी श्वेत पाषाणकी पद्मासन
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
प्रतिमा विराजमान है । इसकी अवगाहना २ फुट ७ इंच है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९९४ में हुई थी। इसके समवसरणमें श्वेत पाषाणकी ५ पद्मासन प्रतिमाएँ हैं ।
उपर्युक्त मन्दिरमें ऊपर की मंजिल में भी वेदी है, जिसमें मध्यमें श्यामवर्णं पार्श्वनाथ आसीन हैं। यह मूर्ति संवत् १९०४ में प्रतिष्ठित हुई । बायीं ओर एक शिलाफलकमें २४ तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। प्रथम पंक्ति में ९ पद्मासन, दूसरी पंक्ति में ५ पद्मासन, तीसरी पंक्ति में ४ खड्गासन, चौथी पंक्तिमें ४ पद्मासन, पांचवीं पंक्तिमें ४ खड्गासन, छठी पंक्ति में ४ पद्मासन तथा मध्यमें १ पद्मासन मूर्ति है । मध्य मूर्तिके सिरके ऊपर छत्र, उसके ऊपर दुन्दुभिवादक तथा दोनों ओर धर्मचक्रका अंकन है। इस मूर्ति के नीचे तीन गन्धर्व नृत्यमुद्रामें अंकित किये गये । इसके लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् १४३० में हुई थी । भगवान् पार्श्वनाथके दायीं ओर सात इंचके एक शिलाफलकमें एक पद्मासन मूर्ति बनी हुई है ।
६. मेरु मन्दिर - अन्तःपरिक्रमावाला मेरु-मन्दिर है । इसमें लाल पाषाणकी पद्मासन मुद्रा पार्श्वनाथ मूर्ति विराजमान है। अवगाहना १ फुट ५ इंच और प्रतिष्ठा काल संवत् १८९० है । ७. मेरु-मन्दिर - यह भी पूर्ववत् मेरु-मन्दिर है । इसमें चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्णं १ फुट ३ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति आसीन है । प्रतिष्ठा संवत् १५४२ में हुई ।
।
८. पार्श्वनाथ मन्दिर – यहाँ संवत् १९०३ में प्रतिष्ठित ३ फुट ऊँची पार्श्वनाथ प्रतिमा पद्मासनमें ध्यानलीन है । इस मन्दिरमें परिक्रमा पथ भी बना हुआ है ।
९. चन्द्रप्रभ मन्दिर - पार्श्वनाथ मन्दिरमें ही ऊपरकी मंजिलमें चन्द्रप्रभ भगवान् की श्वेतवर्ण २ फुट १ इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । प्रतिष्ठा काल संवत् १९४२ है । १०. आदिनाथ मन्दिर - ऋषभदेव भगवान्की संवत् १९४२ में प्रतिष्ठित श्वेत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है ।
११. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथकी कृष्ण पाषाणकी और १ फुट ३ इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । देशी पाषाणके चरण हैं ।
संवत् १९३९ में प्रतिष्ठित इनके आगे ८ इंच लम्बे
१२. विमलनाथ मन्दिर - मूलनायक विमलनाथ कृष्णवर्णं पद्मासनमें आसीन हैं । अवगाहना २ फुट ८ इंच है और प्रतिष्ठा संवत् १९०६ में हुई। उनके इधर-उधर श्वेतवर्णके पार्श्वनाथ और आदिनाथ विराजमान हैं जो क्रमशः संवत् १९०० और १९०३ में प्रतिष्ठित हुए हैं।
१३. आदिनाथ मन्दिर - भगवान् आदिनाथकी ५ फुट ३ इंच प्रतिमा स्वर्णवर्णकी कायोत्सर्गासन मुद्रामें है और संवत् १७१८ में प्रतिष्ठित हुई है । इधर-उधर दो आलोंमें बायीं ओर अभिनन्दननाथ और दायीं ओर अजितनाथ विराजमान हैं जो क्रमशः संवत् १८७२ और १९३१ में प्रतिष्ठित हुए। ये दोनों ही मूर्तियां श्वेत पाषाणकी पद्मासन हैं ।
१४. पार्श्वनाथ मन्दिर - पाषाणके एक चौखटेमें पार्श्वनाथ भगवान्की ४ फुट १० इंच ऊँची श्वेतवर्णं खड्गासन प्रतिमा विराजमान है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १९१६ में हुई है। दोनों पाश्वों में चमरेन्द्र सेवा कर रहे हैं। यह प्रतिमा पैरोंसे ऊपर खण्डित है । इस मन्दिर में वेदी और फर्शपर टाइल्स लगे हुए हैं।
१५. अरहनाथ मन्दिर - वेदीमें श्वेत पाषाणकी २ फुट ५ इंच ऊँची अरहनाथकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९२ में हुई । मूर्तिका पीठासन २ फुट ९ इंच है। १६. आदिनाथ मन्दिर - आदिनाथ भगवान्की १ फुट १ इंच अवगाहनावाली संवत् १८९२ में प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसका वर्णं श्वेत है ।
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मध्यप्रदेश दिगम्बर तीर्थ १७. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् ऋषभदेवकी श्यामवर्ण और २ फुट २ इंच उत्तुंम पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिष्ठाका संवत् १९०० है । इसको चरणचौकी २ फुट ७ इंच ऊंची है।
१८. मेरु-मन्दिर-इसमें रक्ताभ पार्श्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है जो संवत् १८७२ में प्रतिष्ठित हुई।
. १९. सम्भवनाथ मन्दिर इस मन्दिरकी वेदी शिखरके मूलको स्पर्श करती है। इसमें भगवान् सम्भवनाथको २ फुट ७ इंच उत्तुंग श्यामवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १८९२ है। . २०. चन्द्रप्रभ मन्दिर–२ फुट ६ इंच ऊँची इस प्रतिमाको प्रतिष्ठा संवत् १८९२ में हुई थी। यह श्वेतवणं है और पद्मासन मुद्रामें है।
२१. आदिनाथ मन्दिर-यह खाकी वर्णको ५ फुट २ इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा संवत् १६८७ में प्रतिष्ठित हुई। दोनों पार्यों में चमरधारी इन्द्र खड़े हैं। बायीं ओर एक वेदीमें सुपार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा है, जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १९१८ में हुई।
२२. नेमिनाथ मन्दिर-एक गुमटीमें नेमिनाथकी सवा फुट ऊंची बादामी वर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १७१६ है।
२३. भोयरा ( भूगर्भगृह )-इस भोयरेमें एक चबूतरेपर सुन्दर पालिशवाली और २ फुट ८ इंच अवमाहनाकी तीन तीर्थकर मूर्तियां विराजमान हैं। इनके ऊपर लांछन और लेख कुछ भी नहीं है। बगलकी दोनों मूर्तियां भी इसी वर्ण और पालिशकी हैं। इनका प्रतिष्ठा-काल, मूर्तिलेखके अनुसार, संवत् १२०२ ( ई. सन् ११४५ ) है। ये ही मूर्तियाँ इस क्षेत्रपर सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती हैं । इनकी अवगाहना लगभग सवा दो फुट है।
२४. अ-नेमिनाथ मन्दिर-यह कृष्ण वर्णवाली २ फुट ७ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा संवत् १९४० में प्रतिष्ठित की गयी ।
२४. ब-महावीर मन्दिर-एक ३ फुट १ इंच ऊँचे शिलाफलकमें रक्ताभवणं महावीरकी खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। सिरके ऊपर छत्रत्रयो सुशोभित है। उसके दोनों ओर तथा ऊपर गन्धर्व वाद्य-यन्त्र लिये हुए दीख पड़ते हैं। उनसे कुछ नीचे दोनों ओर हाथीपर अभिषेककलश लिये हुए सौधर्म एवं ऐशान स्वर्गोंके इन्द्र बैठे हैं। उनसे नीचे दो पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियोंका अंकन है। चरणोंके दोनों पार्यों में नृत्यमुद्रामें चमरवाहक खड़े हुए हैं। इनके पृष्ठ भागमें खड्गासन मुद्रामें तीर्थंकर प्रतिमा है। इनके निकट भक्त-श्राविकाएं हाथ जोड़े हुए बैठी हैं। सबसे अधोभागमें सिंहत्रयी बनी हुई है। .
इस मूर्तिसे ऊपर दीवारमें गन्धर्व और किन्नरियां भक्तिविभोर होकर नृत्यगानमें मग्न हैं। दोनों ओर दीवारोंमें २ खड्गासन और २ पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ अवस्थित हैं। ये सब मूर्तियां कहीं भूगर्भसे निकली प्रतीत होती हैं।
२५. पार्श्वनाथ मन्दिर-लगभग दो फुट ऊंची यह श्वेतवर्ण पद्मासन पार्श्वनाथ प्रतिमा संवत् १८७५ में प्रतिष्ठित हुई है।
२६. इस मन्दिरमें श्याम वर्णकी तीन मूर्तियां विराजमान हैं। तीनोंपर ही कोई लांछन नहीं है। मध्यकी मूर्ति ५ फुट ३ इंच है, बायीं ओरकी ५ फुट २ इंच तथा दायों ओरकी ४ फुट ५ इंच है। ये तीनों अलग-अलग अलमारीनुमा वेदियोंमें अवस्थित हैं। इनके अतिरिक्त डेढ़ फुट ऊँची पार्श्वनाथकी और एक फुट ऊँची चन्द्रप्रभकी एक-एक मूर्ति और हैं।
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१९२
'भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ २७. भोयरा-भगवान् नेमिनाथकी कृष्णवर्णकी २ फुट २ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति-लेखमें संवत् १७७९ अंकित लगता है। इसके बायीं ओर रक्ताभ-वर्ण सम्भवनाथकी ७ इंचको मूर्ति है। दायीं ओर २. फुट १.इंच ऊँची मूर्ति है। पादपीठपर कोई लांछन नहीं है। संवत् भी अस्पष्ट है। एक १ फुट ७ इंच ऊँचे स्तम्भमें दो खड्गासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं। एक अन्य १ फुट ६ इंच ऊंचे स्तम्भमें ६ मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। एक शिलाफलकमें १ फुट १० इंच ऊंची पार्श्वनाथ मूर्ति बनी हुई है। नेमिनाथकी एक छोटी मूर्ति अन्य मूर्तियोंके आगे रखी हुई है।
२८. चन्द्रप्रभ जिनालय-भगवान् चन्द्रप्रभको कृष्ण पाषाणकी १ फुट ६ इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा है । मूर्ति-लेख नहीं है।
२९ से ३५. तक सात गुमटियां बनी हुई हैं, जिसमें क्रमशः आचार्य पुष्पदन्त, भूतबलि, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, शिवसागर और श्रुतसागरके श्वेत पाषाणके चरणचिह्न बने हुए हैं।
३६. पार्श्वनाथ मन्दिर-इसको वेदी ३ फुट ४ इंच ऊंची है। इसपर भगवान्की श्यामवर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना ३ फुट ३ इंच है। इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १८८८ है।
___३७. पुष्पदन्त मन्दिर-भगवान् पुष्पदन्तको ८ फुट उत्तुंग स्वर्ण वर्णवाली प्रतिमा कायोत्सर्गासनमें विराजमान है. जिसकी प्रतिष्ठा संवत १८६९ में हुई है। प्रतिमाके सिरके दोनों पाश्ॉमें चमरेन्द्र खड़े हैं तथा चरणोंके दोनों ओर भगवान्के सेवक अजित यक्ष और महाकाली (भृकुटि) यक्षी भगवान्की सेवामें उपस्थित हैं। ये दोनों ही चतुर्भुजी हैं।
३८. पार्श्वनाथ मन्दिर-यह मन्दिर ऊपरकी मंजिलपर है। पार्श्वनाथ भगवान्की कृष्णवर्ण ४ फुट अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९४ में की गयी। फणावलीमें ९ फण हैं। .
३९. चन्द्रप्रभ मन्दिर-७ फुट ऊंचे एक शिलाफलकमें चन्द्रप्रभ तीर्थंकरको खड्गासन प्रतिमा है । शीर्षभागके दोनों पार्यों में पुष्पमाल लिये नभचारी देव दिखाई पड़ते हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं। अधोभागमें भक्तयुगल सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक और उनकी धर्मपत्नी करबद्ध मुद्रामें अवस्थित हैं। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १६८४ में की गयी। मन्दिरमें परिक्रमा-पथ भी बना हुआ है।
४०. पार्श्वनाथ मन्दिर-२ फुट १० इंच उत्तुंग श्वेतवर्ण और संवत् १८९३ में प्रतिष्ठित पद्मासन मुद्रामें पाश्वनाथ-मूर्ति विराजमान है । इसका पीठासन २ फुट १० इंच ऊंचा है।
४१. पार्श्वनाथ मन्दिर-पाश्र्वनाथकी यह पद्मासन प्रतिमा श्वेत पाषाणकी है और संवत् १५४२ में इसकी प्रतिष्ठा हुई है। ..
४२. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह ७ फुट ३ इंच उत्तुग बादामी वर्णकी खड्गासन प्रतिमा संवत् १५२४ में प्रतिष्ठित हुई है । सिरपर छत्रत्रय सुशोभित है। उसके दोनों ओर गजलक्ष्मी और पुष्पवर्षा करते हुए गन्धर्व प्रदर्शित किये गये हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरधारी इन्द्र खड़े हैं। अधोभागमें भक्त-श्राविका हाथ जोड़े हुए बैठी है। - इस मूलनायक प्रतिमाके अतिरिक्त इस गर्भगृहमें ९ मूर्तियां और हैं, जिनमें ६ मूर्तियाँ मूलनायकके दोनों ओर विराजमान हैं तथा ३ मूर्तियाँ बायीं ओर आलोंमें रखी हुई हैं। इन ९ मूर्तियोंमें ८ मूर्तियाँ मूलनायकके समकालीन लगती हैं। उनका पाषाण भी वही है जो
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
११३ मूलनायकका है। चन्द्रप्रभ भगवान्की श्वेतवर्ण एक पद्मासन प्रतिमा संवत् १९११ की प्रतिष्ठित है । मूलनायक चन्द्रप्रभको प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ और अतिशयसम्पन्न है। अनेक स्त्री-पुरुष इसके
मनौतियों मानने आते हैं।
. मन्दिरके बाहर चार स्तम्भोंपर आधारित मण्डप है। मन्दिरके प्रवेश-द्वार, तोरण और आधार-स्तम्भोंमें नृत्य-मुद्रामें मिथुन, संगीत-समाज और मोहक भंगिमामें नर्तकियोंका भव्य अंकन किया गया है। यह दृश्यांकन खजुराहोकी कलाके अनुकरणपर किया गया लगता है।
__४३. पद्मावती मन्दिर-यहाँ देवी पद्मावती सुखासनमें आसीन है। देवी चतुर्भुजी है। ऊपरके हाथोंमें अंकुश और कमल हैं तथा नीचेके हाथोंमें माला और बिजौरा हैं। नीचे उसका वाहन हंस खड़ा है। देवी अलंकारमण्डित है। कानोंमें कण्डल. भजाओंमें भजबन्द, हाथों तथा पैरोंमें कड़े और गले में गलहार हैं। देवीके ऊपर नागकुमार देवोंकी इन्द्राणीका सूचक सप्त फणच्छद है । उसके ऊपर सिंहासनपर भगवान् पार्श्वनाथ विराजमान हैं। यह देवी-मूर्ति पालिशदार श्वेत पाषाणकी है। इसके चारों ओर पाषाणका चौखटा बना हुआ है, जिसमें चार तीर्थंकर मूर्तियां बनी हुई हैं। पार्श्वनाथ और देवी दोनोंके दोनों पार्यों में चमरवाहक खड़े हुए हैं। अधोभागमें दोनों ओर कुत्तेपर आरूढ़ भैरव क्षेत्रपाल हैं। वे एक हाथमें गदा उठाये हुए हैं। दायें हाथमें त्रिशूल है जो कन्धेपर रखा हुआ है तथा बायें हाथमें सम्भवतः कन्दुक है जो कुत्तेके मुखपर रखा हुआ है। मूर्तिके शिलाफलककी माप २ फुट १० इंच है।
४४. मुनिसुव्रतनाथ मन्दिर-मुनिसुव्रतनाथकी २ फुट ६ इंच ऊँची कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा संवत् १८९२ में प्रतिष्ठित हुई है। मन्दिरमें परिक्रमा-पथ बना हुआ है।
४५. चन्द्रप्रभ मन्दिर-आसनसहित इस मूर्तिकी ऊँचाई ८ फुट है। यह स्वर्णवर्णवाली खड्गासन मूर्ति संवत् १८७६ में प्रतिष्ठित की गयो। प्रतिमाके सिरके पीछे भामण्डल और ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है । शीर्षके दोनों ओर गज बने हुए हैं। भगवान्के चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र और नृत्यमुद्रामें देवियाँ प्रदर्शित हैं। अधोभागमें अरहनाथ और शीतलनाथकी खड्गासन मूर्तियां हैं। बायीं ओर चन्द्रप्रभ भगवान्का यक्ष श्याम कपोतपर आसीन है। उसके एक हाथमें माला है और दूसरे हाथमें कमलपुष्प है। उसके बगलमें भगवान्का चमरवाहक खड़ा है। दायीं ओर अष्टभुजी ज्वालामालिनो यक्षी है। वह महिषपर आरूढ़ है। दो दायें हाथोंमें त्रिशूल और एकमें बाण हैं तथा एक हाथ महिषके मुखपर है। एक बायें हाथमें नागपाश और दूसरेमें धनुष है, तीसरा हाथ वक्षपर रखा है और चौथा मुट्ठी बाँधे लटका हुआ है। इनके अधोभागमें हाथ जोड़े हुए स्त्रियाँ और सिंहपीठके सिंह बैठे हैं । इस मन्दिरमें परिक्रमा-पथ बना हुआ है।
४६. बाहुबली मन्दिर- यह अभी निर्माणाधीन है । संवत् २०२५ में इसकी प्रतिष्ठा हो चुकी है। बाहुबली स्वामीको मकरानाकी श्वेत मूर्ति लगभग ८ फुट ऊंची है। मुखपर पारम्परिक विरागरंजित मुसकान । भुजाओं और जंघोंपर माधवी लताएं लिपटी हुई हैं।
मन्दिर गोलाकार बना हुआ है और वह ३८ स्तम्भोंपर आधारित है। मन्दिरके चबतरेपर चारों ओर घेरेमें २४ मन्दरियाँ बनी हुई हैं। इनमें २४ तीर्थंकरोंकी २४ पद्मासन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। प्रतिमाओंका वर्ण वही है जो तीर्थंकरोंका है। प्रत्येक प्रतिमाका आकार २ फुट २ इंच है। इन २४ मन्दरियोंको स्वतन्त्र मन्दिर मानकर इस मन्दिरको संख्या ४६ से ७० तक लिख दी गयी है।
७१. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह मूर्ति स्वर्णवणं और खड्गासन है। अवगाहना ८ फुट १० इंच है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८६५ में हुई। मूर्तिके सिरपर तीन छत्र हैं। गजलक्ष्मी भगवान्का
३-१५
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११४
भारतके दिगम्बर जैन तीर्य अभिषेक कर रही है और गन्धर्व आकाशमें वाद्य-यन्त्र बजा रहे हैं। अधोभागमें भगवान्के यक्षयक्षी श्याम और ज्वालामालिनी हैं । यक्ष कपोतपर आसीन है। हाथोंमें चमर और कमलपुष्प हैं । यक्षी अष्टभुजी है। दायें हाथोंमें त्रिशूल, शक्ति और कमल हैं। बायें हाथोंमें चमर और शक्ति हैं। एक हाथ पेटपर है और चौथा मुट्ठी बन्द करके लटका हुआ है। चौथा हाथ महिषपर रखा हुआ है । मन्दिरमें परिक्रमा-पथ बना हुआ है।
___७२. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी कृष्ण पाषाणकी ३ फुट ४ इंच ऊंची यह प्रतिमा पद्मासनमें ध्यानमुद्रामें विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९७ में हुई थी। इस मन्दिरमें परिक्रमा-पथ बना हुआ है।
७३. ऋषभदेव मन्दिर-ऋषभदेव भगवान्की श्यामवर्ण पद्मासन प्रतिमा संवत् १८८३ में प्रतिष्ठित हुई।
___७४. चन्द्रप्रभ मन्दिर-रक्ताभ वर्णको चन्द्रप्रभ मूर्ति डेढ़ फुट अवगाहनाकी पद्मासनमें स्थित है। इसके सिरके पीछे भामण्डल और ऊपर छत्र हैं। दोनों पाश्वों में चार खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं । चरणोंके निकट चमरेन्द्र भगवान्की सेवामें खड़े हुए हैं। अधोभागमें दो भक्त-महिलाएं हाथ जोड़े हुए बैठी हैं। . ७५. ऊपर छतपर एक मन्दरियामें आचार्य शान्तिसागरजी और वीरसागरजी महाराजके संवत २०१६ के प्रतिष्ठित चरण-चिह्न हैं। इसके पीछे भगवान नेमिनाथकी कृष्णवणं पद्मासन मूर्ति है।
___ ७६ से ९९. चौबीसी मन्दिर-इस मन्दिरमें २४ गर्भगृह बने हुए हैं। इन सबको पृथक् मन्दिरोंके रूपमें मान लिया है। इन सबकी प्रतिष्ठा संवत् १९१६ में हुई है । इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है
१. ऋषभदेव भगवान् पद्मासन. श्यामवर्ण २ फुट ८ इंच अवगाहना २. अरनाथ ॥
२ फुट ४ इंच ३. सुपाश्वनाथ ,
श्वेतवर्ण २ फुट २ इंच ४. पार्श्वनाथ ,
श्यामवर्ण २ फुट १ इंच श्वेतवर्ण २ फुट ३ इंच
१ फुट ९ इंच
३ फुट ८. नेमिनाथ
२ फुट ९. पार्श्वनाथ
२ फुट ३ इंच १०. चन्द्रप्रभ
श्वेतवर्ण २ फुट ११ इंच ११. वासुपूज्य
२ फुट १२. चन्द्रप्रभ ,
२ फुट
१ फुट ७ इंच १४. पार्श्वनाथ ,
कृष्णवर्ण
२ फुट ४ इंच १५. नेमिनाथ ,
२ फुट ८ १६. मुनिसुव्रतनाथ ,
श्वेतवर्ण १ फुट ४ इंच १७. पार्श्वनाथ ॥
कृष्णवर्ण २ फुट ४ इंच १८. नेमिनाथ ,
श्वेतवर्ण __२ फुट ६ इंच
و من نور
कृष्णवर्ण
१३.
"
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१९. पार्श्वनाथ भगवान् पद्मासन
२०. चन्द्रप्रभ
२१. ऋषभदेव
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
कृष्णवर्णं श्वेतवर्णं
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२२.,, २३. सुपार्श्वनाथ,, २४. ऋषभदेव
२ फुट ७ इंच
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१०० चन्द्रप्रभ मन्दिर - भगवान् चन्द्रप्रभकी बादामी वर्णकी यह खड्गासन प्रतिमा ६ फुट ११ इंच ऊँची है । संवत् १८६० में इसकी प्रतिष्ठा हुई है । सिरके पीछे प्रभावलय है और सिरके ऊपर तीन छत्र हैं | छत्रके दोनों ओर चमरवाहक हैं । अधोभागमें भगवान् के यक्ष-यक्षी श्याम और ज्वालामालिनी हैं । यक्ष कपोतासीन है और द्विभुजी है । यक्षी अष्टभुजी है और सुखासन में बैठी हुई है। दोनोंके हाथोंमें ७१ नम्बरके मन्दिरके यक्ष-यक्षियोंके समान आयुध आदि हैं।
१०१. चन्द्रप्रभ मन्दिर - इसमें श्वेतवर्ण चन्द्रप्रभकी पद्मासन प्रतिमा आसीन है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९५५ में की गयी ।
१०२. पार्श्वनाथ मन्दिर - वेदीमें तीन मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। मूलनायक पार्श्वनाथकी मूर्ति मध्य है । यह मूर्ति ४ फुट ३ इंच उन्नत है, पद्मासन है और कृष्णवर्णकी है । इसकी फणावली में २५ फण हैं । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८३३ में हुई है ।
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२ फुट १० इंच अवगाहना
२ फुट ४ इंच
२ फुट ११ इंच
१ फुट ७ इंच
२ फुट ६ इंच
कृष्णवर्ण श्वेतवर्णं
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13
मूर्ति दोनों ओर श्वेत पाषाणके ऋषभदेव विराजमान हैं। अवगाहना २ फुट ९ इंच है । १०३. पार्श्वनाथ मन्दिर - चार फुट ऊंची पार्श्वनाथकी कृष्णवर्णं पद्मासन मूर्ति ऊँची वेदपर प्रतिष्ठित है । संवत् १८८३ में इसकी प्रतिष्ठा हुई है।
१०४. पार्श्वनाथ मन्दिर - पार्श्वनाथ भगवान्की ३ फुट ऊँची श्वेत पाषाणकी यह पद्मासन प्रतिमा संवत् १८९७ की प्रतिष्ठित है । सिरके पृष्ठ भागमें सुन्दर भामण्डल है । इसके अतिरिक्त मामरसे आयी हुई धातुकी ४५ और पाषाणकी २ प्रतिमाएँ रखी हुई हैं ।
१०५. ऋषभदेव मन्दिर - कृष्ण पाषाणकी २ फुट ७ इंच उन्नत यह पद्मासन प्रतिमा संवत् १८९३ में प्रतिष्ठित हुई ।
१०६. ऋषभदेव मन्दिर - इस प्रतिमाका वर्णं बादामी है और खड्गासन है । संवत् १८९२ में इसकी प्रतिष्ठा हुई ।
१०७. नेमिनाथ मन्दिर - भगवान् नेमिनाथकी यह पद्मासन प्रतिमा ३ फुट ९ इंच उन्नत है । इसका वर्णं कृष्ण है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९१६ में हुई ।
मानस्तम्भ
क्षेत्रपर चार मानस्तम्भ बने हुए हैं । प्रथम मानस्तम्भका निर्माण श्री वंशीधर सिधगुवाँवालोंकी ओरसे संवत् १९९९ में हुआ । द्वितीय मानस्तम्भ सिं. सुन्दरलाल मडावरा - निवासीने संवत् २००६ में बनवाया। तीसरा मानस्तम्भ संवत् २०१३ में श्री मूलचन्द जावनसकरारनिवासी की ओरसे तैयार हुआ । चौथा मानस्तम्भ बरखेड़ा निवासी चौधरी रघुनाथप्रसाद जीवनलालकी ओरसे संवत् २०१५ में निर्मित हुआ ।
धर्मशालाएँ
क्षेत्रपर ५ धर्मशालाएँ हैं, जिनमें १२५ कमरे हैं तथा ५ हॉल हैं । विद्यालय और छात्रावासके २५ कमरे इनसे पृथक् हैं । जलके लिए कुएँ में मोटर लगाकर नल लगाये गये हैं । यों भी क्षेत्रपर
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__ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ११ कुएँ और २ बावड़ी हैं। २ बगीचे भी हैं। यात्रियोंके लिए निवास, जल, रोशनी आदिको समुचित व्यवस्था है। संस्थाएँ ' क्षेत्रपर निम्नलिखित संस्थाएं हैं
श्री दिगम्बर जैन वीर विद्यालय, श्री ऋषभ दिगम्बर जैन उदासीनाश्रम और श्री मोतीलाल वर्णी सरस्वती सदन। वाषिक मेला - क्षेत्रपर प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ला १३ से १५ तक वार्षिक मेला लगता है।
अहार स्थिति
.. श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र अहारजी मध्यप्रदेशके अन्तगत जिला टीकमगढ़से पूर्वकी ओर स्थित है। टीकमगढ़ बलदेवगढ़ रोडपर टीकमगढ़से १९ कि. मी. पर अहार तिगोलकी पुलिया है। यहाँसे मदन सागर सरोवरके बाँधको पार कर पर्वतमालाओं और वनोंके बीच ५ कि. मी. दूर यह क्षेत्र स्थित है । टीकमगढ़से क्षेत्र तक पक्की सड़क है । बसें क्षेत्र तक जाती हैं। छतरपुरसे.भी सीधी सड़क क्षेत्र तक है। अतिशय क्षेत्र
___ यह क्षेत्र अतिशय क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध है। किंवदन्तीके अनुसार प्रख्यात व्यापारी पाडाशाह लासपुर नगरसे पाड़ोंपर राँगा लादकर ला रहे थे। विश्रामके लिए उन्होंने इस स्थानकी एक शिलापर अपना सामान उतारा। किन्तु पाड़ाशाहने बड़े आश्चर्यके साथ देखा कि उनका राँगा चांदी हो गया है। निर्लोभी वृत्तिवाले श्रावक पाड़ाशाहको यह भ्रम हुआ कि लासपुरके व्यापारीने भूलसे राँगाके स्थानपर चांदी दे दी है। यह विचारकर उन्होंने विश्रामका विचार त्याग दिया और राँगाको पुनः पाड़ोंपर लादकर वे लासपुर पहुँचे । जिस व्यापारीसे उन्होंने रांगा खरीदा था, उससे जाकर बोले-"बन्धुवर ! आपने भूलसे राँगाके स्थानपर चांदी दे दी थी। मैंने तो आपसे राँगा मांगा था और मूल्य भी राँगाका ही दिया था। अतः मैं आपका माल वापस करने आया हूँ। कृपा करके आप मुझे राँगा दे दीजिए।"
पाड़ाशाहकी बात सुनकर व्यापारीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला--"आर्य! मैंने तो आपको राँगा ही दिया था। मेरे यहाँ चाँदीका व्यापार भी नहीं होता। आपके पुण्योदयसे ही राँगा चाँदी हो गया है। इस मालपर मेरा कोई अधिकार नहीं है। माल आपका ही है। सम्भव है, आपने यह माल कहीं उतारा हो और वहाँ किसी पारस पत्थरके संसर्गसे आपका रांगा चांदी हो गया हो।"
पाड़ाशाहको समझमें यह बात आ गयी। वे फिर अहार लौटे और उन्होंने अपना माल पुनः उसी शिलापर उतारा जिसपर पहले उतारा था। वहां पुनः पूर्ववत् चमत्कार हुआ। पुनः उनका राँगा चाँदी हो गया। तब उन्होंने उस चांदीके मूल्यसे वहाँपर शान्तिनाथ भगवान्का मन्दिर बनवाया और उसमें भगवान् शान्तिनाथकी अत्यन्त मनोज्ञ मूर्ति स्थापित की।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
तबसे यह अतिशय क्षेत्र कहलाने लगा ।
यहाँ अब भी कभी-कभी अतिशय होते देखे जाते हैं, ऐसी अनुश्रुति है ।
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कभी-कभी पहाड़ीसे अर्धंरात्रिको दो देव आकाशमार्ग से आते हैं। उनके दोनों हाथों में प्रज्वलित दीपक और सिरपर कलश रहते हैं । वे शान्तिनाथ मन्दिरमें दो घण्टे रहते हैं । इसके पश्चात् लोटकर वे उसी पहाड़ीपर चले जाते हैं ।
कभी-कभी रात्रिमें मन्दिरमें बाजों की ध्वनि सुनाई देती है । अनेक भक्तजन शान्तिनाथ स्वामीके समक्ष मनौती मानने आते हैं और उनकी कामना पूर्ण होती है ।
सिद्ध क्षेत्र
कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि यह स्थान सिद्ध क्षेत्र भी है। उनके मतसे भगवान् मल्लिनाथके ती में इस स्थान से मदनकुमार केवली मुक्त हुए तथा भगवान् महावीरके तीर्थमें आठवें अन्तःकृत केवली श्री विष्कंवल यहींसे मोक्ष पधारे। इन दोनों केवलियोंकी मोक्षप्राप्तिके स्थानके सम्बन्धमें कोई उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया है । इस विषयमें खोज करनेपर जो कुछ ज्ञात हुआ, वह अत्यन्त रोचक है ।
किन्हीं ब्रह्मचारीजीने बताया कि मैंने एक शास्त्र भण्डार में हस्तलिखित शास्त्र देखा था । उस शास्त्रका नाम है 'चौबीस कामदेव शास्त्र' (पुराण) इसके रचयिता हैं अन्तिम अवधिज्ञानी मुनि 'श्री' | यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध है। इसके हिन्दी - टीकाकार हैं पं. धर्मदास ।
कहा जाता है कि उक्त शास्त्रमें सन्धि १७ गाथा ३५ में वर्णन है कि १७वें कामदेव बलराज अपरनाम मदनकुमार मल्लिनाथके पीछे और मुनिसुव्रतनाथके पहले हुए थे । गाथा ३७ के अनुसार वे बुन्देलखण्डके गगनचुम्बी वलयाकार पर्वतसे मोक्ष पधारे। वहीं पासमें गगनपुर शहर था। उस समय इस नगरपर विघ्नवर्धन राजा राज्य करता था । उसकी रानीका नाम शान्तिदेवी था । उस रानीने प्रभाचन्द्र मुनिके उपदेशसे पहाड़पर शान्तिनाथ भगवान्का जिनमन्दिर बनवाया । उसमें शान्तिनाथ भगवान्की ९ फुट ऊँची देशी पाषाणकी खड्गासन प्रतिमा स्थापित की और उसकी प्रतिष्ठा अगहन सुदी १५ बुधवारको पंचकल्याणपूर्वक कर दी । इन्हीं के वंशमें निषिद्धपुर नगरमें राजा नीसधर और रानी विरलादेवीसे नलराज ( मदनकुमार ) का जन्म हुआ था । उसका विवाह कुण्डलपुरके राजा भीमसेन और रानी पुष्पदत्ताकी पुत्री दमयन्ती के साथ हुआ । पिताके बाद मदनकुमारने शासन किया । उसने मदनपुर नगर बसाया और मदनसागरका निर्माण कराया । किसी मुनिके उपदेशसे प्रभावित होकर उसने संन्यास ग्रहण कर लिया और घोर तप द्वारा अपने कर्मोंका नाश करके अहारसे मुक्ति प्राप्त की ।
महावीरके तीर्थंमें आठवें अन्तः कृत केवली श्री विष्कंवल किसी श्रेष्ठी के पुत्र थे । किसी मुनिराज के उपदेशको सुनकर श्रेष्ठी और उसकी पत्नीने दीक्षा ले ली। विष्कंवल मुनि होकर अन्तःकृत केवली हुए और अहारसे मुक्त हुए । सेठ-सेठानी कल्पवासी स्वर्गं ( सम्भवतः तीसरे स्वर्ग में ) देव-देवी हुए । वे अहार क्षेत्रका माहात्म्य प्रकट करनेके लिए स्वर्गसे प्रति एक हजार वर्ष बाद यहाँ आकर पीतलको सोना अथवा रांगाको चांदी करके अतिशय दिखाते हैं । सेठ पाड़ाशाह के रांगाको इन्हीं वैमानिक देव-देवीने चांदी बना दिया था । इससे पूर्व उन्होंने विक्रमसिंह राजाके समय में साहू लूहड़के पीतलको सोना कर दिया था ।
इस कहानीको पढ़-सुनकर मनमें जिज्ञासा जागृत हुई कि -
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ १. क्या श्री नामक कोई अन्तिम अवधिज्ञानी मुनि हुए हैं जिन्होंने 'चौबीस कामदेव पुराण' की रचना की हो। यदि हए हैं तो.यह ग्रन्थ कसायपाहड और षट्खण्डांगमसे भी पूर्वका मानना होगा। किन्तु इसमें १२वीं शताब्दीके पाड़ाशाहका भी उल्लेख मिलता है और उस कालमें कोई अवधिज्ञानी मुनि नहीं हुआ।
२. क्या वैमानिक देव भी इस पंचम कालमें अतिशय प्रकट करनेके उद्देश्यसे भरतक्षेत्रमें आते हैं ?
३. कामदेव नलराज सिद्धवरकूटसे मुक्त हुए, ऐसा माना जाता है। दूसरी ओर तथाकथित 'कामदेव पुराण' के अनुसार वे अहारसे मुक्त हुए माने जाते हैं। इन दोनों स्थानोंमें से वस्तुतः उन्होंने किस स्थानसे निर्वाण प्राप्त किया, यह निर्णय होना अभी शेष है।
४. इतिहास ग्रन्थोंसे यह सिद्ध होता है कि चन्देल नरेश मदनवर्मनने चेदि-विजयके उपलक्ष्यमें मदनसागरका निर्माण कराया था। इसी सरोवरके नामपर यहाँके गांवका नाम मदनेश सागरपुर पड़ गया। अहारके मूर्ति-लेखोंमें भी ये दोनों नाम मिलते हैं। दूसरी ओर 'कामदेव पुराण' में ऐसा वर्णन बताया जाता है कि मदनसागरका निर्माण कामदेव मदनकुमारने १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथके बादमें कराया। राजा मदनवर्मनसे पूर्व किसी ग्रन्थ, शिलालेख अथवा मूर्तिलेखमें इस सागर ( सरोवर ) और नगरका नाम उपलब्ध नहीं होता। ऐसी स्थितिमें क्या यह उचित होगा कि उक्त कथित ग्रन्थका तत्सम्बन्धी विवरण मान्य किया जाये ?
५. निर्वाणकाण्ड, निर्वाणभक्ति, किसी पुराण अथवा कथाकोशमें अहारका उल्लेख निर्वाण क्षेत्रके रूप में नहीं मिलता।
६. 'चौबीस कामदेव पुराण' नामक किसी ग्रन्थका अस्तित्व है, यह भी सन्दिग्ध है। यदि यह ग्रन्थ विद्यमान है तो स्वीकार करना होगा कि यह रचना अति आधुनिक है और रचयिता कोई विद्वान् नहीं है, अन्यथा सिद्धान्त और परम्परा-विरुद्ध बातें उसमें न होतीं। इस ग्रन्थका उल्लेख भी किसी ग्रन्थमें नहीं मिलता।
जबतक इन बातोंका सन्तोषजनक समाधान प्राप्त न हो जाये, तबतक अहारको सिद्ध क्षेत्र स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसके लिए कल्पित शास्त्रोंके बजाय कुछ ठोस शास्त्रीय आधार ढूँढ़ने होंगे। हमारी विनम्र मान्यता है कि अहार एक ऐतिहासिक अतिशय क्षेत्रमें लगभग एक हजार वर्षों से मान्य रहा है। इस क्षेत्र और यहाँके भगवान् शान्तिनाथके प्रति जनताके मनमें अपार श्रद्धा है । उसे बलात् सिद्ध क्षेत्रका नाम देनेसे जन-श्रद्धामें कोई वृद्धि नहीं होती।
इस प्रकारकी प्रवृत्ति अन्य कई अतिशय क्षेत्रोंके सम्बन्धमें भी चल पड़ी है। ठोस शास्त्रीय या अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध होनेपर ही किसी अतिशय क्षेत्रको सिद्ध क्षेत्रके रूपमें मान्यता मिलनी चाहिए। पाड़ाशाह का मन्दिर
- पाड़ाशाहने अनेक तीर्थोपर शान्तिनाथ जिनालय बनवाये थे। उन सभी तीर्थोंपर उनके धनके सम्बन्धमें विभिन्न और विचित्र किंवदन्तियां प्रचलित हैं। अहारके शान्तिनाथ जिनालयका निर्माण रांगाके चांदी हो जानेपर उस चांदीके मल्यसे कराया था। अनुश्रति है कि उन्होंने शान्तिनाथको प्रतिष्ठा गजरथ महोत्सवपूर्वक की थी। उसमें इतनो जनता एकत्र हुई थी कि पंक्तिभोजमें ५२ मन पिसी मिर्च भी कम पड़ गयो थीं। किन्तु पाड़ाशाहका मन्दिर और मूर्ति कहाँ हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका। क्योंकि मूर्ति-लेखके अनुसार वर्तमान मन्दिर गल्हणने बनवाया और
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ उनके पुत्र जाहड और उदयचन्द्रने शान्तिनाथकी मूर्ति बनवाकर उसकी संवत् १२३७ में प्रतिष्ठा करायी। सम्भवतः कुन्थुनाथ और अरनाथको मूर्तियोंका निर्माण गल्हणने कराया था। ऐसी स्थितिमें पाड़ाशाहके मन्दिर और मूर्तियोंकी खोज होना आवश्यक है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि . इतिहास-ग्रन्थोंमें इस स्थानका नाम 'मदनेशसागरपुर' मिलता है। यहाँ चन्देलवंशीय राजा मदनवर्मनने एक विशाल सरोवरका निर्माण कराया था जिसका नाम मदनवर्मनके नाम पर 'मदनसागर' पड़ गया। इस सरोवरके निकटवर्ती नगरको 'मदनेशसागरपुर' नाम मिला। इस राजाके सम्बन्धमें इतिहास-ग्रन्थोंसे कुछ जानकारी प्राप्त होती है। मदनवर्मनके ताऊ सल्लक्षणवर्मन वीर पुरुष थे। वे चन्देलवंशी राजाओंकी राजधानी कालिंजरमें रहकर शासनसूत्रका संचालन करते थे। उन्होंने परमारवंशी नरवर्मनको पराजित करके मालवापर अधिकार कर लिया और चेदिनरेश कलचुरि यशःकर्णको भारी पराजय दी। गाहड़वालोंको हराकर सम्पूर्ण अन्तर्वेदी ( गंगा-यमुनाका मध्यवर्ती प्रदेश ) पर अधिकार कर लिया। लगभग सन् १९१७ में सल्लक्षणवर्मनका पुत्र जयवर्मन गद्दीपर बैठा। थोड़े दिन शासनं करनेके पश्चात् उसे अपने चाचा पृथ्वीवर्मनके लिए राजगद्दी छोड़नी पड़ी। पृथ्वीवर्मनका उत्तराधिकारी उसका पुत्र मदनवर्मन हुआ, जिसने सन् ११२९ से ११६३ तक शासन किया। शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि उसके राज्यमें भिलसा, मऊ (झांसी जिला), अजयगढ़, छतरपुर, खजुराहो, महोबा और कालिंजर शामिल थे। परमारनरेश यशोवर्मनको पराजित करके उसने भिलसापर अधिकार किया। कलचुरि गयकर्णको करारी हार देकर चेदिपर अपना अधिकार जमाया। जब गुजरातके चालुक्य जयसिंह सिद्धराजने धारपर विजय प्राप्त करके महोबापर आक्रमण किया, तब मदनवर्मनने वीरतापूर्वक युद्ध करके अपनी राजधानीको तो बचा लिया, किन्तु इस युद्ध में भिलसा उसके हाथसे निकल गया। मदनवर्मनके पश्चात् कालिंजरकी गद्दीपर उसका पौत्र और यशोवर्मनका पुत्र परमर्दी सन् ११६५ से कुछ पहले बैठा। . . - कहते हैं, इसी चन्देलनरेश मदनवर्मनने चेदि-विजयके पश्चात् इस स्थानपर उक्त 'मदनसागर' बनवाया था और उसीके कारण यहांके नगरका नाम मदनेशसागरपुर पड़ा। मदनेशसागरपुर नामका समर्थन शान्तिनाथ भगवान्के मूर्ति लेखसे भी होता है, जिसमें 'येन श्री मदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे' इस प्रकारका पाठ है। एक मूर्ति-लेखमें 'तटे मदनसागर निर्मलम्' पाठ है।
किन्तु मदनेशसागरपुर नाम प्राप्त करनेसे पूर्व भी यह स्थान आत्मसाधन करनेके अभिलाषी मुमुक्षु जनोंके आकर्षणका केन्द्र था, क्योंकि यहाँपर मदनवर्मनके राज्यकालसे पूर्वकी, संवत् ११२३ और संवत् ११३६ तक की, मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। अहारका नामकरण
- इस स्थानका नाम 'अहार' कैसे पड़ा, इस सम्बन्धमें भी एक रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं, पाड़ाशाह इसी स्थानपर एक दिन आहारके समय किसी सत्पात्रकी प्रतीक्षामें खड़े थे। किन्तु आहारको बेला टलती जा रही थी और किसी सत्पात्रके दर्शन नहीं हो रहे थे। इससे श्रावकशिरोमणि पाड़ाशाहको बड़ा मनःक्लेश हो रहा था। वे अपने अशुभ कर्मोको ही इसका उत्तरदायी मानकर पश्चात्ताप कर रहे थे। तभी उन्हें मासोपवासी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि ईर्यापथ
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ विशुद्धिपूर्वक जंगलसे आते हुए दिखाई पड़े। भक्त श्रावकका रोम-रोम हर्षसे पुलकित हो उठा। उन्होंने नवधा भक्तिपूर्वक वीतराग मुनिका प्रतिग्रहण किया। मुनिका निरन्तराय आहार हुआ। वे मुनि मासोपवासी थे। किन्तु मुनि बननेपर उनको गृहस्थ-दशाको पलीको अपने पतिके ऊपर बड़ा क्रोध आया और आर्तध्यानसे मरकर व्यन्तरी हुई । वह प्रतिशोध लेनेके उद्देश्यसे मुनिके पारणाके समय अन्तराय डाल दिया करती थी, जिससे छह माससे मनिराज बिना आहार किये ही लौट जाते थे। किन्तु भक्तप्रवर पाड़ाशाहके प्रबल पुण्योदय और क्षेत्रके प्रभावसे इस बार उस व्यन्तरीकी एक नहीं चली और मुनिराजका आहार निर्विघ्न हुआ। व्यन्तरीको भी अपने कुकृत्यपर पश्चात्ताप हुआ और मुनिराजके चरणोंमें आकर उसने अपने अपराधके लिए क्षमा मांगी।
___ इस घटनाके फलस्वरूप अर्थात् मुनिराजके आहारके कारण इस स्थानका नाम ही 'आहार' हो गया। 'आहार' ही बिगड़ते-बिगड़ते 'अहार' बन गया।
इस किंवदन्तीमें तथ्यांश कितना है, यह कहना कठिन है। इसकी सत्यताकी परीक्षा करनेका भी कोई साधन या पुरातत्त्व-साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । सम्भव है, अहार नामसे ही प्रेरित होकर इस किंवदन्तीका जन्म हुआ हो। - इस नामका कारण जो भी रहा हो, किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि इस क्षेत्रकी प्राकृतिक सुषमा, एकान्त शान्ति और मनोहर दृश्यावलीने इसे एक सुरम्य तपोवनकी महत्ता प्रदान कर दो है और एक ऐसे आध्यात्मिक वातावरणका स्वतः ही सृजन हो गया है, जहाँ पहुंचकर मन सांसारिक प्रलोभनोंसे विरक्त होकर आत्माके निःश्रेयसकी ओर ललक उठता है। इस क्षेत्र और ऐसे ही अन्य अतिशय क्षेत्रोंके अतिशय मनकी इसी निभृत निगूढ़ अध्यात्मभावनासे उद्भूत होते हैं । मनकी चपल चंचल गति जहाँ पहुँचकर स्वतः हो आत्मोन्मुख हो उठे, यह संसारका ऐसा सबसे बड़ा अतिशय है । अतिशय क्षेत्र अहारमें भी इस प्रकारके अतिशयोंके दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक सामग्री . इस क्षेत्रपर तथा इसके निकटवर्ती भूभागपर पुरातत्त्व-सामग्री विपुल परिमाणमें उपलब्ध होती है। यहाँ भगर्भसे तथा बाहर अनेक खण्डित और अखण्डित जैन मतियाँ प्राप्त हई हैं। अने मूर्तियोंकी चरणचौकीपर लेख अंकित हैं जिनसे अनेक ऐतिहासिक तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है, जैसे भट्टारकोंकी परम्परा, जैन समाजमें प्रचलित अन्वय, प्रतिष्ठाकारक भक्तजन, तत्कालीन राजवंश, मूर्तिकार, कलाका क्रमिक विकास आदि। . भट्टारक-परम्परा
___ यहाँकी कुछ मूर्तियोंके लेखोंसे भट्टारकोंके नामों और उनकी परम्परापर प्रकाश पड़ता है-जैसे कुटकान्वयके पण्डित श्री मंगलदेव और उनके शिष्य भट्टारक पद्मदेव, कुटकान्वयके पण्डित लक्ष्मणदेव और उनके शिष्य आर्यदेव, पण्डित श्री यशकीर्ति, सिद्धान्ती सागरसेन, भट्टारक माणिक्यदेव, गुणदेव, भट्टारक जगेन्द्रषेण, भट्टारक जिनचन्द्रदेव, भट्टारक धवलकीर्ति, भट्टारक सकलकोति, भट्टारक धर्मकीर्ति, भट्टारक शोलसूत्रदेव, भट्टारक ज्ञानसूत्रदेव, भट्टारक गुणकीर्ति, भट्टारक मलयकीर्ति, भट्टारक विशालकीर्ति, भट्टारक पद्मकीर्ति, भट्टारक मंगलदेव । - भट्टारकोंके नामोल्लेखोंका अध्ययन करनेपर एक विशेषताकी ओर ध्यान आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता कि ग्यारहवींसे पन्द्रहवीं शताब्दी तकके जिन मूर्तिलेखोंमें भट्टारकोंका नामोल्लेख किया गया है, उनके साथ संघ, गण, गच्छ और आम्नायका उल्लेख नहीं किया गया। किन्तु संवत्
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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१५०२ के एक मूर्ति लेखमें भट्टारकके नामके साथ काष्ठासंघे दिया है तथा संवत् १६४२ से १८६९ तक कई मूर्तिलेखोंमें मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख मिलता है । इसका अर्थ यह है कि गण, गच्छ, अन्वय आदिके उल्लेखकी परम्परा बहुत बाद में प्रचलित हुई ।
भट्टारकों के नामोंके साथ कहीं 'पण्डित' शब्दका भी प्रयोग किया गया है और उनके शिष्यको भट्टारक कहा गया है। यह कहना कठिन है कि जिनके साथ 'भट्टारक' शब्द न लगाकर 'पण्डित' शब्द प्रयुक्त है, वे भट्टारक थे या नहीं । किन्तु भट्टारकके गुरु भट्टारक ही होने चाहिए, इस कारण ऐसे पण्डितोंका नाम भी भट्टारक-सूची में दे दिया गया है।
भट्टारकोंका नामोल्लेख बारहवीं शताब्दीसे अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी तक के मूर्तिलेखों में मिलता है । लगता है, ये उल्लिखित भट्टारक अन्य स्थानोंके थे । इन्होंने मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। जैसे भट्टारक धर्मकीर्ति, शीलसूत्र ( शीलभूषण), ज्ञानसूत्र ( ज्ञानभूषण), बलात्कारगण अटेर शाखाके भट्टारक थे । भट्टारक विशालकीर्ति और भट्टारक पद्मकीर्ति बलात्कारगणकी लातूर-शाखाके भट्टारक थे । भट्टारक गुणकीर्ति, यशः कीर्ति और मलयकीर्ति काष्ठासंघकी माथुरगच्छ शाखा और पुष्करगणके थे। एक गुटके में इनकी परम्परा इस प्रकार पायी जाती है— माहबसेन, उद्धरसेन, देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, यशः कीर्ति, मलयकीर्ति, गुणभद्र, गुणचन्द्र, ब्रह्ममाण्डण । इसी प्रकार अन्य भट्टारक भी अहारके नहीं, बाहरके ही थे । इस क्षेत्रपर भी (जैसे मदनसागर के तटपर अवस्थित जिनालय में ) उन्होंने मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी । कई मूर्तिलेखोंमें अन्य स्थानोंपर प्रतिष्ठा होनेके स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं । उदाहरणतः एक यन्त्र लेख से ज्ञात होता है कि इस यन्त्रकी प्रतिष्ठा अकबर जलालुद्दीनके राज्यमें फीरोजाबाद नगरहुई। कई मूर्तियाँ जीवराज पापड़ीवालने भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित करायी थीं और वे यहाँ लाकर स्थापित की गयीं। ये मूर्तियां संवत् १५४८ की हैं।
इतना होनेपर भी भगवान् शान्तिनाथ आदिको विशाल मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा यहीं हुई होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।
आयिकाओंके नाम
इन मूर्ति-लेखोंमें भट्टारकोंके साथ या स्वतन्त्र रूपसे कुछ आर्यिकाओंके नामोंका भी उल्लेख मिलता है, जैसे ज्ञानश्री, जयश्री, त्रिभुवनश्री, लक्ष्मश्री, चारित्रश्री, रत्नश्री, शिवणी, शिवश्री, सिद्धान्ती देवी आदि ।
एक और भी तथ्य र प्रकाश पड़ता है कि आर्यिकाओंने भट्टारकोंके साथ अथवा स्वतन्त्र रूपसे भी मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी। कई आर्यिकाओंके नामके साथ सिद्धान्ती - जैसे पाण्डित्यसूचक विशेषण भी लगे हुए हैं। इससे यह प्रकट होता है कि ये आर्यिकाएँ परम विदुषी, विधि-विधानमें निष्णात और सिद्धान्त शास्त्रोंकी मर्मज्ञ थीं ।
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि प्रतिष्ठा करानेवाली इन आर्यिकाओंका नामोल्लेख बारहवीं शताब्दीको मूर्तियोंके लेखोंमें मिलता है, बादके मूर्तिलेखोंमें नहीं ।
अन्वय और गोत्र
इन मूर्ति-लेखों में प्रतिष्ठाकारकोंके अन्वयों और गोत्रोंका भी नामोल्लेख मिलता है । कुछ अन्वय और गोत्र तो बड़े विचित्र हैं; अनेक अन्वय ऐसे हैं, जो अश्रुतपूर्व हैं । मूर्ति लेखों में जो
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अन्वय मिलते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-खण्डेलवाल, जैसवाल, मेडवाल, लमेंचू, पौरपाट, गृहपति, गोलापूर्व, गोलाराड, अवधपुरिया, गर्गराट्, माधव, महडितवाल, कुटक, अग्रवाल, ओसवाल, वैश्य, माहेश्वर, देववाल, माथुरवंश, श्रीमलयकीर्ति देवान्वय, भट्टारकान्वय, महिषण पुरवाड़ान्वय, मड़वाल, मधुक, महवर्य, भट्टारक विशालकीति अन्वय, भट्टारक सकलकीर्ति अन्वय, भट्टारक जिनचन्द्र अन्वय आदि।
इनमें कुछ अन्वय तो व्यक्तियोंके नामपर हैं, जिनका उल्लेख सम्भवतः अन्यत्र नहीं मिलता। . नगरोंके नाम
इन मूर्ति-लेखोंमें कुछ नगरोंके नाम भी आये हैं, जैसे--बाणपुर, वसुहाटिका, नन्दपुर । सम्भवतः ये नगर अहार ( मदनेशसागरपुर ) के निकट ही रहे होंगे। इन लेखोंमें अहारके लिए मदनेशपुर और मदनसागरपुर नामोंका भी प्रयोग किया गया है। क्षेत्र-दर्शन
इस क्षेत्रपर कुल मन्दिरोंकी संख्या १३ है तथा २ प्राचीन मानस्तम्भ हैं। इन मन्दिरोंमें क्षेत्रपर ७ मन्दिर हैं तथा पर्वतपर ६ मन्दरियां हैं। क्षेत्रके चारों ओर अहाता बना हुआ है। . मन्दिर और धर्मशाला इसी अहातेके अन्दर हैं। मन्दिर नं. १
प्रथम मन्दिर सबसे प्राचीन है। यह भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर कहलाता है। इस मन्दिरका निर्माण श्री गल्हणने मदनेशसागरपुरमें कराया था। इन्होंने नन्दपुर नामक नगरमें भी एक शान्तिनाथ जिनालय बनवाया था। मदनेशसागरपुरके जिनालयमें श्री गल्हणके श्री जाहड़
और श्री उदयचन्द्र नामक पुत्रोंने भगवान् शान्तिनाथका बिम्ब स्थापित किया और संवत् १२३७ में अगहन सुदी ३ शुक्रवारको उसकी प्रतिष्ठा करायी। इस विशाल मूर्तिकी रचना वाल्हणके पुत्र पापट शिल्पीने की थी।
पहले यह मन्दिर बाहरसे छोटा दिखाई पड़ता था, किन्तु भीतर ६ फुटकी गहराई होनेके कारण काफी विशाल था। प्रवेशद्वार दो थे। प्रथम द्वारके बाहर एक सुन्दर पैरकार था। इसके आजू-बाजू और बीचमें तीन बड़े कमरे थे। दक्षिण बाजूके कमरेमें एक तलहट था । मन्दिरके दोनों पाव भागोंमें २-२ तथा पश्चिममें १ गन्धकुटी थीं। इस मन्दिरके तीन ओरके दालान गिर पड़े थे। उनकी खुदाई करनेपर २९ मनोज्ञ प्रतिमाएं निकली थीं।
इस मन्दिरको दशा अत्यन्त खराब हो गयी थी। अतः इसका जीर्णोद्धार जैन समाजके विख्यात साहू शान्तिप्रसादजी की ओरसे हुआ। मन्दिरमें विशाल हॉल और मध्यमें गर्भगृह है। गर्भगृहमें भगवान् शान्तिनाथकी स्वर्णवर्णवाली खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना १८ फुट है। हाथकी हथेलीपर सुन्दर कमल बना हुआ है। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र विनत मुद्रामें खड़े हैं। चरणचौकीपर रत्नाभरणमण्डित दो राजपुरुष या श्रेष्ठी करबद्ध खड़े हैं। ये सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक जाहड़ और उदयचन्द्र हैं। आसनपर दोनों ओर दो हिरण अंकित हैं। आसनके दोनों ओर दो यक्षियोंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, किन्तु उनके अंग खण्डित हैं। इस विशाल मतिके ऊपर पन्नेकी पॉलिश की गयी थी। जब आततायियोंने यहाँके मन्दिरों और मूर्तियोंका जो निर्मम विध्वंस किया, उसमें यह मूर्ति भी नहीं बच पायी। इसका दायाँ हाथ खण्डित कर दिया गया है। नाक, पैरोंके अंगूठे आदि कई अंगोपांगोंको भी क्षति पहुँची है। बादमें कभी
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
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खण्डित अंशोंको जोड़ दिया गया। हथौड़ोंको चोटोंसे मूर्तिकी पालिश चटक गयी थी । पं. पन्नालाल शास्त्री साढूमलवालोंने ७२ तोला पन्ना प्राप्त करके इस मूर्तिपर पुनः पालिश करायी । इससे पालिशमें द्वैविध्य आ गया है । हाथ आदिके जोड़के चिह्न पालिशसे छिप नहीं सके, वे स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं ।
इस प्रतिमाकी मुख-छटा देखते ही बनती है । इसके ऊपर जो प्रसन्न गाम्भीर्य, सौम्यता और स्मितके भाव छिटक रहे हैं, वे वस्तुतः अनुपम हैं । कठोर पाषाणमें इतने गाम्भीर्य और वीतराग छविका अंकन आश्चर्यजनक है |
इसकी चरणपीठिकापर एक मूर्तिलेख उत्कीर्ण है। यह लगभग ४ इंच लम्बा और ९ इंच चौड़ा है। मूर्तिलेख अत्यन्त ऐतिहासिक महत्त्वका है । इससे प्रतिष्ठाकारकका वंश-परिचय, प्रतिष्ठा-काल, तत्कालीन शासन, मूर्तिकार आदि महत्त्वपूर्ण बातोंपर प्रकाश पड़ता है । वह लेख इस प्रकार है
ॐ नमो वीतरागाय ॥
गृहपतिवंश सरोरुह - सहस्र रश्मिः सहस्रकूटं यः । वाणपुरे व्यधितासीत् श्रीमानिह देवपाल इति ॥ १॥
श्री रत्नपाल इति तत्तनयो वरेण्यः, पुण्येकमूर्तिरभवत् वसुहाटिकायां । कीर्तिर्जगत्त्रयपरिभ्रमणश्रमार्ता यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन ॥२॥ एकस्तावदनून बुद्धिनिधिना श्री शान्तिचैत्यालयो,
दिष्ट्यानन्दपुरे परः परनरानन्दप्रदः श्रीमता । येन श्री मदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे, . सोऽयं श्रेष्ठिवरिष्ठ गल्हण इति श्री रल्हणाख्यादभूत् ||३|| तस्मादजायत कुलाम्बर पूर्णचन्द्रः श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्र नामा | एकः परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमोघसुदानसारः ॥४॥ ताभ्यामशेष दुरितौघशमैकहेतुं निर्मार्पितं भुवनभूषणभूतमेतत् ।
श्री शान्ति चैत्यमिति नित्यसुखप्रदानात् मुक्तिश्रियो वदनवीक्षण लोलुपाभ्याम् ॥५॥ संवत् १२३७ मार्गं सुदि ३ शुक्रे श्रीमत्परमर्द्धिदेव विजयराज्ये चन्द्रभास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकाः । धर्मंकारिकृतशुद्धकीर्तनं तावदेव जयतात् सुकीर्तनम् ||६|| वाल्हणस्य सुतः श्रीमान् रूपकारो महामतिः । पापटो वास्तुशास्त्रज्ञस्तेन बिम्बं सुनिर्मितम् ||७|
इस मूर्ति-लेखका आशय यह है कि गृहपति-वंशमें श्रेष्ठी देवपाल हुए, जिन्होंने बानपुर में सहस्रकूट जिनालयका निर्माण कराया। उनके पुत्र रत्नपाल हुए । रत्नपालके पुत्र रल्हण थे । रहण के पुत्र गल्हण हुए, जिन्होंने नन्दपुर तथा मदनेशसागरपुरमें शान्तिनाथ जिनालय बनवाये । गल्हणके दो पुत्र हुए—-जाहड़ और उदयचन्द्र । इन दोनों भाइयोंने शान्तिनाथको मूर्ति बनवायी, जिसकी प्रतिष्ठा महाराज परमर्द्धिके राज्यमें अगहन सुदी ३ शुक्रवार संवत् १२३७ में करायी । इस मूर्तिका निर्माण वाल्हण के पुत्र वास्तुशास्त्रके ज्ञाता पापटने किया ।
इस प्रतिमाके बायें पार्श्वमें भगवान् कुन्थुनाथकी मूर्ति विराजमान है। यह मूर्ति १३ फुट शिलाफलक में १० फुट अवगाहनावाली खड्गासन मुद्रामें उत्कीर्ण है । इस मूर्तिकी भी नासिका,
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उपस्थ, इन्द्रिय तथा पैरोंके अंगूठे खण्डित हैं। बायाँ हाथ पुनः जोड़ा हुआ है। मूर्ति-लेखका बहुभाग खण्डित है। इस मूर्तिपर बकरेका लांछन है। पालिश मटियाले रंग या स्वर्णकी है। इसके पाठपीठपर जो लेख उत्कीर्ण है, उसका आशय इस प्रकार है
श्री रल्हणकी नवविवाहिता पत्नीका नाम गंगा था। उसके तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से दो छोटे भाइयोंके स्वर्गवासके कारण बड़े भाईके मनमें संसारसे निर्वेद हो गया। धन, जीवन और यौवनको क्षणभंगुर समझकर उसने अपना सम्पूर्ण धन आत्म-हितके लिए व्यय किया। उसने ही इस मूर्तिका निर्माण कराया। इसकी प्रतिष्ठा भगवान् शान्तिनाथ-मूर्तिके साथ ही संवत् १२३७ में हुई थी।
भगवान् शान्तिनाथके दायें पार्श्वमें भगवान् अरहनाथको मकराना पाषाणकी १० फुट ऊंची श्यामवर्ण प्रतिमा विराजमान है। संवत १२३७ में शान्तिनाथ भगवानके साथ जो मति प्रतिष्ठित की गयी थी, उसे आततायियोंने खण्डित कर दिया। तब सन् १९५८ में प्रान्तके जैन समाजने यह मूर्ति मंगवाकर प्रतिष्ठित की।
___इस गर्भगृहके बाहर चार वेदियोंमें चार प्राचीन प्रतिमाएं हैं। मन्दिरके हॉलमें चारों ओर बरामदे हैं और दीवारोंमें वेदियाँ बनी हुई हैं। इनमें तीन चौबीसीकी ७२ मूर्तियाँ और विदेह क्षेत्रके २० तीर्थंकरोंकी मूर्तियां हैं। इस प्रकार कुल ९२ मूर्तियाँ हैं। सभी मूर्तियाँ पद्मासन हैं और प्रत्येककी अवगाहना १ फुट ७ इंच है।
इस मन्दिरके शिखरको शुकनासिकापर एक रथिकामें ५ फुट ऊंची खड्गासन मूर्ति बनी
२. महावीर मन्दिर-संग्रहालयके ऊपर यह मन्दिर बना हुआ है। इसमें भगवान् महावीरकी श्वेतवर्ण १ फुट १० इंच (मय आसन ) अवगाहनावाली पद्मासन मूर्ति मूलनायकके रूपमें विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् २५०० में की गयी। यहाँ ३ पाषाण और १ धातुकी मूर्तियां हैं। इनमें से एक मूर्ति संवत् १७१३ की है।
३. पार्श्वनाथ मन्दिर-इसमें भगवान् पाश्वनाथकी सिलहटी वर्णकी २ फुट २ इंच ऊंची पद्मासन मूर्ति विराजमान है।
इसके अतिरिक्त दो वेदियां और हैं। बायीं ओरकी वेदीमें पाश्वनाथ भगवान्की सिलहटी वर्णकी १ फुट ८ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। फणके ऊपर दोनों पाश्र्वोमें पुष्पवर्षा करते हुए नभचारी देव दिखाई पड़ते हैं। उनसे नीचे एक-एक गज बना हुआ है। नीचे एक-एक पद्मासन मूर्ति है । अधोभागमें भगवान्के दोनों ओर चमरवाहक इन्द्र खड़े हैं ।
___ इसके आगे भगवान् नेमिनाथकी श्वेतवर्ण १ फुट २ इंचकी मूर्ति रखी हुई है। दायों वेदीमें कत्थई वर्णकी १ फुट ६ इंच ऊँची पार्श्वनाथकी पद्मासन मूर्ति है। प्रतिष्ठा-काल संवत् १८६९ है। इसके आगे पार्श्वनाथकी श्वेत मूर्ति है।
४. मेरु-मन्दिर-संग्रहालयके बगलमें यह मन्दिर स्थित है। तीन परिक्रमावाली कटनियाँ बनी हुई हैं। वेदीमें कृष्ण पाषाणकी १ फुट ७ इंच अवगाहनावाली पद्मासन मूर्ति है। मूर्तिके पादपीठपर लेख या लांछन कुछ भी नहीं है। उसके आगे १ फुट ऊँची पुष्पदन्त भगवान्की श्वेतवर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है । यह संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित की गयी।
५. नया मन्दिर कहा जाता है कि शान्तिनाथकी प्रतिष्ठाके समय इसमें हवनकुण्ड था। यह आठ खम्भोंका मठ था। बादमें इसे मन्दिरका रूप दे दिया गया।
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
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६. बाहुबली मन्दिर - प्रथम कामदेव बाहुबली स्वामीकी श्वेत मकराने की प्रतिमा कायोत्सर्गासन में विराजमान है । मूर्तिपर पारम्परिक माधवी लताएँ लिपटी हुई हैं । मूर्तिको अवगाहना ७ फुट है तथा इसका कमलासन २ फुट २ इंच ऊंचा है। इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् २०१४ में हुई थी।
७. भूगर्भ जिनालय - नीचे कुछ सीढ़ियाँ उतरकर भूगर्भ में एक चबूतरेपर मूर्तियाँ हैं, जिनमें २० पाषाण की, ५१ धातु की, १ मेरु धातुकी और ४ चरणचिह्न हैं । इनमें से कई मूर्तियाँ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित की हुई हैं ।
मानस्तम्भ - बाहुबली मन्दिरके सामने लाल पाषाणके दो मानस्तम्भ हैं । ये एक ही शिलासे निर्मित हैं । इनके अभिलेखानुसार इनकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १०१३ में हुई थी । सम्भवतः उस कालमें यहाँ एकाधिक मन्दिर रहे होंगे, जिनके सामने ये मानस्तम्भ निर्मित किये गये थे । यह भी सम्भव है कि ये मानस्तम्भ निकटकी पहाड़ीपर निर्मित मन्दिरों के सामने बने हों । मन्दिर ध्वस्त हो गये, तब उन्हें वहाँसे हटाकर भक्त श्रावकोंने संवत् १९५३ में यहाँ लाकर स्थापित कर दिया । इस सम्भावनाकी कल्पनाका तर्कसंगत आधार यह है कि जब यहाँ शान्तिनाथ जिनालयका निर्माण हुआ, उस समय कोई पूर्ववर्ती जिनालय यहाँ नहीं था । जिनालय के अभावमें अकेले मानस्तम्भों की कल्पना नहीं की जा सकती । यहाँ जिनालय न होनेका मुख्य हेतु यह है कि यहाँ उस कालके अवशेष उपलब्ध नहीं होते, न जिनालय ही प्राप्त होते हैं । अवशेष उपलब्ध होते हैं पहाड़ीपर। अतः ये मानस्तम्भ भी वहीं के होने चाहिए। किन्तु जो मूर्तियाँ अब तक प्राप्त हुई हैं, उनमें से कोई मूर्ति संवत् १०१३ की नहीं मिली । सम्भव है, भविष्यमें संवत् १०१३ या उसके पूर्वकालकी कोई मूर्ति यहाँ मिल जाये ।
उत्तर दिशा के मानस्तम्भको आधार-चौकी ६ फुट ९ इंच तथा मानस्तम्भ १२ फुट ऊँचा है । इसके अधोभागमें चारों दिशाओंमें क्रमशः चक्रेश्वरी, अम्बिका, सरस्वती और पद्मावतीकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं । इनसे ऊपर एक खड्गासन तीर्थंकर मूर्ति है। इससे कुछ ऊपर चारों दिशाओं में चार पद्मासन अन्त प्रतिमाएँ बनी हुई हैं । शीषं वेदीपर चार तीर्थंकर मूर्तियाँ विराजमान हैं ।
दूसरे मानस्तम्भकी रचना भी प्रायः इसीके समान है । अन्तर इतना है कि इसकी चौकी ७ फुट ऊँची है तथा मानस्तम्भकी ऊँचाई ११ फुट है ।
पहाड़ीके मन्दिर - क्षेत्रके दक्षिण द्वारसे निकलकर लगभग दो फर्लांग कच्चा मार्ग तय करनेपर एक पहाड़ी टीलेपर छह लघु मन्दिर या मन्दरियां मिलती हैं । इनमें से दो मन्दिरोंमें मदनकुमार और विष्कंवल मुनियोंके हलके गुलाबी वर्णके चरण-चिह्न बने हुए हैं। कहा जाता है कि इन दोनोंने इसी स्थानपर निर्वाण प्राप्त किया था । इन चरणोंका आकार १० इंच है। इनकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् २०२४ में मार्ग शुक्ला १५ को की गयी । शेष चार मन्दिरोंमें भी चरण-चिह्न हैं। ये श्वेतवर्ण हैं और इनकी लम्बाई ७ इंच है ।
सिद्धों की गुफा – क्षेत्र से लगभग २ कि. मी. दूर पर्वतोंके मध्य एक विशाल गुफा है जो सिद्धोंकी गुफा कहलाती है । यहीं झालर की टौरिया है।
संग्रहालय – अहार क्षेत्रपर एक संग्रहालय है । सन् १९९३ में यहाँ खुदाई करायी गयी थी जिसमें सैकड़ों मूर्तियाँ और उनके खण्ड निकले थे । वे सब तथा निकटवर्ती स्थानोंसे उत्खननमें प्राप्त पुरातन सामग्री यहाँ सुरक्षित हैं । इस सामग्री में पुरातत्त्व और कलाकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण १२२७ कलाखण्ड सम्मिलित हैं । इन कलाखण्डों में तीर्थंकर मूर्तियाँ, यक्ष-यक्षीकी मूर्तियाँ, स्तम्भ,
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
वेदिका, तोरण, घड़े आदि सम्मिलित हैं । यह सामग्री प्रायः संवत् १९२३ से १८६९ तककी है । इस सामग्री और मूर्तिलेखों का अध्ययन करनेपर कुछ रोचक निष्कर्ष निकलते हैं, जो इतिहास परिप्रेक्ष्यमें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। यथा
१. चन्देल नरेश मदनवर्मनने यहाँपर जो विशाल मदनसागर नामक सरोवर बनवाया था, उसके कारण इस नगरको मदनसागरपुर या मदनेशसागरपुर कहा जाने लगा था। ये नाम संवत् १२०९ और संवत् १२३७ के मूर्तिलेखों में दो मूर्तियोंपर अभिलिखित मिलते हैं । मदनवर्मनका राज्य संवत् १९८६ से १२२० तक रहा। उसके पश्चात् उसका पौत्र और यशोवर्मनका पुत्र परमर्दी गद्दी - पर बैठा जिसका शासन संवत् १२५९ तक रहा। इसका अर्थ यह समझा जा सकता है कि नगर के ये नाम इन दोनों नरेशोंके राज्यकालमें कुछ ही समय तक प्रचलनमें रहे । सम्भव है, ये नाम बोलचाल में बिलकुल प्रचलित न हुए हों, केवल अभिलेखोंमें ही कवियोंकी कृपासे स्थान पा गये हों ।
२. मूर्तिलेखोंका वर्गीकरण करनेपर लगता है कि संवत् १९२३ से इस स्थानको एक तीर्थंक्षेत्रके रूपमें मान्यता प्राप्त हो गयी और संवत् १२३७ तक यह जनता की श्रद्धा और आकर्षणका महत्त्वपूर्णं केन्द्र रहा। इन ११५ वर्षों में ही, वर्तमानमें उपलब्ध मूर्तियोंके आधारपर कहा जा सकता है कि २५ बार यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई। इन वर्षोंमें भी संवत् १२०३ से १२३७ के मध्य २० प्रतिष्ठाएँ हुईं। इन वर्षों में भी संवत् १२०३ में ३ बार प्रतिष्ठा हुई; १२०९ में २ बार, १२१३ में २ बार, १२१६ में ३ बार बिम्ब-प्रतिष्ठा हुई। संवत् १२०३, १२०७ और १२१३ में बानपुर में विशाल प्रतिष्ठा समारोह हुआ था। वहाँ भी अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराके उन्हें यहाँ रख दिया गया था । यद्यपि संवत् १२३७ के पश्चात् भी यहाँ जब-तब प्रतिष्ठाएँ होती रहीं, किन्तु इन ३५ वर्षों में प्रतिष्ठाओं की अधिक संख्या और बहुसंख्यक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा तथा इस कार्यमें अनेक जातियों के सक्रिय सहयोग से ऐसा लगता है कि उक्त अवधिमें अहार तीर्थक्षेत्र की ख्याति अपने चरम बिन्दुपर पहुँच चुकी थी। हमें आश्चर्य है कि किसी मूर्ति लेखमें अहार क्षेत्रका नाम नहीं मिलता; बानपुरमें संवत् १२०७ और १२१३ की प्रतिष्ठित कुछ प्रतिमाओंको छोड़कर प्रतिष्ठा-स्थानका भी नामोल्लेख नहीं मिलता । सम्भव है, जिन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा अहारमें हुई थी, उनकी प्रतिष्ठा वस्तुतः कहीं अन्यत्र हुई हो । किन्तु इससे स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता । असन्दिग्ध शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अहार क्षेत्रने उत्कर्षंका एक लम्बा स्वर्णिम युग देखा है और उसने शताब्दियों तक महान् ख्यातिका भोग किया है ।
३. यहाँ कभी भट्टारकोंकी गद्दी रही हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता । किन्तु इस क्षेत्र के साथ भट्टारकों का कुछ सम्बन्ध अवश्य रहा है और उनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियाँ यहाँ प्राप्त होती हैं । किन्तु यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि यहाँ यक्ष-यक्षियोंकी मूर्तियाँ अत्यल्प संख्यामें उपलब्ध हैं । यहाँ उपलब्ध पुरातत्वमें इनकी संख्या बिलकुल नगण्य है ।
४. यहाँकी मूर्तियोंको ध्यानपूर्वक देखनेपर विभिन्न कालकी कलाका अन्तर पकड़ में आ सकता है । अतः यह संग्रहालय ११वीं शताब्दीसे १९वीं शताब्दी तकके कला-परिवर्तनका अध्ययन करने में बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है । मूर्तियों को देखकर लगता है कि तीर्थंकर मूर्तियोंपर अष्ट प्रातिहार्यं और परिकरकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया किन्तु उनके अलंकरणकी उपेक्षा नहीं की गयी ।
५. संग्रहालय में एक मूर्तिलेख नं. ८११ इस प्रकार है - संवत् ५८८ माघ सुदी १३ गुरौ पुष्य नक्षत्रे गोला पूर्वान्वये साहु रामल सुत साहु गणपति साहु, भामदेव हींगरमल सुत वंशी मदनसागर तिलकं नित्यं प्रणमति' । इसमें 'मदनसागर तिलक' यह पद शान्तिनाथ भगवान् के लिए प्रयुक्त
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ हुआ है । इस लेखमें संवत् ५८८ गलत है। इसके तीन कारण हैं-(१) उस समय यहाँ मदनसागर नहीं था। उसका निर्माण १२वीं शताब्दीमें हुआ था। (२) उस समय गोलापूर्व जाति नहीं थी। (३) इस लेखकी लिपिसे यह लेख १६वीं शताब्दीका लगता है। अतः यह संवत् १५८८ होना चाहिए। दर्शनीय स्थल
यहाँ पहली पहा पर छह छोटे-छोटे मन्दिर बने हुए हैं। यहाँसे दूसरी पहाड़ीपर जानेपर एक सरोवर दिखाई पड़ता है जो बड़ा कोटा सरोवर कहलाता है। किवदन्तीके अनुसार इसी सरोवरके किनारे किसी शिलापर पाड़ाशाहका राँगा चाँदी हो गया था। इस पहाड़ीपर तथा आसपास प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष बिखरे पड़े हैं। ये अवशेष विशाल भूभागमें बिखरे हुए हैं। इससे ऐसा लगता है कि यहाँ कभी अनेक जिनालय रहे होंगे जो कालक्रमसे क्रूर दाढ़ोंमें फंसकर अथवा धर्मोन्मादियोंके हाथों विनष्ट हो गये। यहाँको पहाड़ियोंमें कुछके नाम हैं मुड़िया, रिछारी वन्दरोंई, सुनाई, मड़गुल्ला आदि । इन नामोंसे ही प्रतीत होता है कि किसी जमानेमें यहां भयंकर जंगल थे, जहाँ रीछ, बन्दर, भेड़िये आदि जंगली जानवर रहते थे। इन सभी स्थानोंपर मन्दिरोंके
शेष मिलते हैं। यह बह काल था जब लोगोंका आवागमन यहाँ कम हो गया था। धीरे-धीरे मन्दिर धराशायी हो गये और मूर्तियाँ मलबेमें या झाड़ियोंमें दब गयीं। इसी कालमें शान्तिनाथ भगवान्की विशाल मूर्ति भी खण्डहरोंमें पड़ी रही और लोग मूड़ादेव कहा करते थे। जैन समाज इस जैन केन्द्रको भूल ही चुका था। ग्रामके चरवाहोंसे पता लगनेपर संवत् १८८४ में कुछ उत्साही धर्मप्रेमी बन्धु वहाँके ग्रामवासियोंके सहयोगसे शान्तिनाथ भगवान्की मूर्ति तक पहुंचे। उन्होंने समाजके सहयोगसे वहाँ तक जानेका मार्ग बनवाया और इस क्षेत्रको पुनः प्रकाशमें लाये । यहाँ दर्शनीय वस्तुओंमें मदनसागर और एक बावड़ी है जो मदनवेरके नामसे प्रसिद्ध है।। धर्मशालाएँ
यहाँकी धर्मशालाओंमें १०० कमरे बने हुए हैं। धर्मशालाओंमें बिजली है, पक्के कुएंमें मोटर लगी हुई है । क्षेत्र तक पक्की सड़क बनी हुई है। क्षेत्रस्थित संस्थाएँ ... वर्तमानमें क्षेत्रपर निम्नलिखित संस्थाएं हैं-शान्तिनाथ सरस्वती भवन, शान्तिनाथ संस्कृत विद्यालय एवं छात्रावास, शान्तिनाथ व्रती आश्रम, शान्तिनाथ महिलाश्रम, शान्तिनाथ दिगम्बर जैन संग्रहालय । क्षेत्र तथा सभी संस्थाओंको प्रबन्धकारिणी कमेटी एक है किन्तु संग्रहालयकी कमेटी पृथक् है।
बन्धा स्थिति और मार्ग
__ श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बन्धा, मध्यप्रदेशके टीकमगढ़ जिलेमें बम्हौरी-बराना नामक ग्रामसे दस किलोमीटर दूर दक्षिणकी ओर सुरम्य पहाड़ियोंके बीचमें स्थित है। टीकमगढ़से निवाड़ी होते हुए झाँसी जाते समय मार्गमें बम्हौरी-बराना पड़ता है। टीकमगढ़से बन्धा ५० कि. मी. दूर है। इसका पोस्ट आफिस बम्हौरी-बराना है।
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क्षेत्र-दर्शन
इस क्षेत्रके चारों ओरका दृश्य अत्यन्त मनोरम है। कहा जाता है कि बुन्देलखण्डमें सात भोयरे बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। ये सातों भोयरे पवा, देवगढ़, सीरीन, करगुवां, बन्धा, पपोरा और थूवौनमें स्थित हैं। ऐसी भी अनुश्रुति है कि ये सातों भोयरे देवपत और खेवपत नामक दो भाइयोंने निर्मित कराये थे। इन भोयरोंका निर्माण काल क्या है, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। किन्तु इन भोयरोंमें कुछ मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शताब्दीकी भी उपलब्ध होती हैं। ये मूर्तियाँ मूलतः इन भोयरोंमें ही प्रतिष्ठित की गयी थीं, यह विश्वासपूर्वक कहना कठिन है । ऐतिहासिक पृष्ठभूमिके सन्दर्भमें विचार करनेपर ऐसा लगता है कि भोयरे उस कालकी उपज हैं जब आततायी मुस्लिम शासक देवालय और देव-प्रतिमाओंका विध्वंस करने लगे थे। ऐसे संकट-कालमें देव-प्रतिमाओंकी सुरक्षाकी चिन्ता होना स्वाभाविक था। देवालयोंकी सुरक्षा होना कठिन जानकर देव-प्रतिमाओंकी सरक्षाके प्रयत्न किये गये और भूगर्भ में वेदियां या चबतरे बनाकर वहीं देवालयकी मतियां विराजमान कर दी गयीं। कुछ स्थानोंपर इस प्रकारको भी घटनाएं हुईं कि आततायियोंने देवालयको ही नष्ट कर दिया। सतत आतंकके कारण जैन समाजने उन विध्वस्त मन्दिरोंका पुननिर्माण नहीं कराया। धीरे-धीरे समाज उन ध्वंसावशेषोंके नीचे दबे हुए भोयरेको भी भूल गया। कहीं-कहीं खुदाई कराते समय ऐसे भोयरे और उनमें स्थित मूर्तियाँ सुरक्षित रूपमें मिली हैं। भोयरे-निर्माणका एक अन्य उद्देश्य तपःसाधनाके लिए शान्तिपूर्ण वातावरणकी सृष्टि भी रहा होगा।
बन्धा क्षेत्र में भी एक भोयरा है। इसकी रचना-शैली उपर्युक्त गर्भगृह-सप्तकसे बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इस भोयरेमें मूलनायक प्रतिमा भगवान् अजितनाथकी है। लेखसे स्पष्ट है कि इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वि. संवत् ११९९ ( ई. स. ११४२) में हुई थी। यह मूर्ति अत्यन्त प्रभावक है। इसके नेत्रोंमें प्रशान्त स्निग्धता है, मुख-मुद्रा अत्यन्त सौम्य है। दर्शन करनेपर अनुभव होता है कि प्रभु करुणाकी वर्षा कर रहे हैं।
_इस मूर्तिके एक ओर भगवान् ऋषभदेव और दूसरी ओर भगवान् सम्भवनाथ खड्गासनमें ध्यानलीन हैं। इन दोनोंका प्रतिष्ठा-काल संवत् १२०९ है। प्राचीन प्रतिमाओंमें दो प्रतिमाएं
और भी उल्लेखनीय हैं। वे हैं भगवान् सम्भवनाथ और भगवान् नेमिनाथकी। इन दोनोंके पीठासनोंपर संवत् १२०९ के अभिलेख उत्कीर्ण हैं।। एक मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है जिसके पादपीठपर लेख तो है किन्तु संवत् पढ़नेमें नहीं आता। लगता है, यह भी उपयुक्त मूर्तियोंकी समकालीन है। यहाँ अन्य भी अनेक मूर्तियाँ हैं, किन्तु ये इस कालके बादकी हैं। इस गर्भगृहके निकट एक विशाल शिखरबद्ध मन्दिर है।
शिखरबद्ध मन्दिरके निकट ही एक और मन्दिर है। यह पहले सम्भवतः जैन मठ था, जिसमें बारह द्वारियाँ हैं। ऐसा लगता है, प्राचीन कालमें जैन साधुओंकी समाधि ( निषधिका ) के रूपमें इसका उपयोग होता होगा। यहाँ एक स्तम्भपर अभिलेख भी अंकित है, किन्तु अस्पष्ट होनेसे वह पढ़नेमें नहीं आता। यहाँ तीन प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं, जो अनुमानतः ११-१२वीं शताब्दी की हैं।
शिखरबद्ध मन्दिरकी ऊंचाई लगभग ६५ फुट है। इस मन्दिरका निर्माण १८वीं शताब्दीमें बम्हौरी बरानानिवासी स. सिं. गिरधारीलालजीको मातेश्वरीने कराया था। वे धर्मनिष्ठ महिला थीं। उनके आदेशसे निर्माणके समय मन्दिरके काममें आनेवाला जल पहले छान लिया जाता था।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१२९ क्षेत्रपर अतिशय
इस क्षेत्रके अतिशयोंके बारेमें जनतामें अनेक प्रकारको किंवदन्तियां प्रचलित हैं। मन्दिरसे लगभग १०० मीटर दूर एक बावड़ी है। उसके पास ही एक खेत है। कुछ वर्ष पूर्व इस खेतके मालिकको हल जोतते समय एक जैन मूर्ति मिली थी। खेतके बीचमें एक पाषाण-खण्ड पड़ा हुआ है। जब भी खेतका मालिक इस पाषाणको वहाँसे हटाकर अन्यत्र डाल देता है, तभी उसका परिवार बीमार पड़ जाता है। जनतामें धारणा है कि उस स्थानके नीचे कोई गर्भगृह है और यह वहांको मूर्तियों या किसी मूर्तिका अतिशय है।
इस प्रदेशकी जनतामें एक अनुश्रुति यह भी प्रचलित है कि एक बार मुगल बादशाहकी आज्ञासे कुछ धर्मान्ध सैनिकोंने यहाँको मूर्तियोंको तोड़नेके लिए हथियार उठाये। तभी क्षेत्ररक्षक देवने उन्हें कोलित कर दिया। उनको छुटकारा तभी मिला, जब उन्होंने इस प्रकारके दुष्कृत्य करनेसे तोबा की। कहते हैं, सैनिक यहाँ बंधे थे, इसलिए तबसे इस स्थानका नाम भी बन्धा पड़ गया।
संवत् १८९० में एक बार एक मूर्तिकार एक मूर्ति बेचनेके लिए बम्हौरी होकर जा रहा था। जब वह बम्हौरीमें बड़े पीपलके निकट पहुंचा तो उसकी गाड़ी अचल हो गयी। गाड़ी अनेक प्रयत्न करनेपर भी नहीं चली। किसीने बम्हौरीके सवाई सिंघईजीसे वह मूर्ति खरीदकर बेचारे मूर्तिकारका संकट दूर करनेका आग्रह किया। सवाई सिंघईजी मूर्ति खरीदनेको तो राजी हो गये किन्तु एक ही शर्तपर कि मूर्ति बन्धाजी पहुँच जाये। आश्चर्यकी बात कि गाड़ी बन्धाजोकी ओर मोड़ो गयो तो मजेसे चलने लगी और बन्धाजी पहुंच गयी। वह मूर्ति आज भी बड़े मन्दिरमें विराजमान है।
सन् १९५३ में आचार्य महावीरकीर्तिजी महाराजका संघके साथ यहां पदार्पण हुआ। उस समय यहाँका कुआँ सूखा हुआ था। इससे बड़ी असुविधा हो रही थी। क्षेत्रके अधिकारियोंने आचार्यश्रीसे इस सम्बन्धमें निवेदन किया। तब आचार्यश्रीने भगवान् अजितनाथका अभिषेक कराया और गन्धोदक लेकर कुएं में डाल दिया। देखते-देखते कुएंमें जल भर गया। इस घटनाके प्रत्यक्षदर्शी अनेक लोग आज भी विद्यमान हैं।
यहाँ अनेक जैन और जैनेतर व्यक्ति अब भी अपनी मनोकामनाओंकी पूर्तिके लिए आते रहते हैं। झाँसीवालोंकी धर्मशाला सेठानीकी मनोकामना पूर्ण होनेपर ही यहां निर्मित करायी गयी। इस प्रकार यहाँ अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएं होती रहती हैं जिनके कारण इस प्रदेशकी जनता इस क्षेत्रके प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखती है और इसे अतिशय क्षेत्र मानती है । पुरातत्व
यह क्षेत्र तथा इसके आसपासका समूचा प्रदेश पुरातत्त्वको दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है। इस प्रदेशमें खेतोंमें, सरोवरोंमें और प्राचीन भवनों या देवायतनोंके अवशेषोंमें पुरातत्त्वकी जैन सामग्री विपुल परिमाणमें बिखरी हुई है। इस क्षेत्रके निकट ही एक टीला है, जिसे लोग 'धर्मटीला' कहते हैं । निकटवर्ती ग्रामोंके कुछ उत्साही लोगोंने कुछ वर्ष पूर्व इस टीलेकी खुदाई की। परिणामस्वरूप इसमें से कुछ प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकलीं। वे क्षेत्रपर स्थित संग्रहालयमें रख दी गयीं। यदि इस टीलेकी पूरी तरह खुदाई की जाये तो अब भी इसमें से जैन सामग्री मिलनेकी पर्याप्त सम्भावना है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस क्षेत्रके निकटवर्ती ग्रामोंके कुछ हिन्दू मन्दिरों, विशेषतः जगदम्बा-मन्दिरोंमें प्राचीन जैन मूर्तियां रखी हुई हैं। इनमें से कुछ मूर्तियां खण्डित हैं और कुछ अखण्डित हैं। हिन्दू लोग इन्हें महामाई और जगदम्बा मानकर पूजते हैं। बन्धासे डेढ़ मील दूर कुम्हैड़ी गाँवके एक हिन्दू मन्दिरमें एक पाषाण-स्तम्भ लगा हुआ है, जिसपर जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ अंकित हैं । ग्रामीण लोग इसे भी जगदम्बा मानते हैं और जल ढारकर पूजा करते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि चन्देलवंशी राजाओंके शासन-कालमें संस्कृति और कलाको अत्यधिक प्रोत्साहन और विकासका अवसर मिला । धार्मिक जनताने इस प्रदेशमें नये तीर्थोंकी स्थापना करके अथवा पाषाणोंमें कलाको अवतरित करके इस अवसरका खूब लाभ उठाया। अहार, पपौरा आदिकी श्रृंखलामें बन्धा क्षेत्र भी है। इन क्षेत्रोंका उदय प्रायः एक ही कालमें हुआ लगता है। इन क्षेत्रोंकी कला भी प्रायः समान है। इतिहास और पुरातत्त्व भी सममामयिक लगते हैं। प्रायः चन्देल राजाओंके शासन कालमें ही ये तीर्थ बने और यहाँ मन्दिर और मतियाँ प्रतिष्ठित हुईं। उसके पश्चात् यहाँ अनेक मन्दिर बनते रहे। यहांकी प्रारम्भिक कालकी मूर्तियोंपर चन्देल और कलचुरि शैलीकी छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है। अतः यह स्वीकार करनेमें कोई बाधा प्रतीत नहीं होती कि बन्धा क्षेत्रका उदय चन्देल वंशके शासन-कालमें हुआ और मुस्लिमकालमें यहां गर्भगृहका निर्माण हुआ। संग्रहालय
क्षेत्रके अधिकारियोंने एक स्तुत्य प्रयास किया है। क्षेत्रके निकटवर्ती प्रदेशमें जो मूर्तियां खेतों और जंगलोंमें असुरक्षित दशामें पड़ी हुई थीं, उन्हें लाकर उन्होंने यहां एक स्थानपर रख दिया है और इस मूर्ति-संग्रहको एक लघु संग्रहालयका रूप प्रदान कर दिया है। इन मूर्तियोंका अपना एक विशेष ऐतिहासिक और कलात्मक महत्त्व है। यदि सभी तीर्थक्षेत्रोंके अधिकारी इसी प्रकार अपने तीर्थके निकटवर्ती प्रदेशमें पड़ी हुई मूर्तियोंका संग्रह अपने क्षेत्रपर कर लें तो इससे हजारों जैन मूर्तियों और प्राचीन कलावशेषोंको सुरक्षा अल्प व्यय और साधारण श्रममें ही हो सकती है। क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं
(१) क्षेत्रपर सन् १९६७ में श्री अजितनाथ दिगम्बर जैन विद्यालयको स्थापना की गयी। तबसे यह विद्यालय बराबर चल रहा है।
(२) सन् १९६८ में क्षेत्रपर उपर्युक्त संग्रहालयकी स्थापना की गयी।
(३ ) यहाँ प्रकाशन-विभाग भी चालू किया गया है। अभी तक उसकी ओरसे बन्धा क्षेत्रसम्बन्धी कई पुस्तिकाएं, रिपोर्ट और शतवर्षीय कलेण्डर निकल चुके हैं। धर्मशाला
___ यात्रियोंके ठहरनेके लिए एक धर्मशालाका निर्माण हो चुका है, जिसमें १० कमरे हैं। व्यवस्था
क्षेत्रको व्यवस्था एक कार्यकारिणी समिति करती है। इसी समितिके हाथमें क्षेत्र और वहांपर स्थित संस्थाओंकी व्यवस्था है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१३१ खजुराहो मार्ग और अवस्थिति
खजुराहो मध्यप्रदेशके छतरपुर जिले में स्थित है और अत्यन्त कलापूर्ण भव्य मन्दिरोंके कारण विश्व-भरमें प्रसिद्ध पर्यटन-केन्द्र है । एक हजार वर्ष पूर्व यह चन्देलोंकी राजधानी था, किन्तु आज तो यह एक छोटा-सा गाँव है जो खजुराहो सागर अपरनाम निनौरा तालनामक झोलसे दक्षिण-पूर्वी कोनेमें बसा है। यह स्थान महोबासे ५५ कि. मी. दक्षिणकी ओर, हरपालपुरसे ९८ कि. मी. तथा छतरपुरसे ४६ कि. मी. पूर्वकी ओर, सतनासे १२० कि. मी. व पन्नासे ४३ कि. मी. पश्चिमोत्तर दिशामें है। इन सभी स्थानोंसे खजुराहो तक पक्की सड़क है और नियमित बस-सेवा है। रेलसे यात्रा करनेवालोंके लिए हावडा-बम्बई लाइनपर सतना स्टेशनसे तथा झांसीमानिकपुर लाइनपर हरपालपुर और महोबासे यहाँके लिए बसें नियमित चलती हैं। इसी प्रकार इलाहाबाद, कानपुर, झांसी, ग्वालियर, बीना, सागर, भोपाल, जबलपुर आदिसे बस द्वारा छतरपुर होते हुए खजुराहो पहुँच सकते हैं।
इण्डियन एयर लाइन्स कारपोरेशनकी हवाई सेवा दिल्ली-आगरा होते हुए खजुराहो जानेके लिए प्रतिदिन उपलब्ध है । जैन बन्धुओंके ठहरनेके लिए बस-अड्डेसे ३ कि. मी. दूर क्षेत्रपर धर्मशालाएं हैं । पर्यटकोंके लिए पर्यटक बँगला (श्रेणी १), विश्राम-भवन, पर्यटक बँगला (श्रेणी २) तथा होटल आदिमें ठहरनेकी सुविधा है। यहाँका बस अड्डा खजुराहो सागर (निनौरा ताल) के किनारे अवस्थित है। इसके सामने ही शैव-वैष्णव मन्दिरोंका पश्चिमी समूह, संग्रहालय, होटल और छोटा-मोटा बाजार हैं। नामकरण
भारतीय वास्तु और शिल्पकलाके क्षेत्रमें खजुराहोका विशिष्ट स्थान है। चन्देलकालीन उत्कृष्ट शिल्पकलाका निदर्शन यहाँ मिलता है । खजुराहो नामके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रचलित है कि प्राचीनकालमें इस नगरके चारों ओर पक्की दीवार थी और इसके मुख्य द्वारपर सोनेके दो खजूरके पेड़ लगाये हुए थे। इस किंवदन्तीका क्या आधार है, यह ज्ञात नहीं हो सका है । सम्भव है, यह नगर कभी खजूरके वृक्षोंके बीच में बसा हो और इन वृक्षोंके बाहुल्यके कारण नगरका नाम खर्जूरपुर पड़ गया हो । वर्तमानमें तो यहाँ खजूरके पेड़ बहुत विरल हैं। शिलालेखों और प्राचीन इतिहास-ग्रन्थोंमें इस नगरके कई नाम उपलब्ध होते हैं जैसे खजूरवाटिका, खजूरपुर, खजुरा, खजुराहा । वि. सं. १०५६ (सन् ९९९) के गण्डदेवके एक शिलालेखमें संवत्के पश्चात् निम्न वाक्य उल्लिखित है-'श्री खजूरवाटिका राजा धंगदेव राज्ये ।। ___ अबू रिहान नामक मुस्लिम इतिहासकारने सन् १०३१ में इसका नाम खजूरपुर और इसे जेजाहुतिको राजधानी लिखा है। इसका समर्थन दो शिलालेखोंसे भी होता है। इनमें से एक है कोतिवर्माके कालका और दूसरा परमर्दिके कालका है। पहला शिलालेख महोबामें उपलब्ध हुआ था, जिसमें इस प्रदेशका नाम जेजाख्य अथवा जेजाभुक्ति लिखा है। दूसरेमें इसका नाम जेजाकभुक्ति दिया हुआ है। इसीका अपभ्रंश होते-होते जेजाकहुति और जेजाहुति बन गये । इब्न बतूताने इसे खजुरा लिखा है और लिखा है-'वहाँ एक मील लम्बी झील है, जिसके चारों ओर मन्दिर बने हुए हैं। उनमें मूर्तियां रखी हुई हैं।' बतूताने सन् १३३५ में यहाँकी यात्रा की थी। उस समय खजुराहो और अजयगढ़पर चन्देल राजाओंका अधिकार था, जबकि कालिंजर और महोबापर मुसलमानोंका अधिकार हो चुका था।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
____ वर्तमानमें खजुराहो एक छोटा-सा गांव है। किन्तु पर्यटन-केन्द्र होनेके कारण यहाँ देशविदेशके अनेक पर्यटक और यात्री आते रहते हैं। क्षेत्र-दर्शन
खजुराहोके हिन्दू और जैन मन्दिर चन्देल राजाओंके शासन-कालको समुन्नत शिल्पकलाके उत्कृष्ट नमूने हैं । यहाँ जितने मन्दिर तथा चन्देलोंसे सम्बन्धित स्थान हैं, वे राहिल वर्मा ( लगभग सन् ९००) से लेकर मुसलमानों द्वारा कालिंजरकी विजय ( ई. स. १२१३ ) तकके कालके हैं।
- यहाँ एक शिलालेखका एक भाग मिला है, जिसपर कुटिला लिपिमें हर्षदेव और क्षितिपालदेव नृपतिका उल्लेख है। ये हर्षदेव यशोवर्माके पिता और धंगराजके पितामह थे। अतः यह शिलालेख ई. स. ९०० के लगभगका माना जाता है।
चन्देल राजाओंमें प्रारम्भके कुछ राजा विष्णु-भक्त थे किन्तु अधिकांश राजा शिवके उपासक थे। जैन धर्मके प्रति वे कभी असहिष्णु नहीं रहे । बल्कि उनके शासन कालमें उनकी उदार नीतिके फलस्वरूप जैन धर्म और जैन कलाको विकास और प्रसारका पूरा अवसर मिला। यही कारण है कि चन्देलोंके शासन-कालमें अनेक स्थानोंपर उच्चकोटिके जैन कलायतन निर्मित हुए। - जनश्रुतिके अनुसार यहाँ ८५ मन्दिर थे, किन्तु अब तो प्राचीन मन्दिरोंमेंसे केवल ३० मन्दिर ही विद्यमान हैं, शेष मन्दिर नष्ट हो गये। चन्देल राजाओंके शासनसे पूर्व ही बौद्ध धर्म भारतसे लुप्तप्राय हो गया था, अतः बौद्धोंका कोई मन्दिर यहाँ नहीं मिलता। एक महाकाय बुद्ध-मूर्ति अवश्य मिली है। उसपर नौवीं-दसवीं शताब्दीके अक्षरों में बौद्ध मन्त्र अंकित है। इस मूर्तिको छोड़कर शेष सभी मन्दिर और मूर्तियां हिन्दू धर्म और जैन धर्मसे ही सम्बन्धित हैं।
___ यहाँके मन्दिरोंको सुविधाके लिए तीन भागोंमें बांट सकते हैं-(१) पश्चिमी समूह, (२) पूर्वी समूह, (३) दक्षिणी समूह । पश्चिमी समूह
मन्दिरोंका यह समूह मीठा-राजनगर सड़कके पश्चिममें स्थित है और दो श्रेणियोंमें विभक्त है। इस समूहमें सबसे पहला है चौंसठ योगिनो मन्दिर। यह छतरहित है तथा शिवसागर झीलके दक्षिण-पश्चिममें बना हुआ है। वर्तमानमें इस मन्दिरमें केवल तीन योगिनी मूर्तियाँ हैं और वे भी अपने वास्तविक स्थानोंपर नहीं हैं। अष्टभुजी महिषासुर मर्दिनी मुख्य वेदीमें विराजमान हैं। बगलकी वेदियोंमें से एकमें माहेश्वरी है और दूसरोमें चतुर्भुज ब्रह्माणी।
__ इस मन्दिर-समहमें लाल गआन महादेव मन्दिर, कन्दारिया मन्दिर, महादेव मन्दिर, जगदम्बा मन्दिर, चित्रगुप्त या भरत मन्दिर, विश्वनाथ और नन्दी मन्दिर, पार्वती मन्दिर, लक्ष्मण मन्दिर, मातंगेश्वर मन्दिर और वराह मन्दिर सम्मिलित हैं। इनमें लाल गुआन महादेव मन्दिर चौसठ योगिनी मन्दिरसे पश्चिममें तीन फलांग दूर है। कन्दारिया मन्दिर चौंसठ योगिनी मन्दिरके उत्तरमें है और खजुराहोंके मन्दिरोंमें सबसे बड़ा है। यह १०२ फुट लम्बा, ६७ फुट चौड़ा और १०२ फुट ऊँचा है। इसमें पूर्ण विकसित मन्दिरोंके सभी तत्त्व विद्यमान हैं, यथा अधमण्डप, मण्डप, महामण्डप, अन्तराल, गर्भगृह और प्रदक्षिणा-पथ। महादेव मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें है और वह कन्दारिया मन्दिरके पास है। इसके उत्तरमें देवी जगदम्बा या कालीका मन्दिर है। इसके उत्तरमें थोड़ी दूरपर चित्रगुप्त मन्दिर है। इसके उत्तर-पश्चिममें एक छोटा तालाब है। विश्वनाथ और नन्दी मन्दिर पश्चिमी समूहकी पूर्वी कतारके उत्तरी सिरेपर अवस्थित हैं। ये
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१३३ मन्दिर नौवींसे बारहवीं शताब्दी तक निर्मित हुए थे, यह बात विश्वनाथ मन्दिरके मण्डपकी दीवारमें लगे हुए एक शिलालेखसे प्रमाणित होती है। पार्वती मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिरके दक्षिणपश्चिममें निकट ही स्थित है। इसके निकट छतरपुर महाराज द्वारा बनवाया हुआ लगभग सौ वर्ष प्राचीन एक मन्दिर है। लक्ष्मण मन्दिर पार्वती मन्दिरके दक्षिणमें है और आयाममें विश्वनाथ मन्दिरके समान है। एक लेखके अनुसार यह मन्दिर यशोवर्मन ( अपरनाम लक्ष्मवर्मन ) ने बनवाया था। यह लेख मण्डपकी दीवारमें एक शिलापर उत्कीर्ण है। यह लेख सन् ९५३-५४ का सिद्ध होता है। लक्ष्मण मन्दिरके पास ही मातंगेश्वर मन्दिर है। इस मन्दिरमें ३ फुट ८ इंच व्यासका और ८ फुट ४ इंच ऊँचा अत्यन्त चमकीला विशालकाय लिंग स्थापित है। खजुराहोके हिन्दू मन्दिरोंमें यह मन्दिर सर्वाधिक पूज्य माना जाता है। मातंगेश्वर मन्दिरके सामने वराह मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिरमें ८ फुट ९ इंच लम्बी और ५ फुट ९ इंच ऊँची एक वराह मूर्ति है जो एक ही पाषाणसे निर्मित है । पूर्वी समूह
इस समूहमें हनुमान मन्दिर, ब्रह्मा मन्दिर, वामन मन्दिर, जवारी मन्दिर ये तो हिन्दू मन्दिर हैं और घण्टई मन्दिर, आदिनाथ मन्दिर, पार्श्वनाथ मन्दिर और शान्तिनाथ मन्दिर ये चार जैन मन्दिर हैं। दक्षिणी समूह __ मन्दिरोंके दक्षिणी समूहमें दुलादेओ मन्दिर और चतुर्भुज मन्दिर हैं।
यहाँ जैन मन्दिरोंके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डालना उपयोगी होगा।
घण्टई मन्दिर-यह मन्दिर गाँवके दक्षिणमें है। इस मन्दिरका यह नाम सम्भवतः इसलिए पडा है कि इसके खम्भोंपर घण्टा और जंजीरके अलंकरण उत्कीणं हैं। यह मन्दिर द शताब्दीमें निर्मित हुआ था। यहाँके संग्रहालयमें इसी कालकी कुछ मूर्तियां रखी हुई हैं, जिनके अभिलेखमें 'घण्टई' शब्द अंकित है। इससे प्रतीत होता है कि इस मन्दिरका 'घण्टई' नाम प्रारम्भसे प्रचलित रहा है। यह मन्दिर ४२ फुट १० इंच पूर्वसे पश्चिमकी ओर और २१ फुट ६ इंच उत्तरसे दक्षिणकी ओर था। इसका द्वार पूर्वाभिमुखी है। जैन समूहके मन्दिरोंसे यह १ कि. मी. की दूरीपर है । प्रारम्भमें इस मन्दिरमें अर्धमण्डप, महामण्डप, अन्तराल और गर्भगृह समाविष्ट थे। एक प्रदक्षिणापथ भी था। किन्तु अब तो उसको बाहरी दीवार नष्ट हो चुकी है। केवल अर्धमण्डप और महामण्डप ही अवशिष्ट हैं। इसकी रचना-शैली पार्श्वनाथ मन्दिरसे बहुत कुछ मिलती-जुलती है। पहले इस मन्दिरमें २४ स्तम्भ थे और प्रत्येकमें एक-एक दीवारगीर बनी हुई थी। सम्भवतः इनके निर्माणका उद्देश्य प्रत्येकमें एक-एक तीर्थंकर-मूर्ति स्थापित करना हो। किन्तु अब तो इसमें २० स्तम्भ हो अवशिष्ट हैं । ये १४ फुट ६ इंच ऊंचे हैं।
इन स्तम्भोंकी अलंकरण-सज्जा और शिल्प-सौन्दर्य अनठा है। इन स्तम्भोंपर कीर्तिमखोंसे किंकणीजाल और मुक्तामालाएं झूल रही हैं। इनका अंकन विविध रूपोंमें हुआ है-कहीं क्षुद्र घण्टिकाएँ मालाओं में उलझ रही हैं, कहीं मालाएँ परस्पर गुंथ रही हैं । वृत्ता!में साधुओं, विद्याधरों और मिथुनोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। घण्टई मन्दिरके स्तम्भोंकी इस अलंकरण-कलाकी उपमा सम्भवतः अन्यत्र कहीं नहीं है।
इन स्तम्भोंको चौकियाँ अठपहलू और शीर्ष गोलाकार हैं। अर्धमण्डपके चारों स्तम्भ
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रतीकात्मक भव्य अलंकरणोंसे सज्जित हैं। स्तम्भोंकी चौकियां पत्रावलीसे अलंकृत हैं। अर्धमण्डपकी छत कटोरेके आकारकी है, किन्तु छतका कुछ भाग नष्ट हो गया है। छतमें दिलहे बने हुए हैं और उनमें नृत्य और संगीत-समाजका सुन्दर अंकन किया गया है।
महामण्डपका प्रवेशद्वार दर्शनीय है। उसकी चौखटोंके दोनों ओर यक्ष-दम्पती विभिन्न प्रेमातुर मुद्राओंमें अंकित हैं। चौखटके अधोभागमें शासन-देवियोंकी बड़े आकारकी मूर्तियाँ हैं। पद्मावतीके सिरके ऊपर सर्प-फण है जो खण्डित है। देव-देवियोंके अलंकार अत्यन्त कलात्मक ढंगसे अंकित किये गये हैं। कई देवियोंके स्तन और सिर कटे हुए हैं।
द्वारके सिरदलपर मध्यमें प्रथम तीर्थकर आदिनाथकी गरुड़वाहिनी अष्टभुजी चक्रेश्वरी विराजमान है। देवी अपने हाथोंमें चक्र, वज्र, मातुलिंग फल लिये हुए है और एक हाथ अभयमुद्रामें उठा हुआ है। सिरदलके दोनों सिरोंपर पद्मासन जैन तीर्थंकर-प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। ऊपरके तोरणमें दक्षिण और वाम कोनोंमें नवग्रह उत्कीर्ण हैं। सिरदलके ऊपर बनी हुई पट्टीमें तीर्थंकर माताके सोलह स्वप्नोंका अंकन किया गया है।
मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें हैं। इस मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा भगवान् ऋषभदेवकी रही होगी। इस अनुमानके कई कारण हैं। (१) प्रवेश-द्वारके ललाट-बिम्बपर गरुडारूढ़ा अष्टभुजी चक्रेश्वरीकी मूर्ति उत्कीर्ण है जो ऋषभदेव तीर्थंकरकी यक्षी है। (२) यहाँके सभी जैन मन्दिरोंमें भगवान् ऋषभदेवकी ही प्रतिमा मूलनायकके स्थानपर विराजमान है। यहां तक कि पाश्वनाथ मन्दिरमें भी मूलनायकके रूपमें ऋषभदेवकी ही प्रतिमा विराजमान थी, जिसका चिह्न वृषभ अब भी पार्श्वनाथकी चरण-चौकीपर अंकित है।
यहाँ दो शिलालेख प्राप्त हुए हैं जो अस्पष्ट होनेके कारण पढ़े नहीं जा सके। इनमें से एक लेख एक स्तम्भपर उत्कीर्ण है। इसमें केवल 'नेमिचन्द्र' शब्द पढ़ा जा सका है। अक्षरोंकी शैलीसे यह १०वीं शताब्दीका सिद्ध होता है। इसी प्रकार दूसरे लेखमें 'स्वस्ति श्री साधु पालना' शब्द पढ़े जा सके हैं । सन् १८७६-७७ में यहाँ खुदाईमें १३ जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई थीं। जैन मन्दिरोंका समूह
___ गांवके दक्षिण-पूर्व में जैन मन्दिरोंका समूह है। वे मन्दिर एक आधुनिक चहारदीवारीसे घिरे हैं। आदिनाथ, पाश्र्वनाथ और शान्तिनाथ मन्दिरोंके अतिरिक्त कई आधुनिक जैन मन्दिर हैं जो प्राचीन मन्दिरके ध्वंसावशेषोंपर बनाये गये हैं। तीर्थंकरोंकी अनेक प्राचीन मूर्तियाँ मन्दिरोंमें तथा अहातेमें खुले संग्रहालयके रूपमें रखी हुई हैं। इनमें से कई मूर्तियोंपर तिथिवाले लेख अंकित हैं।
यहाँके हिन्दू मन्दिरों और जैन मन्दिरोंमें वास्तुकलाकी दृष्टिसे समानता पायी जाती है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि दोनों धर्मोके मन्दिर-निर्माता स्थपति एक ही थे। इन दोनों धर्मोके मन्दिरोंमें जो अन्तर है, वह सूक्ष्म दृष्टिसे ही पकड़में आ पाता है। हिन्दू मन्दिरोंमें प्रकाशके लिए खिड़कियोंवाले पक्षावकाश बनाये गये, जबकि जैन मन्दिरोंमें छेदोंवाले झरोखे बनाये गये हैं । यहाँके नवीन जैन मन्दिरोंमें प्राचीन जैन मन्दिरोंकी सामग्रीका उपयोग हुआ है।
(१) शान्तिनाथ मन्दिर-पार्श्वनाथ मन्दिरके निकट ही दक्षिणमें शान्तिनाथ मन्दिर है। इसका निर्माण अनेक प्राचीन जैन मन्दिरोंकी सामग्रीसे किया गया है। किन्तु पुरातत्त्ववेत्ता कनिधमकी मान्यता है कि इस मन्दिरमें शान्तिनाथकी जो मूर्ति विराजमान है, वह अपने मूल स्थानपर ही है । फलतः यह मन्दिर ११वीं शताब्दीमें निर्मित होना चाहिए। इससे लगता है कि
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ शान्तिनाथ मन्दिर प्राचीन है। वह जीर्ण-शीर्ण हो गया था। १९वीं शताब्दीमें प्राचीन जैन मन्दिरोंकी सामग्रीका उपयोग करके इसका जीर्णोद्धार किया गया। किन्तु चूना-सफेदीके कारण मन्दिरकी प्राचीनता दब गयी और यह आम धारणा बन गयो कि मन्दिर १९वीं शताब्दीमें निर्मित हुआ है। इसमें तीन गर्भगृह तो अभी तक अपने मूल रूपमें सुरक्षित हैं।
__इस मन्दिरमें मूलनायक सोलहवें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथकी १६ इंच ऊंची भव्य प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा कायोत्सर्गासनमें बादामी वर्णकी है। इसकी चरण-चौकीपर एक पंक्तिका लेख है, जिसके अनुसार इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १०८५ में आचक्षके पुत्र श्रिय ठाकुर और देवधरके पुत्र श्री शिवि एवं श्री चन्दयदेवने करायी थी। चरण-चौकीके मध्यमें हरिण लांछन है। प्रतिमाके सिरके ऊपर छत्रत्रय विभूषित है। सिरके दोनों पाश्ॉमें हाथीपर कलश लिये हुए इन्द्र स्थित हैं। इनके अतिरिक्त दोनों ओर पांच-पांच पद्मासन और एक-एक खड्गासन प्रतिमाएं बनी हुई हैं। चमरेन्द्र हाथमें चमर लिये हुए भगवान्की सेवामें रत हैं। चरणोंके दोनों पार्यों में भक्त श्रावक-श्राविका जो सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक दम्पती हैं, हाथ जोड़े बैठे हैं। किन्तु उनके सिर खण्डित हैं। मूर्तिका अभिषेक करनेके लिए लोहेकी सीढ़ियाँ दोनों ओर रखी हुई हैं।
मूलनायकके दोनों पार्यों में पद्मासन और खड्गासन मुद्रामें अनेक छोटी मूर्तियां हैं। गर्भगृहमें बायीं और दायीं ओरकी दीवारमें ६-६ पैनल बने हुए हैं, जिनमें तीर्थंकर-मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मूलनायकके परिकरमें दो मूर्तियाँ हमारा ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं। एक तो है पाश्वनाथकी छोटी पद्मासन प्रतिमा। इसमें आसनसे लेकर फणावलि तक सर्पका गुंजलक बड़ा मनोरम है। दूसरी मूर्ति है आदिनाथकी। इसमें भगवान्के भव्य रूपको जटाओंने अत्यधिक निखार दिया है। इसके पीठासनपर नवग्रहोंका अंकन मिलता है।
मन्दिर नं. २-एक शिलाफलकमें ४ फुट २ इंच उन्नत महावीरकी पद्मासन प्रतिमा है। परिकरमें पुष्पवर्षी गन्धर्व, हाथीपर कलश लिये हुए इन्द्र, चमरवाहक, यक्ष और यक्षी हैं । पीठिकापर सिंह लांछन है । अधोभागमें सिद्धायिका ( महावीर भगवान्की यक्षी ) अंकित है।
_मन्दिर नं. ३-खड्गासन दो तीर्थंकर-मूर्तियाँ ३ फुट ७ इंच आकारको हैं। शीर्षपर ३ खड्गासन और इधर-उधर ६-६ तीर्थंकर-मूर्तियां हैं। दोनों मूर्तियोंके परिकरमें छत्र, गन्धर्व, गजारूढ इन्द्र कलश लिये हए. चमरेन्द्र, दो-दो श्रावक-श्राविकाएं हैं। एक मतिमें एक श्रावक नहीं है तथा एक श्रावकका सिर खण्डित है। इस गर्भगृहमें और भी कई मूर्तियाँ हैं। इसका शिखर अत्यन्त कलापूर्ण है।
मन्दिर नं. ४-कृष्ण पाषाणकी ३ फुट ६ इंच ऊँची पार्श्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है। बायीं ओर एक खण्डित स्तम्भमें १७ मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । सम्भवतः इसमें २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ रही होंगी। दायीं ओर १ फुट ५ इंच ऊँचे पाषाण-फलकमें मूर्तियां बनी हुई हैं।
___ मन्दिर नं. ५–पाँच फुटके शिलाफलकमें पार्श्वनाथकी खड्गासन प्रतिमा उत्कीर्ण है । फण खण्डित है। दोनों कोनोंमें ऊपरकी ओर ३-३ गन्धर्व पुष्पमाला लिये हुए और हाथीपर कलश लिये हुए इन्द्र हैं। दोनों ओर २-२ खड्गासन मूर्तियां और चमरेन्द्र हैं तथा चरणोंके पास दोनों ओर हाथ जोड़े हुई श्राविकाएँ प्रतिमाके परिकरमें हैं। १. संवत् १०८५ श्रीमदाचार्य पुत्र श्री ठाकुर श्री देवधर सुत श्री शिवि श्री चन्द्रयदेवः श्रीशान्तिनाथस्य
प्रतिमाकारि।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - बायीं ओर एक स्तम्भमें पाश्र्वनाथकी खड्गासन प्रतिमा है। स्तम्भका आकार ३ फुट ७ इंच है । मूर्तिकी फणावलीके ऊपर छत्र, उनके दोनों ओर पुष्पमाल लिये आकाश-विहारी गन्धर्व, दायीं ओर ऊपर-नीचे दो सिंह-व्याल हैं। एक खड्गासन मूर्ति है। उसके दोनों पार्यो में यक्ष-यक्षी हैं। यक्ष खण्डित है। पादपीठपर वीणाधारिणी सरस्वती है।
दायीं ओर ३ फुट १० इंच ऊंचे स्तम्भमें खड्गासन पार्श्वनाथ प्रतिमा है। चमरवाहक हैं और भक्त श्रावक-श्राविका हाथ जोड़े हुए बैठे हैं । नोचे सिंह बना हुआ है।
मन्दिर नं. ६-इसके प्रवेश-द्वारके सिरदलपर, एक मध्यमें तथा एक-एक दोनों कोनोंमें पदमासन प्रतिमाएँ हैं। ऊपर तोरणमें देवियोंका समाज जडा हआ है। वह नत्य-वाद्यमें लीन है। देवियाँ विविध अलंकार धारण किये हुई हैं। उनका केश-विन्यास आकर्षक है।
वेदीपर भगवान् नेमिनाथकी एक श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा है। यह संवत् १९२० में प्रतिष्ठित हुई थी। इसके लेखमें अतिशय क्षेत्र खजराहा लिखा है। इसके समवसरणमें ३३ पाषाणकी और २३ धातुकी मूर्तियां विराजमान हैं। इनमें २४ पाषाण-प्रतिमाएं प्राचीन हैं।
___ गन्धकुटी नं. ७-भगवान् नेमिनाथकी कृष्ण वर्णकी संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसका आकार १ फुट ६ इंच है।
___मन्दिर नं. ८-कृष्ण पाषाणकी २ फुट ८ इंच उन्नत चन्द्रप्रभ भगवान्की पद्मामन प्रतिमा विराजमान है। इसकी पीठिकापर निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण है
'संवत १२१५ माघ सुदी ५ रवौ देशी गणे पण्डित श्री राजनन्दि तत् शिष्य पण्डित श्री भानुकीर्ति अर्जिका मेरुश्री प्रतिनंदन श्रीमतं नित्यं प्रणमति।' .
इस मूर्तिकी पालिश कहीं-कहीं उखड़ गयी है।
इस प्रतिमाके बायीं ओर एक ३ फुट २ इंच ऊँची खड्गासन प्रतिमा है। यह काफी घिस गयो है। दायीं ओर २ फुट ३ इंच ऊँचे और १ फुट ९ इंच चौड़े शिलाफलकमें तीन खड्गासन तीर्थंकर-मूर्तियां हैं। तीनोंके चमरवाहक और चमरवाहिका अलग-अलग हैं। ___मन्दिर नं. ९–किसी प्राचीन प्रतिमाके पीठासनपर संवत् १९१९ में प्रतिष्ठित और १ फूट ८ इंच उन्नत शान्तिनाथ बिम्ब है। बायीं ओर १ फूट ६ इंच ऊंचे एक पाषाण-फलकमें एक पद्मासन और उसके दोनों पाश्ॉमें खड्गासन प्रतिमाएं हैं। इस फलकका शीर्ष भाग शिखराकार है। दायों ओर ११ इंच ऊंचे शिलाफलकपर एक पद्मासन तीर्थंकर-मूर्ति है । उसके दोनों बाजुओंमें चमरेन्द्र हैं।
मन्दिर नं. १०-इसका प्रवेशद्वार अत्यन्त कलापूर्ण है। सिरदलपर तीन पद्मासन जिन प्रतिमाएँ हैं-१ मध्यमें और १-१ कोनोंपर। मध्यमूतिके नीचे कीर्तिमुख है। चौखटोंपर मिथुनमूर्तियाँ हैं । अन्य भी अनेक देवी-मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ___गर्भगृहमें भगवान् चन्द्रप्रभको श्वेत पाषाणको पद्मासन मूर्ति है । बायीं ओर २ फुट २ इंच ऊँचे शिलाफलकमें एक पद्मासन प्रतिमा है। सिरके ऊपर छत्र, उनके दोनों ओर गज और नभचारी देव हैं । चमरेन्द्र भगवान्की सेवामें रत हैं। पीठासनपर नेमिनाथकी यक्षी अम्बिका और यक्ष गोमेद बने हुए हैं। गोदमें एक बालक है। इससे लगता है कि यह मूर्ति नेमिनाथ तीर्थंकरकी है। दायीं ओर ऋषभदेवकी २ फुट २ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा है। सिरपर जटाजूट है तथा पीठासनपर वृषभ चिह्न अंकित है।
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मन्दिर नं. ११ - दायीं ओर ३ फुट ११ इंच ऊंचे शिलाफलकमें दो खड्गासन मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं । इसमें ऊपरका कुछ भाग खण्डित है। परिकरमें दो छत्र, दो गज, विमानमें माला लिये हुए दो देव, दो पद्मासन मूर्तियाँ और अनेक भक्त स्त्री-पुरुष हाथ जोड़े हुए बैठे हैं ।
४ फुट ४ इंच उन्नत एक शिलाफलकमें भगवान् पार्श्वनाथके यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र और पद्मावती की सुन्दर मूर्ति है। दोनों ही अलंकारोंसे विभूषित हैं और ललितासनमें आसीन हैं । देवीके दायें हाथमें बिजोरा फल है और बायें हाथमें एक बालक है । यक्षके दक्षिण हस्तमें फल है और वाम हस्त भग्न है । दोनोंके बायें दायें चमरवाहक हैं । नीचे भक्त हाथ जोड़े हुए खड़े हैं । शीर्ष पर सिंहासनपर भगवान् पार्श्वनाथ आसीन हैं । शीर्षके कोनों में पुष्पमाल लिये हुए देव-देवी हैं । यह मूर्ति अत्यन्त आकर्षक है। भावांकन इसमें उच्च कोटिका है । यद्यपि देवियोंमें अम्बिका वात्सल्य की गरिमासे मण्डित देवी मानी जाती है किन्तु यहाँ कलाकारने यह प्रतिष्ठा पद्मावतीको दी है जो वस्तुतः भक्तों के ऊपर सदा अपनी करुणा बरसाती रहती है और इसलिए यह भक्तवत्सला मानी जाती है ।
गर्भगृहमें वेदीपर खड्गासन प्रतिमा २ फुट १० इंच अवगाहनाकी है । फलकपर दोनों ओर स्तम्भ बने हुए है । दोनों कोनोंपर गज हैं । चमरवाहक चमर लिये हुए खड़े हैं ।
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वेदीकी जगतीपर सामने पद्मावती देवी उत्कीर्ण है । ऊपर शीषंपर फण है। देवी एक हाथमें श्रीफल और दूसरे हाथमें कमण्डलु लिये हुई हैं। इस मन्दिरके आगे चार खम्भोंपर आधारित मण्डप है । द्वार और मण्डप अलंकृत हैं । द्वारपर मिथुन मूर्तियाँ बनी हुई हैं ।
मन्दिर नं. १२ – एक छोटे गर्भगृहमें भगवान् शान्तिनाथकी २ फुट ७ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा है । सिरपर छत्र, सिरके पीछे भामण्डल, छत्रके उभय पार्श्वोमें आकाशगामी गन्धर्व माला लिये हुए हैं । भगवान् के दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं ।
मन्दिर नं. १३ - भगवान् चन्द्रप्रभकी २ फुट ८ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा है जो संवत् १९६७ में प्रतिष्ठित हुई । वेदीपर बायीं ओर १ फुट २ इंच ऊँचे और १ फुट १ इंच चौड़े शिलाफलकपर पद्मासनासीन तीर्थंकर प्रतिमा है । इसके दोनों पावोंमें इन्द्र-इन्द्राणी हैं । दायीं ओर २ फुट ३ इंच शिलाफलकपर खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा है। परिकरमें छत्र, गन्धवं, गज, सिंह और चमरवाहक हैं ।
इसके दालान में किसी मूर्तिका पादपीठ रखा हुआ है ।
मन्दिर नं. १४ – भगवान् पार्श्वनाथ श्वेतवर्णं, पद्मासन मुद्रामें विराजमान हैं । अवगाहना १ फुट ८ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९२७ में हुई है ।
इस वेदीके उभय पार्श्वोमें एक-एक वेदी है । इनपर श्वेतवर्णं पार्श्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है । मन्दिर नं. १५ - मन्दिर नं. १३-१४-१५ परस्पर मिले हुए हैं। इनमें एकसे दूसरे मन्दिर में जानेके लिए दरवाजे बने हुए हैं । १४-१५ को विभक्त करनेवाले केवल खम्भे हैं। इन दोनों मन्दिरों में लगभग ३० प्राचीन खण्डित अखण्डित मूर्तियां, स्तम्भ, चरण चौकी आदि रखे हुए हैं । इस मन्दिर में तीन दरकी वेदीमें भगवान् पार्श्वनाथकी ३ फुट १ इंच ऊँची कृष्णवर्णं पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका प्रतिष्ठा काल संवत् १९२७ है । इसके दोनों ओर कृष्ण पाषाणकी २ पद्मासन प्रतिमाएं हैं ।
ये सभी मन्दिर शान्तिनाथ मन्दिरके अन्दर ही हैं। एक प्रकारसे इन्हें अलग-अलग गर्भगृह कहा जा सकता है । मन्दिरका नाम शान्तिनाथ मन्दिर है । इसके सभी मन्दिरों अथवा गर्भगृहोंके
३-१८
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ऊपर ११ समुन्नत शिखर हैं। इनमें से कितने मन्दिर नवीन निर्मित हुए हैं और कितने अपने मूल रूपको सुरक्षित रखे हुए हैं, यह कहना कठिन है। मन्दिरके द्वारपर विशाल सिंह बैठे हुए हैं। द्वारके ऊपर तिदरीपर दो हाथी बैठे हैं । इस मन्दिरको उत्तरवाली भित्तिपर गोमुख यक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी चतुर्भुजी, धरणेन्द्र-पद्मावती तथा कुछ अन्य यक्षियाँ बनी हुई हैं।
... मन्दिर नं. १६-प्रवेश-द्वारके सिरदलपर पार्श्वनाथकी मूर्ति बनी हुई है। इसके सिरपर फण है । सिरदलके दोनों कोनोंपर कोष्ठकोंमें खड्गासन प्रतिमाएँ हैं। मध्यवर्ती भागमें दो हाथियोंपर इन्द्र बैठे हुए हैं। हाथोंमें कलश हैं। उनके पीछे माला लिये हुई देवियाँ प्रमोदसे पूरित हो चल रही हैं, मानो इन्द्र और देवियाँ भगवान्के अभिषेकके लिए जा रही हों।
मन्दिरमें मूलनायक भगवान् महावीरकी २ फुट ६ इंच पद्मासन प्रतिमा है। सिरके ऊपर छत्र हैं। उनके बगलमें पुष्पवर्षी गन्धर्व हैं। कोनोंमें दो खड्गासन प्रतिमाएं हैं। नीचे चमरबाहक हैं। इनके बगलमें दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं। एक ओर मातंग यक्ष है और दूसरी ओर सिद्धायिका यक्षी है। पादपीठपर सिंह लांछन अंकित है।
. मन्दिर नं. १७-भगवान् ऋषभदेवकी पद्मासनासीन प्रतिमा ३ फुट ४ इंच ऊंचे एक प्रस्तर-खण्डपर उत्कीर्ण है । शीर्ष कोनोंपर पद्मासन मूर्तियां हैं। नीचे चमरेन्द्र बने हुए हैं। उनकी पार्श्व-पट्टिकापर दो-दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं। उनसे नीचे बायों ओर गोमुख यक्ष तथा दायीं ओर चक्रेश्वरी यक्षी है। ऋषभदेव प्रतिमाके सिरपर उनकी दीर्घ तपस्याको सूचित करनेवाली जटाएँ हैं। उनके स्कन्धपर भी केश राशि शोभित है।
... दीवारपर तीन कोष्ठक बने हुए हैं। मध्य कोष्ठकके शीर्ष भागपर पद्मासन अर्हन्त-प्रतिमा है। मध्यमें अष्ट मातकाएं हैं। दोनों कोनोंके कोष्ठकोंमें विभिन्न देवियां हैं। नीचे इधर-उधर यक्ष-यक्षो अंकित हैं। वेदीके अधिष्ठानपर सामने चक्रेश्वरी देवीका भव्य अंकन है।
मन्दिर नं. १८-तीन दरकी वेदीपर मध्यमें एक शिलाफलकपर भगवान् पद्मप्रभकी पद्मासन प्रतिमा है। दोनों ओर स्तम्भ बने हुए हैं। सिरके ऊपर छत्रत्रय हैं। आकाशचारी देव दोनों ओरसे छत्रोंको सहारा दिये हुए हैं। उनके नीचे ऐरावतके प्रतीक गज उत्कीर्ण हैं। उनसे नीचे चमरवाहक हैं। सिंहासनके सिंहोंके दोनों पाश्ों में दो-दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं।
वेदीके दो दर खाली हैं। बायीं ओरके स्तम्भपर दो पद्मासन और तीन खडगासन मतियां उत्कीर्ण हैं। इसी प्रकार दायीं ओरके स्तम्भपर पार्श्वनाथको एक खड्गासन मूर्ति है। मूर्ति और फण खण्डित हैं।
प्रवेश-द्वारके ऊपर ललाट-बिम्बपर पद्मासन जिन-मूर्ति है। उसको ओर पीठ किये भक्त बैठे हैं। कोई हाथ जोड़े हुए हैं और किसीके हाथमें पूजाकी सामग्री है। दोनों चौखटोंपर देवदेवियोंका अंकन है।
मन्दिर नं. १९ –इस मन्दिरके आगे चार स्तम्भोंपर एक मण्डप बना हुआ है। मन्दिरका प्रवेश-द्वार अलंकृत है। वेदीपर एक शिलाफलकमें भगवान् विमलनाथकी भव्य प्रतिमा उत्कीणं है। उसका लांछन सूअर चरण-चौकीपर अंकित है। प्रतिमाके दोनों ओर स्तम्भ बने हुए हैं जिनपर मध्यमें पद्मासन और दोनों ओर खड्गासन मूर्तियाँ बनी हैं। भगवान्के सिरपर छत्र हैं। छत्रदण्डको देव थामे हुए हैं। उनके नीचे गज और उनसे नीचे चमरवाहक हैं। पादपीठपर सामने सिंहोंके बगलमें दोनों ओर दो-दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं।
- मन्दिर नं. २०-वेदी तीन दरकी है। मध्यमें एक शिलाफलकमें भगवान मनिसव्रतनाथको ३ फुट ११ इंच उन्नत प्रतिमा कायोत्सर्गासनमें स्थित है। भगवान्के सिरके पीछे भामण्डल है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१३९ सिरके ऊपर छत्र है, जिसके दण्डको देव पकड़े हुए हैं। गज हैं। बायीं ओर पद्मासन जिन-मूर्ति है। दायीं ओर शार्दूलमुख व्याल बना हुआ है। उसके नीचे एक मनुष्य और भैंसा है। व्याल मूर्तियां प्रतीकात्मक होती हैं। यह मूर्ति इस बातका प्रतीक है कि मनुष्यका आसुरी और तामसिक प्रवृत्तियोंपर साहसके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। अधोभागमें छह पंक्तियोंमें दो-दो भक हाथ जोड़े बैठे हैं । बायीं ओर एक भक्त श्राविका है। दायीं ओरका भाग खण्डित है।
वेदीके दो दर खाली हैं।
प्रवेश-द्वारके सिरदलपर पद्मासन जिन-मूर्ति विराजमान है। दोनों ओर भक्त हाथ जोड़े हुए बैठे हैं । दोनों कोनोंपर यक्ष-यक्षी हैं । चौखटोंपर युगल मूर्तियाँ प्रेम-क्रीड़ाओंमें मग्न हैं। अधोभागमें यक्ष-यक्षी हैं। यक्षी अंशतः खण्डित है किन्तु यक्ष तो नष्ट कर दिया गया है। द्वारके आगे मण्डप है।
__ मन्दिर नं. २१- शिलाफलकमें भगवान् सुमतिनाथकी खड्गासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। भामण्डल, छत्र, हाथी छत्रोंको सूंड़ द्वारा आधार दिये हुए हैं। नीचे पद्मासन और खड्गासन मूर्तियाँ हैं। उनसे नीचे चमरवाहक, एक पार्श्वमें श्रावक और दूसरे पार्श्वमें श्राविका हैं।
प्रवेश-द्वारपर मध्यमें और कोनोंपर यक्षियाँ उत्कीर्ण हैं । चौखट एकल और युगल मूर्तियोंसे अलंकृत है। चौखटके अधोभागमें बायीं ओर तीन नाग-पुरुष और स्त्रियाँ हैं तथा दायीं ओर २ नाग-पुरुष और ४ नाग-कन्याएं हैं।
द्वारके आगे अर्धमण्डप है। इसमें भी विविध अलंकरण हैं।
मन्दिर नं. २२-३ फुट ५ इंच उन्नत एक शिलाफलकमें भगवान् आदिनाथकी पद्मासन प्रतिमा उकेरी हुई है। प्रतिमाके सिरपर जटाएँ हैं। सिरके पीछे भामण्डल और ऊपर छत्र हैं। छत्रोंके ऊपर पद्मासन और उसके पार्श्वके कोनोंमें खड्गासन जिन-मूर्तियाँ हैं। कई मूर्तियों के सिर खण्डित हैं। छत्रोंके दोनों पावोंमें मालाधारी गन्धर्व, गज, उनके नीचे दो-दो खड्गासन मूर्तियाँ और चमरवाहक हैं। उनके बगलकी पट्टीपर दो-दो शार्दूल व्याल, नीचे हाथी, उनसे नीचे चार कोष्ठकोंमें दो-दो खड्गासन मूर्तियां हैं। इनमें से एक खण्डित है। सबसे नीचे यक्ष और यक्षीका अंकन है।
प्रवेश-द्वारपर ऊपर पांच कोष्ठकोंमें और दोनों ओर चौखटोंपर तीन-तीन कोष्ठकोंमें यक्षीमूर्तियाँ बनी हुई हैं। अनेक देवियाँ नृत्य-मुद्रामें दर्शित हैं। चौखटोंके अधोभागमें दोनों ओर पद्मावती देवीकी खड़ी मूर्तियाँ हैं जिनके सिरपर सर्प-फण है । बगल में मंगल-कलश लिये हुई देवी और परिचारिका हैं । इसके आगे अलंकृत मण्डप है।
___मन्दिर नं. २३-३ फुट ५ इंच ऊंचे एक शिलाफलकमें आदिनाथको कृष्ण वर्णकी पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। कहीं-कहींसे पालिश उखड़ गयी है। इसके पीठासनपर संवत् १२१५ का महत्त्वपूर्ण मूर्ति-लेख है। गर्भगृहकी छत पद्मशिलासे अलंकृत है। इसके प्रवेश-द्वारके उत्तरंगपर पाँच बड़े एवं चार मध्यवर्ती कोष्ठकोंमें तथा दोनों ओरकी बाहरी चौखटोंपर ४-४ कोष्ठकोंमें यक्षी-मूर्तियां हैं तथा उनके इधर-उधर नृत्यमुद्रामें हाथ जोड़े हुई देवियाँ हैं। नीचे दोनों ओर भी यक्षी-मूर्तियाँ हैं । कई मूर्तियोंके सिर कटे हुए हैं। उनसे नीचे दोनों ओर मंगल-कलश लिये हुए चार व्यक्ति हैं तथा दो-दो कोष्ठकोंमें यक्षी हैं। आगे मण्डप है।
____मन्दिरके बाह्य भागमें जंघापर रूप-पट्टिका है। उसमें भिन्न-भिन्न रथिकाओंमें कई तीर्थंकरोंकी यक्षी-मूर्तियाँ और विद्या-देवताओंकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। शिखरके शेष भागमें वास्तु
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ एवं शिल्पका सूक्ष्मांकन है। शिखरका शीर्ष भाग खजुराहोकी तत्कालीन कलाका सुन्दर निदर्शन है।
__ मन्दिर नं. २४-तीन दरकी वेदीमें २ फुट ७ इंच x १ फुट ७ इंच चौड़े शिलाफलकमें खड्गासन तीर्थंकर-प्रतिमा है। सिरके ऊपर छत्र हैं। उसके बायें पाश्वमें पुष्पवर्षा करती हुई देवियाँ हैं और दायीं ओरका भाग खण्डित है। दायीं ओरका गज है और बायीं ओरका गज खण्डित है। उसके नीचे दोनों पार्यों में चार-चार खड्गासन तथा बगलमें तीन-तीन खड्गासन और चार-चार पद्मासन जिन-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। भगवान्के दोनों बाजुओंमें चमरवाहक खड़े हुए हैं। उनके बराबरमें दो भक्त श्राविका हाथ जोड़े हुई हैं। अधोभागमें यक्ष-यक्षी (भगवान् श्रेयान्समायके सेवक कुमार और गौरी ) अंकित हैं।
"बेदीके दो दर खाली हैं। मन्दिरके आगे अर्धमण्डप बना हआ है। तोरण और चौखटोंपर मिथुन-मूर्तियों और यक्षी-मूर्तियोंका भव्य अंकन है। चौखटोंके अधोभागमें सर्पफणमण्डित पद्मावती देवी तथा अन्य देवियाँ हैं।
मन्दिर नं. २५-खजुराहोके वर्तमान जैन मन्दिरोंमें पार्श्वनाथ मन्दिर सबसे विशाल और सबसे सुन्दर है । वह ६८ फुट २ इंच लम्बा और ३४ फुट ११ इंच चौड़ा है । यह मन्दिर पूर्वाभिमुख है । खजुराहोके समस्त हिन्दू और जैन मन्दिरोंमें भी कला-सौष्ठव और शिल्पको दृष्टिसे यह अन्यतम माना जाता है। खजुराहोका कन्दारिया मन्दिर अपनी विशालता एवं लक्ष्मण मन्दिर उत्कीर्णमूर्ति-सम्पदाको दृष्टिसे विख्यात हैं। किन्तु पाश्वनाथ मन्दिरके कलागत वैशिष्ट्य एवं अद्भुत शिखर-संयोजनाकी समानता वे मन्दिर नहीं कर सकते। प्रसिद्ध विद्वान् फेर्गुसनने इस मन्दिरके सम्बन्धमें जो उद्गार प्रकट किये हैं, उनसे वास्तविक स्थितिपर प्रकाश पड़ता है।
'वास्तवमें समूचे मन्दिरका निर्माण इस दक्षताके साथ हुआ है कि सम्भवतः हिन्दू स्थापत्यमें इसके जोड़की कोई रचना नहीं है जो इसकी जगतोकी तीन पंक्तियोंकी मूर्तियोंके सौन्दर्य, उत्कृष्ट कोटिकी कला-संयोजना और शिखरके सूक्ष्मांकनमें इसकी समानता कर सके।' ___कन्दारिया महादेव मन्दिरके साथ पाश्र्वनाथ मन्दिरकी तुलना करते हुए फर्गुसन आगे लिखते हैं-.
..'कन्दारिया महादेव मन्दिरके साथ पार्श्वनाथ मन्दिरकी तुलना करें तो हम यह स्वीकार किये बिना नहीं रह सकते कि पार्श्वनाथ मन्दिर कहीं अत्यधिक श्रेष्ठ है।'
इसी प्रकार पाश्वनाथ मन्दिरके साथ लक्ष्मण मन्दिरको तुलना करते हुए खजुराहोके कलाविशेषज्ञ श्री रामाश्रय अवस्थीने लिखा है
8. In fact, the entire temple is so exquisitely wrought that there is nothing
probably in Hindu Architecture that surpasses the richness of its threestoreyed base combined with the extreme elegance outline and delicate detail of the upperpart.
Fergusson in the Khajuraho, by Kanwarlal, p. 66. 8. If we compare the Parshwanath with Kandariya Mahadeo, we can not but admit that the former is by far the most elegant.
Ibid, p. 66. ३. खजुराहोकी देव-प्रतिमाएँ, प्रथम खण्ड, पृ. १५ ।
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
१४१
'लक्ष्मणकी अपेक्षा पार्श्वनाथकी वास्तुकला अधिक विकसित है । लक्ष्मण मन्दिरके विपरीत, जिसके शिखरमें उरःशृंगों की मात्र एक पंक्ति और वर्णशृंगोंकी दो पंक्तियाँ हैं । इस मन्दिरमें उरः शृंगों की दो और कर्णशृंगों की तीन पंक्तियाँ देखनेको मिलती हैं । इसके अतिरिक्त लक्ष्मण मन्दिरकी जंघा में दो मूर्ति पंक्तियाँ हैं किन्तु इसमें तीन पंक्तियाँ हैं और सबसे ऊपरी पंक्ति में विद्याधरों और उनके युग्मोंके चित्रण हैं । ऊर्ध्वं पंक्ति में विद्याधरोंका चित्रण परवर्ती खजुराहो मन्दिरों की एक विशिष्टता है जिसका श्रीगणेश इसी मन्दिरसे हुआ है ।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्श्वनाथ मन्दिर खजुराहो के मन्दिर - समूहमें सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय है।
पार्श्वनाथ मन्दिरका निर्माण-काल प्रायः सभी विद्वान् १०वीं शताब्दी मानते हैं । द्वारके बायें खम्भेपर १२ पंक्तियोंका एक लेख है, जिसमें प्रतिष्ठा काल संवत् १०११ दिया गया है । लिपिके आधारपर यह लेख किसी प्राचीनतर लेखकी उत्तरकालीन प्रतिलिपि माना जाता है । यह प्रतिलिपि लुप्त मूल अभिलेखके एक शती बाद लिखी गयी ऐसा माना जाता है । लक्ष्मण मन्दिरके अभिलेखका संवत् भी १०११ ही है, किन्तु लक्ष्मण और पार्श्वनाथ के एक ही संवत् के अभिलेखोंकी लिपिमें अवश्य अन्तर है । अभिलेख चन्देल नरेश धंगके शासन कालमें लिखे गये थे । द्वार-अभिलेखके अतिरिक्त कुछ पूर्ववर्ती तीर्थयात्री - लेख भी इस मन्दिरमें कई स्थानोंमें अंकित हैं । लिपिके आधारपर उन्हें दसवीं शताब्दी के मध्यका माना जा सकता है । द्वार-अभिलेख १२ पंक्तियों का है । वह अभिलेख इस प्रकार है
"ओं संवत् १०११ समये । निजकुल धवलोयं दि व्यमूर्तिः स्वशीलसमदमगुणयुक्त सव्वंसत्वानुकंपी स्वजनजनिततोषो धांगराजेन मान्यः प्रणमति जिननाथोयं भव्य पाहिल नामा ॥ १ ॥ पाहिल वाटिका १ चन्द्रवाटिका २ लघुचन्द्रवाटिका ३ संकरवाटिका ४ पंचाई तलवाटिका ५ आम्रवाटिका ६ धंगवाड़ी पाहिलवंसे तु क्षये क्षीणे अपरवंसोयः कोपि तिष्ठति तस्य दासस्य दासोयं मम दत्ति तु पाल येत् महाराजगुरु स्रीबासवचन्द्र
७ सोमदिने ॥
अर्थात्, संवत् १०११ । भव्य पाहिल जिननाथको नमस्कार करता है, जो अपने कुलमें श्रेष्ठ है, दिव्य मूर्ति है, शीलवान् है, समता और इन्द्रियदमनके गुणोंसे युक्त है, सब जीवों पर दया करनेवाला है, अपने परिवारके सभी स्वजनोंको सन्तुष्ट कर दिया है और धंग नरेश द्वारा मान्य है । ( इस मन्दिर के लिए ) पाहिलवाटिका, चन्द्रवाटिका, लघुचन्द्रवाटिका, संकरवाटिका, पंचाईतलवाटिका, आम्रवाटिका और धंगवाड़ी ( इन सात वाटिकाओंका दान करता हूँ । ) पाहिलवंश के क्षीण होनेपर जो भी अन्य वंश (इस मन्दिरको व्यवस्था करेगा) में उसका दासानुदास हूँ । वह मेरे .. दिये हुए दानकी रक्षा करे । महाराजगुरु श्री वासवचन्द्र (के आशीर्वादसे) वैशाख सुदी ७ सोमवार । इस अभिलेख से कई आवश्यक बातोंकी जानकारी मिलती है । वह यह कि इस मन्दिरका निर्माण पाहिल श्रेष्ठोने चन्देल नरेश धंगके शासन काल में कराया था । वह राजमान्य व्यक्ति था । .
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिरकी प्रतिष्ठा संवत् १०११ (ई. सन् ९५४ ) में वैशाख सुदी ७ सोमवारको हुई। पाहिल श्रेष्ठीने अभिलेखमें अत्यन्त विनम्रता और निरभिमान वृत्तिका परिचय यह कहकर दिया है कि जो व्यक्ति या वंश भविष्यमें मन्दिर और वाटिकाओंको व्यवस्था करेंगे, मैं उनका दासानुदास हूँ।
इस द्वारको बायीं चौखटपर एक छोटा-सा अभिलेख है-"श्री हाटपुत्र श्रीमाहुल श्री आचार्य श्री देवचन्द्र शिष्यः कुमुदचन्द्र । हाटपुत्र श्री गोलल।"
इसी प्रकार दायीं चौखटपर अभिलेख है-"हाटपुत्र श्री देवसम्मंसिरि जयतु।"
इस अभिलेखके ऊपर बायीं ओर एक चौंतीसा यन्त्र बना हुआ है। इसमें १६ अंक बने हुए हैं। इसे चाहे जिधरसे भी जोड़ा जाये, अंकोंका योग ३४ ही आता है। ऐसी जनश्रुति इसके सम्बन्धमें प्रचलित है कि यदि किसी स्त्रीको प्रसव-वेदना हो तो इस यन्त्रको केशरसे काँसेकी थालीमें लिखकर शुद्ध जलसे उसे घोलकर पिला देनेसे प्रसव बिना कष्टके हो जाता है। बालकोंके उदर-शूलमें भी यह लाभकारी है।
वह यन्त्र इस प्रकार है
द्वारके बायीं ओर मकरवाहिनी गंगा और दाहिनी ओर कूर्मवाहिनी यमुनाके साथ चतुर्भुज द्वारपाल स्थित हैं। गंगा-यमुनाके पार्यों में विभिन्न वाद्य-यन्त्र बजाते गन्धर्व और यक्ष-मिथुन अंकित किये गये हैं। ऊपर तोरणके ललाट-बिम्बपर दसभुजी चक्रेश्वरी गरुड़पर आसीन अंकित है। खजुराहोमें दसभुजीके रूपमें चक्रेश्वरीका अंकन केवलमात्र यही है। देवीकी दक्षिण भुजाओंमें सम्भवतः पद्म, चक्र, गदा, खड्ग और वरद मुद्रा प्रदर्शित हैं। तथा वाम भुजाओंमें चक्र, धनुष, खेटक, गदा और शंख हैं। तोरणपर वाम पार्श्वमें चतुर्भुजी त्रिमुख ब्रह्माणीकी मूर्ति उत्कीर्ण है। देवी हंसपर आरूढ़ है। दक्षिण पार्श्वमें भी इसी प्रकारको ब्रह्माणोकी मूर्तिका अंकन है। इसमें उसका वाहन हँस उसके निकट ही अंकित है। ये देवी-प्रतिमाएँ दोनों ओर नवग्रहोंसे आवेष्टित हैं। - इसके ऊपरी तोरणके मध्य ललाट-बिम्बपर आदिनाथकी तथा उनके दोनों पाश्ॉमें एकएक तीर्थकर प्रतिमा बनी हुई है। इस तोरणके दोनों कोनोंमें ६-६ दिगम्बर मुनि तीर्थंकरोंकी वन्दना करते दिखाई पड़ते हैं।
___ इस द्वारके बाहर चबूतरेपर एक अर्धमण्डप बना हुआ है। यह चार स्तम्भोंपर आधारित है। इसकी छत उलटे कमलपुष्प अथवा कटोरीके आकारकी है। इस छतके केन्द्रसे एक डण्डीमें झूमती हुई शृंखलाएँ और पुष्पवल्लरियाँ अंकित हैं। इनके नीचे दो विद्याधर-मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१४३ मण्डपके चेहरेके तोरणपर देवियां, यक्ष-मिथुन, नाग-नागी, मंगल-कलश लिये हुई देवियां, हाथी और सिंहके युद्ध आदिके दृश्य अंकित हैं। ' मन्दिरके तीन आन्तरिक भाग हैं-महामण्डप, अन्तराल और गर्भगृह । इन तीनोंके चारों ओर एक साझा प्रदक्षिणा-पथ है। उसके चारों ओर दीवार है। प्रदक्षिणा-पथपर प्रकाशके लिए छेददार झरोखोंका प्रयोग किया गया है। इनसे प्रकाश और वायुका संचार होता है। इन झरोखोंसे न तो पूर्ण प्रकाश ही हो पाता है और न अन्धकार ही पूर्णतः नष्ट हो पाता है। इससे मण्डप और प्रदक्षिणा-पथमें एक अद्भुत रहस्यमय और पवित्र वातावरणकी सृष्टि हो जाती है। ___महामण्डप भी चार स्तम्भोंपर आधारित है। इसकी छत पद्मशिलासे अलंकृत है । स्तम्भों और छतोंपर यक्ष-यक्षियों तथा देवियोंका अंकन है। महामण्डपमें सात प्राचीन मूर्तियां या तोरणके भाग रखे हुए हैं। एकमें गोमेद और अम्बिकाकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। कई मूर्तियोंके सिर काट लिये गये हैं। इस महामण्डपकी छतपर बना पद्मपुष्प कलाका सुन्दर उदाहरण कहा जा सकता है।
___ अर्ध-मण्डप, महामण्डप और अन्तराल, तीनोंके ऊपर शिखर बने हुए हैं। इससे इस मन्दिरको शिखर-संयोजना अद्भुत, अनुपम और अधिक सुन्दर हो गयी है। कलाको इस अद्भुत विधाने सौन्दर्यको नये आयाम प्रदान किये हैं।
अन्तरालसे बढ़नेपर गभंगृहका प्रवेश-द्वार मिलता है। द्वार अत्यन्त अलंकृत है। द्वारके दोनों स्तम्भों ( चौखटों) पर गंगा, यमुना, यक्ष, मिथुन और द्वारपालका अंकन है। बायीं ओर एक चतुर्भुज देवीका अंकन है। उसके हाथोंमें सनाल कमल, अभय-मुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित हैं। कमलोंके ऊपर गज अंकित हैं। कमल और गजसे इसकी पहचान लक्ष्मीके रूपमें की जाती है। द्वारके दायीं ओर सरस्वतीकी चतुर्भुजी मूर्ति बनी हुई है। देवीके हाथोंमें सनाल कमल, पुस्तक और वीणा हैं। इसके उत्तरांगपर दो रूप-पट्टिकाएं बनी हुई हैं । अधःपट्टिकाके ललाट-बिम्बपर भगवान् चन्द्रप्रभको मनोज्ञ पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पट्टिकाके दोनों कोनोंपर कायोत्सर्गासनमें तीर्थंकर प्रतिमाएं अंकित हैं। उनके दोनों ओर चामरधारिणी यक्षियाँ हैं। ऊपरी पट्टिकामें ५ पद्मासन, ६ कायोत्सर्गासन तीर्थंकर-मूर्तियाँ और नवग्रह बने हुए हैं।
गर्भगृह अत्यन्त सादा है। आकुल मनको वहाँ पहुंचते ही शान्तिका अनुभव होता है। गर्भगृहका आकार ७ फुट ४८ फुट है। वेदीके माथेपर वृषभ लांछन बना हुआ है। इससे लगता है कि यह मन्दिर मूलतः आदिनाथ मन्दिर था। किसी कारणवश आदिनाथ भगवान्की प्रतिमा खण्डित हो गयी। तब उसके स्थानपर पार्श्वनाथकी यह मूर्ति (संवत् १९१७ की) प्रतिष्ठित कर दी गयी। मूर्तिके सिरके पीछे भामण्डल, छत्र, छत्रके ऊपर दुन्दुभिवादक, उसके ऊपर कोष्ठकोंमें, उनके बगल में, ऊपर तथा नीचे ३९ तीर्थकर-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। दोनों ओर पाश्वनाथकी खडगासन प्रतिमाएँ हैं। परिकरमें गज, मालाधारिणी देवियां और चमरेन्द्र हैं। गोमख यक्ष और चक्रेश्वरी देवीका भव्य अंकन है। इससे भी इस बातका समर्थन होता है कि इस वेदीपर मूलनायक भगवान् आदिनाथकी प्रतिमा विराजमान थी। जब पार्श्वनाथकी मूर्ति मूलनायकके रूपमें यहाँ विराजमान कर दी गयी, तबसे यह मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिर कहा जाने लगा।
गर्भगृहसे निकलकर प्रदक्षिणा-पथपर जाते हुए प्रदक्षिणा-पथकी भित्तियोंपर शासन-देवदेवियों और गन्धर्वोकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। उनके मध्य ८ मनोज्ञ जिन-प्रतिमाएं विराजमान हैं। बाहुबली स्वामीकी तपस्यारत एक सुन्दर प्रतिमा दर्शकका ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। प्रतिमाकी टांगोंसे लिपटे भयानक विषधरों और शरीरपर रेंगते हुए खतरनाक
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वृश्चिकोंके बावजूद बाहुबली निर्भय और अडिग भावसे अपनी साधनामें लीन हैं, यह देखकर मस्तक अनायास उस महायोगीके चरणोंमें नमित हो जाता है।
गर्भगृहकी बाह्य भित्तियों, विशेषतः उत्तरी माथेपर सुरसुन्दरियोंको विभिन्न मुद्राओंका अंकन मूर्तिकलाका उत्कृष्ट उदाहरण है। इन अंकित मूर्तियोंमें शिशुको दुलार करती हुई वात्सल्यमयी जननी, पतिको पत्र लिखनेमें मग्न प्रोषितपतिका, अंगड़ाई लेती हुई अलसितवदना, आंखोंमें अंजन आंजती, माथेपर कुंकुम लगाती, सीमन्तमें सिन्दूर भरती और दर्पणमें अपना रूप निहारती रूपगर्विता शृंगारिका एवं अॅगियाके बन्द बांधती कामिनीके मनोमुग्धकारी रूप सम्मिलित हैं।
___ सुरसुन्दरीके एक मोहन दृश्यका अंकन करने में तो कलाकारको सूझबूझ और कला नैपुण्यमें मानो स्पर्धा हो गयी। दृश्य है-एक फल-सी कोमल अल्हड़ यौवनाके पैरमें कांटा चुभ गया। युवती पैर पकड़कर रह गयी। उसकी आँखोंमें व्यथा तैर आयी। वह संगियोंको रुकनेका संकेत करती-सी लगती है। करुण भाव और व्यथाने मिलकर उसके सौन्दर्यमें अतिशय वृद्धि कर दी है। निकटवाले दूसरे फलकमें नाई द्वारा कांटा निकालनेका दृश्य है। इस दृश्यांकनमें कलाकारने अपनी कलाको अपने चरम बिन्दु तक पहुंचा दिया है। नाईकी पेटीके उपकरण और पैरमें गड़ा काँटा तक पाषा-में उजागर हो उठे हैं।
इन कठोर पाषाणोंमें लोक-जीवनके सरस आह्लादकारी रूपोंके भावपूर्ण अंकनको देखकर यहाँके कलाकारके सौन्दर्य-बोध और अभिरुचिका पता चलता है। कहना होगा कि खजुराहोका वह कलाकार 'सत्यं' और 'शिव' के साथ 'सुन्दरं' का भी उपासक था। तभी तो उसके ललितकला-बोधने पाषाणोंमें अलौकिक लालित्य और शिल्पकलामें जीवन भर दिया।
गर्भगृहकी बाह्य दक्षिणी भित्तिपर षड्भुजी सरस्वतीकी एक सुन्दर मूर्ति है। देवी एक ऊंचे पीठपर ललितासनमें आसीन है। उसका एक पैर कमलपर स्थित है। देवीके हाथोंमें कमल, पुस्तक, वीणा, वरद मुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित हैं। देवी वस्त्र और अलंकार धारण किये हुई है। उसके शीर्ष भागपर कायोत्सर्ग मुद्रामें दो तीर्थंकर मूर्तियां ध्यानमग्न हैं। देवीके परिकरमें चमरधारी, पुष्पमाल लिये आकाशचारी गन्धर्व और हाथ जोड़े हुए देवीके उपासक भक्त हैं। सरस्वतीकी ऐसी ही एक मूर्ति उत्तरी भित्तिके अधिष्ठानपर अंकित है। यह मूर्ति अंशतः खण्डित है। - इस मन्दिरकी बाह्य भित्तियाँ कला-सौष्ठवकी दृष्टि से बेजोड़ हैं। इसकी जंघामें समानान्तर तीन रूप-पट्टिकाएँ हैं। प्रथम पट्टिकामें तीर्थंकर-मूर्तियोंकी प्रधानता है। किन्तु उनके सेवकके रूपमें कुबेर, दिक्पाल और विभिन्न वाहनोंपर आरूढ़ जैन शासन-देवताओंका अंकन है। मध्यवर्ती रथिकाओंमें लोक-जीवनके सरस दृश्य भी अंकित हैं, यथा पैरोंमें आलता लगाती हुई शृंगारिका, नेत्रोंमें अंजन-शलाकासे अंजन लगाती हुई कामिनी, प्रियतमकी प्रेम-पाती पढ़ने में तन्मय प्रोषितपतिका, धुंघरू बाँधती हुई नृत्यांगना, बालकको दूध पिलाती हुई वात्सल्य मूर्ति जननी आदि। . - मध्यवर्ती पट्टिकामें मुख्यतः जैन यक्ष-यक्षियोंका आर्षानुसारी अंकन है। इसमें किसी-किसी यक्ष या यक्षीको द्विमुख, त्रिमुख, चतुर्मुख, अष्टमुख, द्विभुज, चतुर्भुज, षड्भुज, अष्टभुज, दशभुज, द्वादशभुज, षोडशभुज, चतुर्विंशतिभुज, त्रिनेत्र, वक्रमुख, गोमुख, सर्पोपनीत, सर्पफण-मण्डित, मस्तकपर धर्मचक्र आदि रूपोंमें भी दिखाया गया है। इनके वाहन, आभरण, आयुध, आसन आदि भी अद्भुत किन्तु निश्चित हैं। इस पट्टिकामें कुछ पौराणिक दृश्योंका भी भव्य अंकन है, यथा उत्तरकी ओर एक रथिकामें राम और सीताका अंकन है। दोनों ही त्रिभंग मुद्रामें खड़े हैं। रामके कन्धेपर धनुष, पीठपर तरकस और हाथमें बाण हैं । निकट ही हनुमान् खड़े हैं। इसी प्रकार दक्षिणी भित्तिपर अशोकवाटिकामें सीताका अंकन किया गया है। सामने हनुमान् उनसे रामका
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१४५ सन्देश निवेदन कर रहे हैं। पीछे खड्गहस्त राक्षस और राक्षसियां पहरेपर सतर्क खड़े हैं। तृतीय पट्टिकामें आकाशमें विहार करते हुए विद्याधर, नृत्य-गान करते हुए किन्नर-किन्नरियां, पुष्पमाल हाथोंमें लिये देव आदि प्रदर्शित है। इन पट्टिकाओंसे ऊपर ऊरु-शृंगोंके अधोभागमें भी जैन देवदेवियां और विद्याधरोंकी मूर्तियां हैं।
__ जैन शासन-देवताओंके स्वरूप और जैन पौराणिक आख्यानोंसे परिचित न होनेके कारण कई विद्वान् भ्रमवश उन मूर्तियोंको हिन्दू या बौद्ध मूर्तियां मान लेते हैं। इस भ्रमका कारण अज्ञान तो है ही, एक दूसरा भी कारण है। जैन, हिन्दू और बौद्ध देव-देवियांके रूप और नाममें इतना अधिक साम्य है कि जैन देव-देवियोंको झट हिन्दू या बौद्ध कह दिया जाता है। किन्तु यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि जिस प्रकार जैन मन्दिरोंमें स्थित जैन देव-देवियोंको हिन्दू या बौद्ध देव-देवी कहने-लिखनेके उदाहरण मिलते हैं, उस प्रकार किसी हिन्दू या बौद्ध मन्दिरमें स्थित हिन्दू या बौद्ध देव-देवीको जैन देव-देवी कहने-लिखनेका उदाहरण हमारे देखनेमें नहीं आया। अस्तु। खजुराहोके मन्दिरोंमें उत्कीर्ण ये मूर्तियाँ जैन शासन-देवताओंके स्वरूपको समझने और उनपर शोध-खोज करनेके सर्वोत्तम साधन हैं।
मन्दिर नं. २६-कलागत वैशिष्ट्य और शिल्पगत सौन्दर्यके अतिरिक्त भी पार्श्वनाथ मन्दिरकी अपनी एक विशेषता है। इसके गर्भगृहके पीछे एक अतिरिक्त छोटा मन्दिर संयुक्त है। इस मन्दिरमें गर्भगृह और अधमण्डप ही हैं । अर्धमण्डप सम्भवतः बादमें बनाया गया है। गर्भगृहके प्रवेशद्वारका अलंकरण पार्श्वनाथ मन्दिरके अनुरूप ही है। इसके सिरदलके मध्यमें एक कोष्ठकमें लक्ष्मीकी चतुर्भुजी मूर्ति बनी हुई है। उसके हाथोंमें कमल और कमण्डलु दीख पड़ते हैं। देवीकी निचलो दायों भुजा खण्डित है। बायीं ओरके कोष्ठकमें कमल, पुस्तक और वीणाधारिणी सरस्वतीका भव्य अंकन है। इसी प्रकार दायीं ओरके कोष्ठकमें भी सरस्वतीकी मूर्ति उत्कीर्ण है। चौखटोंपर यक्ष-मिथुन और देवियाँ उत्कीर्ण हैं।
पार्श्वनाथ मन्दिरके अर्धमण्डप और महामण्डपकी छतें कोण-स्तूपाकार हैं। इनके ऊपर बने हुए उरुशृंगों और कर्णशृंगोंने गर्भगृहके ऊपर निर्मित शिखर-संयोजनाको सौन्दर्य-वृद्धि कर दी है। शिखरकी चूड़ापर आमलक, स्तूपिका, उसपर कलश और बीजपूरक हैं। इतनी भव्य और अलंकृत शिखर-संयोजना खजुराहो में दूसरी नहीं है।
शिखरों और मूर्तियोंके ऊपर व्यालों और शार्दूलोंकी मूर्तियोंका वैविध्य चन्देल कलाका अपना वैशिष्ट्य है। ऐसी मूर्तियाँ खजुराहोके मन्दिरोंपर विपुल संख्यामें उपलब्ध होती हैं। जैन मन्दिरोंमें भी ये मूर्तियाँ बहुतायतसे मिलती हैं। इनका धड़ सिंहके शरीर-जैसा होता है किन्तु मुख विभिन्न प्रकारके मिलते हैं, जैसे सिंहमुख, व्याघ्रमुख, गजमुख, वृषभमुख, यहां तक कि मानवमुख भी। इनका मुख रौद्र होता है, क्रोध उनके शरीरके हर अंगसे टपकता है। उनके पैरोंके नीचे मनुष्य या कोई पश होता है। एक मानव-मूर्ति व्यालको पीठपर बैठी हुई दीख पड़ती है। यह प्रतीकात्मक है। इसे तन्त्रवेत्ता मन्दिर-मूर्तियोंके लिए अरिष्ट निवारक मानते हैं। अध्यात्मवेत्ता इसे मनुष्यको शुभाशुभ वृत्तियों और सात्त्विक-तामसिक भावनाओंके द्वन्द्वका प्रतीक मानते हैं जिसमें शुभ और सात्त्विक वृत्तिकी विजय होती है। इस प्रकार इन व्याल और शार्दूल-मूर्तियोंकी अनेक व्याख्याएँ की जाती हैं। इनकी व्याख्या कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि चन्देल युगकी यह भी एक विधा थी, जिसका प्रारम्भ सम्भवतः खजुराहोसे हुआ और कुछ स्थानों तक उसका प्रसार भी हुआ। किन्तु लगता है, इस अशोभन शिल्पको विधाको व्याख्या उस युगमें भी सन्तोषजनक नहीं हो पायी, अतः शिल्पमें यह विधा अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।
३-१९
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - प्राचीन कालमें यहाँ अनेक जिनालयोंका निर्माण हुआ था। वे सब अब नहीं रहे। उनकी सामग्रीसे यहाँ नये मन्दिर बन गये। उन मन्दिरोंमें प्राचीन प्रतिमाएं विराजमान की गयीं। किन्तु यह स्थान तो, लगता है, चन्देलोंके राज्य-कालमें जैन केन्द्र था। इसलिए यहाँ और निकटवर्ती प्रदेशमें जैन पुरातत्त्व विपुल परिमाणमें बिखरा हुआ है। उस पुरातत्त्वको एकत्रित करके ( अभी संग्रहालय तो नहीं बन पाया है ) पार्श्वनाथ मन्दिरके खुले अहातेमें, दीवारमें या चबूतरोंपर व्यवस्थित रूपसे सजा दिया गया है। इसमें पद्मासन और कायोत्सर्गासन दोनों मुद्राओंमें तीर्थंकर मूर्तियां (प्रायः खण्डित), अपने परिकरसहित जैन शासन-देव-देवियाँ मन्दिरोंके तोरण, स्तम्भों और द्वारोंके भाग, शिखरकी चूड़ा आदि सामग्री सम्मिलित हैं। इनकी कला यहाँके मन्दिरों और मूर्तियोंकी कलासे अभिन्न है। कुछ मूर्तियां कई मन्दिरोंके अन्दर और पृष्ठभागमें रखी हुई हैं।
संग्रहालयकी कई मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर अभिलेख हैं। एक मूर्तिका प्रतिष्ठा-काल संवत् १२०५ है। भगवान् महावीरको एक मूर्तिपर संवत् १२१२ अंकित है। इसमें मूर्तिकारका नाम कुमारसिंह दिया हुआ है। संवत् १२१५ के एक मूर्ति-लेखके अनुसार यह मूर्ति चन्देल नरेश मदनवर्माके राज्यमें प्रतिष्ठित हुई। अजितनाथकी एक मूर्तिपर संवत् १२२० अंकित है। यहाँकी मूर्तियोंके ऊपर सबसे अन्तिम लेख संवत् १२३४ का है। ऐसा प्रतीत होता है कि मदनवर्माका उत्तराधिकारी एवं पौत्र परमर्दिदेव ( अपर नाम परमाल, राज्य-शासन ई. सन् ११६३-१२०३ ) ने पृथ्वीराज चौहानके साथ हुए युद्ध में ( सन् १९८० ) या इसके आसपास खजुराहोसे हटाकर अपनी राजधानी कालिंजरमें बना ली। राजधानी हटनेसे खजुराहोका सम्पन्न और व्यापारी-वर्ग भी यहाँसे हट गया और इस प्रकार धीरे-धीरे खजुराहो उजड़ गया। जबतक यहाँ राजधानी रही, तबतक यहां मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण और प्रतिष्ठा भी होती रही। ।
मन्दिर नं. २७-यह मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिरसे आकारमें छोटा है और उसकी उत्तर दिशामें स्थित है। इसमें केवल तीन भाग हैं-शिखरयुक्त गर्भग्रह, अन्तराल और अधमण्डप । अर्धमण्डप आधुनिक है। गर्भगृहके प्रवेशद्वारके सिरदलपर चतुर्भुजी चक्रेश्वरी ललितासनमें आसीन है जिसका एक पैर नीचे लटका हुआ है और दूसरा पैर आसनपर स्थित है। देवीकी ऊपरी दायीं और बायीं भुजाओंमें वज्र और चक्र दिखाई पड़ते हैं, जबकि निचली भुजाओंमें अभयमुद्रा और मातुलिंग-फल हैं। देवी गरुड़पर आरूढ़ है। देवीके दाहिने पैरके पास एक भग्न आकृति है जो सम्भवतः देवीका भक्त है। देवीके सिरके दोनों पार्यों में पुष्पमाला लिये हुए आकाशचारी देव प्रदर्शित हैं।
चक्रेश्वरी देवीकी इस मूर्तिके कारण ही यह अनुमान किया जाता है कि इस मन्दिरमें मूलनायकके रूपमें भगवान् आदिनाथकी मूर्ति विराजमान थी। किन्तु प्राचीन प्रतिमा यहाँसे कब लुप्त हो गयी, यह कहना कठिन है। उसके स्थानपर भगवान् ऋषभदेवकी आधुनिक मूर्ति विराजमान कर दी गयी है।
सिरदलके बायें कोनेपर चतुर्भुजी अम्बिकाकी मूर्ति उत्कीर्ण है। देवी ललितासनसे बैठी है। देवीके दायीं ओर उसका वाहन सिंह बना हुआ है । देवीकी बायीं गोदमें उसका. छोटा पुत्र प्रियंकर बैठा है। देवी उसे निचली भुजाका सहारा दे रही है। बालक देवीके स्तनका स्पर्श कर रहा है । देवीके शिरोभागके दोनों ओर आम्रवृक्ष हैं और उनके ऊपर आम्र-गुच्छक लगे हुए है।
सिरदलके दायें कोनेपर चतुर्भुज देवी ललितासन मुद्रामें बैठी है। उसके सिरपर सर्पफणमण्डल है । यह पद्मावती देवीकी मूर्ति है। देवीकी ऊपरी भुजाओंमें पाश और कमल हैं और नीचेकी भुजाओंमें अभयमुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१४७ चक्रेश्वरीके दोनों ओर दो चतुर्भुज देवियाँ अंकित हैं। उनके हाथोंमें कमल, कमण्डलु तथा एक हाथ वरदमुद्रामें अंकित हैं। देवियां ललितासनसे बैठी हैं। ये अर्ध-स्तम्भोंसे निर्मित रथिकाओंमें आसीन हैं।
___ द्वार-शाखाओंके ऊपर बायीं ओर चार-चार देवी-मूर्तियां अंकित हैं। इसी प्रकार चौखटके दोनों कोनोंपर चतुर्भुज देव-मूर्तियाँ बनी हुई हैं। बायीं ओर देव-मूर्तिकी बगलमें एक रथिकामें गजलक्ष्मीको चतुर्भुजी देवी-मूर्ति दिखाई पड़ती है। देवीका वाहन कूर्म प्रदर्शित है तथा सिरके ऊपर तीन सर्पफणोंका घटाटोप दीख पड़ता है। द्वार-शाखाओंके नीचे गंगा और यमुनाका अंकन मिलता है, जो खजराहोको कलाका अभिन्न अंग मालम पड़ता है। यहाँ गंगा और यम चतुर्भुजी बनी हैं। उनके पीछे उनके वाहन मकर और कच्छप दीख पड़ते हैं।
सिरदलके ऊपरी भागमें तीर्थंकर माता द्वारा देखे गये १६ मंगल स्वप्नोंका अंकन किया गया है। खजुराहोके सभी जैन मन्दिरोंमें १६ स्वप्नोंका अंकन मिलता है। यहाँ जो स्वप्नोंका चित्रण किया गया है, वह अत्यन्त स्पष्ट है। सभी स्वप्नोंको इतनी स्पष्टताके साथ अंकित किया गया है कि उनको पहचानने में कोई बाधा नहीं होती। स्वप्न-दर्शनसे पूर्व तीर्थंकर माता शय्यापर लेटी हुई हैं और देवियाँ उनकी सेवा कर रही हैं । एक पुरुष और एक स्त्रीको वार्तालाप करते हुए दिखाया गया है जो इन्द्र और इन्द्राणी प्रतीत होते हैं । फिर गज, वृषभ, सिंह, कमलासीन चतुर्भुजी लक्ष्मी, पुष्पमाल, चन्द्र, द्विभुज सूर्य, मत्स्य-युगल, दो क्लश, दिव्य सरोवर, कूर्म-मत्स्य आदिसे पूर्ण समुद्र, दो सिंहोंपर आधारित और मध्यमें धर्मचक्रसे युक्त सिंहासन, विमानमें देव, नागेन्द्र-भवनमें सर्प-फणसे युक्त द्विभुज नाग-नागी, धन-राशि और अग्नि-शिखाओंके भामण्डलसे युक्त अग्निकी श्मश्रुयुक्त आकृति इस प्रकार १६ स्वप्नोंका अंकन है।
गर्भगृहमें वेदीपर एक ४ फुट ६ इंच ऊंचे शिलाफलकमें भगवान् ऋषभदेवकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके सिरपर छत्र तथा पीछे भामण्डल सुशोभित हैं। छत्रके दोनों पावोंमें पुष्पमाल लिये हुए गन्धर्व, गजारूढ़ इन्द्र, उनके अधोभागमें दो खड्गासन मूर्तियां और चमरवाहक हैं । पीठिकापर नृत्य-गानमें निरत देव-समाज अंकित है। इस मूर्तिके दोनों पार्यों में २ फुट ३ इंच उन्नत एक-एक खड्गासन प्रतिमा है।
एक अन्य वेदीमें कृष्ण पाषाणकी ४ फुट १० इंच ऊँची सम्भवनाथ भगवान्की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। चरण-चौकीपर लांछन है। उसपर उत्कीर्ण मूर्ति-लेख इस भाँति है
'ओं संवत् १२१५ माघ सुदि ५ श्रीमान् मदन वर्मदेव-प्रवर्धमान-विजय-राज्ये गृहपतिवंशे श्रेष्ठी देदु तत्पुत्र पाहिल्ल: पाहिल्लांग रुह साधु साल्हेनेदं प्रतिमा कारापिता तत्पुत्राः महागण महाचन्द्र सनिचन्द्र जिनचन्द्र उदयचन्द्र प्रभृति संभवनाथं प्रणमति नित्यम् । मंगल
महाश्री रूपकार रामदेव ॥ इस मूर्ति-लेखसे ज्ञात होता है कि सम्भवनाथकी इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा चन्देल नरेश मदनवर्माके राज्य-कालमें माघ सुदी ५ संवत् १२१५ को हुई थी। प्रतिष्ठाकारक थे गृहपति-वंशके सेठ देदु, उनके पुत्र पाहिल्ल और उनके वंशज साल्ह। साल्हके पुत्रोंके नाम थे महागण, महाचन्द्र, शनिचन्द्र, जिनचन्द्र, उदयचन्द्र आदि । मूर्तिकारका नाम रामदेव था। पाश्वनाथ मन्दिर पाहिल्ल
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ नामक जिस श्रेष्ठीने निर्मित कराया था, सम्भवनाथकी इस मूर्तिको प्रतिष्ठा उसी पाहिल्लके वंशधर साल्ह और उसके पुत्रोंने करायी।
इस मन्दिरके मण्डपमें अनेक प्राचीन मूर्तियां, स्तम्भ खण्ड, तोरण-खण्ड रखे हुए हैं।
इस मन्दिरको शिखर-संयोजना अनूठी है। इसको शिखर-संयोजनामें उरुशृंग और कर्णश्रृंगको स्थान नहीं मिला है। इसका शिखर ऊंचे अधिष्ठानपर सीधा खडा है। उसमें उठान क नहीं है। किन्तु वह अत्यन्त अलंकृत है। इस मन्दिरमें न प्रदक्षिणा-पथ है, न इसकी भीतरी भित्तियोंपर मूर्तियोंका अंकन किया गया है। मूर्तियोंका अंकन बाह्य भित्तियों, जंघा और शिखरपर किया गया है। पार्श्वनाथ मन्दिरसे इसकी मूर्तियां यद्यपि आकारमें छोटी हैं किन्तु हैं अत्यन्त भावपूर्ण, सुडौल एवं सुघड़। इसकी जंघामें भी तीन समानान्तर रूप-पट्टिकाएं बनी हुई हैं। ऊपरकी पट्टिकामें विद्याधर, किन्नर और गन्धर्व हैं। शेष दो पट्टिकाओंमें शासन-देवता, यक्ष-मिथुन और सुरसुन्दरियोंका अंकन है। मध्य पट्टिकापर कोष्ठकोंमें १६ देवियोंका अंकन किया गया है। देवियां ललितासनसे बैठी हुई हैं । देवियां अपने वाहनोंपर अपने समस्त आयुधोंको लेकर अवस्थित हैं। इनमें से दो मूर्तियां अपने स्थानसे गायब हैं। लगता है, ये १६ विद्यादेवियाँ हैं जिनका जैन शास्त्रोंमें वर्णन मिलता है। ये जैन शास्त्रानुकूल तो निर्मित हुई ही हैं, इनमें जो लावण्य, शिल्पसौष्ठव और भावाभिव्यंजना है, ऐसा अन्यत्र कहीं १६ विद्यादेवियोंकी मूर्तियोंमें देखनेमें नहीं आया।
इस मन्दिरके एक वैशिष्ट्यकी ओर दर्शकका ध्यान बरबस खिंच जाता है। इन पट्टिकाओंके कोनोंपर आदिनाथके सेवक यक्ष गोमुखका भव्य अंकन मिलता है। यह मन्दिरके चारों कोनोंपर अंकित है । यह चतुर्भुज है, खड़ी हुई मुद्रा है और मनुष्याकार है। इसके आयुध, अलंकार, यज्ञोपवीत स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं।
___ सुरसुन्दरियोंका अंकन तो बड़ा ही सजीव बन पड़ा है। इनके मुखपर मोहन रूपराशि और भाव-भंगिमा, इनको विलास और शृंगारप्रियता, इनको सुकुमार देहको गठन और लोच, इनके यौवनका उभार और त्रिभंग मुद्राका मनभावन रूप सभी कुछ जैसे साँचेमें ढाला गया हो । आरसी देखती हुई सीमन्तमें सिन्दूर भर रही सौभाग्यवती, आरसीके सामने नयनोंमें काजल लगाती हुई शृंगारिका और नृत्यांगनाओंकी नृत्यमुद्राकी नाना छवियाँ-इन सब रूपोंमें नारीसौन्दर्यका जो सरस रूप उजागर हुआ है, वही नारीका सर्वस्व नहीं है, यही प्रदर्शित करनेके लिए ममतामयी माके उस रूपका भी अंकन किया गया है, जिसमें माता अपने शिशुका चुम्बन लेती हुई प्रदर्शित है । नारीको चरम और परम सार्थकता मातृत्वके इस वात्सल्यमें ही है।
___ मध्य पंक्तिमें चपल पगोंसे नृत्य करती हुई एक नृत्यांगनाका अंकन है। सम्भवतः यह नृत्यांगना पुराणप्रसिद्ध नीलांजना ही होगी।
इस मन्दिरका शिखर और उसकी चूड़ापर बना आमलक, सूचिका और कलश अत्यन्त भव्य लगते हैं। मध्यप्रदेश में ५वीं-ठी शताब्दीमें शिखर-शैलीका विकास प्रारम्भ हुआ और ८वीं शताब्दीमें यहाँ नागर शैली उजागर हुई। मध्यप्रदेशकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसपर पूर्व और पश्चिम दोनोंका ही प्रभाव पड़ सकता है। सम्भवतः प्रस्तुत मन्दिरकी शिखर-शैलीपर पूर्वका, विशेषतः उड़ीसाका प्रभाव पड़ा प्रतीत होता है।
___ मन्दिर न. २८-आदिनाथ मन्दिरमें-से इस मन्दिरके लिए मार्ग है । ६ फुट ८ इंच ऊँचे शिलाफलकमें ऋषभदेव भगवान्की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमाका केश-विन्यास मनोहर है । इसके परिकरमें भामण्डल, छत्र, माला लिये गन्धर्व, गजपर आरूढ़ इन्द्र, चमरवाहक,
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ शार्दूल, दोनों ओर खड्गासन जिन-प्रतिमा, यक्ष-यक्षी और चैत्य हैं। इस प्रतिमाके वाम पाश्वमें ४ फुट ९ इंच उन्नत और दक्षिण पाश्वमें ४ फुट ५ इंच उन्नत पार्श्वनाथ प्रतिमाएं हैं। .
इस मन्दिरमें कई प्राचीन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं।
मन्दिर नं. २९-तीन दरकी वेदीमें २ फुट ९ इंच अवगाहनाकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। सिरके ऊपर छत्र, सिरके पीछे भामण्डल, पुष्पमाल लिये आकाशचारी गन्धवं, गजपर खड़े हुए इन्द्र, उनसे अधोभागमें पद्मासन जिन-मूर्तियां और चमरवाहक परिकरमें हैं। वेदीके दो दर खाली हैं। यहाँ भी प्राचीन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं।
मन्दिर नं. ३०-वेदीपर २ फुट ६ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके परिकरमें पूर्ववत् है । इसमें फलकपर दो खड्गासन प्रतिमाएं हैं । गर्भगृहके आगे अर्धमण्डप है।
मन्दिर नं. ३१-यह मेरु मन्दिर है। इसमें २ फुट १० इंच ऊंची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है।
मन्दिर नं. ३२-३ फुट २ इंच ऊंचे एक शिलाफलकमें भगवान् चन्द्रप्रभकी पद्मासन प्रतिमा फलकके मध्यमें बनी हुई है। इसके परिकरमें छत्र, भामण्डल, मालाधारी गन्धर्व, गज, मूलनायकके दोनों ओर पद्मासन प्रतिमाएँ, चमरवाहक, कोणोंपर शार्दूल, पार्श्वमें खड्गासन प्रतिमाएँ, यक्ष और यक्षीका अंकन है।
फलकके ऊपरके भागमें एक कोष्ठकमें भगवान् पाश्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है। उसके इधर-उधर ४ मूर्तियां हैं तथा २४ मूर्तियोंका अंकन पट्टिकाओंमें किया गया है। इनमें दो मूर्तियाँ पद्मासन हैं, शेष २२ मूर्तियाँ खड्गासन हैं।
बायीं ओर दीवारमें तोन कोष्ठक ऊपर-नीचे बने हुए हैं। नीचेके कोष्ठकमें गोमेद यक्ष है, मध्य कोष्ठकमें अम्बिका है और ऊपरका कोष्ठक खाली है। और भी कई देवी-मूर्तियाँ बनी
इस मन्दिरका गर्भगृह छोटा और साधारण है।
शान्तिनाथ मन्दिरके बाहर कुएँके निकट किसी प्राचीन मन्दिरके सिरदल रखे हुए हैं। उनके ऊपर नवग्रह, तीर्थंकर माताके सोलह स्वप्न और शासन-देवियोंका भव्य अंकन किया गया है। संग्रहालय
बस अड्डेके पास सरकारी संग्रहालय है। इसमें प्रायः खजुराहोके प्राचीन मन्दिरोंके भग्नावशेषोंमें से प्राप्त पुरातत्त्व-सामग्री संग्रह की गयी है। उसमें से कुछ सामग्री तो यहाँ व्यवस्थित रूपसे सुरक्षित है, किन्तु अधिकांश सामग्री हिन्दू मन्दिर-समूहके पास एक खुले अहातेमें पड़ी है।
संग्रहालयमें सुरक्षित सामग्रीमें जैन पुरातन सामग्री भी है। इसमें तीर्थंकर मूर्तियां और शासन-देवताओंकी मूर्तियाँ हैं। जैन सामग्रीके लिए अलगसे एक जेन कक्ष बना हुआ है। प्रमुख कक्षमें भी दो जैन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। एक तो भगवान् ऋषभदेवकी है और दूसरी शासन-सेवक यक्ष और यक्षीकी है।
जैन कक्षमें वर्तमानमें कुल १२ जैन मूर्तियां सुरक्षित हैं। उनका संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार है
(१) पार्श्वनाथ, (२) महावीर, (३) जैन मन्दिरके द्वारका सिरदल, (४) जैन तीर्थंकर, (५) बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथकी यक्षी अम्बिका अपने दोनों पुत्रोंके साथ, (६) सत्तरहवें तीर्थंकर
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
कुन्थुनाथ, (७) ऋषभदेव, (८) यक्ष-दम्पति, (९) जैन मातृका, (१०) तीसरे तोर्थंकर सम्भवनाथ, (११) पद्मप्रभ भगवान्को शासन- देवी मनोवेगा, (१२) सर्वतोभद्रिका ।
धर्मशालाएँ
खजुराहो विख्यात पर्यटक - केन्द्र है। यहां हजारों व्यक्ति प्राचीन भारतको कलाका दर्शन करने आते हैं । अनेक जैन इस क्षेत्रके दर्शन करने और पूर्वजोंके कला-प्रेम एवं कलाको देखने आते हैं। यों तो यहाँ श्रेणी १ और २ के होटल, रेस्ट हाउस, डाक बंगला, लॉज आदि हैं जिनमें यात्री ठहरते हैं; किन्तु जैन यात्रियोंकी सुविधाके लिए समाज के सहयोग से यहाँ ६ धर्मशालाओं का निर्माण किया गया है । इनमें दो विभाग कर दिये गये हैं । एक तो सामान्य धर्मशाला है जिसमें यात्री निःशुल्क ठहर सकते हैं । दूसरा विश्रान्ति भवन, जिसमें निश्चित शुल्क देकर ठहर सकते हैं । धर्मशालामें ११ कमरे और विश्रान्ति भवनमें ८ कमरे हैं। इनमें कुओं और शौचालयोंकी व्यवस्था है । क्षेत्र पर विद्युत्प्रकाशकी भी व्यवस्था है। यात्रियोंकी सुविधाके लिए बरतन, इन्धन, कोयले, ओढ़ने-बिछानेके वस्त्र आदिकी भी व्यवस्था है ।
मेला
क्षेत्रका वार्षिक मेला चैत्र मासके शुक्ल पक्षमें होता है । इसी अवसरपर विधानानुसार क्षेत्रकी प्रबन्ध समितिका भी चुनाव होता है । यहाँ आश्विन कृष्णा ३ को प्रतिवर्षं पालकी निकाली जाती है । यह उत्सव छतरपुर रियासतके कालसे प्रतिवर्षं मनाया जा रहा है । दोनों ही उत्सवों में जैन जनता बड़ी संख्या में एकत्र होती है ।
द्रोणगिरि
स्थिति और मार्ग
द्रोणगिरि मध्यप्रदेश के छतरपुर जिलेमें विजावर तहसीलमें स्थित है । द्रोणगिरि क्षेत्र पर्वतपर है । वहाँ पहुँचने के लिए २३२ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। सीढ़ियाँ पक्की बनी हुई हैं । पर्वतकी तलहटीमें सेंधपा नामक एक छोटा-सा गाँव है । यहाँ पहुँचनेके लिए मध्य रेलवेके सागर या हरपालपुर स्टेशनपर उतरना चाहिए। सुविधानुसार मऊ, महोवा या सतना भी उतर सकते हैं । प्रत्येक स्टेशनसे क्षेत्र लगभग १०० कि. मी. पड़ता है। सभी स्थानोंसे पक्की सड़क गयी है । कानपुर-सागर रोड अथवा छतरपुर-सागर रोडपर मलहरा ग्राम है । मलहरासे द्रोणगिरि ७ कि. A. है । वहाँ तक पक्की सड़क है । सागरसे मलहरा तक बसें चलती हैं । बस द्वारा मलहरा पहुँचकर वहाँसे नियमित बस द्वारा क्षेत्र तक जा सकते हैं। बसका टिकट सेंधपाके लिए लेना चाहिए । गाँवका नाम तो सेंधपा है, किन्तु पर्वतका नाम द्रोणगिरि है। सेंधपाके बस अड्डेसे जैन धर्मशाला लगभग १०० गज दूर गाँवके भीतर है। वहीं गांवका मन्दिर और गुरुदत्त संस्कृत विद्यालय है । पा ग्राम काठिन और श्यामली नामक नदियोंके बीच बसा हुआ है । निरन्तर प्रवाहित होनेवाली इन नदियोंने इस स्थानकी प्राकृतिक सुन्दरताको अत्यन्त आह्लाददायक बना दिया है । ग्राममें जाते ही मन में शान्ति अनुभव होने लगती है । ग्रामसे सटा हुआ द्रोणगिरि पर्वत है । यहाँ प्रकृतिने तपोभूमिके उपयुक्त सुषमाका समस्त कोष सुलभ कर दिया है। सघन वृक्षावलि, निर्जन
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५१ प्रदेश, वन्य पशु, चन्द्रभागा नदी (काठिन नदी), पर्वतसे झरते हुए निझरोंसे बने दो निर्मल कुण्डये सभी मिलकर इसे तपोभूमि बनाते हैं। निर्वाण-भूमि
द्रोणगिरि निर्वाण-क्षेत्र है। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें इस सम्बन्धमें निम्नलिखित उल्लेख मिलता है
फलहोडी बड़गामे पच्छिम भायम्मि द्रोणगिरि सिहरे ।
गुरुदत्तादि मुणिन्दा णिव्वाण गया णमो तेसि ॥ अर्थात्, फलहोड़ी बडगांवके पश्चिममें द्रोणगिरि पर्वत है। उसके शिखरसे गुरुदत्त आदि मुनिराज निर्वाणको प्राप्त हुए। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।
संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें केवल क्षेत्रका नाम द्रोणिमान दिया हुआ है। उसका कोई परिचय अथवा वहाँसे मुक्त होनेवाले मुनिका नाम नहीं दिया गया है।
भट्टारक श्रुतसागरने बोधप्राभूतकी २७वीं गाथाकी टीकामें २७ तीर्थोंका नामोल्लेख किया है और उसमें द्रोणगिरिका भी नाम दिया है। ये भट्टारक मूलसंघ बलात्कारगण सूरतशाखाके सुप्रसिद्ध भट्टारक विद्यानन्दिके शिष्य थे । अतः इनका समय ईसाकी १५वीं शताब्दी है। ..
मराठीके १५वीं शताब्दीके प्रसिद्ध लेखक गुणकीर्तिने अपनी मराठी 'तीर्थवन्दना में लिखा है-'फलहोड़ि ग्रामि आहूठ कोडि सिद्धासि नमस्कार माझा' अर्थात् फलहोड़ी ग्रामसे साढ़े तीन कोटि मुनियोंने मुक्ति प्राप्त की, उनको नमस्कार है। इसमें गुणकीर्तिने न द्रोणगिरिका उल्लेख किया है, न गुरुदत्त मुनिका ही। इसमें तो द्रोणगिरिके निकटवर्ती फलहोड़ी ग्रामको ही सिद्धक्षेत्र मानकर लेखकने वहाँसे मुक्त होनेवाले मुनियोंकी संख्या साढ़े तीन कोटि बतलायी है, जबकि उनकी निश्चित संख्याका कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, शिवकोटि आदि किसी पूर्ववर्ती आचार्यने उल्लेख नहीं किया है।
मराठी जैन साहित्यके लेखक और १५वीं-१६वीं शताब्दीकी सन्धिके प्रमुख विद्वान् चिमणा पण्डितने 'तीर्थवन्दना' नामक स्तोत्रमें इस क्षेत्रके सम्बन्धमें लिखा है-"बडग्राम सुनाम पच्छिम दिसा। द्रोणागिरि पर्वत कैलास जैसा ॥ तेथे सिद्ध झाले मुनि गुरुदत्त । ऐसे तीर्थ वंदा तुम्ही एकचित्त ॥१९॥" इसमें कविने द्रोणगिरिको फलहोड़ीके स्थानपर बड़ग्रामकी पश्चिम दिशामें बतलाया है तथा वहाँसे गुरुदत्त मुनिको मुक्त हुआ माना है। किन्तु इससे कोई अन्तर नहीं
ड़ता। फलहोड़ी और बड़ग्राम दोनों एक ही थे, भिन्न नहीं। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें फलहोड़ी बड़ग्राम देकर आचार्यने इस तथ्यको स्पष्ट कर दिया है।
निर्वाण-काण्डमें द्रोणगिरिकी पूर्व दिशामें जिस फलहोड़ी बड़गांवका उल्लेख किया गया है, वह गांव आजकल नहीं मिलता। वर्तमान द्रोणगिरिके निकट सेंधपा ग्राम है, जिसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। कल्पना की जाती है कि यहां प्राचीन कालमें फलहोड़ी बड़गांव रहा होगा और वह किसी कारणवश नष्ट हो गया होगा। वास्तवमें सेंधपा गांव विशेष प्राचीन प्रतीत नहीं होता। कहा तो यह जाता है कि जिस भूमिपर यह ग्राम बसा हुआ है, वह पहले निकटवर्ती ग्रामकी श्मशान-भूमि थी। इस गांवके निकट किसी प्राचीन ग्रामके अवशेष प्राप्त होते हैं जो काफी बड़े क्षेत्रमें फैले हुए हैं। पर्वतकी तलहटीमें इन्हीं अवशेषोंके बीच एक भग्न प्राचीन जैन चैत्यालय अब भी खड़ा है, जिसे लोग बँगला कहते हैं। यदि यहाँ खुदाई की जाये तो यहाँपर पुरातत्त्वकी विपुल सामग्री मिलनेकी सम्भावना है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ . निर्वाण-काण्डके उल्लेखसे यह ज्ञात होता है कि यहाँसे न केवल गुरुदत्त मुनि ही मोक्ष पधारे हैं, अपितु अन्य मुनि भी मुक्त हुए हैं। भाषा-कवियोंने इनकी संख्या साढ़े तीन कोटि दी है। वास्तवमें तपोभूमिके उपयुक्त रमणीयताको देखते हुए प्राचीन कालमें यहाँ तपस्याके लिए आना अधिक सम्भव था और अनेक मुनियोंका यहाँसे निर्वाण प्राप्त करना असम्भव नहीं था।
द्रोणगिरि नामक एक पर्वत ऋषिकेशसे नीती घाटीकी ओर जाते हुए १६९ मील दूर जुम्भासे दिखाई पड़ता है। यह कुमायूँमें है । इसे दूनगिरि कहते हैं। किन्तु इस पर्वतके निकट भी फलहोड़ी नामक कोई ग्राम कभी रहा था, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते। अतः यह द्रोणगिरि गुरुदत्तादि मुनियोंकी तपोभूमि रहा हो, ऐसी सम्भावना प्रतीत नहीं होती। हिन्दू परम्परामें वाल्मीकि तथा तुलसीकृत रामायणोंमें लक्ष्मणके शक्ति लगनेपर हनुमान् द्वारा जिस द्रोणगिरि पर्वतसे संजीवनी बूटी लानेके उल्लेख मिलते हैं, वह द्रोणगिरि हिमालय-शृंखलामें स्थित यही द्रोणगिरि था, ऐसी मान्यता प्रचलित है। दूनगिरि पर्वत यहाँका प्रचलित नाम है। यह दूनगिरि ही हिन्दू पुराणवणित द्रोणगिरि है। यहाँके लोढ़मूना जंगलमें गर्ग ऋषिका आश्रम था। गागस नदी इसी जंगलसे निकलती है और धौलीमें जाकर गिरती है।' हिन्दू लोग इसी दूनगिरिको अपना तीर्थ मानते हैं । कूर्माचल ( कुमायूँ ) में विष्णुने मन्दराचलको साधनेके लिए कूर्मावतार लिया, ऐसी उनको मान्यता है। वह स्थान लोहाघाटके निकट माना जाता है।
कुछ विद्वानोंको मान्यता है कि वर्तमान सैंधपा ग्रामके निकटस्थ द्रोणगिरि ही वह पवंत है, जहाँसे हनुमान् संजीवनी बूटी ले गये थे। इन विद्वानोंको धारणा है कि श्री रामचन्द्र वनवासके समय ओरछा भी पधारे थे। वे इसके निकट 'रमन्ना' ( रामारण्य ) वनमें ठहरे थे और उस समय वे द्रोणगिरि पर्वतपर भी आये थे। किन्तु यह सब केवल कल्पना-भर है। प्राचीन शास्त्रोंमें द्रोणगिरिका उल्लेख
निर्वाण-काण्ड और निर्वाण-भक्तिके अतिरिक्त द्रोणगिरि या द्रोणिमान् पर्वतका उल्लेख भगवती-आराधना, आराधनासार, आराधना-कथाकोष आदि ग्रन्थोंमें आया है। भगवतीआराधनामें आचार्य शिवकोटि इस प्रकार वर्णन करते हैं
हत्थिणपुर गुरुदत्तो संवलिथालीव दोणिमंत्तम्मि । - उज्झंतो अधियासिय पडिपण्णो उत्तमं अट्ठ ॥१५५२।।
अर्थात्, हस्तिनापुरके निवासी गुरुदत्त मुनिराज द्रोणिमान् पर्वतके ऊपर सम्भलिथालीके समान जलते हुए उत्तम अर्थको प्राप्त हुए।
___सम्भलिथालीका अर्थ है-एक बरतन जिसमें घास-फूंस भरा हो, उसका मुख नीचेकी ओर हो और सूखे पत्तों आदिसे ढंका हो तथा उसके चारों ओर अग्नि लगी हो। अग्नि लगनेपर जिस प्रकार भीतरका घास-फूस जलने लगता है, उसी प्रकार द्रोणिमान् पर्वतके ऊपर गुरुदत्त मुनिराज भी जलकर मुक्त हुए। इसी प्रकार आराधनासार ग्रन्थमें इस घटनाका उल्लेख इस प्रकार किया गया है
वास्तव्यो हास्तिने धीरो द्रोणीमति महीधरे ।
गुरुदत्तो यतिः स्वार्थ जग्राहानलवेष्टितः ॥ अर्थात्, हस्तिनापुरके निवासी गुरुदत्त मुनिने दोणिमान् पर्वत पर अग्नि लगनेपर आत्माके प्रयोजन ( स्वार्थ ) को सिद्ध किया।
१. Geographical Dictionary of Ancient India, by Nandolal Dey.
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५३ पौराणिक आख्यान - भगवती-आराधना और आराधनासार नामक शास्त्रोंमें द्रोणगिरि पर्वतपर गुरुदत्त मुनिराजके ऊपर हुए जिस उपसर्गकी ओर संकेत किया गया है, उसके सम्बन्धमें हरिषेणकृत कथाकोशमें विस्तृत कथानक दिया गया है, जो इस प्रकार है
श्रावस्ती नगरीका शासक उपरिचर पद्मावती, अमितप्रभा, सुप्रभा और प्रभावती नामक चारों रानियोंके साथ प्रमदवनमें विहारके लिए गया। वे जब सुदर्शना बावड़ीमें क्रीड़ा कर रहे थे, तभी विद्यदृष्ट्र नामक एक विद्याधर अपनी पत्नी मदनवेगाके साथ विमानसे आकाशमें जा रहा था। विद्याधरी जल-क्रीड़ा करते हुए राजा और रानियोंको देखकर बोली-“धन्य हैं ये रानियाँ जो अपने पतिके साथ जल-क्रीड़ामें आसक्त हैं।" पत्नीके मुखसे अन्य पुरुषकी प्रशंसा सुनकर विद्याधरको बड़ा बुरा लगा। गुस्सेके मारे वह विमानको लौटा ले गया और अपनी पत्नीको अपने घर छोड़कर वह पुनः उसी बावड़ीके पास आया और एक बड़ी भारी शिलासे बावड़ीको ढक दिया। इससे दम घुटकर पांचों प्राणी मर गये। राजा क्रोधमें भरकर सांप बना तथा चारों रानियाँ सम्यग्दर्शनके प्रभावसे स्वर्गमें देवियां बनीं। वहाँ अवधिज्ञानसे पूर्वभवका वृत्तान्त जानकर एक दिन वे अपने पूर्वभवके पतिके जीवको सम्बोधन करने आयीं। उसी समय उस राजाका पुत्र अनन्तवीर्य उस वनमें विहार करने आया। वहां उसने एक शिला-तलपर विराजमान अवधिज्ञानी सागरसेन नामक मुनिराजको देखा। राजा अनन्तवीयं उनके निकट आया और दर्शनवन्दना करके उनके पास बैठ गया। उसने मुनिराजसे प्रश्न किया-"भगवन् ! मेरे पिता मरकर किस गतिमें उत्पन्न हुए हैं ?" मुनिराज बोले-“वापीमें तेरा पिता रानियोंके साथ जब जलक्रीड़ा कर रहा था, तभी विद्युदंष्ट्र विद्याधरने शिलासे वापीको ढक दिया, जिससे मरकर वह यहीं निकट ही साँप हुआ है। तू जा और उससे कहना 'उपरिचर! तू साधुके निकट जा।' तेरी बात सुनकर वह बिलसे निकलकर धर्मग्रहण करेगा।" ___मुनिराजके वचन सुनकर राजा अनन्तवीर्य बिलके निकट जाकर मुनिराजके आदेशके अनुसार बोला । उसकी बात सुनकर वह सर्प मुनिराजके समीप गया। मुनिने उसे उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सर्पको जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। उसने अपनी आयु अल्प जानकर हृदयसे धर्म ग्रहण कर लिया और कुछ दिनों बाद अनशन करते हुए उसकी मृत्यु हो गयो। शुभ भावोंसे मरकर वह नागकुमार-जातिका देव हुआ। अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभव जानकर वह देव अनन्त
पास आया और अपने पूर्व-जन्मका वृत्तान्त बताया। देवके वचन सुनकर अनन्तवीर्यको वैराग्य हो गया। उसने अपने सुवासु नामक पुत्रको राज्य देकर सागरसेन मुनिके समीप जाकर निग्रन्थ मुनि-दीक्षा धारण कर ली और घोर तप द्वारा कर्मोंका नाश करके मुक्त परमात्मस्वरूपको प्राप्त किया।
___ नागकुमार सुमेरु पर्वत आदिपर जाकर जिनालयोंकी वन्दना किया करता था। एक दिन विमानमें जाते हुए उसे विद्युदंष्ट्र विद्याधर दिखाई पड़ा। पूर्व-जन्मकी घटनाका स्मरण आते ही उसे भयानक क्रोध आया और उसे स्त्री सहित ले जाकर समुद्रमें डुबा दिया। विद्युद्देष्ट्र अशुभ परिणामोंसे मरकर प्रथम नरकमें नारकी बना । वहाँसे आयु पूर्ण होनेपर वह द्रोणगिरिपर सिंह हुआ।
. नागकुमार मरकर हस्तिनापुरनरेश विजयदत्तकी विजयारानीसे गुरुदत्त नामक पुत्र हुआ। जब गुरुदत्त यौवनावस्थाको प्राप्त हुआ तो उसके पिता उसका राज्याभिषेक करके मुनि हो गये। गुरुदत्त आनन्दपूर्वक राज्य-शासन करने लगा। एक बार उसने लाट देशमें द्रोणगिरिकी पूर्वोत्तर
३-२०
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दिशामें स्थित चन्द्रपुरी नगरीके राजा चन्द्रकीर्तिसे उसकी छोटी कन्या अभयमती मांगी। किन्तु राजाने अपनी कन्याका विवाह गुरुदत्तके साथ करनेसे इनकार कर दिया। इससे रुष्ट होकर गुरुदत्तने चन्द्रकीर्तिपर आक्रमण कर दिया। अन्तमें चन्द्रकीर्तिको बाध्य होकर अपनी पुत्रीका विवाह गुरुदत्तके साथ करना पड़ा । गुरुदत्त कुछ समय वहीं ठहर गया।
_____एक दिन ग्रामके कुछ लोग गुरुदत्त नरेशके पास आये और हाथ जोड़कर कहने लगे"देव ! द्रोणिमान् पर्वतपर एक व्याघ्रने बड़ा उत्पात कर रखा है। उसने हमारे न केवल गोकुलको, अपितु कई मनुष्योंको भी खा लिया है। आप हमारी रक्षा करें।" प्रजाकी करुण पुकार सुनकर राजा गुरुदत्त सैनिकोंको लेकर द्रोणिमान् पर्वतपर पहँचा। सेनाके कलकलसे घबराकर वह सिंह एक गुफामें घुस गया। उसे मारनेका अन्य कोई उपाय न देखकर सैनिकोंने गुफामें ईन्धन इकट्ठा करके उसमें आग लगा दी। सिंह धुएँ और आगके कारण उसी गुफामें मर गया और मरकर चन्द्रपुरीमें भवधर्म नामक ब्राह्मणके घरमें कपिल नामक पुत्र हुआ।
___ राजा गुरुदत्त अपनी पत्नीको लेकर सैनिकोंके साथ हस्तिनापुर लौट आया और शासन करने लगा। एक बार सात सौ मुनियोंके साथ आचार्य श्रुतसागर नगरके निकट पधारे । उनका उपदेश सुनकर राजा और रानी दोनोंने दीक्षा ले ली। एक दिन मुनि गुरुदत्त विहार करते हुए द्रोणिमान् पर्वतके निकटस्थ चन्द्रपुरी नगरीके बाहर ध्यान लगाये खड़े थे। कपिल अपनी स्त्रीसे मध्याह्न वेलामें भोजन लानेके लिए कहकर खेत जोतने चला गया। उसी खेतमें गुरुदत्त मुनि ध्यानारूढ़ थे । वह खेत पानीसे भरा होनेके कारण जोतने लायक नहीं था। अतः वह दूसरे खेतको जोतने चला गया और मुनिसे कहता गया कि स्त्री भोजन लेकर आयेगी तो उससे कह देना कि मैं दूसरे खेतपर गया हूँ। उसकी स्त्री मध्याह्नमें भोजन लेकर आयी और वहाँ पतिको न पाकर उसने मुनिसे पूछा । किन्तु मुनिने कोई उत्तर नहीं दिया तो वह घर लौट गयी।
सन्ध्या तक कपिल भूखा रहा। भूखके मारे गुस्से में भरा हुआ वह घर लौटा और अपनी स्त्रीको डांटते हुए कहने लगा-"दुष्टे, तुझसे रोटी लानेको कह गया था। तू फिर भी रोटी नहीं लायी। मैं सारे दिन भूखा मरता रहा।" स्त्री भयाक्रान्त होकर बोली-"मैं तो रोटी लेकर गयो थी किन्तु तुम वहाँ मिले ही नहीं। मैंने वहां खड़े हुए नंगे बाबासे भी तुम्हारे बारेमें पूछा लेकिन उसने भी कोई जवाब नहीं दिया तो मैं क्या करती, लौट आयी।"
स्त्रीकी बात सुनकर अज्ञ कपिलको साधुपर क्रोध आया और विचारने लगा-"सारा दोष उस साधुका है। उसीके कारण मुझे भूखा रहना पड़ा। अतः उसे इसका पाठ पढ़ाना चाहिए।" यह विचारकर वह फटे-पुराने कपड़े, तेल और आग लेकर फिर खेतमें पहुंचा। उसने सिरसे पैर तक मुनिराजके शरीरपर चिथड़े लपेट दिये और उनपर तेल छिड़ककर आग लगा दी। आग लगते ही मुनिराजका शरीर जलने लगा। किन्तु वे आत्म-ध्यानमें लीन थे। उन्हें बाह्य शरीरका ज्ञान ही नहीं था। वे शुद्ध भावोंमें लीन रहकर शुक्ल ध्यानमें पहुंच गये। तभी उन्हें लोकालोक-प्रकाशक केवलज्ञान हो गया। चारों निकायके देव गुरुदत्त मुनिराजके केवलज्ञानकी पूजाके लिए वहां आये। योगीश्वर गुरुदत्तका यह चमत्कार और प्रभाव देखकर कपिल ब्राह्मण भयसे कांपता हआ उनके चरणोंमें जा गिरा और क्षमा-याचना करने लगा। वीतराग भगवानको न तो उसके अपराधपर रोष ही था और न उसकी क्षमा याचनापर हर्ष। वे तो रोष-हर्ष आदिसे ऊपर थे। फिर कपिलने भगवान् केवलीके मुखसे उपदेश सुनकर जन्म-जन्मान्तरोंका बैर त्यागकर उन्हींके चरणोंमें दीक्षा ले ली।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५५ विचारणीय प्रश्न
___ इस कथानकमें तीन बातें विचारणीय हैं। एक तो यह कि गुरुदत्त केवली किस स्थानसे मुक्त हुए, कथानकमें इस बातका कोई उल्लेख नहीं है। फिर यह कि इस कथानकमें द्रोणिमान् या द्रोणगिरिको तोणिमान् पर्वत कहा गया है तथा उसका उल्लेख चन्द्रपुरीके सन्दर्भ में इस प्रकार किया गया है
लाटदेशाभिधे देशे चारुलोकधनान्विते। पूर्वोत्तरदिशाभागे तोणिमद्भूधरस्य च । आसीच्चन्द्रपुरी रम्या सितप्रासादसंकुला । बहुलोकसमाकीर्णा धनधान्यसमन्विता ।
-हरिषेण कथाकोश-कथा १३९, श्लोक ४५-४६ इसमें चन्द्रपुरी नगरीका वर्णन करते हुए उसे लाट देशमें और तोणिमान् पर्वतको पूर्वोत्तर दिशा (ईशानकोण) में बताया है। इससे ऐसा आभास होता है कि तोणिमान् पर्वत लाट देशमें था।
इस कथानकसे एक नया प्रश्न भी उभरता है कि उनको केवलज्ञान द्रोणिमान् (तोणिमान्) पर्वतपर नहीं हुआ था । वह चन्द्रपुरी नगरीके बाहर खेतोंमें हुआ था।
इन तीन प्रश्नोंका समाधान मिलना तथा भगवती आराधनासे उसका सामंजस्य स्थापित होना अत्यन्त आवश्यक है। भगवती आराधनाके अनुसार द्रोणिमान् पर्वतके ऊपर जलते हुए गुरुदत्त मुनिने उत्तमार्थ प्राप्त किया। आराधनासारमें भी इसी आशयकी पुष्टि की गयी है। इसमें भी द्रोणिमान् पर्वतके ऊपर अग्नि लगनेपर उनके आत्म-प्रयोजनकी सिद्धि बतायी गयी है। कथाकोश ग्रन्थोंमें द्रोणिमान पर्वतके ऊपर उपसर्ग होनेका प्रायः उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु उस पर्वतके निकट किसी स्थानपर यह भयंकर उपसर्ग हुआ, ऐसा प्रतीत होता है। निर्वाण-काण्डमें द्रोणगिरिके शिखरसे गुरुदत्त मुनिको निर्वाण प्राप्त करनेका उल्लेख है। इसमें उपसर्ग होनेका या उपसर्ग-स्थानका कोई उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि उपसर्गके तत्काल बाद ही गुरुदत्तको निर्वाण प्राप्त नहीं हुआ। उपसर्ग द्रोणगिरिपर हुआ। भगवती आराधना और आराधनासारमें उपसर्गका उल्लेख करते हुए द्रोणिमान् पर्वतपर जिस आत्मार्थकी प्राप्ति या आत्म-प्रयोजनकी सिद्धिका उल्लेख किया गया है, उससे आचार्योंका अभिप्राय केवलज्ञानकी प्राप्तिसे ही है, जैसा कि कथाकोश ग्रन्थोंसे भी समर्थन होता है। हरिषेण-कथाकोशमें चन्द्रपुरीके निकट जिस स्थानपर यह घटना घटी, वह, लगता है, द्रोणगिरिके निकट ही था। इसलिए उसे द्रोणगिरिकी उपत्यका न लिखकर द्रोणगिरि ही लिख दिया गया। निर्वाण काण्डको स्पष्ट सूचनासे हरिषेण-कथाकोशकी अधूरी सूचनाकी पूर्ति हो जाती है । वह यह कि गुरुदत्तको मुक्ति द्रोणगिरिपर हुई। .
अब सबसे अधिक विचारणीय समस्या यह रह जाती है कि द्रोणगिरि कहाँपर था। हरिषेणको सूचनाके अनुसार वह लाट देशमें था। यदि तोणिमान्को चन्द्रपुरीके निकट न मानकर उससे अत्यधिक दूर खींचनेका प्रयत्न करें तो सहज ही प्रश्न उठ सकता है कि फिर द्रोणगिरिका उल्लेख वहाँ करनेकी आवश्यकता क्या थी? और उस स्थिति में भगवती आराधना आदि ग्रन्थोके वर्णनको संगति किस प्रकार बैठायी जा सकेगी। एक कल्पना यह भी हो सकती है कि तोणिमान् पर्वत, द्रोणिमान् या द्रोणगिरिसे भिन्न था। किन्तु इस कल्पनाके माननेपर गुरुदत्त मुनि दो मानने पड़ेंगे। फिर तोणिमान्पर घटित घटनाका उपयोग द्रोणिमान् पर्वतके लिए नहीं हो सकेगा। इसलिए यह माननेमें कोई हानि नहीं है कि द्रोणगिरिके कई नाम थे। उसे द्रोणगिरिके अतिरिक्त द्रोणाचल, द्रोणिमान् और तोणिमान् भी कहते थे।
किन्तु कठिनाई यह रह जाती है कि लाट देश ( गुजरात ) में किसी द्रोणगिरिके होनेकी
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कोई सूचना नहीं है। किसी प्राचीन स्थलकोशसे भी इसका समर्थन नहीं होता। इसी प्रकार वर्तमानमें जहाँ द्रोणगिरि (छतरपुरके निकट) माना जाता है, उसके निकट फलहोड़ी गाँवका पता सरकारी कागजोंसे भी नहीं लगता। कुछ विद्वान् फलहोड़ी और फलोधी ( मारवाड़ ) की किंचित् समानताके कारण फलहोड़ीकी पहचान फलोधीसे करते हैं और उसको द्रोणगिरिके साथ सम्बद्ध करनेका निष्फल प्रयास करते हैं, जबकि वहाँ द्रोणगिरि नामक पर्वत है ही नहीं। इन सब स्थितियोंपर विचार करनेपर हमें लगता है कि कुछ शताब्दियोंसे तो द्रोणगिरि ( छतरपुरके निकटवाला) तीर्थक्षेत्र माना ही जा रहा है। सम्भव है, वहाँपर मन्दिर बनानेवालोंको मान्यताविषयक परम्पराका समर्थन मिला हो।
सभी सम्भावनाओं और फलितार्थोंपर विचार करनेके पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि शताब्दियोंसे जिसे सिद्धक्षेत्रके रूपमें मान्यता और जनताकी श्रद्धा प्राप्त है, वह तीर्थक्षेत्र तो है ही। विशेषतः उस स्थितिमें, जबकि किसी दूसरे द्रोणगिरिको सम्भावना नहीं है। अतः वर्तमान द्रोणगिरि ही सिद्धक्षेत्र है, यह मान लेना पड़ता है। क्षेत्र-वर्शन
द्रोणगिरिकी तलहटीमें सेंधपा गांव बसा हुआ है। गांवमें एक जैन मन्दिर है। यहीं जैन धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। धर्मशालासे दक्षिणकी ओर दो फलांग दूर पर्वत है। पर्वतके दायें और बायें बाजूसे काठिन और श्यामली नदियां सदा प्रवाहित रहती हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानों ये सदानीरा पार्वत्य सरिताएं इस सिद्धक्षेत्रके चरणोंको पखार रही हों। पर्वत विशेष ऊँचा नहीं है। पर्वतपर जानेके लिए २३२ पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं। चारों ओर वृक्षों और वनस्पतियोंने मिलकर क्षेत्रपर सौन्दर्य-राशि बिखेर दी है।
पर्वतके ऊपर कुल २८ जिनालय बने हुए हैं। इनमें तिगोड़ावालोंका मन्दिर सबसे प्राचीन है। इसे ही बड़ा मन्दिर कहा जाता है। इसमें भगवान् आदिनाथको एक सातिशय प्रतिमा संवत् १५४९ की विराजमान है। सम्मेदशिखरके समान यहाँपर भी चन्द्रप्रभ टोंक, आदिनाथ टोंक आदि टोंक हैं। यहाँ १३।। फुट ऊंची एक प्रतिमाका भी निर्माण हुआ है। ___अन्तिम मन्दिर पाश्वनाथ स्वामीका है। उसके नीचे ३ गज ऊँची, १॥ गज चौड़ी और ४-५ गज लम्बी एक गुफा बनी हुई है। इस गुफाके सम्बन्धमें विचित्र प्रकारको विविध किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। एक किंवदन्ती यह है कि सेंधपा गांवका रहनेवाला एक भील प्रतिदिन इस गुफामें जाया करता था और वहाँसे कमलका एक सुन्दर फूल लाया करता था। उसका कहना था कि गफाके अन्तमें दीवारमें एक छोटा छिद्र है। उसमें हाथ डालकर वह फूल तोड़कर लाता था। उस छिद्रके दूसरी ओर एक विशाल जलाशय है। उसमें कमल खिले हुए हैं । वहाँ अलौकिक प्रभा-पुंज है । बिलकुल इसी प्रकारको किंवदन्ती मांगीतुंगी क्षेत्रपर भी प्रचलित है।
एक दूसरी किंवदन्ती है कि यह गुफा १४-१५ मील दूर भीमकुण्ड तक गयी है।
पर्वतकी तलहटीसे एक मील आगे जानेपर श्यामली नदीका भराव है, जिसे कुडी कहते हैं। वहां दो जलकुण्ड पास-पासमें बने हुए हैं, जिनमें एक शीतल जलका है और दूसरा उष्ण जलका । यहां चारों ओर हरं, बहेड़ा, आँवला आदि वनौषधियोंका बाहुल्य है। यहाँका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त आकर्षक है। इस वनमें हरिण, नीलगाय, रोज आदि वन्य पशु निर्भयतापूर्वक विचरण करते हैं। कभी-कभी सिंह, तेंदुआ या रीछ भी इधर जल पीने आ जाते हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तौथ पवतपर स्थित जिनालयोंका विवरण इस प्रकार है
१. सुपार्श्वनाथ मन्दिर–प्रतिमा श्वेतवर्ण, २ फुट ४ इंच ऊँची, पद्मासन। प्रतिष्ठा-काल संवत् १९३८। ____२. चन्द्रप्रभ मन्दिर-प्रतिमा श्वेतवर्ण, पद्मासन, १ फुट ७ इंच अवगाहना। वि. संवत् २०२१ में प्रतिष्ठित।
३. पार्श्वनाथ मन्दिर-पाषाणकी कृष्णवर्ण, २ फुट ७ इंच ऊँची, पद्मासन प्रतिमा । विक्रम संवत् १९१८ माघ सुदो ५ चन्द्रवारको प्रतिष्ठित । इस प्रतिमाके ऊपर सहस्र फणावलि सुशोभित है।
४. आदिनाथ मन्दिर-कृष्णवर्ण, पद्मासन, ३ फुट ३ इंच उत्तुंग प्रतिमा । विक्रम संवत् १९१८ माघ सुदी ५ चन्द्रवारको प्रतिष्ठित । एक दीवारमें संवत् १९१८ का एक शिलालेख है।
५. अजितनाथ मन्दिर-मूंगिया वर्ण, पद्मासन, १ फुट १० इंच अवगाहनावाली प्रतिमा। विक्रम संवत् १९१८ माघ सुदी ५ चन्द्रवासरमें प्रतिष्ठित ।
६. आदिनाथ मन्दिर-श्वेतवर्ण, १ फुट १० इंच उत्तुंग, पद्मासन प्रतिमा । वि. सं. १९१८ माघ सुदी ५ को प्रतिष्ठित ।
७. चन्द्रप्रभ मन्दिर-श्वेतवर्ण, १ फुट १० इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा। वि. सं. १८९२ में प्रतिष्ठित । वेदी ३ दरकी है।
८. चन्द्रप्रभ मन्दिर-श्वेतवर्ण, २ फुट २ इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा। वि. सं. १९८१ माघ सुदी १४ को प्रतिष्ठित।
९. पार्श्वनाथ मन्दिर-मुंगिया वर्ण, पद्मासन प्रतिमा, ३ फुट ३ इंच अवगाहना, वि. सं. १९०७ फागुन सुदो १० शुक्रवारको प्रतिष्ठित । सप्त-फणवाली है।
१०. पार्श्वनाथ मन्दिर-शुक्लवर्ण, पद्मासन प्रतिमा, २ फुट ६ इंच अवगाहना। वि. सं. १९०७ फागुन वदी १० को प्रतिष्ठित । सप्त-फणवाली है।
११. पाश्वनाथ मन्दिर–प्रतिमा श्वेतवर्ण, पद्मासन, २ फुट ८ इंच अवगाहना । लेख नहीं है। नौ फणवाली है।
१२. नेमिनाथ मन्दिर-कृष्णवर्ण, पद्मासन, २ फुट ६ इंच उत्तुंग प्रतिमा। वि. सं. १९३७ चैत्र सुदी २ रविवारको प्रतिष्ठित।।
१३. चन्द्रप्रभ मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, १ फुट ९ इंच उत्तुंग प्रतिमा। वि. सं. १९७५ चैत्र सुदी ५ सोमवारको प्रतिष्ठित।
१४. महावीर मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, १ फुट ११ इंच उत्तुंग प्रतिमा। वि. सं. २०११ में प्रतिष्ठित।
१५. पार्श्वनाथ मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, १ फुट १० इंच उत्तुंग प्रतिमा। वि. सं. १५४५ में प्रतिष्ठित । दूसरी वेदीमें भी पाश्र्वनाथ हैं।
१६. नमिनाथ मन्दिर-कृष्णवर्ण, पद्मासन प्रतिमा। वि. सं. १८२५ में प्रतिष्ठित ।
१७. शान्तिनाथ मन्दिर-कृष्णवर्ण, पद्मासन, १ फुट १० इंच उत्तुंग प्रतिमा। वि. सं. १९५२ फागुन वदी २ सोमवारको प्रतिष्ठित ।
१८. अटारीपर-आदिनाथ मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, २ फुट ४ इंच उत्तुंग प्रतिमा। मूर्ति-लेख नहीं है।
१९. आदिनाथ बड़ा मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, २ फुट ७ इंच उत्तुंग प्रतिमा। वि. सं.
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ १५४९ । यह मन्दिर सबसे प्राचीन है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। लोग इसे ही बड़े बाबाके नामसे पुकारते हैं और यहींपर विशेष रूपसे पूजनादि करते हैं।
२०. सुपाश्वनाथ मन्दिर-कृष्णवर्ण, पद्मासन, २ फुट २ इंच ऊंची प्रतिमा। वि. सं. १९०७ फागुन वदी १२ शुक्रवारको प्रतिष्ठित । पादपीठपर स्वस्तिक चिह्न उलटा है।
२१. मेरु मन्दिर-३ कटनीका मेरु बना हुआ है। १ फुट १० इंच ऊँची श्वेतवर्ण पाषाणकी प्रतिमा है। प्रतिमा भगवान् ऋषभदेवकी है। यह देशी पाषाणकी खड्गासन है। प्रतिमाके सिरके पीछे भामण्डल और सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। प्रतिमाके सिरपर जटाएं हैं जो कन्धेपर लहरा रही हैं। सिरके दोनों पाश्ॉमें गन्धर्व पुष्पवर्षा कर रहे हैं। हाथीकी पीठपर इन्द्र बैठे हुए हैं । त्रिभंग मुद्रामें ऋषभदेवकी सेवामें चमरेन्द्र खड़े हैं। उनके नीचे करबद्ध मुद्रामें भक्त श्रावकश्राविका हैं । बगल में वृषभ लांछन है।
. २२. पाश्वनाथ मन्दिर-कृष्णवर्ण, पद्मासन, ३ फुट ऊंची प्रतिमा। फाल्गुन कृष्णा १२ संवत् १९०७ को प्रतिष्ठित । यह ११ फणावलियुक्त है।
२३. आदिनाथ मन्दिर-कुछ श्याम, पद्मासन, १ फुट १ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा। संवत् १९०१ माघ सुदी ५ सोमवारको प्रतिष्ठित । जटाएं कन्धोंपर लहरा रही हैं।
२४. मानस्तम्भ-भूरे देशी पाषाणका, ९ फुट ६ इंच ऊंचा यह गोलाकार स्तम्भ ६ फुट २ इंच x ६ फुट २ इंचके कमरेमें बीच अवस्थित है। इसके शीर्षपर तीन दिशाओंमें खड्गासन तीर्थंकर मतियाँ हैं और एक दिशामें पद्मासन। उनके ऊपर २-२ पंक्तियोंमें १२-१२ खडगासन मूर्तियां हैं जो प्रायः ३ इंचकी हैं। फर्शमें एक फुट नीचे तक स्तम्भका भाग खुला हुआ है। स्तम्भके इस भागमें चारों दिशाओंमें पद्मावती चक्रेश्वरी आदि चार शासन-देवियां उत्कीर्णं हैं। इसका जीर्णोद्धार साहू जैन ट्रस्टकी ओरसे हो चुका है।
२५. चन्द्रप्रभ मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, ९ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा। वि. सं. १८११ में प्रतिष्ठित ।
२६. नेमिनाथ मन्दिर-कृष्णवणं, पद्मासन, ११ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा। वि. सं. १९३१ चैत सुदी ४ को प्रतिष्ठित हुई।
२७. पार्श्वनाथ मन्दिर-श्वेतवर्ण, पद्मासन, १० इंच अवगाहनावाली प्रतिमा । सं. १५४८ में प्रतिष्ठित । मूर्तिपर फण नहीं हैं । सर्प लांछन है।
२८. पाश्वनाथ मन्दिरके पास पर्वतपर जो गुफा है, उसके बायीं ओर इन्दौरकी सेठानी प्यार कुंवरबाईजीने संवत् १९९६ में एक कमरेमें ३ हाथ ऊँची और ४ हाथ चौड़ी देशी पाषाणकी वदीपर गुरुदत्त मुनिराजके चरण विराजमान कराये थे। वे अब वहाँसे उठाकर मूर्तियोंके आगे रख दिये गये हैं। इस कमरे में दलीपुर और गोलगंज ग्रामोंसे लायी हुई कुछ प्राचीन मूर्तियाँ रखो हैं। इन मूर्तियोंमें मन्दिर नं. २ को वह पाश्वनाथ मूर्ति भी है, जिसे किसी अज्ञ ग्वालने लाठोसे दायीं भुजा और कन्धेको खण्डित कर दिया था और मन्दिरमें इस मूर्तिके स्थानपर अन्य मूर्ति विराजमान कर दी थी। पार्श्वनाथकी यह मूर्ति कृष्णवणं, पद्मासन है और इसकी अवगाहना ३ फुट ६ इंच है। निर्वाण-गुफा
___ अन्तिम पार्श्वनाथ मन्दिरके नीचे एक प्राकृतिक गुफा है। वह विशेष लम्बी-चौड़ी नहीं है। उसकी गहराई जाननेका कोई साधन भी नहीं है। गुफाके बाह्य भागमें गुरुदत्तादि मुनियोंके
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५९ चरण-चिह्न विराजमान हैं । विश्वास किया जाता है कि इसी गुफामें तपस्या करते हुए उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई थी। ग्राम-मन्दिर
सेंधपा ग्राममें केवल एक आदिनाथ मन्दिर है। इसमें दो वेदियाँ बनी हुई हैं, जिनपर क्रमशः ऋषभदेव और शान्तिनाथ मुलनायकके रूप में विराजमान हैं। भगवान् ऋषभदेवक
न हैं । भगवान् ऋषभदेवकी प्रतिमा श्वेतवर्ण, पद्मासन है जो वि. संवत् १९०३ में प्रतिष्ठित हुई। यह २ फुट १० इंच उन्नत है। इनके समवसरणमें पाषाणको २ और धातुकी ५९ मूर्तियां विराजमान हैं। इसी प्रकार दूसरो वेदीपर शान्तिनाथ भगवान्को मूर्ति श्वेतवर्ण, पद्मासन और १ फुट ७ इंच ऊँची है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् २०११ में हुई थी। द्रोणगिरि और वर्णोजी
पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णीको ईसरीके बाद द्रोणगिरि ही सबसे प्रिय क्षेत्र था। वे प्रायः कहते थे कि यह छोटा सम्मेदशिखर है। उन्होंने अपनी जीवन-गाथामें लिखा है-"द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र बुन्देलखण्डके तीर्थक्षेत्रोंमें सबसे अधिक रमणीय है। हरा-भरा पर्वत और बहती हुई युगल नदियां देखते ही बनती हैं। पर्वत अनेक कन्दराओं और निर्झरोंसे सुशोभित है। श्री गुरुदत्त आदि मुनिराजोंने अपने पवित्र पादरजसे इसके कण-कणको पवित्र किया है । यह उनका मुक्तिस्थान होनेसे निर्वाण-क्षेत्र कहलाता है। यहाँ आनेसे न जाने क्यों मनमें अपने-आप असीम शान्ति का संचार होने लगता है।" धर्मशालाएँ
क्षेत्रपर कुल ३ धर्मशालाएँ हैं, जिनमें कुल ३ कमरे बने हुए हैं। क्षेत्रपर बिजली है तथा जलके लिए कुएँ हैं। क्षेत्रपर गद्दे, रजाइयां, बरतन, चारपाई आदिकी व्यवस्था है तथा क्षेत्रसे आटा, दाल आदि खाद्य वस्तुएँ भी मिल सकती हैं। वार्षिक-मेला
क्षेत्रपर प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णा १ से ५ तक वार्षिक मेला होता है। क्षेत्र-व्यवस्था
इस क्षेत्रकी व्यवस्था निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती है। क्षेत्रकी सारी व्यवस्थाके अतिरिक्त क्षेत्रपर स्थित श्री गुरुदत्त दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय और मलहरामें स्थित जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालयको व्यवस्था भी यही समिति करती है। इनके अतिरिक्त क्षेत्रपर अन्य जो भी संस्थाएँ हैं, उनका भी संचालन यही समिति करती है। क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं
इस क्षेत्रपर निम्नलिखित संस्थाएं कार्य कर रही हैं-श्री गुरुदत्त दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय और दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम । द्रोणगिरि क्षेत्रके विद्यालयकी एक शाखा गुरुकुलके रूपमें मलहरा ग्राममें चल रही थी। कुछ वर्षोंसे वह जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बन गया है। उसके साथ ही श्री गणेशप्रसाद वर्णी दिगम्बर जैन छात्रावास भी है। उदासीनाश्रम क्षेत्रसे लगभग तीन फलाँग दूर है। उसका अपना सुन्दर भवन है। उसके सामने एक विशाल
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जिनालयका निर्माण हो रहा है जिसमें बाहुबली स्वामीके अतिरिक्त २४ तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान की जायेंगी। क्षेत्रपर शिकार-निषेधका राजकीय आदेश
विजावर-नरेश राजा भानुप्रताप (रियासतोंके विलीनीकरणसे पूर्व ) के समयसे इस तीर्थपर शिकार आदि खेलना राज्यकी ओरसे निषिद्ध है। इससे सम्बन्धित फरमान, जो राजदरबारसे जारी किया गया था, इस प्रकार है
_ "नकल हुकम दरवार विजावर इजलास जनाव येतमाहराम मुंशी शंकरदयाल साहब दीवान रियासत मुसवते दरख्वास्त जैन पंचान सभा संधपा जरिये दुलीचन्द वैशाखिया अजना संरक्षक जैन सभा मारु जे २२ मई सन् १९३१ ( ईसवीय दरख्वास्त फर्माये जाने हुक्म न खेलने शिकार क्षेत्र द्रोणगिरि वाकै मौजा सेंधपापर अनीज इसके कि विला इजाजत जैन सभा दीगर कौमके लोग क्षेत्र मजकूरपर न जा सकें हुक्मो इजलास खास रकम जदे २५ मई सन् १९३१ ईसवीय ऐमाद कराये जाने मुश्तहरी कोई शख्स वगैर इजाजत जैन सभा पर्वतपर न जाये न शिकार खेले।
(मुहर) हुक्म हुआ जरिये परचा मुहकमा जंगल अ मुहकमा पुलिसके वास्ते तामील इत्तला दी जावे। तारीख २८ मई सन् १९३१ ई।"
इस फरमान द्वारा द्रोणगिरि पर्वतपर जैन समाजका पूरा अधिकार माना गया है तथा जैन सभाको आज्ञाके बिना शिकार खेलनेपर पाबन्दी लगा दी गयी है। यद्यपि रियासतोंके समाप्त होनेपर उनके कानून और आदेश भी समाप्त हो गये हैं किन्तु यह आदेश कानूनके रूपमें नहीं, परम्पराके रूपमें अब भी प्रचलित और मान्य है। दुखद घटनाएं
इस शताब्दीमें क्षेत्रपर दो अत्यन्त दुखद घटनाएं घटित हुई। एक तो वीर संवत् २४२० में। इस समय एक चरवाहेने पार्श्वनाथ मन्दिरमें प्रतिमाके हाथोंके बीचमें लाठी फंसाकर उसे खण्डित कर दिया था। दूसरी घटना वीर संवत् २४५७ के लगभग हई। उस समय किसीने पार्श्वनाथ स्वामीकी मूर्तिको नासिकासे खण्डित कर दिया था। अपराधी बादमें पकड़ा गया था और उसे दण्ड भी दिया गया था। ये घटनाएं अपराधियोंकी अज्ञानतासे हुई थीं।
रेशन्दीगिरि
निर्वाण-क्षेत्र
श्री रेशन्दीगिरि निर्वाण-क्षेत्र है। इस क्षेत्रका दूसरा नाम नैनागिरि भी है। प्राकृत निर्वाणकाण्डमें इस क्षेत्रके विषयमें निम्नलिखित उल्लेख आया है।
___ 'पासस्स समवसरणे सहिया वरदत्त मुणिवरा पंच।
रिस्सिदे गिरिसिहरे णिवाण गया णमो तेसिं ॥१९॥ ___ अर्थात्, भगवान् पाश्वनाथके समवसरणमें स्वहितके इच्छुक वरदत्त आदि पांच मुनिराज रेशन्दीगिरिके शिखरसे मोक्ष गये। उन्हें नमस्कार है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ये वरदत्त आदि पांच मुनिवरोंके क्या नाम थे, यह किसो पुराण-ग्रन्थमें देखने में नहीं आया। किन्तु इस क्षेत्रके पर्वतस्थित प्रथम मन्दिरमें उन पाँचों मुनियोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं और उनके नाम इस प्रकार अंकित हैं-मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, वरदत्त, गुणदत्त और सायरदत्त । इस गाथासे इतना ज्ञात होता है कि ये पांच मुनि भगवान् पाश्वनाथके समवसरणमें और उनके मुनि-संघमें थे।
इस गाथाके अर्थ और पाठके सम्बन्धमें विद्वानोंमें कुछ मतभेद है। कुछ विद्वान् इस गाथासे यह आशय निकालते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान्का समवसरण इस क्षेत्रपर आया था। उनके इस प्रकारका आशय निकालनेका आधार सम्भवतः भैया भगवतीदास द्वारा किया हुआ इस गाथाका पद्यात्मक हिन्दी अनुवाद है जो इस प्रकार है
'समवसरण श्री पार्श्व जिनंद । रेसिंदीगिरि नयनानंद ।
वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते बन्दो नित धरम जिहाज ॥' ___ इस हिन्दी अनुवादमें रेशन्दीगिरिपर पार्श्वनाथके समवसरणके आगमनविषयक कोई क्रियापद नहीं है और न वरदत्त आदि पांच मुनियोंके वहाँसे मुक्ति-गमनसे सम्बन्धित हो कोई क्रियापद है। सम्भवतः इसीसे कुछ लोग यह आशय निकालते हैं कि पाश्र्वनाथका समवसरण इस क्षेत्रपर आया था। वस्तुतः यह हिन्दी अनुवाद त्रुटिपूर्ण है। मूल गाथासे ऐसा कोई आशय व्यक्त नहीं होता। किन्तु कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि इस गाथाको देखते हुए यह निश्चित धारणा जमती है कि रेशन्दीगिरिपर पार्श्वनाथका समवसरण आया था क्योंकि इस गाथामें स्पष्ट उल्लेख है कि पाश्वनाथके समवसरणमें स्थित वरदत्त आदि पांच मुनि रेशन्दीगिरिसे मुक्त हुए, क्योंकि यदि पाश्वनाथका समवसरण यहाँ न आया होता तो आचार्य 'पार्श्वनाथके समवसरणमें स्थित' यह विशेष पद क्यों रहता। आचार्यने यह पद वस्तुतः एक विशेष उद्देश्यसे दिया है। वह उद्देश्य यह है कि इस क्षेत्रपर पार्श्वनाथका समवसरण जब आया, तभी पाँच मुनियोंने तप किया और शुक्लध्यान द्वारा कर्मोंका नाश कर यहाँसे निर्वाण प्राप्त किया। इसी स्थितिमें 'पार्श्वनाथके समवसरणमें स्थित' इस पदको सार्थकता है।
कुछ विद्वान् 'रिस्सिन्दे' इस पाठको अशुद्ध मानकर इसके स्थानपर 'रिस्सद्धि' शुद्ध पाठ मानते हैं और उसका अर्थ ऋष्यद्रि अर्थात् ऋषिगिरि करते हैं । ऋषिगिरि राजगृहीके पांच पहाड़ोंमें-से एक पहाड़ है। ये विद्वान् वरदत्त आदि मुनियोंका निर्वाण-स्थान रेशन्दीगिरि न मानकर ऋषिगिरिको मानते हैं। इन विद्वानोंने इस पाठ-भेदकी कल्पना किस आधारपर की, यह स्पष्ट नहीं हो पाया। लगता है, संस्कृत निर्वाण-भक्तिके 'ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि बलाहके च' इस पदके 'ऋष्यद्रिके' पाठसे उन्हें ऐसी कल्पना करनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई होगी। किसी प्रतिमें 'रिस्सद्धि' यह पाठ नहीं मिलता।
वस्तुतः 'रिस्सिन्दे' पाठ सर्वथा शुद्ध है। उसका संस्कृत रूप 'रिष्यन्दे अथवा ऋष्यन्दे' बनता है । ऋष्यन्दगिरिका अपभ्रंश होकर रेशन्दगिरि, फिर बोलचालमें रेशन्दीगिरि हो गया।
पं. पन्नालालजी सोनी द्वारा सम्पादित 'क्रियाकलाप में यह गाथा निम्नलिखित रूपमें दी
गयी है
पासस्स समवसरणे गुरुदत्तवरदत्तपंचरिसिपमुहा।
गिरिसिंदे गिरिसिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं॥ इस पाठके अनुसार पार्श्वनाथके समवसरणमें स्थित गुरुदत्त, वरदत्त आदि पाँच मुनि गिरीशेन्द्र (हिमालय)के शिखरसे मुक्त हुए। इस मान्यताका समर्थन किसी अन्य स्रोतसे नहीं होता।
३-२१
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ १७वीं शताब्दीमें हुए पं. चिमणा पण्डितने मराठी भाषामें 'तीर्थवन्दना' लिखी है। उसमें उन्होंने भी गुरुदत्त और वरदत्त मुनियोंका नामोल्लेख करके उनका मुक्ति-स्थान रेशन्दीगिरि ही माना है। इसका मूल पाठ इस प्रकार है।।
'समोसरनरम्य श्री पासोजीचे । रीसिदेगिरि आले होते तयाचे ।
तेथे गुरुदत्त मुनि वरदत्त । तपे झाले पंच यति मुक्तिकांत ॥२४॥' इसी प्रकार सोलहवीं शताब्दीके विद्वान् मेघराजने मराठीमें तीर्थवन्दना लिखी है। उसमें उन्होंने भी रेशन्दीगिरिका ही नाम दिया है। इसका मूल पाठ इस प्रकार है
'वलि मुनि सिद्ध वहुत वरदत्त रंग आदि करीए।
रीसंदीगिरिवर जाण तेहु वांदु भाव धरीए ॥१४॥' गुरुदत्त-वरदत्तसम्बन्धी पाठभेद विशेष महत्त्वका नहीं है । सम्भव है, पांच मुनियोंमें गुरुदत्त और वरदत्त नामक दो मुनि भी रहे हों। किन्तु 'रिस्सिन्दे'के स्थानपर 'रिस्सद्धि' या अन्य किसी पाठकी कल्पना बड़ी क्लिष्ट कल्पना है। परम्परागत रूपसे रेशन्दीगिरिको ही निर्वाण-स्थान माना जाता है । तीर्थवन्दनसम्बन्धी सभी पाठोंमें रेशन्दीगिरिका ही नाम आता है।
रेशन्दीगिरिका नाम नैनागिरि क्यों और किस प्रकार पड़ा, इसका कोई युक्ति-संगत कारण नहीं मिलता। किसी ग्रन्थमें रेशन्दीगिरिका नाम नैनागिरि आया हो, ऐसा भी देखने में नहीं आया। भैया भगवतीदासने निर्वाण-काण्डका जो भाषानुवाद किया है, उसमें 'रेशन्दीगिरि नैनानन्द' आया है। इसमें नेनानन्द रेशन्दोगिरिका विशेषण-परक पद है। सम्भव है, भैया भगवतीदासके कालमें रेशन्दीगिरिको नैनागिरि भी कहा जाता हो और नैनानन्द पदसे उसीकी ओर संकेत किया गया हो। .
हमें इसमें तो तनिक भी सन्देह नहीं है कि वर्तमान रेशन्दीगिरि ही निर्वाण-क्षेत्र रहा है और किसी कारणसे भी हो, इसे ही नैनागिरि कहा जाता है ।
पुरातत्त्व
यहाँ क्षेत्रपर तथा उसके आसपास कुछ पुरातत्त्व-सामग्री प्राप्त होती है। यहाँ जो मूर्तियां खुदाईमें निकली हैं, वे अनुमानतः ११वीं शताब्दीकी हैं। अनुश्रुति है कि लगभग १०० वर्ष पहले बम्होरीनिवासी चौधरी श्यामलालजीको स्वप्न आया। उसमें उन्होंने रेशन्दीगिरि पर्वतपर एक मन्दिर देखा। जब उनकी नींद खुली तो उन्होंने अपने स्वप्नकी चर्चा अन्य धर्म-बन्धुओंसे की। तब निश्चय हुआ कि क्षेत्रपर जाकर खुदाई करायी जाये। क्षेत्रपर स्वप्नमें देखे हुए स्थानपर खुदाई करायी गयी। वहाँ एक प्राचीन मन्दिर भूगर्भसे उत्खननके फलस्वरूप निकला। यह पाश्वनाथ मन्दिर कहलाता है। क्षेत्रपर जो प्राचीन मूर्तियां निकली हैं, वे भी इसी मन्दिरमें रखी हुई हैं। यही मन्दिर यहाँका सबसे प्राचीन मन्दिर कहलाता है। एक शिलालेखके अनुसार, जो मन्दिरकी दीवारमें लगा हुआ है, इस मन्दिरका निर्माण सं. ११०९ में हुआ है। इस प्रकार यह मन्दिर एक हजार वर्षसे भी अधिक प्राचीन है।
इस मन्दिरमें भूगर्भसे प्राप्त १३ प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। वे अपनी रचना-शैलीसे ही मन्दिरकी समकालीन प्रतीत होती हैं। पुरातत्त्व-सामग्रीमें एक वेदिका भी है जो क्षेत्रसे लगभग एक मील दूर जंगलमें है। इसे भी ११वीं-१२वीं शताब्दीका बताया जाता है, यद्यपि यह इतनी प्राचीन नहीं है । इसके अतिरिक्त यहाँ और कोई पुरातत्त्व-सामग्री नहीं मिली है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र-दर्शन
यह पहाड़ी साधारण ऊंची है। यहाँ ३६ जिनालय पहाड़ीके ऊपर हैं और १५ जिनालय मैदानमें सरोवरके निकट हैं । इस प्रकार यहां जिनालयोंकी कुल संख्या ५१ है तथा १ मानस्तम्भ है। इनमें से ३७ मन्दिर शिखरबद्ध हैं। एक मन्दिर सरोवरके मध्यमें पावापुरीके समान बना हुआ है। इसे जल-मन्दिर कहते हैं । . तलहटीके मन्दिर एक परकोटेके अन्दर बने हुए हैं।
__ यह क्षेत्र अपनी प्राकृतिक सुषमाके साथ आध्यात्मिक साधनाका केन्द्र रहा है। इसी प्राकृतिक वैभवसे आकर्षित होकर इस एकान्त निर्जन स्थानमें बरदत्त आदि मुनीश्वरोंने इसे अपनी साधना-स्थली बनाया और यहाँसे मुक्ति प्राप्त करके इसे सिद्धक्षेत्र होनेका गौरव प्रदान किया। पर्वतके मन्दिर
१. पार्श्वनाथ मन्दिर-भगवान् पार्श्वनाथकी बादामी वर्णकी यह खड्गासन प्रतिमा ११ फुटको ( आसनसहित १६ फुट ) है । इसकी प्रतिष्ठा वीर सं. २४७८ ( विक्रम सं. २००९ ) में हुई। इस प्रतिमाके सिरपर सर्प-फणावली नहीं है। चरण-चौकीपर सर्पका लांछन है जो पार्श्वनाथ तीर्थंकरका लांछन है। सिरके पृष्ठभागमें सुन्दर भामण्डल है तथा ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है। परिकरमें विमानमें बैठे हुए देव, चमरेन्द्र और वाद्यवादक हैं।
____ मुख्य वेदियोंके अतिरिक्त ६ वेदियाँ और २२ लघु वेदिकाएँ ( आले ) हैं, जिनमें २४ तीर्थकरोंकी संवत् २४८२ की प्रतिमाएं हैं। इसके अलावा पाश्वनाथके गर्भगृहके दरवाजेपर एक ओर ५ फुट ६ इंच ऊंचो बाहुबली स्वामीकी खड्गासन प्रतिमा है । एक वेदीमें यहाँसे मुक्त हुए मुनिराज मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, वरदत्त, गुणदत्त और सायरदत्तकी खड्गासन श्वेत वर्णकी मूर्तियां विराजमान हैं । इस मन्दिरमें मूर्तियोंकी कुल संख्या ३८ है।
भक्तजन इस मन्दिरको 'बड़े बाबाका मन्दिर', 'चौबीसी जिनालय' आदि कई नामोंसे पुकारते हैं । यह मन्दिर बहुत विशाल है।
२. पार्श्वनाथ मन्दिर-ऊपर दूसरी मंजिलपर यह मन्दिर है। इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणकी १ फुट ४ इंच अवगाहनावाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४६५
३. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा सं. २०१२ में हुई।
४. चन्द्रप्रभ मन्दिर-चन्द्रप्रभ भगवान्की श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा है, जिसकी अवगाहना १ फुट ३ इंच है।
५. अजितनाथ जिनालय कृष्ण पाषाणकी अजितनाथ भगवान्को १ फुट १० इंच ऊंची प्रतिमा है । मूर्ति-लेख नहीं है ।
६. आदिनाथ जिनालय-१ फुट ६ इंच अवगाहनावाली आदिनाथ भगवान्को कृष्ण पाषाणकी यह पदमासन प्रतिमा संवत १८५८ में प्रतिष्ठित हुई।
७. आदिनाथ जिनालय-आदिनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी यह प्रतिमा आसनसहित ३ फुट ७ इंच है। यह पद्मासन है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८५८ में हुई है। इसके आगे वरदत्तादि मुनियोंके दो चरण-चिह्न विराजमान हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ८.शान्तिनाथ जिनालय-भगवान शान्तिनाथकी श्वेतवर्ण पदमासन प्रतिमा २ फूट ५ इंच उन्नत है। यह वीर सं. २४९० में प्रतिष्ठित हुई है। इसके आगे तीन प्रतिमाएं विराजमान हैं। तीनों ही साढ़े सात इंच ऊंची हैं और सं. १५४८ में प्रतिष्ठित हुई हैं। इनमें चन्द्रप्रभकी दो श्वेत वर्णकी हैं और पार्श्वनाथकी एक कृष्ण वर्णकी है।
९. शान्तिनाथ जिनालय-इसमें शान्तिनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना १ फूट ७ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४३ में हुई।
१०. चन्द्रप्रभ मन्दिर-मुंगिया वर्णको चन्द्रप्रभ भगवान्को यह प्रतिमा १ फुट ४ इंच ऊंची है और संवत् १९४२ को प्रतिष्ठित है। इसके पार्श्वमें नमिनाथ भगवान्की साढ़े नौ इंच ऊंची श्वेत वर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १५४८ में हुई है।
११. यह मन्दिर 'बड़ा मन्दिर' कहलाता है। यह उत्खननके फलस्वरूप भूगर्भसे १०० वर्ष पर्व निकला बताया जाता है। यही वह मन्दिर है जिसको चर्चा जैन पुरातत्त्वके सन्दर्भमें पूर्व में की जा चुकी है। मन्दिरके साथ १३ मूर्तियां भी भूगर्भसे प्राप्त हुई थीं और वे भी इसी मन्दिरमें विराजमान हैं। इस मन्दिर और मूर्तियोंकी प्राचीनता बतानेवाला एक शिलालेख इस मन्दिरकी एक दीवारमें लगा हुआ है जिसमें प्रतिष्ठा-काल संवत् ११०९ अंकित है। ___मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथकी है। यह ४ फुट ७ इंच उन्नत है, खड्गासन है और संवत् २०१५ में इसको प्रतिष्ठा हुई। भूगर्भसे प्राप्त १३ मूर्तियोंमें से ९ मूर्तियाँ मुख्य वेदीपर विराजमान हैं और शेष ४ मूर्तियां अलग-अलग चबूतरोंपर हैं। इन मूर्तियोंमें एक गोमेद यक्ष और अम्बिकाकी मूर्ति है जो ३ फुट ऊँची है। यह देशी पाषाणको और भूरे वर्णकी है। देवी गोदमें बालक लिये हुए है। यक्ष-यक्षी दोनों ही अलंकारोंसे सज्जित हैं। दोनोंके किरीट अत्यन्त कलात्मक हैं । दोनोंके ऊपर जो आम्र-स्तवक है, उसकी कला भी असाधारण है। आम्रशाखाओंपर एक बानर चढ़ता हुआ दिखाई देता है। उसके ऊपर नेमिनाथ तीर्थंकरको पद्मासन प्रतिमा है । मूर्तिके हाथ खण्डित हैं।
___ एक मूर्ति ४ फुट ऊँची है। यह ऋषभदेवकी पद्मासन प्रतिमा है। प्रतिमाके सिरपर तीन छत्र हैं। सिरके दोनों ओर गजराज खड़े हुए हैं। छत्रोंके दोनों पार्यों में माला लिये हुए नभचारी गन्धर्व हैं । उनके नीचे ४ खण्ड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र विनयमुद्रामें खड़े हैं।
एक मूर्तिकी अवगाहना ३ फुट ८ इंच है। इस शिलाफलकमें दोनों ओर जो हाथी बने हैं, उनमें से एक खण्डित है। चमरवाहकोंके नीचे दो भक्त हाथ जोड़े हुए बैठे हैं। मूर्तिके अधोभागमें यक्ष-यक्षी भी उत्कीर्ण हैं । मूर्तिकी छातीपर श्रीवत्स है । मूर्तिका एक कान खण्डित है।
५ फुटकी एक अन्य मूर्ति ऋषभदेवकी है। परिकर अन्य मूर्तियोंके समान है। मूर्तिके हाथ, पैर, नाक वगैरह खण्डित हैं। छत्रत्रयीके बगलमें एक ओर गज नहीं है। एक चमरेन्द्रका सिर खण्डित है।
१२. चन्द्रप्रभ जिनालय-इसमें भगवान् चन्द्रप्रभकी २ फुट ऊँची कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा है जो संवत् २००२ में प्रतिष्ठित की गयी। इस वेदीमें दो मूर्तियां और हैं। इनके अतिरिक्त दो प्राचीन मूर्तियाँ अलग-अलग वेदियोंमें विराजमान हैं।
१३. अभिनन्दननाथ मन्दिर-यहाँ अभिनन्दननाथ भगवान्की कृष्ण पाषाणकी २ फुट ७ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है। इसका संवत् पढ़ा नहीं गया। इसके अतिरिक्त ३ पाषाण-मूर्तियां और हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१६९ १४. मुनिसुव्रतनाथ मन्दिर-इसमें भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन मूर्ति वीर संवत् २४५१ में प्रतिष्ठित हुई। इसकी अवगाहना २ फुट ५ इंच है। पांच मूर्तियाँ और हैं । इस मन्दिरके आगे मानस्तम्भ है।
१५. मुनिसुव्रतनाथ मन्दिर-यहाँ श्वेत वर्णकी भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी पद्मासन प्रतिमा है। यह २ फुट ६ इंच ऊंची है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४३ में हुई।
१६. नेमिनाथ मन्दिर-यहाँ नेमिनाथकी १ फुट ३ इंच उन्नत कृष्ण वर्णको पद्मासन प्रतिमा है। यह संवत् १९५५ में प्रतिष्ठित हुई।
१७. मुनिसुव्रतनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें विराजमान मुनिसुव्रतनाथ मूर्तिकी अवगाहना ३ फुटकी है। यह कृष्ण पाषाणको है, पद्मासन है और वीर संवत् २४८२ में प्रतिष्ठित हुई है।
____१८. चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेतवणं पद्मासन प्रतिमाकी अवगाहना १ फुट ५ इंच है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९८३ में हुई।
१९. अजितनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें प्रतिष्ठित प्रतिमाकी ऊँचाई २ फुट ८ इंच है। यह श्वेत पाषाणकी पद्मासन है और संवत् १९४३ में इसकी प्रतिष्ठा हुई।
२०. नेमिनाथ मन्दिर-यहाँ वीर संवत् २४६४ में प्रतिष्ठित नेमिनाथको १ फुट ३ इंच उन्नत कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा है।
२१. चन्द्रप्रभ मन्दिर-इसमें मूंगिया वर्णकी चन्द्रप्रभ भगवान्की प्रतिमा है । यह १ फुट ७ इंच ऊँची है, पद्मासन है और संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित हुई है।
२२. पार्श्वनाथ मन्दिर-इस मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथकी है, पद्मासन है, कृष्ण पाषाणकी निर्मित है और संवत् १९४३ में इसकी प्रतिष्ठा हुई है। इस वेदीपर एक कृष्ण वर्णवाली मूर्ति और विराजमान है।
२३. नेमिनाथ मन्दिर-यहां भगवान् नेमिनाथकी १ फुट ७ इंच ऊंची श्वेत पाषाणकी प्रतिमा है । यह पद्मासनमें आसीन है और संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित करायी गयी है।
२४. चन्द्रप्रभ मन्दिर-इस मन्दिरमें श्वेत पाषाणकी १ फुट उन्नत चन्द्रप्रभकी मूर्ति है। यह पद्मासन मुद्रामें आसीन है और संवत् १९४२ में प्रतिष्ठित हुई है।
२५. पाश्र्वनाथ जिनालय-यहाँ भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेत वर्णकी प्रतिमा है। यह पद्मासन है, २ फुट समुन्नत है और संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित हुई है।
२६. चन्द्रप्रभ जिनालय-यहां भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेत पाषाणकी प्रतिमा है। यह पद्मासन है। इसका माप १ फुट २ इंच है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४२ में हुई है। इस मूर्तिके अलावा एक कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा और विराजमान है।
२७. चन्द्रप्रभ जिनालय-यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें विराजमान है। यह श्वेत वर्णकी है और १ फुट ऊँची है। इस मूर्तिके पीठासनपर लेख नहीं है।
२८. पार्श्वनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें पाश्वनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी संवत् १९९५ की प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है।
२९. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यहाँ भगवान् चन्द्रप्रभकी यह मूर्ति १ फुट ५ इंच उत्तुंग श्वेतवर्ण और पद्मासन है।
३०. अजितनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें भगवान् अजितनाथकी ५ फुट अवगाहनावाली कृष्ण पाषाणको प्रतिमा है । यह संवत् १९४८ में प्रतिष्ठित हुई है।
३१. एक गुमटीमें वरदत्तादि मुनियोंके चरण-चिह्न विराजमान है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ३२. ऋषभदेव मन्दिर-यहां ऋषभदेव भगवान्की श्वेतवर्ण, २ फुट ३ इंच ऊंचो पद्मासन मूर्ति है । संवत् १९५२ में प्रतिष्ठित हुई है।
३३. चन्दप्रभ मन्दिर-इसमें चन्द्रप्रभ भगवान्की श्वेतवर्ण तथा १ फुट ३ इंच उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा है । मूर्तिलेख न होनेसे प्रतिष्ठा-काल ज्ञात नहीं हुआ।
३४. अभिनन्दननाथ मन्दिर-श्वेतवर्णको वीर संवत् २४७८ में प्रतिष्ठित और २ फुट २ इंच ऊँची अभिनन्दननाथको पदमासन प्रतिमा इस मन्दिर में विराजमान है।
३५. मेरु मन्दिर-इस मन्दिरमें चरणचिह्न विराजमान हैं।
३६. मेरु मन्दिर-इस मन्दिरमें अन्तःप्रदक्षिणा-पथसे गन्धकुटो तक पहुंचते हैं । गन्धकुटीमें चन्द्रप्रभकी श्वेत पाषाणकी १ फुट २ इंच ऊंची प्रतिमा विराजमान है। यह पद्मासन है और संवत् २००८ में प्रतिष्ठित हुई है।
मानस्तम्भ-मेरु मन्दिरके निकट ही मानस्तम्भ बना हुआ है। - इस पहाड़ीपर जैन मन्दिरोंका यह गुच्छक अधिक विस्तृत भूभागमें फैला हुआ नहीं है। इसलिए दर्शन करने में अधिक समय नहीं लगता। यहाँको प्रबन्ध समितिकी उदारताके कारण एक हिन्दू बाबाने जैन मन्दिर-गुच्छकके प्रायः मध्यमें एक हनुमान मन्दिर बना लिया है और कुछ ही वर्षों में उसे काफी बढ़ा लिया है, अस्तु । मन्दिरों तक जानेका मार्ग पक्का है । प्रथम मन्दिरके बाहर कुछ प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं जो भूगर्भसे प्राप्त हुई हैं। उनमें अम्बिकाकी भी एक सुन्दर मूर्ति है। ये मूर्तियाँ प्रायः ११वीं शताब्दीकी प्रतीत होती हैं। ये समस्त मन्दिर एक अहातेके अन्दर हैं। - पहाड़ीपर खड़े होकर सरोवरको ओर दृष्टिपात करनेपर दृश्य बड़ा आकर्षक प्रतीत होता है। मध्यमें जल-मन्दिर, उस ओर मैदानके शिखरबद्ध जिनालय और इस ओर पवंतकी मन्दिरमाला, जिनपर उत्तुंग शिखर शोभायमान हैं। तलहटीके मन्दिर
१. जल-मन्दिर-एक विशाल सरोवरके मध्यमें एक भव्य मन्दिर बना हुआ है। मन्दिर तक जानेके लिए पुल है। पुलसे जानेपर सर्वप्रथम चबूतरा मिलता है। चबूतरेपर एक पक्का कुआँ बना हुआ है। मन्दिरमें मूलनायक भगवान् महावीरकी श्वेत वर्णको पद्मासन प्रतिमा है जो २ फुट ऊंची है और वीर सं. २४८२ में प्रतिष्ठित हुई है। समवसरणमें ५ पाषाणको और ९ धातुकी मूर्तियां हैं।
पुलके पास सड़क किनारे पाषाणका एक सूचना-पट लगा हुआ है । उसमें राज्यकी ओरसे सरोवरमें मछली पकडने तथा पर्वत और जंगलमें किसी पश-पक्षीका शिकार करनेपर कडा प्रतिबन्ध लगाया गया है और इसकी अवहेलना करनेपर कठोर दण्डकी व्यवस्था है। - २. सुमतिनाथ मन्दिर-यहां भगवान् सुमतिनाथकी श्वेत वर्णकी २ फुट ऊंची प्रतिमा संवत् २००८ में प्रतिष्ठित हुई। यह पद्मासनासीन है। वेदोपर एक धातु-प्रतिमा भी है।
३. नेमिनाथ मन्दिर-नेमिनाथकी कृष्ण पाषाणकी १ फुट ८ इंच ऊँची यह पद्मासन मूर्ति संवत् १९७९ में प्रतिष्ठित हुई।
४. नेमिनाथ मन्दिर-यह मूर्ति १ फुट ५ इंच ऊँची है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६६ में हुई। शेष सब कुछ मन्दिर नं. ३ की मूर्तिके समान है।
५. चन्द्रप्रभ मन्दिर-श्वेतवर्ण, १ फुट १० इंच ऊंची इस पद्मासन मूर्तिकी प्रतिष्ठा संवत् १९५५ में हुई। इस मन्दिरमें ४ पाषाणको तथा २० धातुकी छोटी मूर्तियाँ हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ६. पार्श्वनाथ मन्दिर-यहां पाश्वनाथकी सिलेटी वर्णकी, २ फुट २ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है और इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १९१७ है। इस वेदीपर मूलनायकके अतिरिक्त २ पाषाणकी और ५ धातुको प्रतिमाएं हैं।
७. पार्श्वनाथ मन्दिर-यहां चाँदीकी एक वेदीमें धातुकी साढ़े-सात इंच ऊँची एक पाश्वनाथकी प्रतिमा विराजमान है। यह संवत् १८८१ की है। इस प्रतिमाके अतिरिक्त इस वेदीमें २ तीर्थंकर मूर्तियाँ और दो चमरवाहकोंको धातु-मूर्तियां हैं।
८. चन्द्रप्रभ मन्दिर-मूलनायक भगवान् चन्द्रप्रभकी प्रतिमा श्वेत पाषाणकी है। इसकी अवगाहना २ फुट है। इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १९६७ है। यह पद्मासन मुद्रामें है। इसके अतिरिक्त ३ पाषाणकी और २१ धातुकी मूर्तियां हैं।
९. चन्द्रप्रभ मन्दिर-इसमें श्वेत पाषाणकी १ फुट ४ इंच उन्नत पद्मासन मूर्ति है। यह संवत् १९५५ में प्रतिष्ठित हुई है।
१०. नेमिनाथ मन्दिर-इसकी वेदीपर मूलनायक नेमिनाथकी तथा ४ अन्य पाषाणप्रतिमाएं विराजमान हैं। मूलनायकका वर्ण श्वेत है। इसकी माप १ फुट ३ इंच है। संवत् १९४८ में यह प्रतिष्ठित हुई। यह पद्मासन है।
११. पार्श्वनाथ मन्दिर-यहाँकी पार्श्वनाथकी प्रतिमा पूर्वोक्त नेमिनाथ प्रतिमाके साथ प्रतिष्ठित हुई। इसका वर्ण कृष्ण है और इसकी अवगाहना २ फुट २ इंच है। यह भी पद्मासन है।
१२. पाश्वनाथ मन्दिर-यहाँको पार्श्वनाथकी मूर्ति भी संवत् १९४८ में प्रतिष्ठित हुई। यह श्वेतवर्ण, पद्मासन और १ फुट ९ इंच अवगाहनाकी है।
१३. ऋषभदेव मन्दिर--ऋषभदेवकी इस पाषाण-प्रतिमाकी प्रतिष्ठा भी संवत् १९४८ में हुई है। इसका वर्ण श्वेत है।
१४. पीतलकी एक वेदीमें कृष्ण वर्णकी तीन पाषाण-प्रतिमाएं विराजमान हैं।
१५. ऋषभदेव मन्दिर-इसकी भी प्रतिष्ठा संवत् १९४८ में हुई थी। यह श्वेतवर्ण एवं पद्मासन है और इसकी माप १ फुट ८ इंच है। इसके अतिरिक्त वेदोपर तीर्थक्ररोंकी ४ पाषाणप्रतिमाएं हैं और सिद्ध भगवान्की २ धातु-प्रतिमाएं हैं। अतिशय ___कभी-कभी इस क्षेत्रपर ऐसी घटना भी घटित हो जाती है जिसके कार्य-कारणका पता साधारण बुद्धि द्वारा नहीं चल पाता। ऐसी असाधारण घटनाको ही बोलचालको भाषामें अतिशय या चमत्कार कहा जाने लगता है।
घटना अद्भुत है। यह प्रत्यक्षदर्शियोंसे सुनी हुई है। ४० वर्ष पहलेकी बात है। एक बैल मन्दिर नं. २ में जीनेसे ऊपर चढ़ गया और कार्निशपर आ गया। जब लोगोंको पता चला तो वहाँ एकत्र हो गये, किन्तु सभी किंकर्तव्यविमूढ़ थे। बैल न पीछे लौट सकता था, न मुड़ सकता था, और गिरते ही उसके मरनेका भय था। लाचार होकर उपद्रवकी शान्तिके लिए मन्दिरमें शान्तिविधान और हवन किया गया। हवन करते समय आवाज आयी-तुम लोग चिन्ता मत करो, बैल सकुशल उतर जायेगा। सब लोग निश्चिन्त होकर धर्मशालामें लौट आये। जब लोग लौट रहे थे, तब सबने आश्चर्यसे देखा कि बैल तालाबमें चर रहा था। - इस प्रकारकी अद्भुत बातें यहां अनेक बार देखनेको मिली हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
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दर्शनीय स्थल
क्षेत्रके निकट नदीकी धाराके मध्यमें ५० फुट ऊँची एक पाषाण शिला है । कहा जाता है। कि इसी शिलापर तप करते हुए वरदत्त आदि पाँच मुनिराज मुक्त हुए थे । अतः यह शिला सिद्धशिला कही जाती है । इसके अतिरिक्त क्षेत्रसे लगभग एक मील दूर जंगल में एक वेदिका है जो काफी विशाल है । देखनेसे प्रतीत होता है कि वेदिका काफी प्राचीन है ।
धर्मशालाएँ
क्षेत्रपर ३ धर्मशालाएँ हैं - ( १ ) सेठ शोभाराम मलैया सागर द्वारा निर्मित, ( २ ) सि. मूलचन्द गिरधारीलाल विलाई द्वारा निर्मित और ( ३ ) सागरवालोंकी । इन धर्मशालाओंमें कुल मिलाकर ५२ कमरे और ३ हॉल हैं । क्षेत्रपर बिजली है, जलके लिए सरोवर और कुएं हैं । बस्ती बहुत छोटी सो है, किन्तु क्षेत्रपर खाद्य सामग्री मिल जाती है । क्षेत्र दलपतपुर बकस्वाहा सड़क बिलकुल किनारे है ।
मेला
क्षेत्रका वार्षिक मेला प्रतिवर्ष अगहन सुदी ११ से १५ तक होता है । इस अवसरपर रथोत्सव भी होता है ।
क्षेत्रपर तीन उत्सवोंके अवसरपर लगे मेले विशेष उल्लेखनीय हैं । प्रथम उत्सव संवत् १९४३ में हुआ । इस वर्षं यहाँ तीन गजरथ चले थे। दूसरा उत्सव संवत् २००८ में था । उस वर्षं यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी। तीसरा उत्सव संवत् २०१३ में हुआ और उस वर्ष यहाँ एक गजरथ चला था । इन उत्सवोंमें पंचकल्याणकपूर्वक बिम्ब-प्रतिष्ठाएँ हुई थीं। इन प्रतिष्ठोत्सवों में सहस्रों व्यक्तियोंने भाग लिया था ।
व्यवस्था
क्षेत्रकी व्यवस्था प्रान्तीय समाज द्वारा निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती है । प्रबन्ध समिति - का चुनाव हर तीसरे वर्षं वार्षिक मेलेके अवसरपर होता है ।
अवस्थिति और मार्ग
रेशन्दीगिरि (नैनागिरि ) सिद्धक्षेत्र मध्यप्रदेश के छतरपुर जिलेमें अवस्थित है। यहाँ पहुँचने का मार्गं इस प्रकार है - सागर-कानपुर रोडपर सागरसे ४५ कि. मी. दूर दलपतपुर गाँव है । यहाँ से पूर्व की ओर दलपतपुर - बकस्वाहा मार्गपर दलपतपुर से १२ कि. मी. दूर यह क्षेत्र अवस्थित है। सड़क पक्की है । दलपतपुरमें क्षेत्रको धर्मंशाला भी है । सागरसे रेशन्दीगिरिके लिए सीधे बस भी जाती है। प्रथम सागर - बकस्वाहा और द्वितीय सागर-विजावर मागं, दोनों ही बस - मार्गों पर रेशन्दीगिरि पड़ता है।
पजनारी
मार्ग और अवस्थिति
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पजनारी जिला सागर में बण्डासे पश्चिम दिशा की ओर, बण्डा - बाँदरी रोडपर ८ कि. मी. दूर बाकरई नदी के तटपर स्थित है । इसी प्रकार सागरसे
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१६९ कानपुर-रोडपर २२ कि. मी. कन्दारी ग्राम है, वहाँसे यह क्षेत्र ५ कि. मी. है। ग्राम छोटा-सा है। ग्राममें कृषकोंकी आबादी है । मन्दिर छोटी-सी पहाड़ीपर है जो ५०० फुट ऊंची है। क्षेत्र-दर्शन ___मन्दिरके चारों ओर १०० फुट लम्बा अहाता है। मन्दिर ऊंची चौकीपर बना हुआ है। गर्भगृहमें मूलनायक भगवान् शान्तिनाथकी देशी पाषाणकी ४ फुट ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। उसके दोनों पार्यों में कुन्थुनाथ और अरहनाथकी ६ फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमाएं हैं। मन्दिरके निकट एक मठ था। किन्तु गांववालोंने नदी-तटपर जैन धर्मशालाके निकट शिव मन्दिर बनवाते समय मठके कलापूर्ण पाषाण निकालकर उस मन्दिरमें लगा दिये। ये पाषाण इस मन्दिरमें अब भी लगे हुए हैं। मठके भग्नावशेष तालाबके किनारे बिखरे पड़े हैं। मठके समीप एक गुफा है। यह गुफा कितनी लम्बी है और इसका अन्त कहाँ होता है यह ज्ञात नहीं हो सका। ३० फुट अन्दर जानेपर गुफा मुड़ती है और वहाँसे २० फुट सीधा मार्ग है। यहाँ निकटवर्ती प्रदेशमें यह किंवदन्ती प्रचलित है कि पहले मठमें एक योगी रहता था। वह भोंहरीके मार्गसे दो मील भीतर जाकर जल लाया करता था।
पहाड़ीकी तलहटीमें उद्यान है तथा इसके निकट ही सरोवर है। उद्यानमें प्राचीन बावड़ी है। बाकरई नदी पहाड़ीके चरणोंको तीन ओरसे धोती हुई बहती है। सुना जाता है कि ४०-६० वर्ष पूर्व तक पहाड़ीपर कुछ खण्डित जैन प्रतिमाएं पड़ी हुई थीं जिन्हें सम्भवतः उस समय इस नदीमें विसर्जित कर दिया गया। पहले मन्दिरके निकट आबादी थी। आज वहाँ भवनोंके खण्डहर इस बातके साक्षी हैं।
__ पहाड़ीके निकट नदी-तटपर जैन धर्मशाला बन चुकी है। मन्दिर और मूर्तियोंकी निर्माणशैलीसे ज्ञात होता है कि १०वीं-११वीं शताब्दीमें ( चन्देलोंके शासन-कालमें ) मन्दिर और मूर्तियोंका निर्माण हुआ था।
बीना-बारहा
मार्ग
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीना-बारहा मध्यप्रदेशके सागर जिलेके अन्तर्गत रहली तहसीलमें स्थित है। यहाँ जानेके लिए मध्य रेलवेके सागर या करेली-कटनी-बीनासे आनेवालोंको सागर और जबलपुर-इटारसीसे आनेवालोंको करेली-स्टेशनपर उतरना चाहिए। सागर
नरसिंहपुर रोडपर सागरसे देवरीकलाँ ६६ कि. मी. है और रहलीसे ३२ कि. मी. है। सड़क पक्की है। नियमित बस-सेवा है। देवरीकलांसे बीना वाया खैरी ६ कि. मी. है। मार्ग कच्चा है। बैलगाड़ी द्वारा जा सकते हैं । पक्की सड़क बननेवाली है। इसका पोस्ट ऑफिस देवरीकला है। . मन्दिर निर्माणका इतिहास
इस क्षेत्रपर ६ जैन मन्दिर हैं। उनमें मुख्य मन्दिर भगवान् शान्तिनाथका है। भगवान् शान्तिनाथकी खड्गासन प्रतिमा १५ फुट अवगाहनावाली है। इस प्रतिमाके चमत्कारोंके सम्बन्धमें नाना भांतिकी अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं।
३-२२
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१७०
भारतके दिगम्बर जैन तो यह क्षेत्र किस प्रकार प्रकाशमें आया और भगवान् शान्तिनाथका यह मुख्य मन्दिर कब, किसने बनवाया, इसके सम्बन्धमें कोई प्रमाण नहीं मिलते। इतिहासके नामपर कुछ किंवदन्तियाँ इस सम्बन्धमें प्रचलित हैं। इन किंवदन्तियोंमें कितना तथ्य है, यह जाननेका भी कोई साधन सुलभ नहीं है। अतः क्षेत्रके इतिहासके लिए हमें इन किंवदन्तियोंपर ही निर्भर रहना पड़ता है।
इस सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहुत प्रचलित है जो इस प्रकार है
गोंडवानेमें सत्तापर जब गोंडोंका प्रभुत्व था, तब बेनु नामक कोई छोटा-सा राजा यहाँ राज्य करता था। वह बड़ा न्यायपरायण और वीर था। उसीके नामपर इस नगरका नाम बीना पड़ गया। उसकी रानीका नाम कमलावती था। वह रूप और शीलके साथ ही वीरताकी भी खान थी। युद्धके समय वह राजाके साथ युद्धपर जाती और शत्रुओंसे मोर्चा लेती थी। उसके पास एक पंखा था जिसका कोई भाग तोड़नेपर शत्रु-सेना खण्ड-खण्ड हो जाती थी। कमलके पत्तोंपर चलकर वह पानी भरकर लाती थी। राजा-रानी दोनोंकी जैन धर्मपर पूर्ण आस्था थी।
___ बीनाके निकट मलखेड़ा ग्राममें एक धर्मात्मा जैन रहते थे। वे बंजी करके अपनी जीविका चलाते थे। बंजीके सिलसिलेमें उन्हें बीना भी जाना पड़ता था। किन्तु जब वे बीना जाते तो एक स्थानपर बराबर उन्हें ठोकर लगती थी। एक दिन उन्हें जोरकी ठोकर लगी। वे जब वापस अपने घर पहुंचे तो उस ठोकरके सम्बन्धमें ही विचार कर रहे थे। उसी रातको उन्हें स्वप्न आया। स्वप्नमें उनसे कोई दिव्य पुरुष कह रहा था-"तुम्हें जहां ठोकर लगी है, वहां खुदाई करो। वहां तुम्हें भगवान् शान्तिनाथके दर्शन होंगे।" स्वप्न समाप्त होते ही उनकी नींद खुल गयी और वे शेष रात्रिमें उस स्वप्नके बारेमें ही विचार करते रहे। उन्हें स्वप्नकी सत्यतापर विश्वास हो गया। उन्होंने दूसरे दिन जाकर खुदाई करनेका निश्चय कर लिया।
दूसरे दिन वे किसीसे कुछ कहे-सुने बिना फावड़ा लेकर ठोकरवाले स्थानपर पहुंचे और खुदाई करने लगे। उन्होंने इस प्रकार तीन दिन तक बड़े परिश्रमपूर्वक खुदाई की। तीसरे दिन रात्रिमें उन्हें फिर स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्नमें वही दिव्य पुरुष उनसे कह रहा था-"तुम्हें कल भगवान् शान्तिनाथके दर्शन होंगे। तुम भगवान् शान्तिनाथको जिस स्थानपर विराजमान करना चाहो, वहाँ चले जाना। मूर्ति स्वयं तुम्हारे पोछे-पीछे आ जायेगी। किन्तु मुड़कर देखनेकी भूल हरगिज न करना।"
दूसरे दिन उन्होंने फिर खुदाई प्रारम्भ कर दी और साधारण परिश्रमसे ही उन्हें भगवान् शान्तिनाथको उस अत्यन्त प्रशान्त, सौम्य और सातिशय प्रतिमाके दर्शन हुए। दर्शन करके वे आह्लादसे भर उठे और भक्तिके आवेगमें बरबस उनके मुखसे निकला-"भगवान् शान्तिनाथकी जय।' वे प्रभुके चरणोंमें लोट गये और बहुत समय तक वे भक्तिप्लावित हृदयसे भक्ति-गान और स्तुति करते रहे।
उनका मन उस समय श्रद्धाच्छन्न था। उनकी समग्र चेतना प्रभु-चरणोंमें समर्पित थी। वे ऐसी ही भावाविष्ट दशामें वहाँसे चल दिये। शायद मील-भर चले होंगे कि उन्होंने मुड़कर पीछेकी ओर देखा-भगवान् आ रहे हैं या नहीं। उन्हें यह देखकर हार्दिक सन्तोष हआ कि भगवान् कुछ दूरपर विद्यमान हैं। वे पुनः चल दिये। किन्तु भगवान् तो जहाँ थे, वहीं थे। वे अचल हो गये थे। वे वहाँसे रंचमात्र भी नहीं हटे, प्रयत्ल करनेपर भी नहीं हटे। भक्तको अपनी भूलपर भारी दुःख हुआ, आंखें बरसने लगीं, किन्तु भगवान् तो जैसे वहीं समाधिलीन हो गये थे।
यह घटना चर्चा बनकर जैन समाजमें चारों ओर फैल गयी। हजारों भक्तोंकी भीड़ जुट
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ गयी। तब वहींपर मन्दिर-निर्माण करनेका निश्चय हुआ। कुछ दिनोंमें ही वहां एक भव्य मन्दिरका निर्माण हुआ और भगवान् शान्तिनाथ उसमें प्रतिष्ठित कर दिये गये।
भगवान् शान्तिनाथकी यह मूर्ति चमत्कारी है। इसके चमत्कारोंकी कहानियाँ अब भी सुनी जाती हैं । जैन और जैनेतर जनता यहाँ मनौती मानने अब भी जाती रहती है।
शान्तिनाथकी मति मन्दिर निर्माणसे पर्व कालकी है। यह भगर्भसे निकाली गयी है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यहां पहले कोई जिनालय था, जो किन्हीं कारणोंसे ध्वस्त हो गया और मूर्ति मलबे में दब गयी। इस मन्दिरका निर्माण संवत् १८०३ में पाण्डे जयचन्दने कराया। इस संवत्की प्रतिष्ठित कुछ मूर्तियाँ भी इस मन्दिरमें विद्यमान हैं। क्षेत्र-दर्शन
क्षेत्रपर पहुँचनेसे पूर्व ग्रामके बाहर एक छोटी नदी मिलती है, जिसका नाम सुखचैन है । इसपर पुल नहीं है । नदी पार करनेपर ग्राममें प्रवेश करते हैं। ग्राममें प्राचीन भग्नावशेष बिखरे हुए हैं। कई स्थानोंपर मन्दिरोंके स्तम्भ, तोरण और मूर्तियां पड़ी हुई हैं। यहाँके कई मकानोंमें प्राचीन मन्दिरोंके इन स्तम्भों और पाषाणोंका उदारताके साथ उपयोग किया गया है । अज्ञानताके कारण, शताब्दियों पूर्वका यह कला-वैभव उपेक्षित दशामें गली-कूचोंमें पड़ा हुआ है।
गाँवके एक सिरेपर क्षेत्र है। क्षेत्रपर कोई प्रवेश-द्वार नहीं है। वहाँ अहाता भी नहीं है। सर्वप्रथम क्षेत्रका प्राचीन कुआं मिलता है, किन्तु यह कुआँ ग्रीष्मकालमें अथवा उत्सवके अवसरपर जलकी पूर्ति नहीं कर पाता। दायीं ओर जिनालय और दालाननुमा धर्मशालाएँ हैं। बायीं ओर क्षेत्र-कार्यालय और कमरोंवाली धर्मशाला है।
मन्दिर नं. १-प्रथम मन्दिर भगवान् महावीरका है। इसे मामा-भानजेका मन्दिर भी कहते हैं । यह अद्भत नाम क्यों पड़ा, यह बात भी बड़ी रोचक है। इस मन्दिरमें दो बड़ी मूर्तियाँ हैं-महावीर और चन्द्रप्रभकी। महावीरकी मूर्ति गर्भालयमें सामनेकी दीवारमें चिनी हुई है। यह १३ फुट ऊंची और १२ फुट ४ इंच चौड़ी है। इसके आगे चन्द्रप्रभकी ६ फुट ९ इंच ऊंची मूर्ति विराजमान है । दोनों ही मूर्तियां पद्मासन हैं। ग्रामीण जनतामें यह कहनेका प्रचलन हो गया है कि चन्द्रप्रभ महावीरकी गोदमें बैठे हैं। इसी कारण इसे लोग मामाके संरक्षण या गोदमें भानजेको मानकर इस मन्दिरको मामा-भानजेका मन्दिर कहने लगे हैं। इस मन्दिरका निर्माण गाढ़ाघाटके सिंघई सेवकरामने कराया था।
प्रथम मन्दिरका द्वार विशाल है। प्रवेश-द्वारके ऊपर नौबतखाना बना हुआ है। इसके बाद एक लम्बा दालान और सहन मिलता है। तब गर्भगृहमें प्रवेश करते हैं। गर्भगृहमें सामने दीवारमें भगवान् महावीरकी ईंट-चूनेकी बनी हुई कृष्ण वर्णकी पद्मासन मूर्ति है । मूर्तिके आसनपर लेख नहीं है। चिह्न भी स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता। अनुश्रुतिके आधारपर इसे महावीर भगवान्की मूर्ति माना जाता है। मूर्तिके ऊपर नारियलकी जली हुई जटाओंको धीमें मिलाकर उसका लेप किया जाता है। इसकी अवगाहना १३ फुट है तथा चौड़ाई १२ फुट ४ इंच है । मूर्तिको छातीपर श्रीवत्स लांछन है।
इसके आगे भगवान् चन्द्रप्रभकी रक्ताभ पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके कन्धोंपर केशोंकी लटें पड़ी हुई हैं। इसके केश मुकुटाकार हैं। छातीपर श्रीवत्स चिह्न है। इसके पीठासनपर अर्धचन्द्र लांछन है। इस कारण यह चन्द्रप्रभ भगवान्की मूर्ति मानी जाती है। मूर्तिकी चरण-चौकीपर संस्कृत भाषामें लेख भी अंकित है। लेखका आशय इस प्रकार है-गोमिल देशमें
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सदाशिवके राज्यमें संवत् १८३२ फाल्गुन शुक्ला १३ बुधवारको परवार-ज्ञातीय गोहिल-गोत्री बीनानगर निवासी मोदी हरिसेवकके पुत्र मतिरामने इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी। यह मूर्ति ६ फुट ९ इंच ऊंची है।
यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि बीना-बारहामें दो बातें विशेष उल्लेख योग्य हैं। प्रथम तो यह कि यहाँ ईंट-चूनेसे मूर्ति निर्मित की गयी है। दक्षिण भारतमें इस प्रकारको अनेक मूर्तियां मिलती हैं, जिनकी भावाभिव्यंजना और कमनीयताको देखकर कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि मूर्तियां इंट-चूनेको बनी हुई हैं। किन्तु उत्तर भारतमें इस प्रकारकी मूर्तियोंका प्रचलन प्रायः नहीं रहा । इधर यह ऐसा प्रथम प्रयोग था, ऐसा लगता है। मूर्तिको देखकर यह भी प्रतीत होता है कि इस मूर्तिको गढ़नेवाला सम्भवतः मूर्तिकार न होकर कोई राजशिल्पी रहा होगा। द्वितीय उल्लेखनीय बात, जिसकी ओर दर्शकका ध्यान सहज ही आकर्षित हो जाता है, यह है कि यहाँ केशोंकी लटें केवल ऋषभदेवकी मूर्तियों तक ही सीमित नहीं रहीं, बल्कि मूर्तिशिल्पीने अन्य भी कई तीर्थंकर-मतियोंके स्कन्धों तक लटोंका अंकन कर दिया है। इसीलिए यहाँ ऋषभदेवके अतिरिक्त महावीर, अजितनाथ, चन्द्रप्रभ, नेमिनाथ और पाश्वनाथकी मूर्तियोंपर भी लटें और केश-किरीट दिखाई देते हैं। शास्त्रीय नियमों और परम्पराओंको स्वतन्त्रचेता कलाकारकी यह एक खुली चुनौती थी।
बड़ी मूर्तिके दोनों ओर दीवारमें दो मूर्तियां हैं, दायीं ओर भगवान् ऋषभदेवकी और बायीं ओर भगवान् अजितनाथकी। ऋषभदेवकी मूर्ति कत्थई वर्णकी है। सिरके दोनों पाश्र्यों में गजलक्ष्मी हैं तथा देवियाँ पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए आकाशमें दृष्टिगोचर हो रही हैं । भगवान्के दोनों ओर चमरेन्द्र सेवामें खड़े हुए हैं। भगवान् अजितनाथका वर्ण और परिकर भी ऐसा ही है।
___ बायीं ओरकी दीवारमें तीन पैनल हैं। दायीं ओरके पैनल में ऋषभदेवकी कायोत्सर्गासन प्रतिमा है। सिरके पीछे भामण्डल सुशोभित हो रहा है और सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। छत्रोंके ऊपर दुन्दुभिवादक हैं। उसके दोनों ओर गज हैं। सिरके दोनों पावों में पुष्पमाल लिये नभचारी देव दीख पड़ते हैं। नीचे चमरवाहक खड़े हैं। पीठासनपर मध्यमें लांछनके रूपमें ऋषभ बना हुआ है तथा कोनोंपर दो भक्त बैठे हुए हैं। - मध्य पैनलमें भगवान् पार्श्वनाथ खड्गासन मुद्रामें विराजमान हैं । अवगाहना ३ फुट ३ इंच है। परिकरमें छत्र, पुष्पमाल लिये गन्धर्व और चमरेन्द्र हैं।
बायीं ओरके पैनलमें नेमिनाथकी खड्गासन मूर्ति है। अवगाहना ३ फुट ५ इंच है। भगवानके ऊपर तीन छत्र सुशोभित हैं। छत्रोंके ऊपर पद्मासन अर्हन्त प्रतिमा है। उसके दोनों ओर फूलमाला लिये हुए गन्धर्व आकाशमें दिखाई पड़ रहे हैं। भगवान्के चरणोंके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं।
दायीं ओरकी दीवारमें भी तीन पैनल बने हुए हैं। बायीं ओरके पैनलमें ऋषभदेवकी ३ फुट उत्तुग पद्मासन प्रतिमा है। कन्धेपर जटाओंकी लटें बिखरी हुई हैं । छत्र, गन्धर्व और चमरवाहक परिकरमें यथापूर्व हैं। .
मध्य पैनलमें भी ऋषभदेवकी जटायुक्त प्रतिमा है। अवगाहना २ फुट १० इंच है। परिकरमें छत्र, गज, मालाधारी गन्धर्व और चमरवाहक इन्द्र हैं।
__दायीं ओरके पैनलमें पाश्वनाथकी ३ फुट ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। मूर्तिके सिरपर सप्तफणावली है। उसके ऊपर तीन छत्र हैं। उनके दोनों ओर पुष्पवर्षा के लिए पुष्प लिये हुए देव हैं तथा अधोभागमें चमरवाहक खड़े हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१७३ मुख्य वेदीपर मुख्य प्रतिमाके अतिरिक्त ६ पाषाण-मूर्तियां हैं, जिनमें से दो मूर्तियां संवत् १५४८ की हैं। धातुके दो मेरुओंमें चौबीस तीर्थंकर-मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
इस मन्दिरके गर्भगृहके नीचे इसके समान आकारवाला कमरा बना हुआ है। इसे भोयरा कहते हैं । आपत्कालीन स्थितिमें इसका प्रयोग मूर्तियोंकी सुरक्षाके लिए किया जाता था। इसमें जानेके लिए मन्दिरके उत्तरी हिस्सेमें, सहनमें जीना बना हुआ है। कहा जाता है, यह एक सुरंग है जो नदी तक गयी है । सुरंगका द्वार अलंकृत है । इसके सिरदलपर ११ यक्ष-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । चौखटोंपर मिथुन बने हुए हैं। चौखटोंके अधोभागमें देवियां बनी हुई हैं। दीवारमें एक यक्ष बना हुआ है।
मन्दिरमें गर्भगृहके बाहर प्रदक्षिणा-पथ बना हुआ है। मन्दिरके चारों ओर ऊंची दीवार है । मन्दिरके चारों कोनों और द्वारपर लघु शिखर बने हुए हैं तथा मन्दिरके ऊपर विशाल शिखर है। द्वारपर क्षेत्रपाल बने हुए हैं।
__ मन्दिर नं.२-प्रथम मन्दिरसे निकलकर दूसरे मन्दिरमें प्रवेश करते हैं। यहाँ एक चबूतरानुमा वेदीपर मूलनायक भगवान् सुपार्श्वनाथ विराजमान हैं। मूर्ति पद्मासन है और ३ फुट २ इंच ऊँची है । मूर्तिके आसनपर स्वस्तिक चिह्न अंकित है। मूर्तिके हाथ खण्डित हैं। मूर्ति प्राचीन है। इसके अतिरिक्त दो पद्मासन मूर्तियाँ और हैं। एक १० इंचकी है और दूसरी ९ इंचकी । इसके बरामदेके स्तम्भों और बाहरी दीवारपर २ तीर्थंकर मूर्तियां पद्मासन मुद्रा में हैं। कुछ मूर्तियाँ शासन-देवताओंको भी हैं।
- इसकी बगलमें एक टिन शेडमें तीन वेदियां बनी हुई हैं। मध्य वेदीपर ऋषभदेव भगवान्की ३ फुट ८ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। प्रतिमाके परिकरमें भामण्डल, छत्र, दुन्दुभिवादक, ऊपर कोनोंपर एक देव और देवी पुष्पमाल लिये हुए और भगवान्के दोनों ओर चमरवाहक हैं।
दायीं वेदीमें भगवान् शीतलनाथकी ३ फुट १० इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। परिकर पूर्व मूर्तिके समान है। अन्तर इतना है कि सिंहासनके सिंहोंके इधर-उधर शीतलनाथका सेवक ब्रह्मा यक्ष और मानवी यक्षी सुखासनमें बैठे हुए हैं।
बायीं वेदीमें भगवान् नेमिनाथकी २ फुट ९ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। भगवानके सिरके पृष्ठभागमें भामण्डल है।
मन्दिर नं. ३-टिन शेडके पृष्ठभागमें भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर है। यह गर्भगृह १५ फुट ४ इंच लम्बा और ११ फुट ३ इंच चौड़ा है। इसमें भगवान् शान्तिनाथकी १५ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा देशी पाषाणकी है। मध्यप्रदेशमें अहार, थूबौन, बजरंगढ़, पावागिरि, खजुराहो आदि अनेक स्थानोंपर शान्तिनाथकी विशालकाय प्रतिमाएं विराजमान हैं । बीना-बारहाकी यह भव्य सातिशय प्रतिमा उसी शृंखलाकी एक समर्थ कड़ी है। इस मूर्तिपर निकटवर्ती प्रदेशमें सर्वसाधारणकी बड़ी श्रद्धा है। लोगोंका विश्वास है कि शान्तिनाथके दर्शन करनेसे समस्त चिन्ता और दुःख दूर हो जाते हैं। स्त्रियाँ तो मनौती मानकर मन्दिरकी बाहरी दीवारपर हल्दीके छापे लगाती हैं।
इस गर्भगृहमें दायीं और बायीं ओरकी दीवारोंमें ९ प्रतिमाएं जड़ी हुई हैं, जिसमें ८ खड्गासन हैं और १ पद्मासन है । सभी मूर्तियां कृष्णवर्ण हैं। इनके ऊपर कभी-कभी घीका अथवा नारियलको जली हुई जटाओंको धीमें मिलाकर उसका लेप किया जाता है। प्रथम मन्दिरकी महावीर स्वामीकी प्रतिमा तथा इन प्रतिमाओंका अभिषेक नहीं किया जाता। कभी-कभी केवल लेप ही किया जाता है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस गर्भगृहके द्वारपर दो खड्गासन और एक पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं। द्वारकी चौखटपर मिथुन-मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इससे आगे बढ़नेपर टिन शेडवाले जिनालयके दूसरी ओर दालान है। इसके एक सिरेपर ३ फुट १० इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके परिकरमें भामण्डल, छत्र, दुन्दुभिवादक, गज, गन्धर्व, चमरवाहक, यक्ष-यक्षी और दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। दालानके स्तम्भोंपर भी देव-देवियोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
___ मन्दिर नं. ४-टिन शेडके पास ही जीना है। उससे जाकर ऊपर एक कोठरीमें एक वेदी है। वेदीपर भगवान् नेमिनाथकी कृष्ण पाषाणकी एक पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसकी अवगाहना १ फुट ४ इंच है।
मन्दिर नं. २, ३ और ४ एक ही अहाते में हैं, बल्कि कहना चाहिए कि ये तीनों मन्दिर एक ही मन्दिरके पृथक्-पृथक् भाग हैं। ___मन्दिर नं. ५-इस मन्दिरसे निकलनेपर एक कुआं मिलता है। उसके निकट ही गन्धकुटी मन्दिर है। इसमें पहुंचनेके लिए ५ मार्ग हैं। प्रत्येक दिशामें ४० सीढ़ियां बनी हुई हैं। पाँचवाँ मार्ग मेरु मन्दिरोंके समान चक्राकार प्रदक्षिणा-पथ है। गर्भगृह छोटा है और गोलाकार है। मध्य वेदीपर एक पाषाण-स्तम्भमें तीन दिशाओंमें अर्हन्त प्रतिमाएं बनी हुई हैं। चौथो दिशामें उपाध्यायकी मूर्ति उत्कीर्ण है। एक हाथमें वे शास्त्र लिये हुए हैं तथा दूसरा हाथ उपदेश-मुद्रामें उठा हुआ है। उनके पीठासनमें कमण्डलु और पीछी बनी हुई हैं। इस मूर्ति-स्तम्भकी बगलमें दो श्वेतवर्ण तीर्थंकर मूर्तियाँ संवत् १५४८ की प्रतिष्ठित हैं।
दायीं ओरकी वेदीमें एक पाषाण-फलकमें भगवान् चन्द्रप्रभकी कायोत्सर्गासनमें ३ फुट ६ इंच अवगाहनावाली मूर्ति अंकित है। भगवान्के ऊपर छत्रत्रय है। उनके दोनों ओर देव आकाशसे पुष्पवर्षा करनेके लिए पुष्प लिये हुए हैं। भगवान्के दोनों ओर चमरेन्द्र सेवामें खड़े
___ बायीं ओरकी वेदीमें ऋषभदेवकी खड्गासन मूर्ति एक शिलाफलकमें उत्कीर्ण है। अवगाहना ३ फुट ६ इंच है। भगवान्के परिकरमें भामण्डल, तीन छत्र, गज, गन्धर्व और चमरवाहक हैं।
इस मन्दिरके परिक्रमा-पथमें दीवारों और द्वारोंके सिरदलोंपर कुछ मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इन मूर्तियोंपर सफेदी पोती हुई है । इससे मूतियोंका सौन्दर्य तो नष्ट हो ही गया है, उनके विवरण भी धूमिल पड़ गये हैं। इन मूर्तियोंका परिचय इस प्रकार है
(१) गोमेद यक्ष और अम्बिका यक्षी सुखासनासीन हैं। उनके शीर्ष भागपर नेमिनाथ तीर्थंकर पद्मासनमें विराजमान हैं।
( २ ) यह भी गोमेद, अम्बिका और नेमिनाथकी पूर्ववत् मूर्तियाँ हैं ।
( ३ ) तीर्थंकर माता लेटी हुई हैं । दिक्कुमारिकाएँ माताकी चरण-सेवा कर रही हैं । ऊपर पद्मासनमें तीर्थंकर-मूर्ति बनी हुई है।
(४) तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी माता वामादेवी शय्यापर लेटी हुई हैं। उनके सिरके ऊपर सपं-फणमण्डप है। देवी चरण-सेवा कर रही है। मूर्तिके शीर्ष भागपर पद्मावती देवी बैठी है। उसके ऊपर उसका चिह्न सर्पफण भी बना हुआ है । इससे ऊपर देवियाँ नृत्य-गान करके अपना मोद प्रकट कर रही हैं। सम्भवतः माता वामादेवीकी यह मूर्ति पाश्र्वनाथके गर्भावस्थाकी है। माता वामादेवीकी यह मूर्ति अद्भुत है । ऐसी अन्य कोई मूर्ति अभी तक देखनेमें नहीं आयी।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ (५) द्वारके सिरदलपर अष्ट मातृकाओंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इन अष्ट मातृकाओंके नाम इस प्रकार हैं-इन्द्राणी, वैष्णवी, कौमारी, वाराही, ब्रह्माणी, महालक्ष्मी, चामुण्डी और भवानी।
(६) चक्रेश्वरी देवी ललितासनमें बैठी है। दायीं ओर भी चक्रेश्वरी देवी त्रिभंग मुद्रामें खड़ी है।
(७) सिरदलपर मध्यमें सरस्वती विराजमान है। बायीं ओर अष्ट मातृकाएँ बनी हुई हैं तथा दायीं ओर नवदेवता बने हुए हैं।
मन्दिर नं.६–मन्दिर नं. १ के सामने एक छोटा मन्दिर बना हुआ है। उसके ऊपर शिखर नहीं है, जबकि अन्य सभी मन्दिर शिखरबद्ध हैं। मानस्तम्भ
अभी तक क्षेत्रपर मानस्तम्भ नहीं था। अतः मानस्तम्भकी आवश्यकताका अनुभव करके अब यहाँ उसके निर्माणकी तैयारियां चल रही हैं। मानस्तम्भका समूचा ढाँचा खण्डोंमें मकरानेसे आ चुका है। मानस्तम्भकी नींव खुद गयी है और चौकी तैयार हो रही है। आशा है, यह शीघ्र तैयार हो जायेगा। पुरातत्त्व
___यहां कुछ प्राचीन मूर्तियोंका संग्रह किया गया है। कुछ मूर्तियाँ गन्धकुटीकी सीढ़ियोंके पास खुले मैदानमें रखी हुई हैं। कुछ मूर्तियां मन्दिरोंकी बाह्य भित्तियों, स्तम्भों और शिखरोंमें जड़ दी गयी हैं । जो मूर्तियां मैदानमें रखी हुई हैं, वे धूल, वर्षा और धूपसे विरूप होती जा रही हैं और जो भित्तियों आदिमें जड़ी गयी हैं, उन्हें चूना-सफेदी पोतकर विरूप कर दिया गया है।
ये मूर्तियाँ प्रायः खण्डित हैं। इनमें से कुछ मूर्तियां अखण्डित भी हैं। किन्तु इन सभी प्रकारकी मूर्तियोंका पुरातात्त्विक और कलात्मक महत्त्व है। ये मूर्तियां मेडखेड़ा, अमरगढ़, ईश्वरपुर, बिजौरा, बीना आदि निकटवर्ती स्थानोंसे प्राप्त हुई हैं। इनमें से कुछ मूर्तियाँ भूगर्भसे प्राप्त हुईं, कुछ नदीसे तथा कुछ मूर्तियाँ ईश्वरपुरके जैन मन्दिरकी हैं। पहले वहां जैन मन्दिर था। गाँवमें जैनोंकी आबादी थी। भगवान्की पूजा यथावस्थित रीतिसे होती रहती थी। किन्तु आजीविका आदिके कारणोंसे ईश्वरपुरके जैन अन्य नगरोंमें चले गये। धीरे-धीरे मन्दिर नष्ट हो गया। तब वहांकी मूर्तियां यहां लाकर रख दी गयीं। इन तमाम मूर्तियोंमें तीर्थंकर-प्रतिमा, देवता-मूर्ति और स्तम्भ आदि हैं। जिन्होंने इन मूर्तियोंका यहां संग्रह किया है, उन्होंने वस्तुतः बड़ा स्तुत्य कार्य किया है।
तीर्थंकर-मूर्तियोंमें ८ मूर्तियाँ खड्गासन हैं और ४ पद्मासन हैं। कुछ तीर्थंकर मूर्तियोंके कुछ खण्डित भाग रखे हुए हैं। ये मूर्तियाँ १ फुट ६ इंच से लेकर ३ फुट ७ इंच तकको मापकी हैं। इनमें से किसीका मुख खण्डित है, किसीका कोई अन्य भाग। इनमें महावीर और ऋषभदेवकी ही प्रतिमाएं हैं । कुछ प्रतिमाओंके चिह्न अस्पष्ट हैं या उनकी चरण-चौकी ही नहीं है।
पंचांग नमस्कार करती हुई एक स्त्रीको पाषाण-मूर्ति भी यहां रखी हुई है। स्त्री अलंकारोंसे सुसज्जित है। उसके एक हाथमें कटार है। उसकी पीठपर स्त्रीका पंजा बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूर्ति गोंडवानानरेश बेनुकी रानी कमलावतीकी है। उसके सम्बन्धमें यह अनुश्रुति प्रसिद्ध है कि वह शीलवती थी। उसे पद्मावती या अन्य किसी देवीका इष्ट था। देवीके प्रसादसे उसके पास एक पंखा था, जिसे तोड़ने मात्रसे शत्रु-सेना नष्ट हो जाती थी। प्रस्तुत मूर्ति
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उस समयकी है, जब रानी युद्धमें जानेसे पूर्व भगवान्को नमस्कार कर रही है। उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर देवी उसे आशीर्वाद दे रही है। स्त्रीको पीठपर बना हुआ पंजा देवीके आशीर्वादका ही प्रतीक है।
यहाँ एक चबूतरेपर एक शिलाफलकमें भी स्त्रीका एक पंजा बना हुआ है। पंजा आशीर्वादमुद्रा में है। शिलाफलकके पंजे और स्त्रीकी पीठपर बने पंजेमें निश्चय ही सम्बन्ध है और दोनों एक ही घटना-शृंखलाको कड़ी प्रतीत होते हैं। कुछ लोग इसे सती-चौरा कहते हैं। धर्मशालाएँ
यहां यात्रियोंके लिए कई लम्बे दालान बने हुए हैं तथा ४० कमरे भी हैं। क्षेत्रपर बिजली है । जलके लिए कुआं है । मेले आदिके अवसरोंपर गाँवके कुएंसे टंकियोंमें जल मँगाया जाता है। वार्षिक मेला
क्षेत्रका वार्षिक मेला प्रत्येक वर्ष २५ दिसम्बरसे १ जनवरी तक होता है। इस अवसरपर ४-५ हजार व्यक्ति एकत्र हो जाते हैं। सन् ११३९ में शान्तिनाथ भगवान्का महामस्तकाभिषेकसमारोह हुआ था। इस अवसरपर सहस्रों व्यक्ति यहाँ एकत्र हुए थे। व्यवस्था - क्षेत्रकी व्यवस्था मेलेके अवसरपर एकत्र समाजमें से चुनी हुई प्रबन्ध समिति करती है। . क्षेत्रकी आर्थिक दशा सन्तोषजनक है । क्षेत्रके पास कुछ भूमि भी है। उसमें खेती करायी जाती है, जिससे क्षेत्रको अच्छी आय हो जाती है।
पटनागंज
अवस्थिति और मार्ग
- श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पटनागंज सागर जिलेमें रहलीके पास अवस्थित है। मध्य रेलवेकी बीना-कटनी लाइनपर सागर है, जहाँसे ४२ कि. मी. दूर रहली है। दमोहसे रहली ५३ कि. मी. है । वहाँ तक पक्की सड़क है । बसें बराबर मिलती हैं । रहली सुवर्णभद्र नदीके तटपर बसा हुआ है और तहसीलका मुख्यालय यहींपर है। नदीके उस तटपर मैदानमें पटनागंज क्षेत्र है। नदीपर पुल बना हुआ है । क्षेत्रके पास भी बस्ती है किन्तु व्यापार रहलीमें है। इसका पोस्ट ऑफिस भी रहली है। क्षेत्र-दर्शन . इस क्षेत्रपर कुल मिलाकर २५ मन्दिर हैं। इनके चारों ओर पक्का अहाता बना हुआ है। यहाँका प्राकृतिक दृश्य आकर्षक है। सदातोया स्वर्णभद्रा नदी इस क्षेत्रके चरणोंको धोती है। मन्दिरोंके पृष्ठभागमें खेतोकी हरियाली सुषमा बिखेरती है। कोलाहलसे दूर, एकान्त शान्तिपूर्ण वातावरण में व्यक्तिके मनमें भगवान्की भक्ति मुखर हो उठती है। ऐसा ही है यहाँका वातावरण, किन्तु फिर भी निर्जनता नहीं है।
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मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ
१७७ यहां एक सभा-भवन है। यह भवन शास्त्र-सभा अथवा व्याख्यान-सभाके उद्देश्यसे सेठ नारायणदासजीकी धर्मनिष्ठ माता केशरबाईने निर्मित कराया था। दीवारोंपर पौराणिक आख्यान चित्रित किये गये हैं । नीतिपरक छन्द भी लिखे गये हैं।
यहाँके मन्दिरों और मूर्तियोंका विवरण इस प्रकार है
मन्दिर नं. १-भगवान् शान्तिनाथकी पीत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। अवगाहना ३ फुट ४ इंच है । मूर्ति-लेखके अनुसार प्रतिष्ठा-काल सं. १८६४ है।
__ मन्दिर नं. २-भगवान् चन्द्रप्रभ पीतवर्ण, पद्मासन हैं। अवगाहना ३ फुट है और संवत् १८६४ में प्रतिष्ठित हुई है।
___ मन्दिर नं. ३-यह मेरु-मन्दिर है। गन्धकुटी तीन कटनियोंके ऊपर स्थित है और गन्धकुटी तक पहुँचनेके लिए चक्राकार परिक्रमा-पथ बना हुआ है। गन्धकुटीमें शान्तिनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी १० इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९५१ में हुई।
मन्दिर नं. ४-इस मन्दिरमें १ फुट १० इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पादपीठपर कोई लांछन नहीं है।
मन्दिर नं. ५-इसमें नन्दीश्वर जिनालय और समवसरणकी रचना है। नन्दीश्वरके मेरु रंगीन हैं । इनकी रचना कोनीके नन्दीश्वर जिनालयकी अनुकृतिपर हुई लगती है। इसका निर्माणकाल संवत् १८३५ है । समवसरणकी रचना इसीके निकट है और उसके समकालीन है।
___मन्दिर नं. ६-मूलनायक भगवान् महावीरकी कत्थई वर्णकी यह प्रतिमा पद्मासनमें ध्यानावस्थित है। इसकी ऊंचाई ४ फुट है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८३५ में हुई थी। इस वेदीमें संवत् १८३५ और संवत् १५४८ की अनेक मूर्तियाँ हैं। दो मतियाँ दायीं और बायीं दीवारमें कायोत्सर्गासनमें अवस्थित हैं। इन दोनों मूर्तियोंपर कलचुरि शैलीका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सम्भवतः ये मूर्तियाँ १२वीं शताब्दीकी हैं। दायीं ओरकी शिलामें पांच मूर्तियाँ खड्गासन मुद्रामें उत्कीर्ण हैं-१ मध्यमें और २-२ दोनों पाश्ॉमें । इसके परिकरमें छत्र, भामण्डल, ऊपर दोनों कोनोंपर देव-देवियाँ कमलपुष्प लिये हुए पुष्पवर्षा के लिए तैयार प्रतीत होते हैं। नीचे गजारूढ़ चमरेन्द्र भगवान्की सेवामें स्थित हैं । बायीं ओरकी मूर्ति भी खड्गासन मुद्रामें है।
इस वेदीपर पाषाणको ६१ और धातुकी १० मूर्तियाँ हैं। पाषाणके ढाँचेमें २० धातुकी छोटी मूर्तियाँ जड़ी हुई हैं । पाँच मेरु हैं । पाषाणको दो चौबीसी हैं।
मन्दिर नं. ७-यह मन्दिर सहस्रकूट जिनालय कहलाता है। यह ९ फुट ऊँचा है और इसकी गोलाई ३२ फुट है । इसमें १००८ अर्हन्त-मूर्तियाँ बनी हुई हैं । ये दोनों ही आसनोंमें उत्कीर्ण हैं-खड्गासन और पद्मासन। एक दीवार-वेदीमें तीन प्रतिमाएं विराजमान हैं। उनमें से एक प्रतिमा पार्श्वनाथकी है । दो प्रतिमाओंपर कोई लेख या लांछन नहीं है। ये प्रतिमाएँ सोनागिरकी कुछ प्रतिमाओंकी शैलीकी हैं।
मन्दिर नं.८-भगवान् ऋषभदेवकी लगभग १ फुट ऊंची प्रतिमा है । यह पद्मासन है और संवत् १८४२ की प्रतिष्ठित है।
मन्दिर नं. ९-भगवान् महावीरकी यह पद्मासन प्रतिमा १ फुट ४ इंच ऊँची है और संवत् १८४२ में प्रतिष्ठित है।
मन्दिर नं. १०-भगवान् सम्भवनाथकी १ फुट ७ इंच ऊंची यह पद्मासन प्रतिमा संवत् १८४२ में प्रतिष्ठित हुई।
३-२३
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
इन मन्दिरोंके सामने ९ फुट ऊँचा एक मानस्तम्भ या स्तम्भ बना हुआ है, किन्तु उसके ऊपर कोई मूर्ति विराजमान नहीं है ।
T
मन्दिर नं. ११ – एक कक्षमें तीन प्राचीन मूर्तियाँ रखी हैं जो खण्डित हैं। इनमें ऋषभ - देवकी मूर्ति पद्मासन है । इस शिलाफलक में भामण्डल, छत्र, पुष्पवर्षा करनेवाले गन्ध, २ तीर्थंकर मूर्तियाँ, चमरवाहक और शार्दूल दिखाई पड़ते हैं । दूसरी मूर्ति २ फुट १० इंच ऊँची है । यह खड्गासन है और गजलक्ष्मी भगवान् का अभिषेक कर रही है। यह मूर्ति भगवान् श्रेयांसनाथ की है । तीसरी मूर्ति भगवान् शान्तिनाथकी है । यह खड्गासन है । गजलक्ष्मी भगवान् का अभिषेक करती हुई दिखाई पड़ती है ।
मन्दिर नं. १२ - यह प्रतिमा किस तीर्थंकरकी है, यह ज्ञात नहीं हो सका । चिह्न नीचे दब गया है । यह मूर्ति खड्गासन है । इसकी अवगाहना ३ फुट ९ इंच है । गजलक्ष्मी भगवान्का अभिषेक कर रही है। सिरके ऊपर तीन छत्र हैं । भगवान् के दोनों पावोंमें चमरेन्द्र खड़े हुए हैं। मन्दिर नं. १३ - भगवान् पार्श्वनाथ की २ फुट ऊँची यह पद्मासन मूर्ति है । बायीं ओर अरहनाथकी मूर्ति है तथा दायीं ओरकी मूर्ति में चिह्न नहीं है । अतः यह किस तीर्थंकर की मूर्ति है, यह ज्ञात नहीं होता ।
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मन्दिर नं. १४ – मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ । अवगाहना २ फुट । पद्मासनमें विराजमान । उनके पाश्वमें १ फुट ४ इंच ऊँची चन्द्रप्रभ भगवान् की मूर्ति है ।
मन्दिर नं. १५ – भगवान् मल्लिनाथकी ३ फुट ८ इंच अवगाहनाकी यह मूर्ति पद्मासनस्थ है और संवत् १४७२ में प्रतिष्ठित हुई है। इसकी नाक खण्डित हैं ।
बायीं ओर एक स्तम्भमें १ फुट ३ इंच आकारकी १ पद्मासन और २ खड्गासन मूर्तियों का अंकन किया गया है ।
मन्दिर नं. १६ – पद्मासनस्थ भगवान् अभिनन्दननाथको प्रतिमाकी अवगाहना ४ फुट है । प्रतिष्ठा -संवत् १८७१ है । बायीं ओर भगवान् शान्तिनाथकी १ फुट १० इंच आकारकी प्रतिमा है तथा दायीं ओर १ फुट ११ इंच आकारको तीर्थंकर मूर्ति है । इसके आसनपर चिह्न नहीं हैं ।
मन्दिर नं. १७ - वेदीपर भगवान् नेमिनाथकी श्यामवर्णं प्रतिमा विराजमान है। इसकी ऊँचाई १ फुट ९ इंच है । लगता है, यह वेदी किसी और मूर्तिको है ।
मन्दिर नं. १८ - एक तीर्थंकर मूर्ति २ फुट २ इंच ऊँची पद्मासनमें अवस्थित है और श्यामवर्ण है।
मन्दिर नं. १९–कत्थई वर्णकी एक तीर्थंकर मूर्ति १ फुट ६ इंच ऊंची है और पद्मासन है । मन्दिर नं. २० - २ फुट १० इंच उत्तुंग कत्थई वर्णकी तीर्थंकर मूर्ति है और पद्मासन में
स्थित है ।
मन्दिर नं. २१ - एक दीवार वेदीमें श्वेत पाषाणकी ५ इंच ऊँची तीर्थंकर मूर्ति विराजमान है। दायीं ओर तीन वेदियाँ बनी हुई हैं जिनमें क्रमशः चन्द्रप्रभ, नेमिनाथ और चन्द्रप्रभ विराजमान हैं ।
मन्दिर नं. २२ - यह महावीर मन्दिर कहलाता है और महावीरको 'बड़ेदेव' कहा जाता है । यह पद्मासन प्रतिमा भूरे वर्णकी है। यह १३ फुट ७ इंच ऊँची और १० फुट १० इंच चौड़ी है । इसकी चरण-चौकीपर मध्य में सिंहका अस्पष्ट लांछन प्रतीत होता है । इसीलिए इसे महावीर
मूर्ति माना जाता है । 'बड़ेदेव' के बायीं ओर गदा लिये हुए तथा दायीं ओर एक हाथमें नाल
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प्रवेश दिगम्बर जैन तीर्थ
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सहित कमल तथा दूसरे हाथमें विकसित कमल लिये हुए पाबंद खड़े हैं। बड़ी मूर्तिके अभिषेक लिए लोकी सीढ़ीकी व्यवस्था है ।
बड़ी मूर्ति दोनों ओर विक्रम संवत् १८४२ की मूर्तियाँ विराजमान हैं । दायीं ओर ऋषभदेव और बायीं ओर सम्भवनाथको मूर्तियाँ हैं और दोनों ही संगमूसा हैं । उसमें सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथकी मूर्तियाँ विराजमान हैं । ओर एक दीवार में महावीर और पार्श्वनाथकी पद्मासन मूर्तियां हैं। दोनोंका ही वर्णं सलेटी है। महावीरकी मूर्ति संवत् १८५६ की है। दायीं ओर वेदी है । उसमें वेदीके बाहर १ फुट ७ इंच ऊँची तीर्थंकर - मूर्ति विराजमान है ।
ओर एक वेदी है ।
इस मन्दिर के द्वारपर बने हुए द्वारपालोंकी बगलमें पार्श्वनाथकी दो मूर्तियाँ विराजमान हैं । बायीं ओरकी मूर्तिके सप्त फण हैं तथा दायीं ओरकी मूर्ति नौ फणयुक्त है ।
इस क्षेत्रपर बड़ा मन्दिर यही कहलाता है । 'बड़ेदेव' के कारण ही यह क्षेत्र अतिशय क्षेत्र कहलाता है । यहाँ स्त्रियाँ अपनी गोद भरनेकी कामना लेकर आती हैं और पुरुष अन्य सांसारिक मनौतियाँ मनाते हैं । उनकी भक्तिकी मात्रापर उनकी कामनाकी सिद्धि निर्भर करती है ।
मन्दिर नं. २३ - यह पार्श्वनाथ मन्दिर कहलाता है । यह यहाँका विख्यात और दर्शनीय मन्दिर है । यहाँ सहस्रफणयुक्त पार्श्वनाथ विराजमान हैं। उनके सहस्र फणोंकी रचना अद्भुत और अनुपम है । फण-मण्डप सिर तथा दोनों भुजाओंको आवृत किये हुए हैं। फणावली अन्य मूर्तियों के समान नहीं है, उनसे भिन्न । मूर्तिके सिर और भुजाओंको तीन ओरसे घेरे हुए पाषाण - मण्डपमें १००० सर्पंफणोंका कलात्मक अंकन है । मूर्ति कृष्णवर्ण और पद्मासन है । ४ फुट ४ इंच ऊँची और २ फुट ८ इंच चौड़ी है । इसका प्रतिष्ठा-संवत् १८४२ है ।
इसके आगे निचाईपर एक अन्य पार्श्वनाथ- मूर्ति विराजमान है । यह भी कृष्णवणं और पद्मासन है । इसकी माप ४ फुट ४ इंच x २ फुट ७ इंच है। बना हुआ सर्पफण-मण्डप विशाल है और वह केवल सिरमें ऊपर ही तना हुआ अपने प्रकारका एक ही है ।
सहस्र - फणवाली, इसके सिरके ऊपर है । किन्तु यह भी
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मूलनायक के दोनों ओर पार्श्वनाथकी नौ फणावलीसहित दो पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं। उपर्युक्त सभी मूर्तियां संवत् १८४२ को प्रतिष्ठित हैं । उसी संवत्को प्रतिष्ठित १२ मूर्तियाँ इस वेदीपर और विराजमान हैं। तीन मूर्तियाँ संवत् १५४८ की जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान हैं । पापड़ीवालने ये मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराकर यहाँ भिजवायी थीं । उन्होंने अनेक मन्दिरोंमें इस प्रकार प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भेजकर विराजमान करायी थीं । स्थान-स्थानपर उनकी मूर्तियाँ अब भी उपलब्ध होती हैं ।
इन सभी मूर्तियों की प्रतिष्ठा भट्टारक जिनचन्द्र के द्वारा हुई थी । ये बलात्कारगणकी दिल्लीजयपुर - शाखाके थे । इनका भट्टारक-काल संवत् १५०७ से १५७१ है । इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भारत के कोने-कोने में मिलती हैं। सिर्फ नागपुरके जैन मन्दिरोंमें ही इनकी संख्या १०० से ऊपर है ।
इस मन्दिरके आगे एक मण्डपमें तीन छतरियाँ बनी हुई हैं। सम्भवतः इनका निर्माण चरण विराजमान करने के लिए किया गया था, किन्तु आजकल ये खाली हैं ।
मन्दिर नं. २४ – एक बड़ी वेदीपर भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेतवर्णं पद्मासन मूर्ति विराजमान है । यह ११ फणोंसे मण्डित है । इसकी अवगाहना ४ फुट है और संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ हुई है । इसके दोनों ओर संवत् १५४८ की चार मूर्तियां विराजमान हैं। इसका शिखर बड़ा भव्य एवं विशाल है।
__ मन्दिर नं. २५-यह पार्श्वनाथ मन्दिर है । भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणको पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना ३ फुट है। मूर्ति-लेखके अनुसार इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १८३७ है । इसके समवसरणमें तीर्थंकरोंको ५ पाषाण-मूर्तियां और हैं ।
पुरातत्त्व
किसी क्षेत्रपर उपलब्ध पुरातत्त्वसे क्षेत्र, मन्दिर और मूर्तिके रचना-काल और इतिहासपर प्रकाश पड़ता है। इस क्षेत्रपर इस प्रकारका कोई पुरातत्त्व मूर्ति, लेख, स्तम्भ आदिके रूपमें नहीं है जिसे अधिक प्राचीन कहा जा सके। यहांकी उल्लेखनीय मूर्तियाँ महावीर और सहस्र-फणवाली पार्श्वनाथकी हैं। किन्तु उनका निर्माण-काल संवत् १८४२ है। संवत् १५४८ की कुछ मूर्तियाँ कई मन्दिरोंमें मिलती हैं, किन्तु वे सब प्रतिष्ठित होकर मडासा.नगरसे आयी हैं, वे इस क्षेत्रपर प्रतिष्ठित नहीं हुईं। उन मूर्तियोंके प्रतिष्ठाकारक शाह जीवराज पापड़ीवाल और प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक जिनचन्द्र थे। उनका इस क्षेत्रके साथ कभी कोई सम्पर्क हुआ हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। मन्दिर नं. १५ में मल्लिनाथ स्वामीकी संवत् १४७२ ( ई. स. १४१५) की प्रतिमा विराजमान है। इसमें सन्देह नहीं है कि यह मूर्ति अपने प्रतिष्ठा-कालसे यहां पर विराजमान रही है। अतः यह कहा जा सकता है कि इस स्थानपर ईसाकी १५वीं शताब्दीमें दिगम्बर जैन मन्दिर था। लगता है, प्राचीन कालमें यहाँ कोई नगर रहा होगा। उसी नगरमें यह मन्दिर और मूर्ति रही होगी। इन मूर्तियोंके सिवा और जितनी मूर्तियाँ यहाँ मिलती हैं, वे प्रायः ईसाकी १८वीं-१९वीं शताब्दीकी हैं । इससे ऐसा लगता है कि यहाँके अधिकांश मन्दिरोंका निर्माण इन्हीं शताब्दियोंमें हआ। मन्दिर नं. ६ की भित्ति-मतियां और मन्दिर नं. ११ की खण्डित मतियां सम्भवतः किसी अन्य स्थानसे यहाँ लायी गयी हैं, ऐसा प्रतीत होता है। जिस मन्दिरकी दीवारमें मूर्तियां विराजमान हैं, वह मन्दिर ही १८वीं शताब्दी का है। मन्दिर नं. ११ को खण्डित मूर्तियाँ भी किसी स्थानीय मन्दिरको प्रतीत नहीं होती। अतः यह कहा जा सकता है कि पटनागंजमें मन्दिरोंका निर्माण १५वीं शताब्दीमें होना प्रारम्भ हो गया था, किन्तु उसे अतिशय-क्षेत्रका रूप महावीर मन्दिरके निर्माणके पश्चात् मिला।
धर्मशाला
क्षेत्रपर मन्दिरोंके सामने एक धर्मशाला है, जिसमें १५ कमरे हैं। रहलीमें भी जैन मन्दिर और धर्मशाला है। यात्रियोंके लिए यहीं ठहरना सुविधाजनक है। क्षेत्रपर बिजली है। जलके लिए कुआँ और नदी है। रहलीके बाजारसे क्षेत्र प्रायः एक मील पड़ता है। नदीके पुलके पश्चात् कुछ मार्ग कच्चा है। वार्षिक मेला
यहाँ वार्षिक मेलेकी कोई तिथि निश्चित नहीं है। माघ मासमें कभी भी मेला हो सकता है । नैमित्तिक मेले कई बार विशाल समारोहके साथ हो चुके हैं। एक बार सन् १९४४ में मेला भरा था, जब यहाँ पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी पधारे थे। दूसरी बार सन् १९६८ में एक
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१८१ उल्लेखनीय मेला हुआ। इस अवसरपर यहां पंचकल्याणकपूर्वक बिम्ब-प्रतिष्ठा एवं गजरथका आयोजन हुआ। इस मेलेमें यहाँ कई लाख व्यक्ति एकत्र हुए थे। व्यवस्था
क्षेत्रको व्यवस्था मेलेके अवसरपर निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती है।
अजयगढ़
स्थिति और मार्ग
अजयगढ़ पन्ना जिलेमें एक छोटा-सा गाँव है। गांवके निकट एक पहाड़ीपर चन्देल राजाओंका बनवाया हआ एक प्राचीन किला है। यह सडक-मार्गसे कालिंजरके दक्षिण-पश्चिममें लगभग ३२ कि. मी. है । यह किला समतल भूमिसे ७००-८०० फुट ऊंचा बना हुआ है। यह उत्तरसे दक्षिणकी ओर एक मील लम्बा और पश्चिमसे पूर्वकी ओर इससे कुछ कम चौड़ा है।
_____ अजयगढ़का निर्माण किसी अजयपाल नामक राजाने कराया था। किन्तु यहाँके उपलब्ध शिलालेखोंमें इसका नाम कहींपर भी अजयगढ़ नहीं दिया गया है, बल्कि इन शिलालेखोंमें सर्वत्र जयपुर दुर्ग दिया हुआ है। इस दुर्गमें दो द्वार हैं-एक उत्तरकी ओर, जिसे दरवाजा कहते हैं। शिलालेखोंमें इसका नाम कहीं-कहीं कालिंजर-द्वार भी दिया हुआ है क्योंकि यहींसे सीधा कालिंजरको मार्ग जाता है और वह यहाँसे केवल ३२ कि. मी. है। दूसरे द्वारका नाम 'तारहीनी द्वार' है। यह दक्षिण-पूर्वकी ओर है। यहाँसे पहाड़की तलहटीमें बसे हुए तारहौन गांवको रास्ता जाता है, इसीसे द्वारका नाम 'तारहीनी द्वार' पड़ गया।
उत्तरी द्वारमें प्रवेश करते ही चट्टानोंमें खुदे हुए दो तालाब मिलते हैं। इनका गंगा-यमुना नाम प्रचलित है। दुर्गके बीचों-बीच एक बहुत बड़ा तालाब बना हुआ है। इसे 'अजयपालका तालाब' कहते हैं। तालाब काफी प्राचीन लगता है। इस तालाबके किनारे अजयपालका मन्दिर है, जिसमें काले पाषाणकी चतुर्भुजी विष्णुकी मूर्ति है। तालाबके दूसरी ओर घिरी हुई चौकोर दीवारमें भगवान् शान्तिनाथकी खड्गासन प्रतिमा है। यह लगभग १५ फुट ऊंची है और ११वीं-१२वीं शताब्दीको लगती है। तालाबके आसपास प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष और खण्डित प्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। दुर्गके दक्षिणी सिरेपर एक बडा ताल है जिसे परमाल ताल कहा जाता है। इसके निकट चन्देल राजाओंके कालके तीन जीर्ण-शीर्ण मन्दिर खड़े हैं। इनमें सबसे बड़ा मन्दिर ६० फुट ४४० फुट है और इसका द्वार पश्चिमाभिमुखी है। इसके उत्तरी भागकी दोवारें तो गिर चुकी हैं किन्तु जो दीवारें अभी तक खड़ी हैं, उनकी शिल्पकला और उच्च कोटिका अलंकरण दर्शनीय है। दूसरा मन्दिर भो इतना हो लम्बा-चौड़ा है तथा तीसरा मन्दिर इनसे कुछ छोटा ५४ फुट x ३६ फुट है।
तारहीनी द्वारके निकट एक चट्टानपर अष्ट-देवी-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिन्हें अष्टशक्ति कहा जाता है। ये श्री चण्डी, श्री चामुण्डा, श्री कालिका आदि हैं। इनके नाम भी मूर्तियोंके नीचे अंकित हैं। इनके निकट ७ फुट लम्बा और २ फुट ४ इंच चौड़ा चित्र-वर्णमें लिखा हुआ एक शिलालेख चट्टानमें खुदा हुआ है । इसमें चन्देल वंशके कीर्तिवर्मासे लेकर भोजवर्मा तकके राजाओंके नाम मिलते हैं।
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१८२
भारतके दिगम्बरजैन तीर्थ ___ इसके निकट ही चट्टानोंमें उकेरी हुई जैन तीर्थंकरोंकी पद्मासन मूर्तियां मिलती हैं। इनकी कई पंक्तियाँ हैं । संख्यामें ये ५० के लगभग होंगी। इनके पास ही एक गाय और बछड़ा बने हुए हैं और एक सुखासीन चतुर्भुजी देवी बनी हुई है। उसकी गोदमें एक बालक है। उसके दायीं ओर एक-दूसरेके ऊपर पांच शूकर बने हुए हैं। इसी प्रकार उसके बायीं ओर जोड़ोंमें आठ शूकर एकदूसरेके ऊपर बने हुए हैं । सम्भवतः यह षष्ठी देवी है। ____किलेमें एक भव्य मानस्तम्भ बना हुआ है। उसके ऊपर सैकड़ों जैन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इस पहाड़के चारों ओर तलहटीमें और जंगलमें अनेक जैन मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं । अजयगढ़ गाँवमें एक प्राचीन मन्दिर है। यहाँ दिगम्बर जैनोंके कुछ घर हैं ।
शिलालेख
यहाँ दुर्गमें छोटे-बड़े मिलाकर १६ शिलालेख उपलब्ध हुए हैं जो वि. सं. १२०८ से वि. सं. १३७२ तकके हैं । ये सभी चन्देल राजाओंके काल में लिखे गये हैं। इनसे कई ऐतिहासिक महत्त्वकी बातोंपर प्रकाश पड़ता है तथा चन्देल राजाओंकी वंशावली भी ज्ञात होती है। इनमें से एक शिलालेखमें, जो १५ पंक्तियोंका है तथा संवत् १३१२ का है, चन्देल राजा कीर्तिवर्मासे चन्देलवंशी राजाओं तकके नाम दिये गये हैं । वे इस प्रकार हैं
चन्द्रवंशमें उत्पन्न राजा कीर्तिवर्मा, सुलक्षण वर्मा (जिसने मालवापर विजय प्राप्त की थी)। जयवर्मा, पृथ्वीवर्मा, मदनवर्मा, त्रैलोक्यवर्मा और उसके दो पुत्र-यशोवर्मा और वीरवर्मा। इन दोनोंमें-से वीरवर्मा राजा बना।
कारीतलाई
अवस्थिति
___ कारीतलाई गांव कैमूर पर्वत-श्रेणियोंकी पूर्वी मालाओंमें, मैहरसे दक्षिण-पूर्वमें ३५ कि. मो., कटनीसे ४६ कि. मी. उत्तर-पूर्वमें और उचहरासे दक्षिणमें लगभग ५० कि. मी. है।
__ कारीतलाईका प्राचीन नाम कर्णपुर या कर्णपुरा था। अवशेष
वर्तमान कारीतलाई गांवके उत्तरमें पहाड़ीके किनारे जैन और हिन्दू मन्दिरोंके अवशेष विद्यमान हैं। उन अवशेषोंके पूर्व में आधा मोल लम्बा सागर ताल है। इन कलावशेषोंमें बहत-सा सामान–पाषाण, स्तम्भ और मूर्तियां-गांववालोंने अपने घरोंमें लगा लिया है। कुछ खण्डितअखण्डित प्रतिमाएँ तालाबके किनारे पड़ी हुई हैं तथा कुछ मूर्तियां, अभिलेख, ताम्रपट आदि जबलपुर और रायपुरके संग्रहालयोंमें सुरक्षित रखे हुए हैं।
गांववालोंने ईंट-पत्थरोंके लिए यहाँके कई स्थानोंपर खुदाई की है। इसमें ८ फुट गहराई तक प्राचीन इंटोंकी दीवार मिली है। कहते हैं, विजय-राघोगढ़के किलेका निर्माण कारोतलाईके प्राचीन पत्थरोंसे हुआ था।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१८३ तीर्थको प्राचीनता
____कारीतलाई प्राचीन कालमें एक प्रसिद्ध तीर्थ और समृद्ध नगर रहा है, ऐसे प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। गुप्त-कालमें यहाँ मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण तथा उनको प्रतिष्ठा हुई थी। त्रिपुरीके कलचुरि नरेश लक्ष्मणराज (द्वितीय) के शासन-कालमें इस क्षेत्रका पर्याप्त विकास हुआ। इस कालमें जैन, वैष्णव, शैव और बौद्ध मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण यहाँ हुआ। ___ कारीतलाईके निकटवर्ती प्राचीन स्थानोंमें प्रख्यात भरहुत, शंकरगढ़, उछहरा, खो, भुभारा आदि हैं जहाँ मौर्य-कालसे लेकर परिहार और कलचुरि-काल तकके अभिलेख और मूर्तियाँ मिलती हैं। भरहुतमें मौर्यकालीन स्तूपके अवशेष मिले हैं। शंकरगढ़में भरहुत स्तूपके वेदिका-स्तम्भ और उसके अन्य अंश प्राप्त हुए हैं। उछहरा, खो और भुभारामें गुप्तकालीन ताम्र-अभिलेख प्राप्त हुए हैं जो गुप्त-संवत् १५६ से २१४ तकके हैं। इन अभिलेखोंमें राजा हस्तिन्, राजा जयनाथ, राजा सर्वनाथ और राजा संक्षोभके उल्लेख मिलते हैं। ____कारीतलाई भी इसी शृंखलाकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। यहाँकी कुछ गुफाओंमें ब्राह्मीलिपिमें २००० वर्ष प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।' सन् १८५० में एक ताम्र-अभिलेख यहाँके भग्न बराह मन्दिरके अवशेषोंमें से प्राप्त हुआ था जो संवत् १७४ का है। कनिंघमने इसे गुप्तसंवत् माना है। इसमें महाराज जयनाथके भूमि-दानका उल्लेख है। कारीतलाईके निकटस्थ भुभारा नामक एक ग्राममें एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है जिसमें गुप्त-शैलीमें ८ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें पृथक् वंशोंके हस्तिन और सर्वनाथ नामक राजाओंका उल्लेख है। सर्वनाथ महाराज जयनाथका पुत्र था। इस शिलालेखसे प्रमाणित होता है कि राजा हस्तिन् और राजा सर्वनाथ दोनों समकालीन थे। राजा हस्तिन्के गुप्तकालीन ताम्र-अभिलेख कई स्थानोंपर उपलब्ध हुए हैं। अतः कारीतलाईमें उपलब्ध ताम्र-अभिलेखका संवत् असन्दिग्ध रूपसे गुप्त-संवत् ही सिद्ध होता है।
कारीतलाईमें कलचुरि-कालके भी कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इस कालका एक अभिलेख संग्रहालयमें सुरक्षित है । इसमें युवराजदेव और लक्ष्मणराजका नामोल्लेख मिलता है । लक्ष्मणराजको चेदीन्द्र और चेदिनरेन्द्र भी कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि कारीतलाई चेदिके कलचुरि-शासकोंके राज्यमें था। यहाँका एक शिलालेख रायपुर संग्रहालयमें सुरक्षित है । इस शिलालेखसे यह ज्ञात होता है कि कलचुरि-कालमें कारीतलाईको सोमस्वामिपुर भी कहा जाता था।
प्राचीन कारीतलाईका वर्तमान अवशेष करनपुरा है जो एक छोटा-सा गांव है। यहाँ एक वृक्षके नीचे अम्बिका देवीकी एक सुन्दर प्रतिमा रखी हुई है। इसे गौड़ लोग 'खैरमाई के नामसे पूजते हैं। कारीतलाई और इसके निकटवर्ती स्थानोंपर अति प्राचीन कालसे जैन मन्दिरों और मूर्तियोंके अस्तित्वके प्रमाण मिलते हैं। किन्तु ज्ञात नहीं, किस शताब्दीमें ये भग्नावशेषोंके रूपमें परिवर्तित हो गये। यहाँके सहस्राधिक अवशेषोंको लोग उठाकर ले गये और कहीं किसी चबतरेके ऊपर अथवा किसी वृक्षके नीचे रखकर पूजने लगे । जैन शासन-देवियोंकी अनेक मूर्तियोंको खैरमाईके नामसे अब भी इस क्षेत्रमें पूजा जाता है। वरहटा गांवमें खैरमाईकी प्रतिमाओंके ढेरमें अनेक जैन मूतियां मिली हैं। १. बालचन्द्र जैन-कारीतलाईका कला-वैभव, 'जैन सन्देश', १९-११-१९५९। २. Report of the Archaeological Survey of India, 1973-74 &1974-75, Vol. IX.
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य कारीतलाईको जैन मूर्तियां . वर्तमानमें कारीतलाईमें कोई अखण्डित जैन मन्दिर नहीं है। अतः जैन मूर्तियां भी व्यवस्थित रूपमें नहीं मिलती। यहाँको अधिकांश मूर्तियाँ जबलपुर और रायपुर संग्रहालयोंमें पहुँचा दी गयी हैं। कुछ प्रतिमाओंको आसपासके लोग उठा ले गये तथा अनेक प्रतिमाएं यहींपर खण्डित-अखण्डित दशामें पड़ी हुई हैं। यहाँकी प्रतिमाओंमे अधिकांशतः तीर्थंकरों और शासनदेवताओंको प्रतिमाएँ हैं। तीर्थंकरोंमें भी प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेवकी प्रतिमाएं अधिक हैं। शासन-देवताओंमें अम्बिका, पद्मावती और सरस्वतीकी प्रतिमाएं मिलती हैं। विशेष प्रतिमाओंमें द्विमूर्तिकाएँ, त्रिमूर्तिकाएँ, सर्वतोभद्रिका और सहस्रकूट जिनालय अथवा नन्दीश्वर जिनालयकी प्रतिकृति-प्रतिमाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। रायपुर संग्रहालयमें यहाँकी उपर्युक्त सभी प्रकारकी जैन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। वे गुप्त-कालसे कलचुरि-काल तकके अनूठे नमूने हैं।
कारीतलाईकी जो प्रतिमाएं रायपुर संग्रहालयको प्राप्त हुई हैं, उनमें से ३९ कलाकृतियां, प्रतिमाएं आदि जैनोंसे सम्बन्धित हैं। जैन प्रतिमाओंमें ६ प्रतिमाएं ऋषभदेवकी हैं। ७ द्विमूर्तिकाएँ, ४ नन्दीश्वर जिनालय या सहस्रकूट जिनालय, पंचबालयति, सर्वतोभद्रिका, चक्रेश्वरीकी १, अम्बिकाकी २, सरस्वतीकी १ तथा अन्य प्रतिमाएं सम्मिलित हैं। इनमें से कुछ विशेष मूर्तियोंका परिचय यहाँ दिया जा रहा हैऋषभदेव प्रतिमाएँ ____ एक प्रतिमा ३ फुट ९ इंच ऊंची है और पद्मासन मुद्रामें ध्यानमग्न है । ऋषभदेवकी सभी प्रतिमाएं अष्ट प्रातिहार्ययुक्त हैं। मस्तकके ऊपर त्रिछत्र और मस्तकके पीछे भामण्डल, वक्षपर श्रीवत्स लांछन, सेवकके रूपमें सौधर्म और ईशान स्वर्गके इन्द्र तीर्थंकरके दोनों पार्यों में हाथमें चमर धारण किये हुए, गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी चरणोंके दोनों ओर, चरण-चौकीपर मध्यमें ऋषभदेवका लांछन वृषभ, उसके नीचे धर्मचक्र और उसके दोनों ओर सिंह यह परिकर यहाँकी सभी ऋषभदेव प्रतिमाओंमें मिलता है। उपर्युक्त प्रतिमामें भी इस परिकरका सुन्दर अंकन किया गया है। इसमें सिंहयुगलके साथ गजयुगलका भी अंकन करके विशेषता प्रदान की गयी है।
एक अन्य प्रतिमा ४ फुट ६ इंच उन्नत है और पद्मासनासीन है। इसकी दक्षिण भुजा और वाम धटना खण्डित हैं। शेष परिकर यथापूर्व है। भगवानका शासन-देव गोमख दक्षिण पार्श्वमें
और सेविका यक्षी चक्रेश्वरी वाम पार्श्वमें ललितासनसे बैठे हैं। एक अन्य प्रतिमामें देवी अपने वाहन गरुड़पर आरूढ़ है। एक प्रतिमामें चक्रेश्वरीके स्थानपर अम्बिका यक्षीकी प्रतिमा बनायी गयी है। मध्य कालमें नेमिनाथकी यक्षी अम्बिकाको विशेष महत्त्व प्राप्त हो गया। फलतः इस कालमें सभी तीर्थंकरोंके साथ अम्बिकाकी प्रतिमा बनानेकी परम्परा चल पड़ी।
चौबीसी प्रतिमाएँ
एक प्रतिमा २ फुट ३ इंच ऊँची पद्मासनस्थ है। इसके स्कन्धोंपर लहराते हुए केशोंका अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है। इस प्रतिमाके दोनों पार्यो में २३ तीर्थकरोंकी लघु मूर्तियाँ हैं। दक्षिण पावकी मूर्तियाँ पद्मासनमें और वाम पाश्र्वको मूर्तियां खड्गासनमें हैं। चौकीके मध्यमें वृषभ लांछन और उसके नीचे चक्र अंकित है। चक्रके दोनों ओर सिंह और उसकी बगलमें कोनोंपर यक्ष-यक्षी बने हुए हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ एक अन्य चतुर्विंशतिपट्टमें पार्श्वनाथ मूलनायकके रूपमें पद्मासनासीन हैं। उनके मस्तकपर सर्पके सप्त फण फैले हुए हैं। अधोभागमें चमरेन्द्र सेवामें खड़े हुए हैं। तीन ओरकी पट्टिकाओंपर शेष २३ तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। द्विमर्तिकाएँ
रायपुर संग्रहालयमें ७ जैन प्रतिमाएं ऐसी हैं, जिनमें दो-दो तीर्थकरोंकी कायोत्सर्ग मुद्रावाली प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। इन द्विमूर्तिकाओंमें एक प्रतिमा ऐसी भी है जिसमें अम्बिका और
पावती ललितासनसे बैठी हैं। तीर्थंकरकी यगल मतियोंमें अष्ट प्रातिहार्यके अलावा तीर्थंकरोंके लांछन और उनके शासनदेवता भी अंकित हैं। ये युगल प्रतिमाएं इस प्रकार हैं-ऋषभनाथअजितनाथ, अजितनाथ-सम्भवनाथ, पुष्पदन्त-शोतलनाथ, धर्मनाथ-शान्तिनाथ, मल्लिनाथ-मुनिसुव्रतनाथ, पाश्वनाथ-नेमिनाथ । इनके अतिरिक्त एक द्विमूर्तिकामें अम्बिका और पद्मावती हैं।
ऋषभनाथ-अजितनाथ-३ फुट ७ इंच ऊँचे श्वेत बलुआ पाषाणमें दोनों तीर्थंकरोंकी खड्गासन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । दोनों मूर्तियोंके परिकर पृथक्-पृथक् हैं । परिकरमें त्रिछत्र, भामण्डल, दुन्दुभि, हस्ति, पुष्पवृष्टि करते हुए विद्याधर, वक्षपर श्रीवत्स लांछन, चमरेन्द्र और भक्त हैं। दोनों मूर्तियोंके मुख और हाथ खण्डित हैं। ऋषभनाथकी चरण-चौकीपर उनका लांछन, वृषभ और यक्ष-यक्षी गोमुख-चक्रेश्वरी बने हुए हैं। इसी प्रकार अजितनाथकी पीठिकापर उनका चिह्न हाथी तथा उनके यक्ष-यक्षी महायक्ष-रोहिणी अंकित हैं। इस प्रतिमाका काल १०वीं शताब्दी प्रतीत होता है।
___ अजितनाथ-सम्भवनाथ-४ फुट ७ इंच ऊँचे शिलाफलकमें दोनों तीर्थंकरोंकी कायोत्सर्गासन प्रतिमाएं बनी हुई हैं। दोनोंके परिकरमें छत्र, प्रभामण्डल, दुन्दुभि, गजयुगल, पुष्पमालाएँ लिये विद्याधर, चमरवाहक और भक्त हैं। दोनोंके पादपीठपर उनके लांछन हस्ति एवं घोड़ा तथा उनके यक्ष-यक्षी ( अजितनाथके महायक्ष और रोहिणी तथा सम्भवनाथके त्रिमुख और प्रज्ञप्ति ) अंकित हैं। चौकीपर सिंहोंके जोड़े एवं धर्मचक्र बने हुए हैं। दोनों तीर्थंकरोंके हाथ और मस्तक खण्डित हैं।
पुष्पदन्त-शीतलनाथ-३ फुट ७ इंच ऊंचे एक श्वेत बलुआ शिलाफलकमें दोनों तीर्थंकरों
योत्सर्गासन मतियां हैं। पूष्पदन्तका दक्षिण हस्त एवं शीतलनाथका वाम हस्त खण्डित हैं। चौकियोंपर पुष्पदन्तका चिह्न मगर और उनके यक्ष-यक्षी अजित और महाकाली तथा इसी प्रकार शीतलनाथका लांछन कल्पवृक्ष और उनके यक्ष-यक्षी ब्रह्म और मानवी अंकित हैं।
- धर्मनाथ-शान्तिनाथ-३ फुट ७ इंच ऊँचे शिलाफलकमें दोनों तीर्थंकरोंकी खड्गासन मूर्तियां हैं। उनकी चरण-चौकीपर धर्मनाथका लांछन वज्रदण्ड और शान्तिनाथका लांछन हिरण अंकित हैं। धर्मनाथके यक्ष किन्नर तथा यक्षी मानसी तथा शान्तिनाथके यक्ष गरुड़ और यक्षी महामानसी तीर्थंकर मूर्ति के साथ अंकित हैं।
मल्लिनाथ-मुनिसुव्रतनाथ-एक शिलाफलकमें दोनोंकी कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानस्थ मूर्तियां हैं। मल्लिनाथका दक्षिण एवं मुनिसुव्रतनाथका वाम हस्त खण्डित हैं। दोनों के वक्षपर श्रीवत्स अंकित हैं। दोनोंकी चौकियोंकी लटकती हुई झूलपर दोनोंके अलग-अलग कलश एवं कच्छप लांछन बने हुए हैं। मल्लिनाथकी चौकीपर उनका यक्ष कुबेर और यक्षी अपराजिता एवं मुनिसुव्रतनाथकी चौकीपर उनका यक्ष वरुण एवं यक्षी बहुरूपिणी ललितासनमें स्थित हैं।
३-२४
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ पाश्वनाथ नेमिनाथ-यह द्विमूर्तिका भी कारीतलाईसे प्राप्त हुई थी और इस समय 'फिलाडेलफिया म्यूजियम ऑफ आर्ट' में सुरक्षित है। इन सभी प्रतिमाओंका काल १०-११वीं शताब्दी माना जाता है। पंचबालयति
ऐसी प्रतिमाओंमें एक तीर्थंकरकी मूलनायक प्रतिमाके अतिरिक्त प्रायः चारों कोनोंपर चार अन्य तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ उत्कीर्ण होती हैं। पंचबालयति वे तीर्थंकर हैं जो आजीवन बालब्रह्मचारी रहे। ये कुमार प्रवजित भी कहलाते हैं। उनके नाम हैं-वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर। ऐसी एक प्रतिमामें भगवान् महावीरकी पद्मासन प्रतिमाको केन्द्र बनाकर चार अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। ये सभी पद्मासन हैं। पीठिकाके मध्यमें महावीरका लांछन सिंह बना हुआ है। उसके नीचे धर्मचक्रका अंकन है। लांछनके दोनों ओर भी सिंह बने हुए हैं । महावीरका यक्ष मातंग वाम पाश्वमें करबद्ध खड़ा हुआ है और यक्षी सिद्धायिका चमर लिये हुई है। इनके दोनों ओर पूजा करते हुए भक्त प्रदर्शित हैं। सर्वतोभद्रिका - यह एक शिखराकार चैत्य है, जिसके स्तम्भमें चारों दिशाओंमें एक-एक तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है। सभी प्रतिमाएं कायोत्सर्गासनमें हैं। इनमें से एक तो पार्श्वनाथकी प्रतिमा है जिसकी पहचान उसके सर्पफणसे हो जाती है। शेष प्रतिमाएँ सम्भवतः ऋषभदेव, नेमिनाथ और महावीरकी हैं।
ऐसे ही कुछ शिखराकार लघु स्तूपोंपर तीर्थंकरोंकी लघु मूर्तियां बनी हुई हैं जो सम्भवतः नन्दीश्वर जिनालय अथवा सहस्रकूट चैत्यालयके प्रतीक हो सकती हैं। शासन-देवियाँ
___तीर्थंकर प्रतिमाओंके साथ तो शासन देव-देवियोंकी मूर्तियां मिलती ही हैं, किन्तु कुछ देवियोंकी स्वतन्त्र मूर्तियां भी यहाँ हैं । ये मूर्तियां कारीतलाईसे ही प्राप्त हुई थीं। देवी अम्बिकाकी एक मूर्ति द्विभुजी है। देवी अपने वाहन सिंहपर ललितासनसे बैठी हुई है। वह बायें हाथसे अपने छोटे पुत्र प्रियंकरको गोदमें लिये हुए है । दूसरे हाथमें आम्र-गुच्छक है। बड़ा पुत्र शुभंकर अपनी माताके पैरोंके पास बैठा है। देवी नाना रत्नाभरणोंसे विभूषित है।
एक अन्य अम्बिका मूर्ति है। देवी आम्रवृक्षके नीचे त्रिभंग मुद्रामें खड़ी हुई है। उसका वाहन सिंह उसके पीछे बैठा हुआ है । आम्रवृक्षके ऊपर नेमिनाथ तीर्थंकरको प्रतिमा है।
कारीतलाईके किसी जैन मन्दिरके द्वारका एक फ्रेम है। उसकी चौखटोंके अधोभागमें अम्बिका और पद्मावती ललितासनसे बैठी हुई हैं। अम्बिकाकी गोदमें बालक है और पद्मावतीके मस्तकपर फण है । चौखटके ऊपरी भागमें तीर्थकर मूर्तियां हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ अवशेषों में से सरस्वतीकी एक अत्यन्त सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई है।
पतियानदाई सतना नगरसे दक्षिण-पश्चिममें लगभग ९ कि. मी. पर सिन्दूरिया पहाड़ी है। उसके एक साधारण ऊंचे टीलेपर एक प्राचीन मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें खड़ा हुआ है। स्थानीय लोग
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मध्यप्रदेशकै दिगम्बर जैन तीर्थ
१८७ इसे 'डुबरीकी मढ़िया' या 'पतियानदाई' के नामसे जानते हैं। यह मन्दिर छोटा ही है-कुल ६ फुट १० इंच लम्बा और ६ फुट ६ इंच चौड़ा, और भीतरसे कुल ५ फुट लम्बा और ४ फुट चौड़ा. है। इसकी छत पूर्व-गुप्त-कालके मन्दिरोंकी शैलीकी बनी हुई है। यह ७ फुट ८ इंच लम्बी और ७ फुट ४ इंच चौड़ी एक पाषाण-शिलासे बनायी गयी है। मन्दिरको सुरक्षित रखनेका बहुत-कुछ श्रेय इसी छतको दिया जा सकता है। इस मन्दिरके पाषाण इसी पहाड़ोके हैं। भरहुतके प्रसिद्ध स्तूपमें भी इसी पहाड़ीके पत्थर काममें आये हैं । - यह मन्दिर उत्तराभिमुख है । इसका द्वार १ फुट १०॥ इंच चौड़ा और ३॥ फुट ऊँचा है। द्वारके दोनों ओर मकरवाहिनी गंगा और कूमवाहिनी यमुनाका मनोहर अंकन है। इन देवियोंके एक हाथमें कलश और दूसरे हाथमें चमर प्रदर्शित हैं। त्रिभंग मुद्रामें खड़ी हुई इन देवियोंका अंकन कलाकारको कुशलताका द्योतक है। देवियोंके रत्नाभरणोंकी संयोजना भी कलापूर्ण है। दोनों देवियोंके पार्श्वमें चतुर्भुज यक्ष-मूर्ति प्रदर्शित है। देवियोंके ऊपरी भागमें कल्पवल्लरीका अंकन किया गया है।
___ द्वारके तोरणमें तीन कोष्ठक बने हुए हैं। मध्य कोष्ठकमें आदिनाथ तीर्थंकर पद्मासन मुद्रामें आसीन हैं। उनकी चरण-चौकीपर वृषभ लांछन अंकित है तथा दोनों ओरके कोष्ठकोंमें फणावलियुक्त पाश्र्वनाथ विराजमान हैं। पीठिकापर सर्प लांछन बना हुआ है। तीनों ही प्रतिमाएं पद्मासनमें हैं तथा ५ फुट ऊंची हैं।
मन्दिरकी वेदी वर्तमानमें प्रतिमारहित है। कनिंघमने जब सन् १८७४ में इस स्थानकी यात्रा की थी, उस समय उन्होंने इस वेदीपर एक शिलाफलकमें उत्कीर्ण चौबीस जैन यक्षियोंकी मूर्तियाँ देखी थीं। वह मूर्ति आजकल प्रयाग संग्रहालयमें सुरक्षित है। उस मूर्तिका कई दृष्टियोंसे असाधारण महत्त्व है। सबसे प्रथम यह कि चौबोस यक्षियोंकी मूर्ति है, अर्थात् यह ऐसी दुर्लभ प्रतिमा है जिसमें समस्त तीर्थकर यक्षियां एक स्थानपर अंकित हैं और दोनों पार्यों में तीर्थंकरमूर्तियां उत्कीर्ण हैं। दूसरा महत्त्व यह है कि यह चौबीस यक्षियोंका स्वतन्त्र मन्दिर था। जैन शासन-देवियों और यक्षियोंके स्वतन्त्र मन्दिरोंके निर्माणके इतिहासकी दृष्टिसे इस मूर्ति और मन्दिरका अपना विशेष महत्त्व है। अस्तु । इस मूर्तिका विवरण इस प्रकार है
६८ फुट x ३९ इंच ऊँचे एक शिलाफलकमें २४ यक्षियोंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मध्यमें मुख्य देवी अम्बिकाकी खड़ी मूर्ति है। देवी त्रिभंग मुद्रामें खड़ी है। वह अलंकारोंसे सज्जित है। देवी चतुर्भुजी है किन्तु दुर्भाग्यसे उसकी चारों ही भुजाएं खण्डित हैं। सिरपर वह मुकुट धारण किये हुई है। मस्तकके पीछे प्रभावली है। नाक खण्डित होनेके बावजूद मुख-सौन्दर्यमें कमी नहीं आने पायी है। देवीके अलंकारों और शाटिकाकी चुन्नटोंमें कलाका जो सूक्ष्म अंकन हुआ है और शिल्प-सौन्दर्यकी जो अभिव्यक्ति हुई है, वह अन्यत्र कहीं देखनेमें नहीं आयी। इसका आकार ४१ फुट है। . देवीके कण्ठ में हँसुली, रत्नहार एवं तिलड़ी मौक्तिक माला है। भुजाओंमें भुजबन्ध हैं। कटि-प्रदेशमें कई प्रकारकी कटि-मेखलाएँ सुशोभित हैं। आभूषणोंकी खुदाई इतनी स्पष्ट है कि एकएक लड़ी और एक-एक कड़ी गिनी जा सकती है। देवी पैरोंमें कड़े और पाजेब धारण किये हुई है। देवीके दायीं ओर एक बालक सिंहपर आरूढ़ है तथा बायीं ओर एक बालक देवीका हाथ पकड़े हुए खड़ा है। ये दोनों बालक देवोके पुत्र प्रियंकर और शुभंकर हैं। दोनोंके निम्न भागमें स्त्री-पुरुष अंजलिबद्ध अंकित हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मूल प्रतिमाके समान इसका परिकर भी अत्यधिक सुन्दर है। देवीके दोनों पाश्वों एवं ऊर्ध्व भागमें लघु स्तम्भों द्वारा कोष्ठक बनाये गये हैं। इनमें २३ तीर्थंकरोंकी शासन-रक्षिका २३ यक्षियोंका अंकन किया गया है। इन सभी यक्षियोंकी मूर्तियोंके नीचे चौखटेपर उस यक्षीका नाम भी अंकित है। ऊपरी भागमें ५ यक्षो मूर्तियां है जिनके नाम हैं-बहुरूपिणी, चामुण्डा, पद्मावती, विजया और सरस्वती। वाम पाश्वमें ७ यक्षियां हैं जिनके नाम हैं-अपराजिता, महामानुषी, अनन्तमती, गान्धारी, मानसी, ज्वालामालिनी और मानुजी। दक्षिण पार्श्ववर्ती देवियोंके नाम हैं-जया, अनन्तमती, वैराटी, गौरी, काली, महाकाली और वज्र-शृंखला। अधोभागमें ४ देवीमूर्तियाँ हैं। उनके नाम ( सम्भवतः ) रोहिणी, प्रज्ञप्ति, पुरुषदत्ता और सिद्धायिनी हैं। इन नामोंमें अनन्तमतीका नाम दो बार आया है। सरस्वती विद्यादेवी है, यक्षी नहीं। सम्भवतः इस नामका उपयोग चक्रेश्वरीके लिए हुआ है । मानुजी नामकी कोई देवी नहीं है। लगता है, 'मानवी' के स्थानपर 'मानुजी' नाम दिया गया है। .
देवीके शिरोभागपर ५ तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं, जिनमें ३ पद्मासन और २ खड्गासन हैं। पद्मासन प्रतिमाओंमें मध्यकी प्रतिमाके सिरपर छत्र और पीठिकापर वृषभ लांछन अंकित हैं। अतः यह प्रतिमा आदिदेव ऋषभदेवकी है। दायीं ओरकी प्रतिमाके शोर्षपर सप्त-फणावली है। अतः यह पाश्र्वनाथ प्रतिमा है। बायीं ओर पंच-फणावली होनेसे वह सुपाश्वनाथकी प्रतिमा है। दक्षिण और वाम पाश्वोंमें ८ खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। इस प्रकार कुल १३ जिन-प्रतिमाएं अंकित हैं। इनके अतिरिक्त नवग्रह और चक्रधारी यक्ष-मूर्ति भी अंकित हैं। देवीकी इतनी सुन्दर मूर्ति अन्यत्र दुर्लभ है । वस्तुतः इसे जैन शिल्पकी एक मौलिक देन कहा जा सकता है।
इस मन्दिरकी निर्माण-शैली प्रारम्भिक गुप्तकालीन मन्दिरोंकी शैलीसे बहुत-कुछ मिलतीजुलती है। इसलिए इसका निर्माण निश्चित रूपसे गुप्त-कालमें हुआ होगा। यह सम्भव हो सकता है कि इस मन्दिरमें देवी-मूर्ति बादमें विराजमान की गयी हो। मन्दिरका द्वार अलंकृत है। द्वारके दोनों ओर द्वारपाल खड़े हैं। सिरदलपर तीन कोष्ठक बने हुए हैं । मध्य कोष्ठकमें पद्मासन तीर्थकर मूर्ति विराजमान है तथा दोनों कोनोंके कोष्ठक खाली पड़े हुए हैं। सम्भवतः ये मूर्तियाँ नष्ट कर दी गयीं या चुरा ली गयीं। मन्दिरको बनावटसे लगता है कि मन्दिरके आगे अर्धमण्डप रहा होगा, जिसमें ४ स्तम्भ होंगे।
इस विषयमें सन्देह करनेका कोई अवकाश नहीं है कि यह मन्दिर मूलतः जैन मन्दिर है। यह शक्ति-मन्दिर या हिन्दू मन्दिर नहीं है, जैसी कि कुछ पुरातत्त्ववेत्ताओंने आशंका प्रकट की है। मन्दिरके गर्भ-द्वारके सिरदलपर तीर्थंकर मूर्तियोंका अंकन इसे जैन मन्दिर माननेको बाध्य करता है।
____ इस मन्दिरका नाम किस प्रकार 'पतियानदाई मन्दिर' हो गया, यह अवश्य अनुसन्धानका विषय है। कुछ विद्वानोंकी रायमें यह मन्दिर पहले 'पद्मावती देवी मन्दिर' कहलाता था। इसीका अपभ्रंश होकर 'पतियानदाई मन्दिर' हो गया। किन्तु अपभ्रंशवाली यह बात तर्कसंगत नहीं लगती क्योंकि मूलनायक देवीके अतिरिक्त जिन २३ देवियोंके नाम देवियोंके पादपीठपर अंकित मिलते हैं, उनमें पद्मावतीका भी नाम मिलता है। इसका अर्थ यह है कि मूलनायक देवी अन्य हो कोई है। हमारो सम्मतिमें वह देवी अम्बिका है। इसकी पहचान उसके दो पुत्रोंशुभंकर और प्रियंकर, तथा उसके वाहन सिंहसे हो जाती है।
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सुकोशल जनपद
कुण्डलपुर लखनादौन
मढ़िया त्रिपुरी बरहटा कोनीजी
पनागर बहोरीबन्द
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छतरपुर
प
त्रा
-... सुकोशल जनपद
सा ग र
शहडोल
अभाना
सागर
सर गुजा
तिन्दूखेड़ा
लोनीपोमान
रायगढ़
पण्डारोड
कटपोरा
नरसिंह पुर KT
नरसिंहपुर
NAधुमा
पुनसोर
मण्डला
बनादा
रायगढ़
हावाका खरासिया
-
मण्डला
बिलासपुर
मुंगेली
सपखारचलपी।
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(कवरधाAV
मानेगांव
तामटा
परासिया
सिलहटासमता
परमाटोलबालाघाट
सिगा
A
सजा
एकिन्दवाडा
विठली
रएकटंगीरा सिक्न पानेगांव
रोगी
खरोरा
खरागमना)
रायपुर चोरट्री
महासमा
गोंदिया
अभाना
नागपुर
जनांदगाव
चिोला
नागपुर को
1
भ
डा
रा
धमतरी
... IMसांतीपुर
कुसुमकला
बोला गिर
मोहेला पारा
संकेत ----- राज्य की सीमा
नदियों -----जिला की सीमा
-राजकीय पथ ० जिला मुख्यालय
-अन्य पक्के पथ ० नगर
----कच्चे पथ हीरेलवे लाईन . जैन तीर्थ -बोटीरेलवे सईन प्राचीन स्थल
ब स्त र
भ वा नी पत्तन
१. भारतके महासर्वेक्षककी अनुज्ञानुसार भारतीय सर्वेक्षण विभागीय मानचित्रपर आधारित । © भारत सरकारका प्रतिलिप्यधिकार, १९७६ २. मानचित्रमें दिये गये नामोंका अक्षर-विन्यास विभिन्न सूत्रोंसे लिया गया है.'
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कुण्डलपुर
मार्ग और अवस्थिति
कुण्डलपुर क्षेत्र मध्यप्रदेशके दमोह जिलेमें अवस्थित है। यह बीना-कटनी रेल-मार्गके दमोह स्टेशनसे ईशान कोणमें ३५ कि. मी. और दमोह-पटेरा रोडपर पटेरासे ५ कि. मी. दूर है। सड़क पक्की है। कटनीसे सगौनी होकर भी जा सकते हैं। कुण्डलपुर एक छोटा-सा ग्राम है। इसका पोस्ट ऑफिस कुण्डलपुर ही है। यहाँके मन्दिर एक गोलाकार छोटी पहाड़ीके उत्तरी सिरेपर अवस्थित हैं।
___कुण्डलपुर समुद्री सतहसे तीन हजार फुट ऊंची पर्वतमालाओंसे घिरा हुआ है। यहांकी पर्वतमाला कुण्डलाकार है। सम्भवतः इसीलिए इस स्थानका नाम कुण्डलपुर पड़ गया प्रतीत होता है। यहाँके दृश्य अत्यन्त मनोरम हैं। मध्यमें वर्धमान सागर नामक एक विशाल सरोवर है तथा उसके तीन ओर पर्वतपर और चौथी ओर किनारेपर भी मन्दिरोंकी पांत है। सरोवरपर पक्का घाट होनेके कारण यह स्थान अत्यन्त सन्दर बन गया है। पहाडपर जानेके लिए तीन मार्ग हैं। पहले और दूसरे मार्गसे पांच सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं तथा तीसरा मार्ग मन्दिरोंके बीचसे होकर जाता है। इस मार्गसे उतरने-चढ़नेमें कोई कठिनाई नहीं होती। यहाँका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त चित्ताकर्षक एवं आह्लादक है। कुण्डलपुरके बड़े बाबा
यहाँ पर्वतके ऊपर और नीचे तलहटीमें मन्दिरोंकी कुल संख्या ६० है। इनमें से मुख्य मन्दिर 'बड़े बाबा' का मन्दिर कहलाता है। यह पहाड़पर मन्दिर नं. ११ है। बडे बाबाकी मति पदमासन है। इसकी ऊँचाई १२ फुट ६ इंच तथा चौड़ाई ११ फुट ४ इंच है। इस मूर्तिको आम जनतामें महावीर भगवान्की मूर्तिके रूपमें मान्यता प्राप्त है। यह धारणा शताब्दियोंसे चली आ रही है, ऐसा लगता है। बड़े बाबाके मन्दिरमें संवत् १७५७ का एक शिलालेख है। उसमें मन्दिरके सन्दर्भ में श्लोक नं. २ तथा १० में 'श्रीवद्धंमानस्य' और 'श्री सन्मतेः' दिया हुआ है, जिसका आशय यह है कि उस कालमें अर्थात् १७वीं-१८वीं शताब्दीमें यह मन्दिर. महावीर मन्दिर कहलाता था। इससे यह स्पष्ट है कि इस मन्दिरको मूलनायक प्रतिमा भगवान् महावीरकी होगी और उसके कारण ही यह मन्दिर महावीर मन्दिर कहलाता होगा। सम्भवतः 'बड़े बाबा' की यह मूर्ति ही उस कालमें महावीरकी मूर्ति कहलाती होगी।
ध्यानपूर्वक देखनेसे प्रतीत होता है कि बड़े बाबा और पाश्ववर्ती दोनों पार्श्वनाथ-प्रतिमाओंके सिंहासन मूलतः इन प्रतिमाओंके नहीं हैं। बड़े बाबाका सिंहासन दो पाषाण-खण्डोंको जोड़कर बनाया गया प्रतीत होता है। इसी प्रकार पाश्वनाथ-प्रतिमाओंके आसन किन्हीं खड्गासन प्रतिमाओंके अवशेष-जैसे प्रतीत होते हैं। इससे दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-(१) पीठासन अपने मौलिक रूपमें हों किन्तु उनके ऊपरकी मूर्तियाँ अन्य विराजमान कर दी गयी हों।
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१९०
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
(२) मूर्तियाँ मूलतः ये ही रही हों किन्तु किसी कारणवश पीठासन कभी बदले गये हों । यदि ऐसी कोई सम्भावना भी हो, तो यह बात आततायियोंके आक्रमणके बादकी ही हो सकती है । तथ्य कुछ भी हो, यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इधर की दो-तीन शताब्दियोंमें मूलनायकके गर्भगृहमें कई महत्त्वपूर्णं परिवर्तन किये गये हैं । उदाहरणत: इस गर्भगृहकी दीवारोंपर जिस ढंग से प्रतिमाएँ लगी हुई हैं, उसमें कोई व्यवस्था या योजना नहीं मालूम पड़ती है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँसे ५ कि. मी. दूरस्थ वरंट नामक स्थानसे, ये मूर्तियाँ, वहाँका मन्दिर ध्वस्त हो जाने पर लाकर यहां विराजमान की गयी हैं ।
Saran मूलनायक भगवान्की जो स्थिति है, उसे देखते हुए अवश्य आश्चर्य होता है कि इस मन्दिरको उपर्युक्त शिलालेख में वर्धमान मन्दिर अथवा सन्मति - मन्दिर क्यों लिखा गया है और यह कि परम्परागत अनुश्रुति के अनुसार मूलनायक प्रतिमाको महावीरकी प्रतिमा क्यों कहा जाता है, जबकि प्रतिमाकी चरण-चौकीपर महावीर तीर्थंकरका लांछन सिंह या अन्य कोई प्रतीक अंकित नहीं है । चरण-चौकीपर दोनों पावोंमें दो सिंह अवश्य उकेरे गये हैं किन्तु ये चौबीसवें तीर्थंकरके लांछन या प्रतीक नहीं हैं, अपितु ये सिंहासन के सिंह हैं, जैसे कि प्रायः अन्य सभी प्रतिमाओं की चरण-चौकीपर अंकित मिलते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे ठोस आधार हैं जो बड़े बाबाको महावीर - मूर्ति मानने की मान्यताके विरुद्ध पड़ते हैं । प्रथम तो यह कि मूर्ति के कन्धेपर जटाओं की दो-दो लटें लटक रही हैं । सामान्यतः तीर्थंकर मूर्तियोंके केशकुन्तल घुंघराले और छोटे होते हैं, उनके जटा एवं जटाजूट नहीं होते । किन्तु भगवान् ऋषभदेवकी कुछ प्रतिमाओंमें प्रायः इस प्रकार के जटाजूट अथवा जटा देखनेमें आती है । ऋषभदेव प्रतिमाओंका यह जटायुक्त रूप शास्त्रसम्मत भी है । आचार्य जिनसेनने 'हरिवंश पुराण' में ऋषभदेव के जटायुक्त मनोहर रूपके सम्बन्धमें जो प्रशंसापरक उद्गार प्रकट किये हैं, वे ध्यान देने योग्य हैं और मूर्ति - शिल्पमें उसका विशेष महत्त्व है । सम्बद्ध श्लोक इस प्रकार है
सप्रलम्बजटाभारभ्राजिष्णुजिंष्णुराबभौ ।
रूढप्रारोहशाखाग्रो यथा न्यग्रोधपादपः ॥९-२०४
अर्थात्, लम्बी-लम्बी जटाओंके भारसे सुशोभित आदिनाथ जिनेन्द्र उस समय ऐसे वटवृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे, जिसकी शाखाओंसे जटाएँ लटक रही हों ।
इसी प्रकार आचार्य रविषेणने पद्मपुराण ( ३।२८८ ) में भगवान्की जटाओंका वर्णन किया है । इनकी बातका समर्थन अन्य आचार्योंने भी किया है। किन्तु किसी अन्य तीर्थंकरकी जटाओं का कोई वर्णन किसी ग्रन्थमें नहीं मिलता । ऋषभदेवके तपस्यारत रूपमें जटाओंका होना अपवाद है । यही कारण है कि ऋषभदेवके अतिरिक्त अन्य किसी तीर्थंकर मूर्तिके सिरपर जटाभार नहीं मिलता। केवल ऋषभदेवकी अनेक मूर्तियोंके सिरपर नानाविध जटाजूट, जटागुल्म और जटाएँ प्राप्त होती हैं । कुण्डलपुरके बड़े बाबा के कन्धेपर भी जटाएँ लहरा रही हैं । अतः यह मूर्ति निस्सन्देह ऋषभदेवकी है, महावीरकी नहीं ।
दूसरा कारण और भी प्रबल और स्पष्ट है, जिससे इसे ऋषभदेवकी मूर्ति स्वीकार करने के सिवा अन्य कोई चारा नहीं है। इसकी वेदोके अग्रभागमें भगवान् ऋषभदेवके यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी बने हुए हैं।
ये दोनों ही कारण और तर्क इतने पुष्ट हैं, जिनसे बड़े बाबाकी मूर्ति महावीरकी न होकर ऋषभदेवकी सिद्ध होती है ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तोय
अतिशय क्षेत्र
बहुत समयसे कुण्डलपुर एक अतिशय क्षेत्रके रूपमें विख्यात है। यहाँके बड़े बाबाके चमत्कारोंके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है, एक मुगल बादशाहने कुण्डलपुरपर आक्रमण कर दिया। जब उसने 'बड़े बाबा' के हाथको तोड़नेके लिए हथौड़ेसे प्रहार किया तो प्रतिमाके खण्डित अँगूठेसे दूधको धारा बह निकली। उसी समय उसकी सेनापर मधुमक्खियोंने भीषण आक्रमण कर दिया, जिससे सेना वहाँसे अपनी जान बचाकर भाग गयी।
___ इसी प्रकार किंवदन्ती है कि यहाँ केशरकी वर्षा कई बार हुई है। रात्रिमें देवगण पर्वतके मन्दिरोंमें पूजनके लिए आते रहे हैं। कहा जाता है कि उनके गीत-वाद्यकी मधुर ध्वनि अनेक लोगोंने सुनी है। अनेक जैन और जेनेतर व्यक्ति यहाँ मनोकामना-पूर्तिके निमित्त आते हैं और अनेक लोगोंकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। ऐसो किंवदन्तियोंके कारण यह अतिशय क्षेत्र माना जाता है। महाराज छत्रसाल द्वारा जीर्णोद्धार
इस क्षेत्रके प्रति इतिहासप्रसिद्ध महाराज छत्रसाल विशेष रूपसे आकृष्ट हुए थे, इस प्रकारके प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं । घटना १७वीं-१८वीं शताब्दीके मध्यकी है। भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति, जो मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके थे, अपनी शिष्यमण्डलीसहित हिण्डोरिया पधारे। वे देवदर्शन किये विना आहार ग्रहण नहीं करते थे। आसपास कहीं जैन मन्दिर नहीं था। तभी उन्हें लोगोंसे कुण्डलपुरका परिचय मिला जो वहांसे १९ कि. मी. दूर था। वे एक भीलको लेकर कुण्डलपुर पहुंचे। उस समय यह क्षेत्र उपेक्षित दशामें पड़ा हुआ था। इसकी दुर्दशा देखकर भट्टारकजीको बड़ा खेद हुआ। किन्तु जब भगवान् आदिनाथकी इस अतिशयसम्पन्न विशाल मूर्तिके दर्शन उन्होंने किये तो उन्हें अत्यन्त आह्लाद हुआ। तभी उनकी आज्ञा लेकर उनके शिष्य श्री शुभचन्द गणीने क्षेत्रके उद्धारका बीड़ा उठाया। कुछ समय बाद उनका देहावसान हो गया। तब उनके गुरुबन्धु श्री ब्र. नेमिसागरजीने उनके अधूरे कार्यको पूरा करनेका संकल्प किया।
एक बार महाराज छत्रसाल मुगल बादशाहसे पराजित होकर कुण्डलपुर आ निकले । वहाँ उनकी भेंट ब्रह्मचारी नेमिसागरजीसे हुई। ब्रह्मचारीजीने इस हिन्दू नरेशसे क्षेत्रके जीर्णोद्धारके लिए सहायताकी याचना की। किन्तु नरेश स्वयं ही सहायताकी तलाशमें थे। फिर भी उन्होंने यह वचन दिया कि यदि वे अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लेंगे तो राज्य-कोषसे यहाँका जीर्णोद्धार करा देंगे। उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ 'बड़े बाबा' के दर्शन किये और प्रच्छन्न रूपसे कुछ समय तक यहीं रहे।
... इसके कुछ दिनों पश्चात् मुगल सेनासे महाराज छत्रसालकी मुठभेड़ हुई। उस युद्ध में विजयश्री वीर छत्रसालको प्राप्त हुई। उन्हें खोया हुआ राज्य मिल गया। उन्हें अपना वचन स्मरण था। उन्होंने यहाँके वर्धमानसागरके चारों ओर पक्का घाट बनवाया और मन्दिरका जीर्णोद्धार कराया। जीर्णोद्धारका कार्य पूरा होनेपर माघ शुक्ला १५ सोमवार वि. सं. १७५७ को पंचकल्याणक प्रतिष्ठाका विशाल समारोह किया। इस समारोहमें महाराज स्वयं भी पधारे थे। इस अवसरपर उन्होंने मन्दिर में सोने-चांदीके छत्र, चमर और पूजाके बरतन भेंट किये, जो अब तक मन्दिरमें वर्तमान बताये जाते हैं। उन्होंने मन्दिरके लिए पीतलका दो मनका एक घण्टा भी भेंट किया।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ महाराज छत्रसाल द्वारा किये गये जीर्णोद्धार और उपकरणादि भेंट किये जानेके बारे में एक शिलालेख भी मिलता है जो मन्दिरके प्रवेश-द्वारपर अब भी लगा हुआ है। इस शिलालेखमें कुल २४ पंक्तियां हैं। यह लेख संवत् १७५७ माघ सुदी १५ सोमवार (३१ दिसम्बर सन् १७०० सोमवार ) को उत्कीणं किया गया था। इस शिलालेखमें कुन्दकुन्दान्वयमें हुए यशःकीर्ति, ललितकीर्ति, धर्मकीति, पद्मकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारकोंका उल्लेख करके बताया गया है कि उनके शिष्य शुभचन्द्र गणी हुए जिन्होंने इस स्थानको जीर्ण-शीणं देखकर भिक्षावृत्तिसे एकत्रित धनसे इसका जीर्णोद्धार कराया। पश्चात् उनके शिष्य ब्र. नेमिसागरने वि. सं. १७५७ माघ सुदी १५ सोमवारको सब छतोंका काम पूरा किया। भट्टारकोंको यह परम्परा बलात्कारगण जेरहट-शाखाकी है । इस शाखाका प्रारम्भ १५वीं शताब्दीमें हुआ था। क्या यह क्षेत्र निर्वाण-क्षेत्र है ? ..
आचार्य यतिवृषभ विरचित्त 'तिलोयपण्णति' में निम्नलिखित गाथा आयो है"कुण्डलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो ॥” ४।१४७९ अर्थात् , केवलज्ञानियोंमें सबसे अन्तिम श्रीधर हुए जो कुण्डलगिरिसे मुक्त हुए।
श्रीधर मनि केवलियोंकी परम्परामें अन्तिम अननबद्ध केवली थे. क्योंकि इससे पर्वको दूसरी गाथामें 'तत्थ वि सिद्धिपयण्णे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा' इस वाक्य द्वारा यह सूचित किया है कि जम्बू स्वामीके बाद कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ। श्रीधर मुनिका उल्लेख इसके बाद हुआ है। इसलिए अध्याहार द्वारा यह अर्थ निकलता है कि वे अन्तिम अननुबद्ध केवली थे। भगवान् महावीरके समवसरणमें जो ७०० केवली थे, उनमें ३ अनुबद्ध और शेष अननुबद्ध केवली थे, और श्रीधर उनमें सबसे अन्तिम थे।
____ उपर्युक्त गाथाके आधारपर कुछ विद्वान् प्रस्तुत कुण्डलपुरको श्रीधर केवलीको निर्वाण-भूमि मानकर उसे निर्वाण-क्षेत्र बताते हैं। यह वस्तुतः विचारणीय है। श्रीधर मुनिको निर्वाण-भूमि कौन-सी है, अब तक इस ओर ध्यान प्रायः कम गया है और तत्सम्बन्धी उल्लेख केवल शास्त्रोंमें दिखाई पड़ता है, किन्तु उनकी निर्वाण-भूमिका निर्णय नहीं हो पाया।
आचार्य पूज्यपादकृत संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें एक श्लोक मिलता है जो अवश्य विचारणीय प्रतीत होता है। वह श्लोक इस प्रकार है
द्रोणीमति-प्रबल कुण्डल-मेढ़के च, वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे। ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि-वलाहके च, विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ॥
इस श्लोकमें 'प्रबल कुण्डल मेढ़के च' इस पदका अर्थ आचार्य प्रभाचन्द्रने "क्रियाकलाप' में 'प्रबल कुण्डले प्रबल मेढ़ के च' दिया है, जिसका अर्थ है श्रेष्ठ कुण्डलगिरि और श्रेष्ठ मेदगिरि। इस श्लोकमें कई सिद्ध तीर्थों का नामोल्लेख किया गया है, यथा द्रोणिमान्, कुण्डलगिरि, मेढ़गिरि, वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलगिरि, बलाहक, विन्ध्यगिरि, पोदनपुर और वृषदीपक । इनमें कुण्डलगिरिका उल्लेख द्रोणिमान् पर्वतके पश्चात् और मेढ़ गिरिसे पूर्व किया गया है। उसके पश्चात् राजगृहके चार पर्वतोंका उल्लेख किया गया है जिनके नाम हैं-वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलाचल और बलाहक । सम्भवतः राजगृहीका पांचवां पर्वत निर्वाण-भूमि नहीं रहा है, इसलिए उसका उल्लेख यहां नहीं किया गया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कुण्डलगिरि भी सिद्ध क्षेत्र था तथा तिलोयपण्णत्ति, जयधवला आदि ग्रन्थोंके अनुसार वहांसे श्रीधर केवली मुक्त हुए जो महावीर भगवान्के अन्तिम अननुबद्ध केवली थे।
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१९३ कुण्डल नामके कई स्थान हैं-(१) कुण्डलपुर अथवा कुण्डग्राम, वैशाली (वर्तमान बसाढ) के निकट जिसका वर्तमान नाम वासुकुण्ड है। इसका नाम महावीर-कालमें कुण्डग्राम था। दिगम्बर जैनाचार्योंने इसका नाम कुण्डलपुर भी लिखा है।
(२) नालन्दाके निकट कुण्डलपुर। वस्तुतः गांवका नाम कुण्डलपुर नहीं है, बड़ागांव है। वैशालीके कुण्डग्रामके स्थानपर इसी गांवको कुण्डलपुर क्षेत्र मानकर यहाँ मन्दिर बना दिया गया था।
(३) कुण्डलपुर, महाराष्ट्रके सतारा जिलेमें पूना-सतारा रेलमार्गपर किर्लोस्कर गढ़ी स्टेशनसे पांच कि. मी. है। यह तीर्थक्षेत्र है। यहाँ पहाड़पर झरी पार्श्वनाथ और गिरि पाश्वनाथ नामक दो मन्दिर हैं।
(४) कुण्डलगिरि-दमोह जिलेका वर्तमान क्षेत्र ।
इन उक्त चारों स्थानोंको तीर्थ-क्षेत्र माना जाता है। किन्तु आश्चर्य है कि कुछ समय पूर्वतक इनमें से किसीको भी सिद्धक्षेत्र नहीं माना जाता था। इधर कुछ वर्षोंसे दमोह जिलेके कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र घोषित करनेके प्रयत्न किये जा रहे हैं।
इन चारों में से कौन-सा कुण्डल सिद्धक्षेत्र है, यह सिद्ध करना अभी शेष है। दमोह जिलेके ण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र मानने के लिए प्रमाण-रूपमें वे चरणचिन्ह उपस्थित किये जाते हैं जिनकी चौकीपर आगेकी ओर लिखा है-'कुण्डलगिरी श्रीधर स्वामी'। किन्तु इन चरणोंको देखकर लगता है कि ये १२वीं-१३वीं शताब्दी या उसके बादके हैं और लेख तो विशेष प्राचीन प्रतीत नहीं होता। यह कोई प्रतिष्ठा-लेख भी नहीं लगता क्योंकि अन्य लेखोंके समान इसमें प्रतिष्ठा-काल, प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठाकारक किसीका भी उल्लेख नहीं है। यह सब क्यों नहीं दिया गया, यह नहीं कहा जा सकता। कुछ वर्ष पूर्व तक यह लेख किसी व्यक्तिको दृष्टिमें भी नहीं आया था। इन सब कारणोंसे इस लेखको अधिक प्रामाणिक माननेकी स्थिति नहीं बनती। फिर भी इस क्षेत्रको सिद्धक्षेत्र मानने में इसकी प्राकृतिक स्थिति सहायक बन सकती है। यह स्थिति अन्य किसी कुण्डलपुरको प्राप्त नहीं है। तिलोयपण्णत्तिमें जिस स्थानका नाम कुण्डलगिरि दिया गया है, उसीका उल्लेख पूज्यपादने निर्वाण-भक्तिमें प्रबल कुण्डलके नामसे दिया है। इस उल्लेखमें प्रबल तो विशेषणपद है, स्थानका नाम तो कुण्डल ही है। किन्तु तिलोयपण्णत्तिके कुण्डलगिरि-उल्लेखसे लगता है कि यह क्षेत्र कोई नगर न होकर पर्वत है । वैशाली कुण्डग्राम और नालन्दाके निकटवाला कुण्डलपुर तो गाँव हैं, पर्वत नहीं। इसलिए उन्हें तो विचारकोटिमें रखा ही नहीं जा सकता। सतारा जिलेका कुण्डल और दमोह जिलेका कुण्डल इन दोनोंपर विचार करते समय हमें संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें दिये गये निर्वाण-क्षेत्रोंके क्रमको एकदम उपेक्षित या गौण नहीं समझ लेना चाहिए। इसमें द्रोणिमान्, कुण्डल और मेढ़क इस क्रमसे तीन तीर्थ दिये हुए हैं । लगता है, यह क्रम निरुद्देश्य नहीं है। यदि हम इस क्रमको सोद्देश्य और सार्थक मान लें तो द्रौणिमान् और मेढ़कके मध्य कुण्डलकी अवस्थिति स्वीकार करनी होगी। भौगोलिक दृष्टिसे वर्तमानमें द्रोणगिरि और मेढ़क अर्थात् मुक्तागिरिके मध्यमें कुण्डलपुर अवस्थित है। अतः संस्कृत निर्वाण-भक्तिका सिद्धक्षेत्र प्रबल कुण्डल और तिलोयपण्णत्तिमें वर्णित श्रीधर केवलीका निर्वाण-क्षेत्र कुण्डलगिरि वस्तुतः दमोह जिलेका यह वर्तमान कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र है।
कई विद्वानोंने एक नयी प्रस्थापना की है। उनका अभिमत है कि निर्वाण भक्तिके उपर्युक्त श्लोकमें राजगृहीके चार पर्वतोंका तो उल्लेख किया गया है किन्तु पांचवें पर्वतका नामोल्लेख तक नहीं किया गया। इससे लगता है कि प्रबल कुण्डल पद राजगृहीके पांचवें पर्वतके लिए प्रयुक्त हुआ
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य है। इस पदका प्रयोग भी सोद्देश्य किया गया है । यतः राजगृहीके पंचपहाड़ बिलकुल गोलाकार है जैसा कि कुण्डल गोल होता है। किन्तु यह मत हमें कोई राह नहीं दिखाता। न तो राजगृहके पांच पहाड़ोंमें कुण्डल नामका कोई पर्वत ही है, और न वहांके पहाड़ कुण्डलाकार ही हैं। इसके अतिरिक्त पद-रचनामें राजगृहके चारों पवंतोंके साथ कुण्डलका उल्लेख भी नहीं किया गया। अतः कुण्डलगिरि राजगृहका कोई पर्वत रहा होगा, इस कल्पनाको प्रामाणिक माननेमें सहज ही संकोच होता है।
इस विवेचनके पश्चात् हम इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि जबतक कोई प्रबल और विरोधी प्रमाण प्राप्त नहीं होता, दमोह जिलेका कुण्डलपुर ही वह सिद्धक्षेत्र है जहाँसे अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधर मुनि मुक्त हुए। क्षेत्र-दर्शन
इस क्षेत्रपर कुल ६० मन्दिर बने हुए हैं, जिनमें से पहाड़पर ४० और नीचे मैदानमें २० बने हुए हैं। मैदानके मन्दिरोंमें केवल एक मन्दिर धर्मशालाओंके मध्य बना हुआ है। यह महावीर मन्दिर कहलाता है। शेष मन्दिर वर्धमानसागरके तटपर बने हुए हैं। धर्मशालाओंके मध्य मैदानमें एक विशाल संगमरमरका मानस्तम्भ बना हुआ है। ___यहां धर्मशालाके निकट वर्धमानसागर नामक एक विशाल सरोवर बना हुआ है। इसके किनारेपर पाषाणकी सीढ़ियां और घाट बने हुए हैं। सीढ़ियों और घाटोंका निर्माण इतिहासप्रसिद्ध महाराज छत्रसालने कराया था, ऐसा कहा जाता है।
क्षेत्रकी वन्दनाके लिए जाते हुए तालाबके किनारेपर चन्द्रप्रभ भगवान्की गुमटी पड़ती है। यही प्रथम मन्दिर है। क्षेत्रकी वन्दना यहींसे प्रारम्भ होती है।
- मन्दिर नं. १.-चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्ण, १ फुट २ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १८८९ में हुई।
२. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी पद्मासन, श्वेतवर्ण १ फुट ऊंची प्रतिमा है। प्रतिष्ठा संवत् १९०१ में हुई। यह एक गुमटी है। इसके पास एक छोटी छतरीमें चरण विराजमान हैं।
३. एक गुमटीमें डेढ़ फुटके एक शिलाफलकमें चरणचिह्न उत्कीर्ण हैं । चरण ८ इंच लम्बे हैं और एक दीवार में जड़े हुए हैं।
इसके आगे पहाड़की चढ़ाई प्रारम्भ हो जाती है । पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं। कुछ सीढ़ियां चढ़नेपर एक द्वार मिलता है। उसके बाद लगभग २०० सीढ़ियां चढ़नेके बाद फिर एक द्वार आता है। यह एक प्रकारसे विश्रामस्थल है। यहाँसे लगभग २०० सीढ़ियां चढ़नेके बाद चन्द्रप्रभ मन्दिर मिलता है।
४. चन्द्रप्रभ मन्दिर-इसमें चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्ण पद्मासन, २ फुट ११ इंच उत्तुंग प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १५४८ में हुई। बायीं ओर एक वेदीमें चन्द्रप्रभ २ फुट ९ इंच ऊँचे स्वर्ण-वणं विराजमान हैं। इस मन्दिरके बाहर चारों कोनोंपर गुमटियां बनी हुई हैं। इनमें श्यामवर्ण, १ फुट ७ इंच ऊँची, पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसमें लांछन और लेख नहीं हैं।
____५. पार्श्वनाथ मन्दिर-यहाँ तीन दरको वेदी है। मध्यमें कृष्णवर्ण पद्मासन पार्श्वनाथ विराजमान हैं। अवगाहना २ फुट ९ इंच है और प्रतिष्ठाकाल है संवत् १९०२ । बायीं ओर
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मुनिसुव्रतनाथको श्वेतवर्णं, पद्मासन, संवत् १९०२ में प्रतिष्ठित और २ फुट ३ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा है। दायीं ओर आदिनाथकी कृष्णवणं, २ फुट ३ इंच उन्नत, पद्मासन और संवत् १९०२ में प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है ।
६. पार्श्वनाथ मन्दिर - मन्दिर विशाल है । पार्श्वनाथकी कृष्णवर्णं, संवत् १८८८ में प्रतिष्ठित, २ फुट ९ इंच ऊँची, पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । बायीं ओर श्वेतवर्णके चन्द्रप्रभ हैं । अवगाहना २ फुट ५ इंच है और प्रतिष्ठाकाल संवत् १८८८ है । दायीं ओर इसी वर्णं और कालकी ऋषभदेव प्रतिमा है ।
७. नेमिनाथ मन्दिर - २ फुट ८ इंच ऊँची, कृष्ण पाषाणकी, संवत् १८८२ में प्रतिष्ठित पद्मासन मूर्ति है । बायीं ओर ऋषभदेव और दायीं ओर महावीरकी श्वेतवर्णं प्रतिमाएँ हैं ।
८. पार्श्वनाथ मन्दिर – संवत् १८७१ में प्रतिष्ठित और ३ फुट १० इंच ऊँची, कृष्णवणं, पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इधर-उधर वेदी खाली है ।
९. अजितनाथ मन्दिर - अजितनाथ भगवान्की श्वेतवर्णं, पद्मासन, १ फुट ९ इंच ऊँची और संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है ।
१०. चन्द्रप्रभ मन्दिर - भगवान् चन्द्रप्रभ श्यामवर्णं, १ फुट २ इंच उन्नत और पद्मासन विराजमान हैं । वक्षपर श्रीवत्स सुशोभित है । लेख नहीं है । इसके पाश्वमें भगवान् अनन्तनाथकी पद्मासन, संवत् १८९७ में प्रतिष्ठित और २ फुट १ इंच ऊँची प्रतिमा विराजमान है। यहाँ दो प्राचीन मूर्तियाँ भी विराजमान हैं ।
११. बड़े बाबाका मन्दिर - इस मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा भगवान् ऋषभदेवकी है। यह लाल वर्णंकी पद्मासन है । इसकी ऊँचाई १२ फुट ६ इंच तथा चौड़ाई ११ फुट ४ इंच है । इसके दोनों पावों में पार्श्वनाथ भगवान्की ११ फुट १० इंच ऊँची खड्गासन मूर्तियाँ हैं। पार्श्वनाथके ऊपर सप्त फणावली सुशोभित है । ऋषभदेव प्रतिमाको ही 'बड़े बाबा' कहते हैं। बड़े बाबाके अभिषेक के लिए दोनों ओर लोहेकी सीढ़ियां लगी हुई हैं।
ऋषभदेव भगवान् के मुखपर सौम्यता, भव्यता और दिव्य स्मित है । ध्यानपूर्वक कुछ देर देखते रहनेपर मुखपर अद्भुत लावण्य, अलौकिक तेज और दिव्य आकर्षण प्रतीत होता है । भगवान् की छातीपर श्रीवत्स सुशोभित है, कन्धोंपर जटाओंकी दो-दो लटें दोनों ओर लटक रही हैं । भगवान् के सिंहासनके नीचे दो सिंह बने हुए हैं, जो आसनके सिंह हैं। ये तीर्थंकरके लांछन नहीं हैं । पादपीठके अधोभागमें अर्थात् वेदीके सामनेके भागमें ऋषभदेवके सेवक यक्ष गोमुख और यक्षी चक्रेश्वरी उत्कीर्ण हैं । यक्ष द्विभुजी है । उसके एक हाथमें परशु और दूसरे हाथमें बिजौरा फल है। यक्षका मुख गाय जैसा है । दायीं ओर चक्रेश्वरी है । वह चतुर्भुजी है। उसके ऊपरके दो हाथोंमें चक्र हैं | नीचे दायाँ हाथ वरद मुद्रामें है । बायें हाथमें शंख है ।
इस गर्भगृहमें दायीं ओर की दीवारपर छह शिलाफलकोंपर तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनमें क्रमशः बायीं ओरसे दायीं ओरको ऋषभदेव, अभिनन्दननाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा छठे फलकमें ऊपर कुन्थुनाथ तथा नीचे ऋषभदेव हैं। इनमें पहली, तीसरी और चौथी प्रतिमाएँ खड्गासन हैं, शेष पद्मासन हैं ।
बड़े बाबाके सामने दीवार पर - वाम भाग में ऋषभदेवकी खड्गासन प्रतिमा है । दूसरी प्रतिमाका चिह्न ज्ञात नहीं हो सका । दक्षिण भाग में ऋषभदेव और चन्द्रप्रभकी खड्गासन मूर्तियाँ हैं ।
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बायीं ओरकी दीवारमें ऋषभदेव, कुन्थुनाथ और पार्श्वनाथको चार मूर्तियाँ हैं । प्रत्येक के साथ पुष्पवर्षी देव और चमरवाहक हैं।
गर्भगृह प्रवेशद्वारके बायीं ओर एक शिलालेख अंकित है । यह ९ फुट ११ इंच चौड़ा और १ फुट ७ इंच ऊँचा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसी शिलालेखमें महाराज छत्रसाल द्वारा क्षेत्रको दिये गये बहुमूल्य सहयोग और भेटका उल्लेख है ।
इसी प्रवेशद्वारके आगे एक चबूतरेपर गुलाबी पाषाणके चरणचिह्न उत्कीर्ण हैं । इनके पादपीठपर सामने की ओर आधुनिक लिपिमें 'कुण्डलगिरी श्रीधर स्वामी' लिखा हुआ है । चरणोंकी बगल में ४ फुट २ इंचका और मेरुके आकारका एक पाषाण-स्तम्भ रखा हुआ है । इसके दो भाग इस प्रकार हो गये हैं मानो यह मध्यभागसे चीर दिया गया हो। दोनों भागोंपर २० मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। इनमें से दो मूर्तियां नहीं हैं। इसके ऊपर संवत् १८९२ का एक लेख अंकित है ।
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मन्दिर में चार वेदियाँ बनी हुई हैं । मन्दिरके मुख्य प्रवेशद्वार पर दायीं ओर क्षेत्रपाल विराजमान हैं। उनकी खड़ी मुद्रा है, चार भुजाएँ हैं, जिनमें से एकमें फल, दूसरे में पुष्प, तीसरे हाथमें दण्ड और चौथे हाथसे अपने वाहन कुत्ते को पकड़े हुए हैं । यहाँसे नीचे धर्मशालाको जानेका मार्ग भी है। यहाँ अनेक जैन और जैनेतर स्त्री-पुरुष बच्चोंका मुण्डन कराने और मनौती मानने आते हैं ।
१२. नेमिनाथ मन्दिर - नेमिनाथ भगवान् की यह प्रतिमा सलेटी वर्णंकी है और खड्गासन है । भगवान् के ऊपर तीन छत्र हैं । उनके दोनों ओर गज बने हुए हैं। उनके नीचे भक्त हाथ जोड़े हुए हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र सेवा - मुद्रामें खड़े हुए हैं। यह एक गुमटी है ।
१३. महावीर मन्दिर - यह भी एक गुमटी है । इसमें स्वर्णं वर्णंकी पद्मासन महावीर - मूर्ति विराजमान है । मूर्तिके सिरके पीछे प्रभावलय है, किन्तु यह खण्डित । बायीं ओर चार पद्मासन और दायीं ओर छह पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं । यह शिलाफलक १ फुट १० इंच ऊँचा है, किन्तु खण्डित है। मूर्तिकी नाक और होठ भी खण्डित हैं ।
१४. पार्श्वनाथ मन्दिर - भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्णवर्ण, २ फुट ६ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । मूर्तिपर लेख नहीं है ।
१५. अजितनाथ मन्दिर - यह मूर्ति पद्मासन, श्वेतवर्णं, १ फुट ४ इंच ऊँची है तथा संवत् १५८४ की प्रतिष्ठित है ।
१६. पद्मप्रभ मन्दिर - मूलनायक प्रतिमा श्वेत पाषाणको, १ फुट ३ इंच अवगाहनाकी पद्मासन है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १५४८ में हुई। दो वेदियाँ और हैं, जिनमें चन्द्रप्रभ भगवान्को श्वेतवर्णं प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।
१७. अजितनाथ मन्दिर - अजितनाथ भगवान्की यह खड़गासन प्रतिमा एक शिलाफलकमें उत्कीर्ण है । प्रतिमा प्राचीन प्रतीत होती है किन्तु मूर्तिपर लेख नहीं है । मूर्तिके सिरके ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है । सिरके पीछे भामण्डल विराजमान है । भामण्डलके इधर-उधर दो
हैं तथा दो भक्त हाथ जोड़े हुए बैठे हैं । भगवान्की सेवामें एक चमरवाहक और एक चमरवाहिका खड़े हैं। मूर्ति प्राचीन प्रतीत होती है ।
१८. शान्तिनाथ मन्दिर - शान्तिनाथ भगवान्की यह प्रतिमा ४ फुट ५ इंच ऊँची है और संवत् १५४८ में इसकी प्रतिष्ठा हुई है । यहाँ मन्दिर के अहातेमें कुछ प्राचीन मूर्तियाँ रखी हुई हैं। जो कुँवरपुर (बाँसा तारखेड़ा ) गाँव के मन्दिरसे लायी गयी हैं ।
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१९७ १९. महावीर मन्दिर-महावीर स्वामीकी यह पद्मासन प्रतिमा कृष्ण पाषाणको बनी हुई है।
२०. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह श्वेतवर्ण प्रतिमा है।
२१. आदिनाथ मन्दिर-भगवान् ऋषभदेवकी कृष्ण पाषाणकी यह ४ फुट ५ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा है । इस मूर्तिके ऊपर कोई लेख नहीं है।
२२. पुष्पदन्त मन्दिर-यह प्रतिमा २ फुट ४ इंच अवगाहनावाली है। यह श्वेतवर्ण और पद्मासन है तथा संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित हुई है। बायीं ओर पद्मावती देवीकी मूर्ति है तथा दायीं ओर आदिनाथको प्रतिमा विराजमान है।
२३-चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभको यह प्रतिमा सलेटी वर्णकी है। इसका आकार ९ इंचका है, पद्मासन है और संवत् १८८१ को प्रतिष्ठित है। यह मन्दिर पिसनहारीकी मढ़िया कहलाती है।
२४. पार्श्वनाथ मन्दिर-संवत् १८७० में प्रतिष्ठित और २ फुट ९ इंच उन्नत पाश्वनाथकी यह प्रतिमा पद्मासन है और सलेटी वर्णकी है।
२५. सुमतिनाथ मन्दिर-यह मूर्ति १ फुट ३ इंच ऊंची है, श्वेत पाषाणकी है और पद्मासन है। इसका प्रतिष्ठा-संवत् १७९४ है । इधर-उधर दो देवियाँ हैं। उनमें पार्श्वनाथ भगवान् विराजमान हैं। इनमें एक मूर्तिपर प्रतिष्ठा-काल संवत् १२५७ माघ सुदी १५ सोमवार उत्कीर्ण है।
२६. पाश्वनाथ मन्दिर-पाश्वनाथकी कृष्ण पाषाणको प्रतिमा पद्मासन है और इसकी अवगाहना ३ फुट २ इंच है। इसके पीठासनपर कोई लेख नहीं है । बायीं ओर सम्भवनाथ विराजमान हैं। ये कृष्णवर्ण हैं । अवगाहना ५ फुट ७ इंच है । ये कायोत्सर्गासनमें हैं।
मन्दिरके बाहर एक कमरे में क्षेत्रपाल विराजमान हैं।
२७. पार्श्वनाथ मन्दिर-पार्श्वनाथकी यह पद्मासन प्रतिमा कृष्ण वर्णकी है और १ फुट २ इंच ऊँची है । इसकी चरण-चौकीपर कोई लेख नहीं है। इधर-उधर दो वेदियां और हैं जिनमें श्वेत वर्णके आदिनाथ विराजमान हैं।
२८. पार्श्वनाथ मन्दिर-पार्श्वनाथकी यह श्वेतवर्ण प्रतिमा पद्मासन है। यह संवत् १८१३ में प्रतिष्ठित हुई है और इसकी अवगाहना १ फुट ७ इंच है। एक अन्य वेदीमें पद्मप्रभ विराजमान हैं। ये श्वेत वर्णके हैं और पद्मासन हैं। ऊंचाई ११ इंच है और संवत् १५४८ प्रतिष्ठाकाल है।
२९. चन्द्रप्रभ मन्दिर-चन्द्रप्रभ भगवान्की कृष्ण पाषाणकी यह २ फुट ८ इंच ऊंची मा संवत् १९३५ में प्रतिष्ठित की गयी। इसके इधर-उधर दोनों ओर दो वेदियाँ हैं जिनमें चन्द्रप्रभ और आदिनाथकी श्वेत पाषाणकी प्रतिमाएं विराजमान हैं।
३०. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह प्रतिमा श्वेतवर्ण और पद्मासन है। १ फुट ऊँची है और संवत् १९०३ में इसकी प्रतिष्ठा हुई। ____ ३१. अरहनाथ मन्दिर-यह श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा १ फुट २ इंच उन्नत है तथा संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित हुई है। ___३२. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी यह मूर्ति कृष्णवर्ण, पद्मासन और १ फुट २ इंच ऊंची है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९५२ में हुई। इस मूर्तिके दोनों पार्योंमें चन्द्रप्रभ और श्रेयांसनाथकी श्वेतवर्ण मूर्तियाँ विराजमान हैं।
प्रतिमा संवत् १९३५ में
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ३३. पार्श्वनाथ मन्दिर-पार्श्वनाथ भगवान्की रक्ताभ वर्णकी यह पद्मासन प्रतिमा ३ फुट ऊंची है और संवत् १८५८ में प्रतिष्ठित हुई है। इधर-उधरकी दो वेदियोंमें इसी पाषाण और कालकी चन्द्रप्रभ भगवान्को प्रतिमाएं हैं।
३४. पार्श्वनाथ मन्दिर-यह प्रतिमा कृष्णवर्ण, पद्मासन और २ फुट ९ इंच अवगाहनावाली है और संवत् १८९७ की प्रतिष्ठित है। इधर-उधर दो वेदियोंमें शान्तिनाथ और कुन्थुनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान हैं।
____३५. ऋषभदेव मन्दिर-संवत् १८८९ में प्रतिष्ठित आदिनाथकी पद्मासन मूर्ति श्वेत वर्णकी है और १ फुट अवगाहनाकी है। उसके दोनों पाश्ॉमें भगवान् मुनिसुव्रतनाथ और नेमिनाथकी क्रमशः श्वेत वर्ण और कत्थई वर्णकी मूर्तियां विराजमान हैं।
३६. चन्द्रप्रभ मन्दिर-चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा १ फुट ७ इंच ऊंची है तथा संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित हुई है।
३७. नेमिनाथ मन्दिर-संवत् १९०० में प्रतिष्ठित २ फुट अवगाहनाकी यह श्वेतवर्ण पाषाण-मूर्ति पद्मासन मुद्रामें विराजमान है। इसके दोनों ओर वेदियां है जिसमें मुनिसुव्रतनाथकी मूर्तियाँ विराजमान हैं।
३८. पार्श्वनाथ मन्दिर-यह मूर्ति १ फुट १० इंच ऊँची है, संवत् १६११ में प्रतिष्ठित, श्वेत वर्णकी और पद्मासन है। इसके एक पार्श्वमें पाश्वनाथकी तथा दूसरे पाश्वमें एक अन्य मूर्ति विराजमान है जो संवत् १७४२ की प्रतिष्ठित है।
३९. सम्भवनाथ मन्दिर-यह मूर्ति खड्गासन, सलेटी वर्णकी और ४ फुट ऊँची है।
४०. ऋषभदेव मन्दिर-यह ऋषभदेवकी श्वेत पद्मासन मूर्ति १ फुट ३ इंच ऊंची है और संवत १९९६ की प्रतिष्ठित है। इधर-उधर दो वेदियाँ और हैं, जिनमें दो मतियाँ विराजमान हैं।
ये सब मन्दिर पहाड़पर बने हुए हैं। इन मन्दिरोंके दर्शनके लिए पत्थरकी सीढ़ियां तथा सड़क बनी हुई है । मन्दिरोंके बाहर मन्दिरका नाम और क्रमसंख्या लिखी हुई है। इसलिए नवागन्तुक यात्रीको पर्वतके मन्दिरोंकी वन्दना करनेमें कोई असुविधा नहीं होती। पहाड़के मन्दिरोंमें कुछ मन्दिर ऐसे हैं जो वस्तुतः पहाड़पर न होकर तलहटीमें बने हुए हैं। पहाड़के सभी मन्दिर मन्दिर नहीं है, इनमें कुछ मढ़िया या टोंक-जैसे लघु आकारके भी हैं। किन्तु वे सभी मन्दिर ही कहलाते हैं।
मैदानके अधिकांश मन्दिर प्रायः एक ही अहातेमें बने हुए हैं। यहांके सभी मन्दिर शिखरबद्ध हैं। मन्दिर नं. ४१ से ४७ तकके मन्दिर लघु मन्दिर हैं। ये सब पहाड़ीकी तलहटीमें सरोवरके किनारेसे कुछ हटकर बने हुए हैं। मन्दिर नं. ४८ से ६० तक के मन्दिर विशाल और शिखरबद्ध हैं । अब उनका परिचय इस प्रकार है
४८. पार्श्वनाथ मन्दिर-भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा ३ फुट ११ इंच उन्नत है। इस वेदीमें दो पाषाण-मूर्तियां और रखी हुई हैं।
४९. पार्श्वनाथ मन्दिर-यह मूर्ति कृष्ण पाषाणकी, ३ फुट ऊँची और पद्मासन है । इसकी फणावलोमें नौ फण हैं। मूर्तिके पादपीठपर लेख नहीं है ।
मूलनायकके अतिरिक्त वेदीपर ६ पाषाण-मूर्तियाँ विराजमान हैं। उनका परिचय ( बायीं ओरसे दायीं ओर ) इस भांति है : ।
१-१० इंचके शिलाफलकमें तीन तीर्थंकर मूर्तियां हैं। मध्यकी मूर्ति पद्मासन है तथा बायीं ओरकी खड्गासन है और दायीं ओरको खण्डित है ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २-भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेतवर्ण, १ फुट ऊंची, पद्मासन प्रतिमा है। संवत् १९४५ में प्रतिष्ठा की गयी।
३-८ इंचके शिलाफलकमें पंचबालयति ।
४-भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा जो १ फुट १ इंच ऊँची और संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित है।
५-नेमिनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी ११ इंच ऊंची प्रतिमा।
६-२ फुट १ इंचके शिलाफलकमें मध्यमें खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा है। उसके ऊपर छत्र हैं। उसके दोनों पार्यों में गन्धर्व पुष्पमाल लिये हुए है। उससे नीचे पद्मासन तीर्थंकर-मूर्ति है। इससे नीचे चमरवाहक खड़े हुए हैं।
५०. नेमिनाथ मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी कृष्ण पाषाणकी २ फुट ४ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है और संवत् १९३७ की प्रतिष्ठित है। इसके दोनों ओर पार्श्वनाथ भगवान्की श्वेतवर्ण, पद्मासन और संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित प्रतिमाएं विराजमान हैं।
५१. पार्श्वनाथ मन्दिर-संवत् १९४८ की प्रतिष्ठित २ फुट २ इंच ऊंची पाश्वनाथ भगवान्की श्वेतवर्ण पदमासन प्रतिमा विराजमान है। इनकी बगल में १ फट ९ इंच ऊँचे शिलाफलकमें पंचबालयतिकी मूर्तियां हैं। मध्यमें पद्मासन और दोनों ओर एक-एक खड्गासन और एक-एक पद्मासन प्रतिमाएं हैं। मध्य प्रतिमाके सिरपर छत्रत्रय है और उनके दोनों पावोंमें पुष्पवर्षा करते हुए नभचारी देव प्रदर्शित हैं।
इनके अतिरिक्त पाँच पाषाण-प्रतिमाएं और हैं।
५२. महावीर मन्दिर-मूलनायक भगवान् महावीरकी यह प्रतिमा श्वेतवर्ण, पद्मासन और २ फुट ४ इंच ऊँची है और संवत् १९३५ की प्रतिष्ठित है। इसके अतिरिक्त इस वेदीपर ४ पाषाण और ९ धातुकी प्रतिमाएं विराजमान हैं।
५३. अजितनाथ मन्दिर-अजितनाथ भगवानकी पद्मासन, कृष्णवर्ण और संवत् १९४२ की प्रतिष्ठित प्रतिमा है। इसकी अवगाहना २ फुट १० इंच है। इसके अतिरिक्त वेदीमें २ पाषाणप्रतिमाएं और हैं।
५४. ४ फुट ऊँचे एक चौकोण पाषाण-स्तम्भमें सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ हैं । प्रतिमाएं १ फुटकी हैं। प्रतिमाओंके सिरके दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं। प्रतिमाके नीचे दो सिंह बने हुए हैं जो सिंहासनके हैं। उससे नीचे सर्प लांछन है। उसके दोनों ओर पाश्वनाथ भगवान्के यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र और पद्मावती हैं।
५५. अजितनाथ मन्दिर-अजितनाथ भगवान्की प्रतिमा २ फुट १ इंच ऊँची, श्वेतवर्ण और पद्मासन है और संवत् १९४२ की प्रतिष्ठित है। इस वेदीमें मूलनायकके अतिरिक्त दो पाषाणकी और दो धातुको प्रतिमाएं और हैं। ___५६. महावीर मन्दिर-भगवान् महावीरकी श्वेतवर्णकी पद्मासन प्रतिमा ३ फुट २ इंच उन्नत है और संवत् १९३५ में प्रतिष्ठित हुई है। इस वेदीपर मूलनायकके अतिरिक्त १ पाषाणकी और १५ धातुको मूर्तियाँ हैं।
५७. चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभकी पद्मासन-श्वेतवर्ण प्रतिमा मूलनायकके रूपमें विराजमान है। इसके अतिरिक्त ३ पाषाणकी और ४ धातुकी प्रतिमाएं हैं।
५८. आदिनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें तीन दरको वेदी है। इसमें मध्यमें भगवान् ऋषभ
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देवकी श्वेत वर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके अतिरिक्त इसमें ३ पाषाणकी तथा कुछ धातु की मूर्तियां विराजमान हैं ।
५९. समवसरण मन्दिर— यह गोलाकार नवीन मन्दिर बहुत भव्य बन रहा है । इसके मध्यमें गन्धकुटी है, जिसमें चार कृष्णवर्णं मूर्तियां विराजमान हैं। इनकी अवगाहना २ फुट है । चारों ओर २४ तीर्थंकरोंकी टोंकें बनायी गयी हैं। चारों दिशाओंमें चार मानस्तम्भ हैं । समवसरणकी रचना अत्यन्त आकर्षक और भव्य है । द्वादश सभाओंकी रचना भी शास्त्रोक्त पद्धतिसे की गयी है । वस्तुतः समवसरण मन्दिर, मन्दिरोंकी मालामें हीरक-मणि प्रतीत होता है।
६०. महावीर मन्दिर - धर्मशालाओंके मध्य में और क्षेत्रके मुख्य द्वारके निकट यह मन्दिर अवस्थित है । इसमें भगवान् महावीरकी पद्मासनमें विराजमान श्वेत वर्णकी मूलनायक प्रतिमा है । भगवान् के समवसरणमें १२ धातुकी ओर ६ पाषाणकी प्रतिमाएँ हैं ।
बड़े वाबाकी विशाल प्रतिमा, कलाकी दृष्टिसे देखनेपर, १०-११वीं शताब्दी की प्रतीत होती है । उसी मन्दिरके गर्भगृहमें बादमें लगायी गयी तीर्थंकर प्रतिमाएँ ११वीं - १२वीं शताब्दीकी हैं ।
ऊपर वर्णित प्रतिमा-लेखोंसे हम पाते हैं कि विक्रम संवत् १६११ (१५५४ ईस्वी) के आसपास यह स्थान तीर्थक्षेत्र के रूपमें विख्यात था और तबसे यहाँ मन्दिर और वेदीका निर्माण और मूर्ति प्रतिष्ठा समय-समय पर होती रही है। मन्दिर क्रमांक ४, ९, १६, १८, २२, २८, ३१ और ३६ में संवत् १५४८ की जो प्रतिमाएं हैं, वे वैशाख सुदी ३ सं. १५४८ को जीवराज पापड़ीवाल 'द्वारा प्रतिष्ठित यहाँ लाकर रखी गयी हैं ।
मानस्तम्भ
महावीर मन्दिरके सामने, धर्मशालाओंके मध्य प्रांगण में मानस्तम्भ खड़ा है, मानो क्षेत्रका समुन्नत गौरव ही मस्तक उठाकर खड़ा हो। यह श्वेत मकराना पाषाणका बना हुआ है। इसकी शीर्ष वेदीपर ४ पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान हैं । गजरथ महोत्सवपूर्वक इसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा फरवरी सन् १९७५ में हो चुकी है, जिसमें लाखों व्यक्ति सम्मिलित हुए थे ।
क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं
क्षेत्रको एकान्त और शान्ति ध्यान, अध्ययन और साधनाके लिए अत्यन्त उपयुक्त है । इसी दृष्टिसे वीर संवत् २४४४ में ब्र. गोकुलदासजीने समाजके सहयोगसे क्षेत्रपर एक उदासीनाश्रमकी स्थापना की थी । आश्रममें कुछ उदासीन त्यागी व्रती रहते हैं और ध्यानाध्ययनमें काल-यापन करते हैं ।
यहाँ एक सरस्वती भण्डार भी है ।
धर्मशालाएँ
क्षेत्रपर कुल ११ धर्मंशालाएँ हैं । सब मिली हुई हैं । सबमें मिलाकर कुल १०० कमरे हैं । क्षेत्रपर जल और बिजलीकी पर्याप्त सुविधा है । यहाँ २ सरोवर, ३ कुएँ एवं ८ बावड़ी हैं। सबपर पक्के घाट बने हुए हैं। क्षेत्रके पास ८० एकड़ कृषि भूमि है ।
वार्षिक मेला
यहाँ प्रतिवर्ष माघ सुदी ११ से १५ तक विशाल मेला लगता है। महावीर जयन्ती और दीवालीपर भी काफी जन-समुदाय एकत्र होता है ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ वर्शनीय स्थल - क्षेत्रके निकट प्राचीन स्थानोंमें एक रुक्मिणी मठ है। यह वस्तुतः प्राचीन कालमें जैन मन्दिर था। इसमें जैन मूर्तियां थीं। ये प्रतिमाएं सुरक्षाकी दृष्टिसे बड़े बाबाके मन्दिरमें पहुंचा दी गयी हैं । कनिंघमने इस मन्दिरके भग्नावशेषोंमें ४ फुट ऊंचा और २ फुट चौड़ा एक पाषाण देखा था जिसपर किसी शासन-देवता, सम्भवतः धरणेन्द्र-पद्मावतीकी मूर्ति थी। यह मूर्ति एक चैत्य वृक्षके नीचे दिखाई पड़ती थी और चैत्य वृक्षके ऊपर भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा बनी हुई थी। वह प्रतिमा आज भी वहां पड़ी है। कहते हैं, रुक्मिणी मठकी बहुत-सी प्राचीन सामग्री कुण्डलपुर और वरंटके बीच एक पुलियामें कूटकर लगायी गयी थी। .
नाम-साम्यके कारण कुछ लोग रुक्मिणी मठ और वर्रटका सम्बन्ध कृष्णकी पटरानी रुक्मिणीसे जोड़ते हैं। उनका विचार है कि यही वह कुण्डलपुर है जहाँ कृष्णने रुक्मिणीका हरण किया था तथा वरंट कृष्णकालीन विराट है। किन्तु किसी भी साक्ष्यसे कुण्डलपुर रुक्मिणीका जन्म-नगर सिद्ध नहीं होता। वस्तुतः रुक्मिणीके जन्म-नगरका नाम कुण्डिनपुर था। वह विदर्भमें था। इसका अपर नाम विदर्भपुर था। वर्तमानमें कुण्डिनपुरकी पहचान देवलवाड़ासे की जाती है जो महाराष्ट्रके चांदा जिलेमें वर्धा नदीके किनारेपर है और नरौरासे ११ मील है। यहाँ रुक्मिणी मन्दिर बना हुआ है और प्रतिवर्ष वहाँ मेला भरता है। प्राचीन कालमें कुण्डिनपुरका विस्तार वर्धा नदीसे अमरावती तक था। कहते हैं, अमरावतीमें भवानीका मन्दिर अब भी बना हुआ है जहाँसे कृष्णके द्वारा रुक्मिणीका हरण होना बताया जाता है। डॉ. फ्यूरर विदर्भके कोण्डाविरको प्राचीन कुण्डिनपुर मानते हैं। डॉर्सेन इसकी पहचान अमरावतीसे ४० मील दूर अवस्थित कुण्डपुरसे करते हैं। जैन और हिन्दू पुराण भी रुक्मिणीके जन्म-नगरका नाम कुण्डनपुर या कुण्डिनपुर मानते हैं और उसे विदर्भमें अवस्थित मानते हैं।
जैन और हिन्दू पुराणोंके अनुसार रुक्मिणीके भाई और विदर्भके राजकुमार रुक्मने गिरिव्रजके सम्राट् जरासन्धकी प्रेरणासे अपनी बहनका सम्बन्ध चेदि-नरेशके साथ कर दिया था। रुक्मके पिता भीष्मको भी अपने पुत्रके निर्णयसे सहमत होना पड़ा। इस विवाह-सम्बन्धने राजनैतिक रूप ले लिया। शिशुपाल और भीष्म, जरासन्धके करदया माण्डलिक नरेश थे। दूसरी ओर नारद कृष्णके पक्षधर थे जो तोड़-जोड़की नीतिमें निष्णात थे। कृष्ण जरासन्धके प्रतिद्वन्द्वो थे। नारदने भीष्मके महलोंमें जाकर पहले रुक्मिणीको बुआको कृष्णके पक्षमें किया, फिर कृष्णका चित्रांकन करके उसे रुक्मिणीको दिखाया और वार्तालापकी अपनी अनुपम कला द्वारा रुक्मिणीके मानस-मन्दिरमें कृष्णका मोहन रूप प्रियतमके रूपमें विराजमान कर दिया। रुक्मिणीने अपनी बुआके परामर्श और सहयोगसे कृष्णके नाम प्रेम-पत्र भेजा और उन्हें उसी दिन आनेका अनुरोध किया जिस दिन उसका विवाह शिशपालके साथ होनेवाला था। यथासमय कृष्ण संकेतस्थान (जैन पुराणोंके अनुसार मदन-मन्दिर और हिन्दू पुराणोंके अनुसार इन्द्राणी-मन्दिर ) में आकर छिप गये। रुक्मिणी भी अपने वचनानुसार वहाँ आयी। वहींसे कृष्ण रुक्मिणीको रथमें लेकर चल दिये। कन्या पक्षने प्रतिरोध भी किया, किन्तु कृष्णने उसके सारे विरोध-प्रतिरोधोंको निष्प्रभ
१. हरिवंश पुराण २, महाभारत वन पर्व ७३ २. Report of the Archaeological Survey of India, Vol. IX, P. 133. ३. Monumental Antiquities and Inscriptions, by Dr. Fuhrer. ४. Dowson's Classical Dictionary, 4th Ed., p. 171.
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- भारतके दिगम्बरजैन तीर्य कर दिया। इससे कृष्णको स्त्रीरत्न तो मिला ही, साथ ही उन्हें तत्कालीन जटिल और जरासन्धके आतंकसे व्याप्त राजनीतिपर अपना वर्चस्व स्थापित करनेका एक स्वर्ण अवसर भी प्राप्त हुआ। यह घटना विदर्भमें घटित हुई थी।
यहां विचारणीय यह है कि रुक्मिणीका जन्म-नगर विदर्भमें था। शिशुपाल चेदिका शासक था। चेदि ही प्राचीन कालमें दहल-मण्डल या बुन्देलखण्ड कहलाती थी। शिशुपालके समय चेदिकी राजधानी चन्देरी थी। गुप्त-कालमें चेदिकी राजधानी कालिंजर था। महाभारतकालमें शुक्तिमती राजधानी थी और कलचुरि-कालमें इसकी राजधानी माहिष्मती थी। कुछ कालतक दहलमण्डलकी राजधानी त्रिपुरी ( जबलपुरसे ११ कि. मी. दूर वर्तमान तेवर ) भी रही। कुण्डलपुर चेदि या दहलमण्डलके ही अन्तर्गत था। शिशुपालके समय कुण्डलपुर उसके राज्यमें सम्मिलित था। भीष्म विदर्भके प्रभावशाली नरेश थे। चेदि और विदर्भ दोनों पृथक्पृथक् राज्य थे। अतः यह तर्कसंगत तथ्य है कि कुण्डलपुरके साथ रुक्मिणीका कोई सम्बन्ध नहीं था। रुक्मिणी मठ नामक जैन मन्दिरके साथ रुक्मिणीका नाम कैसे जुड़ गया, यह शोधका एक पृथक् विषय हो सकता है। सम्भव है, इस मन्दिरका निर्माण एवं प्रतिष्ठा रुक्मिणी नामक किसी उदार महिलाने करायी हो। जो भी हो, इतना तो सुनिश्चित है कि कृष्णकी महारानी रुक्मिणीका कोई सम्बन्ध इस कुण्डलपुरके साथ नहीं रहा। . वर्तमानमें रुक्मिणी मठ कुछ स्तम्भोंपर आधारित भग्न दशामें खड़ा है। यह पाषाणका मण्डप-जैसा प्रतीत होता है । इसके चारों ओर भग्नावशेष विशाल भूभागमें बिखरे पड़े हैं।
लखनादौन
मार्ग
___यह स्थान मध्यप्रदेशके जबलपुर-नागपुर रोडपर जबलपुरसे ८३ किलोमीटर है और राष्ट्रीय मार्ग नं. २६ एवं नं. ७ के संगमपर स्थित है। भविष्यमें यहाँसे भोपाल-रायपुर राष्ट्रीय मार्ग तथा लखनादौन-गोंदिया राष्ट्रीय मार्ग बननेवाला है। इन्हीं राष्ट्रीय मार्गोके चौराहेपर महावीर कीर्तिस्तम्भ निर्मित है । यह सिवनी जिलेकी एकमात्र तहसीलका मुख्यालय है। पुरातत्त्व-सामग्री
___ लखनादौन नगर तथा इसके आसपास २०-२५ मीलके वृत्तमें प्राचीन भवनोंके भग्नावशेष बिखरे हुए पड़े हैं। नगरके अनेक मकानोंमें प्राचीन मूर्तियां जड़ी हुई हैं। अनेक मकान ऐसे भी मिलेंगे, जिनके निर्माणमें प्राचीन भवनोंके स्तम्भों, अलंकृत पाषाणों एवं पुरातात्त्विक महत्त्वकी सामग्रीका स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग किया गया है। यहाँ अब भी कभी-कभी खेत जोतते समय या
१. स्कन्द पुराण, रेवा खण्ड, पर्व ५६ । २. Journal of the Asiatic Society of Bengal, Vols. xV and LXXI. ३. Epigraphia Indica, Vol. I, pp. 220-253.
Alberuni's India, Vol. I, P. 202..
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२०३ किसी स्थानकी खुदाई करते समय जैन मूर्तियां मिल जाती हैं। यहाँसे उपलब्ध दो तीर्थंकर प्रतिमाएं नागपुर तथा कलकत्ताके संग्रहालयोंमें भेजी जा चुकी हैं। वर्तमानमें लखनादौनकी भगवान् महावीर २५ सौवाँ निर्माण-महोत्सव समितिने तीन सौसे ज्यादा जैन अवशेष लखनादौन तहसीलमें खोजे हैं जो कि पुरातत्त्वको दृष्टिसे महत्त्वके हैं। ये अवशेष ग्रामीणों द्वारा अजैन देवीदेवताओंके रूपमें पूजे जाते हैं और कुछ बुद्धिजीवियोंके बैठकखानोंकी शोभा बढ़ाते हैं।
प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता स्वर्गीय रायबहादुर डॉ. हीरालालजीने अपनी पुस्तक 'इन्स्क्रिप्शन्स इन सी. पी. एण्ड बरार' के पृष्ठ ६९ पर लखनादौनसे प्राप्त एक अभिलिखित द्वार-शिलाखण्डकी सूचना दी है तथा उक्त अभिलेखका विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह मत व्यक्त किया है कि इस क्षेत्रमें जैन मन्दिर अवश्य रहा है और यह द्वार-शिलाखण्ड उसी जैन मन्दिरका होगा। उन्होंने लेखके आधारपर मन्दिर-निर्माताको अमृतसेनका प्रशिष्य तथा त्रिविक्रमसेनका शिष्य बताया है। निर्माताका नाम विक्रमसेन बताया गया है। लिपिके आधारपर उन्होंने उक्त अभिलेखको ९वीं१०वीं शताब्दीका प्रमाणित किया है।
स्व. डॉ. हीरालालजीके इस उल्लेखसे यह प्रमाणित होता है कि लखनादौन नगरके उस क्षेत्रमें जहां यह द्वार-शिलाखण्ड उपलब्ध हुआ है, ८वीं और १०वीं शताब्दियोंके बीच अर्थात् कलचुरि-कालमें कोई भव्य जैन मन्दिर अवश्य रहा है जिसके इर्दगिर्द आज तक ये अवशेष मिल
___इन सम्भावनाओंकी पुष्टि जुलाई सन् १९७१ में यहाँसे उपलब्ध एक तीर्थंकर-प्रतिमासे होती है । यह प्रतिमा मूल काछी-परिवारके श्री शारदाप्रसाद हरदियाको खेत जोतते हुए मिली थी। यह प्रतिमा ४ फुट ऊंचे और २। फुट चौड़े एक शिलाफलकपर अत्यन्त कलात्मक ढंगसे उत्कीर्ण है । जैन समाजने इसे लाकर स्थानीय जैन मन्दिरमें विराजमान कर दिया है और मार्च १९७४ में इसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हो चुकी है। यह अष्टप्रातिहार्य-युक्त षट्-समकोणीय प्रतिमा है जो कि मूर्तिकलाको दुर्लभ कृति मानी जाती है। इस प्रतिमाका अंकन अत्यन्त सजीव और भव्य है। इसका शिल्प सौष्ठव प्रभावक है। इसकी भावाभिव्यंजना, अंगविन्यास और कला अत्यन्त मनोहर है। यह प्रतिमा मूर्ति-शिल्पको दृष्टिसे सुन्दरतम प्रतिमाओंमें से एक है, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।
____ भगवान् चार खम्भोंपर निर्मित सिंहपीठिकापर पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित हैं। अ?न्मीलित प्रशान्त नयन, सिरपर घुघराला केशगुल्म और सिरके पृष्ठभागमें अलंकृत प्रभामण्डल है। भगवान्के दोनों पाश्ॉमें चमरेन्द्र चमर लिये भगवान्की सेवामें खड़े हैं। सिरके ऊपर त्रिछत्र प्रदर्शित है । त्रिछत्रके दोनों ओर गजारूढ़ इन्द्र-दम्पती अंकित हैं। गजराजके ऊपरी भागमें दोनों गन्धर्व पुष्पवर्षा करते हुए दीख पड़ते हैं। पीठिकाके सिंहोंसे सटे खड़े दोनों ओर यक्ष मातंग एवं सिद्धायनी यक्षी हैं। मध्यमें धर्मचक्रका अंकन है । ___ स्व. डॉ. हीरालालजीने मूर्ति, यक्ष-यक्षी, प्रभामण्डल, अलंकरण तथा शाल-वृक्षके पत्तों एवं फूल ( जो कि प्रभामण्डलपर स्पष्ट दिखाई देते हैं ) को आधार मानकर इसे भगवान् महावीरकी प्रतिमा माना है । अन्य कई विद्वानोंने भी इस मतकी पुष्टि की है।
विद्वानोंका एक वर्ग लखनादौनको पुलकेशी द्वितीयके समयका मानता है जिसका कि राज्य नर्मदाके ५० कोस दक्षिणमें था। आधुनिक कुछ विद्वान् इसको लक्ष्मणद्रोण नामक महाभारतयुगीन ग्राम मानते हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तो
मढ़िया अवस्थिति और मार्ग
जबलपुर नगरकी गणना मध्यप्रदेशके प्रमुख नगरोंमें की जाती है। यह औद्योगिक, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी दृष्टियोंसे महाकोशलका सबसे बड़ा नगर है । जैन समाजका तो यह केन्द्र ही है। यहाँ जेनोंके लगभग दो हजार घर हैं तथा ३६ दिगम्बर जैन मन्दिर और ३ चैत्यालय हैं।
जबलपुर नगरसे ६ कि. मी. दूर जबलपुर-नागपुर रोडपर दक्षिण-पश्चिमकी ओर पुरवा और त्रिपुरीके बीचमें एक छोटी-सी पहाड़ी है। यह धरातलसे ३०० फुट ऊंची है। 'पिसनहारीकी मढ़िया' अथवा मढ़िया इसी पहाड़ीपर है। पहाड़ीपर जानेके लिए २६५ सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसके पास ही मेडिकल कालेज बना हुआ है। जबलपुर शहरसे यहां आनेके लिए बसों और टेम्पुओंकी सुविधा है। यहाँका पता इस भांति है-पिसनहारी मढ़िया ट्रस्ट, नागपुर रोड, जबलपुर। क्षेत्रका इतिहास
यह स्थान लगभग ५०० वर्षसे प्रकाशमें आया है। यद्यपि इसके आसपास चारों ओर प्राचीन कला-सामग्री बिखरी पड़ी है, किन्तु मढ़ियामें इससे पूर्वका कोई पुरातत्त्व नहीं मिलता। इस क्षेत्रके नाम और निर्माणके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं । एक किंवदन्ती यह है
५०० वर्ष पूर्व इस भूभागपर गोंड राजाओंका राज्य था। राजदरबारमें एक जैनधर्मावलम्बी पेशवा था। उसने जिनेन्द्र भगवान्के नित्य दर्शनके लिए इस एकान्त पहाडीपर जैन मन्दिरका निर्माण कराया। इसके कारण कुछ समय तक यह 'पेशवाकी मढ़िया' नामसे प्रसिद्ध रहा। धीरे-धीरे यह नाम बदल कर 'पिसनहारीकी मढ़िया' हो गया।
किन्तु यह किंवदन्ती कुछ अधिक विश्वसनीय नहीं लगती। यह तो सम्भव है कि किसी जैन पेशवाने यहाँ मन्दिर-निर्माण कराया हो और उसके कारण इस स्थानका नाम 'पेशवाकी मढ़िया' पड़ गया हो । किन्तु 'पेशवाकी मढ़िया' ही बदलते-बदलते 'पिसनहारीकी मढ़िया' कहलाने लगी हो, यह बुद्धिगम्य नहीं है। - इस सम्बन्धमें एक दूसरी भी किंवदन्ती प्रचलित है, जो अधिक प्रामाणिक लगती है तथा जो अधिक जनविश्रुत भी है। कहते हैं, जबलपुर नगरके मध्यमें कमानिया द्वार (त्रिपुरीस्मारक द्वार ) के निकट एक निर्धन पिसनहारी विधवा रहती थी। वह आटा पीसकर अपना निर्वाह करती थी। एक दिन उसने जैन मुनिका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर उसने तभी मनमें एक जैन मन्दिरका निर्माण करानेका संकल्प कर लिया। किन्तु समस्या थी धनकी। जिसने जीवनमें दूसरोंके समक्ष कभी हाथ नहीं पसारा, जो अपने श्रमपर ही निर्भर रहकर अपना जीवन-यापन करती थी, वह मन्दिरके लिए दूसरोंसे भिक्षा कैसे मांगती। उसका संकल्प अखण्ड था। उसने निश्चय कर लिया कि श्रम द्वारा धन-संग्रह करके मन्दिर निर्माण कराना है, और मन्दिर अवश्य बनेगा चाहे इसके लिए कितना ही श्रम क्यों न करना पड़े।
बस, इस संकल्पका सम्बल लेकर वह श्रम करने में जुट गयी। वह घर-घर जाती और वहाँसे अन्न लाकर पीसती। सबसे शाम तक उसकी चक्की कभी विराम न लेती। चक्कीकी मधुर ध्वनिमें उसका अडिग संकल्प गानोंके रूपमें गूंजता। वृद्ध शरीर और अथक परिश्रम । किन्तु
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मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ
२०५ संकल्पकी संजीवनी उसे श्रान्त-क्लान्त न होने देती। ज्यों-ज्यों धन-संचय होता जाता, त्यों-त्यों उसमें एक नवीन स्फूर्ति तरंगित होती जाती। लोग उसके इस दुस्साहस पर हँसते, किन्तु वह लोक-निन्दा या उपहाससे निलिप्त बनी अपनी साधनामें निरत रहती।
वह दिन भी आ पहँचा, जब लोगोंने देखा कि वद्धा पिसनहारी कदाल-फावडा लेकर मढ़ियाकी पहाड़ीपर वन्य झाड़ियों और वृक्षोंको काट-काटकर मन्दिरके लिए ऊबड़-खाबड़ भूमिको समतल बनानेमें जुटी हुई है। तब राज आये, मजदूर आये, इंट-चूना और पत्थर लाये गये और मन्दिरका निर्माण आरम्भ हो गया। उसकी निन्दा करनेवाले अब उसकी प्रशंसा करने लगे । जो उसका उपहास उड़ाते थे, वे उसे सहयोग देनेको तत्पर हो गये। किन्तु उस तपस्विनीको यह सब देखने-सुननेका अवकाश कहाँ था। वह तो मजदूरोंके संग ईंट-गारा इधर से उधर पहुंचानेमें जुटी रहती। प्रातः से सन्ध्या तक मजदूरोंके साथ वह काम करती, उनके कामकी देखभाल करती, और रात्रि होते ही उस निर्जन नीरव जंगलमें खटिया डालकर चौकसी करती।
तब वह दिन भी आ पहुंचा, जब मन्दिर तैयार हो गया। उसके ऊपर शिखरका मुकुट लग गया । किन्तु मुकुटमें मणि नहीं थी, जो बड़ी भारी कमी थी। स्वर्ण-कलशके बिना शिखर सूनासूना-सा लग रहा था। एक निधन असहाय अबलाके पास इतनी पूंजी कहां थी जिससे वह स्वर्णकलश चढ़ा पाती। तब उस पुण्यशीला महाभागाने ऐसा कलश चढ़ाया, जैसा संसारने न कभी देखा था, न कभी सुना था । उसने अपनी चक्कीके दोनों पाट शिखरमें चिनवा दिये। जिन पाटोंने उसे जीवनमें रोटी दी, जिन पाटोंने उसके संकल्पको मूर्त रूप दिया, वे ही तो उसको एकमात्र पूंजी थे। भगवान्के लिए उसने अपनी समग्र पूँजो समर्पित कर दी।
किन्तु इतिहास उसका नाम सुरक्षित न रख पाया, यह कैसी विडम्बना है। फिर भी जनजनकी श्रद्धाने इस क्षेत्रको 'पिसनहारीको मढ़िया' के रूपमें सदा-सर्वदाके लिए अमर कर दिया।
उपर्युक्त दोनों किंवदन्तियोंमें हमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं लगती। दोनों किंवदन्तियोंको संयुक्त करके देखें तो इस क्षेत्रका एक इतिहास बनता है। पहले किसी पेशवाने यहाँ मन्दिर बनवाया। उससे यह 'पेशवाको मढ़िया' कहलाने लगा। फिर किसी पिसनहारीने एक मन्दिर बनवाया। तबसे इस क्षेत्रका नाम 'पिसनहारीकी मढ़िया' हो गया।
इस मन्दिरमें गुम्बजके नीचेके आले में दो मूर्तियां विराजमान हैं। इनके सिंहासन-पीठपर प्रतिष्ठा-संवत् १५८७ उत्कीर्ण है। ये ही यहांकी सर्वप्राचीन मूर्तियां हैं। इनसे पूर्ववर्ती एक मूर्ति संवत् १५४८ की है। किन्तु वह शाह जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित है। उन्होंने विभिन्न स्थानोंपर इसी प्रतिष्ठा-संवत्की अनेक मूर्तियां भेजी थीं। उक्त मूर्ति पापड़ीवालजी द्वारा भेजी हुई है। संवत् १५८७ में निर्मित मन्दिर और मूर्तियोंके अतिरिक्त यहाँ अन्य कोई पुरातत्त्व-सामग्रो नहीं है। शेष मन्दिर और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा तो वीर संवत् २४८३ और २४८४ में हुई है । लगता है, इस अन्तरालमें ( वीर संवत् २०५६ से २४८३ तक ) ४२७ वर्ष तक यहां कोई दूसरा मन्दिर नहीं बना और न इसे तीर्थक्षेत्रके रूपमें मान्यता मिली। । संवत् १९३९ में जबलपुरके जैन समाजकी दृष्टि इस ओर गयी। वह यहाँके प्राकृतिक सौन्दर्य, ऐतिहासिक महत्त्व और आध्यात्मिक साधनाके उपयुक्त वातावरणसे प्रभावित होकर आकृष्ट हुआ। धीरे-धीरे यहाँ निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया। सीढ़ियां बनीं, धर्मशालाएं बनीं। फिर संवत् १९७६ में यहां दो गजरथ-महोत्सव सम्पन्न हुए। इन उत्सवोंमें सहस्रों व्यक्तियोंने सम्मिलित होकर इस स्थानके महत्त्वको समझा। संवत् १९८४ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराजका यहाँ पदार्पण हुआ। पूज्यपाद क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी तो यहां पर्याप्त
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ समय तक रहे। इन दोनों आध्यात्मिक सन्तोंके पुण्य प्रसाद और प्रभावसे इस स्थानका द्रुत गतिसे विकास हुआ, क्षेत्रके रूपमें इसकी ख्याति हुई और अनेक नवीन मन्दिर-मन्दरियोंका निर्माण करनेकी प्रेरणा जगी। - यहाँका एक चामत्कारिक जलकुण्ड अवश्य उल्लेखनीय है। यहां एक शुष्क गड्ढा था। पूज्य वर्णीजीकी कृपासे वह जलपूर्ण हो गया और एक जलकुण्ड बन गया। वह जलकुण्ड अब भी विद्यमान है । जनताने उसका नाम वर्णी-कुण्ड रख लिया है। क्षेत्र-वर्शन
जबलपुर-नागपुर सड़क किनारे एक विशाल अहातेके मध्यमें क्षेत्रका कार्यालय, धर्मशाला तथा क्षेत्रस्थित संस्थाओंके भवन अवस्थित हैं। यहाँ एक जिनालय और मानस्तम्भ भी है । इसके पृष्ठभागमें पहाड़ी है, जिसपर मन्दिरोंकी श्वेत पंक्ति, उन्नत शिखर और उनके ऊपर लहराती ध्वजाएं बरबस ध्यान आकर्षित कर लेती हैं। - कार्यालयसे कुछ दूर चलनेपर पहाड़ीकी चढ़ाई प्रारम्भ हो जाती है। पहाड़ीपर चढ़नेके लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। चढ़ाई सुगम है।
- मन्दिर नं. १-एक छोटे-से कमरेमें वेदीपर भगवान् पद्मप्रभकी श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पादपीठपर कमलका चिह्न अंकित है। प्रतिष्ठा-संवत् वीर नि. संवत् २४८३ है । इस मन्दिरके पास एक कमरा खाली है।
मन्दिर नं. २-इससे कुछ सीढ़ियां चढ़नेपर पाश्वनाथ मन्दिर मिलता है। यह मूर्ति कृष्ण पाषाणकी है और पद्मासन है। इसको अवगाहना २ फुट ७ इंच है। यह वीर संवत् २४८३ में प्रतिष्ठित हुई। इस चबूतरानुमा वेदीपर २ पाषाणकी और ४ धातु-प्रतिमाएं विराजमान हैं । यहाँ भगवान् पार्श्वनाथके वीर सं. २४८३ में प्रतिष्ठित चरण-चिह्न भी विराजमान हैं।
मन्दिर नं. ३-भगवान्को कृष्ण पाषाणको पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी माप ४ फुट २ इंच है और वीर सं. २४८३ में प्रतिष्ठित हुई है। इसके आगे चरण-चिह्न बने हुए हैं। काँचकी एक छोटी आलमारीमें धातुको ११ छोटी-छोटी मूर्तियां रखी हुई हैं।
___ मन्दिर नं. ४-भगवान् महावीरकी प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित है। श्वेत पाषाणको यह प्रतिमा १ फुट ३ इंच ऊंची है और विक्रम संवत् २०२ में प्रतिष्ठित हुई है। इसके आगे एक धातु-प्रतिमा विराजमान है। ___इस क्षेत्रपर प्रत्येक तीर्थंकरको एक मन्दरिया बनी हुई है। इस प्रकार २४ तीर्थंकरोंकी २४ टोंकें बनी हुई हैं, किन्तु ये सब न तो एक ही स्थानपर हैं और न मधुवन या पपौराके बाहुबली मन्दिरके समान किसी एक मूर्तिको केन्द्र बनाकर गोलाकार बनी हुई हैं। यहाँ ये २४ मन्दिरियां कुछ गुच्छकोंमें बंटी हुई हैं। इनकी सभी मूर्तियां आकारमें १ फुट ९ इंच ऊंची, पद्मासन हैं और वीर संवत् २४८४ में इनकी प्रतिष्ठा हुई है। इन मूर्तियोंका वर्ण तीर्थंकरोंके मूल वर्णानुसार ही है। अतः सब मूर्तियोंमें समानता होनेपर भी वर्णमें कहीं-कहीं वैषम्य है। मन्दरियाँ जहाँ जैसे हैं,उनका वर्णन वैसे ही किया जायेगा। साथ ही मन्दरियोंकी क्रम-संख्या मन्दिरोंसे पृथक् रखी जायेगी। - मन्दरिया नं. १ ऋषभदेव प्रतिमा, स्वर्ण वर्ण ।
अजितनाथ
॥ ३ सम्भवनाथ ॥
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२०७ मन्दरिया नं. ४ अभिनन्दननाथ प्रतिमा, स्वर्ण वर्ण। .
सुमतिनाथ ... " पद्मप्रभ " " सुपाश्वनाथ " " ... चन्द्रप्रभ , "
पुष्पदन्त , , इससे आगे एक स्थानपर दीवार में ५ प्राचीन छोटी तीर्थंकर मूर्तियां हैं।
मन्दिर नं. ५-भगवान् महावीर की मकरानेकी श्वेतवर्ण, पद्मासन प्रतिमा ४ फुट उत्तुंग हैं और वीर संवत् २४८४ में प्रतिष्ठित हुई है। इसके आगे धातुकी एक तीर्थंकरमूर्ति विराजमान है। मन्दरिया नं. १० शान्तिनाथ स्वर्ण वर्ण
श्रेयांसनाथ .. , १२ वासुपूज्य लाल वर्ण
मन्दिर नं. ६-बाहुबली स्वामी कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानमग्न हैं। उनकी अवगाहना ६ फुट ९ इंच है। इनका वणं श्वेत है और इनकी प्रतिष्ठा वीर सं. २४८४ में की गयी। मन्दरिया नं. १३ विमलनाथ स्वर्ण वर्ण .. , १४ अनन्तनाथ
. , १५ धर्मनाथ , मन्दिर नं.७ यह कांचका मन्दिर है। इसमें ऊपर, नीचे और दीवारोंमें कांच कलात्मक ढंगसे जड़े हुए हैं। कक्षके मध्यमें समवसरणकी रचना है। इस रचनामें भी काँचका ही प्रयोग किया गया है। इसके मानस्तम्भ और इन्द्र कांचके न होकर सीमेण्ट और संगमरमरके बने हुए हैं। यह मन्दिर ऊपरकी मंजिल में है । मन्दिर दर्शनीय है।
मन्दिर नं. ८-भगवान् आदिनाथकी श्वेत मकराना पाषाणकी यह प्रतिमा पद्मासनासीन है, ३ फुट ९ इंच ऊंची है। इसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४८४ में हुई। इसके आगे श्वेत संगमरमरका २ फुट ऊंचा एक चैत्य विराजमान है। इसमें चारों दिशाओंमें चार तीर्थंकर-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके निकट धातुको दो तीर्थंकर-मूर्तियां विराजमान हैं। मन्दरिया नं. १६ शान्तिनाथ प्रतिमा स्वर्ण वर्ण १७ कुन्थुनाथ ,
अरहनाथ " " . मल्लिनाथ , " . मुनिसुव्रतनाथ,, श्याम वर्ण नमिनाथ , स्वर्ण वर्ण नेमिनाथ , श्याम वर्ण पाश्वनाथ , हरित वर्ण, नो फण हैं। महावीर , स्वर्ण कर्ण
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिर नं. ९-भगवान् शान्तिनाथको यह पद्मासन मूर्ति मटमैले रंगको है। पाषाणपर कुछ काली धारियां हैं । वीर संवत् २४८३ में प्रतिष्ठित हुई है। चरण-चौकीपर अष्ट मंगल द्रव्य बने हुए हैं। मूर्तिके आगे चरण विराजमान हैं।
__ मन्दिर नं. १०-एक गुफामें मुनिराज सुकोशल स्वामीकी तपस्याका दृश्य उत्कीर्ण है। मुनिराज सुकोशल आत्मध्यानमें लीन हैं । एक सिंहनी और उसके शावक मुनिराजका सानन्द भक्षण कर रहे हैं।
मन्दिर नं. ११--श्वेत पाषाणको मल्लिनाथ भगवान्की यह प्रतिमा पद्मासन है। वीर संवत् २४८३ में इसकी प्रतिष्ठा हुई।
मन्दिर नं. १२-कमलासनपर भगवान् पाश्र्वनाथकी १ फुट १० इंच ऊंची मूर्ति पद्मासनमें विराजमान है । वीर संवत् २४८४ में इसकी प्रतिष्ठा हुई। इसके आगे भगवान् चन्द्रप्रभकी संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित मूर्ति विराजमान है।
इस मन्दिरके बगलसे नीचे धर्मशालाके लिए पगडण्डी भी जाती है। उक्त प्रकारसे पर्वतपर १२ मन्दिर और २४ मन्दरियां बनी हुई हैं, अर्थात् पहाड़ीपर कुल ३६ (१२+ २४) मन्दिर हैं।
मन्दिर नं. १३–यह मन्दिर धर्मशालाके निकट मैदान में है। यह महावीर मन्दिर कहलाता है। एक बड़े हॉलमें चबूतरानुमा वेदीमें भगवान् महावीरकी श्वेत मकरानेकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना ४ फुट है। इसकी प्रतिष्ठा वीर संवत २४८४ में हई। मन्दिर भव्य एवं विशाल है।
मूलनायकके आगे दो सिंहासनोंमें एक पाषाणको तथा ५ धातुकी प्रतिमाएं विराजमान हैं।
मन्दिरके आगे संगमरमरका विशाल मानस्तम्भ है जिसके शीर्षपर चार तीर्थकर-प्रतिमाएं विराजमान हैं। क्षेत्रस्थित संस्थाएं
क्षेत्रपर पूज्य वीजीकी प्रेरणासे स्थापित वर्णी जैन गुरुकुल और छात्रावास हैं। विद्यालय और छात्रावासके भवन गुरुकुलके अपने हैं । यहाँ निकट ही मेडिकल कालेज है। इस दृष्टिसे गुरुकुलके महत्त्व और उपयोगिताका सहज ही मूल्यांकन किया जा सकता है। धर्मशालाएँ
क्षेत्रस्थित धर्मशालाओं में ६० कमरे हैं। धर्मशालाओंमें प्रकाशके लिए बिजलीको व्यवस्था है । जलके लिए कई कुएं और हैण्डपम्प हैं। क्षेत्रपर आवश्यक वस्तुओंको व्यवस्था है, जैसे बरतन, बिस्तर आदि । जबलपुर, भेड़ाघाट आदिके लिए बस और टैम्पो यहाँ बराबर मिलते हैं।
व्यवस्था
यहाँको व्यवस्थाके लिए 'पिसनहारी मढ़िया ट्रस्ट' नामक एक ट्रस्ट है । इसके पदाधिकारियों और संदस्योंका चुनाव जबलपुरके जैन समाज द्वारा होता है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
त्रिपुरी अवस्थिति
त्रिपुरी भारतकी प्राचीन नगरियोंमें एक महत्त्वपूर्ण नगरी है। हैमकोषमें इसका अन्य नाम चेदि नगरी भी मिलता है। यह नगरी चेदिके कलचुरि-नरेशोंकी राजधानी थी। हिन्दू और जैन पुराणोंमें भी चेदि देशके उल्लेख मिलते हैं।
महाभारत और रामायण आदि प्राचीन साहित्यसे ज्ञात होता है कि बुन्देलखण्डके. दक्षिण और पूर्वका प्रदेश पहले यादववंशी राजाओंके अधिकारमें था। इनकी राजधानी माहिष्मती थी। सहस्रार्जुन यहींका प्रतापी नरेश था। उसके वंशज आगे चलकर हैहयवंशी कहलाने लगे। हैहयवंश आगे चलकर कई शाखाओंमें विभक्त हो गया। महाभारत कालमें माहिष्मतीमें राजा नील राज्य करता था। इस वंशका एक अन्य नरेश शिशुपाल था। सम्भवतः इस शाखाकी राजधानी त्रिपुरी थी। यह शाखा इतिहासमें चेदिके कलचुरि नामसे प्रसिद्ध है। जैन मान्यतानुसार ऋषभदेव भगवान्ने जिन ५२ जनपदोंकी स्थापना की थी, उनमें चेदि नामका भी एक जनपद था।
वर्तमान इतिहासमें चेदिकी प्रसिद्धि ९वीं-१०वीं शताब्दीमें उसके राजनैतिक महत्त्वके कारण हुई । इस कालमें चेदि देशको राजधानी त्रिपुरी थी। आजकल त्रिपुरीका नाम तेवर है जो वर्तमानमें एक छोटा गांव रह गया है। यह बम्बई-रोडको दक्षिण दिशामें जबलपुरसे पश्चिममें ९ कि. मी. दूर है। इतिहास
१०वीं-११वीं शताब्दीमें चेदिके शासक कलचुरिवंशी नरेश थे। इस कालमें जबलपुरके आस-पासका प्रदेश दहल कहलाता था। कलचुरि कोकल द्वितीयके पुत्र गांगेयदेवके शासन-कालमें त्रिपुरीकी शक्ति और प्रतिष्ठा आकाशको छूने लगी थी। इस नरेशने अपने जीवन में अनेक युद्ध किये और अपने साम्राज्यका चारों ओर विस्तार करके 'विक्रमादित्य' की गौरवपूर्ण उपाधि धारण की। उसने परमार भोज और राजेन्द्र चोलसे सन्धि करके चालुक्य जयसिंह द्वितीयके राज्यपर आक्रमण कर दिया। सन् १०१९ के एक शिलालेखसे ज्ञात होता है कि चालुक्य-नरेशने इन सबको युद्धमें भगा दिया। इसके पश्चात् गांगेयदेवने कोसल-नरेश सोमवंशी महाशिवगुप्त ययाति और उत्कल-नरेशको जीतकर 'त्रिकलिंगाधिपति' का विरुद धारण किया। तत्पश्चात् उसने बघेलखण्ड और बनारसको अपने राज्यमें मिलाया। सन् १०३४ में महमूद गजनवीके पंजाब प्रदेशके गवर्नर अहमद नियालगीतने बनारसपर आक्रमण किया और अपार सम्पत्ति लूट ले गया। गांगेयदेवने इसका प्रतिशोध किरदेश ( वर्तमान कांगड़ा घाटी ) को मुसलमानी आधिपत्यसे मुक्त करके लिया।
गांगेयदेवके स्वर्ण, रजत और तांबेके सिक्के बहुत बड़ी संख्यामें मिलते हैं। कुम्हींमें प्राप्त एक ताम्रलेखके अनुसार उसकी मृत्यु १५० पलियोंके साथ प्रयागमें अक्षयवटके नीचे हुई बतायो जाती है। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र लक्ष्मीकर्ण ( कर्णके नामसे विख्यात ) हुआ। उसने अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण सन् १०४१ में किया।
इसके पश्चात् कर्णने त्रिपुरी राज्यके प्रभाव, प्रतिष्ठा और समृद्धिका खूब विस्तार किया। उसने बनारस जीता, राढ (पश्चिम बंगाल) पर विजय प्राप्त की, प्रतिहार यशपालसे प्रयाग छीना और किरदेशमें जाकर मुसलमानोंको हराया। उसने पालवंशी नरेश नयपालसे सन्धि करके
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
उसके युवराज विग्रहपाल तृतीयके साथ अपनी पुत्री योवनश्रीका विवाह कर दिया। इस बात की पुष्टि उसके सन् १०४८ के रीवा - शिलालेख से भी होती है । इसके बाद उसने कलिंगको रौंद डाला, चोल राजेन्द्रसे काँची विषय छीन लिया । नोलम्बबाड़ीके पल्लव, सलेमके कुंग, मलावार - तटवर्ती यूरल और मदुराके पाण्ड्य नरेशोंको उसके चरणोंमें अपने मुकुट झुकाने पड़े । चालुक्य सोमेश्वर प्रथमको उसने करारी पराजय दी। रीव शिलालेखके अनुसार उसकी दक्षिण- विजय सन् १०४८
समाप्त हुई । सन् १०५१ में उसने चन्देल कीर्तिवर्मनको हराकर बुन्देलखण्डपर अधिकार कर लिया । किन्तु कुछ समय पश्चात् चन्देल - नरेश के सामन्त गोपालने उससे बुन्देलखण्ड छीन लिया । फिर कर्णने मालवा के उत्तर-पश्चिम में स्थित हूण- मण्डलपर आक्रमण किया। उसने चालुक्य भीम प्रथमके साथ मिलकर परमार नरेश भोजपर पूर्व और पश्चिमकी ओरसे आक्रमण कर दिया । इसी बीच सन् १०५५ में भोजकी मृत्यु हो गयी और इन दोनोंने मालवापर अधिकार कर लिया । यह अधिकार थोड़े ही समय तक रहा। बादमें उसका झगड़ा भीमके साथ हो गया । भीमने उससे भोजकी सुनहरी मण्डपका, हाथी और घोड़े छीन लिये । कुम्हींके ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि कर्ण कर्णावती नगर बसाया था । कर्णावती ही अब कारीतलाई कहलाती है ।
इस प्रकार कर्ण जीवन-भर युद्ध करता रहा, किन्तु प्रयागको छोड़कर उसे कोई विशेष भौतिक लाभ नहीं हुआ। उसने 'त्रिकलिंगाधिपति' का विरुद धारण किया, जबलपुरके निकट एक नये नगर की स्थापना की और हूण परिवारकी अवल्लदेवी के साथ विवाह किया, जिससे यशःकर्णका जन्म हुआ । सन् १०७३ में उसने अपने पुत्रके लिए राजगद्दी छोड़ दी ।
यशः कर्ण अपने पिताके समान वीर नहीं था । उसके ऊपर चालुक्य जयसिंह और गाहड़वाल चन्द्रदेवने आक्रमण करके बनारस और प्रयाग छीन लिये । परमार लक्ष्मणदेवने उसकी राजधानी त्रिपुरीपर अधिकार करके रीवांमें कुछ समय तक पड़ाव भी डाला । इन आक्रमणोंके कारण त्रिपुरीका कलचुरि राज्य बहुत निर्बल हो गया ।
बारहवीं शताब्दी के प्रथम चरणमें उसका पुत्र गयकर्ण राजसिंहासनपर आरूढ़ हुआ । आचार्यं मेरुतुंगने 'कुमारपाल प्रतिबोध' में लिखा है
'दहलके नरेश कर्ण ( गयकणं ) ने गुजरात- नरेश कुमारपालपर बड़ी भारी सेना लेकर आक्रमण कर दिया । इस आक्रमणके दौरान कर्ण एक रात हाथीपर सो रहा था। हाथी चला जा रहा था । उसके गलेका हार एक वृक्षकी शाखामें उलझ गया जिससे कर्ण के प्राण-पखेरू उड़ गये ।' सन् ११५५ में उसका बड़ा पुत्र नरसिंह गद्दीपर बैठा। फिर सन् १९५९ और १९६७ के बीच उसका छोटा भाई जयसिंह त्रिपुरीका शासक हुआ। उसने तुकं खुसरू मलिकके आक्रमणका वीरता के साथ मुकाबला किया और उसे असफल कर दिया । सन् १९७७ और १९८० के बीच उसका पुत्र विजयसिंह शासनारूढ़ हुआ । यह कलचुरि - वंशकी त्रिपुरी - शाखाका अन्तिम नरेश था । इस राजाके उपलब्ध शिलालेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि वह सन् १२११ तक दहलमण्डल और बघेलखण्ड के ऊपर अपना अधिकार बनाये रखनेमें सफल रहा। किन्तु एक वर्षके भीतर ही चन्देल त्रैलोक्य वर्मनने उसे बघेलखण्ड से और सम्भवतः दहल -मण्डल से भी खदेड़ दिया । इसके पश्चात् त्रिपुरीका राजनैतिक महत्त्व सम्भवतः समाप्त हो गया । कलचुरि - शासनका अन्त होनेपर दहल - मण्डल चन्देल नरेश त्रैलोक्य वर्मनके एक पौत्र हम्मीर वर्मनके राज्यमें मिल गया। उस समय उसकी राजधानी काकरेदिल ( वर्तमान काकेरी, जो पन्ना और रीवाँकी सीमा
१. The struggle for Empire, pp. 61-64, Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay.
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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पर स्थित है ) में बनायी गयी। हम्मीर वर्मनका एक शिलालेख सन् १३०८ का मिलता है । सन् १३०९ में अलाउद्दीन खिलजीने दमोह जिला उससे छीन लिया। इसके पश्चात् दहल - मण्डलका प्रभाव भी समाप्त हो गया ।
यद्यपि त्रिपुरीका वास्तविक इतिहास कलचुरि कालसे प्रारम्भ होता है, तथापि इससे पूर्व भी यह एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । रामायण में वर्णित त्रिपुरा नामक राक्षसका वध कदाचित् यहीं हुआ था । यहाँपर ईसासे तीन शताब्दी पूर्वके पाये हुए सिक्कोंमें रेवाकी मूर्ति मिलती है । ईसाकी ५वीं - ६ठी शताब्दी तक यहाँ परिव्राजक और उच्चकल्प राजाओंका शासन रहा । वाकाटकोंने भी इसपर शासन किया ।
त्रिधर्मोकी त्रिवेणी
यहाँ बौद्ध, हिन्दू और जैन, तीनों धर्मोके मन्दिर, मूर्तियां अथवा उनके अवशेष प्राप्त होते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि यह नगरी तीनों धर्मोकी क्रीडा-स्थली रही है ।
बौद्ध धर्म
चीनी यात्री ह्वेन्त्सांगने त्रिपुरीका उल्लेख करते हुए अपने यात्रा-विवरणमें लिखा है कि त्रिपुरीका राजा क्षत्रिय है और वह बौद्धधर्मका अनुयायी है। त्रिपुरी तथा उसके निकटवर्ती, गोपालपुर में बौद्धों की तान्त्रिक मूर्तियाँ प्रचुर संख्यामें मिलती हैं। इससे लगता है कि यह वज्रयानियोंकी गुह्यसाधनाका प्रमुख केन्द्र रहा है ।
बौद्धों में तान्त्रिक प्रणालीका प्रचलन और प्रारम्भ बुद्धके आटानाटीय सूत्रके प्रवचनसे ही हो गया था । पालिके वत्यजात सूत्रसे मालूम होता है कि शाक्य मुनिके समय में गान्धारी और आवर्तनी विद्याका बड़ा प्रचार था तथा तथागतके परिनिर्वाणके बाद सौगत तन्त्रने बड़ा जोर पकड़ा था ।
यहाँ बोधिसत्त्वोंकी अनेक मुद्राओंवाली प्रतिमाएं मिली हैं। वज्रपाणिकी भी एक प्रतिमा मिली है । वज्रपाणि एक यक्ष था जो बोधिसत्त्वके पदपर पहुँच गया था । लगता है, त्रिपुरी आठवीं शताब्दीसे पूर्व तक वज्रयानियोंका महान् केन्द्र था ।
हिन्दू धर्म
कलचुरि नरेश शैव धर्मके अनुयायी थे । यद्यपि वे सभी धर्मोके प्रति उदार और सहिष्णु रहे, किन्तु शैवधर्मं को उन्होंने राजाश्रय दिया । फलतः त्रिपुरी लकुटीश पाशुपतोंकी केन्द्र बन गयी । यहाँके पाशुपत सिद्धों में सद्भाव शम्भु और सोम शम्भु अधिक प्रसिद्ध हुए हैं । इन्होंने वर्णाश्रम - व्यवस्था और जाति प्रथाका डटकर विरोध किया और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्थापर बल दिया जिसमें शूद्र और उच्च वर्णके लोगोंमें किसी प्रकारका अन्तर न रहे ।
त्रिपुरीके निकटवर्ती भेड़ाघाटमें चौंसठ योगिनी मन्दिर, गोलकी मठ तथा बिलहरीमें नोहलेश्वरका मन्दिर पाशुपत सम्प्रदायके तत्कालीन प्रभावके द्योतक हैं। चौंसठ योगिनियोंकी मूर्तियों पर लिखे हुए नामे देवी भागवत, चामर तन्त्र आदि पुस्तकोंमें नहीं पाये जाते । ये मत्तमयूर १. चौंसठ योगिनी मन्दिरकी योगिनी - मूर्तियों पर लिखे हुए नाम इस प्रकार हैं- सिंहासिंहा, झागिणी, कामदा, रणाजिरा, अन्तकारी,...., एरुड़ी, नन्दिनी, बीभत्सा, वाराही, मन्दोदरी, सर्वतोमुखी, थिरचित्ता, खेमुखी, जाह्नवी,...., ओडारा.... यमुना, ..., ....पाण्डवी, नीलडम्बरा, ...., तेरम्बा, शण्डिनी,
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सम्प्रदायके अपने नाम हैं। पाशुपतोंको मत्तमयूर शाखा वाममार्गी शाखा है। इस सम्प्रदायका प्रभाव यहां पायी जानेवाली अश्लील मूर्तियोंके रूपमें स्पष्ट परिलक्षित होता है। एक ऐसी मूर्ति यहां प्राप्त हुई है, जिसमें कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं और उन्हें नग्न गोपियां घेरे हुई हैं। खजुराहोके मन्दिरोंमें पायी जानेवाली अश्लील मूर्तियोंके समान यहाँ भी मिथुन-मूर्तियां प्रचुर संख्यामें प्राप्त
जैन धर्म
त्रिपुरीमें अब तक जो पुरातन कलाकृतियां अथवा अवशेष उपलब्ध हुए हैं, उनसे यह प्रतीत होता है कि उस कालमें जैन कला विकासके उच्च शिखरपर थी। मध्ययुग जैन कलाका स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस कालमें मध्यप्रदेशमें, विशेषतः त्रिपुरीके आसपास जैन शिल्पको नया रूप, नया आयाम और वैविध्य प्राप्त हुआ। इस कालमें अनेक स्थानोंपर जैन तीर्थ बने। वहाँ अनेक मन्दिर और मूर्तियां निर्मित हुई। यहां तक कि एक-एक तीर्थपर १०-२० मन्दिरोंसे लेकर ७०-८० मन्दिर तक बन गये । केवल संख्याकी दृष्टिसे ही नहीं, कला-सौष्ठवको दृष्टिसे भी इन मन्दिरों और मूर्तियोंका महत्त्व असाधारण है।
यद्यपि कलचुरियोंका आदिपुरुष बोधराज जैन धर्मानुयायी था, किन्तु उसके कालमें त्रिपुरीमें कलचुरियोंका अस्तित्व प्रमाणित नहीं होता। जैन कला सदा स्वतन्त्र रही है। उसे कभी राजाश्रय नहीं मिला, वह सर्वसाधारणको भक्ति और सद्भावनाके बलपर ही विकसित हुई है।
त्रिपुरीमें जो जैन कला-सामग्री प्राप्त हुई है, उसमें तीर्थंकरों और यक्ष-यक्षियोंकी मूर्तियाँ शामिल हैं । अधिकांश जैन कलावशेष सड़कों, पुलों, निजी मकानों और मन्दिरोंमें लगा दिये गये हैं, कुछ कलाकृतियां रायपुर आदिके संग्रहालयोंमें पहुंचा दी गयी हैं।
वर्तमान तेवर गाँवके पूर्व में बालसागर नामक एक विशाल सरोवर है। उसके चारों ओर पक्की चहारदीवारी बनी हुई है। सरोवरके मध्यमें एक टोलेपर एक शैव मन्दिर बना हुआ है। उसमें पुत्रसहित एक मातृ-मूर्ति नेमिनाथ तीर्थकरकी यक्षिणी अम्बिका देवीकी है। उसकी चरणचौकीपर लिखा है-'मानादित्यकी पत्नी सोम तुम्हें रोज प्रणाम करती है।' इस मन्दिरमें दीवारोंके बाह्य भागमें जैन देवी चक्रेश्वरीकी कई मूर्तियां लगी हैं।
यहाँकी एक जैन प्रतिमा हनुमान् ताल ( जबलपुर ) के दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ बड़ा मन्दिरमें विराजमान है। इस प्रतिमाको हम कलचुरिकालीन कलाकी प्रतिनिधि रचना अथवा कलाकी उत्कृष्ट कृतियोंमें से एक कृति कह सकते हैं। यह प्रतिमा ५ फुट ऊंचे और ३|फुट चौड़े एक शिलाफलकपर बनी हुई है। प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें है। दृष्टि नासाग्र है। केश कुंचित हैं। पिंगला, अहरवला, ...., ...., मासवर्धनी, ..., रिढालीदेवी, गणेश, छत्रसंवरा, अजिता, चण्डिका, ...., गहनी, ब्रह्माणी, माहेश्वरी, टंकारी, रूपिणी, पग्रहंसा, हंसिनी, ...., ...., ..., ....ईश्वरी, ठाणी, इन्द्रजाली, तपनी, ...., गांगिणी, ऐंगिणी, उत्ताला, णालिनी, लम्पटा, डेड्डरी, ऋतसमादा, गान्धारी, जाह्नवी, डाकिनी, बन्धणी, दर्पहारी, ...., रंगिणी, जहा, टीक्किणी, घण्टाली, ढड्ढरी, ... वैष्णवी, भीषणी, सतनुसम्बरा, क्षत्रर्मिणी, ..., फणेन्द्री, वीरेन्द्री और ठाकिणी।
___ इन मूर्तियोंपर १०वीं शताब्दीकी लिपिमें देवियोंके नाम खुदे हुए हैं । यहाँ एक मूर्ति कुषाणकालकी है और लाल पाषाणकी मूर्तियाँ ८वीं शताब्दीकी है। इससे ज्ञात होता है कि यहाँ १०वीं शताब्दीसे पूर्व भी मन्दिर थे।
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मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ वण स्कन्धचुम्बी हैं। श्रीवत्स लांछन नहीं है किन्तु छातीपर उसका चिह्न अवशिष्ट है। इससे लगता है कि श्रीवत्स अवश्य रहा होगा। प्रतिमाके सिरके पीछे अलंकृत भामण्डल है। सिरके ऊपर छत्रत्रयो सूक्ष्म शिल्पांकनसे अलंकृत है । छत्रोंके दोनों पावों में गज खड़े हैं जिनकी सूंड़ छत्रोंका आधार बनी हुई है । गज एक विकसित पुष्पपर अवस्थित हैं। पुष्पसे नीचे मालाधारी देव-देवी और गन्धर्वबाला आकाश-विहार कर रही हैं। ये सभी रत्नाभरणोंसे सज्जित हैं। देव गलेमें दोदो मालाएं, भुजाओंमें भुजबन्ध, कड़े, करधनी, मुद्रिका धारण किये हुए हैं । देवियां माला, कुण्डल, केयूर, कंगन, मेखला और मुद्रिका धारण किये हुई हैं। गन्धर्वबालाएं दो मौक्तिक माल और रत्नहार धारण किये हुई हैं। इनसे नीचेकी ओर प्रतिमाके दोनों पार्यों में सौधर्म और ऐशान इन्द्र अपनी इन्द्राणियों सहित अलंकृत दशामें खड़े हैं। हाथमें चमर धारण किये हुए हैं। उनके आभरणोंमें किरीट, कुण्डल, केयूर, कंगन, करधनी, मुद्रिका और रत्नहार सम्मिलित हैं। इन्द्राणी भी अलंकार-विभूषित है। इसकी चरण-चौकी पर कमलका लांछन अंकित है। अतः यह पद्मप्रभ तीर्थकरकी प्रतिमा है किन्तु महावीर भगवान्की मानी जाती है। यद्यपि सिंह लांछन पादपीठपर अंकित नहीं है, किन्तु कहा जाता है कि यह आसन इस प्रतिमाका नहीं है। इसका मूल आसन उपलब्ध नहीं हो पाया।
एक अन्य प्रतिमा देवी पद्मावतीकी है जो इसी मन्दिरमें विराजमान है। देवी कमलासनपर आसीन है। इसका वर्ण लाल है। सिरपर किरीट और गलेमें मौक्तिक माला धारण किये हुई है। किरीटके ऊपर सप्तफणावली और उसके ऊपर पद्मासनमें तीर्थंकर प्रतिमा है। देवी चतुर्भुजी है। ऊपरके दोनों हाथोंमें अंकुश और कमल धारण किये हुई है तथा नीचेके दोनों हाथोंमें माला और सम्भवतः मूशल लिये हुई है। देवीके दोनों पावोंमें दो चमरधारी देव खड़े हैं । उनके नीचे इधर-उधर श्वानपर बैठे हुए देव हैं जो सम्भवतः भैरव क्षेत्रपाल हैं।
त्रिपुरीकी कुछ मूर्तियां नागपुर संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। एक कृष्ण पाषाणकी तीर्थंकर प्रतिमाके पीठासनपर यह लेख उत्कीर्ण है-'माथुरान्वये साधुधोलु सुत देवचन्द्र संवत् ९००।' इसमें कौन-सा संवत् अभिप्रेत है, यह उल्लेख नहीं है । सम्भवतः यह कलचुरि संवत् होगा। इसी संवत् और अन्वयकी एक प्रतिमा और है, जिसकी प्रतिष्ठा मथुराके जसदेव और जयधवलने करायी थी। इसी संग्रहालयमें एक प्रतिमा महावीर स्वामीकी सुरक्षित है। यह १०वीं शताब्दीकी बतायी जाती है।
कुछ मूर्तियां पेड़ोंके नीचे तथा इधर-उधर पड़ी हुई हैं। ___ इससे प्रतीत होता है कि मध्यकालमें इस प्रदेशमें चारों ओर जैन धर्मका व्यापक प्रचार था तथा कलात्मक और नयनाभिराम मूर्तियोंका निर्माण यहीं होता था। यदि यहाँ उत्खनन किया जाये तो भूगर्भसे अनेक जैन कलाकृतियाँ प्रकाशमें आ सकती हैं और वे इतिहासको एक नया दिशा-बोध दे सकती हैं।
बरहटा
मार्ग और अवस्थिति
____ नरसिंह जिलेके गोटेगांवसे लगभग ४० कि. मी. दूर यह स्थान है। पक्की सड़क है। नरसिंहपुरसे बसें जाती हैं। यह एक सम्पन्न कस्बा है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जैन पुरातत्व
कुछ लोगोंको धारणा है कि यह महाभारत कालका वह विराटनगर है जो विराट-नरेशकी राजधानी था और जहां पांचों पाण्डव द्रौपदीके साथ अपने अज्ञातवासके समय रहे थे। इसी धारणाके कारण जनताने यहाँ पाण्डवों और द्रौपदीकी मूर्तियाँ बनवायी हैं। यहाँ द्रौपदीके नामपर एक मन्दिर भी बना हुआ है। यह भ्रमित धारणा नामसाम्यके कारण हुई है। महाभारतमें जिस विराटनगरका वर्णन आया है, वह मत्स्यदेशमें था। मत्स्यदेशमें वर्तमान अलवर, भरतपुर जिले तथा जयपुरके कुछ भाग सम्मिलित थे । पाण्डवोंने जिस विराटनगरमें अज्ञातवास किया था, वह विराटनगर जयपुरसे उत्तरकी ओर ६४ कि. मी. और दिल्लीसे दक्षिणकी ओर १६८ कि. मी. है। यह नगर इन्द्रप्रस्थके निकट था। पाण्डवोंने अपने अज्ञातवासके लिए इस नगरको इसलिए पसन्द किया था कि यह इन्द्रप्रस्थके निकट था। यहां रहकर वे अपने शत्रु दुर्योधनकी गतिविधियोंपर नजर रख सकते थे।' यहाँको पाण्डु पहाड़ीपर मीलों तक खण्डहर हैं। पहाड़ीपर प्राकृतिक गुफाएं हैं। इनमें एक गुफाका नाम भीमगुफा है। इस पहाड़ीपर सम्राट अशोकका एक शिलालेख भी उपलब्ध हुआ है। यहाँ मौर्य और मित्रवंशी राजाओंके कालके सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
कुछ लोग दिनाजपुरको विराटनगर मानते हैं । उसके निकट कान्तनगरमें विराट-नरेशका उत्तर गोगृह और मिदनापुरमें दक्षिण गोगृह मानते हैं । यह मान्यता भी आधारहीन है।
बरहटा गांवके बाहर दो मोल लम्बे-चौड़े भू-भागमें प्राचीन सामग्री बिखरी हुई है। यहाँके मालगुजार ठाकुर सबलसिंहने यहाँ कुछ समय पूर्व खुदाई करायी थी। फलतः यहाँ अनेक प्राचीन मूर्तियाँ निकली थीं। ये मूर्तियाँ उनके निजी मकानमें अभी भी सुरक्षित हैं ।
यहाँ एक अर्ध-भग्न प्राचीन जैन मन्दिर है। मन्दिरका हॉल ३५ फुट लम्बा और २५ फुट चौड़ा आज भी टूटी-फूटी अवस्थामें खड़ा हुआ है। इसकी छत गिर चुकी है। यहां कुल ८ तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं । इनकी अवगाहना प्रायः ५-६ फुट है। ये पद्मासन मुद्रामें हैं और श्याम वर्ण देशी पाषाणकी बनी हुई हैं।
यहाँपर जो पांच तीर्थकर मूर्तियाँ हैं उन्हें जैनेतर लोग पाँच पाण्डव भगवान् कहकर पूजते हैं। 'पांच-पाण्डव' के नामसे यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है। मन्दिरके दरवाजेपर स्थित छह फुट ऊंची पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा बहुत मनोज्ञ है। यहाँपर पाषाणका एक तीन फुटका वृत्ताकार धर्मचक्र रखा हुआ है।
___ मन्दिरके निकट एक तालाब और कुआँ बना हुआ है। अब तक मन्दिर और मूर्तियाँ उपेक्षित दशामें पड़ी हुई हैं। ____इस स्थानके समीप ही तालाबके किनारे जो द्रौपदी-मन्दिर है वहां भी तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। इसके आगेकी दो मीलकी लम्बी-चौड़ी जमीन बहुत मजबूत है। जब भी वहां कोई खुदाई होती है तो प्राचीन जैन-बौद्ध मतियां निकलती हैं। यहाँको बहत-सी सामग्री तो देशके बाहर चलो गयी है। यहाँको कुछ जैन मूर्तियां नरसिंहपुरके सरकारी बागमें सुरक्षित रखी हुई हैं।
१. महाभारत, विराटपर्व, सभापर्व ३० ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
कोनीजी
२१५.
मार्ग
श्री कोनीजी क्षेत्र 'जबलपुर - पाटन - दमोह मागं' पर कैमूर पर्वतमालाकी तलहटी में हिरन : सरिता. तटपर अवस्थित है। जबलपुरसे पाटन बत्तीस किलोमीटर है और पाटनसे कोनीजी पाँच किलोमीटर है | मुख्य सड़कसे 'बासन' ग्राम तक जाकर बासन ग्रामसे दायीं ओरको कोनीजी तक पक्की सड़क जाती है । मध्य रेलवे के जबलपुर स्टेशनसे तथा दमोह स्टेशनसे दिन-भर मोटरें मिलती हैं । कोनीजीमें नौ शिखरबन्द दिगम्बर जैन मन्दिर हैं ।
प्राचीन क्षेत्र
यह क्षेत्र पर्याप्त प्राचीन लगता है । यहाँके कुछ मन्दिरों और मूर्तियों पर १०वीं - ११वीं शताब्दीकी कलचुरिकालीन कलाका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । कलचुरि शैलीमें मन्दिर के बहिर्भाग में अलंकरण की प्रधानता रहती थी, द्वार अलंकृत रहते थे । शिखरकी ऊंचाई भी अधिक रहती थी । पंचायतन शैलीको इसी कालमें पूर्णता प्राप्त हुई ।
ये विशेषताएँ यहाँके कुछ मन्दिरोंमें भी देखनेको मिलती हैं ।
यहाँकी प्रतिमाओं में विघ्नहर पार्श्वनाथकी प्रतिमा अत्यन्त भव्य और प्रभावोत्पादक है । यहाँकी प्रतिमाएँ दोनों ही ध्यानासनोंमें मिलती हैं - पद्मासन एवं कायोत्सर्गासन । इन प्रतिमाओंकी चरण-चौकीपर अभिलेख भी उत्कीर्ण हैं |
उनके अनुसार यहाँ कुछ प्रतिमाएँ १०वीं - ११वीं शताब्दीकी भी उपलब्ध हैं ।
यहाँ की विशेष उल्लेखनीय रचनाओं में सहस्रकूट जिनालय तथा नन्दीश्वर द्वीपकी रचना है । ये रचनाएँ अपनी विशिष्ट शैलीके कारण अत्यन्त कलापूर्णं बन पड़ी हैं । कलाकारके कुशल हाथों के कौशलकी छाप इनकी प्रत्येक मूर्तिपर स्पष्ट अंकित है । ऐसी मनोहर रचना कम ही मन्दिरोंमें देखने को मिलेगी ।
।
बहुत वर्षों तक यह तीर्थं अत्यन्त उपेक्षित दशामें पड़ा रहा। उस कालमें वन्य पशु-पक्षियोंने मन्दिरोंको अपना सुरक्षित आवास बना लिया था । जंगली लताओं, झाड़ियों और इन पशुपक्षियोंने मन्दिरों को दुर्गम और वीरान बना दिया था मन्दिरोंकी छतें और भित्तियाँ मरम्मत के अभावमें जीर्ण-शीर्णं हो गयी थीं । जहाँ-तहाँसे वर्षाका पानी अपना मागं बना लेता था, किन्तु इधर कुछ वर्षोंसे 'पाटन जैन समाज' का ध्यान इसकी ओर आकृष्ट हुआ है और अब यहाँके मन्दिरोंकी दशा सन्तोषजनक रूपसे सुधरती जा रही है ।
अतिशय क्षेत्र
इस क्षेत्रकी ख्याति एक अतिशय क्षेत्रके रूपमें है । यहाँका 'गर्भमन्दिर' देवी चमत्कारोंके लिए विशेष प्रसिद्ध है । शिशिर ऋतुमें भी इस मन्दिर में प्रवेश करनेपर शीतका अनुभव नहीं होता । विघ्नहर पार्श्वनाथ मन्दिरमें जैन और जैनेतर जनता मनौती मनाने आती है और उनके विश्वासके अनुरूप उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं ।
यहाँके नन्दीश्वर मन्दिर के प्रति जैनाजैन जनताको अत्यधिक श्रद्धा है। यह भी जनश्रुति है कि इस मन्दिरमें अष्टाह्निका पर्वमें देवगण आकर गीत-नृत्यपूर्वक पूजन किया करते थे और मन्दिर में 'केशर' की वर्षा करते थे ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
शान्तिकी जैसी अभिलाषा और जिनेन्द्रभक्ति धार्मिकजनोंमें देखी जाती है, वैसी अनेक देवों में भी होती है, ऐसा माना जाता है । अत: यह अस्वाभाविक नहीं है । निश्चय ही इन तीर्थं भूमियों पर आकर विविध आधि-व्याधियोंसे व्याकुल प्राणियोंको शान्ति प्राप्त होती है ।
क्षेत्र-दर्शन
२१६
क्षेत्रमें प्रवेश करनेके लिए विशाल प्रवेश-द्वार बना हुआ है और उसके ऊपर नौबतखाना है । क्षेत्र स्थित मन्दिरोंके चारों ओर अहाता बना हुआ है। यहाँ कुल नौ मन्दिर हैं जिनका विवरण इस प्रकार है
मन्दिर क्रमांक १ – जीर्णोद्धार कार्यं होकर नवीन आकर्षक वेदीका निर्माण हुआ है। फरवरी १९७६ में वार्षिक मेलाके अवसरपर वेदी प्रतिष्ठा होकर श्री जिनबिम्ब विराजमान किये गये हैं । इस मन्दिर में तीन आधुनिक और दो प्राचीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।
मूल नायक श्री नेमिनाथ भगवान्की लाल पाषाण ( मूँगा वर्ण ) की प्रतिमा भव्य एवं चित्ताकर्षक है । एक फुट आठ इंच ऊँचे एक शिलास्तम्भमें तीर्थंकर मूर्तियां हैं जो प्राचीन हैं । एक पद्मासन प्राचीन प्रतिमा है जो १ फुट ५ इंच ऊँची है। तीर्थंकरके दोनों पावोंमें चमरवाहक खड़े हुए हैं । चन्द्रप्रभ भगवान्की दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं, जिनमें एक वह अतिशय सम्पन्न प्रतिमा है, जिसपर एक बार पसीनेकी भाँति जलकण दिखाई दिये थे ।
मन्दिर क्रमांक २ – बहुत समयसे खाली पड़ा है, जीर्णोद्धारककी राह देख रहा है ।
मन्दिर क्रमांक ३ – नवीन आकर्षक वेदीका निर्माण सन् १९६९ में क्षेत्रकी वर्तमान प्रबन्ध समितिने कराया है, जिसमें मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेत वर्णं पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति लेखके अनुसार इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १८८५ में हुई थी। इसके समवसरणमें मूलनायक के अतिरिक्त पाँच प्रतिमाएँ और विराजमान हैं जिनमें तीन प्रतिमाएँ प्राचीन हैं। इनमें एक फुट दो इंच ऊँचे एक पाषाण- फलकमें २० तीर्थंकर मूर्तियां बनी हुई है, जिनमें दो पद्मासन और शेष खड्गासन हैं। यह विदेह क्षेत्रके २० तीर्थंकरोंकी परिकल्पना है । २ फुट ५ इंच ऊँची एक शिखराकृतिमें एक पद्मासन और दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । २ फुट ५ इंच ऊँची अवगाहनाको एक खड्गासन तीर्थंकर मूर्ति है। इसके परिकरमें आकाश -विहारी, गन्धर्व और चमरवाहक दीख पड़ते हैं ।
मन्दिर क्रमांक ४ - खाली किया गया है। जीर्णोद्धारका कार्य हो रहा है । यहाँ भगवान् महावीर स्वामीकी विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठा कराकर विराजमान किये जानेकी योजना है जिसके लिए यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आयोजित होगी। जीर्णोद्धार श्री सिंघई रतनचन्द पाटन द्वारा हो रहा है ।
मन्दिर क्रमांक ५ – जीर्णोद्धार कार्य सम्पन्न होकर नवीन चित्ताकर्षक वेदीका निर्माण सम्पन्न हुआ है। अभी फरवरी १९७६ में आयोजित वार्षिक मेलामें वेदी प्रतिष्ठा होकर श्री जिनबिम्ब विराजमान किये गये हैं । मूलनायक के रूपमें सुन्दर काले पाषाणकी २ फुट ६ इंच ऊँची तीर्थंकर चौबीसी विराजमान है जिसमें मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ हैं। इस वेदीमें विराजित तीनों प्रतिमाएं एक-से काले पाषाण की चुनी गयी हैं। चौबीसीके दोनों ओर काले पाषाणकी तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान । वेदीमें दोनों ओर इस प्रकार विशाल दर्पण लगाये गये हैं, जिससे उनमें अनेक प्रतिमाएँ दिखाई देती हैं ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२१७ मन्दिर क्रमांक ६-इस मन्दिरको 'गर्भ-मन्दिर' कहा जाता है। शीत ऋतुमें इस मन्दिरमें उष्णता रहती है । यद्यपि मन्दिरमें पक्षावकाश बने हुए हैं किन्तु मन्दिरकी ऊष्माका क्या रहस्य है यह अब तक अविदित ही बना हुआ है। भक्तजन श्रद्धावश इसे वातानुकूलित कहते हैं। इस मन्दिरमें समय-समयपर अतिशय भी होते रहते हैं। पहले इस मन्दिरमें भगवान् चन्द्रप्रभुकी मूर्ति विराजमान थी। प्रत्यक्षदर्शियोंके अनुसार इस प्रतिमापर एक बार पसीनाकी भांति जलकण दिखाई दिये थे। सूखे छन्नेसे पोंछनेपर वह गीला हो गया था। अब उस प्रतिमाको यहाँसे अन्य मन्दिरमें विराजमान कर उसके स्थानपर सहस्रकूट चैत्यालय विराजमान कर दिया गया है। पहले यह चैत्यालय ऊपर मन्दिर नं. ८ में था। जबलपुरके सवाई सिंघई नेमीचन्दजीने इस मन्दिरका जीर्णोद्धार कराकर सहस्रकूट चैत्यालयको यहाँ विराजमान किया है जिसके उपलक्ष्यमें क्षेत्रकी प्रबन्ध समितिने उन्हें 'तीर्थभक्त' की उपाधिसे सम्मानित किया है।
यह चैत्यालय एक अष्टकोण स्तम्भमें बना हुआ है। इसमें तीन कटनियां हैं । इस चैत्यालयकी कटनियोंपर मेरु भी विराजमान थे, किन्तु वे किसी समय खण्डित हो गये तब मूर्तियोंकी संख्या पूरी करनेके लिए नन्दीश्वर जिनालयकी रचनामें-के कुछ मेरुओंको यहाँ इस चैत्यालयमें विराजमान कर दिया है। अब सहस्रकूट चैत्यालयकी इस रचनाको मूर्तियोंकी गणनाका योग इस प्रकार है
नीचेकी कटनीमें चारों दिशाओंमें ५१४८-४०८ १ फुट १० इंच मध्यकी कटनीमें चारों दिशाओंमें ४५४८ = ३६० १ फुट ११ इंच ऊपरको कटनोमें , , १५४८=१२० १ फुट ११ इंच मेरुओंकी मूर्ति संख्या
४४८= ३२ मेरुओंकी मूर्ति संख्या
२०४४ - ८० मेरुओंकी मूर्ति संख्या
२४४- ८
कुल योग १००८ इन मेरुओंका माप इस प्रकार हैऊपरका मेरु
२ फुट २ इंच चारों दिशाओंके मेरु क्रमशः
१ फुट ८ इंच, १ फुट ९ इंच,
१ फुट १० इंच, १ फुट ११ इंच - .. पूर्व दिशाका एकमात्र मेरु
८ इंच सहस्रकूट जिनालय कई स्थानोंपर मिलते हैं। दिगम्बर परम्परामें इन जिनालयोंमें १००८ मूर्तियां बतायी जाती हैं जबकि श्वेताम्बर परम्परामें १००० मूर्तियोंका प्रचलन है। बाणपुर, पटनागंज, सम्मेदशिखर, दिल्ली आदि कई स्थानोंपर प्राचीन सहस्रकूट जिनालय हैं। इन सभीमें १००८ मूर्तियां हैं । सहस्रकूट जिनालयोंका प्रचलन कबसे है, निश्चित रूपसे यह कहना कठिन है, किन्तु १०वी-१२वीं शताब्दीसे इसका प्रचलन निश्चित रूपसे रहा है । गुप्तोत्तर युगमें मूर्ति-शिल्पमें वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। यह वैविध्य शैली, सज्जा और शासन देवताओंकी मतियोंमें तो दष्टिगोचर होता ही है, तीर्थंकरों और मन्दिरोंके प्रतीक रूपोंमें भी दिखाई पड़ता है। इन प्रतीकात्मक विधाओंमें ही सहस्रकूट चैत्यालयोंकी गणना की जा सकती है। ये चैत्यालय किसी तीर्थकर विशेषका प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसलिए इन चैत्यालयोंमें मूर्तियोंके नीचे किसी लांछनका अंकन नहीं मिलता।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तब मनमें यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इन चैत्यालयोंमें मूर्तियोंकी संख्या १००८ रखानेका प्रयोजन क्या है। इसके लिए कोई शास्त्रीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । कुछ विद्वान् १००८ प्रतिमाओंको भगवान्के १००८ गुणोंका प्रतीक बताते हैं। कुछ विद्वान् पंच परमेष्ठीके साथ इसका सम्बन्ध बताते हैं। एक मान्यताके समाधान अनेक हो सकते हैं। हमारी विनम्र मान्यता है कि गुणोंकी प्रतीकात्मकताके लिए तीर्थकर मूर्तियोंकी कल्पना अधिक बुद्धिसंगत नहीं लगती। गुणों और धर्मोकी मूर्तियाँ बनानेकी परम्परा कभी रही हो, ऐसा भी उल्लेख पुरातत्त्व और इतिहासमें नहीं मिलता। लगता है, वैष्णव सम्प्रदायमें जब बहुदेवतावादका जोर था और उसके आधारपर अनेक देवी-देवताओंकी मतियोंका निर्माण हो रहा था उन्हीं दिनों जैनोंमें विष्णु-वैष्णवों और जैनोंकी सैद्धान्तिक मान्यताओंमें मौलिक अन्तर था। वैष्णवोंमें एक विष्णुके अनेक रूप हैं, जैनोंमें किसी एक ऐसी तीर्थंकरकी मान्यता नहीं रही जिसके अनेक रूप होते हैं। यहां तो २४ तीर्थंकरोंका भी एक रूप है। तथापि सभी तीर्थंकरोंका एक नाम होता है 'जिन' और जिनके सहस्रनाम होते हैं । 'आदिपुराण' पर्व २५, श्लोक २२४ में इन्द्र भगवान् ऋषभदेवकी स्तुति सहस्रनामों द्वारा करता हुआ कहता है : . "हे भगवन् ! हम लोग आपको नामावलीसे बने हुए स्तोत्रोंकी मालासे आपकी पूजा करते हैं।" बहुदेवतावादके इस कालमें इन्द्र द्वारा की गयी नामावली स्तुतिके प्रत्येक नामको एक रूप या आकार देकर १००८ आकार या मूर्तियोंका एक समवेत चैत्यालय बनाकर भगवान्की पूजा करनेकी पद्धतिका विकास हुआ। सहस्रनाम स्तोत्रमें सहस्र शब्द होते हुए भी १००८ नामोंमें भगवानकी स्तुति की गयी है । इन्द्रने जो स्तुति की थी, वहां भगवान् एक थे, उनके नाम १००८ थे। सहस्रकूट चैत्यालयमें भगवान् एक हैं और उनकी मूर्तियाँ १००८ हैं। उनके प्रत्येक नामकी एक मूर्ति है। स्तोत्रमें १००८ नाम एक स्थानपर प्राप्त हैं। सहस्रकूट चैत्यालयमें १००८ मूर्तियाँ एक स्थानपर प्राप्त हैं। दोनों ही स्थानोंपर भगवान् एक हैं। सम्भवतः सहस्रकूट चैत्यालय निर्माणके पीछे यही भावना काम करती प्रतीत होती है।
यदि उपर्युक्त कल्पनामें कोई तथ्य है, तो निष्कर्षमें यह भी मानना होगा कि जिस बहुदेवतावादसे सहस्रकूट चैत्यालयके निर्माणकी प्रेरणा मिली थी, वह जैन धर्मके अनुकूल नहीं था। अतः सहस्रकट चैत्यालयके निर्माणकी परम्परा जेन समाजमें अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।
इसमें एक बात विशेष रूपसे विचारणीय है। 'सहस्रकूट चैत्यालय' में 'कूट' शब्द हमारा ध्यान आकर्षित करता है । सम्मेदशिखरपर तीर्थंकरोंके कूट बने हुए हैं, जैसे-नाटककूट, संकुलकूट, सुप्रभकूट, मोहनकूट, ललितकूट आदि। इन नामोंकी क्या सार्थकता है, यह तो ज्ञात नहीं है किन्तु इन नामोंके साथ जो 'कूट' शब्द है, उसका अर्थ है 'चोटी' सबसे ऊपर का भाग । 'तिलोयपण्णत्ति' अध्याय ४ में लोकमें चैत्यालयोंका अवस्थान बताते हए लिखा है-भवनवासी देवोंके सात करोड़ बहत्तर लाख भवनोंकी वेदियोंके मध्य में स्थित प्रत्येक कूटपर एक-एक जिन-भवन हैं। रत्नप्रभा पृथ्वीमें स्थित व्यन्तरदेवोंके तीस हजार भवनोंके मध्य वेदीके ऊपर स्थित कूटोंपर जिनेन्द्र प्रासाद हैं। हिमवान् पर्वतके दस कूटोंपर व्यन्तरदेवोंके नगर हैं। इनमें जिन-भवन हैं। इस प्रकार 'कूट' शब्दका प्रयोग कई स्थानोंपर जिनालयोंके प्रसंगमें मिलता है। लेकिन सभी स्थानोंपर कूट शब्दका प्रयोग 'चोटी या ऊपरका भाग' इस अर्थमें ही मिलता है। लोकोंमें कूटोंकी संख्या करोड़ोंमें है। यदि उन करोड़ों कूटोंके प्रतीकके रूपमें जिनालयोंका निर्माण किया गया है, तब तो 'सहस्रकूट जिनालय' के स्थानपर 'कोटिकूट जिनालय' नाम होना चाहिए।
यद्यपि इस प्रकारको शंकाको सम्भावना हो सकती है, तथापि तथ्य यही प्रतीत होता है
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२१९ कि उन कोटिकूट जिनालयोंकी एक प्रतीकात्मक विधाका विकास हुआ है और उसका नाम 'सहस्रकूट चैत्यालय' रखा गया।
__ मन्दिर क्रमांक ७-भगवान् पाश्र्वनाथकी श्वेत पाषाणकी, सप्त फणावली-मण्डित, पद्मासनस्थ चार फुट ऊंची प्रतिमा मूलनायककी है। जिन्हें विघ्नहर पार्श्वनाथ भी कहा जाता है। यद्यपि आसनमें कमल चिह्न अंकित है। मन-वचन-कायसे इनका जप किये जानेपर विघ्नोंके नष्ट हो जानेका अतिशय अनेक बार देखा-सुना गया बताया जाता है। मूर्ति-लेखके अनुसार इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १८६३ में हुई। वर्तमान प्रबन्ध समिति द्वारा सन् १९६९ में इस मन्दिरका जीर्णोद्धार कराकर नवीन वेदी आकर्षक एवं खुली हुई बनायी गयी है।
इस वेदीमें कलचुरिकालीन प्रतिमाएं भी विराजमान हैं। एक शिलाफलकमें २ फुट ७ इंच अवगाहनाकी महावीर भगवान्की कायोत्सर्ग आसनवाली प्राचीन प्रतिमा है। आकाशमें गन्धर्व पुष्पवर्षा के लिए तैयार जान पड़ते हैं। भगवान्के दोनों ओर चमरवाहक इन्द्र खड़े हुए हैं । २ फुट ३ इंच ऊँची भगवान् शान्तिनाथकी प्रतिमा अपनी शान्त छविसे दर्शकका मन मोह लेती है। इनके अतिरिक्त ५ और पाषाण मूर्तियाँ तथा कुछ धातुको मूर्तियां और मेरु हैं। इस मन्दिरको 'बड़ा मन्दिर' कहते हैं।
मन्दिर नं.८-जीनेसे ऊपर जाकर, बायें-इस मन्दिरमें पहले सहस्रकूट चैत्यालय विराजमान था। अब उसके नीचे मन्दिर नम्बर ६ में चले जानेसे उसके रिक्त स्थानपर एक सुन्दर चबूतरा निर्मित कराकर 'पाषाण स्तम्भ' में अंकित तीर्थंकर चौबीसी जिसे 'सर्वतोभद्र प्रतिमा' भी कहते हैं, विराजमान कर दी गयी है।
मन्दिर नं.९-जीनेसे ऊपर जाकर, बायें-इस मन्दिरमें नन्दीश्वर द्वीपके ५२ जिनालयोंकी रचना है। यह रचना चार स्तम्भोंपर आधारित एक वेदो मण्डपके नीचे है। एक कमलासन पर, मध्यमें एक स्तम्भमें बीस प्रतिमाएं बनी हुई हैं। चारों दिशाओंमें चार स्तम्भ हैं, जिनमें प्रत्येकमें बीस प्रतिमाएं हैं। तीन स्तम्भ चौबीस मूर्तियोंवाले हैं और एक स्तम्भ सोलह मूर्तियोंवाला है। ५२ जिनालयोंके कुछ खण्डित भाग, जो इस रचनाकी शोभाकी कहानी सुना रहे हैं, कुछ एक स्थानपर इसी प्रकोष्ठमें रखे हुए हैं। इसके कुछ मेरु सहस्रकूट चैत्यालयमें विराजमान हैं। वस्तुतः यह रचना उपर्युक्त कारणोंसे अधूरी है जिसे पूर्ण किया जाना चाहिए । प्रबन्ध समितिके पदाधिकारियोंने बताया कि इस मन्दिरका जीर्णोद्धार कराने एवं खण्डित मूर्तियोंका निर्माण करानेके लिए श्री शिखरचन्दजी, विनीत टाकीज, जबलपुर वचनबद्ध हैं। यथाशीघ्र यह कार्य प्रारम्भ होगा। नदीश्वर जिनालय
तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार ग्रन्थोंके अनुसार नन्दीश्वर द्वीपकी रचना इस प्रकार है
मध्य लोकमें लोकद्वीपोंकी श्रृंखलामें आठवां द्वीप नन्दीश्वर है। इसके बहुमध्य भागमें पूर्व दिशामें काले रंगका एक अंजनगिरि है। उस अंजनगिरिके चारों ओर चार वापियाँ हैं। प्रत्येक वापीके चारों दिशाओंमें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नामक चार वन हैं। प्रत्येक वापीमें सफेद रंगका एक-एक दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक वापीके बाह्य दोनों कोनोंपर चार रतिकर पर्वत हैं। ( जिनमन्दिर केवल बाहरवाले दो रतिकरोंपर ही होते हैं, आभ्यन्तर रतिकरोंपर देवगण क्रीड़ा करते हैं। ) इस प्रकार एक दिशामें एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर तेरह पर्वत हैं। इनके ऊपर तेरह जिनमन्दिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दिशाओंमें भी सम्पूर्ण रचना इसी प्रकार है । कुल मिलाकर ५२ जिनालय, १६ वापियां और ६४ वन हैं । अष्टाह्निका पर्वमें सौधर्म आदि इन्द्र एवं अन्य देवगण बड़ी भक्तिसे इन मन्दिरोंकी पूजा करते हैं। पूर्व दिशामें कल्पवासी, दक्षिणमें भवनवासी, पश्चिममें व्यन्तर और उत्तरमें ज्योतिष्क देव पूजा करते हैं । नन्दीश्वर द्वीपकी इसी परिकल्पनाकी रचना कोनीजीमें की गयी है। कोनी दहनका दुःखद इतिहास
कोनी कभी नगर रहा होगा, ऐसा विश्वास होता है । यद्यपि वर्तमानमें जैन मन्दिर-समूहके अतिरिक्त वहाँ इने-गिने कुछ घर हैं। किन्तु इस क्षेत्रके चारों ओर बिखरे हुए भग्नावशेषों, इंटपत्थरोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थानने कभी किसी युगमें वैभवके दिन देखे हैं। इस स्थानपर कभी कोई नगर आबाद था, इसके लिए अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता नहीं है। क्षेत्रके निकट सड़कके दोनों ओरके टीलोंको एक बालिश्त भी खोदें तो वहाँ राखके अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा। विशाल भू-भागमें फैली हुई यह राख अपने आंचलमें यहाँका इतिहास संजोये हुए है । यह निश्चय ही दग्ध नगरकी राख है। यह राख ही हमें यह सोचनेके लिए विवश करती है कि यह दुष्कर्म धर्मान्ध आततायियोंका नहीं है, यदि उनका यह कार्य होता तो वे मन्दिरोंको परिवर्तित करते अथवा मूर्तियोंको भग्न और खण्डित करते। किन्तु इस प्रकारको विध्वंसलीला यहां दिखाई नहीं देती। यहांकी विनाश-लीलाका रूप कुछ और ही प्रकारका है। सत्ताके उन्मादने इस समूचे नगरको जलाकर भस्म कर दिया हो, ऐसा लगता है।
अक्टूबर, सन् १८५७ में पाटन तहसीलका समीपी गाड़ाघाट ग्राम अंग्रेजी शासनके विरुद्ध, जन-विद्रोहका केन्द्र बना हुआ था। गाड़ाघाट ग्रामके वीर गजराजसिंहके नेतृत्वमें जन-सेनाके हाथों अंग्रेजी सेना और देशद्रोहियोंकी निर्वीर्य जमात कई बार करारी मात खा चुकी थी। तब तोपों और शस्त्रास्त्रोंसे सज्जित अंग्रेजी घुड़सवार सेना गाडाघाटपर चढ़ दौड़ी। उसमें असंख्य देशभक्त काम आये। तब क्रुद्ध अंग्रेजोंने जनतासे भीषण प्रतिशोध लिया। जबलपुरके तत्कालीन कमिश्नर एसकिनने अपनी रिपोर्टमें लिखा है-"हमारी विजयी सेनाओंने क्रान्तिकारियोंके ग्रामोंको भस्मसात् करनेमें कोई कसर नहीं छोड़ी....जो भी ग्रामवासी वृद्ध, स्त्री, बच्चे सामने पड़े, मिर्दयतापूर्वक मार डाये गये।" गाडाघाट, कोनी, पाटन, भिडारी, नीमी, मिहगवां, जटवा, बासन, उमरिया, रमपुरा आदि गांवोंके देशभक्त या तो मार दिये गये या वे नगर-गांवोंको छोड़कर भाग गये । उन नगरों-गांवोंको अंग्रेजोंने आग लगाकर नष्ट कर दिया। आज गाड़ाघाटकी पूर्वकालीन वैभवपूर्ण स्थिति नहीं रही। वहाँके विशाल जैन मन्दिरोंकी मूर्तियाँ पाटन पहुँचा दी गयीं। कोनी नगर जलाकर भस्म कर दिया गया था। वहाँके निवासी पुनः लौटकर नहीं आये। किसीने उस नगरके पुनर्निर्माणका प्रयत्न नहीं किया। यही है कोनीके भस्मावशेषका इतिहास ।
पुरातत्त्व
क्षेत्रके आसपास प्राचीन मन्दिरोंकी शिलाएं, स्तम्भ तथा अन्य सामग्री बिखरी पड़ी है। मन्दिरोंके पृष्ठ भागमें किसी मन्दिरके सिरदल या तोरणका भाग पड़ा है। इसके ललाट-बिम्बपर पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। उसके दोनों पावोंमें भग्न दशामें चमरेन्द्र खड़े हैं। बायीं ओर अष्ट मातृकाएँ उत्कीर्ण हैं और दायीं ओर नवदेवताओं अथवा नवग्रहोंका प्रतीकात्मक अंकन है। नोचेकी पंक्तिमें नृत्यमुद्रामें देवियां दिखाई पड़ती हैं। दोनों सिरोंपर देवियां खण्डित हैं। मन्दिरोंके अहातेके निकट कुछ शिलाएं पड़ी हुई हैं जो किसी प्राचीन मन्दिरके ध्वंसावशेष प्रतीत होते हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिर-प्रांगणके बाहर एक शिलापर लोक जीवनका सरस चित्रफलक है। एक पुरुष दीपक हाथमें लिये खड़ा है, मध्यमें किसी स्त्रीका हाथ (पंजा) बना है। उसका पैर स्त्रीको जंघापर रखा है। स्त्री उसका पादमदन कर रही है। अधोभागमें एक घोड़ेपर धनुष चढ़ाये हुए एक पुरुष और स्त्री बैठे हुए हैं। घोड़ेके सामने तूणीर-सज्जित, धनुष-बाण धारण किये हुए और कवच पहने हुए पुरुष मार्ग रोके खड़ा है। यह शिलांकन 'सत-भगिनी' का कहलाता है। लगता है यह सती-चौरा है । इस प्रकारके शिलांकन इस प्रान्तमें कई स्थानोंपर देखनेमें आये । पठारी (विदिशा) में ऐसे अनेक सती-चौरा हैं। राजस्थान उत्तरप्रदेश आदि प्रान्तोंमें स्त्रियाँ दीवारोंपर गोबरसे ऐसे सती-चौरा बनाकर पूजती हैं। ____'कोनी' का सम्पूर्ण पुरातत्त्व ११वीं-१२वीं शताब्दीका प्रतीत होता है। सहस्रकूट चैत्यालय और नन्दीश्वर जिनालय भी इनके समकालीन अथवा कुछ उत्तरकालीन लगते हैं। यह सन्तोषको बात है कि यहांके मन्दिर अपने मूल रूपमें, समयके थपेड़ों और झंझावातोंके बावजूद अब भी सुरक्षित हैं। वे जीर्ण-शीर्ण हो गये हैं तथापि इस रूपमें भी तत्कालोन इतिहास और कलाको अपनेमें संजोये हुए, प्राणीमात्रको जीवनोद्धारके लिए आह्वान करते हुए, प्रकाश स्तम्भकी भांति खड़े हैं। अब उनका जीर्णोद्धार किया जा रहा है, जो अत्यन्त आवश्यक है जिससे अब उनके उस मौलिक स्वरूपकी सुरक्षा सम्भव प्रतीत होने लगी है। वार्षिक मेला
यहाँ जनवरीमें प्रति वर्ष वार्षिक मेला होता है। प्रबन्ध समिति
क्षेत्रकी व्यवस्थाके लिए एक प्रबन्ध समिति सन् १९४३ से 'श्री दिगम्बर जैन-अतिशय क्षेत्र कोनीजी जीर्णोद्धार समिति'के नामसे पाटनमें है जो मध्यप्रदेश सार्वजनिक न्यास अधिनियमके अन्तर्गत पंजीयत है । इसका निर्वाचन वार्षिक मेलाके अवसरपर होता है।
पनागर
मार्ग और अवस्थिति
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पनागर मध्यप्रदेशके जबलपुर जिलेमें जबलपुरसे उत्तरको ओर १६ कि. मी. दूर अवस्थित है। यह सागर-जबलपुरके मध्यमें मध्य रेलवेके देवरी नामक स्टेशनसे एक मील दूर है तथा कटनी-जबलपुर रोडके किनारे है। यहां पोस्ट ऑफिस, थाना, हाईस्कूल आदि हैं । यह अच्छा कसबा है। प्रति शनिवारको यहां हाट लगती है। अतिशय क्षेत्र
यह कई शताब्दियोंसे अतिशय क्षेत्रके रूपमें माना जा रहा है। पहले यहाँ भट्टारकोंकी गद्दी भी थी। कहते हैं, रात्रिमें एक भट्टारकजीको स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्नमें उन्होंने जमीनमें दबी हुई एक प्रतिमा देखी। प्रातःकाल होते ही उन्होंने अपने स्वप्नकी चर्चा श्रावकोंसे की। तब सब जैन बन्धु भट्टारकजीके साथ गाजे-बाजे और अष्ट द्रव्य लेकर कछियानेकी बाड़ीमें (स्वप्नमें
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ निर्दिष्ट स्थान ) पहुंचे। वहाँ सबने मिलकर भूमिकी खुदाई की। कुछ समय बाद एक मूर्ति दिखाई पड़ी। उसे सबने मिलकर बाहर निकाला। मूर्तिको देखकर सबके मन हर्ष और भक्तिसे भर उठे। मूर्तिको वहीं विराजमान करके सबने भक्तिभावसे पूजन किया। तत्पश्चात् मूर्तिको वहाँसे उठाकर ले गये और रेलवे लाइनके किनारे पंचायती मन्दिरमें विराजमान कर दिया।
यह सातिशय मूर्ति भगवान् शान्तिनाथकी कही जाती है। यह सिलेटी वर्णकी खड्गासन मूर्ति ८ फुट ३ इंच ऊंची और ३ फुट १० इंच चौड़ी है और देशी पाषाणसे निर्मित है। इस मूर्तिपर कोई लेख या चिह्न नहीं है। इस मूर्तिके अतिशयोंके सम्बन्धमें जनतामें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। क्षेत्र-वर्शन
जबलपुर-कटनी मार्गपर स्थित इस नगरमें कई स्थानोंपर मन्दिर हैं। महल्ला बजरियामें ४ मन्दिर हैं, महल्ला बाजार में २ मन्दिर हैं तथा रेलवे लाइनके किनारे एक अहातेमें ८ मन्दिर हैं
और ३ मन्दिर अहातेके बाहर हैं। रेलवे लाइनके किनारेके मन्दिर-समूहमें कुल १२ वेदियां बनी हुई हैं और ११ शिखर हैं। पंचायतो मन्दिर ही अतिशय क्षेत्र कहलाता है।
पंचायती मन्दिरमें भगवान् पार्श्वनाथकी एक श्वेतवर्ण प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में अवस्थित है। यह ४ फुट ८ इंच ऊँची और ३ फुट ३ इंच चौड़ी है। यह संवत् १८५८ की है । कानसे छाती तक मूर्तिपर धारियाँ हैं । ये धारियाँ पाषाणकी हैं और पालिशसे भी ये दब नहीं पायी हैं। मूर्ति आकर्षक और भव्य है।
इस क्षेत्रकी मुख्य मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है। यह कायोत्सर्गासन मुद्रामें ध्यानावस्थित है। इसकी ऊँचाई ८ फुट ३ इंच तथा चौड़ाई ३ फुट १० इंच है। यह सलेटी वर्णके देशी पाषाणसे निर्मित है। चरणोंके नीचेका भाग पृथ्वीमें दबा हुआ है। अतः इसका लांछन दिखाई नहीं पड़ता। परम्परागत अनुश्रुतिके आधारपर इसे शान्तिनाथ भगवान्की मूर्ति माना जाता है। किन्तु मूर्तिकी बढ़ी हुई जटाओं और स्कन्धोंपर पड़ी हुई तीन लटोंसे यह मूर्ति ऋषभदेव तीर्थंकरको प्रतीत होती है। चरण-चौकी भूमिके नीचे दबी होनेके कारण लांछनके समान लेख भी अपठित ही बना हुआ है। जबतक शान्तिनाथ भगवान्का लांछन हरिण स्पष्ट दिखाई न दे जाये अथवा जटाओंके रहनेपर भी अन्य कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त न हो जाये, तबतक इस मूर्तिको ऋषभदेव भगवान्की मूर्ति मानना ही संगत होगा।
मति यद्यपि अखण्डित है किन्तु सिरके पास शिलाका भाग कुछ खण्डित है। गन्धर्व, चमरेन्द्र और छत्र नहीं हैं । परिकरमें केवल व्याल ही कहे जा सकते हैं जो मूर्तिके दोनों ओर बने हुए हैं। भामण्डल आधुनिक लगा हुआ है। मूर्तिको कलापर मध्यकालको कलचुरि-कलाका प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, अतः हम यह मूर्ति ११वीं-१२वीं शताब्दीकी मान सकते हैं।
एक वेदीमें नन्दीश्वर जिनालयको मनोज्ञ रचना है। ऊँचाई २ फुट १ इंच है। मूर्ति कृष्ण पाषाणकी है। इसी वेदीपर संवत् १५४८ की पाश्वनाथकी और संवत् १८३८ की शान्तिनाथकी मूर्तियाँ विराजमान हैं । यहीं कृष्ण पाषाणकी तीन प्राचीन मूर्तियाँ एक शिलाफलकमें बनी हुई हैं। ये किसी मूर्तिका ऊपरी भाग मालूम पड़ती हैं।
बरामदेमें एक प्राचीन मूर्ति १ फुट ४ इंच अवगाहनाकी और १ फुट १० इंच चौड़ी रखी हुई है। यह श्यामवर्ण है। इसके परिकरमें भामण्डल, छत्र, गज, नभसे पुष्पवर्षा करते हुए विद्याधर, चमरेन्द्र आदिका अंकन मिलता है तथा मूर्तिके दोनों पावोंमें खड्गासन तीर्थंकर-मूर्तियाँ हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
भट्टारक-पीठ
इस नगरके हरिसिंह सिंघईके मन्दिरमें तथा नन्दीश्वरद्वीप जिनालयमें कई मूर्तियोंपर भट्टारक देवेन्द्रभूषण और भट्टारक नरेन्द्रभूषणके नाम मिलते हैं। इन मूर्ति-लेखोंमें इन भट्टारकोंका काल क्रमशः संवत् १८५३ और १८७५ मिलता है।
जैन क्षेत्रके निकट 'बलहा' तालाबके किनारे छह या आठ स्तम्भोंपर आधारित तीन मण्डप बने हुए हैं। इन मण्डपोंमें चरण-
चिह्न विराजमान हैं। ये चरणचिह्न भट्टारकोंके बताये जाते हैं।
क्षेत्रके बड़े मन्दिरमें अब भी 'जती बाबा' ( भट्टारक ) की गद्दी बनी हुई है।
उपर्युक्त कारणोंसे प्रतीत होता है कि यहां भट्टारक-पीठ था। मूर्ति-लेखोंमें जिन भट्टारकोंका नामोल्लेख हुआ है अर्थात् जिनके उपदेशसे अथवा जिनके द्वारा यहां मूर्ति-प्रतिष्ठा हुई, उनके गण-गच्छ आदिका उल्लेख इस भांति हुआ है-"श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये", अर्थात् यहाँके भट्टारक मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और कुन्दकुन्दाचार्यान्वयसे सम्बन्धित थे। मूर्तिलेखोंमें यहाँकी पट्टावली इस भौति दी गयी है-श्री मुनीन्द्रभूषणदेवास्तत्पट्टे जिनेन्द्रभूषणदेवास्तत्पट्टे देवेन्द्रभूषणदेवास्तत्पट्टे नरेन्द्रभूषणदेवाः। इस पट्टावलीसे ज्ञात होता है कि पनागर क्षेत्रके भट्टारक बलात्कारगणकी सोनागिरि-शाखाके थे। भट्टारक मुनीन्द्रभूषण, जो विक्रम संवत्की उन्नीसवीं शताब्दीके मध्यमें हुए, की परम्परामें सोनागिरिके पट्टपर क्रमशः जिनेन्द्रभूषण, देवेन्द्रभूषण, नरेन्द्रभूषण, सुरेन्द्रभूषण, चन्द्रभूषण आदि भट्टारक हुए। ये भट्टारक यद्यपि सोनागिरि-पीठके थे, किन्तु इनके कुछ उपपीठ भी थे और उन स्थानोंपर ये लोग कुछ कालके लिए जाते रहते थे। पनागर भी इन भट्टारकोंका उपपीठ अथवा अस्थायी पीठ था। सोनागिरिके भट्रारक यहां समय-समयपर आया करते थे और मन्दिर निर्माण, मूर्ति-प्रतिष्ठा आदि धर्मप्रभावनाके कार्य किया करते थे। पनागरका पंचायती मन्दिर समाजके सहयोगसे किन्हीं भट्टारकका बनवाया हुआ है, ऐसा कहा जाता है।
यहाँ भट्टारक-पीठ कितने समय तक स्थापित रहा, इस बातका कोई निश्चित साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि बलात्कारगणकी सोनागिरि-शाखाके भट्टारकोंका ही यहाँके साथ सम्बन्ध रहा है। अतः यहाँका भट्टारक-पीठ ईसवी सन्की १८वीं शताब्दीके अन्तिम भाग अथवा १९वीं शताब्दीके प्रारम्भमें स्थापित हुआ और २०वीं शताब्दीके कुछ दशकों तक कार्यरत रहा। पुरातत्त्व
पनागर किसी कालमें बहुत वैभवसम्पन्न नगर था। इसके आसपासमें प्राचीन कलचुरिशिल्पके सुन्दर जैन मन्दिरों और मूर्तियोंके अवशेष पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होते हैं। जैन क्षेत्रके समीप कुछ जैन शिल्पावशेष एक बाड़ेमें विद्यमान हैं। इन अवशेषोंमें खण्डित तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं, शासन-देवियोंकी मूर्तियाँ हैं तथा अलंकृत स्तम्भ हैं। आदिनाथकी एक सिरविहीन मूर्ति है। इसकी ग्रीवाकी तीन आवलियों एवं स्कन्धोंपर केशावलीका अंकन अत्यन्त सधे हुए हाथोंसे हुआ है। अधोभागमें दोनों कोनोंपर गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षीका अंकन किया गया है। चरण-चौकीके मध्यमें वृषभ लांछन अंकित है।
यहाँ कई मूर्तियोंके केवल शिरोभाग, कई मूर्तियोंके केवल धड़ और कुछ मूर्तियोंके आसनमात्र ही मिलते हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ शासन-देवियोंमें अम्बिकाकी दो मूर्तियां मिलती हैं। एकमें देवी अलंकारोंसे सज्जित है। वह बायें हाथसे एक बालकको पकड़े हुए है। दूसरी ओर दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियां हैं। एक दूसरी प्रतिमामें एक खण्डित मुखवाला सिंह है। एक देवी-मूर्ति है जिसके गलेमें रत्नहार है। सिरके पीछे भामण्डल है। गोदमें बालक है। देवीके शीर्ष भागपर तीर्थंकर-प्रतिमा बनी हुई है। परिकरमें आकाश-विहारी देव-देवियां हैं। ___थानेके पास 'खैरदय्या' का स्थान है । ढाई फुट ऊंचे एक शिलाफलकमें देवी बनी हुई है। उसके पृष्ठभागमें आम्रवृक्षका सुन्दर अंकन किया गया है। देवीके सिरके ऊपर आम्रवृक्षमें गुच्छक लटक रहे हैं। देवी ललितासनमें बैठी हुई है। उसकी गोदमें एक बालक है । मूर्तिके शीर्ष भागपर . भगवान् नेमिनाथकी प्रतिमा विराजमान है। उसके दोनों पाश्ों में पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभकी खड्गासन प्रतिमाएँ हैं । यह देवी-मूर्ति निश्चय ही अम्बिकाकी है। इसे ही हिन्दू लोग 'खैरदय्या' या 'खैरमाई के नामसे पूजते हैं।
इस प्रकार यहाँ और भी जैन पुरातत्त्व पर्याप्त परिमाणमें मिल सकता है। ज्ञात होता है कि १२वीं-१३वीं शताब्दीमें यह स्थान जैन संस्कृतिका केन्द्र था। सम्भवतः यहाँ उपलब्ध होनेवाला पुरातत्त्व इसी कालका है। धर्मशालाएं
___ यहां दो धर्मशालाएं हैं। बिजली और नल आदिकी सुविधा है। बड़ा नगर होनेसे सभी वस्तुएं सुविधापूर्वक मिल जाती हैं । वार्षिक मेला
यहाँपर शरत्पूर्णिमा अर्थात् असोज शुक्ला पूर्णिमाको वार्षिक मेला होता है। उस दिन बड़ी मूर्तिका मस्तकाभिषेक होता है। व्यवस्था
यहाँकी पंचायत प्रति तीसरे वर्ष दिगम्बर जैन प्रबन्धकारिणी सभाका चुनाव करती है। वही इन मन्दिरों और स्थानीय संस्थाओंकी समस्त व्यवस्था करती है।
बहोरीबन्द स्थिति
अतिशय क्षेत्र बहोरीबन्द मध्यप्रदेशके जबलपुर जिलान्तर्गत सिहोरा तहसीलमें स्थित है। इसका पोस्ट आफिस बहोरीबन्द तहसील सिहोरा है। यह सेण्ट्रल रेलवेके सिहोरा रोड स्टेशनसे २४ किलो मीटर है तथा सिहोरा रोडपर है। जबलपरसे यह ६४ कि. मी. दूर है।
यह कैमूर पहाड़ीपर स्थित है। कैमूर पहाड़ी पूर्वकी ओर मैदानसे ५२ फुटके लगभग ऊंची है। कहीं-कहीं यह कुछ ऊंची और भी है। इसके चरणोंको सुहार नदी पखारती है । बहोरीबन्दका नामकरण सम्भवतः बहुत-से बाँधोंके कारण पड़ा है। इस पहाड़ीके चारों ओर ४५ बांध या जलाशय हैं, जिनमें वर्षाका पानी एकत्र हो जाता है। इनमें से कुछ जलाशय तो झील बन गये हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन ती
२२५ जनश्रुतिके अनुसार किसी जमानेमें यहां एक बड़ा नगर बसा हुआ था। इसकी पुष्टि इस बातसे भी होती है कि यहाँ पहाड़ीपर प्राचीन कालकी टूटी ईंटें और मिट्टीके टूटे बरतन चारों: ओर बिखरे हुए हैं। प्रसिद्ध ग्रोक इतिहासकार टोलमी (पटोलमी) ने सम्भवतः इसी स्थानको: थोलवन लिखा है। इस ग्रीक उच्चारणको इंगलिशमें बोलवन कहा जा सकता है जो कि बहुल-: वनके अतिनिकट है । बहोरीबन्द ही बहुलवन हो सकता है। ___टौलमीने लिखा है कि यह परिहार नरेशोंके आधिपत्यमें था। पुरातत्त्व
यह स्थान मध्यकालमें एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र था, ऐसा प्रतीत होता है। यह तथा इसके आसपासका सम्पूर्ण क्षेत्र सांस्कृतिक और धार्मिक केन्द्र था। इस क्षेत्रमें भारतकी तीनों संस्कृतियां-जैन, ब्राह्मण और बौद्ध उन्नतिकी सद्भावपूर्ण स्पर्द्धा रत थीं। इस प्रदेशमें जो पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध हुई है, वह सम्राट अशोकके कालसे लेकर कलचुरि राजाओं तथा उसके बादके भी काल तककी है। बहोरीबन्दसे उत्तरकी ओर दो मील दूर तिगवा नामक गांव है। यहाँ अनेक देवालयोंके अवशेष बिखरे हुए हैं। केवल एक मन्दिर बचा हुआ खड़ा है। इसमें केवल गर्भगृह है और चार स्तम्भोंपर आधारित है। इसके आगे अर्घमण्डप है। इसकी शैली उदयगिरि और ऐरनके गुप्तकालीन देवालयोंसे मिलती-जुलती है। यहाँ ३६ मन्दिरोंकी नींव तो अब भी देखी जा सकती है। कहते हैं, रेलवेका कोई ठेकेदार इन मन्दिरके ईंट-पत्थर तक उखाड़कर ले गया। इस इलाकेमें रेलवेके ठेकेदारोंने ईंट-पत्थरोंके लोभमें कई प्राचीन भव्य मन्दिरोंको तुड़वा दिया।
तिगवांका अर्थ तीन गांवोंका समूह है। इस समूहमें इस गांवके अतिरिक्त अंगोवा और देवरी थे। ये तीनों गाँव बहोरीबन्दके उपनगर थे, ऐसा कहा जाता है।
___ उस गांवसे तीन मील दूर कैमूर पहाड़ीकी शृंखलामें रूपनाथ है। यहाँ पहाड़पर सम्राट अशोकका शिलालेख है तथा पहाड़पर-से तीन जलधाराएँ गिरती हैं और उनके कारण तीन कुण्ड बन गये हैं। इनके नाम रामकुण्ड, लक्ष्मणकुण्ड और सीताकुण्ड हैं। महादेवका भी प्रसिद्ध मन्दिर है। किन्तु इस स्थानको ख्याति मिली है मौर्य सम्राट अशोकके अभिलिखित शासनादेशके शिलालेखके कारण।
इसके निकट ककरहटा ग्राममें प्राङ्मौर्यकालीन सभ्यताके अवशेष प्राप्त हुए हैं। पुरातन सभ्यताके केन्द्रोंकी इस कड़ीमें बहोरीबन्द भी है जो जैन धर्म और जैन संस्कृतिका केन्द्र था। यहाँपर भगवान् शान्तिनाथको एक हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमा है। यह १३ फुट ९ इंच ऊँची और ३ फुट १० इंच चौड़ी है। लगभग ३ फुट ८ इंच ऊंचे. सिंहासनपर यह विराजमान है। इसकी चरण-चौकीपर सात पंक्तियोंका एक महत्त्वपूर्ण लेख है । वह काफी घिस गया है। यह इस प्रकार पढ़ा जा सकता है____ "स्वस्ति संवत् १० फाल्गुन बदि ९ भौमे श्रीमद् गयकर्णदेव विजयराज्ये राष्ट्रकूटकुलोद्भवमहासामन्ताधिपति-श्रीमद्गोल्हणदेवस्य प्रवधमानस्य श्रीमद्गोल्लापूर्वाम्नाये वेल्लप्रभाटिकायामुरुकृताम्नाये तर्कतार्किकचूडामणिः श्रीमन्माधवनन्दिनानुगृहीतः साधुः श्रीसर्वधरः तस्य पुत्रः धर्मदानाध्ययने रतः महाभोजः । तेनेदं कारितं रम्यं शान्तिनाथस्य मन्दिरम् । .
स्वलात्यमसंज्जक सूत्रधारः श्रेष्ठिनामा तेन वितानं च महाश्वेतं निर्मितमतिसुन्दरं श्रीचन्द्रकराचार्याम्नाये समस्तविद्याविनयानन्दितविद्वज्जनाः प्रतिष्ठाचार्याः श्रीमन्तः सुभद्राः चिरं जयन्तु।"
३-२९
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२२६
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इस मूर्ति-लेखके अनुसार यहाँ गयकर्णदेवके राज्यमें उसके महासामन्त राष्ट्रकूटवंशी गोल्हण देवका शासन था। यह गयकर्णदेव कलचुरिवंशका नरेश था। इस राजाके सम्बन्धमें कई स्थानोंपर शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। भेड़ाघाट शिलालेख इसी राजाके शासनकाल संवत् ९०९ का है । गयकर्णके त्रिपुरी शिलालेखमें संवत् ९०२ दिया गया है। बहोरीबन्दके मूर्तिलेख और उक्त शिलालेखोंके कालमें लगभग १०० वर्षका अन्तर पड़ता है। इससे कई विद्वानोंको भ्रान्ति होना स्वाभाविक है।
__ कलचुरि राजवंशका इतिहास देखनेसे ज्ञात होता है कि जबलपुरके निकटवर्ती भूभागमें दहलके कलचुरियोंने कोकल्ल द्वितीयके पुत्र गांगेयदेवके शासनकालमें अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति काफी बढ़ा ली थी। उसने परमार भोज और राजेन्द्र चोलसे सन्धि कर ली, कोसल नरेश ( महाशिवगुप्त ययाति ) को परास्त किया, उत्कलको रौंदता हुआ समुद्र-तट तक जा पहुंचा। बनारसको पालवंशी महीपाल प्रथमसे छीनकर अपने राज्यमें मिला लिया। उसने अंग, मगध और त्रिमुक्तिपर भी आक्रमण किया। किन्तु सफल नहीं हो सका। उसने विक्रमादित्य और त्रिकलिंगाधिपति-जैसे विरुद धारण किये।
इस राजाके सोने, चांदी और तांबेके अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं। इसकी मृत्यु अनुमानतः सन् १०३४ या उसके आसपास हुई। इसके पश्चात् इसका पुत्र कर्ण गद्दीपर बैठा। उसका रीवा शिलालेख सन १०४८ का है। सन १०७३ में उसका पुत्र यशःकर्ण शासनारूढ हआ। बारह शताब्दीके प्रथम चरणमें गयकर्णको अपने पिताका राज्य उत्तराधिकारमें मिला। कहते हैं, एक अभियानके समय यह नरेश हाथीपर सो रहा था। उसका रत्नहार वृक्षकी एक शाखामें अटक गया। हाथी चल रहा था। हारके कारण गला घुट जानेसे इसकी मृत्यु हो गयी। यह दहल नरेश सन् ११५१ में राज्य-शासन कर रहा था, इस प्रकारके प्रमाण उपलब्ध होते हैं।
भेड़ाघाट शिलालेखमें नीलकण्ठ महादेव, गजमुख गणेश और सरस्वतीकी वन्दना करनेके पश्चात् चन्द्रवंशी अर्जुनकी प्रशंसा करके उसी वंशमें हुए अपने पूर्वजोंकी वंशावली इस प्रकार दी गयी है-कोकल्लदेव, गगियदेव, कर्ण, यशःकर्ण । गयकर्णदेवको रानीका नाम अल्हनदेवी था। वह मेवाड़ नरेश विजयसिंहकी पुत्री और मालवनरेश उदयादित्यकी दौहित्री थी। उसकी माताका नाम श्यामलादेवी था । इस प्रकार उसका रक्त सम्बन्ध मेवाड़के गुहिल और मालवाके परमारोंसे था । उसने भेड़ाघाटमें वैद्यनाथ इन्दुमौलि ( महादेव ) का एक भव्य मन्दिर संवत् ९०७ में निर्मित कराया था। उससे नरसिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। दूसरे पुत्रका नाम जयसिंह था। मन्दिरके साथ उसने स्वाध्याय-शाला और उद्यान-समूहका भी निर्माण कराया।
____ इस शिलालेखसे ज्ञात होता है कि यह लेख संवत् ९०७ में उत्कीर्ण किया गया। उस समय महाराज नरसिंहका राज्य था।
भरहुत शिलालेख संवत् ९०९ श्रावण सुदी ५ बुधवारका है और यह श्री नरसिंहके पौत्र बल्लालदेवके शासनकालका है। ७ पंक्तियोंके इस शिलालेखका मूलपाठ इस प्रकार है
"स्वस्ति श्री परमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वर - श्री वामदेवपादानुध्यातपरमभट्टारकमहामहाराजाधिराजपरमेश्वर परमहेश्वर-त्रिकलिंगाधिपति निजभुजोपार्जित अश्वपति गजपति नरपति राजत्रियाधिपति श्रीमान् नरसिंहदेवचरणाः वाधवा ग्रामकस्य महाराजपुत्र श्रीकेशवादित्य पुत्र बल्लालदेवकस्याह्वयः संवत् ९०९ श्रावक सुदी ५ बुधे ।"
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
২২৩ इस शिलालेखके अनुसार संवत् ९०९ में नरसिंहदेवका शासन चल रहा था। नरसिंहदेवके शासनकालसे पूर्वका एक शिलालेख संवत् ९०२ का त्रिपुरी (तेवर ) से प्राप्त हुआ है। यह उस समयका है, जब गयकर्णदेवका शासन चल रहा था और नरसिंहदेव उसका युवराज था। यह शिलालेख १४३ इंच लम्बा १३ इंच चौड़ा है। यह ज्येष्ठ सुदी १ बुधवार संवत् ९०२ का है।
उपर्युक्त शिलालेखोंसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि संवत् ९०२ में गयकर्णदेव शासन कर रहा था और संवत् ९०७ में उसके पुत्र नरसिंहका शासन चल रहा था। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संवत् ९०२ और ९०७ के मध्यवर्ती कालमें गयकर्णकी मृत्यु हुई और नरसिंहदेव शासनारूढ़ हुआ।
अब एकमात्र यह निर्णय करना शेष रह सकता है कि यहां किस संवत्से अभिप्राय है। यह निश्चित होनेपर इन राजाओंका राज्यकाल और बहोरीबन्दकी मूर्तिका प्रतिष्ठा-काल निश्चित करनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी।
___गयकर्णकी रानीका नाम अल्हनदेवी था। वह मालवाके उदयादित्यकी पौत्री थी। उदयादित्यका शासन-काल अनुमानतः सन् १०५० से ११२० माना जाता है। यह रानो मालवनरेश लक्ष्मीधरकी भतीजी थी। लक्ष्मीधरने सन् ११०४ में त्रिपुरीपर विजय प्राप्त की। नरसिंहदेव चन्देल-नरेश मदनवर्माका समकालीन था। मदनवर्माका इतिहाससम्मत शासन-काल सन् १५२९ से ११६३ तक माना जाता है। इन समकालीन नरेशोंके शासन-कालके साथ कलचुरि नरेशोंके शिलालेखोंमें उल्लिखित कालकी संगति बैठ सकती है, बशर्ते इन कलचुरि नरेशोंके शिलालेखों या ताम्रलेखोंके संवतों पर समुचित ध्यान दें। इन नरेशोंके ये लेख संवत् ७९३, ८९६, ८९८, ९०२, ९०७, ९०९, ९२८ के हैं और वाराणसी, जबलपुर, तेवर, भेड़ाघाट, कुम्भी, भरहुत आदि स्थानोंपर प्राप्त हुए हैं । राजिमसे प्राप्त एक शिलालेखमें इस संवत्को समस्याका समुचित समाधान प्राप्त होता है । वह लेख इस प्रकार है
___ "कलचुरि संवत्सरे ८९६ माघ-मासे शुक्ल-पक्षे रथाष्टम्यां बुधदिने।" इस लेखमें संवत्सरका नाम कलचुरि संवत्सर दिया है। किसी-किसी शिलालेखमें इसको चेदि संवत्सर या चेदि संवत् भी कहा है। चेदि संवत्का प्रारम्भ इतिहासकारोंने ई. सन् २४९ में माना है। गयकर्णदेवके शासन-कालका चेदि संवत् ९०२ का जो शिलालेख उपलब्ध हुआ है, वह उसके शासन-कालके लगभग अन्तिम वर्षका या अन्तिम वर्षसे २-३ वर्ष पूर्वका है क्योंकि चेदि संवत् ९०७ का लेख गयकर्णके पुत्र नरसिंहका प्राप्त हुआ है। अतः गयकर्णका राज्य अनुमानतः ई. सं १११५ से ११५३ तक माना जा सकता है। . इस परिप्रेक्ष्यमें बहोरीबन्दके शान्तिनाथके मूर्तिलेखपर विचार किया जाये तो ज्ञात होगा कि इसमें जो संवत् दिया गया है वह चेदि संवत् नहीं है, अपितु शक संवत् है। इस मूर्तिलेखका वास्तविक संवत् कितना है, यह अभी तक अनिर्णीत है। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासकार कनिंघम. भण्डारकर, मिराशी आदि विद्वान भी इस संख्याको सही नहीं पढ सके और न इसका निर्णय ही कर सके। उन्होंने इसे अपठनीय कहकर छोड़ दिया। किन्तु हमारा अनुमान है कि इस मूर्तिलेखमें जो शक संवत् दिया है, वह १०७० है। लेख घिस जानेके कारण यह अस्पष्ट हो गया है। कुछ विद्वान् इसे विक्रम सं. १०१० मानते हैं । किन्तु उपलब्ध शिलालेखोंसे इसकी संगति नहीं बैठती है। गयकर्णका अन्तिम शिलालेख चेदि सं. ९०२ ( ई. सं. ११५१) का उपलब्ध हुआ है और उसके पुत्र नरसिंहके नामका उल्लेख एक शिलालेखमें चेदि सं. ९०७ (११५६ ई. सं.)
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(२२८
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ का मिला है। अतः गयकर्णका राज्य शासन ई. सन् ११५६ से पूर्व ही समाप्त हो चुका था। इसे हम तीन वर्ष पूर्व स्वीकार कर लें तो गयकर्णको मृत्यु ई. सन् ११५३ के आसपास हो चुकी थी। जबकि बहोरीबन्दके मूर्तिलेखमें विक्रम संवत् १०१० माननेपर तो ई. सन् ९५३ में इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी। उस समय तो गयकर्ण उत्पन्न भी नहीं हुआ था। अतः मूर्तिलेखों, ताम्रलेखों और समकालीन राजाओंके कालका सामंजस्य करते हुए इस मूर्तिलेखका काल शक संवत् १०७० उपयुक्त लगता है। क्षेत्र-दर्शन
गांवमें पुलिस स्टेशनसे आगे बाजारमें एक अहातेके अन्दर मन्दिर और धर्मशाला हैं । मन्दिरका निर्माण चालू है। एक महामण्डप बना है जो ४०४३० फुट है और इसकी ऊंचाई २०
है। इसके मध्य में भगवान शान्तिनाथकी मति विराजमान है। उसके आसनकी करसी बनायी जा रही है । मूर्ति अस्थायी रूपसे खड़ी कर दी गयी है । मूर्तिका वर्ण सलेटी है। इसकी अवगाहना १३ फुट ९ इंच है तथा आसनसहित यह १५ फुट ६ इंच ऊँची है । न जाने कितने वर्षों या शताब्दियोंसे यह प्रतिमा खुलेमें मिट्टीमें पड़ी हुई थी। अतः इसकी पालिश उतर गयी है। इससे मुख ही नहीं, शरीरका लावण्य और स्निग्धता जाती रही है। यदि इसके ऊपर पुनः पालिश हो जाये तो इसका सौन्दर्य सहस्र गुना बढ़ जाये। ____इस मूर्तिके परिकरमें छत्र और गजवाला भाग टूट गया है। वह अलग रखा हुआ है। शीर्षके दोनों पाश्वोंमें देवियाँ पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए गगनमें विहार कर रही हैं। चरणोंके पास सौधर्म और ऐशान इन्द्र हाथमें चमर लिये हुए भगवान्की सेवामें खड़े हैं। चरणोंके निकट दोनों ओर कर-बद्ध मुद्रामें भक्त बैठे हैं। चरण-चौकीपर शान्तिनाथका लांछन हरिण अंकित है।
भूमिके उत्खननके फलस्वरूप कुछ मूर्तियां निकली थीं। उनमें से कुछ मन्दिरमें और कुछ बाहर रखी हुई हैं। इन मूर्तियोंकी कुल संख्या १६ है । ये सभी सलेटी वर्णकी हैं। सभी मूर्तियां तीर्थंकरोंकी हैं। केवल एक मूर्ति अम्बिकाकी है। एक तीर्थंकर-मूर्ति निकटवर्ती कमरेमें रखी हुई है । इसकी अवगाहना ५ फुट ६ इंच है।
- धर्मशालाके एक कमरेमें नवीन मूर्तियां विराजमान हैं, जिससे यात्रियोंको दर्शन-पूजनकी सुविधा रहे। मूर्तियोंमें मूलनायक हैं भगवान् ऋषभदेव । इनकी प्रतिमा श्वेत वर्ण की है और पद्मासन है। यहाँके समवसरणमें २ पाषाणकी और ११ धातुकी प्रतिमाएं विराजमान हैं।
गांवमें एक मकानके निकट एक तीर्थंकर-मूर्ति पड़ी हुई है। मन्दिरसे लगभग २-३ फलांग दूर तालाबके किनारे एक वृक्षके नीचे ७ फुट लम्बे एक शिलाफलकमें नाग-शय्यापर लेटी हुई एक स्त्रीको मूर्ति उत्कीर्ण है । उसके सिरके ऊपर फण-मण्डप तना हुआ है। देवी उसकी सेवामें रत हैं। प्रतीत होता है, यह मति पद्मावती देवीकी है। इस तालाबके चारों और पक्के घाट बने हए थे जो आजकल भग्न दशामें अपने प्राचीन वैभवका स्मरण करके आंसू बहा रहे हैं। तालाबके निकट जीर्ण-शीर्ण दशामें कई मन्दिर एवं कमरे खड़े हुए हैं। प्राचीन कालमें सम्भवतः ये जेन मन्दिर थे। इनके निकट प्राचीन कुआं भी बना हुआ है। . . .
क्षेत्रपर जो मूर्तियां भूगर्भसे निकली हैं वे १२वीं-१३वीं शताब्दी कलचुरि-कालीन प्रतीत होती हैं। इन मूर्तियोंसे यह भी अनुमान होता है कि यहाँ तथा इसके आसपासमें एकाधिक जैन मन्दिर रहे होंगे। . .
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'मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
-२२९ अतिशय क्षेत्र
यहां और इसके आसपासमें जो जैन पुरातत्त्व बिखरा हुआ है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थान एक तीर्थक्षेत्रके रूपमें मान्य रहा है। यह तीर्थक्षेत्र रहा है, इसकी एक और भी करुण कहानी है। यहां कभी जंगल था, जहाँ आज जैन क्षेत्र है। यहां एक विशाल पाषाण-मूर्ति पड़ी हई थी। ग्रामकी अशिक्षित जनता जादू-टोने में अधिक विश्वास करती थी। कभी किसीको इकतरा, तिजोरी या चौथिया (एक प्रकारके बुखार जो सर्दी देकर प्रतिदिन या कुछ दिनके अन्तरालसे आते हैं ) आता तो इस मूर्तिके पास बिना किसीके टोके, मुंह अंधेरे जाता और मूर्तिको दो-एक बार जूते मारता, झाडू मारता, बस फिर बुखार लौटकर नहीं आता ऐसा था जनताका विश्वास । देहातोंमें आज भी ऐसे विश्वास मौजूद हैं । उक्त बुखारका कोई रोगी अलख सुबह जाकर किसी पीपल या करील या अकोअरके पेड़से लिपटकर मिलता है तो कोई चूल्हे और चक्कीसे । टोटकेके लिए जाते हुए रोगीको राहमें किसीने टोक दिया तो बुखार उस रोगीको छोड़कर टोकनेवालेको धर दबोचेगा। ऐसे हैं देहातके लोगोंके विश्वास ।
इस मूर्तिको लोग खनुआदेव कहते आये हैं। खनुआदेव नाम क्यों पड़ा इनका भी इतिहास है। श्री कनिंघमने इस सम्बन्धमें बताया है कि "लोग इस मूर्तिको 'कनुआदेव' कहते हैं। राजा गयकर्ण देवके एक पुत्रका नाम 'कुनुआदेव' था। यहां बड़े सरोवरके किनारे बने हुए एक समाधिस्तम्भपर यह लेख उत्कीर्ण है-'महाराज पुत्र श्री कनआदेव' । सम्भवतः बहोरीबन्द उसकी जागीर थी। वह यहीं मरा और उसका स्मारक बनाया गया। जब मन्दिर नष्ट हो गया, लोग इस मूर्तिको भी भूल गये, उस समय वहाँके निवासियोंकी यह धारणा बन गयी कि यह मूर्ति वहाँके स्वर्गीय राजपुत्रकी मूर्ति है।"
जब जैन समाजको ज्ञात हुआ कि उनके सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथके साथ ग्रामीण जनता इस प्रकारका अपमानजनक व्यवहार करती है तो उसने प्रयत्न करके भारत सरकार और पुरातत्त्व विभागसे यह मूर्ति अपने अधिकारमें ले ली । मूर्तिको आतपवर्षा आदिसे सुरक्षित रखनेके लिए अब वहां मन्दिर बनाया जा रहा है। जेनेतर लोग अब भी इसे 'खनुआदेव' मानते हैं और ग्रामके रक्षक-देवके रूपमें इनकी पूजा करते हैं। किन्तु अब पूजाका वह प्राचीन रूप बदल गया है। अब तो स्त्री-पुरुष आकर भगवान्के सामने मनौती मानते हैं और उनकी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार शान्तिनाथ प्रभुके चमत्कारोंकी कहानी इधरके लोगोंके मुखसे प्रायः सुननेको मिलती हैं । अब धीरे-धीरे यह स्थान सही अर्थों में अतिशय-क्षेत्र बन गया है।
धर्मशालाएं
क्षेत्रपर अभी एक धर्मशाला बनी है, जिसमें छह कमरे हैं। क्षेत्रपर बिजलीकी सुविधा है। जलके लिए कुएंकी व्यवस्था है । क्षेत्रका अभी नवनिर्माण हो रहा है। अतः अधिक सुविधा सम्पन्न बननेमें क्षेत्रको समय लग सकता है।
व्यवस्था
मेलेके अवसरपर यहां एक प्रबन्धकारिणी समितिका निर्वाचन होता है। क्षेत्रकी सम्पूर्ण व्यवस्था उसी समितिके अन्तर्गत है।
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२३०
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वार्षिक मेला
यहां प्रतिवर्ष दिसम्बरमें तीन दिनके लिए वार्षिक मेला भी भरता है। इसमें जैन और जेनेतर समाज पर्याप्त संख्यामें आकर सम्मिलित होती है। इस तीर्थ क्षेत्रको प्रकाशमें लानेका सम्पूर्ण श्रेय ब्र. कल्याणदास सिहोरावालोंको है। मन्दिर निर्माणका कार्य भगवान् महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्षमें प्रारम्भ होकर पूर्ण होने जा रहा है। क्षेत्रको व्यवस्थाके लिए श्री जयकुमार एडवोकेट, श्री धरमचन्द, प्रो. सुरेन्द्र रीठीवाला, सिहोराका कार्य सराहनीय है।
मन्दिरके चारों तरफकी जमीन खरीद ली गयी है । अब प्राचीन मूर्ति संग्रहालय, स्वाध्यायभवन, ब्रह्मचर्याश्रम तथा विशाल धर्मशालाका निर्माण शीघ्र ही प्रारम्भ करनेकी योजना है। आवागमनके साधन
जबलपुर-कटनीके बीच सिहोरा रोड स्टेशनसे प्रतिदिन ६ बसें जाने-आनेको मिलती हैं। बीना-कटनी लाइनपर सलैया स्टेशन उतरकर बस द्वारा यात्राके साधन उपलब्ध हैं। प्रतिवर्ष हजारों यात्री क्षेत्रपर जाते हैं। सम्पूर्ण ग्रामको जनसंख्या ३५०० है। ग्राममें थाना, विकासखण्ड, जनपद, राइसमिल, अस्पताल, हाईस्कूल आदि सभी आवश्यक कार्यालय हैं। सिहोरा, बाकल, रीठी.तिवरीको जैन समाज द्वारा यहाँकी व्यवस्था तथा निर्माण कार्योंकी देखरेख की जाती है। किसी प्रकारका कोई झगड़ा तीर्थ क्षेत्रके विषयमें नहीं है। मन्दिरके द्वार जैन-अजैन सभोके लिए खुले हैं । भविष्यमें इस क्षेत्रकी उन्नति एवं प्रगति सम्भावनीय है।
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दशार्ण-विदर्भ जनपद
उदयगिरि उदयपुर
पठारी ग्यारसपुर
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विदर्भ-दशार्ण जनपद
इन्दौर को
संकेत राज्य की सीमा रा
जिला की सीमा
जिला मुख्यालय
नगर
जैन तीर्थ
प्राचीन स्थल बड़ी रेलवे लाईन
• छोटी रेलवे लाईन
नदियाँ
राजकीय पथ -अन्य पक्के पथ
कच्चे पथ
सनावद
दे
देशगाँव
खरगोन,
खण्डवा
धुलकोट
ज
ता
बुरहानपुर
उज्जैन राजालपुर
शाजापु
बियावर
आष्टा
स
इच्छावर
आसापुर
पिपलोद
न
असीरगढ़ नेपानगर के आर्मलाखुर्द
प्ती
बुलढाणा
$
शामपुर
भोपाल
सिवनी
सिया
जलगाँव
१. भारतके महासर्वेक्षककी अनुज्ञानुसार सर्वेक्षण विभागीय मानचित्रपर आधारित ।
२. मानचित्र में दिये गये नामोंका अक्षरविन्यास विभिन्न सूत्रोंसे लिया गया है ।
उदयगि
बदोनी
विदिशा
रायसेन वेहगाँव
गौहरगंज
चिचौली
कल्हाड़
ग्यारसपुर
होशंगाबाद इटारसी
खेड़ी
मंडी बामौरा वडोह पठारी
10 भैंसडीही
अटनेर
शाहपुर
अ म रा व ती
गैरतगंज
सोहागपुर
०
सा ग र
मुलताई
सिलवानी
ही
जक्लखोड़ा.
नरसिंहपुर को
नरसिंह पुर
= छिन्दवाड़ा को
पंडरना
© भारत सरकारका प्रतिलिप्यधिकार, १९७६
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उदयगिरि गुहामन्दिर
उदयगिरि पहाड़ी भेलसा ( विदिशा ) से ६ कि. मी. और सांचीसे ८ कि. मी. है। यह पहाड़ी उत्तर-पश्चिमसे दक्षिण-पूर्वकी ओर डेढ़ मील लम्बी और उत्तर-पूर्वके सिरेपर ३५० फुट ऊंची है। यहाँको चट्टानें नम, बलुआ पाषाणकी और परतदार हैं। यहांका पत्थर मकान बनानेके काम आता रहा है। पहाड़ीके उत्तर-पूर्वी भागमें पहाड़ काटकर गुफाएँ निर्मित की गयी हैं, जिनकी संख्या २० है। इनमें अधिकांश छोटे आकारकी हैं। प्रत्येक गुफाके बाहर छज्जा बना हुआ है। इनमें से दो गुफाओंमें चन्द्रगुप्त द्वितीयके अभिलेख विद्यमान हैं तथा तीसरी गुफामें गुप्त संवत् १०६ का एक अभिलेख है। अतः यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि मुख्य गुफाएँ गुप्त-कालकी हैं। इन गुफाओंमें नम्बर १ और २० की गुफाएँ जैनोंसे सम्बन्धित हैं।
__नम्बर २० की गुफा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह गुफा पहाड़ीके उत्तर-पश्चिमी सिरेपर अवस्थित है। सीढ़ियोंसे ऊपर चढ़कर गुफाके द्वारपर पहुंचते हैं। यह द्वार पश्चात्कालीन लगता है। फिर ८-१० सीढ़ियां उतरकर गुफामें पहुंचते हैं।
इस कक्षमें ४ फट २ इंच ऊंचे एक शिलाफलकपर भगवान पार्श्वनाथकी भरे वर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह १०वीं शतीकी है जो अन्यत्रसे लाकर यहां विराजमान कर दी गयी है। इसकी नाक और कान खण्डित हैं। मस्तकके ऊपर सप्त फणावली है। उसके ऊपर छत्रत्रयी है। इसके ऊपर दुन्दुभिका और उसके भी शीर्षपर पद्मासन तीर्थंकर-प्रतिमाका अंकन है। इसके दोनों पार्यों में विभिन्न प्रकारके वाद्य-यन्त्र लिये हुए गन्धर्व-समाज है। इनसे अधोभागमें दोनों ओर दो-दो पद्मासन जिन-प्रतिमाएँ हैं। यहां शार्दूलका भी अंकन मिलता है। उनसे भी नीचे गज और माला लिये हुए देव हैं। उनसे नीचे चमरेन्द्र भगवान्को सेवामें सेवकके समान खडे हए हैं। चमरेन्द्रोंसे भी नीचेके भागमें यक्ष-यक्षी अंकित हैं। भगवानके वक्षपर श्रीवत्सका सुन्दर अंकन है। __इस कक्षसे आगे बढ़कर दूसरे कक्षमें आते हैं। यह कक्ष सामनेसे खुला हुआ है । अतः इसमें प्रकाश और स्वच्छ वायुका पर्याप्त संचार रहता है। इस कक्षमें घुसते ही दायीं ओरकी दीवारमें दो पद्मासनासीन पार्श्वनाथ भगवान् अंकित दिखाई देते हैं। किन्तु दीवारमें इनका अंकन अस्पष्टसा है। दोनोंके दोनों पावों में चमरेन्द्र खड़े हुए हैं। दोनों प्रतिमाओंके मध्यवर्ती पाषाण-स्तम्भपर विद्याधर अपने बायें हाथमें पूजाकी सामग्री लिये हुए दीख पड़ते हैं। दायें हाथमें वे क्या लिये हुए हैं, यह ज्ञात नहीं होता; बहुत अस्पष्ट है।
दूसरे भीतरी कक्षमें बायीं ओर घूमकर सामनेकी दीवारके बायें कोनेमें भगवान् आदिनाथकी ३ फुट ६ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। भगवान्के मस्तकके पृष्ठभागमें भामण्डल बना हुआ है। ऊपरका भाग खण्डित है। वक्षपर श्रीवत्सका अंकन है। दोनों पावों में खण्डित चमरवाहक खड़े हुए हैं। उनसे नीचे हाथी कलश लिये हुए दिखाई पड़ते हैं। सिंहासनके सिंहोंके पाश्वमें यक्ष-यक्षी बने हुए हैं। यक्षी चतुर्भुजी है। वह ललितासनसे बैठी है। दायें ( ऊपरके ) हाथमें शक्ति, नीचेका हाथ वरद मुद्रामें, बायां हाथ (ऊपरका ) खण्डित, नीचेके हाथमें बिजौरा
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भारतके दिगम्बरवन तीर्थ फल है। इसी प्रकार यक्ष भी चतुर्भुज है। उसके दायें ऊपरी हाथमें शक्ति, नीचेके हाथमें फल है। इस मूर्तिके बगलमें दायीं ओर एक आलेमें ३ इंच लम्बे चरण रखे हुए हैं। इसके बराबर चबतरा है। दूसरी ओर २ फट ६ इंच चौडा पाषाण चत्वर है जो सम्भवतः मनियोंके विश्रामके प्रयोजनके लिए बनाया गया होगा। ऐसी ही चत्वर-पट्टिका कक्ष १ में भी है। ____ उत्तरी कमरेकी एक भित्तिपर गुप्त-संवत् १०६ का अभिलेख अंकित है। यह मध्यप्रदेशमें अब तक उपलब्ध जैन अभिलेखोंमें सबसे प्राचीन है। यह अभिलेख ८ पंक्तियोंमें है और इस प्रकार पढ़ा गया है
१. "नमः सिद्धेभ्यः श्री संयुतानां गुणतोयधीनां गुप्तान्वयानां नृपसत्तमानाम् (1) २. राज्ये कुलस्याभिविवर्धमाने षड्भिर्युते वर्षशतेऽथ मासे (।) १. सुकार्तिके बहुल दिनेऽथ
पंचमे। ३. गुहामुखे स्फुटविकटोत्कटाभिमां (।) जितद्विषो जिनवर पार्श्वसंज्ञिकां जिनाकृतीं
शमदमवान ४. चीकरत् (॥ ) २. आचार्य भद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो ह्यसावार्यकुलोद्गतस्य (।)
आचार्य गोश ५. म्मं मुनेः सुतस्तु पद्मावत (स्या ) श्वपतेभंटस्य ( ॥ ) ३. परैरजेयस्य रिपुघ्नमानिनः ___ ससंघ६. लस्येत्यभिविश्रुतो भुवि (1) स्वसंज्ञया शंकरनामशब्दितो विधानयुक्त यतिमा ७. गंमास्थितः (॥ ) ४. स उत्तराणां सदृशे कुरूणां उदग्दिशादेशवरे प्रसूतः (1) ८. क्षयाय कर्मारिगणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तदपाससर्ज (॥) ५.
इसका आशय यह है-सिद्धोंको नमस्कार हो। वैभवसम्पन्न, गुणोंके समुद्र, गुप्त-वंशके राजाओंके राज्यमें संवत् १०६ के कार्तिक मासकी कृष्णपंचमीके दिन गुफाके द्वारपर विस्तृत सर्पफणसे युक्त शत्रुओंको जीतनेवाले जिनश्रेष्ठ पाश्वनाथकी मूर्ति शमदमयुक्त शंकरने बनवायी जो आचार्य भद्रके अन्वयका भूषण और आर्यकुलोत्पन्न आचार्य गोशमं मनिका शिष्य था। दूसरों द्वारा अजेय, शत्रुओंका विनाश करनेवाले अश्वपति संघिल भट और पद्मावतीका पुत्र था। शंकर इस नामसे विख्यात था और यतिमार्गमें स्थित था। वह उत्तरकुरुओंके सदृश उत्तर दिशाके श्रेष्ठ देशमें उत्पन्न हुआ था। उसके इस पावन कार्यमें जो पुण्य हुआ हो, वह सब कर्मरूपी समूहके क्षयके लिए हो। . . इस शिलालेखसे ज्ञात होता है कि गुप्त-नरेश कुमारगुप्तके शासनकालमें शंकर नामक किसी धर्मात्मा व्यक्तिने इस गुफामें भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी।
___ इस गुफासे निकलकर आगे जानेपर रेस्ट हाउस मिलता है। पहाड़ीपर मार्ग बना हुआ है जो प्राचीन जैन मन्दिर तक जाता है। यह मन्दिर गुफा नं. २० से लगभग ३ फाग दूर पड़ता है। इस मन्दिरमें गर्भगृह और अर्धमण्डप हैं । गर्भगृहका आकार ६ फुट १० इंच ४५ फुट १० इंच है। इसकी छत एक हो शिलासे निर्मित है। इसके कोर ऐरन तिगोवा और सांचीके समान गढ़े हुए हैं। इसकी पृष्ठभित्तिके सहारे वेदी है। पूर्वकालमें मध्यमें प्रतिमा रही होगी, किन्तु आजकल उसका स्थान रिक्त पड़ा हुआ है। बायीं ओर ४ फूट ६ इंच ऊंचे एक शिलाफलकपर भगवान् सुपार्श्वनाथकी खड्गासन मूर्ति है। इसके मस्तकपर पंच फणावलि है, जिसमें २ फण खण्डित हैं। इसके ऊपर छत्र हैं। इसके दोनों पाश्वों में आकाशमें उड़ते हुए गन्धर्व पुष्पमालाएं लिये हुए हैं।
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मध्यप्रदेशके विणकर तीर्य
२३३ ये खण्डित हैं। इनसे अधोभागमें दो पद्मासन और दो खड्गासन जिन-मूर्तियां दोनों ओर हैं। उनसे नीचे द्विभुजी देवी ललितासनमें विराजमान है। देवीका बायाँ हाथ वरद मुद्रामें है। दायें हाथमें सम्भवतः घण्टा है। यह देवी सुपार्श्वनाथको शासन सेविका काली ( मानवी ) प्रतीत होती है। देवीके दोनों ओर देवीके भक्त स्त्री-पुरुष हाथ जोड़कर सिर झुकाकर खड़े हुए हैं।
इसका अर्धमण्डप चार स्तम्भोंपर आधारित है। ये स्तम्भ ऐरन और तिगोवाको तुलनामें अधिक स्पष्ट हैं । इस मन्दिरके बगलमें एक खुली गुफा है।।
___ यहाँसे लौटते हुए वैष्णव और शैव गुफाएँ मिलती हैं। इनमें वराहावतार गुफा, विष्णु गुफा, अष्ट शक्ति गुफा, तवा गुफा, कोटरी गुफा, अमृत गुफा बादि गुफाएं सम्मिलित हैं। वराह गुफामें वराहके निकट दो पंक्तियोंका शिलालेख है, जिसमें परम भट्टारक महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त (द्वितीय ) के शासनकालमें संवत्सर ८२ के आषाढ़ मासकी शुक्ला ११ को महाराज छागलिकके पौत्र, महाराज विष्णुदासके पुत्र सनकादिक महाराजके दानका वर्णन है। इसी प्रकार तवा गुफामें ५ पंक्तियोंका एक शिलालेख है, जिसके अनुसार इस गुफाका निर्माण चन्द्रगुप्तके अमात्यने कराया था। इसमें यह भी उल्लेख है कि वह अपने महाराजके साथ यहां आया था।
इन शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि इन गुफाओंका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय ( विक्रमादित्य) के राज्य-कालमें हुआ था। विविशा संग्रहालय में जैन पुरातत्त्व - विदिशा, उदयगिरि तथा उसके आसपास पड़े हुए तथा उत्खननमें प्राप्त पुरातत्त्वको संग्रह करके यहां संग्रहालयमें सुरक्षित रख दिया गया है। यद्यपि परिमाणमें यह सामग्री विशाल भले ही नहीं है, किन्तु यहाँ सुरक्षित सामग्री ऐतिहासिक दृष्टिसे अवश्य महत्त्वपूर्ण है। यहां संग्रहोत सामग्रीमें जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव सभी भारतीय धर्मोकी सामग्री है। यहाँके संग्रहमें सबसे प्राचीन सामग्री गुप्त-कालसे सम्बन्धित है । वह सामग्री एक जैन प्रतिमा है। उदयगिरिके निकट दुर्जनपुरा ग्राममें बेस नदीके तटपर सन् १९६९ में वहाँके एक कृषकको हल चलाते समय जो तीर्थकर मूर्तियाँ उपलब्ध हुईं थीं वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु, नौवें तीर्थंकर पुष्पदन्त तथा चन्द्रप्रभ तीर्थंकरको थीं। इनमें से प्रारम्भकी दो मूर्तियां भोपाल संग्रहालयमें सुरक्षित हैं तथा अन्तिम चन्द्रप्रभकी मूर्ति इस संग्रहालयमें विद्यमान है। इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा महाराजाधिराज रामगुप्तने करायी थी। किन्तु रामगुप्तका व्यक्तित्व विवादास्पद है। इस विषयपर अनेक सुप्रसिद्ध इतिहासकारोंने विचार किया है, किन्तु वे एकमत नहीं हो सके।
रामगुप्त गुप्त-वंशके सुप्रसिद्ध सम्राट् समुद्रगुप्तका बड़ा पुत्र और चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) का बड़ा भाई था। भारतीय साहित्यमें रामगुप्तके सम्बन्धमें एक अद्भुत और रोचक घटनाका विवरण मिलता है। हर्षचरित' में लिखा है-"अरिपुरमें शक नरेश नारीवेशधारी चन्द्रगुप्त द्वारा उस समय मारा गया, जब वह परस्त्रीका आलिंगन कर रहा था।" हर्षचरितके टीकाकार शंकराचार्य ने इसकी व्याख्या करते हुए घटनाको कुछ विस्तारके साथ दिया है कि "शक
१. अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनिवेशगुप्तः चन्द्रगुप्तः शकमतिमशातयत्।
-हर्षचरित, निर्णयसागर प्रेस संस्करण, पृ. २००। २. शकानामाचार्यः शकमतिः चन्द्रगुप्त भ्रातृजायां ध्रुवदेवों प्रार्थयमानः चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेबीवेषधारिणा स्त्रीवेशजनपरिवृतेन रहसि व्यापादितः।
३-३०
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
नरेश रामगुप्तकी पत्नी ध्रुवदेवीको चाहता था । इसलिए वह अन्तःपुरमें चन्द्रगुप्तके हाथों मारा गया, जिसने अपने भाईकी पत्नी ध्रुवदेवीका रूप धारण कर रखा था । उसके साथ कुछ अन्य लोग नारी-वेषमें थे ।” राष्ट्रकूट- नरेश अमोघवर्षके शक संवत् ७९५ ( ई. सन् ८७३ ) के एक ताम्रलेख में भी इस घटनाका उल्लेख किया गया है । कवि विशाखदत्तके देवी- चन्द्रगुप्त नाटक में भी यही कथावस्तु दी गयी है ।
रामगुप्त एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । किन्तु रामगुप्तके - जीवनकाल में एक ऐसी घटना हो गयी, जिससे उसके व्यक्तित्वको क्लीब, निर्बल और स्वार्थपरक व्यक्तित्वके रूपमें समझनेको हमें बाध्य किया और इसकी कालिख की लपटमें चन्द्रगुप्त द्वितीय भी आ गया । शक नरेशने रामगुप्तसे उसकी सुन्दर पत्नी ध्रुवदेवी माँगी। रामगुप्त ऐसी विकट स्थिति में फँस गया कि वह ध्रुवदेवीको देकर जनता के जीवन और धनकी रक्षा करे अथवा ध्रुवदेवीकी सुरक्षा करके जनताको निर्दय शकोंके हाथों सौंप दे। उसने देश और जनताके हितके लिए अपनी पत्नी देना ही उचित समझा ।
किन्तु उसके अनुज चन्द्रगुप्तका दृष्टिकोण उससे भिन्न था। वह न ध्रुवदेवीको देना चाहता था, न जनताको हिंस्र भेड़ियोंके हाथ सौंपनेको तैयार था। बल्कि वह 'शठके प्रति शाठ्य' वाली fast मानता था । वह अपने कुछ चुने हुए वीरोंके साथ स्त्रीवेशमें तैयार हुआ। शकराज बड़ी ललकके साथ ध्रुवदेवीको आलिंगनमें लेनेके लिए आगे बढ़ा किन्तु स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त ने उसका काम तमाम कर दिया । ध्रुवदेवी चन्द्रगुप्तके अप्रतिम शौर्यपर रीझ गयी और उसने उसकी बांहों में अपने शीलको सुरक्षित समझा । चन्द्रगुप्त ध्रुवदेवीके सौन्दयंपर मोहित हो गया । उसने ध्रुवदेवीके सौन्दर्य और शीलमें भारतीय आत्माके दर्शन किये। उसने तत्काल निर्णय किया और कण्टकस्वरूप क्लब रामगुप्तको मारकर राज्यपर अधिकार कर लिया ।
भारतके सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहासमें चन्द्रगुप्त द्वितीय का विशिष्ट स्थान है । किन्तु अपने बड़े भाईकी स्त्रीके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर उसके साथ विवाह करना और भाईको मारकर राज्य हथियाना यह भारतकी नैतिक परम्परा और प्राचीन आदर्शोंके विपरीत है। अतः इस घटनासे चन्द्रगुप्तकी प्रतिष्ठापर एक काला धब्बा दिखाई पड़ता है । सम्भवतः इस कारण से कुछ इतिहासकार इतिहासके इस कटु सत्यको सहज रूपसे निगल नहीं पाये । इसलिए उन्होंने इस घटनाको नकारना ही उचित समझा। इतना ही नहीं, रामगुप्त के अभिलेखों और सिक्कोंकी उपलब्धि के बावजूद महाराजाधिराज-पदधारी रामगुप्तको मालवका एक काल्पनिक माण्डलिक राजा मान लिया, जिसका इतिहासमें कोई अस्तित्व नहीं है । यह कितने आश्चयंकी बात है कि समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, कुमारगुप्त और स्कन्ध गुप्तके ऐरन, उदयगिरि, प्रयाग, गढ़वा, साँची, सकौर (हटासागर), विलसद (एटा), मानकुँअर ( इलाहाबाद ), मण्डसर ( मालवा ) में मिले शिलालेखों और
१. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरद्देवींश्च दीनस्तथा,
लक्ष्यं कोटिमलेखयत् किल कलो दाता स गुप्तान्वयः । येनात्याजिततु स्वराज्यमसकृत् बाह्यर्थकैः का कथा, हस्तस्योन्नति - राष्ट्रकूटतिलको ददाति कीर्त्यामपि ॥ .
- राष्ट्रकूट ताम्रलेख, ऐपिग्राफिका इण्डिका, भाग ४. पू. २५७ ॥ २. The Classical Age, by R. C. Majumdar, p. 18, Bharatiya Vidya Bhawan Bombay.
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मध्यप्रवेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२३५ सिक्कोंको गुप्तवंशके तत्तत् नरेशोंका माना जाता है, किन्तु रामगुप्तके विदिशा, ऐरन, उज्जयिनी आदिमें मिले शिलालेख और सिक्कोंको गुप्तवंशी रामगुप्तके होनेमें सन्देह प्रकट किया जाता है। यद्यपि ये सिक्के गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि, बनावट, शैली, भारमान और सिक्कोंपर गरुड़ चिह्न सभीमें गुप्तवंशी नरेशोंके सिक्कोंके समान हैं । अस्तु !
विदिशा संग्रहालयमें दुर्जनपुरासे प्राप्त चन्द्रप्रभ प्रतिमा २ फुट १ इंच ऊंची है और पद्मासन मुद्रामें आसीन है। इसकी चरण-चौकीपर उत्कीर्ण लेख इस प्रकार है
_ 'भगवतोऽहंतः चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिकचन्द्रक्षमाचार्यक्षमाश्रमणप्रशिष्य आचार्य सर्पसेन क्षमण शिष्यस्य गोलक्यान्त्या सत्पुत्रस्य चेलूक्षमणस्य ।'
अर्थात्, भगवान् चन्द्रप्रभ तीर्थंकरको यह प्रतिमा महाराजाधिराज श्री रामगुप्तने मुनि श्री चन्द्रक्षमाचार्य क्षमाश्रमणके प्रशिष्य एवं सर्पसेन क्षमणके शिष्य गोलक्यान्तिके पुत्र चेलू क्षमणके उपदेशसे प्रतिष्ठित करायो।
___ इस मूर्ति-लेखसे ज्ञात होता है कि इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा महाराजाधिराज रामगुप्तने करायी थी। विदिशा संग्रहालयमें सुरक्षित पुष्पदन्त प्रतिमाकी पीठिकापर भी लगभग यही लेख अंकित है। तीसरी प्रतिमाके लेखमें केवल दो पंक्तियां अवशिष्ट हैं।
___चन्द्रप्रभ भगवान्की उक्त प्रतिमाके अतिरिक्त इस संग्रहालयमें स्थित अन्य कुछ जैन प्रतिमाओंका परिचय इस प्रकार है
(१) धरणेन्द्र-पद्मावती, (२) नेमिनाथ ४ फुट २ इंच ऊँचे शिलाफलकमें। मुख्य मूर्तिके परिकरके रूपमें २ पद्मासन, २ खड्गासन जिन-मूर्तियाँ-समय १०वीं शताब्दी। (३) नेमिनाथ ४ फुट ५ इंच शिलाफलकमें। मुख्य मूर्तिके परिकरमें २ पद्मासन, २ खड्गासन, नीचे अम्बिका, समय १०वीं शताब्दी, (४) तीर्थंकर प्रतिमा ३ फुट १ इंच ऊँची। बायीं ओरका भाग खण्डित । परिकर में छत्र, गन्धर्व, चमरवाहक ( खण्डित ) दोनों ओर खड्गासन जिन-प्रतिमा । (५) आदिनाथसलेटी वर्ण, पद्मासन, २ फुट ३ इंच ऊंची, चमरवाहक खण्डित है। काल १३वीं शताब्दी। अमरावद ( रायसेन ) से प्राप्त। (६) जैन प्रतिमाका शीर्ष, १२वीं शताब्दी। तीन अलंकृत शिखर तथा ३ पद्मासन मूर्तियाँ । (७) गैलरीमें नेमिनाथकी २ फुट ३ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा । प्रतिमाकी केश-लटें लटक रही हैं। प्रतिमाके शिलाफलकपर दोनों पावों में २-२ खड्गासन मूर्तियाँ हैं। इनमें एक मूर्ति खण्डित है। (८) पार्श्वनाथकी ५ फुट ११ इंच ऊंची खड्गासन प्रतिमा । प्रतिमाका सिर नहीं है । फण थोड़ा खण्डित है । परिकरमें गज, गन्धर्व, छत्र, यक्ष-यक्षी हैं । (९) शान्तिनाथको ४ फुट ६ इंच उन्नत खड्गासन मूर्ति । सिर नहीं है। परिकरमें भामण्डल, छत्र, चमरेन्द्र और १० खड्गासन मूर्तियां हैं। (१०) नाग-नागी परस्पर लिपटे हुए हैं। सम्भवतः यह युगल धरणेन्द्र-पद्मावतीका प्रतीक है। इसके दोनों पार्यो में कायोत्सर्गासन प्रतिमाएं हैं। (११) १ फुट ४ इंच ऊँचे शिलाफलकमें यक्ष और यक्षी। शीर्ष भागपर मध्यमें पद्मासनस्थ जिन-प्रतिमा तथा दोनों पाश्ॉमें खड्गासन प्रतिमा। (१२) आदिनाथकी ४ इंच ऊंची प्रतिमा खण्डित है। यह उदयगिरिसे प्राप्त हुई है। (१३ ) तीर्थंकर प्रतिमा ८ फुट ७ इंच ऊँची खड्गासन । प्रतिष्ठा-काल वि. संवत् १२१४ । प्रतिमाको बाँह और चमरवाहक खण्डित हैं। (१४) ६ इंच ऊँची खड्गासन जिन-प्रतिमा। (१५) खड्गासन जिन-प्रतिमा। (१६) ६ फुट ६ इंच ऊँची पाश्वनाथकी खड्गासन प्रतिमा मध्यमें तथा उसके चारों ओर २३ तीर्थंकर मूर्तियां। इस चतुर्विंशति पट्टमें छत्र, गज, चमरवाहक परिकरमें हैं। (१७) ३ फुट ऊंची तीर्थंकर-मूर्ति है। दोनों ओर चमरवाहक हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ (१८) एक शिलाफलकमें चतुर्विशति तीर्थकर प्रतिमाएँ। मध्यमें पाश्र्वनाथ-प्रतिमा। वक्षसे नीचेका भाग नहीं है। (१९) एक खण्डित मूर्ति । सिर नहीं है तथा पद्मासनसे नीचेका भाग नहीं है । (२०) २ फुट ९ इंच उन्नत एक पाषाणफलकपर पद्मासन मुद्रामें तीर्थंकर-प्रतिमा, सिरके दोनों पावों में पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए गन्धर्व, उनसे नीचे एक पद्मासन प्रतिमा, नीचे चमरेन्द्र । एक ओरका चमरेन्द्र नहीं है। (२१) एक विशाल तीर्थकर मति कायोत्सर्गासनमें। छातीसे नीचेका भाग नहीं है । (२२) एक फलक २ फुट ८ इंच ऊंचा। उसपर पद्मासनस्थ जिन-प्रतिमा । सिर नहीं है । परिकरमें १३ पद्मासन जिन-प्रतिमाएं। छत्र, चमरेन्द्र, यक्ष और यक्षी हैं। (२३ ) एक कक्षमें ३ फुट २ इंच ऊँचे शिलाफलकमें आदिनाथ तीर्थकरकी खड्गासन प्रतिमा। मस्तकके ऊपर छत्र
और पीछे भामण्डल है। शिरोभागपर मध्यमें दुन्दुभि, दोनों पार्यों में आकाशमें पुष्पमाला हाथमें लिये हुए गन्धर्व तथा अधोभागमें चमरवाहक इन्द्र हैं। ( २४ ) ऋषभदेव प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें सिरविहीन है। वर्तमान स्थितिमें २ फट ऊंची है। चमरेन्द्र गजपर खडे हैं। सिंहों ( सिंहासनके ) दोनों ओर मानस्तम्भ अंकित हैं। कोनोंपर बायीं ओर गोमुख यक्ष और दायीं ओर चक्रेश्वरी यक्षीका अंकन है।
कुछ प्राचीन प्रतिमाएं उदयगिरि आदि स्थानोंसे प्राप्त हुई थीं। वे श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्दजीके जिनालयमें सुरक्षित हैं। इनमें कई प्रतिमाएं गुप्त और कलचुरि कलाके मिश्रित प्रभावकी अनुपम कलाकृतियां हैं। इनका अनुमित काल ९वीं १०वीं शताब्दी माना जाता है। इन मध्यकालीन प्रतिमाओंके कारण यह जिनालय एक लघु संग्रहालय बन गया है। ये प्रतिमाएं बाह्य कक्षमें बनाये गये आलोंमें सुरक्षित हैं। कई अखण्डित प्रतिमाएं वेदियोंमें विराजमान हैं। इनके कलागत वैशिष्ट्यका समुचित मूल्यांकन होना अभी शेष है। उदयगिरिके आसपास जैन पुरातत्व
इसके निकटवर्ती अनेक स्थानोंपर प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों, स्तम्भों आदिके भग्नावशेष प्राप्त होते हैं । इन अवशेषोंमें जैन सामग्री भी विपुल परिमाणमें मिलती है। इन स्थानोंमें उदयपुर, पठारी, बड़ोह, ऐरन, तिगोवा ये स्थान मुख्य हैं। इन स्थानोंपर प्राचीन जिनालयोंके ढेर पड़े हुए हैं, और कुछ खण्डित-अखण्डित जैन प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं। कुछ जिनालय अर्धभग्न दशा में हैं तथा कुछ मूर्तियोंको मूर्तिचोरों अथवा बन्य. असामाजिक तत्त्वोंने बहुत क्षति पहुंचायी है। किन्तु जो सामग्री अब तक इन स्थानोंमें सुरक्षित बची हई हैं, वह ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त मूल्यवान् है। उसका काल गुप्त-काल ( चौथोसे छठी शताब्दी ) से १०वीं-११वीं शताब्दी तक है। ये स्थान यद्यपि तीर्थक्षेत्र नहीं हैं इस कारण इन स्थानों और वहाँको पुरातत्त्व-सामग्रीका व्यवस्थित सर्वेक्षण नहीं किया जा सका, तथापि इन स्थानोंको कलातीर्थ कहा जा सकता है। इस नाते ही उनके बारेमें कुछ पंक्तियां लिखी जा रही हैं
उदयपुर
यह स्थान विदिशासे उत्तरकी ओर ४५ कि. मी. दूर है। इस नगरको स्थापना परमारनरेश उदयादित्यने की थी। यह धारानरेश भोजका सम्भवतः भाई था। इस नगरको स्थापनाका भी बड़ा रोचक इतिहास है, जो किंवदन्तीके रूपमें प्रचलित है। कहते हैं-एक बार राजा उदयादित्य
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२३७ जंगलमें शिकार खेलने गया। उसके सैनिक पीछे रह गये। वह जंगलमें एक ऐसे स्थानपर पहुँचा जहाँ आग लग रही थी। उसकी दृष्टि एक सपंपर पड़ो जो मैदानमें अपने बिलसे बाहर पड़ा हुआ था। आगकी गर्मीके कारण वह प्याससे व्याकुल हो रहा था। राजाने दया करके एक बाँस द्वारा उस साँपको बचाया। सांपने व्याकुल होकर राजासे पानी मांगा। राजाने कहा-'यहाँ तो आसपासमें कहीं जल नहीं है। मैं राजमहलमें पहुंचकर वहाँसे जल भेज दूंगा।' किन्तु सर्प गिड़गिड़ाकर बोला-'इतनी देरमें तो मेरे प्राण ही निकल जायेंगे। आप अपने मुंहमें मेरा फन रख लीजिए। मुझे इतनेसे ही शान्ति मिल जायेगी।' राजाको भय हुआ कि ऐसा करनेसे साँप कहीं पेटमें चला
या तब क्या होगा। उसने अपना यह भय कह सनाया। किन्तु सांपने शपथ खाकर विश्वास दिलाया कि वह विश्वासघात नहीं करेगा। राजाने उसका विश्वास करके फन अपने मुखमें रख लिया, किन्तु अकस्मात् सांप राजाके पेटमें चला गया।
राजा अपने नगरमें लौट गया। उसे पेटमें भयंकर पीड़ा रहने लगी। सभी उपचार व्यर्थ हुए। तब उसने जोवनसे निराश होकर काशीमें जाकर प्राण-त्याग करनेका निश्चय किया। वह रानी और कुछ सेवकोंको लेकर वहांसे चल दिया और मुर्तिजानगर पहुंचा। रातका समय था। राजा सो रहा था। रानी चिन्ताके कारण जाग रही थी। रानीने देखा-सांप राजाके मुँहमें से निकला और फण फैलाकर बैठ गया। तभी एक दूसरा साँप एक बिलमें-से निकला। दोनों सांपोंने एक-दूसरेको क्रोधभरी दृष्टिसे देखा, फिर उनमें बातें होने लगी। बिलवाला सांप बोला'तू बड़ा मक्कार और झूठा है। तूने अनेक कसमें खायीं, फिर भी तू उसी व्यक्तिको मारनेपर तुला हुआ है, जिसने तेरे प्राण बचाये। अगर राजाको ज्ञात हो जाये कि काली मिर्च, नमक और मट्ठा पीनेसे तेरी मृत्यु हो सकती है तो वह पीकर तेरे विश्वासघातका बदला ले सकता है।' पेटवाला सांप फुफकारकर बोला-'तू खजानेपर क्यों बैठा रहता है। अगर किसीको ज्ञात हो जाये कि गर्म तेल तेरे बिलमें डालनेसे त मर सकता है तो सारा खजाना उसे मिल जाये।' इन दोनों सांपोंकी बात रानी सुन रही थी। प्रातःकाल होनेपर रानीने सांपोंमें हुई बातचीत राजाको कह सुनायी। राजाने छाछमें नमक और काली मिर्च मिलाकर पी ली। उससे सांप टुकड़े-टुकड़े होकर उलटी द्वारा निकल गया। बिलमें गरम-गरम तेल डाला गया। इससे सांप मर गया और विपुल धन वहांसे प्राप्त हुआ। उस धनसे राजाने उस स्थानपर एक विशाल मन्दिर बनवाया, जिसे 'उदयेश्वर मन्दिर' कहते हैं। वहां राजाने एक नगरको भी स्थापना की, जिसका नाम राजाके नामपर 'उदयपुर' रखा गया। कुछ समय तक यह नगर उदयादित्यको राजधानी भी रहा।
उदयपुर नगरकी स्थापनाके सम्बन्ध में प्रचलित इस किंवदन्तीसे मिलती-जुलती किंवदन्तियाँ कई नगरों और राजाओंके साथ जुड़ गयी हैं। जैसे, निमाड़ जिलेमें स्थित ऊनके सम्बन्धमें भी लगभग यही कहानी प्रचलित है। उत्तरप्रदेशके ललितपुर नगरको स्थापनाके सम्बन्धमें भी ऐसी ही एक अद्भुत और रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं, महोबाके चन्देल राजा सुमेरसिंहको जलोदर हो गया। बहुत उपचार किया, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। तब जीवनसे निराश होकर वह हिमालयकी ओर बर्फमें प्राण-विसर्जन करने चल दिया। साथमें उसकी रानी ललिता थी। उनका पड़ाव बयानामें था। रातमें राजा सो गया। रानी बैठी हुई पंखा झलती रही। थोड़ी देर बाद रानीने आश्चर्यके साथ देखा कि एक साँप राजाके मुख में-से रेंगता हुआ बाहर निकला और इससे भी अधिक आश्चर्य उसे एक दूसरे साँपको पेटवाले सांपके साथ बातें करते हुए देखकर हुआ। दोनों सांपोंकी बातचीत वही हुई जो ऊपर बतायी गयी है। साधारण-सा अन्तर यह है कि
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इसमें छाछके स्थानपर तालाबकी काईका प्रयोग बताया गया है। राजाने वैसा ही किया। वह नीरोग हो गया और धन प्राप्त होनेपर उसने विशाल तालाब बनवाया, जिसका नाम 'सुमेर सागर' रखा। इसके अतिरिक्त उसने अपनी रानीके नामपर एक नगर बसाया, जिसका नाम 'ललितापुर' अथवा 'ललितपुर' रखा। ____इस प्रकारकी एक कथा पंचतन्त्र आदि प्राचीन कथा-ग्रन्थोंमें भी आती है। इन किंवदन्तियों और उनपर आधारित कथाओंसे यह निर्णय नहीं हो पाता कि क्या इस प्रकारकी घटना सम्भव है? यदि सम्भव है तो यह घटना किस स्थानपर घटित हुई है ? किन्तु इनसे यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि उदयपुर, ऊन और ललितपुरकी स्थापना क्रमशः उदयादित्य, बल्लाल और सुमेरसिंहने की थी और इन्होंने इन स्थानोंपर मन्दिर. सरोवर और बावडी बनवायी थी।
उदयपुरमें परमार नरेशोंके कालमें अनेक हिन्दू और जैन मन्दिरोंका निर्माण हुआ । वर्तमानमें जैन मन्दिर भग्न दशामें अवस्थित हैं। उसमें कई विशाल तीर्थकर-मूर्तियां अवस्थित हैं। ये मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शताब्दीकी प्रतीत होती हैं।
पठारी
यह स्थान भेलसासे उत्तर-पूर्वकी ओर ८० कि. मी. है और गडोरी-ज्ञाननाथ पहाड़ियोंके मध्यमें बसा हुआ है । मुगल कालमें यह जिलेका सदर मुकाम था। नगर और पहाड़ीके बीच एक तालाब बना हुआ है जिसके चारों ओर विभिन्न धर्मों के प्राचीन धर्मस्थान, सतीचौरा, समाधि और स्तम्भ बने हुए हैं। तालाबके चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं। नगर पहाड़ीपर बसा हुआ है। नगरके चारों ओर चहारदीवारी है। इस नगरके बाहर गुप्त-कालके मन्दिरोंके भग्नावशेष, स्तम्भ, मूर्तियां आदि बिखरे पड़े हैं। नगरमें एक स्तम्भ बना हुआ है, जिसकी ऊंचाई ४७ फुट है। गांववाले इसे भीमकी छड़ी कहते हैं। यह भी कहा जाता है कि अपने १४ वर्षोंके वनवास-कालमें पाण्डव इस स्थानपर कुछ काल तक ठहरे थे। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मानस्तम्भ था जो किसी जैन मन्दिरके सामने बना हुआ था। मन्दिर नष्ट हो गया किन्तु मानस्तम्भ अभीतक बना हुआ है। शीर्षपर स्थित जैन मूर्तियां तुगलक या मुगल-कालमें हटा दी गयीं या नष्ट कर दी गयीं।
पहाड़ीके दक्षिण-पूर्वमें बढ़ोह ग्रामके पास गडरमल नामक एक विशाल मन्दिर खड़ा है। मन्दिरके चारों ओर चहारदीवारी है। चहारदीवारी द्वार बना हुआ है। यह चार स्तम्भोंपर आधारित मण्डपनुमा है। मुख्य मन्दिरके पास सात लघु मन्दिर हैं । ये सब एक हो घेरेमें हैं । घेरेका प्रवेशद्वार अत्यन्त अलंकृत और कलापूर्ण है। मन्दिरकी गठन सादो किन्तु प्रभावशाली है। मन्दिरके सिरदलपर चतुर्भुजी यक्षी-मूर्ति है। उसकी एक भुजा खण्डित है। उसकी तीन भुजाओंमें ढाल, तलवार और धनुष हैं। देवीका वाहन भंसा उसके निकट बैठा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभकी शासन-सेविका ज्वालामालिनी है। मन्दिर में एक बड़ी स्त्री-मूर्ति है। उसके बगलमें बालक है। कुछ विद्वान्, जैसा कि प्रायः देखा जाता है, उसे मायादेवी और बुद्धकी मूर्ति मानते हैं जबकि यहाँ न बौद्ध मन्दिर है, न कोई बुद्ध-मूर्ति मिली है। वास्तवमें यह मूर्ति तीर्थकर माता और बालक तीर्थंकरको है। किन्तु यह मूर्ति तीन टुकड़ोंमें खण्डित है।
- इस मन्दिरके सम्बन्धमें एक अद्भुत किंवदन्ती प्रचलित है। प्राचीन कालमें पहाड़ीपर एक गुफामें एक मुनि तपस्या किया करते थे। एक गड़रिया उन पहाड़ियोंपर भेड़ चराने जाता था।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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एक भेड़ प्रतिदिन गुफाकी तरफसे आकर भेड़ोंकी झुण्डमें मिल जाती थी और शामको गायब ( अन्तर्धान ) हो जाती थी । गड़रिया कुछ दिनों तक यह सब देखता रहा। एक दिन उसने भेड़के मालिक का पता लगाने का निश्चय किया और सन्ध्या होनेपर जब वह भेड़ गुफाकी ओर जाने लगी तो गड़रियाने उसका पीछा किया । किन्तु गुफाके अन्दर पहुँचनेपर गड़रियाको देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वहाँ भेड़का कहीं पता नहीं है किन्तु एक मुनि अवश्य ध्यानमें बैठे हुए हैं । उसने मुनिको नमस्कार किया और बोला, "बाबा ! तुम्हारी भेड़को मैं कई महीनोंसे चरा रहा हूँ। मैं उसकी घिराईकी मजदूरी लेने आया हूँ ।' मुनि मुस्कराये। उन्होंने मुट्ठी बन्द करके गड़रिया की धोती में कुछ डाल दिया । गड़रिया धोतीकी गाँठ बाँधकर वहाँसे चल दिया और अपने घर पहुँचा । भेड़ें उससे पहले पहुँच गयी थीं। इससे उसकी स्त्री उसके ऊपर बिगड़ी। तब उसने स्त्रीसे सारी घटना कह सुनायी और मुनि द्वारा दी हुई मजदूरीको खोलकर देखने लगा । किन्तु उसे यह देखकर बड़ा क्रोध आया कि वे तो थोड़े-से मक्काके दाने थे। उसने गुस्सेके मारे वे दाने उपलोंके ढेरपर फेंक दिये । स्त्री रसोईके काममें लग गयी। जब वह उपले लेने गयी तो उसने आश्चयंके साथ देखा कि उपले सोनेके हो गये हैं। दोनों यह देखकर खुशी से भर उठे । सरल गड़रिया उस बात की खबर देने भागा हुआ गुफामें पहुँचा किन्तु गुफा सूनी थी । मुनिका कहीं
पता न था ।
वह लौट आया। उसने धन छिपा दिया और एक मन्दिरका निर्माण कराया। गड़रियाके कारण लोग मन्दिरको गड़रसल कहने लगे। उसने मन्दिरके सामने एक तालाब भी बनवाया । उसने पक्के घाट बनवाये और घाटोंपर छतरियाँ बनवायीं । कहते हैं, इसके बाद उसने और भी मन्दिर बनवाये । यह भी कहा जाता है कि गडरमल मन्दिर में उसने अपनी और अपनी स्त्री की पाषाण मूर्तियाँ बनवायी थीं। दोनोंके कोई सन्तान नहीं थी । उनका अवशिष्ट धन जमीनमें दबा हुआ रह गया ।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भमें सम्भवतः ८वीं शताब्दीमें, इस मन्दिर में केवल गर्भंगृह और उसके ऊपर शिखर बनाया गया । बादमें, सम्भवतः ९ वीं शताब्दी में, मन्दिरमें परिवर्धन किया गया। यह मन्दिर मूलतः जैन है । मन्दिरके जीर्ण होनेपर कभी इसका जीर्णोद्धार किया गया होगा । उस समय इन मन्दिरोंकी पुरानी सामग्री ही काममें लायी गयी । इस मन्दिर में अब भी द्वारपर, दीवारोंमें और स्तम्भों में जैन मूर्तियां मिल सकती हैं । इस मन्दिरका प्रवेश-द्वार और उसका तोरण शिल्प-कलाको उत्कृष्ट कृतियोंमें से हैं । इसपर अलंकरणके अलावा नवग्रह, अष्टमातृका आदिका भव्य अंकन है । इस मन्दिरके सामने, सरोवर के तटपर १२ स्तम्भोंपर आधारित एक बारादरी है, जिसे बैठक भी कहते हैं । इसके निकट मन्दिरोंके अवशेष और बारादरियाँ हैं । यहीं पार्वती मन्दिर, दशावतार मन्दिर और वराह- मूर्ति है ।
गड़रमल मन्दिरके उत्तर-पश्चिममें, पहाड़ीकी तलहटीमें जैन मन्दिरोंका समूह है । ये एक अहातेके अन्दर हैं । यद्यपि ये मन्दिर जीर्णप्राय हैं किन्तु इनमें वेदियाँ और कुछ मूर्तियाँ अच्छी दशामें हैं । कई मन्दिर तो दोमंजिला हैं । इनके ऊपर शिखर भी हैं । यहाँ ८ से १२ फुट ऊंची मूर्तियाँ हैं । मूर्तियाँ दोनों ही आसनोंमें स्थित हैं-खड्गासन भी और पद्मासन भी । यहाँ एक निधिका भी बनी हुई है । उसमें चरण चिह्न विराजमान हैं । सम्भवतः यह निषधिका पश्चात्कालीन है। किन्तु मन्दिर और मूर्तियाँ तो निश्चय ही ८वीं शताब्दीके अन्तिम चरण या ९वीं शताब्दी के प्रथम चरणकी हैं।
इनके निकट बहुत-से सती स्तम्भ हैं । पठारी प्राचीन कालमें बड़ा समृद्ध और विशाल नगर
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राज पृथ्वीराज देवजू और उनके
भारतके शिवम्बर वली था। वर्तमान बड़ोह इस नगरका एक भाग था। कहा जाता है कि महाराज छत्रसालने युद्धके समय इसे लूटकर और नष्ट कर श्रीहीन कर दिया था। यह नगर पुनः भग्नावशेषोंके ऊपर आबाद हुआ। इसके आसपास चारों ओर प्राचीन मन्दिरों, सती-स्तम्भों, सरोवरों आदिके अवशेष बिखरे हुए हैं। पठारीकी बड़ी पहाड़ी ज्ञाननाथपर एक प्राकृतिक गुफा है, किन्तु उसे सुसंस्कृत किया गया है। इसमें तीन कक्ष हैं । इनमें अलंकृत स्तम्भ लगे हुए हैं। कहते हैं, यह वही गुफा है, जहाँ गड़रियाको मुनिके दर्शन हुए थे। चिह्नोंसे प्रतीत होता है कि यह गुफा जैन मुनियोंके ध्यान-अध्ययनके काम आती थी। स्तम्भों आदिपर जैन मूर्तियां बनी हुई हैं। इसके निकट छोटीछोटी कई गुफाएं हैं। किसी समय यह स्थान जैन धर्मका प्रसिद्ध केन्द्र था।
__पठारीमें एक बावड़ी है, जिसमें एक अभिलेख है। उसका आशय है कि इस बावड़ीका निर्माण संवत् १७३३ में अगहन सुदी पूर्णमासीको परगना आलमगीर ( भिलसा ) के पठारी जिलेमें पातशाह नौरंगजेब आलमगीरजके शासनमें और महाराजाधिराज पथ्वीराज देवज और उनके भाई कुमारसिंह देवजूके समयमें अयोध्यापुरोके श्री साहू वस्तपालजू, उसकी पुत्रवधू मणीवा द्रौपदी लखपती और उसके पौत्र उदयभान, तुलाराम, भगवानदास, जीवनमल और दिशुण्ड परवार जातीय कौछल गोत्रीयने कराया।
इस प्रकार जैनोंने यहां अनेक लोकोपयोगी कार्य कराये थे।
यह बताया जा चुका है कि बड़ोह प्राचीन कालमें पठारीका ही एक भाग था। जब पठारी नगर नष्ट हो गया तो पुनर्वासके समय दोनों अलग-अलग हो गये। इस समय बड़ोहके भग्नावशेष पठारीसे दक्षिणमें लगभग ३ मील, ज्ञाननाथ पहाड़ीकी तलहटीमें तालाबके किनारे बिखरे हुए हैं। पठारी-बड़ोहकी समृद्धिके सम्बन्धमें एक अद्भुत किंवदन्ती सुनी जाती है।
तेलका एक व्यापारी भैंसोंपर तेल लादकर उस स्थानपर पहुंचा, जिसे आजकल पारस तालाब कहा जाता है। भैसोंके गलेमें लोहेको सांकल बंधी हुई थी। जब एक भैंसा तालाबसे बाहर निकला तो व्यापारोने आश्चर्यके साथ देखा कि लोहेकी सांकल सोनेकी हो गयी है। उसे विश्वास हो गया कि तालाबमें अवश्य ही पारण-मणि है। वह तालाबके भीतर घुसकर पारसमणिकी तलाश करने लगा। भाग्यवश उसे पारस-मणि प्राप्त हो गयी। उसको सहायतासे वह अपार धनका स्वामी हो गया। उसने अनेक मन्दिरोंका निर्माण कराया। वह भैंसाशाहके नामसे प्रसिद्ध हो गया। ___इस किंवदन्तीको पारस-मणिको सत्यताके सम्बन्धमें विश्वासपूर्वक कुछ कह सकना कठिन है। किन्तु ऐसा एक व्यक्ति अवश्य हुआ है जो धनी था, पाड़ों ( भैंसों) पर सामान लादकर परदेशमें जाता और वस्तुओंका क्रय-विक्रय किया करता था। उसने अनेक जैन मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायो थी। पाड़ोंके कारण उसका नाम पाड़ाशाह ही पड़ गया। शिलालेखों या मूर्तिलेखोंमें भी उसका यही नाम मिलता है।
बड़ोह या पठारीमें उसके सम्बन्धमें जो किंवदन्ती प्रचलित है, इसमें उसे पारसमणि प्राप्त होनेकी बात है। अहार, बजरंगढ़, थूवीन आदि जिन स्थानोंपर उसने जिनालय बनवाये, वहाँ कहीं-कहीं उसकी समृद्धिका कारण उसके रांगाका पारस-मणि द्वारा चांदी होना बताया जाता है। उसके सम्बन्धमें इस प्रकारको किंवदन्तोका प्रचलन उसो स्थानपर देखा जाता है, जहां उसने मन्दिर निर्माण कराया। बड़ोह-पठारोमें ऐसी किंवदन्ती प्रचलित होनेका तर्कसंगत कारण यही हो सकता है कि यहाँपर भी उसने किसी जिनालयका अथवा अपनी स्त्रीके नामसे किसी वैष्णव मन्दिरका निर्माण कराया होगा।
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मध्यादेशले विमबरन तीर्थ
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ग्यारसपुर
अवस्थिति
ग्यारसपुर विदिशासे सागर जानेवाली सड़कपर उत्तर-पूर्वमें ३८ कि. मी. दूरीपर दो पहाड़ियोंके मध्य बसा हुआ एक प्राचीन नगर एवं महत्त्वपूर्ण कला-तीर्थ है । कुछ विद्वानोंके अनुसार यह दशवें तीर्थकर भगवान् शीतलनाथकी तपोभूमि है। अतः यह कल्याणक-क्षेत्र भी माना जाता है। साथ ही, कतिपय दैवीय घटनाओंके कारण यहाँको जैन समाज इसे अतिशय-क्षेत्र भी मानती है। क्षेत्र-दर्शन
___ इस नगरके भीतर और बाहर पुरावशेष बिखरे हुए हैं। यहाँके मध्यकालीन मन्दिर और उनके अवशेष पुरातत्त्व और कलाप्रेमियोंके आकर्षणकी वस्तुएँ हैं। मन्दाकिनी तालके पास उत्तरकी ओर पुरातन नगरके चिह्न दिखाई पड़ते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि किसी समय यह एक महत्वपूर्ण नगर रहा होगा । यहाँके मुख्य अवशेषोंमें पश्चिमकी ओर नगरके बाहर अठखम्भा और वज्रमठ, नगरके बाहर पहाड़ीपर हिण्डोला और चारखम्भा और नगरके दक्षिणकी ओर पहाड़ोकी चोटीपर मालादेवी मन्दिर मुख्य हैं। इनमें वजमठ और मालादेवी ये दोनों जैन मन्दिर हैं। इनका शिल्प-सौष्ठव, पाषाणमें सूक्ष्मांकन और वास्तु-विधान अत्यन्त उत्कृष्ट कोटिका है।
नगरमें एक चैत्यालय है । नीचेके एक कमरेमें ४ फुट ९ इंच ऊंचे एक शिलाफलकमें मध्यमें भगवान् पाश्वनाथकी खड्गासन प्रतिमा है। इसके सिरके ऊपर सप्तफण हैं। उनके ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है। उनके दोनों ओर पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए देवियां खड़ी हैं। भगवान्के ऊपर-नीचे दोनों ओर शेष २३ तीर्थंकरोंकी पद्मासन मूर्तियां बनी हुई हैं। बायीं ओर पार्श्वनाथका सेवक यक्ष धरणेन्द्र और दायीं ओर उनकी सेविका यक्षी पद्मावती ललितासनमें बैठे हुए हैं। दोनों के ऊपर फणावली है। यह प्रतिमा अतिशयपूर्ण है । ऐसा कहा जाता है कि लगभग २५ वर्ष पूर्व किन्हीं अज्ञात कारणोंसे इस मूर्तिसे पसीना निकलने लगा था जो हवन-शुद्धि करानेपर बन्द हुआ था। इस चमत्कृत घटनाके कारण इस क्षेत्रको जैन समाज तबसे इसे अतिशय-क्षेत्र मानने लगी है।
यह प्रतिमा शैली आदिकी दृष्टिसे १०वीं शताब्दीकी प्रतीत होती है। यह चन्देल शैलीको अद्भुत और कलासम्पन्न प्रतिमाओं में से है। यह पुरावशेषोंमें-से उपलब्ध हुई थी और अखण्डित है। इसकी उपलब्धिसे ऐसा अनुमान होता है कि यहां और भी जैन मन्दिर उस काल में रहे होंगे।
चैत्यालयके ऊपरके कमरे में नवीन प्रतिमा विराजमान हैं। - नगरके बाहर पहाड़पर थोड़ा चढ़नेपर हिण्डोला मिलता है। यह किसी प्राचीन मन्दिरका बचा हुआ अलंकृत द्वार है। द्वार हिण्डोलाके आकारका है। इसीलिए बोलचालमें लोग इसे हिण्डोला कहते हैं। इसके स्तम्भ चारों ओर अलंकृत हैं। एक स्तम्भपर विष्णुके दशावतार प्रदशित हैं। इसके निकट किसी मन्दिरके अवशेषोंका ढेर पड़ा हुआ है तथा उसकी आधार-चौकी भी है। बायीं ओर चार खम्भोंका मण्डप है । यह बिना छतका है। यहां एक पाषाणपर संवत् ११४० का एक शिलालेख मिला। इसके ऊपरी भागमें एक रीछ एक मनुष्यको नीचे पटक रखा है। यह दृश्य सम्भवतः श्रीमद्भागवतमें वर्णित जामवन्त और सत्राजित्के युद्धका है। जामवन्तं ब्रह्माका पूत्र बताया जाता है। युद्ध स्यमन्तक मणिके लिए हुआ था। कनिंघमको एक भग्न शिलालेख १. विदिशा-वैभव।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मिला था, जिसका कुछ अंश इस प्रकार पढ़ा गया था।
___....अन स्वामी मन्दिरं मालवच्छरदम्
षत्रिंशत् संयुतेषु तितेषु नवमे शतेषु । - इसका अर्थ उन्होंने माल्व संवत् ९३६ निकाला था। मालव संवत्का अर्थ विक्रम संवत् होता है। इसका अर्थ यह है कि यहाँका कोई मन्दिर ई. सन् ८७९ में निर्मित हुआ था। एक शिलाखण्डपर उन्हें संवत् १०६५ ( ई. सन् १०१०) अभिलिखित मिला था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यहाँके मन्दिर ९.१०वीं शताब्दीमें निर्मित हुए।
हिण्डोलासे पर्वतके ऊपर एक पगडण्डी मालादेवी मन्दिरकी ओर गयी है। लगभग दो फलांग चलनेपर मालादेवी मन्दिर पहुंचते हैं। यह मन्दिर अत्यन्त विकसित नागर शैलीका है। इसकी कला और खजुराहोके मन्दिरोंकी कलामें बहुत साम्य प्रतीत होता है। इस मन्दिरकी पृष्ठभित्ति पहाड़को काटकर बनायी गयी है तथा अन्य दीवारों आदिमें यहाँके ही पाणाणोंका प्रयोग किया गया है। यह तलच्छन्द और ऊवच्छन्द दोनों ही दृष्टियोंसे विलक्षण है। तलच्छन्दमें इसकी लम्बी भुजा पूर्वसे पश्चिमकी ओर फैली हुई है। इसमें गर्भगृह, अन्तराल, प्रदक्षिणापथ, महामण्डप और अर्धमण्डप हैं। अतः यह मन्दिर पंचायतन शैलीका मन्दिर माना जाता है। इसके ऊर्ध्वच्छन्दमें भी विलक्षणता है। अधिष्ठानके ऊपर जंघा या मन्दिरकी बाह्य दीवारें हैं जिनमें गवाक्ष हैं। जंघापर मूर्तियोंकी तीन पट्टिकाएँ हैं। इसकी छतें कोणस्तूपाकार हैं जो क्रमशः उन्नत होती गयी हैं और उनकी समाप्ति उत्तुंग शिखरमें होती है। यह पर्वतशृंखला-सी प्रतीत होती है। शिखरकी चोटीपर आमलक, उसपर चन्द्रिकाएं, फिर छोटा आमलक, उसपर कलश और अन्ततः बीजपूरक हैं । मन्दिर में प्रवेश करनेके लिए सोपान-पथ है।
इसका गर्भगृह १३ फुट १० इंच ४१५ फुट ६ इंच है । मध्य शिलासनपर भगवान् शान्तिनाथकी ५ फुट ३ इंच उन्नत पद्मासन मूर्ति है। सिरके ऊपर छत्रत्रय है। दोनों शीर्ष कोणोंपर आकाशचारी गन्धर्व हाथमें माला लिये हुए हैं। शेष भाग खण्डित हैं। दायीं ओर एक शिलाफलकमें ५ फुट ५ इंच उन्नत खड्गासन मुद्रामें तीर्थंकर-प्रतिमा है । सिरपर छत्र हैं । कोनोंपर गज और मालावाहक गन्धर्व हैं । अवोभागमें चमरेन्द्र और यक्ष-यक्षी बने हुए हैं। इस फलकमें तीर्थकरोंको अनेक खडुगासन मूर्तियां बनी हैं।
दायीं ओरको दीवारके सहारे ४ फुट ५ इंच उन्नत दो पद्मासन प्रतिमाएं रखी हैं। मुख्य मूतिके बगलमें बायीं ओर ३ फुट २ इंच समुन्नत पद्मासन प्रतिमा है।
गर्भगृहका प्रवेशद्वार अत्यन्त अलंकृत है। महामण्डपमें दायीं ओरकी दीवार में शान्तिनाथकी खड्गासन प्रतिमा है। यह १० फुट लम्बी और ४ फुट चौड़ी है। एक पद्मासन और एक खड्गासन मूर्ति और है। एक मूर्ति भगवान् पुष्पदन्तकी है। पद्मासन मूर्ति ३ फुट २ इंच ऊंची है। सिरके पीछे अलंकृत भामण्डल है । कारका भाग भग्न है। इनके अतिरिक्त २ पद्मासन एवं २ खड्गासन मूर्तियां हैं।
बायीं ओरकी दीवारमें एक शिलाफलकमें भगवान् शान्तिनाथको ५ फुट ३ इंच उन्नत खड्गासन प्रतिमा विराजमान है । अधोभागमें वीरासनसे दो इन्द्र हाथ जोड़े हुए बैठे हैं। इसका ऊपरका भाग खण्डित है । ये सब मूर्तियां दीवारमें बने हुए ताकोंमें विराजमान हैं।
महामण्डपमें ऊपरी भागमें चारों ओर पृथक् कोष्ठकोंमें चैत्यालय बने हुए हैं। हर मन्दिरके द्वारके ललाट-बिम्बपर शान्तिनाथ तीर्थंकरकी यक्षी महामानसी बनी हुई है। उसके ऊपरी भागमें चैत्यालय है। चौखटोंपर मिथुन-मूतियां हैं तथा चौखटोंके अधोभागमें खड़ी
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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ
२४३ हुई देवी-मूर्तियाँ हैं । अर्धमण्डप और महामण्डपके वितान अत्यन्त मनोरम ढंगसे अलंकृत हैं। मन्दिरको बाह्य भित्तियोंपर यक्ष-यक्षी और सुरसुन्दरियोंकी मूतियां उत्कीर्ण हैं। - मालादेवी जैन मन्दिरसे भेजी गयी एक सुर-सुन्दरीकी मूर्तिको विश्व-मूर्तिकला-प्रतियोगितामें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है । इस मूर्तिके सम्बन्ध में २८ जून १९६५के नवभारत टाइम्समें जो समाचार प्रकाशित हुआ है, इस प्रकार है-"म. प्र. के. ग्यारसपुर नामक स्थानसे उपलब्ध १७ इंचकी एक पत्थरकी मूर्तिने पिछले तीन वर्षों में विश्वख्याति प्राप्त कर ली है। भारतकी एक उत्कृष्ट शिल्पकृतिके रूपमें इस मतिने विश्व भ्रमण कर लिया है। १९६२ ई. में यह पश्चिमी जर्मनीमें आयोजित 'भारतके पांच हजार' प्रदर्शिनीमें तथा १९६३ में जापानमें और अभी पिछले दिनों अमेरिकाके प्रमुख नगरोंमें प्रदर्शित की जा चुकी है । अपने देशमें पुरातत्त्व शताब्दी समारोहमें भी इसका गौरवशाली स्थान रहा।". ..
. मन्दिरके बाहर परिसरमें एक स्थानपर ४ चरणयुगल बने हुए हैं तथा १ खड्गासन तीर्थंकर मूर्ति उत्कीर्ण है। इसी प्रकार एक अन्य शिलापर १ चरणयुगल अंकित है। इन चरण-चिह्नोंसे मनमें एक सम्भावना जाग्रत होती है कि यह नगर सिद्धक्षेत्र भी हो सकता है। किन्त पौराणिक या ऐतिहासिक प्रमाणोंके अभावमें इसके सिद्धक्षेत्र होनेकी पुष्टि कर देना युक्ति-युक्त नहीं होगा। हाँ, इस सम्भावनासे इनकार नहीं किया जा सकता कि यहाँ मुनिजन तपस्याके लिए आते होंगे। पर्वतको एकान्त शान्ति, चारों ओरका अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य और पर्वतसे नोचे बहती हुई नदी आदि बातोंसे यह स्थान तपस्याके लिए अति उपयुक्त ठहरता है।
मन्दिरके निकट दीवार और भवनोंके चिह्न मिलते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन कालमें मन्दिरके चारों ओर अहाता होगा तथा मुनिजनोंके उपयुक्त आवास बने होंगे। बज्रमठ
मन्दिरके पृष्ठ भागसे पहाड़से उतरकर पगडण्डी द्वारा लगभग २ फलाँग चलनेपर पहाड़की तलहटीमें वज्रमठ पहुंचते हैं। उसमें एक पंक्तिमें तीन गर्भगृह हैं। मध्य गर्भगृहके बाहर अर्धमण्डप है। मन्दिरके ऊपर शिखर है । कलाको दृष्टिसे खजुराहोके पार्श्वनाथ मन्दिरके शिखरके साथ इसका बड़ा साम्य है। मध्य गर्भगृह ७ फुट ६ इंच ७ फुट ९ इंच है। चौरस वेदीपर ऋषभदेवकी ६ फुट ९ इंच उन्नत देशी पाषाणको पद्मासन प्रतिमा है। सिरके पृष्ठभागमें भामण्डल और सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। इनके दोनों पाश्वोंमें गज हैं तथा आकाशविहारी गन्धर्व हाथमें माला लिये हुए हैं। प्रतिमाके दोनों ओर दो पद्मासन और दो खगासन तीर्थंकर-मूर्तियां हैं। चमरेन्द्र हाथीपर खड़े हैं। मूर्तिके हाथ तथा परिकरके कई भाग खण्डित हैं।
... बायीं और दायीं ओरके गर्भगृह मध्य गर्भगृहसे एक फुट छोटे हैं । बायों ओरके गर्भगृहमें एक तीर्थंकर मूर्ति खड्गासन मुद्रामें है । यह ७ फुट ९ इंच उन्नत है। सिरके ऊपर छत्र सुशोभित है। छत्रोंके दोनों पार्यों में चैत्यालय बने हुए हैं। उनमें पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान हैं। परिकरका शेष भाग खण्डित है। ___दायीं ओरके गर्भगृहमें ४ फुट १० इंच ऊँची एवं खड्गासन मुद्रामें तीर्थकर मूर्ति विराजमान है। मूर्ति के सिरके ऊपर छत्र और उनके पाश्वमें गन्धर्व हैं। इस मूर्तिके बगलमें एक अन्य तीर्थंकर मूर्ति है जो २ फुट ऊँची और खड्गासन है। सिरपर तीन छत्र हैं। - तीनों गर्भगृहोंके द्वार अलंकृत हैं। उनमें सिरदलपर अहंन्त मूर्ति है। चौखटोंपर मिथुनमूर्तियां और अधोभागमें देवी-मूर्तियां हैं। गर्भगृह साधारण ऊंचाईवाले हैं। मध्य गर्भगृहके ऊपर
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य समुन्नत शिखर हैं। उसके किनारे उभारदार हैं। शीर्षभागमें आमलक, चन्द्रिका, लघु आमलक और बीजपूरक हैं। किन्तु बगलके दोनों गर्भगृहोंकी छतें कोणस्तूपाकार हैं जो सोपान-शैलीमें उठती हुई शिखर तक जा पहुंची हैं। इससे शिखरकी शोभा द्विगुणित हो गयी है। मन्दिरको देखनेसे लगता है कि यह मन्दिर अधिक विशाल रहा होगा। निश्चय ही इसमें महामण्डप बना होगा। इसके स्तम्भ तथा अन्य सामग्री मन्दिरके आसपास बिखरी हुई है। यह भी लगता है कि पूर्वकी ओर ऊपर जानेके लिए जीना रहा होगा। - मन्दिरकी बाह्य भित्तियोंपरपर अलंकरण पट्टिकाएं बनी हुई हैं, जिनमें विभिन्न तीर्थंकरोंके शासन-देवताओं और देवियों की, सुरसुन्दरियों और व्यालोंकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इनमें कुछ हिन्दू देवताओंकी भी मूर्तियां हैं। मन्दिरके निकट दो खण्डित तीर्थंकर मूर्तियां रखी हुई हैं। इनमें एक पद्मासन मूर्ति ४ फुट ६ इंच अवगाहनाकी है। इसकी बांह और पैर खण्डित हैं। दूसरी मूर्ति भी पद्मासन है। इसका सिर नहीं है। सम्भवतः यह मूर्ति पार्श्वनाथकी है। इसका सर्पफणमण्डित सिर अलग पड़ा हुआ है। यह इसी मूर्तिका प्रतीत होता है। - मन्दिरकी बाह्य भित्तियोंपर हिन्दू देवताओंकी मूर्तियां देखकर कुछ विद्वानोंने यह आशंका व्यक्त की है कि यह मन्दिर मूलतः हिन्दू मन्दिर है। किन्तु यह आशंका निराधार है। मन्दिरके प्रवेश-द्वारपर, स्तम्भों और भित्तियोंपर जैन तीर्थंकरों और यक्ष-यक्षियोंकी मूर्तियां बनी हुई हैं। किन्तु यह अवश्य विचारणीय है कि एक जैन मन्दिरमें हिन्दू मूर्तियां उत्कीर्ण किये जानेका क्या कारण है। हमारी सम्मतिमें इसका एक ही कारण हो सकता है। वह यह कि इस जैन मन्दिरके निर्माताका दृष्टिकोण अत्यन्त उदार रहा हो। शिल्पकारोंने उसकी उदारतासे लाभ उठाकर यहाँ अपने धर्मकी मूर्तियां उत्कीर्ण कर दी हों। जैनोंमें ऐसी उदारता सदासे रही है। इसके उदाहरण अनेक स्थानोंपर मिलते हैं। किसी हिन्दू मन्दिरमें जैन देवताओं अथवा कथानकोंका अंकन किया गया हो, ऐसा उदाहरण हमारे दृष्टिपथमें नहीं आया। किन्तु जैन मन्दिरोंमें हिन्दू देवताओं और कथाओंका अंकन कई स्थानोंपर हुआ मिलता है। कुछ विद्वानोंने भ्रम या अज्ञानवश तीर्थंकर मूर्तियोंको बुद्ध, शिव और विष्णुकी मूर्तियां भी लिख दिया है। - इस मन्दिरका निर्माता कौन था और इस मन्दिरका नाम वज्रमठ कैसे पड़ गया, इस सम्बन्धमें कोई लिखित साक्ष्य प्राप्त नहीं होता। किन्तु हमें लगता है, मुसलमानोंकी क्रूर विध्वंसलीलाके बाद भी जब यह मन्दिर सुरक्षित रह गया तो जनताने इसका नाम वज़मठ रख दिया। इस मन्दिरका निर्माण ९वीं-१०वीं शताब्दीमें हुआ था। .... वज्रमठसे नगरमें आनेपर एक स्थानपर कुएंके पास तीर्थकर मूर्ति रखी हुई है। इसे हिन्दू लोग सिन्दूर पोतकर भैरोके नामसे पूजते हैं।
. अठखम्भा नगरसें दूसरी ओर बना हुआ है। ये किसी प्राचीन विशाल मन्दिरके अलंकृत स्तम्भ हैं । सम्भवतः इनमें से चार स्तम्भ तो महामण्डपके आधार-स्तम्भ थे, दो अन्तरालके और दो गर्भगृहके प्रवेशद्वारके । इन स्तम्भोंका शिल्प और तक्षण अत्यन्त समृद्ध. और कलापूर्ण है। एक स्तम्भपर लेख भी है। इसके अनुसार वि. संवत् १०३९ में किसी भक्तने यहाँको यात्रा की थी। अतः अनुमान किया जाता है कि इस मन्दिरका निर्माण ईसाको नौवीं शताब्दीमें हुआ होगा।
१. Report of the Archaeological Survey of India, Vol. VII, pp. 90-95. २. Report of the Archaeological Survey of India, Vol.x, pp. 31-35.
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मालव-अवन्ती जनपद
मक्सी पाश्र्वनाथ
उज्जयिनी
बदनावर
गन्धर्वपुरी चूलगिरि तालनपुर पावागिरि सिद्धवरकूट
बनैडिया
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मलोट
आगरको
मालव-अवन्ती
जनपद
____जावरा
महापुर
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पानबिहार/तरानामक्सीपाश्वनाथ
उज्जैन मक्सी स्टे
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सनावद
झाबुआ
बनडिया सरदारपर
इन्दार | झाबु आ
खातेगाँव dVखुरदा ___ मांडू मानपुर -सियरकट पिपरी बालरीर होशंगाबाद / बड़बाहा :
संकेत मनावर
V.मानधाता)
राज्य की सीमा अंजड़ कसरावद
-- जिला की सीमा फालघाट बिड़वानीराजपुर
जिला मुख्यालय चूलगिरि पावागिरिका भीकनगांव
नगर खरगोन
जैन तीर्थ पानसेमल (प.निमाइ) )
प्राचीन स्थल सेन्धवा घूलकोटQ ख ण्ड वा - बड़ी रेलवे लाईन धू लिया लेरिया
बोटीरेलवे लाईन नदियों
राजकीय पथ र भुसा व ल
अन्य पक्के पथ कच्चे पथ
जुलवानिया
नाव
+-खण्डबा को
.
धूलिया कोन
.
.
© भारत सरकारका प्रतिलिप्यधिकार, १९७६
१. भारतके महासर्वेक्षककी अनुज्ञानुसार भारतीय
सर्वेक्षण विभागीय मानचित्रपर आधारित । २. मानचित्रमें दिये गये नामोंका अक्षर
विन्यास विभिन्न सूत्रोंसे लिया गया है।
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. मक्सी पाश्वनाथ
मार्ग और अवस्थिति
श्री अतिशय क्षेत्र मक्सी पार्श्वनाथ सेण्ट्रल रेलवेकी भोपाल-उज्जैन शाखापर मक्सी नामक स्टेशनसे लगभग तीन कि. मी. दूर है। स्टेशनसे लगभग एक फलांग दूर दिगम्बर जैन धर्मशाला भी है । क्षेत्रपर दो मन्दिर हैं। उज्जैनसे यह क्षेत्र ३८ कि. मी. है और इन्दौरसे ७२ कि. मी.। क्षेत्रके लिए उज्जैन, इन्दौर, शाजापुरसे बराबर बसें मिलती हैं। यहां पोस्ट आफिस है। इसका जिला शाजापुर है। गाँवका नाम, जहाँ यह क्षेत्र है, कल्याणपुर है। अतिशय
यह क्षेत्र भगवान् पाश्वनाथकी प्रतिमाके अतिशयोंके कारण अतिशय क्षेत्र कहलाता है। इस मूतिके विविध चमत्कारोंकी कथाएँ जनश्रुतियोंके रूपमें प्रसिद्ध हैं। महमूद गजनवीने भारतके विभिन्न भागोंपर सन् १००० से १०२७ तक अनेक बार आक्रमण किये। आक्रमण करने में उसका मुख्य ध्येय इस्लामका प्रचार, भारतीयोंको इस्लामकी दीक्षा देना, भारतके मन्दिर और मूर्तियोंका विनाश करना, यहांसे धन लूटना और अपने साथ अधिकसे अधिक हाथी और गुलामोंको गजनी ले जाना था। वह जब देशको रौंदता हुआ और मन्दिरों, मूर्तियोंका भंजन करता हुआ मक्सी आया, उस समय रात्रि हो गयी थी। उसने सैनिकोंको विश्राम करनेकी आज्ञा दी। प्रातःकाल होनेपर पार्श्वनाथकी विख्यात मूर्ति और मन्दिरको तोड़नेकी उसकी योजना थी। किन्तु रातमें वह भयानक रूपसे बीमार पड़ गया। उसे अन्तः अनुभव होने लगा कि यह यहाँके पाश्वनाथका चमत्कार है। उसने फौजको आदेश दिया कि वे जैनियोंके इस मन्दिर और मूर्तिको कोई नुकसान न पहुंचावें। बल्कि उसने अपने कृत्यके प्रायश्चित्तस्वरूप मन्दिरके मुख्य द्वारपर ईरानी शैलीके पाँच कंगूरे बनवा दिये, जिससे इस घटनाकी स्मृति सुरक्षित रह सके तथा अन्य कोई मुस्लिम आक्रान्ता इसपर आक्रमण न करे।
ये कंगूरे मन्दिरके द्वारपर अब तक बने हुए हैं। लगता है, कि उक्त घटना महमद गजनवीकी न होकर मालवाके किसी सुलतानकी है क्योंकि महमूद मालवामें तो आ ही नहीं पाया था। सुलतानका क्या नाम था, यह तो ज्ञात नहीं हो सका किन्तु उपर्युक्त घटनामें सत्य अवश्य मालूम पड़ता है।
____ एक और भी अनुश्रुति है। कुछ चोर ताला तोड़कर चोरी करनेके इरादेसे मन्दिरमें घुसे। वे माल-असबाबकी गठरी बांधकर चलने लगे लेकिन वे अन्धे हो गये। वे रात-भर परिक्रमामें घूमते रहे, किन्तु मार्ग नहीं मिला। सुबह होनेपर वे मय मालके पकड़े गये। . यह निश्चित है कि मक्सीके पार्श्वनाथ चमत्कारी हैं और यहां अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ घटित होती रहती हैं । इसलिए यहाँके सम्बन्ध में अनेक रहस्यपूर्ण किंवदन्तियां प्रचलित हो गयी हैं। आज भी अनेक जेनेतर लोग भी यहां मनौती मनाने आते हैं। ..
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य क्षेत्रका इतिहास
इस क्षेत्रका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है । इसके सम्बन्धमें भी एक किंवदन्ती अवश्य प्रचलित है। प्राचीन कालमें शाजापुर-उज्जैन मार्गपर मक्सी गांवमें एक ब्राह्मण राहगीरोंको पानी पिलाया करता था। एक रातमें उसे स्वप्नमें कोई दिव्य पुरुष कह रहा था-जहाँ तेरी प्याऊ है, उसके नीचे जमीनमें भगवान हैं। उन्हें तू निकाल। दूसरे दिन उसने जमीन खोदी तो पार्श्वनाथकी मूर्ति निकली। ब्राह्मणको अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि भगवान्ने प्रकट होकर उसे दर्शन दिये हैं। उसने अपनी झोपड़ीमें मूर्ति विराजमान कर ली। वह भैरव मानकर इसकी पूजा करता था। इसके ऊपर तेल-सिन्दूर चढ़ाता। धीरे-धीरे लोगोंको इसके बारेमें पता चलता गया। लोग यहां आते, मनौती मनाते। .. __एक बार एक दिगम्बर जैन श्रेष्ठीको किसी अपराधमें कैद करके उज्जैन ले जाया गया। श्रेष्ठीका पुत्र अपने पितासे मिलने उज्जैन जा रहा था। मार्गमें मक्सीमें वह उक्त ब्राह्मणकी प्याऊपर पानी पीने रुका। बातों-बातोंमें उसे भैरवके चमत्कारोंका पता चला। उसने भैरवजीके दर्शन किये और मनौती मनायी, "अगर मेरे पिता कैदसे मुक्त हो जायेंगे तो मैं तुम्हारे लिए एक मन्दिर बनवाऊँगा।" मनौती मनाकर वह चल दिया। उस रातको उज्जैन नरेशको स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्नमें राजाको कोई आदेश दे रहा था-"तुम शाजापुरके श्रेष्ठीको अविलम्ब मुक्त कर दो।" राजाने प्रातःकाल होते हो श्रेष्ठीको मुक्त कर दिया। श्रेष्ठीका पुत्र उज्जैन पहुँचकर अपने पितासे मिला। वहाँसे दोनों पिता-पुत्र घर पहुंचे। रातको श्रेष्ठी-पुत्रको स्वप्नमें एक दिगम्बर मुनिके दर्शन हुए। वे श्रेष्ठो-पुत्रसे कह रहे थे-"तुम मक्सीमें जिसे भैरव समझ रहे हो, वे तो भगवान् पार्श्वनाथ हैं।" श्रेष्ठो-पुत्र प्रातः होते ही अपने इष्ट-मित्रोंके साथ मक्सी पहुंचा। वहां देखा कि प्रतिमाका तेल-सिन्दूर अपने आप साफ हो चुका है। अब भगवान् पाश्र्वनाथकी मनोज्ञ प्रतिमा वहां विराजमान थी। सबने भक्तिभावसे भगवान्के दर्शन किये और उनकी पूजा की। श्रेष्ठी-पुत्रने मक्सीमें एक विशाल मन्दिर निर्माण कराया। उसमें पार्श्वनाथ प्रतिमा विराजमान कराकर अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण किया।
- इस किंवदन्तीमें घटनामूलक परिचय तो है किन्तु मन्दिर निर्माणके सम्बन्धमें विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती। अन्य भी कोई स्रोत नहीं है, जिससे मन्दिर निर्माताका नाम और परिचय ज्ञात हो सके। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भगवान पार्श्वनाथकी यह मनोज प्रतिमा दिगम्बर परम्पराकी है। इस मन्दिरका निर्माण किसी अज्ञात दिगम्बर धर्मानुयायीने कराया है। प्रारम्भसे इस मन्दिरका स्वामित्व, व्यवस्था और अधिकार दिगम्बर समाजके अधीन रहा है । यहाँके मन्दिर, धर्मशाला, तालाब, बगीचा आदिका निर्माण दिगम्बर समाजने कराया है। पहले यहाँ दिगम्बर समाजके लोगोंकी संख्या बहुत थी। किन्तु आजीविका और व्यापारकी दृष्टिसे अधिकांश दिगम्बर जैन अन्यत्र चले गये । अवसर पाकर यहाँके ब्राह्मण पुजारियोंने मन्दिरके पीछे देहरियोंमें महादेव, हनुमान, विष्णु एवं नवग्रहकी मूर्तियां रख दीं। मेसलमानोंने मन्दिरके पीछे बगीचेके पास अपनी कने बना दीं। अव्यवस्थाके इसी कालमें श्वेताम्बरोंने अपनी विधिसे पूजा करना और क्षेत्रको सम्पत्तिपर अधिकार जमानेका प्रयत्ल करना प्रारम्भ कर दिया। .. इस अतिशय क्षेत्रका उल्लेख भट्टारक सुमतिसागर (सोलहवीं शताब्दीके मध्यमें), भट्टारक ज्ञानसागर (सोलहवीं शताब्दीके अन्तमें), भट्टारक जयसागर (सत्रहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध), भट्टारक ब्रह्महर्ष (सन् १८४३-१८६६ ) ने अपनी रचनाओं में किया है। इनसे पूर्ववर्ती मदनकीर्ति
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मध्यप्रदेश दिसम्बरन सीर्य और आचार्य जिनप्रभसूरिने 'शासन-चतुस्विशिका' तथा 'विविध-तीर्थकल्प' में इस क्षेत्रका कोई उल्लेख नहीं किया। ये दोनों विद्वान् १३वीं-१४वीं शताब्दीके हैं। इन दोनोंने ही तत्कालीन प्रसिद्ध तीर्थोके सम्बन्धमें परिचयात्मक प्रकाश डाला है, किन्तु मक्सी पार्श्वनाथका उल्लेख तक नहीं किया। इससे लगता है कि इस क्षेत्रके अतिशयोंकी ख्याति इन विद्वानोंके कालमें नहीं हो पायी थी, जबकि इन दोनोंने ही मालवाके अभिनन्दननाथ जिनकी स्तुति की है और बताया है कि यवनों द्वारा यह प्रतिमा तोड़ी जानेपर वह पुनः जुड़ गयी और अवयवों सहित वह ठीक हो गयी। उसके पश्चात् उस प्रतिमामें अनेक चमत्कार प्रकट हुए। 'विविध-तीर्थकल्प' में तो अवन्तिदेशके इस अभिनन्दननाथ जिनकी घटनाके सम्बन्धमें यह भी बताया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंह देवके शासन-कालसे कुछ वर्ष पूर्वमें हुई थी। - उपर्युक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मक्सी पार्श्वनाथ अतिशय-क्षेत्रकी स्थापना १४वीं शताब्दीके पश्चात् कभी हुई है। सम्भवतः पार्श्वनाथकी यह मूर्ति किसी मन्दिरमें थी। मन्दिरको आक्रान्ताओंने नष्ट कर दिया। १४वीं-१५वीं शताब्दीमें यह मूर्ति भूगर्भसे निकाली गयी और मन्दिरका निर्माण करके उसमें यह विराजमान की गयी। तबसे इसके अतिशयोंकी प्रसिद्धि हुई और यह अतिशय क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध हो गया। लेकिन सोलहवीं शताब्दीमें यह क्षेत्र ख्यातिके शिखरपर पहुंच चुका था। भट्टारक ज्ञानसागरने इस क्षेत्रके सम्बन्धमें जैसी प्रशंसा की है, उससे इस धारणाकी पुष्टि होती है। उन्होंने लिखा है
"मालव देश मझार नयर मगसी सुप्रसिद्धह। महिमा मेहसमान निधन धन दीधह। मगसी पारसनाथ सकल संकट भयभंजन। मनवांछित दातार विघनकोटि मदे गंजन । . .. रोग शोक भय चोर रिपु तिस नामे दूर पले। ब्रह्म ज्ञानसागर बदति मनवांछित सधलों फले ॥
-सर्वतीर्थ वन्दना-२४ इसमें ज्ञानसागरजीने मक्सीके पार्श्वनाथको समस्त संकटोंको दूर करनेवाला, मनोकामना पूर्ण करनेवाला, विघ्नोंका हर्ता, रोग-शोक, भय, चोर-शत्रु इनको दूर करनेवाला बताया है। अवश्य ही भट्टारकजीके कालमें मक्सीके पार्श्वनाथकी प्रसिद्धि इसी रूपमें रही होगी। अधिकारके लिए संघर्ष
यह मन्दिर मूलतः दिगम्बर जैन सम्प्रदायका था और इसकी व्यवस्था आदि भी सदासे दिगम्बर जैन समाजकी एक निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती थी। इसका निर्माण भी दिगम्बर जैन समाजने केवल अपने द्रव्यसे कराया था। मन्दिरसे सम्बन्धित मकान, बगीचा आदि सभी चल-अचल सम्पत्ति दिगम्बर जैन समाजने ही बनवायो थी। मन्दिरोंमें जो मूर्तियां हैं, वे सभी दिगम्बर आम्नायकी हैं। यहां कभी-कभी श्वेताम्बर सम्प्रदायके लोग भी दर्शनोंके लिए आ जाते थे। भगवानके दर्शन-पजनसे किसीको बंचित न रखा जाये, इस नीतिके बनसार उस समयको प्रबन्ध समितिने श्वेताम्बर लोगोंको दर्शन-पूजन करनेसे कभी नहीं रोका।
पूजाके प्रश्न और सम्पत्तिकी मालिकीको लेकर श्वेताम्बर समाजने विवाद खड़ा कर दिया। जब बिकाद किसी प्रकार शान्त नहीं हुआ,सब केस अदालतमें गया। तब अगस्त १८८२ में पंचनामे द्वारा यह तय हुआ था कि बड़े मन्दिर में दोनों समाजोंको अपनी-अपनी आम्नायके
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भारतके दिगम्बर वतीय अनुसार दर्शन-पूजन करने दिया जाये । फैसलेमें प्रातः ६ बजे से ९ बजे तकका समय पूजनके लिए दिगम्बर समाजको दिया गया। उसके बादका समय श्वेताम्बर समाजको दिया गया। दर्शनके लिए किसीके ऊपर समयका प्रतिबन्ध नहीं रखा गया। फैसलेमें बड़ा मन्दिर श्वेताम्बर समाजके प्रबन्धमें दिया गया और छोटे मन्दिरका प्रबन्ध दिगम्बर समाजके । तत्कालीन ग्वालियर महाराजका आदेश स्पष्ट है कि सुपुर्दगीका अर्थ मालिकी नहीं, केवल ट्रस्टोशिप है क्योंकि मन्दिरको मालिकी देवतामें निहित है। इनकी आय उनको होगो, जिनके सुपुर्द यह है। किसी सम्प्रदायका कोई व्यक्ति, जो किसी मन्दिर में दर्शन, पूजनको जाये, वह कोई नयी बात नहीं करेगा। दिगम्बरी अपनी मान्यतानुसार बड़ी मूर्तिका अभिषेक, दर्शन और पूजन करते हैं और भविष्यमें भी करते रहेंगे।
इसके बाद सदाके लिए दोनोंका विवाद समाप्त करनेके लिए ग्वालियर महाराजने बड़े मन्दिरको सुपुर्दगी और व्यवस्था श्वेताम्बर समाजसे लेकर दिनांक ४-५-१९२१ की आज्ञा द्वारा पंचकमेटीके सुपुर्द कर दी। इस कमेटीमें दो दिगम्बर, दो श्वेताम्बर और ग्वालियर हाईकोर्टके मुख्य न्यायाधीशको सम्मिलित किया गया। मुख्य न्यायाधीशकी ओरसे जिलेका कलेक्टर नियुक्त किया गया।
सन् १९२७ में ग्वालियर दरबारकी आज्ञासे नियुक्त सुपरिण्टेण्डेण्टने श्वेताम्बर-दिगम्बर पंचोंके सामने मन्दिरकी सब मूर्तियोंका विवरण तैयार किया था। उसकी पुस्तिका भी बनकर प्रकाशित हुई थी। उसमें देवरियोंकी सभी मूर्तियां दिगम्बर बतलायी हैं।
कानूनने बहुत स्पष्ट निर्णय दिये हैं किन्तु श्वेताम्बर लोगोंने मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान्की दिगम्बर प्रतिमाको श्वेताम्बर आम्नायकी बनानेके कई बार प्रयत्न किये । इस बीच ४२ दिगम्बर मूर्तियोंपर नेत्र जड़ दिये गये हैं।
वर्तमानमें स्थिति इस प्रकार है
(१) छोटे मन्दिर और उसकी धर्मशालापर दिगम्बर जैन समाजका पूर्ण अधिकार है। (२) बड़े मन्दिरमें प्रातः ६ बजेसे ९ बजे तक दिगम्बर समाजका कोई भी यात्री दिगम्बर आम्नायके अनुसार स्वतन्त्रतापूर्वक पूजा-प्रक्षाल कर सकता है। (३) दिगम्बर समाजको अधिकार है कि पूजाके समय मूलनायक श्री पार्श्वनाथकी मूर्तिपर किसी तरहका कोई आभूषण या शृंगार होवे तो उसे अलग कर देवे । (४) दिगम्बर यात्री जब भी दर्शन करना चाहें, उन्हें दर्शन करनेसे नहीं रोका जा सकता। क्षेत्र-दर्शन
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मक्सी बस्तीके मध्यमें अवस्थित है। यहां परकोटेके अन्दर दो मन्दिर और धर्मशालाएं हैं। परकोटेके मुख्य द्वारसे प्रवेश करनेपर दायीं ओर बड़ा मन्दिर ( मुख्य मन्दिर ) है तथा बायीं ओर धर्मशाला बनी हुई है। मन्दिरमें प्रवेश करनेपर सामने एक चबूतरेपर भगवान् पाश्र्वनाथकी कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। मूर्तिकी अवगाहना ३ फुट ६ इंच है। चबूतरा दो फुट ऊंचा है। मूर्तिके नीचे कोई पीठासन नहीं है। मूर्तिके सिरपर सप्त फणावली सुशोभित है। यह मूर्ति अत्यन्त सौम्य, शान्त एवं मनोज्ञ है। मुखपर सहज वीतरागता अंकित है। यह बलुआ पाषाण की है और इसके ऊपर ओपदार पालिश की हुई है। मूतिके दर्शन करनेपर दृष्टि और मन उसीपर केन्द्रित हो जाते हैं और हृदय भक्तिके सरस भावोंसे परिपूर्ण हो आता है। यह प्रतिमा भगवान्के उस वीतराग रूपकी साक्षात् प्रतीक है, जब भगवान् अन्तर्बाह्य
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मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ
२४२ परिग्रहसे रहित होकर पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित थे। उनके नेत्र ध्यानावस्थामें अर्धोन्मीलित थे, दृष्टिनासाके अग्रभागपर स्थिर थी और परम शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मोंका नाश करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर अर्हन्त परमेष्ठी हुए। अष्ट प्रातिहार्ययुक्त उसी अवस्थाकी यह मूर्ति है।
प्रतिमाकी फणावलीके दोनों पार्यो में दो गज हैं। उनमें नीचे दो पुरुष खड़े हैं । बायीं ओरके पुरुषके हाथमें माला है। दायीं ओरके पुरुषके हाथमें कुछ नहीं है। उनसे नीचे दोनों पार्यों में चमरवाहक नागेन्द्र खड़े हुए हैं। ये सभी काली पालिशसे रंगे हुए हैं। इन्हें किन्हीं अनाड़ी हाथोंने गढ़ा है। लगता है भगवान्का यह सम्पूर्ण परिकर बादमें निर्मित हुआ है।
इस मूतिपर कोई लेख या लांछन नहीं है। सफण-मण्डलके कारण पाश्वनाथकी पहचान हो जाती है । जब यह प्रतिमा भूगर्भसे निकाली गयो, तब चरण-चौकी भूगर्भ में ही दबी रह गयी। अतः यह किस कालमें निर्मित हुई, इसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लोग भक्तिवश इसे चतुर्थ कालकी अर्थात् ईसा पूर्व छठी-सातवीं शताब्दीकी कहते हैं। पालिशके कारण इसके पाषाणकी भी परीक्षा नहीं हो सकती। साहित्यिक साक्ष्यके आधारपर देखें तो मदनकीर्ति यतिवर की 'शासनचतुस्त्रिशिका' और 'विविधतीर्थकल्प' में या उनसे पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थमें इस प्रतिमाकी चर्चा नहीं मिलती। सम्भव है, यह परमार कालकी रचना हो। यदि यह अनुमान सत्य हो तो यह स्वीकार करना होगा कि अपने प्रारम्भिक कालमें यह विशेष प्रसिद्ध नहीं थी। मुस्लिम कालमें इसका मन्दिर तोड़ दिया गया या टूटकर गिर गया होगा और यह प्रतिमा मन्दिरके अवशेषोंमें दब गयी होगी। जब भूगर्भसे निकालकर विराजमान किया गया, तब इसके चमत्कारोंका सौरभ बिखरा।
मूल वेदीके दायें और बायें पार्श्वमें एक-एक वेदी है, जो चबूतरेनुमा है। बायीं ओरकी वेदीपर कृष्णवर्णके पार्श्वनाथ विराजमान हैं। दायीं ओरकी वेदीपर नेमिनाथ स्वामीकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूलतः यह प्रतिमा श्वेत पाषाणकी है, किन्तु किन्हीं लोगोंने काला लेप लगाकर इसे कृष्ण वर्णकी बना दी है। इसके दोनों पार्यों में दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। ये सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नायकी हैं। इस वेदोपर सप्त धातुको चन्द्रप्रभ स्वामीकी एक प्रतिमा विराजमान है। उसका मूर्तिलेख निम्न भांति पढ़ा गया है_ विक्रम संवत् १८९९ वर्षे मार्गशीर्ष शुक्लपक्षे ११ बुधवारे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये....टीकमगढ़ निवासी चौधरी लक्ष्मणस्तस्य भ्राता....प्राणसुखस्तेन प्रतिमेयं श्री क्षेत्र मक्सीमध्ये प्रतिष्ठिता'।
टीकमगढ़ निवासी चौधरी लक्ष्मणदास प्राणसुखदासने यहाँके छोटे मन्दिरका निर्माण किया था और उसमें मूलनायक सुपाश्वनाथ विराजमान किये थे। इसपर भी वही लेख अंकित है। ये दिगम्बर धर्मानुयायी श्रावक थे। टीकमगढ़में उनके वंशज अब तक विद्यमान हैं।
__ सभामण्डपमें चक्रेश्वरी और पद्मावतीकी मूर्तियां हैं। चक्रेश्वरीको एक मूर्ति ताकमें है जिसके ऊपरी भागपर आदिनाथ भगवानकी दिगम्बर प्रतिमा विराजमान है। इस मन्दिरके सिरदलपर मध्यमें नेमिनाथ तथा इधर-उधर खड्गासन दिगम्बर मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
बड़े मन्दिरकी पलिमा ( परिक्रमा ) में ४२ देहरियां ( छोटे देवालय ) बनी हुई हैं। इनमें ४ देहरियां खाली खड़ी हुई हैं। इनमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां विराजमान हैं।
सेठ जीवराज पापड़ीवाल एक धर्मात्मा दिगम्बर श्रावक थे। उन्होंने विक्रम संवत् १५४८ वैशाख सुदी ३ को सैकड़ों-हजारों मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। प्रतिष्ठाचार्य थे भट्टारक जिनचन्द्र ।
३-३२
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उन्होंने मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराके गाड़ियोंमें उन्हें भरवाकर विभिन्न स्थानोंके मन्दिरोंको भेज दिया। यही कारण है कि उत्तर भारतका तो शायद ही कोई मन्दिर ऐसा होगा जिसमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति विराजमान न हो। प्रायः उनकी सभी मूर्तियोंपर लेख रहता है। यह मूर्ति-लेख बहुधा निम्न प्रकारका या इससे मिलता-जुलता रहता है. 'संवत् १५४८ वैशाख सुदि ३ श्रीमूलसंघे भट्टारक जिनचन्द्रदेव साहु जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमति सौख्यं शहर मुड़ासा श्री राजस्य सिंह रावल ।'
भट्टारक जिनचन्द्र दिगम्बर परम्परामें बलात्कारगणकी दिल्ली-जयपुर शाखाके भट्टारक थे। वे भट्टारक शुभचन्द्र (सं. १४५०-१५०७ ) के शिष्य थे। इनका भट्टारक काल संवत् १५०७ से १५७१ तक माना जाता है। आपने अपने जीवन-कालमें अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी।
यहांको सभी देहरियोंमें सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां विराजमान हैं। अतः ऐसा लगता है कि देहरियोंकी प्रतिष्ठा पापड़ीवालने ही करायी थी और इन प्रतिमाओंको यहां विराजमान किया था। यदि यह मान लिया जाये कि पापड़ीवालने देहरियोंको प्रतिष्ठा नहीं करायी, तब भी यह तो स्वीकार करना ही होगा कि मूलतः यह मन्दिर दिगम्बर परम्पराका था। इसलिए श्री पापड़ीवालने यहां मूर्तियां भिजवायीं क्योंकि उन्होंने किसी श्वेताम्बर मन्दिरमें मूर्तियां नहीं भिजवायी थीं। - देहरी नं. ३९ में नन्दीश्वर द्वीपकी रचना है। इसमें ५२ प्रतिमाएं हैं। इनमें ४४ प्रतिमाएं खड्गासन हैं, शेष पद्मासन हैं और दिगम्बर हैं। नन्दीश्वर द्वीपको यह रचना दिगम्बर परम्पराके अनुसार है । श्वेताम्बर परम्परामें तो इस प्रकारकी नन्दीश्वर रचना कहीं नहीं मिलती।
__ बड़े मन्दिरमें एक शिलालेख ( नं. १ ) है, जिसमें उल्लेख है कि इस मन्दिरका निर्माण संग्रामसिंह सोनोने संवत् १४७२ में कराया जो माण्डवगढ़के सुलतान महमूद खिलजीका खजांची था। मूर्तिको प्रतिष्ठा संवत् १५१८ में की गयी। शिलालेखपर संवत् १६६७ उत्कीर्ण है। किन्तु शिलालेखकी लिपिके आधारपर यह शिलालेख अति आधुनिक प्रतीत होता है। प्राचीन संवत् डालकर नये शिलालेख बनवाने और उनसे अपने पक्षकी पुष्टि करनेका इतिहास पुराना है।
बड़े मन्दिरसे दक्षिणकी ओर इस अहातेमें ऊंचे चबूतरेपर छोटा मन्दिर है। यह सुपावनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर कहलाता है। इस मन्दिरमें गर्भालय तथा महामण्डप बना हुआ है। गर्भालयमें भगवान् सुपाश्वनाथकी कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना २ फुट ६ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९९ में हुई। प्रतिमा चौरस वेदीमें विराजमान है। इस मन्दिर और मूर्तिकी प्रतिष्ठा टीकमगढ़ निवासी सेठ लक्ष्मणदास प्राणसुखदासने करायी थी, जिन्होंने बड़े मन्दिरको चन्द्रप्रभ भगवान्की धातु-मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी। सुपार्श्वनाथकी प्रतिष्ठाके साथ ही चन्द्रप्रभको भी प्रतिष्ठा हुई थी। उन्होंने एक मूर्ति छोटे मन्दिरमें मूलनायकके रूपमें विराजमान कर दी और धातु-मूर्ति बड़े मन्दिर में। बड़ा मन्दिर तब तक दिगम्बर परम्पराका मान्य मन्दिर था और दिगम्बर समाजके ही अधिकारमें था।
मूलनायक भगवान् सुपार्श्वनाथके दोनों पार्यो में महावीर और सुपार्श्वनाथकी मूगिया वर्णकी पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं । इनकी अवगाहना १ फुट ८ इंच है। इसके आगेको कटनीपर भ. पाश्वनाथकी १ फुट ४ इंच उन्नत संवत् १५४८ की तथा भ. आदिनाथको १ फुट २ इंच ऊंची लेखरहित तथा दो धातु-मूर्तियां एक पार्श्वनाथ २ फुट २ इंच तथा चौबीसो १ फुट ८ इंच विराजमान हैं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जन तोयं
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महामण्डपमें एक वेदीमें भगवान् पार्श्वनाथको कृष्ण पाषाणकी ५ फुट उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । यह संवत् २०२५ की प्रतिष्ठित है ।
इस मन्दिरके बराबर में एक छोटा मन्दिर है । इसमें तीन दरकी एक वेदी है । मध्यमें भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन मूर्ति विराजमान है । इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६१ में हुई थी। इसके पार्श्वमें बायीं ओर चन्द्रप्रभ और दायीं ओर पार्श्वनाथकी श्वेतवर्णं पाषाणपर पद्मासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। दोनों ही सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित हुई थीं।
छोटे मन्दिरके मुख्य प्रवेशद्वारके बगलमें क्षेत्रका कार्यालय है । मन्दिरके पृष्ठ भागमें धर्मंशाला है । मन्दिरके आगे चबूतरा है । उसपर क्षेत्रके दक्षिणकी ओर सड़कके लिए द्वार बना हुआ है । क्षेत्रके अहाते पृष्ठ भागकी सड़क मिली हुई है । क्षेत्रके पीछे तालाब बना हुआ है ।
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धर्मशाला
छोटे मन्दिर के पृष्ठ भागमें धर्मशाला बनी हुई है । इसमें ११ कमरे हैं । रसोईघर, स्नानगृह, शौचालय, बगीचा ये सब धर्मशालाके पृष्ठ भागमें हैं । जलके लिए नल और कुआँ है । प्रकाशके लिए बिजली है। नगरमें सभी आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती हैं। बड़े मन्दिरके प्रवेश-द्वारके सामने भी एक धर्मशाला है |
क्षेत्र के अहातेसे लगा हुआ एक अहाता और है जिसमें विश्रान्ति भवन बना हुआ है। इसके ऊपरके भागमें दिगम्बर जैन गुरुकुल है तथा नीचेका भाग यात्रियोंके उपयोगके लिए है । यहाँ भी नल और बिजली की समुचित व्यवस्था है ।
क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं
वर्तमानमें क्षेत्रपर एक गुरुकुल चल रहा है, जिसका संचालन मालवा प्रान्तिक दिगम्बर जैन सभा बड़नगर द्वारा किया जाता है ।
व्यवस्था
क्षेत्रकी सम्पूर्ण व्यवस्था एक निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती है । यह समिति मध्यप्रदेशीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीके अधीन है ।
वार्षिक मेला - इस क्षेत्रपर फाल्गुन शुक्ला ८ से १५ तक वार्षिक मेला होता है ।
उज्जयिनी
उज्जयिनीका महत्त्व
उज्जयिनी, वर्तमान में जिसे उज्जैन कहते हैं, भारतकी प्राचीन नगरियों में से है । यह अवन्तिदेश ( मालवा ) में - सिप्रा नदीके तटपर अवस्थित है । प्राचीन भारत के इतिहासमें इस नगरीका महत्त्व सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टिसे शताब्दियों तक रहा है । अनेक राजवंशोंकी राजधानी बननेका गौरव इसे प्राप्त हुआ, कई प्रमुख नरेशोंने इसे उपराजधानी भी बनाया । यहाँपर ऐसी अनेक घटनाएँ हुई हैं, जिनका भारतके सांस्कृतिक जीवनपर गहरा प्रभाव पड़ा और
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
जिन्होंने संस्कृतिकी विभिन्न धाराओंको ही मोड़ दिया । जैन संस्कृतिका उज्जयिनी के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है, इसलिए जैन संस्कृति के इतिहास में उज्जयिनीको विशिष्ट स्थान प्राप्त है ।
जैन साहित्य में उज्जयिनी
भगवज्जिनसेन कृत 'आदिपुराण' के अनुसार भगवान् ऋषभदेवने भारतको ५२ जनपदों में विभाजित किया था, उनमें अवन्ती जनपद भी था । प्राचीन कालमें इसकी राजधानी उज्जयिनी थी । मालवाका ही प्राचीन नाम अवन्ती था । ईसाकी सातवीं-आठवीं शताब्दीसे अवन्तीका नाम मालवा हो गया ।
उज्जयिनीका सम्बन्ध अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके साथ भी रहा है । यहाँके अतिमुक्तक श्मशान में तपस्या-रत भगवान् महावीरके ऊपर रुद्रने घोर उपसर्गं किया था। आचार्य गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' में वर्णित इससे सम्बन्धित कथाका सारांश इस प्रकार है
एक बार विभिन्न देशों में विहार करते हुए भगवान् महावीर उज्जयिनी नगरी पधारे और वहाँ अतिमुक्तक श्मशान में आतापन योग धारण करके ध्यानमग्न हो गये । उन्हें देखकर महादेव रुद्रने उनके धैयंकी परीक्षा करनी चाही । उसने रात्रिमें भगवान् के ऊपर घोर उपसगं किया। उसने अनेक भयंकर वैतालोंका रूप धारण किया। उन वैतालों में कोई भयंकर मुख फाड़ रहा था, मानो निगल जाना चाहता था । कोई दूसरे वैतालका पेट फाड़कर उसमें प्रवेश करना चाहता था । कोई भयंकर अट्टहास कर रहा था, कोई नृत्य कर रहा था, कोई बीभत्स रूप बनाकर किलकारियाँ मार रहा था । इन उपसर्गोंका जब भगवान् पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तब वह सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और भीलोंकी सेना भयंकर रूप बनाकर उपसर्गं करने लगा और भगवान्को समाधिसे विचलित करने का घोर प्रयत्न करने लगा । किन्तु धीर-वीर भगवान् ध्यानसे तनिक भी विचलित नहीं हुए । रुद्रने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। वह भगवान् के चरणोंमें नमस्कार करके बार-बार अपने अपराधोंकी क्षमा-याचना करने लगा। फिर उसने भक्तिमें गद्गद होकर भगवान्की स्तुति की, नृत्य किया और भगवान् के महति और महावीर ऐसे दो नाम रखकर स्वस्थानको चला गया ।
श्वेताम्बर मान्यतानुसार उस उपसर्ग-भूमिमें नन्दिवर्धनने एक विशाल जिनालयका निर्माण कराया, जिससे जनताको भगवान्पर हुए घोर उपसगं और उनकी अविचल धीरता - वीरताकी स्मृति बनी रहे । पुराणप्रसिद्ध सुकुमालकी मृत्यु यहीं हुई थी। उनकी स्मृति में एक जिनालयंका निर्माण अवन्ति सुकुमाल के पुत्रने कैराया था । सम्भवतः बादमें इस मन्दिरको परिवर्तित करकेमहाकालका मन्दिर बना दिया गया । महाकाल मन्दिरके प्रांगणमें एक समाधि भी बनी हुई है, जिसे 'कोर्टि तीर्थं' कहते हैं । महाकालके कारण उज्जयिनीका एक नाम महाकाल वन भी है। हिन्दू मान्यतानुसार द्वादश ज्योतिर्लिंगों में महाकालकी गणना की गयी है ।
महावीरकी उपसर्ग-भूमि होनेके अतिरिक्त उज्जयिनीमें एक ऐसी घटना हुई, जिसने सम्पूर्ण जैन इतिहासको ही झकझोर दिया और भगवान् महावीरसे चले आ रहे एक और अखण्ड जैन
१. ब्रह्मपुराण अ. ४३, अनर्घ राघव अंक ७ ।
२. उत्तरपुराण, पर्व ७४, श्लोक ३३१ ।
३. स्थविरावलि चरित, ११।१७७, परिशिष्ट पर्व, ११।१६७-१७७ ।
अध्याय २२ ।
४.
"
५. शिवपुराण, १ - ३८, ४६ ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२५३ संघको दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो भागोंमें सदाके लिए विभक्त कर दिया। इस सम्बन्धमें निम्नलिखित कथा' प्राप्त होती है।
अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु संघ सहित उज्जयिनी नगरी पधारे। उस समय उज्जयिनीमें सम्राट् चन्द्रगुप्त आये हुए थे। वे सम्यग्दृष्टि एवं महान् श्रावक थे। एक दिन आचार्य भद्रबाहुने आहारके निमित्त एक घरमें प्रवेश किया। वहाँ केवल एक शिशु पालनेमें पड़ा हुआ था। वह शिशु बोला-तुम यहाँसे शीघ्र चले जाओ। निमित्तज्ञानी भद्रबाहुने जान लिया कि यहां बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी और घोर दुष्काल पड़ेगा। यह जानकर वे आहार लिये बिना ही लौट गये । उन्होंने संघको एकत्रित करके उससे कहा-आप लोग यहांसे शीघ्र विहार करके अन्यत्र चले जायें। यहाँ बारह वर्ष तक दुष्काल पड़नेवाला है । यह सुनकर सम्राट् चन्द्रगुप्तने उनके पास जिन-दीक्षा ले ली। मुनि होनेके पश्चात् चन्द्रगुप्तका नाम विशाख हो गया। वे दसपूर्वियोंमें प्रथम हुए और संघके अधिपति बना दिये गये।
मुनि-संघ आचार्य भद्रबाहुके साथ दक्षिणकी ओर चला गया, जहां सुभिक्ष था। वहाँ मुनि लोग विभिन्न गणनायकोंके नेतृत्वमें आचार्य महाराजकी आज्ञासे विभिन्न स्थानोंमें चले गये। भद्रबाहु और विशाखाचार्य ( इनका नाम कहीं-कहीं प्रभाचन्द्र भी मिलता है ) कटबप्र पर्वत (श्रवणबेलगोलाका चन्द्रागिरि ) पर ठहर गये और एक गुफामें-जिसे आजकल भद्रबाहु गुफा कहते हैं-विशाखाचार्य अपने गुरुकी सेवा करते रहे । आचार्य भद्रबाहुका समाधिमरण यहीं हुआ।
. जब उत्तर भारतमें दुभिक्ष समाप्त हो गया तो विशाखाचार्य संघ सहित मध्यदेश लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि मध्यदेशमें जो साधु दुभिक्षके समय रह गये थे वे वस्त्र धारण करने लगे तथा मनि-आचारके विरुद्ध आचरण करने लगे हैं। आचार्यने उन मनियोंसे इस प्रकारका मुनि-मार्ग-विरुद्ध आचरण करनेका कारण पूछा। तब उन मुनियोंने अकालजन्य वे परिस्थितियाँ बतायों, जिनसे बाध्य होकर उन्हें मुनि-मार्गके विरुद्ध आचरण करना पड़ा। आचार्यने सुनकर कहा-अब स्थिति बदल गयी है। तुमलोग वस्त्र छोड़कर पुनः मुनि-धमका चारित्र पालन करो। आचार्यके उपदेशसे उनमें से अनेक मुनियोंने वस्त्र त्यागकर प्रायश्चित्त लिया। किन्तु जो मुनि शिथिलाचारके अभ्यस्त हो गये थे, उन्होंने वस्त्रका त्याग करना स्वीकार नहीं किया। वे वस्त्र पहनते रहे और अपने शिथिलाचारको जैन परम्परासम्मत सिद्ध करनेका प्रयत्न भी करते रहे। शिथिलाचारसे उत्पन्न हुई यह परम्परा बादको श्वेताम्बर सम्प्रदाय हुआ तथा तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित मूल परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय कहलाने लगा।
इस प्रकार जैन संघके इस दुर्भाग्यपूर्ण विभाजनमें उज्जयिनीका प्रमुख हाथ रहा है।
उज्जयिनी अन्य अनेक पौराणिक घटनाओंकी केन्द्र रही है। मुनि विष्णुकुमारके प्रसिद्ध कथानकसे सम्बन्धित बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि नामक चारों मन्त्री उज्जयिनी नरेश श्रीधर्माके राज्यमन्त्री थे । एक दिन अकम्पनाचार्य अपने विशाल संघके साथ उज्जयिनीके उद्यानमें ठहरे । राजा चारों मन्त्रियोंके साथ राजमहलकी छतपर बैठा हुआ था। उसने देखा, नगरवासी विशाल संख्यामें उद्यानकी ओर जा रहे हैं। पूछनेपर बलि बोला-"राजन् ! राजोद्यानमें कुछ नंगे साधु आये हैं । उन्हींके दर्शनोंके लिए ये नागरिक जा रहे हैं।" राजाने कहा-"फिर तो हमें भी उन साधुओंके दर्शनोंके लिए चलना चाहिए।" वह पूजाकी सामग्री लेकर चलनेको उद्यत हुआ १. हरिषेण कथाकोष-कथा १३९ देवसेन कृत भावसंग्रह। आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया-वी. स्मिथ,
पृष्ठ ७५-७६ ।
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२५४
भारतके दिगम्बर जैन तीर्य तो बलि आदिने राजाको रोकनेका बहुत प्रयत्न किया। किन्तु राजाने उनकी बात स्वीकार नहीं की और वह मुनियोंके दर्शनाथं गया। मन्त्रियोंको भी साथमें जाना पड़ा किन्तु उन्होंने राजासे एक शर्त रखी कि हम उन नग्न साधुओंसे वाद-विवाद करके उन्हें पराजित करेंगे। राजाने उनकी यह शर्त स्वीकार कर ली।
आचार्य अकम्पनने ध्यानयोगसे परिस्थिति जान ली और फिर विचार करके संघस्थ सब साधुओंको मौन रखनेका आदेश दे दिया। किन्तु श्रुतसागर नामक एक मुनिको इस आदेशका परिज्ञान नहीं था। वे उस समय चर्याके लिए नगरमें गये हुए थे।
जब राजा मन्त्रियोंके साथ मुनियोंके निकट पहुंचा तो राजाने मुनियोंकी भक्तिपूर्वक वन्दना की। किन्तु मुनियोंको मौन देखकर बलि राजासे गर्वपूर्वक बोला-"देखा महाराज! मेरे भयके कारण इन्होंने मौन रखना ही श्रेयस्कर समझा।" राजाने बलिकी इस गर्वोक्तिकी उपेक्षा कर दी। जब राजा और मन्त्री नगरको वापस लौट रहे थे तो मार्गमें उन्हें श्रुतसागर मुनि आते हुए मिले । उन्हें देखकर बलि बोला-"महाराज, देखिए, शृंग-पुच्छहीन एक नग्न वृषभ सामनेसे आ रहा है।" श्रुतसागर मुनिने बलिकी इस असभ्य उक्तिको सुन लिया। वे बोले-"भद्र ! तुम कहाँसे आ रहे हो?" बलि बोला-"तू तो बड़ा ज्ञानी है। इतना भी नहीं जानता, मैं कहाँसे आ रहा है।" मनि बोले-"मैं जानता है, तुम नगरसे आ रहे हो, किन्तु मैं पूछ रहा है, तुम नरक से, निगोद से, तिथंच गति से कहां से इस जन्ममें आये हो ?" बेचारा बलि क्या बताता । वह बोला"यह तो कोई नहीं बता सकता।" मुनि बोले-"मैं जानता हूँ तुम्हारे भवान्तर । तुम इसी नगरमें मनुष्य हुए थे। क्रोधके कारण नरकमें गये। वहाँसे निकलकर तुम हिरण हुए। एक व्याधने बाणसे तुम्हें मार दिया, तब तुम देवकी माता और देव पितासे बलि नामक पुत्र हुए और इस राजाके मन्त्री बने।" राजा मुनिसे बलिके भवान्तर सुनकर अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ और उन्हें नमस्कार करके मन्त्रियोंके साथ चल दिया।
__ श्रुतसागर मुनि वाद जोतकर अपने गुरु अकम्पनाचार्यके पास आये और उन्हें सारी घटना सुना दी। सुनकर गुरुने आज्ञा दी-"वत्स ! तुम संघ छोड़कर अन्यत्र एकान्तमें कायोत्सर्ग करो, जिससे संघपर कोई संकट न आवे।" गुरुकी आज्ञासे श्रुतसागर मुनि नगरके निकट एकान्त स्थानमें ध्यान लगाकर खड़े हो गये। रात्रिमें वे चारों मन्त्री श्रुतसागर मुनिको मारनेकी इच्छासे आये और मार्गमें ही खड़े हुए मुनिको देखकर अपने अपमानका बदला लेनेके लिए भयंकर क्रोधमें चारोंने एक साथ मुनिके ऊपर तलवारका प्रहार किया। किन्तु देवताने उन चारोंको वहीं कील दिया। सारी रात वे मुनि-निन्दक इसी अवस्थामें खड़े रहे। सूर्योदय होनेपर जब लोगोंने यह भयानक दृश्य देखा तो उन्होंने इसकी सूचना राजाको दी। राजा अविलम्ब वहां आया। असंख्य जनमेदिनी वहां एकत्रित हो गयी। तब आकाशस्थित देवी राजासे बोली-"मेरे वासस्थानमें ध्यानमग्न इन मुनिको हत्या करनेका प्रयत्न करनेवाले इन दुष्टोंका वध मैं अब तुम्हारे ही समक्ष करूंगी।" राजा हाथ जोड़कर बोला-"देवी ! मेरे कहनेसे आप इन नराधमोंको छोड़कर मुझे इनका न्याय करनेका अवसर दीजिए।" देवीने राजाके कहनेसे उन पापियोंको मुक्त कर दिया और मुनिको नमस्कार करके अन्तर्धान हो गयी। राजाने उन चारोंको देशसे निर्वासित कर दिया। राजा और प्रजा मुनिको नमस्कार करके अपने-अपने आवासोंको लौट आये। मुनि भी नियम पूर्ण होनेपर ध्यान समाप्त कर गुरु-चरणोंमें पहुंच गये।
उज्जयिनीसे सम्बन्धित एक अन्य घटना पुराणोंमें इस प्रकार मिलती है
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२५५ उज्जयिनी नरेश तिषेणके पुत्रका नाम चण्डप्रज्ञ था। वह अठारह लिपियोंके वेत्ता उपाध्याय कालसन्दीवसे अध्ययन करता था। उसने सत्रह लिपियां तो सीख लीं। किन्तु अठारहवीं लिपि प्रयत्न करनेपर भी नहीं सीख पाया। एक दिन उपाध्यायने क्रोधमें आकर जोर से लात मारी जो राजकुमारके सिरमें जाकर लगी। राजकुमार क्रुद्ध होकर बोला-"तुमने मेरे सिरमें लात मारी है। जब मैं राजसिंहासनपर बैलूंगा तब तलवारसे तुम्हारे इसी पैरको काटूंगा।" कालसन्दीव बोला-"कुमार, तुम राजा बनोगे और मेरे पैरमें पट्टबन्ध बांधोगे।"
____ कालसन्दीव वहाँसे चला गया और मुनिके मुखसे उपदेश सुनकर उसने मुनि-दीक्षा ले ली। कुछ ही कालमें वे समस्त सिद्धान्तके पारगामी विद्वान् हो गये। राजा धृतिषेणने भी चण्डप्रज्ञका राजतिलक करके मुनि-दीक्षा ले ली।
एक बार एक यवन राजाने चण्डप्रज्ञ नरेशको यवन भाषामें पत्र भेजा, राजा इसी एक लिपिको नहीं जानता था, यहां तक कि उज्जयिनी नगर-भरमें इस लिपिका ज्ञाता कोई नहीं था। यद्यपि राजाने लेख पढ़कर उसका अर्थ तो निकाल लिया, किन्तु सामन्तोंको आदेश दिया, “तुम लोग जाओ और जहां भी मेरे गुरु कालसन्दीव मिलें, उन्हें आदरसहित यहाँ ले आओ।" सामन्त सब दिशाओंमें राज-गरुको ढूंढने निकले। उन्हें राज-गरु विन्यातटपर ध्यानलीन मिले। उन्हें देखकर सामन्तोंने निवेदन किया, "प्रभो! हम राजाकी आज्ञासे आपको लेने आये हैं। जबतक आप वहां नहीं पधारेंगे, तबतकके लिए राजाने ताम्बूलादिका त्याग कर दिया है। इसलिए आप हमारे साथ अवश्य चलिए। सामन्तोंकी प्रार्थना सुनकर कालसन्दीव उनके साथ चल दिये।
जब मुनि कालसन्दीव चण्डप्रज्ञके महलोंमें पहुंचे तो राजाने हाथ जोड़कर उनकी वन्दना की, स्वयं आसन बिछाकर उसपर गुरुको बैठाया, उनके चरणोंका प्रक्षालन किया, उनके चरणोंपर सुगन्धका लेप किया और शंख-भेरी आदि वाद्योंके तुमुल नादके बीच गुरुके दोनों चरणोंमें अष्टापदयुक्त पट्टबन्ध बांधा । पुष्प आदिसे गुरु-चरणोंकी पूजा करके प्रणिपात किया और दोनों हाथ जोड़कर गुरुसे प्रार्थना की, "भगवन् ! मुझे भवोदधि पार करानेवाली जिन-दीक्षा देनेकी कृपा करें।" गुरुने उसको प्रार्थना स्वीकार करके राजाको मुनि-दीक्षा दे दी।
दीक्षा लेकर मुनि चण्डप्रज्ञ घोर तप करने लगे। तपके प्रभावसे उनका शरीर कुन्द धवल हो गया। इससे गुरुने उनका नाम श्वेतसन्दीव रख दिया। गुरु-शिष्य दोनों एक बार राजगृह गये। उस समय विपुलाचलपर भगवान् महावीरका समवसरण आया हुआ था। दोनों भगवान्के दर्शन करने समवसरण पहुंचे। श्वेतसन्दीवको देखकर महाराज श्रेणिकने उनसे पूछा-"नाथ ! आपने किनसे दीक्षा ली है ? यह सुनकर मुनि श्वेतसन्दीव अपने गुरुका नाम न ले सके और बोले-"मेरे गुरु तो भगवान् महावीर हैं।" इस गुरु-
निव-जैसे भयानक पापके कारण उनका चन्द्रोज्ज्वल शरीर बुझे हुए अंगारके समान हो गया। राजा श्रेणिकको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने गौतम स्वामीसे इसका कारण पूछा तो गौतम स्वामी बोले-"यह मुनि लज्जावश अपने गुरुका नाम नहीं ले सका और असत्य वचन बोला, जिससे इसका श्वेत शरीर कृष्ण हो गया।" श्वेतसन्दीवने यह सुना तो वे अपने गुरुके चरणोंमें पहुंचे और अपना अपराध निवेदन किया। गुरुने उन्हें प्रायश्चित्त दिया। प्रायश्चित्त द्वारा आत्म-शुद्धि करनेसे मुनि श्वेतसन्दीवको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
उज्जयिनीसे सम्बन्धित एक पौराणिक कथा इस प्रकार है-उज्जयिनीमें लकुच नामक राजकुमारने शत्रुपर युद्ध में विजय प्राप्त की। राजाने प्रसन्न होकर उससे वरदान मांगनेके लिए कहा। कुमारने कामचार (इच्छानुसार वर्तन) वर मांगा। राजाने कहा-"तथास्तु !" वर पाकर
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ राजकुमार उच्छृखल हो गया। वह पंगुल श्रेष्ठोकी पत्नीसे प्रेम करने लगा। एक बार दोनों नन्दन वनमें विहार करने गये। वहां धर्मसेन मुनिसे उपदेश सुनकर लकुचने मुनि-दीक्षा ले ली।
एक समय लकुच मुनि विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे और महाकाल वनमें कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानारूढ़ हो गये। पंगुल श्रेष्ठीने उन्हें देखा तो पूर्व वैरके कारण उसका शरीर क्रोधसे कांपने लगा। उसने गर्म लोह शलाकाओंसे मुनिके सारे शरीरको जला डाला, किन्तु मुनि ध्यानमें निश्चल रहे। धर्मध्यानमें उनका मरण हो गया और उनको देवगति प्राप्त हुई।
इसी नगरीमें हार चुरानेके अपराधमें दृढ़सूर्य चोरको फांसीका दण्ड मिला। जब उसे फांसी दी जा रही थी तो जिनालयको जाते हुए धनदत्त श्रेष्ठीको देखकर चोरने तृषाकुल होकर पानी मांगा। श्रेष्ठीने कहा-"जबतक मैं पानी लाता हूँ, तबतक तू इस मन्त्रका जाप कर।" यों कहकर श्रेष्ठीने उसे णमोकार मन्त्र सुनाया। श्रेष्ठी जबतक जल लाया, तृषाके कारण चोरके प्राण निकल गये, किन्तु णमोकार मन्त्रके जाप्यके कारण वह कल्पवासी देव हुआ।
राजाको जब ज्ञात हुआ कि धनदत्त श्रेष्ठीने फांसीका दण्ड पाये हुए अपराधीको जल पिलाया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने श्रेष्ठीका घर और सम्पत्ति लूटनेकी आज्ञा दे दी। देवने अवधिज्ञानसे यह घटना जानकर आये हुए सैनिकोंको संज्ञाहीन कर दिया। तब राजा बहुत बड़ी सेना लेकर वहां आया। दृढ़सूर्य देवने उस सेनाको भी अचेतन कर दिया। राजा भयके कारण भागा और जिनालयमें दर्शन करते हुए धनदत्त श्रेष्ठीको शरणमें जा पहुंचा और रक्षा करनेको प्रार्थना करने लगा। तभी वह देव भी वहां आ गया। धनदत्त श्रेष्ठीके कहनेपर देवने राजाको मुक्त कर दिया। राजाने तत्काल जिनसेन मुनिके पास जाकर मुनि दीक्षा ले ली । देव भी स्वर्ण-पुष्पोंसे उनकी पूजा करके चला गया। .
एक अन्य कथा इस प्रकार है-उज्जयिनीके राजा वृषभदत्तके राज्यमें गुणपाल नामक श्रेष्ठी था। उसकी सेठानीका नाम गुणश्री था। उन दोनोंके विषा नामक एक सुन्दर कन्या थी। इसी नगरमें श्रीदत्त नामक एक सार्थवाह था। उसकी स्त्री श्रीमतीसे सोमदत्त पुत्र हुआ। किन्तु जब वह माताके गर्भमें था, तब तो उसके पिताको मृत्यु हो गयी और जब उसका जन्म हुआ तो उसकी माताकी मृत्यु हो गयी। उस सद्यःजात अभागे बालकका उसके कुटुम्बीजनोंने पालन किया। किन्तु ज्यों-ज्यों उस बालककी अवस्था बढ़ती गयो, त्यों-त्यों कुल और सम्पत्तिका क्षय होता गया। अब वह निराश्रय अनाथ बालक गुणपाल श्रेष्ठीके द्वारपर खड़ा रहता और जो जूठन फेंकी जाती, उससे अपना पेट मरता।
एक दिन दो मुनि वहाँसे निकले। शुभलक्षणोंसे युक्त इस बालकको देखकर छोटे मुनि बोले-"आर्य, इस बालकके लक्षण तो राजाओं जैसे हैं किन्तु भाग्यकी केसी बिडम्बना है कि यह जूठन खाता फिर रहा है।" बड़े मुनि अवधिज्ञानी थे। वे बोले-"आयुष्मन् ! यह बालक जिस सेठकी जूठन खा रहा है, एक दिन यही बालक उस सेठको सम्पत्तिका स्वामी होगा।"
गुणपाल श्रेष्ठीने मुनियोंकी वार्ता सुन लो और सोचने लगा-"यह हतभाग्य अनाथ बालक, मेरी इस अगाध सम्पत्तिका स्वामी बनेगा, फिर मेरे पूत्रका क्या होगा?" इसलिए इसको मार देना चाहिए। उसने निश्चय करके एक चाण्डालको बुलाया और उस बालकको एकान्तमें मारनेके लिए उससे सौदा किया। चाण्डाल बालकको सिप्राके एकान्त तटपर ले गया, किन्तु जब वह उसे मारनेको तैयार हुआ, उसके क्रूर हृदयमें भी बालकके प्रति दया उमड़ पड़ी और उसे वहीं छोड़कर चला आया। उसने श्रेष्ठीसे कह दिया कि बालकका बध कर दिया है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२५७ बालक नदीका जल पीकर और जंगलके फल खाकर एक वृक्षकी छायामें सो गया। तभी गोविन्द गोपाल उधरसे निकला। उसने एक सुलक्षण बालकको वृक्षके नीचे सोता देखा। वह बालकको देखकर अपने घर पहुंचा और उसे अपनी पत्नी घनश्रोको दे दिया। वह निस्सन्तान थी। एक सुन्दर बालकको पाकर वह बड़ो हर्षित हुई। अब बालक सोमदतका लालन-पालन प्रेमपूर्वक होने लगा। उसे दूध-घीकी अब कोई कमी नहीं थी। धीरे-धीरे बालक युवक हो गया।
गुणपाल श्रेष्ठीका गोविन्द गोपालके साथ व्यवहार था। एक दिन गुणपाल गोविन्दके घर पहुँचा। उसने घरमें एक रूपवान् युवकको देखा। उसे देखते ही श्रेष्ठीने पहचान लिया। उसे निश्चय हो गया कि चाण्डालने उसे धोखा दिया है। श्रेष्ठीने गोपालसे पूछा-"यह सुदर्शन युवक कौन है ?" गोपाल बोला-"यह मेरा पुत्र है।" श्रेष्ठी पुत्रकी प्रशंसा करता हुआ बोला"गोविन्द ! अपने पुत्रको मेरे घर भेज दे। मुझे अत्यन्त आवश्यक कार्य आ पड़ा है, अन्यथा मेरी बड़ी क्षति हो जायेगी। मुझे अभी ग्रामान्तर जाना है।" गोविन्दने स्वीकार कर लिया और पुत्रको वस्त्राभूषण पहनाकर भेज दिया। श्रेष्ठीने चलते समय उसे मुद्रांकित पत्र दे दिया।
सोमदत्त वहांसे चल दिया। जब वह उज्जयिनीके बाहर वनमें पहुंचा तो वह बहुत थक गया था। वह विश्राम करनेके लिए एक वक्षके नीचे लेट गया। लेटते हो उसे नींद आ गयी। तभी वसन्ततिलका गणिका वन-विहारके लिए वहां आयी। उसने एक रूपवान् युवकको वृक्ष तले सोता हुआ देखा । उसे देखते ही वह उसके ऊपर मोहित हो गयी। तभी उसकी दृष्टि युवकके गलेपर बंधे हुए पत्रपर पड़ी। उसने चुपके-से पत्र खोल लिया और कुतूहलवश उसे पढ़ने लगी। पत्र पढ़ते ही वह एकदम चौंकी। पत्रमें लिखा था-"प्रिये ! जबतक मैं घर लौटूं, उससे पूर्व ही पत्रवाहकको विष दे देना।" वसन्ततिलका पत्रसे सारो स्थिति समझ गयी। उसने अपने नेत्रोंके काजलकी सहायतासे उस लेखमें इस प्रकार संशोधन कर दिया। "प्रिये, जबतक मैं घर लौटू तबतक लेखवाहकके साथ मेरी पुत्री विषाका विवाह कर देना।" वसन्तमालाने पत्र पुनः मुद्रांकित करके पूर्ववत् युवकके गलेमें बांध दिया।
___सोमदत्त उठा और उज्जयिनीमें गुणपाल श्रेष्ठीके घर पहुंचा। वहां उसे गुणपालका पुत्र महाबल मिला। सोमदत्तने मुद्रांकित पत्र उसे दे दिया। उसने पत्र पढ़ा। पढ़ते ही वह अत्यन्त हर्षित हुआ। उसने जाकर यह समाचार अपनो माताको सुनाया। सारे घरमें हर्षका वातावरण बन गया। सोमदत्तका हार्दिक स्वागत-सत्कार हुआ। महाबलने उसी दिन सोमदत्तके साथ अपनी बहन विषाका विवाह कर दिया। उसने दहेज में अपार धन-राशि और माल दिया। जब वर-वधू विवाह मण्डपमें बैठे हुए थे, तभी धूल-धूसरित गुणपाल श्रेष्ठी आ पहुंचा। उसने यह अकल्प्य दृश्य देखा तो उसे मर्मान्तक वेदना हई। वह भीतरी कक्षमें जाकर शय्यापर हताश होकर लेट गया। महाबल उसके पास आया और पिताको शोकाकुल देखकर कहने लगा-"पूज्य ! आपकी आज्ञानुसार मैंने बहन विषाका विवाह सोमदत्तके साथ करनेका आयोजन किया है। आप उदास क्यों हैं?" श्रेष्ठी उष्ण निश्वास फेंकते हए बोला-"तने मेरी अनुपस्थितिमें विषाका विवाह भी कर दिया ? तूने मेरे आनेकी भी प्रतीक्षा नहीं की?" महाबलने वह लेख लाकर पिताको देकर कहाआप अपने लेखको पढ़िए। मैंने तो उसीके अनुसार यह कार्य किया है।" श्रेष्ठी माथा ठोककर रह गया। विवाह सानन्द सम्पन्न हो गया। १. अहं गृहं न यावच्च समायामि नितम्बिनि । तावद्विषं प्रदातव्यं लेखवाहाय सत्वरम् ॥ २. अहं गहं न यावच्च समायामि नितम्बिनि । तावद्विषा प्रदातव्या लेखवाहाय मत्सुता॥
-हरिषेण कथाकोष-कथा ७२ ३-३३
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भारतके दिगम्बर जन तीर्य किन्तु श्रेष्ठी हार माननेवाला प्राणी नहीं था। उसने एकान्तमें अपनी पत्नीसे परामर्श करके एक नवीन योजना बनायी। उसने सन्ध्याके समय धूप-पुष्पादि सामग्रीसे सज्जित थाल देते हुए सोमदत्तसे कहा-"कुल-परम्परासे हमारे यहाँ विवाहके बाद नाग-पूजाकी रीति चली आयी है। तुम यह सामग्री लेकर नागमन्दिर चले जाओ।" सरलहृदय सोमदत्त पूजाका थाल लेकर चला । मार्गमें उसका साला महाबल मिल गया। उसे जब पता चला कि सोमदत्त अकेले ही नागमन्दिर जा रहे हैं तो उसे पिताका यह कार्य बड़ा अरुचिकर लगा और सोमदत्तसे थाल लेकर महाबल नागमन्दिरको चल दिया। - श्रेष्ठीने एक बधिकको नागमन्दिर में पहलेसे ही छिपा दिया था। उसे आदेश था कि सन्ध्याके समय जो व्यक्ति पूजाका थाल लेकर आवे, उसे तुम तलवार द्वारा मार देना। महाबलने ज्यों ही नाग-मन्दिरमें प्रवेश किया, प्रतीक्षारत बधिकने एक ही प्रहारमें उसके शरीरके दो खण्ड कर दिये।
सोमदत्त घर पहुंचा। उसे जीवित देखकर गुणपाल बड़े आश्चर्यके साथ पूछने लगा"क्यों, तुम नागमन्दिर गये नहीं ?" सोमदत्त बोला-"आर्य, मैं नागमन्दिर जा रहा था। मार्गमें महाबल मिल गये । वे मुझसे जबरदस्ती थाल लेकर मन्दिर चले गये।" यह सुनते ही श्रेष्ठी वहांसे एक पलका भी विलम्ब किये बिना नागमन्दिरकी ओर भागा। उसे जिस दुर्घटनाकी आशंका थी, वही उसे अपनी आंखोंसे देखनी पड़ी। उसका एकमात्र पुत्र महाबल दो खण्डोंमें मृत पड़ा हुआ था। मन्दिरकी देव-भूमि रक्तस्नात थी। भवितव्य होकर ही रहती है। वह दुर्बुद्धि अपनी पुत्रीका सुहाग मिटाने चला था किन्तु उसके पापोंकी झंझावातने उसीके कुल दीपकको बुझा दिया। _____ आश्चर्य है, इतनी बड़ी दुर्घटनासे भी उसकी हियेकी गांठ न खुल सकी। उसके सिरपर प्रतिशोधका भयंकर पिशाच चढ़ा हुआ था। उसने अपनो स्त्रीसे कहा-"सोमदत्त मेरा जामाता नहीं, शत्रु है। इसे जल्दीसे जल्दी विष देकर समाप्त कर दो।" स्त्रीने बड़े जतनसे मोदक बनाये। उनमें सुगन्धि और नाना भांतिके मेवा पड़े हुए थे। इनके साथ हलाहल विष भी मिश्रित था। - गुणश्री मोदक बनाकर पड़ोसमें कहीं चली गयी और अपनी पुत्रीसे कहती गयी-"बेटी ! मैंने जामाताके लिए ये मोदक तैयार किये हैं । तू अपने हाथसे उन्हें खिला देना।" तभी गुणपाल आ गया और पुत्रोसे बोला-"बेटो, मुझे राजाने बुलाया है। कुछ खानेको हो तो ले आ। पता नहीं, वहां कितना समय लग जाये।" पुत्रोने वे ही मोदक लाकर पिताको परोस दिये। श्रेष्ठी शीघ्रताके कारण ध्यान नहीं दे सका अथवा उसे ज्ञान नहीं था। वह उन मोदकोंको खा गया। खाते ही उसका प्राणान्त हो गया । गुणश्री पड़ोसके मकानमें बैठी हुई रुदनके शब्दकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसके कानोंमें करुण विलापका स्वर पहुंचा। वह मनमें हर्ष सँजोये त्वरित गतिसे घर पहुंची। किन्तु जिसके मरणके लिए नाना उपाय किये गये थे, वह सोमदत्त श्वसुरके निधनपर आँसू बहा रहा था और मरण-योजनाओंका सूत्रधार मृत पड़ा था। श्रेष्ठिनी पछाड़ खाकर गिर पड़ी और विलाप करती हुई एक-एक कर उन क्रूर चालोंका बखान करने लगी जो दम्पतिने सोमदत्तकी हत्याके लिए चली थीं। अन्तमें अपनो पुत्रो और जामातासे क्षमा याचना करते हुए उसने विष-मिश्रित मोदक खा लिया, जिससे उसके भी प्राण-पखेरू उड़ गये। .
राजाने सारी घटनाएं सुनी तो वह सोमदत्तके सौभाग्यकी सराहना करने लगा। उसने अपनी पुत्रोका विवाह उसके साथ कर दिया और आधा राज्य भी दे दिया।
अन्तमें सोमदत्तने मुनि-दीक्षा ले ली और तप करके सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२५९ .... यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि सोमदत्त पूर्वभवमें मृगसेन धीवर था। किन्हीं मुनिसे उसने नियम लिया था कि वह जालमें फंसी हुई पहली मछलीको छोड़ दिया करेगा। अगले दिन जब वह जाल लेकर सिप्रा नदीपर गया तो उसने जालमें फंसी पहली मछलीको अपने व्रतके अनुसार जलमें छोड़ दिया और पहचानके लिए उसने मछलीके गलेमें एक धागा बांध दिया। उसने दुबारा जाल डाला तो फिर वही मछली आ गयी। उसने उसे फिर छोड़ दिया। इस प्रकार वही मछली चार बार जालमें आयी और उसने चारों ही बार उसे छोड़ दिया। उस दिन फिर कोई और मछली जालमें नहीं आयी । जब वह घर पहुंचा तो उसकी स्त्री घण्टाने मछली न लानेपर उस
उसे बहत बरा-भला कहा और घरसे निकाल दिया। बेचारा मगसेन उस शिशिर ऋतु में एक शून्यागारमें जाकर लेट गया। वहां उसे साँपने काट लिया और मर गया। उसकी स्त्री घण्टा भी उसे ढूँढ़ती हुई आयी। अपने पतिको मरा हुआ देखकर उसने भी प्रतिज्ञा की कि जो नियम मेरे पतिका था, वह मैं भी लेती हूँ। फिर उसने साँपके बिलमें हाथ डाल दिया। सांपने उसे भी काट लिया और वह भी शान्त भावोंसे मरी। दोनों मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। वहाँसे आयु पूरी होनेपर मृगसेनका जीव सोमदत्त हुआ और घण्टाका जीव विषा हुआ। सोमदत्तने चार बार मछलीपर दया करके उसे छोड़ दिया था। उसीका फल यह हआ कि उसकी हत्याका चार बार प्रयत्न किया गया, किन्तु फिर भी वह बच गया। ... उज्जयिनी नगरीसे सम्बन्धित एक यह कथा भी उल्लेखनीय है-मणिपति नामक एक राजाने मुनि-दीक्षा लेकर घोर तप किया। एक बार विहार करते हुए वे उज्जयिनीके श्मशानमें पहुंचे और वहाँ शयनप्रतिमासे स्थित हो गये। कृष्ण-पक्षकी चतुर्दशीकी अंधियारी रात थी । एक कापालिक वैताल विद्या-सिद्धिके लिए तीन मुरदोंकी तलाश करता हुआ वहाँ आया। उसने देखा एक मुरदा पड़ा हुआ है। वह दो और मुरदे ढूँढ़कर घसीट लाया और उन तीनोंके सिरोंको मिलाकर उसने चूल्हा बनाया तथा आग जला दी। आगमें मुनिका शरीर जलने लगा। इससे उनका सिर हिल गया । सिरको हिलते हुए देखकर कापालिक भयभीत होकर भाग गया। दूसरे दिन प्रातः
ल किसी व्यक्तिने अर्द्धदग्ध मुनिको देखा। वह नगरमें गया और धार्मिक श्रावक जिनदत्तको अर्द्धदग्ध मुनिके सम्बन्धमें समाचार दिया। जिनदत्त धर्मवात्सल्यके कारण त्वरित गतिसे श्मशान पहुंचा और वहांसे मुनिको अपने घर ले आया और किसीसे लक्षपाक तेल लाकर मुनिका उससे उपचार किया। कुछ ही दिनोंमें मुनिका शरीर स्वर्ण-जैसा हो गया। चातुर्मास प्रारम्भ हो रहा था, अतः उन्होंने जिनदत्तकी प्रार्थनापर उसीके चैत्यालयमें चातुर्मास करना स्वीकार कर लिया। ... एक दिन जिनदत्तने मुनि महाराजवाले प्रकोष्ठमें जमीन खोदकर उसमें मणिरत्नोंसे भरा हुआ एक ताम्रकुम्भ दबा किया। कुम्भ जमीनमें गाड़ते हुए जिनदत्तके पुत्र कुबेरदत्तने देख लिया। वह अत्यन्त दुर्व्यसनी था। किसी दिन अवसर पाकर कुबेरदत्तने वह कुम्भ निकाल लिया। मुनि महाराजने कुम्भ गाड़ते हुए भी देखा था और कुम्भ निकालते हुए भी देखा किन्तु मुनिराज इस
से उदासीन रहे।
____चातुर्मास समाप्तिके बाद मुनिराजने वहाँसे विहार कर दिया। उनके जानेके बाद जिनदत्तने भूमि खोदी, किन्तु वहाँ कुम्भ न पाकर वह चिन्तित हो उठा। उसका सन्देह मुनिके ऊपर गया। उसने अपने स्त्री-पुत्र आदिको भेजकर पुनः मुनिराजको किसी बहानेसे बुला लिया और नाना कथोपकथनों द्वारा अपना सन्देह उनके ऊपर व्यक्त किया। मुनिराज भी उसी प्रकार कथाओं द्वारा उसका सन्देह दूर करनेका प्रयत्न करते रहे।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कुबेरदत्त खड़ा-खड़ा दोनोंका यह संवाद सुन रहा था। एक वीतराग मुनिके ऊपर ऐसा जघन्य आक्षेप होता हआ देखकर कुबेरदत्तको अन्तरात्मा उसे धिक्कारने लगी-"अधम! यह सब तेरे कुकृत्योंका भीषण परिणाम है ।" वह गया और ताम्रकुम्भ लाकर बोला, "कुम्भ मैंने चुराया था। वीतराग निर्ग्रन्थ मुनिपर दोष लगाना अनुचित है।" फिर उसने मुनिराजके चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगा। रोते-रोते बोला-"भगवन् ! मैं महापापी हूँ, सप्तव्यसनी हूँ। आप मुझे पापसे छुड़ाकर जिन-दीक्षा देनेकी कृपा करें। समस्त परिग्रहका त्याग कर उसने मुनिदीक्षा ले ली, जिनदत्तने भी अपने गुरुतर अपराधको क्षमा याचना करते हुए मुनि-दीक्षा धारण कर ली। ___इसी नगरीमें सेठ सुरेन्द्रदत्त और उसकी पत्नी यशोभद्राके सुकुमाल नामक पुत्र हुआ, जिन्हें अवन्ती सुकुमाल भी कहते हैं। जब सुकुमाल यौवन दशाको प्राप्त हुए, तब पिताने पुत्रको श्रेष्ठो पट्ट बाँधकर दीक्षा ले ली। सुकुमालका विवाह ३२ सुकुमारी कन्याओंके साथ हो गया। इनका काल सुखपूर्वक बीत रहा था। एक दिन एक निमित्तज्ञने श्रेष्ठी सुकुमालका हाथ देखकर कहा, जब ये किसी मुनिके दर्शन करेंगे तो ये भी मुनि बन जायेंगे। इस भविष्यवाणीसे भयभीत होकर माताने अपने घरमें किसी भी मुनिके आनेपर प्रतिबन्ध लगा दिया। उस नगरीके नरेशका नाम प्रद्योत और महारानीका नाम ज्योतिर्माला था।
एक दिन एक व्यापारी आठ रत्नकम्बल लेकर उस नगरीमें बेचने आया। वे सारे रत्नकम्बल सुकुमालकी माताने खरीद लिये और उनके चार-चार भाग करके अपनी पुत्र-वधुओंके लिए उनके जूते बनवा दिये। एक दिन छतपर रखे हुए एक जूतेको मांस-खण्ड समझकर चील ले गयी। उसने आकाशमें जाकर जूता छोड़ दिया जो राजमहलकी छतपर महारानीके पास जाकर गिरा। महारानी उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गयी। आश्चर्य इस बातका था कि जो रत्नकम्बल महारानी नहीं खरीद सकी, किसी नागरिकने वे रत्नकम्बल खरीदकर उनके जूते बनवाये हैं। कौन है वह महाभाग कुबेर! रानीने महाराजसे इस बातकी चर्चा की। महाराजने पता लगाया। महाराजको ज्ञात हुआ कि मेरे नगरमें अवन्ति सुकुमाल ऐसा धनकुबेर है। वे स्वयं सुकुमालके प्रासादमें पहुंचे। वहां सेठ सुकुमालके वैभव और उनकी सुकुमारताको देखकर वे विस्मित रह गये। श्रेष्ठी और महाराज दोनों प्रासादके उद्यान में बनी पुष्करिणीके तटपर भ्रमणके लिए गये। महाराजकी उँगलीसे रत्नमुद्रिका निकलकर जलमें डूब गयी। तत्काल सेवक बुलाये गये। सेवंक गोता लगाकर पुष्करिणीके तलसे हाथोंमें अनेक वस्तुएँ निकालकर ले आये। महाराजने देखा-उन वस्तुओंमें अनेक अंगूठियां और मणिहार थे, जो श्रेष्ठीकी पत्नियोंके होंगे, किन्तु जिन्हें निकालनेकी भी कभी किसोने चिन्ता नहीं की थी। महाराजकी आरती कपूर-दीपोंसे की गयी, जिनके प्रकाशसे सुकुमालकी आंखोंमें आँसू आ गये। राजाके पूछनेपर माताने बताया कि सुकुमालके लिए रलदीपक ही काम आते हैं, दीपक नहीं जलाये जाते। आज दीपक जलाये गये । उनको प्रभाको सुकुमाल सहन नहीं कर सका। इसलिए उसकी आंखोंमें आंसू आ गये।
एक दिन चातुर्मासकी समाप्ति पर मुनिजन प्रज्ञप्तिका पाठ कर रहे थे। उनके पाठ-स्वरसे आकृष्ट होकर सुकुमाल उनके निकट पहुंचा, उनका उपदेश सुना और उनसे यह भी ज्ञात हुआ कि मेरी आयु केवल तीन दिनकी शेष है। इससे सुकुमालने तत्काल मुनि-दीक्षा ले ली। वे महाकाल उद्यानमें एक पीलू वृक्षके नीचे जीवन पर्यन्तके लिए चतुर्विध आहारका त्याग करके ध्यानारूढ़ हो गये-निष्कषाय चित्त, सुमेरुके समान अचल, निष्कम्प !
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२६१ तभी एक शृगालिनी अपने चार बच्चोंके साथ भूखी-प्यासी भटकती हुई उधर आ निकली। सुकुमाल नंगे पैर पैदल आये थे, उसके कारण उनके पैरोंसे रक्त बह रहा था। शृगाली आकर रक्त चाटने लगी, फिर उसने पैर तथा दूसरे अंग खाना प्रारम्भ कर दिया। वह बच्चों सहित तीन दिन तक सुकुमाल मुनिको खाती रही और सुकुमाल मुनि तीन तीन दिन तक आत्म-स्वरूपमें लीन रहकर कर्मोकी निर्जरा करते रहे। आयु पूर्ण होनेपर वे अच्युत स्वर्गके नलिनी गुल्म विमानमें महद्धिक देव हुए।
____ कहते हैं, जिस स्थानपर सुकुमाल मुनिका समाधिमरण हुआ था, वह उज्जयिनीके दक्षिण द्वारसे दिखाई देता है। उस स्थानकी रक्षा कापालिक लोग अब भी करते हैं। सम्पन्न लोग कापालिकोंको अच्छी रकम देकर अपने मृत जनोंका दाह-संस्कार वहीं करते हैं। जब सुकुमाल मुनिका निधन हुआ, उस समय देवोंने सुगन्धित जलकी वर्षा की थी, जिससे वहाँकी नदी गन्धवतो हो गयी थी। उनकी स्त्रियोंने उस समय जो रुदन कर कलकल शब्द किया था, उसके कारण वहांकी देवमूर्तिका नाम ही कलकलेश्वर हो गया था।
एक पौराणिक कथा इस प्रकार भी मिलती है
काकन्दीका राजा अभयघोष एक कछुएको चारों पैर बांधकर और लाठीमें लटकाकर नगरमें लाया। फिर तलवारके एक ही प्रहारसे उसके चारों पैर काट डाले । कछुआ अत्यन्त वेदना पाकर उसी रातमें मर गया और वह राजाका पुत्र चण्डवेग हुआ। एक दिन राजाके मनमें चन्द्रग्रहण देखकर वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने मुनि-दीक्षा ले ली।
___ एक बार मुनि अभयघोष विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे और वीरासनसे ध्यानमग्न हो गये। तभी उनका पुत्र चण्डवेग उधर आ निकला। पूर्वजन्मके वैरके कारण उसे ऐसी दुर्बुद्धि जागृत हुई कि वह मुनिराजके ऊपर उपसर्ग करने लगा और उनके चारों हाथ-पैर काट दिये। मुनिराज इस उपसर्गको समभावसे सहकर आत्म-स्वरूपमें लीन रहे। कुछ ही क्षगोंमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और तभी मोक्ष हो गया।
मुनि अभयघोषके कारण उज्जयिनीको निर्वाण भूमि होनेका भी गौरव प्राप्त हुआ।
इस प्रकार उज्जयिनीमें अनेक पौराणिक और धार्मिक घटनाएं घटित हुई हैं। उनका विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि उज्जयिनीका महाकाल श्मशान अनेक घटनाओंका केन्द्र रहा है। यहाँ अनेक मुनियोंने तपस्या की, अनेक मुनियोंपर उपसर्ग हुए और कई मुनियोंको इस भूमिमें केवलज्ञान और निर्वाणकी प्राप्ति हुई। इसके कारण यह स्थान कल्याणक क्षेत्र भी है और सिद्धक्षेत्र भी है। किन्तु इस स्थानको सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई महावीर भगवान्के ऊपर रुद्र द्वारा किये गये उपसर्गके कारण। तबसे इस स्थानको ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया। भगवान् महावीरके उपसर्गको घटनाको स्मृति बनाये रखनेके लिए वहां एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया गया। वह मन्दिर यहां किस काल तक रहा, वह कब धराशायी हो गया अथवा परिवर्तित कर दिया गया, इसके लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। उज्जयिनीका वैभव
जैन साहित्यमें उज्जयिनीमें घटित होनेवाली घटनाओंके अतिरिक्त इस प्रकारके वर्णन विभिन्न स्थलोंपर उपलब्ध होते हैं, जिनसे उज्जयिनीकी प्राचीनता और उसकी समृद्धिपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। 'आदिपुराण' के अनुसार भगवान् ऋषभदेवकी आज्ञानुसार इन्द्रने भारतवर्षको ५२ जनपदोंमें विभाजित किया था, उनमें एक अवन्ती जनपद भी था। उसकी राजधानी अवन्तिका
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ थी, जो बादमें उज्जयिनीके नामसे प्रसिद्ध हुई। अवन्तिकाका वैभव स्वर्गकी अमरावतीसे तुलनीय था। इसलिए उसका एक नाम अमरावती भी था। : कथाकोष ( मराठी ) में बताया है कि उज्जयिनी नगरी रम्य एवं विशाल जिन-मन्दिरों, राजमार्गों और उत्तुंग प्रासादोंसे परिपूर्ण थी। वहाँके उद्यान आकर्षक थे। वहाँके व्यापारिक पेठों (बाजारों) के कारण दूरदूरके व्यापारी वहां आया करते थे।
महाकवि पुष्पदन्त कृत 'जसहरचरिउ' में लिखा है कि अवन्ति देशमें स्वर्गपुरीके समान उज्जयिनी नगरी है। उस नगरमें मरकत मणियोंको किरणोंसे व्याप्त, हरित पृथ्वीतलमें मूढ़-बुद्धि हाथी घास और मधुरसकी इच्छासे अपनी सूंड चलाते हुए मन्द गमन करते हैं। वहाँके हम्यों में चन्द्रकान्त मणियोंकी प्रभा चमचमाती है। वहाँकी महिलाएं सुशील और पतिपरायणा हैं। वहाँ बड़े-बड़े भवनोंमें रत्नजड़ित क्यारियोंमें सुगन्धित पुष्प सौरभ विकीणं करते रहते हैं। वहाँ कोई उपद्रव नहीं है।
'करकण्डुचरिउ' में उज्जयिनीको धन-धान्यसे अत्यन्त समृद्ध बताया है।
तमिल साहित्यका जैन महाकाव्य 'सिलप्पदिकारम्' आदि संगम कालकी रचना है। उसमें लिखा है कि अवन्तिनरेशने उज्जयिनीमें चोलराजका स्वागत मणिमुक्ताखचित स्वर्णमय तोरणद्वार बनाकर किया था। जिसका शिल्पचातुर्य दर्शनीय था। . अभिनन्दन जिनको सातिशय मति-प्राकृत निर्वाण भक्तिमें 'पासं तह अहिणंदण णायदहि मंगलाउरे वंदे' गाथा द्वारा मंगलापुरके अभिनन्दननाथकी वन्दना की गयी है, जिससे ज्ञात होता है कि यह स्थान अतिशय क्षेत्र रहा है। . मंगलापुरके इसी अभिनन्दननाथ जिनके सम्बन्धमें यति मदनकीतिने 'शासन चतुस्त्रिशिका' में एक अलग पद्य संख्या ३४ द्वारा उल्लेख किया है। उसका आशय यह है• "मालवा देशके मंगलपुर नगरमें म्लेच्छोंके द्वारा, जो अपने प्रभावको फैलाते हुए वहाँ पहुंचे, श्री अभिनन्दन जिनेन्द्रकी मूर्ति जब तोड़ दी गयी तो वह पुनः जुड़ गयी और पूर्ण अवयव विशिष्ट हो गयी । बादमें उसके प्रभावसे नाना उपद्रव दूर हुए। वे प्रभावयुक्त श्री अभिनन्दन प्रभु दिगम्बर शासनको सुदृढ़ करें।" । ___मंगलपुरके इन अभिनन्दन नाथ प्रभुके सम्बन्धमें आचार्य जिनप्रभसूरिने विविधतीर्थकल्पमें अधिक विस्तृत विवरण दिया है । उसका आशय इस प्रकार है
__ "मालव देशमें मंगलपुरके निकट मेदपल्लीमें अभिनन्दन देवका चैत्य था। किसी समय म्लेच्छोंकी सेनाने आकर मन्दिर और बिम्ब दोनों तोड़ दिये। बिम्बके सात या नौ खण्ड हो गये। भीलोंने वे खण्ड एक जगह रख दिये। कोई एक श्रावक धाराड ग्रामसे प्रतिदिन वहाँ आता और अपना माल क्रय-विक्रय करके वापस अपने गांवको चला जाता। वहाँ जाकर वह भगवान्की पूजा करता। देव-पूजा किये बिना वह भोजन भी नहीं करता था। एक दिन वहाँके भीलोंने
१. दी सिलप्पदिकारम्, आक्सफोर्ड प्रेस, पृ. १४४-३२० । २. श्रीमन्मालवदेश मंगलपुरे म्लेच्छः प्रतापागतः
भग्ना मूर्तिरयोभियोजितशिराः संपूर्णतामाययो। यस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेज्नेकप्रभावयुतः
स श्रीमानभिनन्दनः स्थिरयते दिग्वाससां शासनम् ॥३४॥ ३. अन्तिदेशस्य अभिनन्दन-देव-कल्प।
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मध्यप्रदेशके विनम्बर जैन तीर्थ
२६५ उससे पूछा-तुम यहाँ भोजन नहीं करते, घर जाकर करते हो, क्या बात है ? श्रावक बोलाबन्धुवर ! मैं जबतक जिनेन्द्र भगवान्का पूजन देख न लूं या स्वयं पूजन न कर लूं, तबतक भोजन नहीं करता। भील बोले-अगर ये बात है तो हम आपको आपके भगवान् दिखाते हैं। तब वे भील मूर्तिखण्डोंको उठा लाये। श्रावकने उन्हें जोड़कर यथास्थान लगाया और उसके दर्शन किये। फिर वह उनके दर्शन करके वहीं भोजन करने लगा। एक दिन भीलोंने कुछ द्रव्य ऐंठनेके अभिप्रायसे वे मूर्तिखण्ड छिपा दिये । श्रावक बिना दर्शन किये भोजन कैसे करता। उसे इस तरह तीन उपवास करने पड़े। तब भीलोंने कहा-अगर आप हमें गुड़ दें तो हम आपको मूर्ति दिखा सकते हैं। श्रावकने गुड़ बांटना स्वीकार कर लिया। भीलोंने भूति खण्ड जोड़कर बताये । श्रावकने उन्हें खण्डोंको जोड़ते हुए देख लिया। इससे श्रावकके मनमें बड़ा विषाद हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि जबतक इस मूर्तिको मैं अखण्ड नहीं देख लूंगा तबतक मेरे आहारजलका त्याग है। इस तरह उपवास करते हुए उसे कई दिन व्यतीत हो गये, तब उसे स्वप्नमें एक देवने बताया कि चन्दनका लेप करनेपर यह मूर्ति अखण्ड हो जायेगी। प्रातः होनेपर श्रावकने उसी प्रकार किया और वह मूर्ति अखण्ड हो गयी। सब सन्धियां मिल गयीं। तब उसने भक्तिपूर्वक भगवान्की पूजा की और अपना उपवास खोला। उसने हर्षपूर्वक भीलोंको गुड़ बांटा । फिर उसने एक पीपलके वृक्षके नीचे वेदी बनाकर उस मूर्तिकी वहाँ स्थापना कर दी। तबसे लोग देशदेशान्तरोंसे वहाँ दर्शनोंके लिए आने लगे।
प्राग्वाट वंशके थेहके पुत्र हालाकके कोई सन्तान नहीं थी। उसने यहां आकर मनौती मनायो-“यदि मेरे पुत्र उत्पन्न हो जाये तो मैं यहां मन्दिर निर्माण करा दूंगा।" देव-पूजाके पुण्यसे उसके कामदेव नामक पत्र उत्पन्न हो गया। उसने यहाँ शिखरबन्द मन्दिर बनवाया। प्रकार एक भीलने मूर्तिके सामने अपनी अंगुली काटकर चढ़ा दी। भगवान्का चन्दन लगानेपर नयी अंगुली निकल आयी। मालव नरेश जयसिंह देव भगवान्के इन अतिशयोंको सुनकर यहां आया और उसने भगवान्की पूजा की। उसने यहाँके भट्टारकको देव-पूजाके लिए चौबीस हलसे जोतने योग्य भूमि प्रदान की तथा पुजारियोंके लिए बारह हलोंसे जोतने योग्य भूमि दान की।
धर्म धारण किया, अपना संवत्सर चलाया, कई जिनायतन बनवाये। उसके पांच सौ सामन्तोंने भी अपने-अपने नामसे जिनायतन निर्मित कराये। . इन विवरणोंसे ज्ञात होता है कि ईसाकी प्रथम-द्वितीय शताब्दीसे चौदहवीं शताब्दी तक तो मंगलपुरके अभिनन्दननाथकी ख्याति निश्चित रूपसे रही है। किन्तु इसके पश्चात् इस सम्बन्धमें कोई उल्लेख देखनेमें नहीं आया। वर्तमानमें मंगलपुर कहां है और क्या वहां अब भी अभिनन्दन जिनकी वह सातिशय मूर्ति विद्यमान है ? सम्भव है, उज्जयिनीके बाह्य उद्यान में यह मन्दिर और मूर्ति रही होगी।
परवर्ती जैन साहित्यमें उज्जयिनी-ईसाकी पन्द्रहवीं शताब्दीके पश्चात् तीर्थ सम्बन्धी पर्याप्त साहित्य विभिन्न देशी भाषाओंमें लिखा गया है। सोलहवीं शताब्दीके विद्वान् भट्टारक सुमतिसागरने 'तीर्थ-जयमाला' नामक लघु रचनामें उज्जयिनीके 'चिन्तामणि पार्श्वनाथ' की वन्दना की है। उन्होंने इस सम्बन्धमें विशेष विवरण तो नहीं दिया, केवल इतना ही लिखा है'सुचिन्तामणि उज्जैनी धीर'। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके कालमें यहाँपर चिन्तामणि पाश्र्वनाथकी कोई सातिशय प्रतिमा रही होगी, जिसकी मान्यता सुदूर तक होगी। . उन्होंने 'सुशान्ति अवन्तिराम सुधार' इस छन्दांश द्वारा अवन्ति. शान्तिनाथकी भी सूचना दी है । 'अवन्ति शान्तिनाथ' इस नामसे ऐसा ज्ञात होता है कि शान्तिनाथ भगवान्की कोई ऐसी
उसने जैन धर्म धारण किया,
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भारतके दिगम्बर जैन ती मूर्ति थी, जिसकी मान्यता सम्पूर्ण अवन्ति जनपदमें थी और जो अवन्ति देशकी राष्ट्रीय देव-मूर्तिके उच्चासनपर प्रतिष्ठित थी। जिस प्रकार कलिंग देशमें लगभग २२०० वर्ष पूर्व भगवान् ऋषभदेवकी एक मूतिको 'कलिंग जिन' कहा जाता था। उस मूर्तिको कई शताब्दी तक राष्ट्रीय देव-मूर्तिके रूपमें सम्पूर्ण कलिंगवासी अपनी आराध्य मूर्ति मानते रहे। लगता है कि यही ख्याति और स्थिति अवन्ति देशमें अवन्ति शान्तिनाथकी मूर्तिकी भी रही होगी। अवन्ति देशका केन्द्रस्थान होनेके कारण सम्भवतः अवन्ति शान्तिनाथकी यह मूर्ति उज्जयिनीमें ही रही होगी।
भट्टारक सुमतिसागरकी ये दोनों सूचनाएं-चिन्तामणि पाश्वनाथ और अवन्ति शान्तिनाथ-अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों अतिशय सम्पन्न प्रतिमाओंका इतिहास क्या है तथा वर्तमानमें वे कहां हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका।
भट्टारक ज्ञानसागरजी सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दीके विद्वान् हैं। उन्होंने 'सर्वतीर्थवन्दना' लिखी है, जिसमें १०१ छप्पय हैं । इस रचनामें कविने उज्जयिनीके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है
'उज्जैनीपुर सार देश मालव मुखमण्डन । पार्श्वदेव जिनराय पाप मिथ्यामति खण्डन । सिद्धसेन मुनिराय तेन महियल प्रगटायो विक्रम नरपति सार सुद्ध सभक्ति गुण पायो॥ मन-वच-काया सुद्ध करी जिनपद सेवत जगपति ।
अवन्ति पावं जिन वंदिये कहत ज्ञानसागर यति ॥८२।। अर्थात् उज्जयिनीमें पार्श्वनाथ मन्दिर था। आचार्य सिद्धसेनने पाश्वनाथको मूर्ति प्रकटकरके विक्रम नरेशको धर्मनिष्ठ बनाया था। राजाने मन-वचन-कायकी शुद्धिके साथ उस 'अवन्ति पार्श्वनाथ' की पूजा को।
ऐसा प्रतीत होता है, भट्टारक सुमतिसागरके चिन्तामणि पार्श्वनाथ और भट्टारक ज्ञानसागरके अवन्तिपाश्वनाथ दोनों एक ही हैं। सम्भव है, आचार्य सिद्धसेनने पार्श्वनाथको मूर्तिको प्रकट करके जब विक्रमादित्य नरेशको प्रभावित किया और विक्रमादित्य नरेशने श्रद्धा-भक्तिके साथ उस मूर्तिकी पूजा की तो वह मूर्ति सारे देशमें विशेषतः अवन्ति देशमें सर्वसाधारणको श्रद्धाभाजन बन गयी और उसे 'अवन्ति पाश्वनाथ' कहा जाने लगा। पश्चात् इसीका नाम 'चिन्तामणि पाश्वनाथ' हो गया। यदि हमारी यह मान्यता सही हो तो मानना होगा कि ईसाकी चौथी शताब्दीमें इस मूर्तिकी प्रदेशव्यापी प्रतिष्ठा थी। इसके बाद कई शताब्दियों तक यह प्रतिष्ठा बनी रही।
सत्रहवीं शताब्दीके विद्वान् भट्टारक जयसागरने गुजराती मिश्रित हिन्दीमें 'तीर्थ-जयमाला' नामक लघु रचना लिखी है। उसमें कविने उज्जयिनीके 'अवन्ति पाश्वनाथ का वर्णन किया है। यथा 'सुडजेणीय पास अवंतीय धोर।' इससे ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथकी वह विख्यात मूर्ति ही 'अवन्ति पार्श्वनाथ' कहलाती थी।
उन्नीसवीं शताब्दीके भट्टारक ब्रह्महर्षने संस्कृत-हिन्दी मिश्रित भाषामें 'पाश्वनाथ-जयमाला' लिखी है। उसमें एक स्थानपर उन्होंने उज्जयिनीके 'अवन्ति पार्श्वनाथ' को भी वन्दना की है। मूलपाठ इस प्रकार है-'तवनिधि पास अवंति उजेन ।'
___ इन उपयुक्त प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि यहां भगवान् पार्श्वनाथकी एक मूर्तिको लोकमान्यता प्राप्त थी। उसे ही 'अवन्ति पाश्वनाथ' कहा जाता था और उसीका नाम 'चिन्तामणि पाश्वनाथ' था।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भगवान् महावीरके कालमें चण्डप्रद्योत उज्जयिनीका शासक था। एक बार एक चित्रकार कौशाम्बी नरेश शतानीककी पत्नी मृगावतीका चित्र बनाकर लाया। प्रद्योत उस चित्रको देखते ही मृगावती पर मोहित हो गया। उसने शतानीकसे मृगावतीकी याचना की। इसपर दोनोंमें युद्ध हो गया। युद्धके मध्य में किसी रोगसे शतानीकको मृत्यु हो गयी। बादमें मृगावती भगवान् महावीरके पास अजिका बन गयी और प्रद्योतने श्रावकके व्रत लिये। जिस दिन भगवान् महावीरका निर्वाण हुआ उसी दिन उज्जयिनीमें पालकका राज्याभिषेक हुआ।
उज्जयिनी मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तकी उपराजधानी थी। वे वर्षमें कुछ दिन यहां ठहरते थे। पाटलिपुत्र दक्षिण भारतसे बहुत दूर पड़ता था, वहाँ रहकर विशाल साम्राज्यका नियन्त्रण भली प्रकार नहीं हो सकता था। इसलिए उन्होंने उज्जयिनीको अपनी उपराजधानी बनाया था। यहाँ उनके कुमारामात्य उपरिकके रूपमें रहते थे और वे स्वयं भी यहाँ कभी-कभी जाते रहते थे। जब अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु उज्जयिनी पधारे थे, उस समय सम्राट चन्द्रगुप्त यहीं पर थे और लगभग ५० वर्षको अवस्थामें ही उनसे दीक्षा लेकर दक्षिणकी ओर चले गये थे।
__ जब चन्द्रगुप्त सम्राट् थे, उस समय उज्जयिनीमें बिन्दुसार उपरिक थे। जब बिन्दुसार सम्राट् बन गये, उस समय अशोक यहाँके उपरिक बनाये गये। उनके पुत्र महेन्द्रका जन्म यहींपर हआ था। अशोकके राज्यासीन होनेपर कुणाल यहाँके उपरिक बने। यहींपर उनकी आंखें तप्त लोह शलाकाओं द्वारा महारानी तिष्यरक्षिताके कुटिल षड्यन्त्रके फलस्वरूप फोड़ी गयीं। यहींपर सम्प्रतिका जन्म हुआ। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार यहाँ इस कालमें 'चैत्य यात्रा उत्सव' मनानेकी परम्परा थी। यहां एक जैन मन्दिर था, जिसमें जीवन्त स्वामीकी एक प्रतिमा थी। चैत्र मासमें यहाँ एक विशाल उत्सव होता था। उत्सवके अन्तिम दिन रथयात्रा होती थी। इसमें सम्मिलित होनेके लिए दूर-दूरसे जैनाचार्य और जैनसंघ आते थे। सम्प्रतिके कालमें इस उत्सवमें भाग लेनेके लिए पाटलिपुत्रसे आर्य सुहस्ति और आयं महागिरि आये थे। सम्राट् सम्प्रतिने राजभवनके सामने रथके आनेपर जिनेन्द्र-प्रतिमाकी पूजा अष्ट द्रव्यसे की थी। उस रथको श्रावक लोग खींचते थे और रथके चारों ओर श्राविकाएं मंगलगान और जिनेन्द्र-स्तुति करती चलती थीं।
गर्दभिल्ल वंशके राजाओंकी राजधानी उज्जयिनी ही थी। 'कालकाचार्य-कथा' के अनुसार कालकाचार्य ( श्वेताम्बर ) की बहन साध्वी सरस्वतीके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर गर्दभिल्ल उन्हें बलात् अपहरण करके अपने महलोंमें ले गया। कालकाचार्य द्वारा समझानेपर भी जब वह अत्याचारी साध्वीको मुक्त करनेको सहमत नहीं हुआ तो कालकाचार्यने उससे भयंकर प्रतिशोध लिया। उन्होंने शकों द्वारा गर्दभिल्लको उखाड़ फेंका, साध्वीको मुक्त कराया। उज्जयिनीमें शक-राज्य स्थापित हुआ। इन्हीं कालकाचार्यने पyषण पर्व भाद्रपद शुक्ला ४ से प्रचलित किया । गर्दभिल्लके पुत्र विक्रमादित्यने शकोंको हराकर उज्जयिनीको पुनः प्राप्त किया। इसके उपलक्ष्यमें विक्रम संवत् उसने प्रचलित किया। विक्रम संवत् १३५ में शकोंने विक्रमादित्यके वंशजोंको पराजित करके मालवापर पुनः अधिकार कर लिया। उन्होंने भी इस विजयके उपलक्ष्यमें शक संवत्का प्रचलन किया।
__चन्द्रगुप्त द्वितीयको विक्रमादित्य तथा उन्हींके द्वारा विक्रम संवत्के समान शक संवत्के १. परिशिष्ट पर्व ११।२४
३-३४
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ चलाये जानेके सम्बन्धमें भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछका मत है कि ई. सन् ७८ में उज्जयिनीके राजसिंहासनपर शक नरेश चष्टन आसीन हुआ। उसने ही दिग्विजयके बाद शक संवत्का प्रचलन किया था। इस प्रकार विक्रम संवत् और शक संवत् दोनोंके ही प्रचलनका श्रेय उज्जयिनीको है।
___ चन्द्रगुप्त प्रथमके कालमें गुप्तवंशकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्तने वहाँसे हटाकर अयोध्याको अपनी राजधानी बनाया। चन्द्रगुप्त द्वितीयने सत्यसिंहके पुत्र, शक-नरेश रुद्रसिंहको हराकर लगभग सन् ३९५ में उज्जयिनीको अपनी राजधानी बनाया। उस समय तक उज्जयिनी शक नरेशोंकी राजधानी थी। उनके राज्यमें मालवा, कच्छ, सौराष्ट्र, सिन्ध और कोंकणके प्रदेश सम्मिलित थे।
सातवीं शताब्दीमें, शंकराचार्यके कालमें उज्जयिनी नरेश सुधन्वने बौद्धोंके ऊपर भयानक अत्याचार किये और उन्हें भारतसे भागकर दूसरे देशोंमें शरण लेनेको बाध्य किया। उसने जैनोंके ऊपर भी भयंकर अत्याचार किये। किन्तु वह जैनोंको बौद्धोंके समान भगा नहीं सका।
परमार वंशके शासनकालमें उज्जयिनीकी समृद्धि भी बढ़ी और यहां विद्वानोंका सम्मान भी बढ़ा। परमारवंशके राजा वाक्पतिराज मुंज और भोजके कालमें उज्जयिनी विद्वानों और विद्वत्ताका केन्द्र बन गयी थी। राजा भोजके सम्बन्धमें तो यह अनुश्रुति भी प्रचलित है कि वह प्रत्येक नवीन श्लोकपर विद्वान्को एक लाख रुपयेका पुरस्कार देता था और उसके राज्यमें प्रत्येक जातिके लोग संस्कृत भाषा और साहित्यके विद्वान् होते थे। राजा भोज वस्तुतः विद्वानोंका आश्रयदाता था।
परमार वंशके राजाओंकी राजधानी धारा थी। भोजने उज्जयिनीको अपनी राजधानी बनाया। राजा मुंजकी राज्य-सभामें लाडबागड़ संघान्वयी गुणाकरसेनके शिष्य आचार्य महासेनका बड़ा प्रभाव था। मुंजराज तथा सिन्धुराजके मन्त्री पपंटने आपका बड़ा सम्मान किया था। इसी प्रकार माथुर संघान्वयी माधवसेनके शिष्य आचार्य अमितगतिको भी मुंजके दरबार में बड़ा सम्मान मिला। सुभाषित-रत्ल-सन्दोह, वर्धमान नीति, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, तत्त्वभावना, उपासकाचार, द्वात्रिंशिका और आराधना ये आपकी रचनाएं हैं। हलायुध, धनपाल, पद्मगुप्त, धनंजय. आदि अनेक जैन विद्वान् यहां रहते थे।
इसी प्रकार राजा भोजकी सभामें जैनोंको विशेष सम्मान प्राप्त था। उन्होंने प्रभाचन्द्राचार्यका विशेष सम्मान किया था। दिगम्बर जैनाचार्य श्री शान्तिसेनने भोजकी सभामें अनेक विद्वानोंको वाद-विवादमें पराजित किया था। इसी प्रकार चतुर्विंशति प्रबन्धसे ज्ञात होता है कि आचार्य विशालकीतिके शिष्य मदनकीर्तिने परवादियोंपर विजय प्राप्त करके 'महाप्रामाणिक' पदवी प्राप्त की थी। कविश्रेष्ठ धनपालको विशेष सम्मान प्राप्त था।
परमारवंशके अर्जुनवर्म, यशोवर्म, बल्लाल आदि राजाओंने भी इस परम्पराका निर्वाह किया। इस कालमें भी अनेक जैन विद्वानोंको राज्याश्रय मिलता रहा और अनेक कलापूर्ण जैन मन्दिरोंका निर्माण हुआ। देवपाल देवके समयमें इल्तुतमिशने सन् १२३३ में उज्जयिनीपर भयंकर आक्रमण करके कुछ समयके लिए मालवापर अधिकार कर लिया। किन्तु इस अल्पकालमें ही १. कल्पसूत्र भाष्य, मेरुतुंग थेरावली, समयसुन्दर कृत कालकाचार्य कथा। २. माधवाचार्यकृत शंकर-विजय, अध्याय १ और ५ । ३. जैन हितैषी, भाग १, पृ. ४८५ ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जन तीर्थ
२६७ उसने मालवाके इन गगनचुम्बी मन्दिरों और कलापूर्ण मूर्तियोंका भयंकर विनाश कर दिया; धारा, नलकच्छपुर, माण्डव, उज्जयिनी आदिके विशाल ग्रन्थ भण्डार हमामोंमें पानी गरम करनेके लिए जलाये गये। ___इस धर्मोन्मादके परिणामस्वरूप जैन साहित्य और कलाका भयंकर विनाश हुआ। आज जैनकला अवशेषोंके रूपमें मालवाके निम्नलिखित स्थानोंपर बिखरी हुई पड़ी है
___नावली, कालूखेड़ा, कवलाँ, कालाखेत, मोड़ी, भानपुरा, निममूर, ( अभिनव गिरनार) कुकड़ेश्वर, नीमच, खोर, मल्हारगढ़, झारडा, पिपल्या, मन्दसौर, पिपलोद, रिगणोद, रूणिजा, बदनावर, धार, भोपावर, कुक्षी, सुसारो, खट्टीली, राणापुर, नानपुर, भवा , निसरपुर, मनावर, धरमपुरी, धामनोद, माण्डव, नालछा, डिगथान, सागोंद, इन्दौर, हरसोल, काटाफोड़, कन्नोद, नेमावर, ऊन, देवास, नागदा, गोपावर, सोनकच्छ, गन्धावल, मेतवास, सिहोर, आष्टा, उज्जैन, झारड़ा, महतपुर, आलोद, आसामपुरा, कायथा, सुसनेर, लोहारी, सोयत, गोदल, महू, शाजापुर, सुन्दरसी, सारंगपुर, पचोर, कोटरा, बिहार, जामनेर, गुना, बजरंगढ़, देवली, बड़वानी, अंजड़, ओझर, नेवाली, कसरावद, सिद्धवरकूट, महेश्वर, चोली, विदिशा, रायसेन, मण्डीद्वीप, भोजपुर, आसापुर, पठारी, वसोदा, शान्तिखेर आदि।
जैन भट्टारकोंका पट्ट स्थान–गुप्तकालसे उज्जयिनीमें जैन भट्टारकोंका एक सुदृढ़ और व्यवस्थित पीठ-स्थान बना। इस परम्परामें निम्नलिखित दिगम्बराचार्य प्रसिद्ध हुए-(१) महाकीर्ति (सन् ६२९), (२) विष्णुनन्दि (सन् ६४७), (३) श्रीभूषण ( सन् ६६९), (४) श्रीचन्द्र ( सन् ६७८), (५) श्रीनन्दि (सन् ६९२), (६) देशभूषण ( सन् ६९८), (७) अनन्तकीर्ति (सन् ७०८), (८) धर्मनन्दि ( सन् ७२८), (९) विद्यानन्दि (सन् ८५१), (१०) रामचन्द्र (सन् ७८३), (११) रामकीर्ति ( सन् ७९०), (१२) अभयचन्द्र (सन् ८२१), (१३) नरचन्द्र (सन् ८४० ), (१४) नागचन्द्र (सन् ८५९), (१५) हरिनन्दि ( सन् ८८२), (१६) हरिश्चन्द्र ( सन् ८९१), (१७) महीचन्द्र (सन् ९२७), (१८) माषचन्द्र (सन् ९३३), (१९) लक्ष्मीचन्द्र ( सन् ९६६ ), (२०) गुणकीर्ति (सन् ९७० ), (२१) गुणचन्द्र ( सन् ९९१), (२२) लोकचन्द्र ( सन् १००९), (२३) श्रुतकीर्ति (सन् १०२२), (२४) भावचन्द्र ( सन् १०३७ ) और (२५) महीचन्द्र ( सन् १०५८)। .
___इस प्रकार सन् ६२९ से १०५८ तक अर्थात् ४२२ वर्ष तक यहां भट्टारकोंका व्यवस्थित पीठ रहा । मर्करा ताम्रपत्र, ऐहोल शिलालेख आदिसे ज्ञात होता है कि वि. सं. ५२६ में वज्रनन्दिने द्राविड़ संघकी स्थापना की थी। उसके मूलमें परवर्ती कालमें भट्टारक परम्परासे विकसित विशिष्ट आचरण पद्धतियोंके दर्शन होते हैं। इसी प्रकार शक सं. ६३४ में मुनि रविकीर्तिने ऐहोल ग्राममें जो मन्दिर बनवाया, उसके लिए उन्होंने भूमि-दान स्वीकार किया था। दिगम्बर मुनियों द्वारा वस्त्रधारण करनेकी परम्परा, मन्दिरों और मठोंका निर्माण और उनका अपने निवासके लिए उपयोग, उनके लिए भूमि-दानका स्वीकार, वैभवका संग्रह और प्रदर्शन आदि कारणोंसे दिगम्बर सम्प्रदायमें भट्टारक प्रथाको जन्म दिया और उसे व्यवस्थित रूप लेने में पर्याप्त समय लगा। किन्तु हमें लगता है, गुप्तकालसे जैन मुनियोंको जो राज्याश्रय और राजसम्मान प्राप्त हुआ, उसने उज्जयिनीमें गुप्तकालमें ही भट्टारक परम्पराका प्रारम्भ कर दिया और यहाँका भट्टारक पीठ चार
१. वी. एस. वाकणकरके लेखसे साभार उद्धृत । २. जैन हितैषी, भाग ६, अंक ७-८, पृष्ठ २८-३१।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य शताब्दियोंसे भी अधिक समय तक व्यवस्थित ढंगसे चलता रहा। इसके पश्चात् यहाँके पीठ और भट्टारकोंका क्या हुआ, इसका कोई उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया। जैन पुरातत्त्व
मालव भूमि जैन पुरातत्त्वकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है। मालवामें भी निमाड़ क्षेत्र जैन अवशेषोंसे अत्यधिक सम्पन्न है। जब मालवापर आक्रमण होने लगे और वहांके गगनचुम्बी जिनालय धूलि-धूसरित होने लगे, उससे पूर्व ही कई स्थानोंकी प्रतिमाएं अन्य सुरक्षित मन्दिरोंमें भेज दी गयीं। तालनपुरमें मण्डपदुर्गसे आयी कई प्रतिमाएं रखी हैं। किन्तु अधिकांश स्थानोंपर जैन पुरातत्त्व भग्न दशामें मिलता है। इन अवशेषोंमें मन्दिरों और मूर्तियोंके अवशेष सम्मिलित हैं। मूर्तियां खण्डित और अखण्डित दोनों ही प्रकारकी मिलती हैं। कई स्थानोंसे महत्त्वपूर्ण शिलालेख भी उपलब्ध हुए हैं।
उज्जैनके कुछ उत्साही बन्धुओंने जिनमें श्री सत्यन्धरकुमार सेठीका नाम विशेष उल्लेखनीय है-मालवाकी इन बिखरी हुई कलाकृतियोंको एकत्रित करनेका साहस किया और जैसिंहपुरा दिगम्बर जैन मन्दिर उज्जैनमें इन एकत्रित पुरावशेषों और कलाकृतियोंका संकलन करके जैन संग्रहालयका रूप प्रदान किया। अब तक इस संग्रहालयमें ५१ जैन प्रतिमाओंका संग्रह हो चुका है। इस संग्रहमें तीर्थंकरों, यक्ष-यक्षियोंकी पाषाण और धातु प्रतिमाएं, धातुयन्त्र, मन्दिरोंके स्तम्भ, तोरण, अभिलेख आदि सम्मिलित हैं । सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं भी यहाँ हैं। ये सभी प्रतिमाएं ९वीं शताब्दीसे १६वीं शताब्दीके मध्यवर्ती कालकी हैं। यहां परमार काल और उसके उत्तरवर्ती कालकी उत्कृष्ट कलाके दर्शन होते हैं। सभी जैन तीर्थंकरों और जैन शासन-देवियोंकी मूर्तियाँ पृथक या एकत्र यहाँ मिलती हैं। परमारकालीन और उत्तरकालीन जैन कला, इतिहास, पुरातत्त्व और संस्कृतिका अध्ययन करनेके लिए यह एक समृद्ध संग्रहालय कहा जा सकता है।
यहां गोंदलमऊ, बदनावर, गुना, जामनेर, उज्जैन, नागदा, मक्सी, आष्टा, सुन्दरसी, ईसागढ, धार, इन्दर, जवास, इन्दरगढ, गन्धर्वपूरी, अजितखो. नलखेडा, सकरा. उदयपुर, ससनेर. पलसावद, देवास, बीजाबाड़ा, कारछा आदि स्थानोंसे इस सामग्रीका संग्रह किया गया है । लगभग ९६ प्रतिमाओंपर अभिलेख अंकित हैं, जिनसे मूर्तिका निर्माण काल, निर्माता, संघ, गण, गच्छ, प्रतिष्ठाचार्य और भट्टारकों आदिके इतिहासपर प्रकाश पड़ता है।
इस संग्रहालयमें सभी २४ तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएं संयुक्त और स्वतन्त्र विद्यमान हैं, केवल शीतलनाथ, विमलनाथ और मल्लिनाथकी स्वतन्त्र प्रतिमाएं नहीं हैं। जैन शासन देवियोंमें चक्रेश्वरी, महामानसी, रोहिणी, अम्बिका, गोमेधा, निर्वाणी, बहुरूपिणी, सरस्वतीकी मूर्तियां यहांपर विद्यमान हैं। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथकी खण्डित-अखण्डित कुल प्रतिमाओंको संख्या ३७ है। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथकी केवल एक ही प्रतिमा है। पाश्वनाथ और महावीरकी प्रतिमाएं सबसे अधिक हैं । तीर्थकर प्रतिमाएं पद्मासन और कायोत्सर्गासन (खड्गासन) दोनों ही मुद्राओंमें मिलती हैं । किन्तु खड्गासनको अपेक्षा पद्मासन प्रतिमाएं अधिक संख्यामें हैं।
___इस संग्रहालयमें विद्यमान सभी प्रतिमाओंका परिचय देना तो सम्भव नहीं है, किन्तु विशेष प्रतिमाओंका परिचय स्थान-क्रमसे जहाँसे ये प्रतिमाएं लायी गयी हैं-यहाँ दिया जा रहा है। बदनावर
धार जिलेकी एक तहसील है। परमार युगमें यह वर्द्धनापुर नामसे विख्यात था। मूर्तिलेखों, उदयपुर प्रशस्ति एवं मान्धाता ताम्रपत्रमें इसे 'वर्धनापुर प्रतिजागरण' कहा गया है । यह परमार
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
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कालमें एक महत्त्वपूर्ण नगर था । वर्तमानमें यहाँ वैष्णव, शैव और जैन धर्मोके लगभग १२ ध्वस्त मन्दिर हैं । इन अवशेषोंमें असंख्य मूर्तियाँ भग्न और अखण्डित दशामें मिलती हैं । तेरहवीं शताब्दीके मध्यमें आक्रान्ताओंने इन मन्दिरों और मूर्तियों का निर्दयतापूर्वक विध्वंस किया था । धार और उज्जयिनीके परमार शासकोंके कालमें कला, साहित्य और स्थापत्यके क्षेत्रमें इस नगरको भी समृद्धिसम्पन्न बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । इस नगरकी स्थापना सम्भवतः गुप्त युग में हुई थी । वर्तमान किलेसे गुप्तयुगके मृत्पात्र और मृण्मूर्तियाँ ( टेराकोटा ) भी मिली हैं । इसलिए यह कहा जा सकता है कि गुप्त युगसे परमार युग तक यह नगर व्यापारिक केन्द्र रहा होगा ।
बदनावरसे २७ जैन प्रतिमाएँ लाकर इस संग्रहालयमें रखी गयी हैं । इनके अतिरिक्त अभी बदनावर में अनेक जैन प्रतिमाएँ पड़ी हुई हैं। संग्रहालय में स्थित ये प्रतिमाएँ ९वीं शताब्दीसे १४वीं शताब्दी तककी हैं, जैसा कि उनके मूर्तिलेखोंसे प्रकट होता है । इन मूर्तियों का शिल्प अत्यन्त उत्कृष्ट कोटिका है। कुछ मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर संवत् १२१९, १२२८, १२२९, १२३४, १३०८, १३२६ अंकित हैं ।
मूर्ति क्रमांक ११ संगमरमरसे निर्मित एक प्रस्तर खण्ड में महावीर पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित हैं। दो चमरवाहिका दोनों पाश्वोंमें खड़ी हैं । प्रतिमाके शीषंभागके दोनों ओर दो गज तथा अधोभागमें दोनों ओर दो सिंह अत्यन्त कलात्मक बन पड़े हैं ।
मूर्ति क्रमांक १६ – काले पाषाणके १ फुट ३ ॥ इंच ऊँचे और चौड़े शिलाफलकपर चक्रेश्वरी देवीका भव्य अंकन है । देवी गरुड़ासना है और चक्र धारण किये हुए है । देवीके मस्तक भागपर पद्मासनमें ऋषभदेव अंकित हैं । प्रतिमाकी पाद-चौकीपर इस प्रकार लेख अंकित है - "संवत् १३०८ माघ सुदी ९ श्री वागड़ संघ आचार्य श्री कल्याणकीर्ति वन्द्येन वघेरवाल सा - सुत काष्ठासंघ कनक सिरि सुतपामावदा भार्या भागदा द्वितीय भार्या काकु प्रणमति नित्यम् ।"
मूर्ति क्रमांक १८ - लाल पाषाणफलकपर चौबीसी बनी हुई है । मध्यमें भगवान् पद्मासनमें विराजमान हैं, शेष २३ तीर्थंकर खड्गासन मुद्रामें हैं ।
मूर्ति क्रमांक ३७ - तीन जेन यक्षियोंकी मूर्तियाँ हैं जो हिरण, मयूर और हंसपर आसीन हैं । सम्भवतः ये देवियाँ क्रमशः वासुपूज्य भगवान्को यक्षिणी गौरी ( गोमेधकी ), सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथकी यक्षिणी महामातसी ( कन्दर्पा ) और अठारवें तीर्थंकर अरनाथकी यक्षिणी तारावती ( काली ) प्रतीत होती है । तारावतीके अतिरिक्त चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथकी यक्षिणी वज्रशृंखला (दुरितारि ) तथा चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथकी यक्षिणी अनन्तमती (विजृम्भिणी ) भी हंसवाहना होती हैं ।
मूर्ति क्रमांक ५१ - मन्दिरका एक सिरदल है, जिसकी नीचेकी पट्टीपर खड्गासन तीर्थंकर अंकित हैं तथा ऊपरको पट्टीपर हंस पंक्ति, कलश द्वारा अभिषेक करते हुए गज और नृत्यरत युवक-युवती हैं। लोक-जीवनका यह अंकन अत्यन्त कलापूर्ण और मनोहारी है ।
मूर्ति क्रमांक २९ - संगमरमर पाषाणकी १ फुट १० इंच ऊँची और ९ इंच चौड़ी अवगाहनावाली ऋषभदेव प्रतिमा है । पादपीठपर वृषभ लांछन अंकित है । शिरोभागके दोनों ओर गन्धर्व आकाशसे पुष्पवर्षा कर रहे हैं । मूर्तिके दोनों ओर दो चमरवाहिका खड़ी हैं। चरणोंके पास एक भक्त दम्पति करबद्ध खड़े हैं । तीर्थंकर की मुखमुद्रापर असीम सौम्यता और अनन्त करुणाके भाव अंकित हैं। मूर्ति क्रमांक ६१ - पद्मावतीकी मूर्ति । आकार ३ फुट १ इंच x २ फुट १० इंच है। परमारकालीन लिपिमें देवीका नाम सुमेधा अंकित है। देवी वस्त्रालंकारोंसे सज्जित है । कर्णं कुण्डल,
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ गलहार और भुजबन्धका अंकन अत्यन्त सुन्दर है। देवीके शिरोभागपर मध्यमें पार्श्वनाथ और दोनों कोनोंपर चार पद्मासन तीर्थंकर-प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं । अपरके दोनों कोनोंपर किन्नर गज बने हुए हैं। चरण-चौकीपर अभिलेख अंकित हैं। इसमें वर्द्धमान पुरान्वये तथा संवत् १२०२ लिखे हैं। गोंदलमऊ
__मूर्ति क्रमांक ४५-"कृष्ण वर्णकी यह पाश्वनाथ प्रतिमा अत्यन्त भव्य है। सर्प-फण कलापूर्ण है। इसकी अभिलिखित चौकीका लेख इस प्रकार पढ़ा गया है-ओं ह्रीं अदअसी अवुस हयां नमोः। श्री श्रीसेननाथ आचार्येन देया सुतस्य भार्या करमदेवा श्री नन्दी समादेदियन दीसना वीरादिनाथ पीलाचार्यान्वय पद्मप्रभु दैव प्रणमति संवत् ११६० वैशाख सुदी ९ स्थितिकेन।" सुन्दरसी
एक शिलाफलकपर पंचबालयतियोंकी प्रतिमाएं हैं। मध्यवर्ती प्रतिमा खड्गासन है तथा शेष चार प्रतिमाएँ चारों कोनोंपर पद्मासन मुद्रामें स्थित हैं।
यहाँसे प्राप्त एक पाश्वनाथ प्रतिमा ( मूर्ति क्रमांक ९) अति कलापूर्ण है। पाश्वनाथ पद्मासनमें ध्यानमग्न हैं। सिरके ऊपर सप्त-फणावकि है । प्रस्तर मटमैला है। सिरके पृष्ठ भागमें प्रभा-मण्डल बना हुआ है जो अति भव्य लगता है। ऊपरी भागमें किन्नर मृदंग, बाँसुरी, झांझ
और दुन्दुभि लिये हुए नृत्यरत हैं। अधोभागमें चरणोंके पास आराधक युगल करबद्ध बैठा हुआ है । अनुमानतः यह मूर्ति १४वीं शताब्दीकी है। गुना
मति क्रमांक २-शान्तिनाथ भगवान्की खड्गासन प्रतिमा ४ फुट ६ इंच लम्बी और २ फुट ६ इंच चौड़ी एक शिलापर उत्कीर्ण है। मूतिके धुंघराले कुन्तल, स्कन्धचुम्बी कर्ण, आजानुबाहु, श्रीवत्स लांछन और पुष्पाकार प्रभामण्डल कलाके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। शिरोभागमें दोनों ओर दो गज कलश लिये अभिषेकरत हैं। उनसे ऊपर दो नभचारी गन्धर्व पुष्पहार लिये हुए अंकित हैं। ऊपर दोनों कोनोंमें दो ध्यानमग्न तीर्थंकर विराजमान हैं। दायें-बायें दो चमरधारिणी
जासीन हैं। चरणतलमें दो परिचारिकाएं कलश लिये हए खड़ी हैं। अधोभागमें दोनों कोनोंमें दो सिंह आसनके प्रतीक हैं। उनके मध्य भागमें हिरण लांछनके रूपमें अंकित है। परमारकालीन कलाका चरम विकास इस मूर्तिमें परिलक्षित होता है। इसलिए इस मूर्तिको सुन्दरतम कलाकृतियोंमें माना जाता है।
मूर्ति क्रमांक ७-यह मूर्ति भी पंचबालयति प्रतिमा है। मध्यमें कायोत्सर्गासनमें एक तीर्थंकर खड़े हुए हैं तथा चार तीर्थंकर पद्मासनमें आसीन हैं। शिरोभागमें वीणा लिये हुए किन्नर दिखाई पड़ते हैं। अधोभागमें दोनों पार्यों में दो भक्त करबद्ध मुद्रामें खड़े हैं।
___ मूर्ति क्रमांक ९२-भगवान् पाश्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है। मस्तकके ऊपर सर्पफण है। उसके ऊपर छत्र हैं। मस्तकके पीछे भामण्डल है। छत्रोंके दोनों पाश्वोंमें दो पद्मासन प्रतिमाएं हैं। राजपुरुषोचित परिधान धारण किये हुए चमरेन्द्र खड़े हैं। नीचे यक्ष-यक्षी हैं । यह संग्रहालयकी सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा है। सुसनेर .
मूर्ति क्रमांक ३३-एक सलेटी पाषाणपर अभिलिखित तीर्थंकर प्रतिमा है। लेख इस प्रकार है
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
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"रगणो श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वयेन उक्ताचार्य श्री गुणचन्द्र तस्य देवमंडलाचार्य श्री जिनवद्दत्तरपदे मंडलाचार्यं श्री सकलचन्द्र तद्गुरु मातृच्छविराचार्य श्री हेमकीर्ति गुरूपदेशात् जे सव ।” गुप्तकालीन मानस्तम्भ - यहाँ चार मानस्तम्भोंके शीर्ष-भाग अथवा चैत्य हैं | ये अजीत-खो, गुना, इन्दरगढ़ और ईसागढ़से लाये गये हैं । ये चारों गुप्तकालीन माने जाते हैं। इनमें चारों दिशाओं में पद्मासन मुद्रामें चार ध्यानस्थ तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं । ये शैली आदिमें उदयगिरिमें प्राप्त रामगुप्तके अभिलेखवाली प्रतिमाओंसे साम्य रखती हैं ।
यहाँ कुछ ऐसी देवी प्रतिमाएँ भी विद्यमान हैं, जिनके नीचे देवियोंके नाम प्रायः सुननेमें नहीं आये । जैसे मूर्ति क्रमांक १५६ में चार जैन देवियाँ बालक लिये हुए हैं। उनके नीचे उनके नाम दिये गये हैं - १. देवीदामी, २. रसादगुणदेवी, ३. विभारवती और ४. त्रिसलादेवी । मूर्ति क्रमांक १४१ में एक शिलाफलक में ६ देवियाँ उत्कीर्ण हैं। उनके नाम इस प्रकार दिये हैं- वारिदेवी, सिमिदेवी, उमादेवी, सुवयदेवी, वर्षादेवी और सवाईदेवी ।
इसी प्रकार एक ताम्रयन्त्र पर सहस्र किरणवाला सूर्य अंकित है । उसपर ६४ जैन शासन देवियोंके नाम उत्कीर्णं हैं जिनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं- जयंकरी, विद्या, सौभारी, चन्दा, काराही, मुण्डधारिणी, भैरवी, चक्राणी, क्रुधी, उमुंखी, प्रेतवासिनी, कटकी, मलिनि, वाकाली, यक्षमा, विरूपाक्षा, निशाचरी, कालरानी, प्रेतसी, जिनेश्वरी, सिद्धयोगिनी, विकटा, दुर्घटी, व्याघ्रा, विशाखा, भक्षिणी, कुण्डला, कंकाली, धूर्तेश्वरी, चर्चरी आदि ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जेसिंहपुरा जैन मन्दिरमें स्थित यह जेन पुरातत्त्व संग्रहालय परमार कालीन जैन पुरातत्त्व सामग्रीकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है । परमार युगको जैन पुरातत्त्व सामग्री इतने प्रचुर परिमाणमें और इतनी महत्त्वपूर्ण अन्यत्र दुर्लभ है। परमार कालकी कला, पुरातत्त्व और इतिहासका अध्ययन करनेके लिए यह विशेष और नानाविध उपादानोंसे सम्पन्न है । इस संग्रहके लिए इसके संयोजक विशेष धन्यवादके पात्र हैं । विक्रम विश्वविद्यालय पुरातत्व संग्रहालय में संग्रहीत जैन सामग्री
इस संग्रहालय में उज्जैन जिले तथा उसके आसपाससे प्राप्त जैन सामग्री संग्रहीत की गयी है । इस सामग्रीमें प्रायः अभिलिखित तीर्थंकर मूर्तियां, शासन देवियोंकी मूर्तियां, पाषाण-स्तम्भ आदि हैं । यह सम्पूर्ण सामग्री परमार काल या उसके उत्तरवर्ती कालकी है । परमार कालका समस्त कला वैशिष्ट्य, शैली और शिल्प आदि इनमें दृष्टिगोचर होते हैं । यहाँ ऐसी कुछ मूर्तियोंका परिचय दिया जा रहा है
१. भग्न तीर्थंकर प्रतिमा - इस प्रतिमाका मुख तथा उसके ऊपरका ही भाग अवशिष्ट है । मुख-मुद्रा अत्यन्त सौम्य है । ध्यानावस्थित तीर्थंकरके मुखपर मन्द स्मितिकी झलक है । केश घुंघराले हैं । कर्णं स्कन्धचुम्बी और नेत्र अर्धोन्मीलित हैं । मुखके दोनों पार्श्वोपर गन्धर्व दम्पति 'नृत्य मुद्रामें अंकित हैं। यह भक्ति नृत्य अत्यन्त भावपूर्ण है । ऊपरी भागमें ऐरावत के ऊपर इन्द्र आसीन हैं। गजराजका एक पैर ऊपर उठा हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि वे भगवान्का अभिवादन कर रहे हैं । प्रतिमाका जितना भाग अवशिष्ट है, उससे ही प्रतीत होता है कि यह अति भव्य मूर्तियों में से एक है ।
२. पार्श्वनाथ प्रतिमा - काले पाषाणकी यह प्रतिमा सम्भवतः संग्रहालयकी सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा है। प्रतिमाके वक्षपर श्रीवत्स चिह्न अंकित है । मूलतः यह प्रतिमा दिगम्बर सम्प्रदायकी रही होगी, जैसा कि उसके चरण- पीठ पर अभिलिखित लेखसे ज्ञात होता है कि वह मूलसंघान्वयी
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ भट्टारक विशालकीर्तिदेव, उनके शिष्य शुभ कीर्तिदेव, उनके शिष्य आचार्य धर्मभूषणदेव....आचार्य सागरचन्द्र उनके शिष्य रत्नकीर्तिदेवने इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी। मूर्ति-लेख इस प्रकार है
"संवत १२२३ माघ सुदी ७ भौम श्री मलसंघ भदारक श्री विशालकीर्तिदेव तस्य शिष्य श्री शुभकीर्तिदेव....आचार्य श्री सागरचन्द्र तस्य शिष्य रत्लकीर्ति श्री मेड़तवालान्वये साह भोगा भार्या सावित्री पुत्र माखिल भार्या विल्ह पुत्र परम भार्या पद्मावति व्याप्त विणी पुत्र....प्रणमति नित्यम्।"
___ इस लेखके अनुसार इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा संवत् १२२३ माघ सुदी ७ मंगलवारको मूलसंघके भट्रारक रत्नकीर्तिने करायी थी। अतः यह प्रतिमा दिगम्बर आम्नायकी है।
३. तीर्थंकर प्रतिमा-१२वीं शताब्दीकी पद्मासनमें स्थित एक तीर्थंकर प्रतिमा ओखलेश्वर (उज्जैन) के निकट क्षिप्रा नदीमें-से निकालकर यहां लायी गयी। यह मटमैले पाषाणकी है।
___४. ऋषभदेव प्रतिमा-यह प्रतिमा भग्न है तथा इसका केवल अधोभाग है। यह पद्मासन मुद्रामें है । इसके पादपीठपर वृषभका लांछन अंकित है। इस प्रतिमाका निर्माण-काल संवत् १२९९ है। मूर्ति-लेख इस प्रकार है
" "संवत् १२९९ चैत्र सुदी ६ शनी आचार्य श्री सागरचन्द्र श्री खण्डेलवालान्वये सा० भरहा भार्या गौरी प्रणमति नित्यं ।"
५. तीर्थंकरकी मृणमूर्ति-कायथा ग्रामसे उपलब्ध तीर्थकरकी ४ इंच अवगाहनावाली इस मृण्मूर्तिका निर्माण-काल ईसाको ४थी या ५वीं शताब्दी माना जाता है। सिरपर उष्णीषयुक्त केश हैं।
यहां कुछ जैन प्रतिमाएं १५वीं शताब्दीके उत्तरकालकी हैं जिनमें दो प्रतिमाएं पीत वर्णकी, तीन प्रतिमाएँ श्वेत वर्णको तथा दो प्रतिमाएं कृष्ण वर्णकी हैं। ये सभी प्रतिमाएँ श्वेताम्बर आम्नायकी मानी जाती हैं।
६. अष्टभुजी चक्रेश्वरी देवी-चक्रेश्वरी देवीकी यह प्रतिमा गरुड़के ऊपर आसीन है । गरुड़को मानवाकारमें प्रदर्शित किया गया है । वह अपने हाथोंको ऊपर उठाये हुए हैं। देवी पद्मासन मुद्रामें है। उसकी अष्ट भुजाएं हैं, जिनमें पांच भुजाएँ भग्न हैं। दो हाथोंमें चक्र और एक हाथमें वज्र लिये हुए हैं। देवीके मस्तकके ऊपर तीर्थंकरकी पद्मासन प्रतिमा है। एक वृक्षका भी अंकन किया गया है। उसकी शाखाओंपर दो वानर किलोल करते हुए प्रदर्शित हैं। ऊपर दोनों पार्यों में आकाशचारी गन्धर्व दम्पती है। पीठासनमें दो स्त्री-पुरुष देवीकी पूजा करते हुए बैठे हैं। मध्य भागमें नवग्रहोंका भव्य अंकन किया गया है।
७. पाषाण-स्तम्भ-यहां तीन स्तम्भ भी संग्रहीत हैं। ये उज्जैनसे प्राप्त हुए हैं। एक स्तम्भमें खड्गासन मुद्रामें पार्श्वनाथकी मूर्ति है। उनके दोनों पार्यों में दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ ध्यानमुद्रामें पद्मासनसे आसीन हैं। यह प्रतिमा ११वीं शताब्दीकी प्रतीत होती है।
___ दूसरे स्तम्भमें दो ओर पद्मासन मुद्रामें १२ तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। प्रतिमाएँ प्रायः ३ इंच अवगाहनाकी हैं। स्तम्भके दो भाग खण्डित हैं। सम्भवतः उन दोनों भागोंमें भी १२ तीर्थंकर प्रतिमाएं रही होंगी।
तीसरे स्तम्भमें पद्मासन मुद्रामें ध्यानमग्न तीर्थंकर प्रतिमा है। प्रतिमाके आसपास छोटेछोटे स्तम्भोंकी आकृति बनी हुई है।
जैन मन्दिरों में विराजमान प्राचीन प्रतिमाएं____ जयसिंहपुराके दिगम्बर जैन मन्दिर में भूगर्भसे प्राप्त कुछ जैन प्रतिमाएं रखी हुई हैं। ये सभी प्रतिमाएं अखण्डित हैं, कलापूर्ण हैं। इनका काल भी ११वीं-१२वीं शताब्दी है। ये प्रतिमाएँ परमारोंके शासन कालमें निर्मित हुई थीं।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
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फुट ऊँचे एक स्तूपाकार पाषाण स्तम्भमें अत्यन्त सुन्दर चतुर्मुखी चौबीसी है । चतुर्मुखी या सर्वतोभद्रका प्रतिमाएँ बहुत से स्थानोंपर मिलती हैं । उनमें प्रत्येक दिशामें एक खड्गासन अथवा पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा होती है । किन्तु प्रत्येक दिशामें चौत्रीस तीर्थंकरोंवाली चतुर्मुखी चौबीसी प्रायः देखनेमें नहीं आती । अतः इस प्रतिमाको विरल एवं अद्भुत प्रतिमाओं में स्थान दिया जा सकता है ।
एक पाषाणफलक २ फुट ऊँचा तथा २ फुट ३ इंच चौड़ा है । उसके ऊपर २४ तीर्थंकर मूर्तियां बनी हुई हैं।
२ फुट ९ इंच ऊँचे और २ फुट ३ इंच चौड़े लकड़ीके एक चौकोर कुण्डाकार फ्रेममें पीतलकी छोटी-छोटी प्रतिमाएँ छोटी-छोटी प्रतिमाकार कुलिकाओं में रखी हुई हैं। चारों दिशाओं में ५४ -५४ प्रतिमाएँ हैं । इनमें कुछ प्रतिमाएँ नहीं हैं। यह रचना भी अपनेमें अद्भुत है ।
यहाँ साधु परमेष्ठीकी स्वतन्त्र प्रतिमाएँ देखने में आयीं । १ फुट ९ इंच ऊंचे एक शिलाफलक में कृष्णवणं नग्न साधुमूर्तियाँ हैं । ये खड़ी मुद्रामें हैं । बायें हाथमें कमण्डलु है तथा दायें हाथमें माला और पीछी है । ऊपर छत्र शोभित हैं ।
बदनावर
मार्ग और अवस्थिति
बदनावर मध्यप्रदेश के धार जिलेमें एक प्राचीन कसबा है । यह इन्दोरसे ९० कि. मी. दूर मह-नीमच रोडपर बलवन्ती नदीके किनारे बसा हुआ है। इस नदीके कारण इस नगरके दो भाग हो गये हैं । उत्तरी भागको खेड़ा कहते हैं । यह सड़क द्वारा दक्षिणमें धार से, उत्तर-पश्चिममें रतलामसे जुड़ा हुआ है तथा पश्चिम रेलवेके बड़नगर स्टेशनसे ( अजमेर - खण्डवा रेल मार्गपर ) प्रायः १८ कि. मी. दूर है । ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे सिद्ध होता है कि इस नगरकी स्थापना गुप्त कालमें हुई थी।
जैन कला केन्द्र
मध्यकालीन शिलालेखोंमें इस नगरके वर्धनपुर, वर्धनापुर, वर्धमानपुर नाम भी प्राप्त होते हैं । बुधनावर नाम भी मिलता है जो अपभ्रंश नाम है । यहाँ खुदाईमें अनेक मूर्तियाँ तथा पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध हुई हैं । यहाँपर जो मूर्तियां मिली हैं, वे प्रायः सभी परमार कालकी हैं और वे वि. सं. १२०२ से १३३६ तक की हैं । नगरमें और नगरके बाहर चारों ओर पुरातत्त्व सामग्री और पुरावशेष विपुल परिमाणमें बिखरे पड़े हैं । इससे इस नगर के विगत वैभवपर प्रकाश पड़ता है ।
मुगलकाल में यहाँ सूबेदारका महल बना हुआ था। आइने अकबरीके अनुसार यहाँ उस समय एक किला भी बना हुआ था। उसके अवशेष अब भी हैं। इस स्थानसे गुप्तकालीन मृत्पात्र और मृण्मूर्ति प्राप्त हुई हैं, जो इस नगरको प्रमाणित करते हैं ।
मध्य कालमें यहाँ अनेक मन्दिर बने हुए थे । उनमें से दो विशेष उल्लेखनीय हैं - ( १ ) बेजनाथ महादेव और ( २ ) नागेश्वर महादेव ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
बेजनाथ महादेव - यह मन्दिर कसबेके पश्चिमी सिरेपर है। इसकी ऊँचाई ६० फुट है । इसके बाहरी भागमें स्तम्भोंपर आधारित अर्धमण्डप है । मन्दिरके मध्यमें अर्धपट्टपर शिवलिंग विराजमान है । इस मन्दिरके सामने सड़ककी दूसरी ओर प्राचीन स्थापत्यावशेष बहुसंख्या में बिखरे हुए हैं। कुछ वर्ष पूर्वं इस मन्दिरकी मरम्मत की गयी थी। संभवतः उस समय कुछ हिन्दू ओर जैन मूर्तियोंको मन्दिरकी चहारदीवारीकी पूर्वी दोवारमें बड़े भोंडे ढंगसे जड़ दिया गया । इस मन्दिरको ध्यानपूर्वक देखने और उसके चारों ओर बिखरे हुए जैन पुरावशेषोंको ध्यान में रखने पर कोई भी निष्पक्ष विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँचे बिना नहीं रहेगा कि उपर्युक्त शिव मन्दिर मूलत: जेन मन्दिर था । जैन मन्दिरोंको परिवर्तित करके हिन्दू मन्दिर बना लेनेके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । यहीं निकट ही मन्दसौर जिलेके कोहड़ी नामक ग्राममें राम मन्दिर ठेठ जैन वास्तुशिल्प शैली में बना हुआ है और वहां विराजमान देवताका नाम भी 'जैन भंजन राम' है जिससे विश्वास होता है कि वह मन्दिर मूलतः जैन मन्दिर था । उक्त शिव मन्दिरके सम्बन्ध में भी यही सन्देह उत्पन्न होता है। इस प्रकारके प्रमाण उपलब्ध हैं कि हिन्दुओंने इस प्रान्तमें जैन मूर्तियों और मन्दिरोंका व्यापक विनाश किया। इस विनाशको एक पर्वका रूप दे दिया गया । इसकी स्मृति बनाये रखनेके लिए वे लोग 'जेन भंजन दिवस' मनाते थे, जो जेन मन्दिर और मूर्तियां उन्होंने परिवर्तित करके अपने धर्मंकी बना लीं; उनका नाम भी उन्होंने 'जैन भंजन राम, जैन भंजन महादेव' रखे जो अब भी प्रचलित हैं ।
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इस मन्दिरके द्वारवर्ती एक खम्भेके ऊपर दस पंक्तियोंका एक शिलालेख उत्कीर्ण है । यह शिलालेख ११ इंच लम्बा और ७ इंच चोड़ा है । इस शिलालेखके ऊपर इस बुरी तरहसे सफेदी की गयी है कि उसे पढ़ना कठिन है । बहुत प्रयत्नोंके पश्चात् केवल वि. सं. १६९२ पढ़ा जा सका । मन्दिरकी रचना शैली और स्थापत्य कलाको देखनेपर प्रतीत होता है कि मन्दिर १२ - १३वीं शताब्दीका बना हुआ है । अतः स्तम्भपर शिलालेख बादमें उत्कीर्ण किया गया, ऐसा लगता है ।
नागेश्वर मन्दिर - दूसरे मन्दिरका नाम नागेश्वर महादेव है जो कसबेके उत्तर-पश्चिममें पहले मन्दिरसे लगभग २ कि. मी. दूर है। इसमें भी महादेवका लिंग विराजमान है । यह एक Marathi free बना हुआ है । यही यहाँका मुख्य मन्दिर कहलाता है । इसके आसपास और भी कई छोटे-मोटे मन्दिर बने हुए हैं। इसके शिखर जगन्नाथपुरी और भुवनेश्वर मन्दिर के शिखर - जैसे हैं । शिखरोंके ऊपर आमलक या चूड़ामणि नहीं है ।
यहाँ चारों ओर खण्डित और अखण्डित मूर्तियां, स्तम्भ, तोरण आदि स्थापत्य सामग्री बिखरी हुई है । पश्चात्कालीन मन्दिरों और बावड़ीके निर्माणमें इस पुरातन सामग्रीका स्वतन्त्रतासे उपयोग किया गया है । यहाँ तीन शिलालेख या मूर्तिलेख भी हैं। एक शिलालेख मुख्य मन्दिर में है तथा दो मूर्तियों के पादपीठपर मूर्तिलेख हैं । किन्तु इनपर चूना-सफेदी गहरी पोत दी गयी है, जिससे वे पढ़े नहीं जाते ।
यहाँ की परिस्थितिका सूक्ष्म अध्ययन करनेपर ऐसा लगता है कि बदनावर मुख्यतः जैन का केन्द्र रहा है और इसने शताब्दियों तक समृद्धि और उत्कर्षका भोग किया है । यहाँ भूगर्भसे उत्खनन में जैन मूर्तियां और महत्त्वपूर्ण जेन पुरातात्त्विक सामग्री निकली है । यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यहां जो भी प्राचीन जेनेतर मन्दिर आज विद्यमान हैं, वे मूलत: जैन मन्दिर रहे हैं। इसी प्रकार जो जैनेतर मन्दिर १६-१७वीं या उसके बादके शताब्दी के बने हुए हैं, प्रायः ध्वस्त जैन मन्दिरोंकी सामग्रीसे निर्मित किये गये हैं ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ पुरातत्त्व सामग्री ___एक बार एक किसानको दिनांक १४-६-१९५० को हल जोतते हुए श्वेत पाषाणको ५८ जैन मूर्तियां मिलीं। प्रायः सभी मूर्तियां खण्डित हैं। इन मूर्तियोंके सम्बन्धमें ज्ञातव्य-यथा परिचय, प्रतिष्ठाकाल, मन्दिरका स्थान और नाम और उनका विनाश आदि यहां दिया जा रहा है। यह सम्पूर्ण जानकारी मूर्ति-लेखोंसे संकलित की जा सकती है। ये मूर्तियां जैन संग्रहालय उज्जैन या स्थानीय जैन मन्दिरमें सुरक्षित हैं।
मूर्तियोंका परिचय-(१) तीर्थंकर मूर्ति, आसन और छत्र सहित अवगाहना ३ फुट १ इंच है। हथेलियों और पैरोंपर कमल तथा छातीपर श्रीवत्स अंकित है। पादपीठपर सिंहका लांछन बना हुआ है । अतः यह प्रतिमा अन्तिम तीर्थंकर महावीरकी है।
(२) तीन तीर्थंकर मूर्तियां, जो पद्मासन मुद्रामें अवस्थित हैं, वे सभी २ फुट ऊंची हैं। एकके पादपीठपर वृषभ लांछन है, अतः वह ऋषभदेवकी मूर्ति है। दूसरीके आसनपर मगरका चिह्न बना हुआ है, अतः वह पुष्पदन्त भगवान्की मूर्ति है। तीसरी मूर्तिकी चरण-चौकी खण्डित है, अतः चिह्न न होनेके कारण यह कहना कठिन है कि यह मूर्ति किस तीर्थकरकी है।
(३) यह १३ मूर्तियोंका समूह है । मूर्तियोंके अधोभाग तो आसनके साथ हैं किन्तु उपरिमभाग नदारद हैं। कोई मूर्ति गरदनसे खण्डित है, कोई छाती से। पांचं मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर कमल, वृषभ, कलश, मगर और बन्दरके लांछन अंकित हैं। अतः ये क्रमशः पद्मप्रभ, ऋषभदेव, मल्लिनाथ, पुष्पदन्त और अभिनन्दननाथकी मूर्तियाँ हैं।
(४) एक शिला-फलकपर तीर्थकर माताके १६ मंगल स्वप्न अंकित हैं । स्वप्नोंकी १६ संख्यासे ज्ञात होता है कि ये मूर्तियाँ और मन्दिर दिगम्बर परम्परासे सम्बन्धित थे क्योंकि श्वेताम्बर परम्परामें तीर्थंकर-माताको १४ स्वप्न आनेकी मान्यता है।
इनके अतिरिक्त शेष सभी प्रतिमाएं खण्डित हैं अर्थात् सर्वांग सम्पूर्ण नहीं हैं । काल-निर्णय
___ मूर्तियोंकी सभी चरण-चौकियां अभिलिखित हैं। किसी अभिलेखमें ३ पंक्तियाँ हैं और किसीमें ४ पंक्तियाँ हैं। कुछ मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर वि. संवत् १३०८ की माघ शुक्ला ९ रविवार यह प्रतिष्ठा-काल दिया है तथा प्रतिष्ठाचार्यका नाम आचार्य कल्याणकीर्ति दिया है। लगता है, इन सभी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा एक ही प्रतिष्ठा महोत्सवमें सम्पन्न हुई थी। सम्भवतः आचार्य कल्याणकीर्ति उज्जयिनीके भट्टारकपीठके भट्टारक थे।
कुछ मूर्तियोंके अभिलेख इस प्रकार हैं'संवत् १२१९ ज्येष्ठ सुदी ५ बुधे आचार्य कुमारसेन चन्द्रकीर्ति वर्धमान पुरान्वये।' . चतुर्भुजनाथके चबूतरेपर जड़ी जैन प्रतिमाके नीचे इस प्रकार लेख है
'संवत् १२२८ वर्षे फाल्गुन सुदि १श्रीमाथुरसंघे पंडिताचार्य श्री धर्मकीर्ति तस्य शिष्य आचार्य ललितकीर्ति
अगले जैन मन्दिरमें एक प्रतिमापर लेख इस भांति है
'संवत् १२३४ वर्षे माघ सुदि ५ बुधे श्रीमन्माथुरसंघे पंडिताचार्य धर्मकीर्ति शिष्य ललितकोति वर्धमानपुरान्वये सी. प्रामदेव भार्या प्राहिणी सुत राणूसाः दिगमसाः का साः जादंड साः राणू भार्या भाणिक सुत महण किजकुले बाल साः महुण भार्या रोहिणी प्रणमति नित्यं ।' ..
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कुछ मूर्ति-लेख इस प्रकार हैं
'संवत् १२१६ चैत्र सुदी ५ बुधे रामचन्द्र प्रणमति वर्धमानपुरान्वये सा. सुभोदित सुत बाला सीपा भार्या राया सुत बिल्ला भार्या वायणि प्रणमति ।'
'संवत् १२२९ वैशाख वदी ९ शुक्रे अहंदास वर्धनापुरे श्री शान्तिनाथचैत्ये सा. श्री सलन सा. गोक्षल भा. ब्रह्मादि भा. बड़देवादि कुटुम्बसहितेन निजगोत्रदेव्या श्री अच्छुप्ताः प्रतिकृतिः कारिता श्री कुलचन्द्रोपाध्यायः प्रतिष्ठिता।'
___ 'संवत् १३०८ वर्षे माघ सुदी ९ श्री वर्धनापुरान्वये पंडित रतनु भार्या साधु सुत साइगभार्या कोड़े पुत्र सा. असिभार्या होन्तु नित्यं प्रणमति ।'
'संवत् १२१६ ज्येष्ठ सुदी ५ बुधे आचार्य कुमारसेन चन्द्रकीर्ति वर्धमानपुरान्वये साधु वाहिब्वः सुत माल्हा भार्या पाणु सुत पील्हा भार्या पाहुणी, प्रणमति नित्यं ।' ____ 'संवत् १२३० माघ शुक्ला १३ श्री मूलसंघे आचार्य भट्टाराम नागयाने भार्या जमनी सुत साधु, सवहा तस्य भार्या रतना प्रणमति नित्यं धांधा बीलू बाल्ही साधू ।'
संवत् ११८२ माघ शुक्ला ९ हरा दिनैश्च अद्येह वर्द्धनपुरे श्री सियापुर वास्तव्य पुत्र सलन दे० आ०...सेवा प्रणमति नित्यम् ।'
इस प्रकार इन मूर्तिलेखोंसे ज्ञात होता है कि यहांकी अधिकांश जैन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा १२वीं-१३वीं शताब्दीमें हुई थी। इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा परमार कालमें हुई थी, किन्तु किसी भी मूर्तिलेखमें तत्कालीन नरेशका नामोल्लेख नहीं मिलता। किन्तु मूर्तिलेखोंमें उल्लिखित कालके द्वारा परमारवंशके तत्कालीन राजाओंका नाम ज्ञात किया जा सकता है। बदनावरकी मूर्तियोंके पाठपीठपर वि. सं. १२०२, १२०५, १२१९, १२२८, १२२९, १२३४, १३०८ और १४१५ मिलते हैं । परमार नरेशोंमें मुंज, भोज, उदयादित्य, विन्ध्यवर्मा, सुभटवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल जैतुगिदेव ( जयसिंह द्वितीय) ये नरेश बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। इन राजाओंके कालमें इनकी उदारता और कला प्रेमके कारण साहित्य और कलाको बड़ा प्रोत्साहन मिला। ये राजा जैन धर्मानुयायी न होते हुए भी जैन धर्मके प्रति उदार थे। अर्जुनवर्माका भाद्रपद सुदी १५ बुधवार संवत् १२७२ का एक दानपत्र मिला है जिसके अन्तमें लिखा है-'रचितमिदं महासान्धिविग्रहिक राजासलखणसमतेन राजगरुणा मदनेन' अर्थात् यह दानपत्र महासान्धिविग्रहिक राजा सलखणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। ये राजा सलखण ( सल्लक्षण) प्रसिद्ध जैन साहित्यकार पं.आशाधरके पिता थे, ऐसा माना जाता है। पं. आशाधरके पुत्र छाहड़ भी अर्जुनवर्माके राज्यमें किसी उच्च राज्यपदपर प्रतिष्ठित थे। पं. आशाधरने अपने पुत्र छाहड़के सम्बन्धमें प्रशस्तिमें लिखा है'रंजितार्जनभपतिम' अर्थात जिसने राजा अर्जनवर्माको प्रसन्न किया है। सम्भव है अपने पितामह सल्लक्षणके बाद छाहड़ राजाका सान्धिविग्रहिक बना हो। कहनेका सारांश यह है कि परमार नरेश उदार और सहिष्णु थे। उनके राज्यमें अनेक जैन राज्यके उच्च पदोंपर अधिष्ठित थे। ऐसे अनुकूल कालमें कलाको प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक था। बदनावर परमार नरेशोंकी दोनों राजधानियों-धारा और उज्जैनसे प्रायः समान दूरीपर ६४ कि. मी. अवस्थित है। एक प्रकारसे साहित्यके समान कलाको भी परमार नरेशोंका संरक्षण प्राप्त था। इसलिए इस नगरमें भी जैन मन्दिरों और मूर्तियोंपर परमार कलाका प्रभाव स्पष्ट अंकित है। इसलिए कहा जा सकता है कि जैन मूर्तियां इसी काल की देन हैं।
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कलाका विनाश
ये मूर्तियाँ किस मन्दिरकी थीं, यह जाननेका कोई साधन आज शेष नहीं है । जितनी मूर्तियाँ यहाँसे अब तक उपलब्ध हो चुकी हैं, उनसे अधिक संख्या में अभी भग्न दशामें पड़ी हुई हैं और यह भी असम्भव नहीं है कि भूगर्भ में अभी कुछ मूर्तियाँ दबी पड़ी हों । अब तक पुरातत्त्व विभागकी ओरसे यहाँ उत्खनन कार्यं नहीं हुआ । जो मूर्तियां मिली हैं, वे या तो ध्वस्त मन्दिरके मलबे से निकाली गयी हैं अथवा किसी खेतमें जोतते समय निकली हैं । अस्तु ।
एक मूर्तिके अभिलेखमें उस जिनालयका भी नाम दिया गया है जिसमें वह मूर्ति विराजमान की गयी थी । उसमें पाठ है 'शान्तिनाथ चैत्ये ।' अर्थात् शान्तिनाथ चैत्यमें । आज न तो वह शान्तिनाथ चैत्य विद्यमान है और न शान्तिनाथ भगवान्की वह मूलनायक प्रतिमा ही उपलब्ध है जिसके कारण मन्दिरका नाम शान्तिनाथ चैत्य रखा गया । सम्भवतः दोनों ही नष्ट हो गये । 'नष्ट हो गये' यह कहना भी सम्भवतः यथार्थंके विरुद्ध होगा, नष्ट कर दिये गये, यही कहना तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओंके परिप्रेक्ष्य में सुसंगत लगता है ।
तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाएँ क्या हैं, यह जाननेके लिए परमार राजवंशके उस कालमें एक दृष्टि डालनी होगी जब वह राजनीतिक क्षितिजपर धूमिल पड़ते-पड़ते अस्त हो गया । तेरहवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें परमार सत्ता निर्बल हाथों में पहुँच गयी थी। चारों ओरसे उनके ऊपर आक्रमण होने लगे । दक्षिणमें यादव, उत्तर में चाहमान, पश्चिममें बघेल और पूर्व में कलचुरि परमारोंके प्रबल शत्रु थे और वे निरन्तर आक्रमण करते रहते थे । इस प्रकार परमारोंका राज्य चारों ओरसे शत्रुओंसे घिरा हुआ था । सबसे बड़े शत्रु थे वे आक्रमणकारी मुसलमान जिन्होंने इस काल तक उत्तरी भारतका बहुत बड़ा भाग अपने अधिकारमें ले लिया था और अब मालवाका द्वार खटखटा रहे थे । मालवापर आक्रमणका यह दौर इल्तमशने ही प्रारम्भ कर दिया था । उसने सन् १२३३३४ में भेलसा (विदिशा ) के किलेपर अधिकार कर लिया और फिर उज्जैनको रौंद डाला । सन् १३०५ में तो मुसलमानोंने परमार सत्ताको सदाके लिए समाप्त कर दिया । मालवापर अधिकार होते ही उन्होंने भीषण रक्तपात, बलात्कार और दमनचक्र चालू कर दिया। उन्होंने पवित्र धार्मिक स्थानोंका - मन्दिरों और तीर्थोंका व्यापक विनाश किया तथा मूर्तियोंको बुरी तरह तोड़फोड़ डाला । उस समय बदनावर जैन धार्मिक केन्द्रके रूपमें विख्यात था। यहाँके जैन मन्दिरों और मूर्तियों की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। इसलिए यह कल्पना करना तर्कसंगत होगा कि उस समय तथा बाद में आनेवाले मुस्लिम आक्रान्ताओंने अपने धर्मोन्मादमें यहाँके जैन मन्दिरों और मूर्तियों का क्रूर विनाश किया। यह सम्भव है कि जैनोंने आपत्काल समझकर मन्दिरको समस्त मूर्तियों को किसी सुरक्षित तलघर में पहुँचा दिया हो, जिसका पता इन धर्मोन्मादी आक्रमणकारियोंको भी लग गया और उन्होंने उन एकत्रित समस्त मूर्तियोंको तोड़-फोड़ डाला । यह भी सम्भावना है, आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ी गयी मूर्तियां बादमें एक स्थानपर लाकर रखी गयी हों । यह विनाश उस विनाशसे पृथक् था जिसका उल्लेख पूर्व में कर आये हैं ।
जितनी मूर्तियां यहां मिलती हैं, उनमें अधिकांश जैन हैं और श्याम पाषाणकी हैं । यहाँ वैष्णव और शैव धर्मंकी भी परमार कालकी कई मूर्तियाँ मिलती हैं । ध्वस्त मन्दिरोंमें - जिनको कुल संख्या १२ है - जैन मन्दिरोंके अतिरिक्त वैष्णव और शेव मन्दिर भी हैं ।
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बदनावरका ऐतिहासिक महत्त्व
जैसा कि पूर्वमें बतलाया जा चुका है, बदनावरका प्राचीन नाम वर्धमानपुर था । आचार्यं जिनसेनने 'हरिवंशपुराण' की प्रशस्ति में इसकी रचनाका स्थान वर्धमानपुर बताया है । प्रशस्तिका वह श्लोक इस प्रकार है
कल्याणैः परिवर्धमानविपुल श्रीवर्धमाने पुरे श्रीपार्खालयनन्न राजवसतो पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चाद्दोस्त टिकाप्रजाप्रजनितप्राज्याचं नावचने शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ॥६६॥५३
इसमें बताया है कि अतिशय कल्याणोंसे वृद्धिगत और धन-वैभवसे सम्पन्न वर्धमानपुरमें नलराजके बनवाये हुए पार्श्वनाथ जिनालय में बैठकर इस ग्रन्थकी रचना की। किन्तु वहाँ इसकी रचना पूर्ण नहीं हुई । पश्चात् दोस्तटिकाके प्रशान्त शान्तिनाथ जिनालय में इसकी रचना पूर्ण हुई। तब प्रजाने इस ग्रन्थकी पूजा की।
उन्होंने यह भी लिखा है कि इसकी रचना शक संवत् ७०५ ( ७८३ ) में समाप्त की । इनके १४८ वर्ष पश्चात् आचार्य हरिषेणने शक संवत् ८५३ ( सन् ९३१ ) में बृहत् कथाकोषकी रचना भी इसी वर्धमानपुरमें की थी । ये दोनों ही आचार्य पुन्नाट संघके प्रसिद्ध आचार्य थे ।
नामसाम्यके कारण सहज ही हमारा ध्यान बदनावर ( प्राचीन वर्धमानपुर ) की ओर जाता है और यह जिज्ञासा होती है कि क्या आचार्यद्वयको कर्म-स्थली बननेका सौभाग्य बदनावरको प्राप्त हुआ था ? पुन्नाट संघके आचार्योंमें केवल इन दो ही आचार्योंकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं और वे दोनों ही रचनाएँ वर्धमानपुरमें निर्मित हुईं। इस दृष्टिसे वर्धमानपुरका पुन्नाट संघके साथ ऐतिहासिक सम्बन्ध ज्ञात होता है ।
वर्धमानपुर नामके कई नगरोंके उल्लेख प्राचीन शिलालेखों और दानपत्रों में प्राप्त होते हैं और वे नगर अब भी कुछ अपभ्रंश नामोंसे मिलते हैं । जैसे (१) बदनावर । यहाँसे प्राप्त शिला'लेखों अथवा मूर्तिलेखों में इसका नाम वर्धमानपुर मिलता है । (२) बंगालमें बर्दवान नामक स्थान है । यहाँके किसी चित्रसेनने सन् १७४४ में चित्रचम्पूकी रचना की थी। पहले इसका नाम वर्धमानपुरं होगा । (३) आन्ध्रप्रदेश में बढमाण नामक एक स्थान है, जिसका प्राचीन नाम वर्धमान नगरी था। काकातीय रुद्रदेवका शक संवत् १०८४ का जो अनुमकोण्डा शिलालेख प्राप्त हुआ है, • उसमें रुद्रदेव द्वारा वर्धमान नगरीपर अधिकार करनेका विवरण दिया हुआ है । वर्धमान नगरी अनुमण्डा निकट है और अब इसका नाम बढमाण है । (४) काठियावाड़ - गुजरातमें बढमाण नामक नगर है जिसका प्राचीन नाम वर्धमानपुर था और जहाँ मेरुतुंगने वि. संवत् १३६१ में प्रबन्ध - चिन्तामणिकी रचना की थी। इस प्रकार वर्धमानपुर नामके चार नगर विद्यमान थे । इनमें से आचार्य जिनसेन और आचार्य हरिषेणका वर्धमानपुर कौन-सा था, यह पता लगाना है । आचार्य जिनसेनने वर्धमानपुरकी चारों दिशाओंके राजाओंका नाम दिया है, जिससे उस स्थानकी पहचान सरलतासे हो सके। उन्होंने अपने ग्रन्थको प्रशस्ति में इस प्रकार पद्म दिया हैशाकेष्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषूत्तरां, पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजेऽपरां सौराणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति ॥६६॥५२शा
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२७९ 5. अर्थात् शक संवत् ७०५ में जब उत्तर दिशाको रक्षा इन्द्रायुध नामक राजा, दक्षिणको कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व दिशाकी अवन्ति नरेश वत्सराज और पश्चिमके सौराष्ट्रको बीर जयवराह रक्षा करता था, तब इस ग्रन्थकी रचना हुई। ।
इसी प्रकार आचार्य हरिषेणने भी ग्रन्थके अन्तमें प्रशस्तिमें सूचना दी है कि उन्होंने यह ग्रन्थ शक संवत् ८५३, विक्रम संवत् ९८९ में राजा विनयपालके राज्यमें पूर्ण किया। . ऐतिहासिक दृष्टिसे ये सूचनाएँ अत्यन्त उपयोगी हैं और वि. स्मिथ, आर. जी. भण्डारकर, सी. वी. वैद्य, ऐच. सी. ओझा, अलतेकर आदिने अपने ग्रन्थोंमें इनका उपयोग किया है। किन्तु इस सम्बन्धमें इतिहासकार अभी तक निर्धान्त नहीं हैं और स्थानके सम्बन्धमें अभी तक अन्तिम निर्णय नहीं हो पाया। स्थानका निर्णय करनेके लिए सुप्रसिद्ध जैन इतिहासकारों-पं. नाथूराम प्रेमी, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, डा. हीरालाल जैनने प्रयत्न किया है किन्तु वे सब एक निष्कर्षपर नहीं पहुंच सके । इस सम्बन्धमें इन विद्वानोंने जो तक अपने पक्षके समर्थनमें दिये हैं, वे यहां दिये जा रहे हैं। - पं. नाथूराम प्रेमी-आचार्य जिनसेन और हरिषेण पुन्नाट संघ के थे। पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है । हरिषेणने अपने कथाकोषमें कई स्थानोंपर पुन्नाटको दक्षिणापथमें बतलाया है। यदि वर्धमानपुरको कर्नाटकमें माना जाये तो उसके पूर्वमें अवन्ति या मालवाको अवस्थिति ठीक नहीं बैठ सकती। परन्तु काठियावाड़में माननेसे ठीक बैठ जाती है। अब हमें उल्लिखित चारों राजाओंके सम्बन्धमें विचार करना है-. - "१. इन्द्रायुध-स्व. चिन्तामणि विनायक वैद्यने बतलाया है कि इन्द्रायुध भण्डिकुलका था और उक्त वंशको वर्मवंश भी कहते थे। इसके पुत्र वक्रायुधको परास्त करके प्रतिहारवंशी राजा वत्सराजके पुत्र नागभट द्वितीयने (जिसका राज्य-काल विन्सेण्ट स्मिथके अनुसार वि. सं. ८५७-८८२ है तथा म. म. ओझाजीके अनुसार वि. सं. ८७२ से ८९० है ) कन्नौजका साम्राज्य उससे छीना था। बढमाणके उत्तरमें मारवाड़का प्रदेश पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कन्नौजसे लेकर मारवाड़ तक इन्द्रायुधका राज्य फैला हुआ था।"
"२. श्रीवल्लभ-यह दक्षिणके राष्ट्रकूट वंशके राजा कृष्ण प्रथमका पुत्र था। इसका प्रसिद्ध नाम गोविन्द (द्वितीय ) था। कावीमें मिले हुए ताम्रपर्ट में भी इसे गोविन्द न लिखकर वल्लभ ही लिखा है। वर्धमानपुरकी दक्षिण दिशामें इसीका राज्य था। शक संवत् ६९२ का अर्थात् हरिवंशपुराणकी रचनाके १३ वर्ष पहलेका उसका एक ताम्रपत्र भी मिला है।"
"३. वत्सराज-यह प्रतिहार वंशका राजा था और उस नागावलोक या नागपट द्वितीयका पिता था जिसने चक्रायुधको परास्त किया था। यह पूर्व दिशा और अवन्तिका राजा था। ओझाजीने लिखा है कि वत्सराजने मालवाके राजापर चढ़ाई की थी और मालवराजको बचानेके लिए ध्रुवराज उसपर चढ़ दौड़ा था। उस समय तो मालवा वत्सराजके अधिकारमें था।
१. जैन साहित्य और इतिहास-पृ. ४२०-३९ । २. दक्षिणापथदेशस्य पुन्नाटविषयं ययौ । -हरिषेण कथाकोष, कथा १३१, पृ. ३१८ ।
पुन्नाटविषये रम्ये दक्षिणापथगोचरे। , कथा १४५, पृ. ३३९ । ३. हिन्दू भारतका उत्कर्ष, पृ. १७५ । ४. इण्डियन एण्टीक्वेरी, वाल्यु. ५, पृ. १४६ । ५. एपीग्राफिया इण्डीका, वोल्यूम ६, पृ. २०९।
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भारतके विषम्बर जैन तीर्थ चक्रायुधका राज्यारोहण शक सं. ७०७ के लगभग अनुमान किया गया है। ध्रुवराजने वत्सराजपर इसके बाद ही उक्त चढ़ाई की होगी।"
___ "श्वेताम्बराचार्य उद्योतनसूरिने शक संवत् ७०० के समाप्त होनेसे एक दिन पहले 'कुवलयमाला' ग्रन्थ जावालिपुर या जालौर ( मारवाड़ ) में समाप्त किया था। उस समय वहां वत्सराजका राज्य था । हरिवंशपुराणकी समाप्तिके समय शक संवत् ७०५ में उत्तरमें मारवाड़ इन्द्रायुधके अधिकारमें था और पूर्वमें मालवा वत्सराजके अधिकारमें था। तथा इसके पांच वर्ष पहले कुवलयमालाकी समाप्तिके समय अर्थात् शक संवत् ७००में मारवाड़का अधिकारी भी वत्सराज था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पहले मारवाड़ और मालवा इन्द्रायुधके अधिकारमें थे। उससे वत्सराजने ये दोनों प्रान्त छीन लिये-मारवाड़ शक संवत् ७०० से पहले और मालवा शक सं. ७०५ से पहले। राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द द्वितीयके छोटे भाई ध्रुवराजने चढ़ाई करके मालवा उससे छीनकर पुनः इन्द्रायुधको दे दिया और वत्सराजको मारवाड़की ओर भागनेको मजबूर किया।"
"४. वीर जयवराह-यह पश्चिममें सौरोंके अधिमण्डलका राजा था। सौरोंके अधिमण्डलका अर्थ है सौराष्ट्र । सम्भवतः यह चौलुक्य वंशका राजा था और 'वराह' उसको उसी तरह कहा गया होगा, जिस तरह कीर्तिवर्मा (द्वितीय) को 'महावराह' कहा गया है। चौलुक्योंके दानपत्रोंमें उनका राजचिह्न वराह मिलता है। धराश्रय भी कुछ राजाओंके नामके साथ संलग्न मिलता है। धराश्रयका अर्थ भी वराह है। काठियावाड़पर पहले चौलुक्योंका अधिकार था, किन्तु शक सं. ६७५ में राष्ट्रकूटोंने उनसे वह अधिकार छीन लिया। सम्भवतः हरिवंशके रचनाकालमें चौलुक्य वंशकी किसी शाखाका अधिकार काठियावाड़पर रहा होगा। अतः जयवराह इस शाखाका कोई सामन्त राजा होगा और उसका पूरा नाम जयसिंह होगा।"
'प्रेमीजीके मतानुसार इसी वर्धमानपुरमें हरिवंशपुराणको रचनाके १४८ वर्ष पश्चात् हरिषेणने कथाकोषकी रचना की थी। यद्यपि पुन्नाट संघने काठियावाड़से दूर कर्नाटकमें जन्म लिया था, किन्तु जिस चौलुक्य और राष्ट्रकूट वंशका राज्याश्रय जैन धर्मको प्राप्त होता रहा, उन्हीं वंशोंके राजाओंके अनुरोधपर पुन्नाट संघके कुछ मुनि काठियावाड़में आ गये और स्थायी रूपसे उधर ही विहार करने लगे। वर्धमानपुरकी जिस नलराज द्वारा बनवायी हुई पार्श्वनाथ वसतिमें हरिवंशपुराणकी रचना हुई, यह नलराज नाम भी कर्नाटकके सम्बन्धका आभास देता है। इस प्रकारके नाम कर्नाटकके शिलालेखोंमें प्रायः मिलते हैं।" ___ इस प्रकार प्रेमीजी काठियावाड़के बढमाणको प्राचीन वर्षमानपुर मानते हैं।
डा. ए. एन. उपाध्येका मत-"स्वयं हरिषेणके मतानुसार पुन्नाट विषय दक्षिणापथ में था। राइस, आर. नरसिंहाचारी, वी. ए. सालेटोर, एम. जी. पाई, प्रो. वी. काणे आदिके १. परभडभिडडिभंगो पणईयणरोहिणी कलाचंदो।
सिरिवच्छरायणामो णरहत्थी पत्थिवो जइआ ॥-जैन साहित्य संशोधक, खण्ड ३, अंक २। २. हरिषेण कथाकोषकी भूमिका । ३. मैसूर एण्ड कुगं फ्रॉम दि इंस्क्रिप्शंस, पृष्ठ २६ । ४. ई. सी. २, पृष्ठ-३७, ७३ । ५. दि एन्सीएण्ट किंगडम ऑफ पुन्नाट, इण्डियन कल्चर, वोल्यूम ३, पृष्ठ-३०३-१७ । ६. रुलर्स ऑफ पुन्नाट । ७. पूना, १९४१, पीपी ३०८-२६ ।
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मध्यप्रवेशके विगम्बर मैन तीर्थ मतानुसार "पुन्नाट कर्नाटकका एक प्राचीन राज्य था। उसके मध्यमें कावेरी और कापिनी नदियाँ बहती थीं। इसको राजधानी कीर्तिपुर-वर्तमान किटूर थी जो कापिनी नदीके तटपर अवस्थित है। यह वर्तमान मैसूरके दक्षिणमें है। इसमें हैगड्डेवनाकोट और दूसरे तालुके हैं। पुन्नाट संघ इसी क्षेत्रसे निकला होगा। किन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, दक्षिणमें ऐसा एक भी शिलालेख उपलब्ध नहीं हुआ, जिसमें पुन्नाट संघका नाम आया हो। दक्षिणमें सम्भवतः मूलतः इस संघका नाम किटूर संघ रहा होगा जो पुन्नाट राज्यको राजधानोके नामपर कहा जाता होगा। किटूर संघका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शक संवत् ६२२ के एक शिलालेखमें भी आया है। किन्तु पुन्नाट संघके सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं मिलती। इतना सुनिश्चित है कि ईसाको आठवीं शताब्दीके प्रारम्भसे यह संघ वर्धमानपुर और उसके आसपास सुप्रसिद्ध था।"
"पुन्नाट संघने दक्षिणमें जन्म लिया, इसके समर्थन में कई तर्क हैं। जैन धर्म कर्नाटकका एक समर्थ धर्म था । विशेषतः ईसाको प्रथम शताब्दीके उत्तरार्धमें। इसे विभिन्न राजवंशोंका आश्रय प्राप्त हुआ। पश्चिमी चालुक्य शाखाके पुलकेशिन द्वितीय (सन् ६०८) ने भड़ोंचके लाट और गुर्जरोंको जीतकर गुजरातमें चालुक्य शाखाको स्थापना की। जैन कवि रविकीर्ति ( सन् ६३४ ) के ऊपर पुलकेशिन द्वितीयका विशेष स्नेह था। कुछ राष्ट्रकूट नरेशोंका भी गुजरातसे सम्बन्ध था। कक्कराज द्वितीयके कालमें गुजरातमें एक पृथक् राष्ट्रकूट राज्यको स्थापना हो गयी। अमोघवर्ष प्रथम जैन धर्मके प्रति श्रद्धालु था। यह गुर्जर नरेन्द्र कहलाता था। इन अनुकूल परिस्थितियोंके कारण पुन्नाट संघके मुनि कर्नाटकसे गुजराजमें आ गये होंगे। दूसरी बात यह है कि नन्नराजजिसके मन्दिरका नामोल्लेख आचार्य जिनसेनने किया है-दक्षिण भारतीय नाम है। सम्भवतः यह नन्न दक्षिणका कोई सामन्त या सरदार होगा। वह वर्धमानपुरमें आकर बस गया होगा और उसने पाश्वनाथ मन्दिरका निर्माण कराया होगा। अन्तिम बात यह है कि हरिषेणने कथाकोषमें दक्षिण भारतके प्रदेशों और नगरोंका उल्लेख प्रचुरतासे किया है। इन तर्कोके आधारपर यह सम्भावना सुसंगत प्रतीत होती है कि पुन्नाट संघ कर्नाटकसे गुजरात-काठियावाड़में पहुंचा।
__ "वर्धमानपुर नामके कई नगर हैं। किन्तु वह वर्धमानपुर कौन-सा है, जिसका सम्बन्ध आचार्य जिनसेन और हरिषेणके साथ रहा है। इस सम्बन्धमें हम उन स्थितियोंके प्रकाशमें सही निर्णयपर पहुंच सकते हैं, जिनका वर्णन दोनों आचार्योंने किया है। जिनसेनने जिन राजाओंका उल्लेख किया है, उनकी सीमाओंकी संगति वढमाण (काठियावाड़) को प्राचीन वर्धमानपुर माननेपर ही हो सकती है। इसी प्रकार हरिषेणने कथाकोषकी रचना राजा विनायकपालके राज्यमें की। गुर्जर प्रतिहारवंशके एक राजाका नाम विनायकपाल था, जिसने सन् ९३१ में कन्नौज राजधानीपर अधिकार किया था। कथाकोषकी रचनासे केवल एक वर्ष पूर्व विक्रम संवत् ९८८में महोदय (कन्नौज) से आज्ञापित उसका एक दानपत्र भी प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार काठियावाड़के हड्डाला गाँवमें विनायक पालके बड़े भाई महीपालके समयका भी शक सं. ८३६ का एक दानपत्र मिला है. जिससे मालूम होता है कि उस समय वधमानपुरमें उसके सामन्त चापवंशी धरणीवराहका अधिकार था।
इस प्रकार सभी दृष्टियोंसे जांच करनेपर वढमाण ही वर्धमानपुर निश्चित होता है।"
डॉ. हीरालाल' उक्त दोनों विद्वानोंकी मान्यतासे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि 'इन दोनों विद्वानोंके कथनोंपर सूक्ष्म विचारको आवश्यकता है। विचार करने योग्य पहला विषय १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १२, किरण २, पृ. ९-१७ ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
यह है कि क्या इन्द्रायुधका राज्य शक संवत् ७०५ में इस अंश तक पश्चिम की ओर फैला हुआ था कि वह वढमाणके उत्तर तक पहुंचा कहा जा सकता है । वढमाण सौराष्ट्र में है। उसके उत्तरमें मारवाड़का प्रदेश है और इस प्रवेशपर इन्द्रायुधका राज्य सिद्ध करनेके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया गया । कुवलयमालासे तो यही सिद्ध होता है कि शक संवत् ७०० में मारवाड़पर वत्सराज राज्य करता था । इससे मारवाड़पर इन्द्रायुधके राज्यकी पुष्टि नहीं होती । इन्द्रायुध कन्नोजका शासक था। इस राज्यपर उत्तर-पश्चिमसे काश्मीर के शासकका और पूर्वसे बंगाल या गौड़के शासकका दबाव पड़ रहा था । अतः वह इस योग्य नहीं था कि कोई नये देशपर विजय करे। इसके विपरीत वत्सराजके प्रपितामह नागभट्ट या नागावलोकके द्वारा भिनमालमें स्थापित किया हुआ मारवाड़का राज्य कन्नौज और आसपासके राज्योंको क्षति पहुँचाता हुआ उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा था । वढमाणके उत्तर और पूर्व दोनों दिशाओंमें ही वत्सराजका राज्य था ।'
दूसरी भूल हुई है जिनसेनके राजाओं सम्बन्धी श्लोकका अर्थ करनेमें। उस श्लोककी दो पंक्तियोंको ध्यानपूर्वक देखनेपर यह भूल ज्ञात हो सकती है । वे दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं'पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेऽपरां सौराणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति' ॥
'इन पंक्तियोंका अर्थं करते हुए विद्वानोंने वत्सराजको अवन्ति नरेश माना है । किन्तु उन विद्वानोंने 'अवन्ति भूभृति' और 'नृपे' इन दोनों एकार्थक शब्दोंपर ध्यान नहीं दिया। जिनसेनजैसे प्रौढ़ विद्वान् आचार्य 'भूभृति' देकर फिर 'नृपे' शब्द देनेकी पुनरुक्ति क्यों करते, जबकि दोनों शब्दोंका अर्थं राजा है । स्पष्ट है कि 'अवन्ति भूभृति' 'वत्सादिराजे' ( वत्सराज ) का विशेषण नहीं है, 'नृपे' उसका विशेषण है। इस प्रकार माननेपर अवन्ति नरेश कोई भिन्न व्यक्ति था और वत्सराज उससे भिन्न था। इतिहास और ताम्रपत्रोंसे भी यह सिद्ध होता है कि वत्सराजने मालवराजके प्रदेशोंपर आक्रमण किया था । किन्तु राष्ट्रकूट नरेश मालवराजकी सहायता के लिए आ गया । अतः वत्सराजको मारवाड़की ओर भागना पड़ा। अतः अवन्तिका राजा वत्सराज से भिन्न था और उसका राज्य सौरमण्डल (सौराष्ट्र ) की सीमा तक नहीं फैला था । भण्डारकर, ओझा और वैद्य सभी दोनोंको भिन्न माना है और वत्सराजको पश्चिममें राज्य करता हुआ स्वीकार किया है ।'
'तीसरी भूल हुई है 'अपरां' को 'सौराणामधिमण्डलं' के साथ लगाकर ऐसा करनेपर यह अर्थं निकलता है कि सौरमण्डल उसके पश्चिममें स्थित था और वीर जयवराह वहाँ शासन कर रहा था । किन्तु विचारणीय यह है कि वढमाण सम्भवतः जयवराहकी राजधानी थी और वह सौरमण्डल राज्यकी सीमा में था । वढमाणको वर्धमानपुर माना जाये तो वढमाण में लिखते हुए क्या जिनसेन सदृश्य लेखक यह कहेगा कि सौरमण्डल इसके पश्चिममें स्थित था ।'
उपर्युक्त विवेचनसे शक सं. ७०५ में राजनीतिक स्थिति इस प्रकार सिद्ध होती है
'उत्तर में कन्नौजसे मालवाकी सीमा तक इन्द्रायुधका राज्य था । मालवाके दक्षिणमें राष्ट्रकूटोंका राज्य फैला हुआ था । मालवा अवन्तिके राजाके शासन में था और उससे लगकर ही सम्पूर्ण मारवाड़ और गुजरातमें वत्सराजका राज्य था । काठियावाड़में वीर जयवराह शासन कर रहा था।'
१. इण्डियन एण्टीक्वेरी १२, पी. १६० ।
तृतीय गोविन्दराज के राधनपुर और डिंडोरीसे प्राप्त लेख ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२८३ ‘ऐसी स्थितिमें वढमाणको वर्धमानपुर नहीं माना जा सकता क्योंकि तत्कालीन राजनीतिक स्थितिके साथ उसकी संगति नहीं बैठती । अतः वर्धमानपुर, जिसका उल्लेख जिनसेन और हरिषेणने किया है, को पुनः खोज करनेकी आवश्यकता है।'
'ऐसे स्थानकी खोज करते हुए हमारी दृष्टि उज्जैनसे पश्चिमकी ओर ६४ कि. मी. दूरपर स्थित बदनावरपर जाती है। जिनसेन द्वारा दी हुई सीमाएँ भी उसके साथ संगत बैठ जाती हैं। इन्द्रायुधका कन्नौजका राज्य ठीक उसके उत्तरमें था। राष्ट्रकूटोंका राज्य धारकी सीमाको छूता था, वह उसके दक्षिण में होगा। अवन्तिका राज्य उसके पूर्वमें और वत्सरोजका राज्य, जो कि पश्चिममें सौरमण्डलसे लगा हुआ था, उसके पश्चिम में था। बदनावरमें प्राप्त .शिलालेखों और मूर्तिलेखोंमें इसका वधमानपुर नाम मिलता ही है। यहां अनेक प्राचीन जैन मूर्तियां मिली हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचोन कालमें यह जैन धर्मका सुप्रसिद्ध केन्द्र था। यहींपर जिमसेन और हरिषेणने अपने महान ग्रन्थोंको रचना की थी। ये दोनों हो पून्नाटगण के थे। इस नगरके नामपर पुन्नाटगणकी एक शाखाका नाम ही वर्धमानपुरान्वय हो गया। ऐसे कुछ अभिलेख भी यहाँपर प्राप्त हुए हैं, जिनमें इस अन्वयका नाम मिलता है। जानकारीके लिए यहाँ ऐसे दो अभिलेख दिये जा रहे हैं
'सं० १२१६ ज्येष्ठ सुदि ५ बुधे आ० कुमारसेन चन्द्रकीर्ति वर्धमानपुरान्वये साधु वोहिव्व सुत माल्हा भार्या पाणू सुत पोल्हा भार्या पाहुणी प्रणमति नित्यं ।' . 'सं० १२३४ वर्षे माघ सुदो ५ बुधे श्रीमान् माथुरसंघे पंडिताचार्य धर्मकीर्ति शिष्य ललितकीर्ति वर्धमानपुरान्वये सा० प्रामदेव भार्या प्राहिणी सुत राणू सा० दिगम सा० याका सा० जाहड़ सा० राणू भार्या माणिक सुत महण कीनू केलू बालू सा० महण भार्या रूपिणी सुत नेमि धांधा बीजा यमदेव पमा रामदेव सिरीचन्द प्रणमति नित्यं ।'
आचार्य हरिषेणने जिस विनायकपाल राजाके राज्यमें अपने कथाकोषकी रचना की थी, उस समय पूरा उत्तरभारत गुर्जर प्रतिहार राजाओंके आधिपत्यमें आ चुका था। उन राजाओंमें विनायकपाल नामक राजा शक सं. ८५३ ( ई. स. ९३१ ) में राज्य कर रहा था और उसी वर्ष कथाकोषकी रचना समाप्त हुई।
जिनसेनने हरिवंशपुराणको रचना दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें समाप्त की थी। यह दोस्तटिका बदनावरसे लगभग १६ कि. मी. दूर है, जिसका आधुनिक नाम दोतरिया है। यह गांव माही और वागेड़ी दो नदियोंके मध्य बसा हुआ है। माही गांवसे एक मीलकी दूरीपर बहती
र वागेड़ी इसीमें गांवसे कुछ दूर जाकर मिल जाती है। दोतरियाके पास माही नदीके पश्चिमकी ओर गुजरात और पूर्वकी ओर मालवाकी सीमा प्रारम्भ होती है।
. निष्कर्ष-उपर्युक्त विद्वानोंने वर्धमानपुरके सम्बन्धमें जो विचार प्रकट किये हैं, उनमें दो मान्यताएं सामने आयी हैं-एक तो वढमाणकी, जो सौराष्ट्रमें है और दूसरे बदनावरकी, जो मध्यप्रदेश में है। श्री प्रेमोजी और डॉ. उपाध्येने वढमाणके पक्षमें जो तर्क दिये हैं, डॉ. होरालालजीने उनका सयुक्तिक खण्डन करके वढमाणके पक्षको निर्बल बना दिया है। डॉक्टर साहबने आचार्य जिनसेनके श्लोकका जो अथं किया है, उससे प्रेमोजी और उपाध्येजी द्वारा खींचा गया राजनीतिक नक्शा ही धूमिल पड़ जाता है। उससे वढमाणको अवस्थिति और उसकी कल्पित सीमाएं सन्देहास्पद बन जाती हैं। इन दोनों मान्य विद्वानों के समस्त तकोंका एकमात्र आधार पुन्नाट नामक संघ रहा है जो जिनसेन और हरिषेण दोनों आचार्योंका था। पुन्नाट कर्नाटक अथवा दक्षिणापथका एक विषय (प्रदेश) था। वहाँ संघको स्थापना की गयो, अतः संघका नाम
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उस विषय (प्रदेश ) के नामपर पुन्नाट रखा गया। कर्नाटकमें जैन धर्मको राज्याश्रय प्राप्त हुआ था । पश्चिमी चौलुक्य और राष्ट्रकूट वंशकी शाखाओंको स्थापना सौराष्ट्र और गुजरातमें भी हो गयी थी। इन शाखाओंके पुलकेशिन द्वितीय, अमोघवर्ष आदि कई राजा जैन धर्मानुयायी थे। अनुकूल परिस्थितियां होनेके कारण पुन्नाट संघके मुनि सौराष्ट्रमें आ गये। वढमाण (वर्धमानपुर) उनका केन्द्र या कर्म-क्षेत्र था। इस प्रकार तर्क द्वारा दोनों विद्वानोंने वढमाणको वर्धमानपुर सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था। किन्तु डॉ. हीरालालजी द्वारा श्लोकके किये जा रहे अर्थको भूल पकड़नेपर बढमाणका सारा भौगोलिक आधार हो समाप्त हो गया। ऐसा लगता है कि उक्त दोनों मान्य विद्वानोंको दृष्टिमें बदनावर नहीं आया, इसलिए वह विचारकोटिमें भी नहीं रखा गया। अब इसमें तो कोई सन्देह नहीं रह गया कि बदनावर ही प्राचीन वर्धमानपुर है । यहींके पार्श्वनाथ जिनालयमें बैठकर आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराणकी रचना की थी और यहाँसे १६ कि. मी. दूर दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रचना पूर्ण की थी। इसी प्रकार आचार्य हरिषेणने अपने कथाकोषको रचना इसी नगरमें की थी। इन आचार्योंके कारण यह नगर जैन धर्मका महान् केन्द्र बन गया था। जैन धर्मके केन्द्रके रूपमें यह नगर अपनी गरिमाको कमसे कम ६-७ शताब्दी तक अर्थात् आठवीं शताब्दीसे १४वीं शताब्दी तक अक्षुण्ण रख सका। __यह अवश्य आश्चर्यका विषय है कि पुन्नाट गण जिसके साथ जिनसेन और हरिषेण-जैसे महान् आचार्योका सम्बन्ध था-उसका नामोल्लेख आज तक उत्तर-दक्षिणके किसी शिलालेखमें नहीं मिला। यह भी आश्चर्यकी बात है कि बदनावरमें इन आचार्योंके कालका मन्दिर अथवा एक भी मूर्ति नहीं मिली. और न किसी मूर्तिलेखमें पुन्नाट गणका नामोल्लेख ही मिला। सम्भव है. इसका कारण यह रहा हो कि जिस कालकी मूर्तियां यहां मिली हैं, उस कालमें पुन्नाट गणका स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया और वह लाटवारि (लाटवागड़ ) संघमें विलीन हो गया। इस सम्बन्धमें एक पट्टावलीमें इस प्रकार संकेत भी दिया गया है
_ 'तदन्वये श्रीमल्लाटवर्गटगच्छवंशप्रतापप्रकटनयावज्जीवबोधोपवासैकांतरे नीरस्याहारेणातापनायोगसमुद्धारणधीरश्रीचित्रसेनदेवानां यः पंचलाटवर्गटदेशे प्रतिबोधं विधाय मिथ्यात्वमतनिरसनं चक्रे ततः पुन्नाटगच्छ इति भांडागारे स्थितं लोके लाटवर्गटनामाभिधानं प्रथिव्यां प्रथितं प्रकटीबभूव।
इसमें बताया गया है कि एकान्तर उपवास करनेवाले, केवल जलका आहार करनेवाले और आतापन योग द्वारा दुर्द्धर तप करनेवाले भट्टारक चित्रसेनने पंच लाटवर्गट देशमें धर्मका प्रचार करके मिथ्यात्वका नाश किया। तबसे पुन्नाट गच्छका नाम लाटवर्गट (लाडवागड़) गच्छके नामसे प्रसिद्ध हो गया।
उपयुक्त प्रशस्तिको पढ़कर तो इसमें सन्देहको कोई अवकाश नहीं रहता कि पुन्नाट संघी आचार्य जिनसेन और हरिषेणने इसी वर्धमानपुर ( वर्तमान बदनावर ) में शास्त्ररचना की थी। यहाँकी मूर्तियोंके अभिलेखोंमें पुन्नाट गच्छका नाम प्राप्त न होनेका रहस्य भी यही जान पड़ता है, क्योंकि जिस कालकी ये मूर्तियां हैं, उससे पूर्वमें ही पुन्नाट गच्छ लाटवर्गट गच्छमें विलय हो चुका था।
___ बदनावरके मूर्तिलेखोंका अध्ययन करनेपर एक रोचक तथ्यकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित हुआ । वह यह कि इन मूर्तिलेखोंमें न तो पुन्नाट गच्छका नाम आया है और लाटवागड़ गच्छका
१, भट्टारक सम्प्रदाय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पृ. २५२।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ नाम भी देखने में नहीं आया । बल्कि एक नया ही अन्वय मिला। वह है वर्धमानपुरान्वय। इससे प्रतीत होता है कि १२वीं-१३वीं शताब्दीमें एक विख्यात जैन केन्द्रके रूपमें वर्धमानपुरको मान्यता प्राप्त थी और भट्टारक अपना मूलगण गच्छ भूलकर यहांकी मूर्तियोंपर अपने आपको वर्धमानपुरान्वयका लिखवानेमें गौरवका अनुभव करते थे।
गन्धर्वपुरी मागं और अवस्थिति . गन्धर्वपुरी मध्यप्रदेशके देवास जिलेमें सोनकच्छ तहसीलके मुख्यालयसे लगभग ९ कि. मो. उत्तरकी ओर सोमवती नदी, जो कालो सिन्धमें गिरती है, के तटपर स्थित है। उज्जैनसे यह ७८ कि. मी. है । सोनकच्छसे यहाँके लिए बस, टेम्पो जाते हैं । पक्की सड़क है।
इस नगरके नामके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रचलित है कि महाराज गर्दभिल्ल यहाँ शासन करते थे। उन्हींके नामपर इस नगरका नाम गन्धावल हो गया। कुछ समय पूर्व स्थानीय एक देवालयमें एक पाषाणमूर्ति रखी हुई थी, जिसे स्थानीय लोग गर्दभिल्लकी मूर्ति कहते थे। इस किंवदन्ती और गर्दभिल्ल मूर्तिकी बातमें कितना तथ्य है, यह कहा नहीं जा सकता। किन्तु अभी तक इन बातोंको पुष्टि किसो प्रमाण द्वारा नहीं हो पायो है। वर्तमानमें इस गाँवका नाम गन्धर्वपुरी है। पुरातत्त्वका महत्त्वपूर्ण केन्द्र
प्राचीन कालमें गन्धावल एक समृद्ध नगर और जैनोंका महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इसका कारण स्पष्ट है । वह ऐसे, प्राचीन व्यापारिक मार्गपर अवस्थित है जहाँसे एक ओर उज्जैन, नागदा आदिको सड़क जाती है, दूसरी ओर देवास और इन्दौरको तथा तीसरी ओर भोपाल और विदिशाको मार्ग है। व्यापारिक केन्द्र होनेके कारण यहाँ अनेक देवालयोंका निर्माण भी हुआ। किन्तु कालके कराल आघातोसे वह नगर बच नहीं पाया और अब वह भग्नावस्थामें बिखरा पड़ा है। हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मोके देवालयोंके अवशेष चारों ओर पड़े हुए हैं। सोमकर्ण या सोनवतीके प्रवाहने गांवके दो भाग कर दिये हैं। उनमें बड़े हिस्से में अनेक जैन मूर्तियां तथा एक जैन मन्दिर है। गांवकी खास बस्ती भी यहीं है। इस ग्रामके कुओं, उद्यानों और खेतोंमें अनेक
माएँ पड़ी हुई हैं। ग्रामवासियोंने मन्दिरोंके स्तम्भों. पाषाणों और यहां तक कि प्रतिमाओंका उपयोग अपने घर बनानेमें स्वतन्त्रतापूर्वक किया है। अनुमान किया जाता है कि यहां पायी जानेवाली प्राचीन प्रतिमाओंकी संख्या दो सौसे कहीं अधिक होगी।
मध्यप्रदेश शासनके पुरातत्त्व विभागने बहुत सी मूर्तियां संग्रह करके ग्राम-पंचायत भवनके समीप कटीले तारोंकी बाड़ बनाकर वहाँ रखी हैं। ग्राम-पंचायतने भी बहुत-सी मूर्तियां गांवके मध्य एक ऊंचे चबूतरेपर, जिसे शीतला माताका चबूतरा कहते हैं, एकत्रित कर रखी हैं। दोनों ही स्थानोंपर सुरक्षा और सम्मानको कोई व्यवस्था नहीं है । पुरातत्त्व विभाग द्वारा संग्रहीत मूर्तियोंकी देखभालके लिए सरकारने एक चौकीदार रखा है। ग्राम पंचायत द्वारा एकत्रित मूर्तियोंकी देखभालके लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। शीतला माताका चबूतरा होनेके कारण अशिक्षित ग्रामवासी मूर्तियोंपर सिन्दूर लगा देते हैं। इससे उनके लेख आदि दब गये हैं, पढ़े नहीं जाते।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ___ ज्ञात हुआ, यहां ३ जैन मूर्तियाँ १२-१२ फुटकी कायोत्सर्ग मुद्रावाली थीं। उनमें से एक मूर्ति पुरातत्त्व विभागके संग्रहमें भूमिपर लेटी हुई है। यह आदि तीर्थंकर ऋषभदेवकी प्रतिमा है। इसके कन्धोंपर जटाओंको त्रिवलियां लहरा रही हैं। चरणोंके दोनों ओर गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी है। दूसरी मति गांवके मध्य चमरपुरीकी मात नामक एक पतली गलीके किनारे किसी प्राचीन मन्दिरके भग्नावशेषोंके टीलेपर खड़ी है। घुटनोंके नीचेका भाग जमीनमें दबा हुआ है। जमीनसे ऊपर जो भाग निकला हुआ है, उसको ऊंचाई ९ फुट ६ इंच है। सम्भवतः २ फुट ६ इंच के लगभग जमीनमें दबी हुई है । भामण्डलका आधा भाग वहीं पड़ा हुआ है। छत्र नहीं हैं, वक्षपर श्रीवत्स लांछन है। भगवान्के दोनों पार्यों में चमरेन्द्र हैं, जिनकी अवगाहना ६ फुट ५ इंच है। इन्द्र सभी अलंकार धारण किये हुए हैं, यथा मुकूट, रत्नहार, भुजबन्द, कुण्डल, केयूर, कड़े, मेखल आदि । वे जनेऊ भी धारण किये हुए है। एक ओरका चमरेन्द्र कमरसे नीचे टीलेमें दबा हुआ है। मूर्तिके ऊपरका भाग दो खण्डोंमें पड़ा हुआ है। पुष्पमालधारी गन्धर्ववाला भाग, छत्रसे ऊपरका भाग और भामण्डल ये सब भी वहां पड़े हुए हैं। इस मूर्तिपर कोई लांछन या लेख है या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि चरण-चौकोका भाग भूगर्भमें दबा हुआ है। किन्तु यह मूर्ति निश्चित रूपसे ऋषभदेव तीर्थकरकी है। इसकी पहचान दो साधनोंसे की गयी। एक तो जटाओंसे और दूसरे ऋषभदेवकी शासन-रक्षिका यक्षी चक्रेश्वरीकी मूर्तिसे, जो यहीं अवस्थित है।
गन्धावल (गन्धर्वपुरी) में प्राप्त प्रतिमाओंमें चक्रेश्वरीदेवीकी इस मूर्तिकी उपलब्धि वस्तुतः बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस विंशतिभुजा देवीके अधिकांश हाथ खण्डित हैं किन्तु अवशिष्ट हाथोंमें लिये हुए मातुलिंग फल, वज्र आदिके अतिरिक्त दो हाथोंमें चक्र स्पष्ट दीख पड़ते हैं जिनके कारण इसे चक्रेश्वरी माननेमें कोई बाधा नहीं है। देवी रत्नाभरण धारण किये हुए है। इसके शीर्षभागमें पाँच कोष्ठकोंमें पांच पद्मासन तीर्थकर मूर्तियां विराजमान हैं । सिंहके पृष्ठभागमें प्रभावली अंकित है जिसके दोनों ओर विद्याधर-युगल प्रदर्शित हैं। देवीका घुटनोंसे नीचेका भाग भूमिमें धंसा हुआ है। भूमिके ऊपर इसका आकार ४ फुट है। देवीके एक और देवीका वाहन गरुड़ दीख पड़ता है जो अपने बायें हाथमें सर्प पकड़े हुए है। दूसरी ओर सेविकाको एक खण्डित मूर्ति है । इसने दायें हाथमें शक्ति धारण कर रखी है।
इन तीन विशाल मूर्तियोंमें से तीसरी मूर्तिके सम्बन्धमें कहा जाता है कि वह मूर्ति गांवमें एक स्थान पर पड़ी हुई थी। कुछ वर्ष पहले रातमें ४०-५० व्यक्ति आये और मूर्तिको ट्रकमें रखकर ले गये । वे व्यक्ति कौन थे, मूर्तिको कहां ले गये, इसका किसीको पता नहीं है। इसके सम्बन्धमें आज तक किसीने कोई चिन्ता नहीं की। ___ग्राम पंचायत द्वारा संगृहीत मूर्तियों में हैं-चक्रेश्वरी, गौरी, अम्बिका, यक्षी, आदिनाथ और महावीरकी खड्गासन मूर्तियां, शीतलनाथको यक्षी मानवी, पार्श्वनाथ तीर्थंकर मूर्तिका पादपीठ, शीतलनाथका यक्ष, ब्रह्मेश्वर, तीर्थंकर-मस्तक। एक चबूतरेमें कई ऐसे शिलाफलक जड़े हुए हैं जिनपर तीर्थकर मूर्तियां अंकित हैं। इसी प्रकार एक तीर्थकर मूर्तिका ऊपरी भाग जिसमें सुरों द्वारा पुष्पवर्षा प्रदर्शित है तथा एक महावीर मूर्ति भी जड़ी हुई है।
पुरातत्त्व विभागने जो मूर्तियां संगृहीत को हैं, उनमें कुछ मूर्तियाँ इस प्रकार हैं
(१) १२ फुट ऊंची प्रतिमाके अतिरिक्त यहाँ जैन प्रतिमाओंको संख्या बहुत है। एक पार्श्वनाथ प्रतिमा है जिसके दोनों ओर धरणेन्द्र-पद्मावती त्रिभंग मुद्रामें खड़े हैं। मूर्तिके सिरके पीछे भामण्डल है. तथा सिरके ऊपर विछत्र शोभित हैं। छत्रके नीचे सपंफण मण्डलसे सुशोभित
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मध्यप्रदेशके विवम्बर जैन तीर्थ
२८७ भगवान् पाश्वनाथ कायोत्सर्गासनमें खड़े हैं। सर्पके फण, भगवान्का मुख और उँगलियां खण्डित हैं। गन्धर्वोके ऊपरी और निचले भागोंमें लघु तीर्थंकर-मूर्तियां हैं। चरण-चौकीपर चक्र अंकित है। । भगवान् महावीरकी एक खण्डित पाषाण मूर्ति भी है। इसके दोनों ओर मातंग यक्ष और सिद्धायनी यक्षी बने हुए हैं। पादपीठपर सिंह लांछन अंकित है।
(२) प्रथम तीर्थकरकी यक्षी चक्रेश्वरी, (३) पाश्र्वनाथ मूर्तिके ऊपरी भागमें यक्षी सिद्धायनी सहित तीर्थकर वर्धमान, (४) एक शिलाफलकपर विद्यादेवियों सहित तीर्थंकर। देवियोंका अंकन कुण्डिका सहित किया गया है। (५) छतका शिलाखण्ड, जिसमें कीर्तिमुख दीख पड़ते हैं, (६) एक स्तम्भपर महावीरको खड्गासन मूर्ति और उसके ऊपर पार्श्वनाथ मूर्ति, (७) एक शिलाफलकमें महावीरको खड्गासन मूर्ति अष्ट प्रातिहार्योंसे युक्त, (८) एक शिलाफलकपर २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ, (९) भगवान् शान्तिनाथ । अधोभागमें दो उपासक प्रणाम मुद्रा में, (१०) भगवान् शान्तिनाथ, (११) ऐरावत गजारूढ़ चतुर्भुज इन्द्र, (१२) पद्मप्रभ तीर्थकर, (१३) सुमतिनाथ, (१४) ऐरावतपर आसीन इन्द्र, (१५) महावीरकी मूर्ति यक्ष-यक्षो सहित । कई द्वारपाल मूर्तियाँ हैं । इनके अतिरिक्त और भी कई मूर्तियाँ हैं।
गन्धर्वपुरी ग्राममें जो जैन मूर्तियां हैं, वे प्रायः जमीनमें से निकली हैं। अब भी कभी-कभी खेतोंमें हल चलाते समय और पुराने खण्डहरोंमें जैन मूर्तियां मिल जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गन्धर्वपुरी प्राचीन कालमें प्रसिद्ध जैन तीर्थ रहा होगा। वर्तमानमें भी इस ग्राममें एक दिगम्बर जैन मन्दिर है । यह मन्दिर प्राचीन है किन्तु जीर्णोद्धारके कारण नया दीखता है। इसमें इधरउधरसे लायी हुई ६ प्राचीन मूर्तियाँ हैं । इनका पाषाण सलेटी है। ये सभी तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं।
. जैन मन्दिरके सामने एक प्याऊ है। उसके चबूतरेमें एक पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति जड़ी हुई अब भी दिखाई पड़ती है। जैन मन्दिरके निकट एक कब्रिस्तान है। कब्रोंके बनानेमें अधिकतर जैन मन्दिरोंकी सामग्रीका ही उपयोग हुआ है। हरिजनोंके मन्दिरमें भी जैन मन्दिरोंके पाषाण एवं मूर्तियोंके खण्ड लगे हुए हैं। सोमवतीके दूसरे तटपर गन्धर्वसेनके मन्दिरके पास सीढ़ियोंमें भी ऐसी सामग्री लगी है। गांवमें और गाँवके बाहर मन्दिरोंके भग्नावशेष बिखरे हुए हैं। यह समस्त सामग्री १०वीं-११वीं शताब्दीकी है और परमारकालीन है।
चूलगिरि
सिद्धक्षेत्र
चूलगिरि सिद्धक्षेत्र है। यहाँसे इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण तथा अन्य अनेक मुनि मुक्त हुए हैं। प्राकृत निर्वाण काण्डमें इस सम्बन्धमें निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त होता है
'बड़वाणीवरणयरे दक्खिणभायम्मि चूलगिरिसिहरे ।
इंदजिय कुम्भकरणो णिव्वाणगया णमो तेसिं' ॥१२॥ __ अर्थात् बड़वानी नगरसे दक्षिणकी ओर चूलमिरि शिखरसे इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदि मुनि मोक्ष गये। मैं उनको नमस्कार करता हूँ। इस गाथाका हिन्दी रूपान्तर इस प्रकार है
'बड़वानी बड़नयर सुचंग । दक्षिणदिशि गिरिचूल उतंग। इन्द्रजीत अरु कुम्भजु कणं । ते बन्दों भवसायर तर्ण ॥'
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - संस्कृत निर्वाण भक्तिमें इस तीर्थके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु उत्तरकालीन भट्टारकोंने इस क्षेत्रको सिद्धक्षेत्र या निर्वाण क्षेत्र स्वीकार किया है। यथा-भट्टारक श्रुतसागरने बोधप्राभृतकी २७वीं गाथाकी टीकामें निर्वाण क्षेत्रों तथा कल्याणक क्षेत्रोंका वर्णन करते हुए चूलाचलका उल्लेख किया है।
मेघराज कविने 'तीर्थ-वन्दना' नामक गुजरातो रचनामें इस तीर्थक सम्बन्धमें निर्वाणकाण्डके समान ही इस प्रकार लिखा है
___ 'वडवानि नगर सुतीर्थ पश्चिम चुलगिरि जानिजोए ।
कुंभकर्ण इंद्रजित सिद्ध हवा ते बखाणि जोए।' काष्ठा संघ नन्दीतटगच्छके भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थवंदना' नामक एक रचना हिन्दी मिश्रित गुजरातीमें लिखी है। उसमें अनेक तीर्थोंका १०१ छप्पय छन्दोंमें परिचय दिया है। चूलगिरि क्षेत्रका परिचय देते हुए उन्होंने कुछ नयी जानकारी भी दी है
'बड़वाणी वरनयर तास समीप मनोहर । चलगिरीन्द्र पवित्र भवियण जन बहुसुखकार ॥ कुंभकर्ण मुनिराय इंद्रजित मोक्ष पधार्या। सिद्धक्षेत्र जग जाण बह जन भव जल तार्या ॥ बावन संघपति आय करि बिंबप्रतिष्ठा बहुकरी।
ब्रह्मज्ञानसागर वदति कीर्ति त्रिभुवनमां विस्तरी' ॥६४॥ इस पद्यमें यह विशेष सचना दी गयी है कि ५२ संघपतियोंने यहां अनेक बिम्बोंकी प्रतिष्ठाएँ करायीं। क्षेत्रपर संवत् १३८० में प्रतिष्ठित मूर्तियोंकी बहुत बड़ी संख्या है। सम्भवतः कविका अभिप्राय इन्हीं मूर्तियोंकी प्रतिष्ठासे है।
मराठी भाषाके प्रमुख कवि चिमणा पण्डितने इस क्षेत्रके सम्बन्धमें परिचय देते हुए लिखा - है कि
'बडवानिनयर दक्षिन भागी। चूलगिरि पर्वत तू पाहे वेगी।
इन्द्रजित कुम्भकर्ण उभय योगी। तपोनिधि झाले शिव सुखभोगी' ॥१७॥ भट्टारक उदयकीर्तिने 'तीर्थ-वन्दना' नामक अपनी रचनामें बडवानीसे रावणके पुत्र इन्द्रजित्को मुक्त हुआ माना है
'बड़वाणी रावण तणउ पुत्त । हउं बंदउं इंदजित मुणि पवित्त ।' यति मदनकीर्ति-जो लगभग १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् हैं, ने 'शासन-चतुस्त्रिशिका' में लिखा है कि भगवान् आदिनाथकी ५२ हाथ ऊँची मूर्ति है। इसे बृहद्देव कहा जाता है। इसका निर्माण अर्ककीर्ति राजाने एक ही पाषाणसे कराया था। इस स्थानको आदि निषधिका कहा जाता था । वह नगर बृहत्पुर कहलाता था।
'द्वापञ्चाशदनूनपाणिपरमोन्मानं करैः पञ्चभिः यं चक्रे जिनमकंकीर्तिनृपतिविाणमेकं महत् । तन्नाम्ना स बृहत्पुरे वरबहहेवाख्यया गोयते श्रीमत्यादिनिषिद्धिकेयमवताद् दिग्वाससां शासनम् ॥६॥
१. मदन और आशाधर मालवराज अर्जुनवर्मन परमार (१२१०-१२१८ ) के दरबारके रत्न थे।
दि स्ट्रगल फॉर एम्पायर, पृ. ७१, भारतीय विद्या भवन, बम्बई।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ भट्टारक सुमतिसागरने इस क्षेत्रकी मूर्तिको बावनगजा माना है। 'सुविंझाचल बावणगजदेव ।' भट्टारक जयसागरने भी इसका स्मरण इस प्रकार किया है-...
'सुवावनगज विन्ध्याचल ठाय।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक विद्वान् लेखकोंने तीर्थोंका वर्णन करते समय चूलगिरिका स्मरण किया है। कुछ लेखकोंने निर्वाण क्षेत्रके रूपमें इसका उल्लेख किया है और दूसरे विद्वानोंने यहांकी आदिनाथ स्वामीकी विशाल प्रतिमा-जिसे बावनगजाजी कहते हैं-का वर्णन किया है। वास्तव में जैसे इस क्षेत्रका माहात्म्य निर्वाण क्षेत्र होनेके कारण है, उसी प्रकार भारतकी सबसे बड़ी प्रतिमा होनेके कारण भी इस क्षेत्रका महत्त्व है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
उपर्युक्त उल्लेखोंके अनुसार बड़वानी नगरके निकटवर्ती चूलगिरिसे रावण-पुत्र इन्द्रजित् और रावणके अनुज कुम्भकणं मुनि-अवस्थामें तप करके मुक्त हुए हैं। अतः यह क्षेत्र सिद्धक्षेत्र अथवा निर्वाण-क्षेत्र कहलाता है।
- आचार्य रविषेणकृत 'पद्मपुराण में रावणकी मृत्यु होनेके बादकी एक महत्त्वपूर्ण घटनाका '. वर्णन आया है । एक दिन छप्पन हजार आकाशचारी मुनियोंके संघके साथ अनन्तवीर्य मुनिराज पधारे। उसी दिन रात्रिके समय उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो मया। दोनोंने आकर केवलज्ञानकी पूजा की और गन्धकुटीकी रचना की। समाचार मिलते ही रामचन्द्र, लक्ष्मण, वानरवंशी, ऋक्षवंशी और राक्षसवंशी सब लोग उनके दर्शनोंको आये। भगवान् अनन्तवीर्य केवलीका उपदेश सुनकर इन्द्रजीत, मेघनाद, कुम्भकर्ण, मारीच आदिने लंकाके उसी कुसुमायुध नामक उद्यानमें केवली भगवान्के समीप मुनि-दीक्षा ले ली। कुछ समय पश्चात् वे विभिन्न देशोंमें विहार करने लगे।
किन्तु इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदिने किस स्थानसे मोक्ष प्राप्त किया, इसका कोई उल्लेख पद्मपुराणकारने नहीं किया। साधारण-सा संकेत दिया है कि विन्ध्यवनकी महाभूमिमें जहाँ इन्द्रजीतके साथ मेघवाहन मुनिराज विराजमान रहे, वहां मेघरव नामक तीर्थ बन गया (पद्मपुराण ८०।१३६ ) तथा रजोगुण और तमोगुणसे रहित महामुनि कुम्भकर्ण योगी नर्मदाके जिस तीरपर निर्वाणको प्राप्त हुए थे, वहां पिठरक्षत नामका तीर्थ प्रसिद्ध हुआ।
यह मेघरव और पिठरक्षित तीर्थ कहां रहे हैं। आज इसका पता किसीको नहीं है । आचार्य गुणभद्रके 'उत्तरपुराण में भी इनके निर्वाण-स्थानका उल्लेख नहीं मिलता। इतना अवश्य मिलता है कि सुग्रीव, विभीषण, हनुमान् आदिके साथ रामचन्द्रने सम्मेदशिखरसे निर्वाण प्राप्त किया। कुछ विद्वान् यहां आये हुए 'आदि' शब्दसे इन्द्रजीत और कुम्भकर्णको भी रामचन्द्र के साथ सम्मिलित करनेपर जोर देते हैं। विभीषण, सुग्रीव आदि मुनि-अवस्थामें रामचन्द्रके साथ रहे हों, यह सम्भव हो सकता है। किन्तु इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण रामचन्द्रके साथ तपस्या करते हों और सम्मेदशिखरपर अन्तमें उनके साथ रहे हों, यह एक क्लिष्ट कल्पना है। क्योंकि इन्द्रजीत और कुम्भकर्णने लंकाकी पराजयके बाद ही मुनि-दीक्षा धारण कर ली थी, जबकि रामचन्द्र आदि बहुत समयके पश्चात् मुनि हुए थे। दूसरे, रामचन्द्रके प्रति उनके मनमें किसी आकर्षणको सम्भावना ही नहीं थी। इसलिए यह स्वीकार करना कठिन है कि इन्द्रजीत और कुम्भकर्णने सम्मेदशिखरसे मोक्ष प्राप्त किया था।
वास्तवमें इन्द्रजीत और कुम्भकर्णका निर्वाण इसी चूलगिरिसे हुआ था, इसीलिए यह शताब्दियोंसे सिद्धक्षेत्रके रूप में प्रसिद्ध रहा है। प्राकृत निर्वाण-भक्ति आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ है, इस प्रकारको मान्यता प्रचलित है। यदि यह मान्यता ठीक है तो यह स्वीकार करनेमें कोई आपत्ति नहीं है कि दो सहस्राब्दी पूर्वमें भी चूलगिरि सिद्धक्षेत्रके रूपमें मान्य रहा है। भारतको सर्वोन्नत मति, बावनगजाजी
चूलगिरि सतपुड़ा शैल मालाओंकी सबसे ऊंची चोटी कही जाती है। यहींपर भारतकी सबसे विशाल मूर्ति विराजमान है । यह मूर्ति आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवकी है जो चूलगिरिके मध्यमें एक ही पाषाणमें उकेरी हुई है। यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रामें है और ८४ फुट ऊंची है। सर्व-साधारणमें यह मूर्ति बावनगजाजीके नामसे प्रसिद्ध है। प्राचीन कालमें इस प्रान्तमें एक हाथको ही कच्चा गज माननेको परम्परा थी। चूंकि यह प्रतिमा ५२ हाथ ऊंची है, अतः जनतामें यह बावनगजाजीके नामसे विख्यात हो गयी। श्रवणबेलगोलामें गोम्मटेश्वरकी प्रतिमा लगभग ५७ फुटकी है। सौम्यता और भावमुद्रामें संसारकी कोई भी प्रतिमा गोम्मटेश्वरकी प्रतिमाके साथ समता नहीं कर सकती। वह सारे पहाड़को काटकर निर्मित हुई है और निराधार खड़ी हुई है, जबकि बावनगजाको ऋषभदेव प्रतिमा न तो भावांकनमें उसकी समानता कर सकती है और न ही वह निराधार ही खड़ी है। बल्कि पहाड़के सहारे खड़ी हुई है। तथापि बावनगजाजीको इस प्रतिमाकी अपनी कुछ अनुपम विशेषता है और वह है इसकी विशालता। इतनी विशाल प्रतिमाका निर्माण करके जैनोंने कलाके क्षेत्रमें निश्चय ही एक महान देन दी है। इसका शिल्प-विधान भी अनूठा है । यह समानुपातिक है । इसके अंग-प्रत्यंग सुडौल हैं। मुखपर विराग, करुणा और हास्यकी संतुलित छवि अंकित है। ___ बावनगजाजीका पूरा माप इस प्रकार हैमूर्तिकी ऊंचाई
८४ फुट एक भजासे दूसरी भजाका आकार २९ फुट ६ इंच भुजासे उँगलो तक
४६ फुट २ इंच कमरसे एड़ी तक सिरका घेरा ,
२६ फुट पैरकी लम्बाई
१३ फुट ९ इंच नाककी लम्बाई
३ फुट ११ इंच आँखकी लम्बाई
. ३ फुट ३ इंच कानकी लम्बाई
- ९ फुट ८ इंच एक कानसे दूसरे कानको दूरी
१७ फुट ६ इंच पांवके पंजेको चौड़ाई मूर्तिका निर्माण काल ___यह मूर्ति भूरे देशी पाषाणकी बनी हुई है। इस मूर्तिपर कोई लेख नहीं है। अतः इसके निर्माता या प्रतिष्ठाकारकका नाम और प्रतिष्ठा-काल निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। यह कैसे -आश्चर्यकी बात है कि इतनी विशाल कला-मूर्तिके निर्माता कलाकार, प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचायं सभी अपने यशके प्रति इतने निरीह रहे हैं कि उन्होंने अपने पीछे अपने परिचयका कोई सत्र तक नहीं छोड़ा और अपनी समस्त आकांक्षाओंके साकार रूप में यह भव्य-प्रतिमा निर्मित करके अपने आपको सर्वान्तःकरणसे भगवान् ऋषभदेवके चरणोंमें समर्पित कर दिया। वास्तवमें युगयुगों तक जगत्के लिए आत्म-कल्याणका मार्ग प्रशस्त करके वे धन्य हो गये।
३७ फुट
५ फुट
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यहाँ विचारणीय यह है कि यति मदनकीर्ति १३वीं शताब्दीके विद्वान् हैं । उन्होंने इस मूर्तिका उल्लेख किया है । इसका अर्थ है कि यह मूर्ति उनसे पूर्वको है । यतिजीने इसके निर्माताका नाम अकीर्ति लिखा है । इस नामके तत्कालीन किसी नरेशका पता इतिहास-ग्रन्थों में नहीं मिलता । सम्भवतः यह कोई छोटा-मोटा राजा रहा होगा ।
यतिजीसे भी पूर्वकालके दो लेख इस मन्दिरके सभामण्डपमें पूर्वं ओर दक्षिणकी ओर उत्कीर्ण हैं । ये लेख संवत् १२२३ ( सन् ११६६ ) भाद्रपद वदी १४ शुक्रवार के हैं । पूर्वंवाले लेखमें रामचंद्र मुनिको प्रशंसा की गयी है तथा दक्षिणवाले लेखमें मुनि लोकनन्द, देवनन्द और उनके शिष्य रामचन्द्रकी प्रशंसा करते हुए उनके द्वारा यहाँ मन्दिर निर्माण करानेका उल्लेख किया गया है ।
इसमें जिस मन्दिरके निर्माणका उल्लेख है, सम्भवतः वह चूलगिरि पर स्थित मुख्य मन्दिर ही है । किन्तु इसमें बड़ी मूर्तिके निर्माणके बारेमें कुछ भी संकेत नहीं किया गया । यह भी सम्भव है कि मुनि रामचन्द्रके उपदेशसे अकंकीर्ति नरेशने मुख्य मन्दिर और बड़ी मूर्तिका निर्माण कराया हो । किन्तु इस प्रकारका कोई स्पष्ट उल्लेख न होनेके कारण विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । इतना तो सुनिश्चित है कि शिलालेखके अनुसार मुख्य मन्दिरका निर्माण संवत् १२२३ में हुआ था और यति मदनकीर्ति द्वारा ५२ हाथ ऊँची मूर्तिका उल्लेख करने से स्पष्ट है कि यह मूर्ति मदनकीर्तिके काल में विद्यमान थी । मदनकीर्तिका इतिहाससम्मत काल १३वीं शताब्दी है ।
एक शिलालेख के अनुसार संवत् १५१६ में भट्टारक रत्नकीर्तिने इस मन्दिरका जीर्णोद्धार - कराया । शिलालेख का मूलपाठ इस प्रकार है
'स्वस्ति श्री संवत् १५१६ वर्षे मार्गशीर्षे वदि ९ रखो सूरसेन मेहमुन्द राज्ये श्री काष्ठासंघे माथुरगछे (च्छे ) पुष्करगणे भट्टारकः श्री श्रीक्षेमकीर्तिदेवः व्रतनियमस्वाध्यायानुष्ठानतपोपशमैकनियम भट्टारकी हेम कीर्तिदेवस्तच्छिष्य महावादवादीश्वर रायवादीपितामहसकलविद्वज्जन चक्रवर्तिनलः श्रीकमलकीर्तिदेयस्तच्छिष्यजिन सिद्धान्तपाठपयोधिनायकान्तटोपासीन मण्डलाचार्य श्रीरत्नंकीर्तिना जीर्णोद्धारः कृतः बृहच्चैत्यालयपार्श्वे दशजिनवसतिकाः कारापिताः भट्टेश्वर द्वितीयसं डालु भार्याखेतु द्वि (..) ना ( ) पद्मिनी खेतुपुत्र सं० वाढा सं पारस एतैः इन्द्रजितः प्रतिमां प्रतिष्ठाप्य नित्यमचं मन्तो पूजमन्तो वा शुभं तावच्छ्रोसंघस्य ।'
. इस शिलालेखसे ज्ञात होता है कि काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके भट्टारक क्षेमकीर्ति, उनके शिष्य भट्टारक हेमकीर्ति, उनके शिष्य कमलकीर्ति, उनके शिष्य भट्टारक रत्नकीर्ति देवने इसका जीर्णोद्धार कराया तथा बड़े मन्दिरके बगलमें दस जिनालय बनवाये । उन्होंने इन्द्रजीतकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करके स्थापित की ।
ये भट्टारक ग्वालियर पीठके स्वामी थे । रत्नकीर्ति के गुरु कमलकीर्तिका आनुमानिक काल संवत् १५०६-१५१० है |
मन्दिर में उत्तर की ओर एक लेख है । उसमें लिखा है कि संवत् १५१६ में सूत्रशालाका जीर्णोद्धार किया गया । इसका अर्थ है कि मन्दिरकी तरह सूत्रशाला भी पर्याप्त प्राचीन थी, जिससे उसके जीर्णोद्धारको आवश्यकता हुई ।
सारांश यह है कि बावनगजाजी मूर्तिका सही निर्माण काल तो निश्चित नहीं हो पाया, किन्तु यह १३वीं शताब्दीसे पूर्वकालिक है । यहाँका मुख्य मन्दिर १२वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था । सम्भवतः सूत्रशालाकी रचना भी इसी कालमें हुई थी । मुख्य मन्दिरके निकटवर्ती १० मन्दिरोंका निर्माण भट्टारक रत्नकीर्तिके उपदेशसे १५वीं शताब्दीमें किया गया ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इसके पश्चात् मुस्लिम-कालमें और बादमें भी बहुत समय तक इस मूर्तिकी उपेक्षा रही। मतिके ऊपर धप और वर्षासे बचावके लिए न छतरी थी और न प्रक्षाल आदि करनेके लिए सीढ़ी। बुरबुरे पाषाणकी होनेके कारण यह प्रकृतिके असह्य प्रहारोंके कारण खिरती भी रहती थी। वर्षाका पानी पहाड़के भीतर प्रवेश करके मूर्तिके आसपाससे निकलता रहता था। अतः भय होने लगा कि कहीं यह विशाल प्रतिमा नष्ट न हो जाये । तब दिगम्बर जैन समाजने इसकी सुरक्षाकी ओर ध्यान देना आरम्भ किया, कई प्रसिद्ध इंजीनियरों और पुरातत्त्व विभागके अधिकारियोंसे परामर्श किया गया और माघ सुदी १ वीर सं. २४४९ ( वि. सं. १९७९ ) को जीर्णोद्धारका मुहूर्त किया गया। इसमें ५९००० रुपये व्यय हुए। इसके फलस्वरूप मूर्तिके दोनों ओर गैलरी बना दी गयी, जहां खड़े होकर आसानीसे अभिषेक किया जा सके। धूप और वर्षासे बचावके लिए मूर्तिके ऊपर ४० फुट लम्बे १॥ फुट चौड़े गर्टर डालकर ऊपर बाम्बेके पत्रोंकी छत बनवा दी गयी है। इस प्रकार इस मूर्तिको सुरक्षा की गयी है । मूर्तिके ऊपर पालिश भी करा दी गयी है। इससे मूर्ति सौम्य और आकर्षक हो गयी है। किन्तु मूर्तिकी प्राचीनता इसके कारण दब गयी लगती है। बड़वानीके मन्दिर और संस्थाएं
बड़वानीमें एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर है। मन्दिरमें मूलनायक भगवान् नेमिनाथकी भव्य प्रतिमा है, जिसको प्रतिष्ठा संवत् १३८० में हुई थी। इसके पादपीठपर इस विषयक मूर्ति-लेख भी है। चूलगिरि क्षेत्रकी ४ धर्मशालाएं भी यहाँपर हैं । धर्मशालाओंके निकट ही श्री हरसुखराय दि. जैन छात्रावास तथा श्री महावीर चैत्यालय है। जैन धर्मशाला और जैन छात्रावास जिस जमीनपर बने हुए हैं, वह जमीन ३१ जुलाई १८६७ को तत्कालीन बड़वानी नरेश महाराणा जसवन्तसिंहजीने दिगम्बर जैनोंको भेंटस्वरूप दी थी। यह जमीन राणापुरा मुहल्लेकी खाईके पश्चिमकी ओर उत्तर-पश्चिममें ५०० हाथ तथा पूर्व-पश्चिममें ५०० हाथ लम्बी-चौड़ी और चौरस है। जब इसके आसपास आबादी बढ़ गयी और जमीनका मूल्य बढ़ गया, तब २८-७-१९१६ को इस जमीनके बदले जैन धर्मशालाके पीछेकी खराब जमीन देनेके लिए तत्कालीन बड़वानी रियासतके दरबार ऑफिसकी ओरसे आदेश जारी हुआ। जिसके विरोधमें सारे भारतके दिगम्बर जैन समाजमें आन्दोलन हुआ। फलतः नरेशको आदेश वापस लेना पड़ा। इसके बाद वहाँके दरबार और म्युनिसिपैलिटीने इस भूमिपर जैनोंके कानूनी अधिकारको मान्य करनेका लिखित आश्वासन दिया। वहांको नगरपालिकाने प्रस्ताव पास करके जैन समाजको छात्रावास और धर्मशाला बनानेकी आज्ञा दी है। इस प्रकार इस भूमिपर जैन समाजका वैध अधिकार है। उसने इसका बहुत विकास किया है। इस भूमिपर धर्मशाला, छात्रावास और मन्दिर जन-कल्याणके लिए बनाये गये हैं। क्षेत्र-दर्शन
बड़वानीसे पहाड़ी मार्ग द्वारा चूलगिरि क्षेत्र ७ कि. मी. है। क्षेत्र तक पक्की सड़क है। इस सड़कको बनवानेके लिए दिगम्बर जैन समाजने तत्कालीन दरबारको २००० रुपये प्रदान किये थे। सड़कका नाम बावनगजा रोड है । बसें धर्मशाला तक नियमित रूपसे चलती हैं।
तलहटीकी धर्मशालाओंके पास सेठ रोडमल मेघराज सुसारीकी ओरसे दो गुफाएं बनी हुई हैं। धर्मशालासे चलकर प्रायः २ फागपर एक छोटा-सा मन्दिर मिलता है। यह नेमिनाथ मन्दिर है। इसमें कृष्ण पाषाणको १ फुट २ इंच ऊँची भगवान् नेमिनाथकी पद्मासन प्रतिमा
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विराजमान है । यह संवत् १९३९ में प्रतिष्ठित हुई है । इसके बगल में चन्द्रप्रभ भगवान्की २ फुट - १ इंच ऊँची पद्मासन मुद्रामें श्वेत वर्णं प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६७ में हुई है। इस मन्दिरका निर्माण सेठानी बड़ी बाई धर्मपत्नी सेठ नानूराम ऋषभदास बड़वानीने
कराया था ।
आगे एक द्वार मिलता है । यह विश्राम स्थान भी । इसके बगल में जिनालय है । मन्दिरमें घुसते ही बायीं ओर देशी पाषाणकी आदिनाथ स्वामीकी पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना ३ फुट ८ इंच है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १३८० है । इसके बगलके गर्भगृहमें भगवान् नेमिनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । यह ३ फुट ३ इंच ऊंची है और संवत् १९६७ में इसकी प्रतिष्ठा हुई है । इसकी बायीं ओर भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है जो २ फुट ५ इंच ऊंचो है और संवत् १९३९ की प्रतिष्ठित है। दायीं ओर भगवान् पार्श्वनाथकी देशी पाषाणकी ३ फुट ५ इंच समुन्नत खड्गासन मूर्ति है । वेदीपर प्राचीन चरण हैं । मन्दिरके निर्माता सेठ मीठाजी चन्दूलाल मोतीलाल बड़वानी हैं ।
दूसरे गर्भालय में भगवान् शान्तिनाथकी देशी पाषाणकी खड्गासन प्रतिमा विराजमान है । अवगाहना १० फुट है और प्रतिष्ठा संवत् १३८० है । इसे नौगजाजी कहा जाता है । भगवान्के सिरके पृष्ठभाग में भामण्डल अलंकृत है तथा सिरके ऊपर छत्रत्रयी है । भगवान्के चरणोंके दोनों ओर सौधर्म और ऐशान इन्द्र चमर हाथमें लिये सेवारत हैं। बायीं ओर कुन्थुनाथ भगवान्की ४ फुट ७ इंच उन्नत प्रतिमा है और बायीं ओर ५ फुट उन्नत अरनाथ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के परिकरमें भामण्डल और चमरवाहक हैं तथा प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी हाथ जोड़े हुए भगवान्की सेवा में खड़े हैं । शान्तिनाथ की चरण-चौकीपर उसका प्रतिष्ठा काल संवत् १३८० अंकित है । इस मन्दिरका निर्माण सेठ रोडजी सूरजमलजी सुसारी तथा श्री हुक्मीचन्द चुन्नीलाल डेहरीने कराया था ।
इन मन्दिरोंसे बावनगजाजी तक जानेके लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। मध्यमें पार्श्वनाथ मन्दिर है । पार्श्वनाथ भगवान्की भूरे देशी पाषाणकी ४ फुट ७ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । चरण- चोकीपर अंकित मूर्ति लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् १२४२ में की गयी । प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी भगवान् के दोनों ओर चरणों में हाथ जोड़े हुए बैठे हैं। इस मन्दिरका निर्माण सेठ हीराचन्द विजयलाल रतावरने कराया ।
1
इस मन्दिरसे कुछ ही दूरीपर देवाधिदेव ऋषभदेव स्वामीकी जगद्विख्यात प्रतिमा उच्च पर्वत शिखरपर खड़ी संसारके सन्त्रस्त प्राणियोंके ऊपर अपनी अनन्त करुणाकी वर्षा कर रही है । यही प्रतिमा बावनगजाजीके नामसे जगविश्रुत है । उनके चरणोंमें पहुँचकर उनकी महानताके समक्ष अपनी हीनता और अकिंचनताका बोध होता है । जाते ही उनके चरणोंमें मस्तक स्वतः झुक जाता । मन पावनतासे स्निग्व हो उठता है । जगत्की नानाविध आकुलताओंसे सन्तप्त मानसपर मानो शीतल फुहारें पड़ने लगती हैं । हृदय भक्तिसे तरंगित हो उठता है । जब चरणोंसे मस्तक हटाकर ऊपरकी ओर दृष्टि उठाते हैं तो महाप्रभुके मुखपर अनिंद्य मुसकान बिखरी हुई दिखाई पड़ती है । लगता है, प्रभु हमपर करुणाकी वर्षा करके अभय दे रहे हैं । उनकी पावन छाया में पहुँचकर शान्तिका अनुभव होने लगता है ।
भगवान् ऋषभदेवकी यह प्रतिमा खड्गासन मुद्रामें है । यह पहाड़ में से ही उकेरी गयी है । यह गोम्मटेशके समान निराधार नहीं है बल्कि उसे पहाड़का आधार प्राप्त है । यह अपनी उच्चतामें अद्वितीय है । प्रतिमाकी छातीपर श्रीवत्स लांछन है । प्रतिमाके हाथ जाँघोंसे मिले हुए
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ नहीं हैं, पृथक् हैं। बायीं ओर चतुर्भुजो गोमुख यक्ष और दायीं ओर षोडशभुजी चक्रेश्वरी यक्षीकी मूर्ति है। ये भगवान् ऋषभदेवके सेवक यक्ष-यक्षी हैं। इस प्रतिमाके दर्शन चरणोंमें खड़े होकर नहीं हो पाते, इसके लिए मूर्तिसे कुछ हटकर सामने खड़ा होना पड़ता है।
. बायीं ओर दोवारमें दो फुट ऊंचे एक शिलाफलकमें अजितनाथ तीर्थंकरकी पद्मासन प्रतिमा उत्कीणं है। परिकरमें भामण्डल, छत्र, गजलक्ष्मी और मालाधारी गन्धर्व हैं। चमरवाहक एक हाथमें चमर तथा दूसरे हाथमें जलकलश लिये हुए हैं। प्रतीकात्मक रूपसे सौधर्म और ऐशान इन्द्रोंको सानत्कुमार और माहेन्द्र इन्द्रोंके कार्योंको करते हए दिखाया गया है। अधोभागमें अजितनाथके यक्ष-यक्षी महायक्ष और अजिता बने हुए हैं। चरण-चौकीपर अजितनाथका लांछन हाथी अंकित है।
. बड़ी मूर्तिके आगे एक बड़ा चबूतरा है तथा दोनों बाजुओंमें दालान या सभामण्डप बने हुए हैं।
बड़ी मूर्तिके अभिषेक आदिके उद्देश्यसे ऊपर जानेके लिए सीढ़ियां और मंच बने हुए हैं। ऊपर मूर्तिके सिरके पीछे एक कमरे में तीन वेदियां बनी हुई हैं। मध्यवेदीमें भगवान् चन्द्रप्रभकी श्वेत पाषाणकी कायोत्सर्गासन प्रतिमा है जिसकी अवगाहना ३ फुट है । यह वीर संवत् २४५७ में प्रतिष्ठित हुई है।
- शेष दोनों वेदियोंमें इसी संवत्के प्रतिष्ठित तीन मुनियोंके चरण-चिह्न बने हुए हैं । मुनियोंके नाम हैं-मुनि आनन्दसागरजी, मुनि शान्तिसागरजी और मुनि ज्ञानसागरजी।
बावनगजाजीसे कुछ ऊपर जानेपर एकद्वार मिलता है। बायीं ओरको आदिनाथ मन्दिर है। इसमें भगवान् ऋषभदेवकी संवत् १३८० की एक पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना २ फुट है। बायीं ओर १ फुट १ इंच ऊंचे और १ फुट ५ इंच चौड़े शिलाफलकमें एक पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। इसके दोनों पाश्वोंमें दो खड्गासन प्रतिमाएं बनी हुई हैं। दायीं ओर एक फलकमें यक्ष-यक्षी बने हुए हैं। दोनों बैठे हुए हैं। उनके दोनों पैर लटके हुए हैं । ये दोनों प्रतिमाएं पहाड़पर उत्खननमें प्राप्त हुई थीं। दायीं ओर श्वेत वर्ण चन्द्रप्रभ विराजमान हैं । प्रतिमाका आकार १ फुट ७ इंच है। यह पद्मासन है और संवत् १९६७ की प्रतिष्ठित है।
मन्दिरके बाहर दो खण्डित तीर्थंकर मूर्तियाँ रखी हुई हैं। ये भी उत्खननमें प्राप्त हुई बतायी जाती हैं।
पहाड़की चोटीपर चूलगिरि मन्दिर है। यही सिद्धभूमि है। यहींसे मुनि इन्द्रजीत, मुनि कुम्भकर्ण और अन्य अनेक मुनि मुक्त हुए हैं। उनकी साधना, तपस्या और वीतरागतासे पवित्र हुए यहाँके परमाणु अब तक यहांके कण-कणमें व्याप्त हैं। देवताओं और इन्द्रोंने इन मुनियोंका निर्वाणोत्सव इसी स्थानपर आकर धूमधामसे मनाया था ।
चलगिरि मन्दिरमें महामण्डप और गर्भालय हैं। अन्य मन्दिरोंके समान यह मन्दिर शिखरबन्द है । गर्भालयमें वेदीपर उक्त मुनिराजोंके तीन चरण-चिह्न बने हुए हैं तथा श्वेत पाषाणकी दो प्रतिमाएं विराजमान हैं-मल्लिनाथ और चन्द्रप्रभ । इनके चरण-पीठपर क्रमशः कलश और अर्धचन्द्र ये चिह्न अंकित हैं। इनके अतिरिक्त महामण्डपमें दोनों ओर ३६ मूर्तियां विराजमान हैं। इनमें २ मूर्तियां खण्डित हैं। इन मूर्तियोंमें १४ मूतियाँ संवत् १३८० की है, शेष संवत् १९३९ की प्रतिष्ठित हैं । मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर मूर्ति-लेख अंकित हैं। ३६ मूर्तियोंमें १७ श्वेत, ६ कृष्ण
और १३ भूरे वर्णकी हैं। मन्दिरके महामण्डपमें ४ शिलालेख भी हैं। शिलालेख संवत् १११६, .१२२३ और १५०८ के हैं। इन शिलालेखोंके अनुसार इन संवतोंमें इस मन्दिरका निर्माण एवं
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२९५ जीर्णोद्धार किया गया था। इससे प्रतीत होता है कि सिद्धक्षेत्रके रूपमें इस क्षेत्रकी मान्यता प्राचीन कालसे चली आ रही है।
मन्दिरके बाहर बने हुए अहातेके आलोंमें २२ मूर्तियां रखी हुई हैं। ये संब पहाड़पर उत्खननमें प्राप्त हुई थीं। इन मूर्तियोंमें नेमिनाथकी एक मूर्ति ४ फुट ४ इंच तथा पार्श्वनाथकी एक मूर्ति ४ फुट ३ इंचकी है। ये मूर्तियां प्रायः खण्डित हैं। कुछ मूर्ति-लेखोंके अनुसार ये संवत् १३८० की हैं।
___ इस मन्दिरके पृष्ठभागमें एक गुमटी या मन्दरिया बनी हुई है। इसमें तीन वेदियां हैं। सामनेवाली वेदीमें २ फुट २ इंच ऊंची एक खड़ी नग्न मूर्ति है। मूर्ति हाथ जोड़े हुए है। इसके दोनों ओर चमरवाहक हैं। मूर्तिके साथ पीछी-कमण्डल नहीं है। दायीं दीवारमें कृष्ण पाषाणकी हाथ जोडे हए मनि-मति है। नीचे हाथ जोडे हए श्रावक-श्राविका हैं। इस मतिके अधोभ लेख अंकित है। इसी प्रकार बायीं ओरकी दीवारमें भी एक मुनि-मूर्ति खड़ी है। उसके दोनों पावों में चमरवाहक हैं। बगलमें एक यक्षी-मूर्ति है। इन तीनों मूर्तियोंका आकार १ फुट ८ इंच • है। कुछ लोगोंकी धारणा है कि दायीं ओर की दीवारमें बनी हुई मूर्ति आचार्य कुन्दकुन्दकी है
और शेष दोनों मूर्तियाँ दो गणधरोंकी हैं। इस मूर्ति-लेखको देखकर यह भ्रान्ति पकड़में सरलतापूर्वक आ जाती है। मूर्ति-लेखके प्रारम्भमें 'कुन्दकुन्द....न्वये' रह गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि 'कुन्दकुन्द' शब्दको पढ़कर इस मूर्तिको ही कुन्दकुन्द मान लिया गया। अनुकरणप्रिय लोगोंने बिना देखे-समझे रिपोर्टों, पत्रों आदिमें उसे प्रकाशित कर दिया। समाजमें स्वीकृत तथ्यके रूपमें यह प्रचारित हो गया। ऐसी निराधार मान्यता बड़ी उपहासास्पद प्रतीत होती है।
चूलगिरि क्षेत्रको तलहटीके मन्दिरोंका विवरण इस प्रकार है
(१) पाश्वनाथ मन्दिर-इसमें मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन मूर्ति है। इसकी आकार ३ फुट है। इस मन्दिरमें ५ पाषाण और २ धातु मूर्तियाँ हैं। इसके निर्माता सेठ गम्भीरमल टेकचन्द मनावर हैं। .
(२) चन्द्रप्रभ मन्दिर-इसमें चन्द्रप्रभ भगवान्की श्वेतवर्ण मूर्ति है। यह पद्मासन है और ३ फुट ५ इंच उन्नत है । इसके अतिरिक्त यहां २ पाषाणको तथा २ धातुकी मूर्तियां हैं। मन्दिरका निर्माण श्री लच्छीराममलजी अंजड़ने कराया।
____(३) पार्श्वनाथ मन्दिर-इसमें ३ फुट उन्नत पाश्वनाथ स्वामीकी मूर्ति नौ फणावलीसे मण्डित है । मूर्ति कृष्ण पाषाणकी है और पद्मासन है। इसके अतिरिक्त इस मन्दिरमें ३ पाषाणकी और ६ धातुकी मूर्तियां और भी हैं।
___ (४) पाश्वनाथ मन्दिर-इस मन्दिरके निर्माता चौ. गोण्डुसा महाकाल-सा मण्डलेश्वर हैं। इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण वर्णकी ३ फुट ऊंची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है।
(५) शान्तिनाथ मन्दिर-इसमें मूलनायक शान्तिनाथ स्वामीकी ३ फुट ३ इंच अवगाहनावाली श्वेत वर्ण प्रतिमा है। यह पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित है। इस मन्दिरके निर्माता सेठ सेवासा पीपल गोत्र हैं। यहाँ ६ पाषाणकी और १ धातुको प्रतिमा और है । धातुको एक चौबीसी संवत् १४८७ की है। . (६) पाश्र्वनाथ मन्दिर-यहाँ पार्श्वनाथ भगवान्को श्यामवर्ण ३ फुट ३ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा है । इसके अतिरिक्त दो पाषाण प्रतिमाएं और हैं। इस मन्दिरका निर्माण सेठ शामलाल पन्नालाल धरमपुरीने कराया है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ (७) वासुपूज्य मन्दिर-इस मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा वासुपूज्य भगवान्की है। यह श्वेतवर्ण एवं पद्मासन है । इसका आकार २ फुट ६ इंच है। इस मन्दिरके निर्माता सेठ जीवनलाल चम्पालाल अंजड हैं। प्रतिष्ठा संवत् २००५ है।
(८) चन्द्रप्रभ मन्दिर-इसमें चन्द्रप्रभकी एकमात्र प्रतिमा है। श्वेतवर्णकी यह पद्मासन प्रतिमा २ फूट ६ इंच ऊँची है। मन्दिरका निर्माण संवत १९४७ में श्री रतनबाई धर्मपत्नी श्री मांगीलाल पाटनी इन्दौरने कराया।
(९) पार्श्वनाथ मन्दिर-यहां केवल पार्श्वनाथ स्वामी विराजमान हैं। यह मूर्ति कृष्णवणं पद्मासन है तथा ३ फुट ६ इंच उन्नत है । सेठ माणिकचन्द मगनीराम इन्दौरने इसका निर्माण कराया।
(१०) नेमिनाथ मन्दिर-मूलनायकके रूप में यहां भगवान् नेमिनाथकी कृष्णवर्णकी प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना १ फुट ६ इंच है। यह पद्मासनमें है। इसके अतिरिक्त यहाँ दो प्रतिमाएं और विराजमान हैं । इसके निर्माता सर्वसुख रसोईदार इन्दौर हैं।
(११) आदिनाथ मन्दिर-यहाँ मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान्की कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना १ फुट २ इंच है। इसके अलावा पाषाणकी दो और भी प्रतिमाएं यहां विराजमान हैं। मन्दिरके निर्माता श्री विजयचन्द्र सेठी बड़नगर हैं।
(१२) पार्श्वनाथ मन्दिर-पाश्वनाथ भगवान्को यह मूलनायक प्रतिमा १ फुट ९ इंच अवगाहनावाली है, श्वेत पाषाणकी है और पद्मासन है। इस वेदीपर पाषाणकी दो प्रतिमा और हैं। इस मन्दिरके निर्माता श्री भीकासा मांगीलाल लोनारा हैं।
(१३) शान्तिनाथ मन्दिर-इसमें मूलनायक प्रतिमा भगवान् शान्तिनाथकी है। यह श्वेत पाषाणको ३ फुट ६ इंच ऊँची पद्मासन मुद्रामें है। इसके अतिरिक्त दो पाषाण-प्रतिमाएं और विराजमान हैं। मन्दिरके निर्माता श्री डालूराम कालूराम सोनकच्छ हैं।
(१४) आदिनाथ मन्दिर-इसमें मूलनायक भगवान् आदिनाथकी श्वेतवर्ण प्रतिमा ३ फुट ६ इंच उन्नत है और पद्मासन,है। इस वेदीपर दो पाषाण प्रतिमाएं और भी विराजमान हैं। मन्दिरके निर्माता श्री जयचन्द चुन्नीलाल इन्दौर हैं।
(१५) चन्द्रप्रभ मन्दिर-यहां साढ़े तीन फुट उत्तुंग भगवान् चन्द्रप्रभकी मूलनायक प्रतिमा श्वेत पाषाणकी है और पद्मासन है। उसके अतिरिक्त दो पाषाण प्रतिमाएं और हैं । इस मन्दिरका निर्माण श्री नन्दराम सेठी इन्दौरने कराया।
(१६) आदिनाथ मन्दिर-भगवान् आदिनाथकी श्वेत पाषाणकी मूलनायक प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें विराजमान है । इसका आकार ३ फुट ९ इंच है। इसके अतिरिक्त वेदीपर ४ पाषाण प्रतिमाएं और हैं। इस मन्दिरके निर्माता श्री नाथूलाल चुन्नीलाल इन्दौर हैं।
(१७) चन्द्रप्रभ मन्दिर-इस मन्दिरका निर्माण श्री गुमानीराम नाथूराम इन्दौरने कराया है। मूलनायक प्रतिमा भगवान् चन्द्रप्रभकी है। यह ३ फुट ९ इंच उन्नत है, पद्मासन है और श्वेत पाषाणकी है। इस प्रतिमाके अतिरिक्त यहाँ दो पाषाण प्रतिमाएं और हैं।
(१८) आदिनाथ मन्दिर-यहां आदिनाथ भगवान्की मूलनायक प्रतिमा ३ फुट १० इंच ऊंची श्वेत पाषाणकी है और पद्मासन है। इस वेदीपर दो पाषाण प्रतिमाएँ और हैं। मन्दिरके निर्माता श्री मलुकचन्द बेणीचन्द इन्दौर हैं।
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मध्यप्रवेशके विगम्बर जैन तीर्थ
२९७ (१९) महावीर मन्दिर-महावीर स्वामीकी श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा इस मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा है । यह ३ फुट ६ इंच ऊंची है। इस वेदीपर दो-पाषाण प्रतिमाएं और विराजमान हैं। इस मन्दिरका निर्माण श्री गुमानीराम सदालाल इन्दौरने कराया।
(२०) मानस्तम्भ-मानस्तम्भ ६० फुट ऊँचा है। इसकी शिखर वेदिकापर पुष्पदन्त भगवान्की श्वेतवर्णकी ४ पद्मासन और ४ खड्गासन प्रतिमाएं विराजमान हैं। इसका निर्माण सेठ चांदमल धन्नालाल सजानगढने कराया।
इस प्रकार पहाड़की तलहटीमें १९ मन्दिर, १ मानस्तम्भ और १ छत्री है।
क्षेत्रपर जितनी मूर्तियाँ हैं, उनमें दो मूर्तियां, जो मुनिसुव्रतनाथकी कही जाती हैं, वि. संवत् ११३१ की हैं। ये ही मूर्तियां यहाँकी प्राचीनतम मूर्तियां हैं। इनके अतिरिक्त पार्श्वनाथको दो मूर्तियां संवत् १२४२ की हैं। एक धातु मूर्ति संवत् १४८७ को है। संवत् १३८० और १९३९ की मूर्तियोंकी संख्या बहुत है। तलहटीके मन्दिरोंमें १३ मन्दिर एक अहातेमें बने हुए हैं तथा ६ मन्दिर अलग-अलग बने हुए हैं। धर्मशालाएं
तलहटीमें चार धर्मशालाएँ यात्रियोंके लिए बनी हुई हैं। इनमें कुल ५० कमरे हैं। धर्मशालाओंके निकट ही बावड़ी, कुआं, जलकुण्ड, स्नानघर, नल और बस स्टाप है। प्रकाशके लिए बिजलीको सुविधा है। क्षेत्रको व्यवस्था
क्षेत्रकी व्यवस्था प्रबन्धकारिणी कमेटी, श्री चलगिरि सिद्धक्षेत्र द्वारा होती है। इस क्षेत्रपर प्रारम्भसे ही दिगम्बर जैन समाजका अधिकार रहा है। एक बार सं. १७४२ में वैष्णव समाजने चूलगिरिके मुख्य मन्दिरपर अपना अधिकार जतानेका प्रयत्न किया था। वह इन्द्रजीत, कुम्भकर्णके चरणोंको दत्तात्रेयके चरण बताते थे । यह केस संवत् १७५८ तक चला, उसमें जैनोंकी विजय हुई। स्वर्गीय महाराजा रणजीतसिंहजीकी राजमातेश्वरी धनकुँअर महारानीने क्षेत्रपर दिगम्बर जैनोंके परम्परागत अधिकारोंको स्वीकार किया और वैष्णव समाजको सन्तुष्टिके लिए उन्होंने नर्मदाके तटपर बड़वानीसे ३ मल दूर दत्तात्रेयका एक सुन्दर मन्दिर बनवा दिया। शिकारका निषेध - तलहटीके घेरेमें और पहाड़के शिखरपर जानेके मार्गसे एक मील सभी दिशाओंमें सरकारी आज्ञाके अनुसार शिकार खेलना कानूनन निषिद्ध है। वाषिक मेला
क्षेत्रका वार्षिक मेला पौष सुदी ८ से १५ तक भरता था। चतुर्दशीको चूलगिरिके सभी मन्दिरोंपर ध्वजारोहण किया जाता था। जब बड़वानी स्टेट थी, उस समय आखिरी दिन बड़वानीके सभी मुख्य बाजारोंसे होकर पालकी निकलती थी। किन्तु कई वर्षसे यह उत्सव बन्द हो गया है। . क्षेत्रपर उल्लेखनीय मेला वि. संवत् १९३९ और १९८७ में हुआ था। दोनों ही बार पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई जिसमें हजारों व्यक्तियोंने सम्मिलित हो धर्मलाभ लिया। संवत् १९८० की
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रतिष्ठाके समय बावनगजाजीका महामस्तकाभिषेक हुआ था। इसी समय बावनगजाजी, नौगजाजी और बड़वानीके मन्दिरोंपर स्वर्णकलश चढ़ाये गये थे। मार्ग १ श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र चूलगिरि मध्यप्रदेशमें बड़वानी शहरसे ७ कि. मी. दूरपर स्थित है। इसका दूसरा नाम बावनगजाजी अत्यन्त प्रसिद्ध है। बडवानी जानेके लिए इन्दौर. मऊ, खण्डवा, सनावद, धूलिया और दोहद इन स्टेशनोंसे मोटर बसें मिलती हैं। मालवावालोंको इन्दौर व मऊ से, खानदेशवालोंको धूलिया से, निमाड़वालोंको खण्डवा व सनावदसे और गुजरातवालोंको दोहद स्टेशनसे आना चाहिए। बड़वानी, जो निमाड़ जिलेमें है, से क्षेत्र तक पक्की सड़क है। . . .
खण्डवा स्टेशनसे आनेवालोंको खरगौन होते हुए पावागिरि क्षेत्रके दर्शन करते हुए जुलवानिया आना पड़ता है। वहाँसे मोटर बस द्वारा बड़वानी आना चाहिए। इसी प्रकार दोहद स्टेशनपर उतरनेवालोंको मोटर बस द्वारा कुक्षि आना चाहिए और कुक्षिके पास तालनपुरमें दर्शन कर वहाँसे बड़वानी आना चाहिए।
तालनपुर
मार्ग
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र तालनपूर धार जिलेमें स्थित है। इसका पोस्ट आफिस कुक्षि है । यहाँ जानेके लिए दाहोद या मऊ स्टेशन उतरना चाहिए । गुजरातको ओरसे आनेवालोंको मध्य रेलवेके दाहोद स्टेशनपर उतरना चाहिए। वहाँसे बस द्वारा ९६ कि. मी. दूर कुक्षि या सुसारी पड़ता है। सुसारीसे कुक्षि होते हुए तालनपुर ५ कि. मी. है तथा कुक्षिसे ३ कि. मी.। मध्यप्रदेशसे आनेवालोंको मध्य रेलवेके मऊ स्टेशनपर उतरना चाहिए। मऊसे बस द्वारा बड़वानी जाकर वहाँसे कुक्षि होकर यह क्षेत्र २२ कि. मी. है। कुक्षिसे क्षेत्र तक पक्की सड़क है। धर्मशाला और मन्दिर सड़क किनारे ही हैं।
क्षेत्र दर्शन
क्षेत्रपर एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर है। मन्दिरमें मूलनायकके रूपमें भगवान् मल्लिनाथकी २ फुट ६ इंच अवगाहनावाली पद्मासन पाषाण प्रतिमा विराजमान है। इसका वर्ण भूरा है। मूर्तिकी पाद-पीठिकापर लेख अंकित है जिसके अनुसार इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा संवत् १३२५ वैशाख वदी ८ बुधवारको लाडबागड़गच्छ (काष्ठा संघ) के आचार्य महेशकीर्ति, उनके शिष्य विपुलकीर्ति, उनके शिष्य विशालकीतिके उपदेशसे की गयी अर्थात् यह प्रतिमा ईस्वी सन् १२६८ में प्रतिष्ठित हुई थी। _इस प्रतिमाके अतिरिक्त मन्दिरमें ५ प्रतिमाएं और हैं, किन्तु वे अवगाहनामें इससे छोटी हैं तथा उनके ऊपर कोई लेख भी नहीं है। वेदी तीन दरकी है। गर्भगृह काफी बड़ा है। बाहर सभामण्डप है । मन्दिर शिखरबन्द है।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
क्षेत्रका इतिहास
इस क्षेत्रके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहु-प्रचलित है कि संवत् १८९८ में एक भील अपने खेतमें हल चला रहा था। एक स्थानपर हल अटक गया। उसने हल निकालने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु वह सफल नहीं हुआ । तब थककर वह अपने घर चला गया। रात्रिमें उसे स्वप्न हुआ । स्वप्नमें उसे लगा कि उसे कोई दिव्यपुरुष उस स्थानको खोदनेका आदेश दे रहा है, जहाँ हल अटका था । दूसरे दिन भीलने खेत में जाकर उस स्थानको खोदा । वहाँ एक भोंयरेमें १३ जैन मूर्तियां निकलीं । इसकी सूचना कुक्षिके जैनोंको दो गयी । फलतः दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय के जैन वहाँ एकत्रित हुए। सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नायकी थीं । मालवा सदासे दिगम्बर जैनोंका गढ़ रहा है । उस कालमें भी यहाँ दिगम्बर जैनोंका प्राधान्य था । उन्होंने उदारता तथा साधर्मी वात्सल्यके नाते यह सुझाव रखा कि मिली हुई १३ प्रतिमाओंमें ५ बड़ी प्रतिमाएँ हैं और ८ छोटी हैं । इसलिए इनके ऐसे दो विभाग किये जायें । सबने यह सुझाव स्वीकार कर लिया । पर्ची डाली गयी । उसके अनुसार ५ बड़ी मूर्तियाँ दिगम्बरोंको और छोटी ८ प्रतिमाएँ श्वेताम्बरों को मिलीं ।
प्रतिमाओंका बंटवारा हो जानेपर कुक्षिकी दिगम्बर जैन समाजने निश्चय किया कि प्रतिमाओंको कुक्षि ले चलें और वहाँके मन्दिरमें विराजमान कर दें । प्रतिमाएँ गाड़ी में रख दी गयीं । किन्तु बहुत कुछ उपाय करनेपर भी गाड़ी नहीं चल सकी । इस दैवी अतिशयको देखकर सबने यही निश्चय किया कि यहींपर मन्दिर बनवाकर प्रतिमाएँ उसमें विराजमान कर दी जायँ । फलतः यहीं पर एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर सेठ रोडजी मेघराजजी, सुसारीकी ओरसें बनाया गया जो अब तक विद्यमान है। इसके निकट ही श्वेताम्बर समाजने भी मन्दिरका निर्माण कराया है । जिस स्थानपर ये मूर्तियां निकली थीं, वहाँ एक चबूतरेपर गुमटी बनाकर उसमें चरणं विराजमान कर दिये हैं । इस गुमटीपर दिगम्बर समाजका अधिकार है । यह स्थान मन्दिरसे एक फलींग दूर गाँवके पीछे है ।
धर्मशाला
व्यवस्था
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क्षेत्रपर एक धर्मशाला सड़क के किनारे बनी हुई है । धर्मशाला में ४ कमरे हैं, एक पक्का
कुआं है।
इस क्षेत्रकी व्यवस्था सेठ रोडजी मेघराजजी सुकृत फण्ड, सुसारीकी ओरसे यहाँकी व्यवस्था सुन्दर थी । निकटवर्ती गांवों और दूरके भी यात्री यहाँ आते अब यात्रियों का आना नगण्य-सा ही रह गया है। सुकृत फण्डकी ओरसे जो मिलता है, उसमें श्रीजीकी सेवा-पूजा भी सन्तोषजनक ढंगसे नहीं हो पाती ।
मेला
यहाँ अब कोई नियमित वार्षिक मेला नहीं होता ।
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होती है । पहले रहते थे । किन्तु मासिक अनुदान
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भारतके बिगम्बर जैन तीर्थ पावागिरि
सिद्धक्षेत्र
यह सिद्धक्षेत्र है । यहाँसे स्वर्णभद्र आदि चार मुनि निर्वाणको प्राप्त हुए थे। ये स्वर्णभद्र कौन थे, इस सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं मिलती। एक सुवर्णभद्र उज्जयिनी नरेश श्रीदत्तके पुत्र थे। उन्होंने अपने पिताके समान ही एक विशाल यात्रा संघ स्वर्णगिरिको यात्राके लिए निकाला था । इस यात्रा - संघ में मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ सम्मिलित था । इसमें अनेक राजा और स्त्री-पुरुष थे । उसने स्वर्णगिरिको यात्रा आनन्द पूर्वक की। एक दिन उसके मनमें संसार और भोगोंके प्रति तीव्र विराग जागृत हुआ । उसने मुनि दीक्षा ले ली और घोर... तप करके स्वर्णगिरिसे पाँच हजार मुनियोंके साथ मुक्ति प्राप्त की। इस कथानकसे तो स्वर्णगिरिसे मुक्ति प्राप्त करनेवाले सुवर्णभद्र और पावागिरिसे निर्वाण प्राप्त करनेवाले सुवर्णभद्र भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे । यह सिद्ध होता है । अतः पावागिरिसे मुक्त होनेवाले सुवर्णभद्र और अन्य तीन मुनियोंका परिचय अन्वेषणीय है ।
पावागिरिसे इन सुवर्णभद्रादि चार मुनियोंकी मुक्ति प्राप्तिसे सम्बन्धित उल्लेख प्राकृत निर्वाण - काण्ड में मिलता है । यथा
"पावागिरिवरसिहरे सुबण्णभद्दाइमुणिवरा चउरो । चलणाणईतडग्गे णिव्त्राण गया णमो तेसि || १३|| "
अर्थात् पावागिरिके शिखरपर चलना नदी के तटपर सुवर्णभद्र आदि चार मुनीश्वर निर्वाणको प्राप्त हुए ।
इस गाथा के अनुसार यह सिद्धक्षेत्र चलना नदीके तटपर अवस्थित था। संस्कृत निर्वाणभक्ति नदीका नाम न देकर केवल इतना ही उल्लेख कर दिया है - ' नद्यास्तटे जितरिपुश्च 'सुवर्णभद्रः' अर्थात् कर्मशत्रुओंको जीतनेवाले सुवर्णभद्र नदीके तटपर मुक्त हुए ।
भट्टारक गुणकीर्तिने पावागिरिको सिद्धक्षेत्र तो माना है किन्तु उन्होंने इसके लिए 'चलणा नयतटाक' अर्थात् 'चलना नदीके तटसे' यह प्रयुक्त किया है तथा यहाँसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंका निर्वाण होना माना है। उनका तत्सम्बन्धी अंश' इस प्रकार है
"चलणा नयतटाकि आहूढ कोडि सिद्धासि नमस्कार माझा ।'
भट्टारक श्रुतसागरने भी इस क्षेत्रका नाम न देकर 'चलनानदी तट'" शब्द दिया है । भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थं वन्दना' नामक रचना में पावागिरिके स्थानपर ऊन नाम दिया है और उसकी बड़ी प्रशंसा की है। मूल पाठ इस प्रकार है ।
"ऊननयर अभिराम देश नमिआउ मनोहर । शिखरबद्ध प्रासाद भविक जीव मन सुखकर । देखत परमानन्द पूजत पाप बिनासे । मन चिते जे कोय तास सुभ ज्ञान प्रकासे ॥ दर्शन देखत जे निपुन पाप ताप दूरे पले ।
ब्रह्म ज्ञानसागर बदति मन चितित फल सवि फले ॥८४॥ |
१. तीर्थवन्दन संग्रह, पृ. ५१ ।
२. बोध प्राभृत टीका - गाथा २७ ।
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ चिमणा पण्डित ने 'तीर्थ-वन्दना' नामक रचनामें पावागिरि सिद्धक्षेत्रको नमस्कार करते हुए भक्तिपूर्ण पद लिखा है जो इस प्रकार है
"पावागिरि समीप सुवर्णभद्रा । महातपोनिधि चउरे मुनीन्द्रा॥ साधु मुक्ति गेले चलना तडागी। ऐसे सिद्धक्षेत्रा नमस्कार वेगी॥१८॥"
इस प्रकार यद्यपि इन सभी विद्वानोंने इस तीर्थको सिद्धक्षेत्र स्वीकार किया है, किन्तु सबने इसका नामोल्लेख न करके किसी ने 'नद्यास्तटे' लिखा, किसीने 'चलणा नयतटकि' लिखा और किसीने न तो पावागिरि लिखा, न ही चलना नदीका तट, बल्कि ऊन लिखकर सिद्धक्षेत्रके रूपमें स्मरण किया। इन सबका अभिप्रेत पावागिरि ही रहा, जो चलना नदीके तटपर अवस्थित था।
निर्वाण काण्डमें पावागिरिके शिखरसे सुवर्णभद्रादि मुनियोंकी मुक्ति मानी है और निर्वाणभक्ति तथा अन्य कई तीर्थ-वन्दनाओंमें चलना या नदी तटसे उनको मुक्त हुआ माना है। किन्तु विचार करनेपर इनमें कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। पावाके साथ गिरि शब्द होनेका अर्थ ही यह है कि यह पर्वत था। यह पर्वत चलना नदीके तटपर अवस्थित था। मुनियोंने इस पर्वत शिखरपर तपस्या करके मुक्ति प्राप्त की। इसीको विभिन्न लेखकोंने विभिन्न रूपोंमें वर्णित किया है। भिन्न-भिन्न रूपोंमें वर्णन करनेका एक मात्र कारण यह है कि पावागिरि नामके दो तीर्थ-क्षेत्र हैं। एक तो वह जहां रामके पुत्र और लाट नरेन्द्र आदि पांच करोड़ मुनि मुक्त हुए। दूसरा वह, जहाँसे सुवर्णभद्र आदि चार मुनियोंको मुक्ति लाभ हुआ। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें दोनों ही पावागिरि क्षेत्रोंका उल्लेख है और दोनोंके लिए 'पावागिरिवर सिहरे' लिखा है। किन्तु वही दोनोंके मध्य अन्तर भी डाल दिया है। एकमें (गाथा नं. ६) तो केवल 'पावागिरि वर सिहरे' रहने दिया, जबकि दूसरे क्षेत्रके वर्णनमें (गाथा नं. १३ ) में 'पावागिरिवर सिहरे' के साथ 'चलणाणईतडग्गे' लगाकर विशेषता प्रकट कर दी। निर्वाण-भक्तिमें इसका नाम न देकर केवल 'नद्यास्तटे' दिया है। श्रुतसागरने एक पावागिरिका उल्लेख 'लाटदेश पावागिरि के रूपमें किया तथा दूसरा निर्वाण-भक्तिके समान 'चलनानदी तट' इस रूप में दिया। ज्ञानसागरने पावागिरिके लिए 'पावागढ़ सुपवित्र देश गुज्जर मुखमण्डन' लिखकर उसे गुर्जर देशमें अवस्थित बताया और दूसरे पावागिरिकी स्थिति अधिक स्पष्ट करनेके लिए उसे निमाड़ देशमें स्थित बताकर ऊन नामसे अभिहित किया। ___साहित्यमें दोनों ही क्षेत्रोंको पावागिरि कहा गया है, किन्तु व्यवहारमें गुर्जर (गुजरात) प्रदेशके पावागिरिको पावागढ़ कहा जाता है क्योंकि यहां बहुत विशाल पहाड़ी गढ़ (किला ) है। और दूसरे क्षेत्रको पावागिरि ही कहा जाता है। क्षेत्रका इतिहास
बात उन दिनोंकी है जब ऊनमें प्राचीन जैन मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें खड़े हुए थे। लोग किन्हीं कारणोंसे तीर्थक्षेत्रके रूप में इसे भूल चुके थे और यहां कोई यात्री नहीं आता था। यहाँके जीर्ण मन्दिर और मन्दिरोंके भग्नावशेष तत्कालीन होल्कर रियासतके पुरातत्त्व विभागके अधिकारमें थे। उन दिनों सेठ मोतीलालजी बड़वानी और सेठ हरसुखजी सुसारीने सागर निवासी श्री चेतनलाल पुजारीको ऊनके मन्दिरोंके प्रक्षाल, पूजन और सफाईके लिए नियुक्त किया। कुछ समय बाद आषाढ़ वदी ८ संवत् १९९१ को पुजारीको एक अद्भुत स्वप्न आया। स्वप्नमें उनसे कोई कह रहा था-'अमुक स्थानपर जिनेन्द्र भगवान्को मूर्तियां हैं, तुम उनको खोदो तो दर्शन होगा।'
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ . प्रातःकाल नियमानुसार पुजारी मन्दिरमें प्रक्षाल पूजाके लिए गया। इससे निवृत्त होनेपर जब वह वापस आने लगा, तब उसे रात्रिमें देखे हुए स्वप्नका स्मरण हो आया। खण्डहरोंके बीचमें स्वप्नमें देखा हुआ स्थान उसे दीख पड़ा। उसने उस स्थानसे कुछ मिट्टी हटायी ही थी कि मूर्तिका सिर दिखाई पड़ा। तब उत्साहित होकर मजदूरोंसे उस स्थानको खुदवाया। फलतः भगवान् महावीरको एक सुन्दर प्रतिमा निकली। इसके अतिरिक्त चरण चिह्न और चार अन्य तीर्थंकरोंकी मूर्तियां निकलीं। पुजारीने ये सब मूर्तियां अपनी कुटियामें रख ली और यह समाचार निकटवर्ती नगरोंमें भिजवा दिया। समाचार मिलते ही सुसारी, बड़वानी, लोनावा आदि स्थानोंसे अनेक प्रतिष्ठित सज्जन पधारे । उन्होंने आकर मूर्तियोंका प्रक्षाल और पूजन किया। चरण-चिह्न भी उत्खननमें प्राप्त हुए थे । अतः यह निश्चय किया कि चरण-चिह्न सिद्धक्षेत्रपर विराजमान होते थे, अतः यह स्थान सिद्धक्षेत्र होना चाहिए। यह सिद्धक्षेत्र पावागिरि हो सकता है, जिसका उल्लेख निर्वाण-काण्डमें किया गया है।
कुछ दिनों पश्चात् अपने इस निर्णयकी पुष्टि इन्दौर आदि कई स्थानोंके विद्वानोंको ऊन बुलाकर उनसे करा ली गयी और स्थानको पावागिरि सिद्धक्षेत्र घोषित कर दिया गया। सरकार द्वारा जैन समाजको अधिकार .
ऊनके निकट पावागिरि सिद्धक्षेत्रको स्थापना और उसका उद्घाटन कर दिया गया। किन्तु प्राचीन मन्दिर-मूर्तियोंपर सरकारका अधिकार था । अतः अधिकार प्राप्तिके लिए सर सेठ हुकमचन्द्रजी, इन्दौरने तत्कालीन होल्कर रियासतके महाराज श्री यशवन्तराव होल्करकी सेवामें प्रार्थना पत्र दिया और यह क्षेत्र दिगम्बर जैन समाजके अधिकारमें देनेका अनुरोध किया। काफी प्रयत्नोंके पश्चात् हुजूर श्री शंकरके आदेश नं. २९४ दिनांक २९-८-३५ के अनुसार सर सेठ साहबको अधिकार-पत्र प्राप्त हुआ, जिसके अनुसार दिगम्बर जैन समाजको यह अधिकार प्रदान किया गया कि ऊनमें नयी खोजी हुई मूर्तियोंपर उसका अधिकार रहे या, ऊनके ग्वालेश्वर मन्दिरमें इन्हें विराजमान किया जा सकता है। साथ ही, अपने व्ययसे दिगम्बर जैन समाज ग्वालेश्वर मन्दिरका जीर्णोद्धार करा सकती है। बशर्ते (१) जीर्णोद्धारका यह कार्य इन्दौर म्यूजियमके क्यूरेटरके परामर्शसे किया जाये, जिससे इस प्राचीन स्मारकका पुरातात्त्विक महत्त्व और कलावैशिष्ट्य नष्ट न हो। (२) मूर्तियां ऊनसे अन्यत्र नहीं ले जायी जायेंगी। (३) ऊनके प्राचीन स्मारकोंका स्वामित्व सरकारका होगा। ऊन नाम : एक किंवदन्ती
इस स्थानका नाम ऊन क्यों पड़ा, इस सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहुप्रचलित है। जिसका उल्लेख 'दी इन्दौर स्टेट गजेटियर' जि. १ पृ. ६६७ पर इस प्रकार किया गया है____ ऊनके राजा बल्लालके पेटमें एक सर्पिणी चली गयी। धीरे-धीरे वह वहां बड़ी हो गयी। इसके कारण राजाको असह्य वेदना होती थी। उसने अनेक उपचार कराये किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। तब जीवनसे निराश होकर वह गंगामें डूबनेके लिए बनारसको चल दिया। उसकी रानी उसके साथ थी। रातमें राजाके सो जानेपर सर्पिणी बाहर निकल आती थी। एक रात एक सांप आया और उस सर्पिणीसे वार्तालाप करने लगा। सांपने नागिनसे कहा-"अगर राजाको यह ज्ञात हो जाये कि पानीमें बझाया हआ चना खा लेनेसे तेरा अन्त हो सकता है तो तेरा जीना ही असम्भव हो जाये।" नागिन बोली-"अगर राजाको यह पता चल जाये कि तेरे बिलमें गरम
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३०३ तेल डालनेसे तू मर सकता है तो उसे वह अपार धन मिल जायेगा, जिसकी रक्षा तू बराबर करता रहता है।"
रानीने नाग-नागिनका यह वार्तालाप सुन लिया और प्रातःकाल होनेपर राजाको कह सुनाया। राजाने वैसा ही किया। कुछ चूना खा लिया जिससे पेटकी नागिन मर गयी और उसकी पीड़ा दूर हो गयी। फिर उस सर्पके बिलका पता लगाकर उसने गर्म तेल डाल दिया। जिससे सांप मर गया और राजाको विपुल धन-राशिकी प्राप्ति हुई। धन पाकर उसने १०० मन्दिरों, १०० सरोवरों और १०० कुओंके निर्माण की प्रतिज्ञा की। किन्तु कुएं, सरोवर और मन्दिर प्रत्येक ९९ ही बन पाये । प्रत्येकमें एककी कमी ( ऊन ) रहनेसे इस स्थानका नाम ही 'ऊन' पड़ गया। कनका ऐतिहासिक महत्त्व
ऊनका शासक बल्लाल कौन था और किस वंशसे सम्बन्धित था, इस विषयमें इतिहासकारोंमें कई मत पाये जाते हैं। एक मत है कि ऊनमें मन्दिरोंका निर्माता होयसलवंशी बल्लाल द्वितीय था। यह नरसिंह देव प्रथमका पुत्र था। इसका शासन-काल सन् ११७३ से १२२० तक था। होयसल वंशमें विनयादित्यका पुत्र एरेयंग हुआ था, जो चालुक्य राजाका सामन्त था तथा जिसने मालवराजकी राजधानी धारानगरीपर आक्रमण करके उसका विध्वंस किया था। इस घटनासे यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि एरेयंगकी चौथी पीढ़ीमें होनेवाला बल्लाल द्वितीय मालवाका शासक रहा होगा। वही बल्लाल वाराणसी भी गंगामें प्राण विसर्जनके लिए जाता हुआ जब इस स्थान (ऊन ) पर ठहरा होगा, जिसका संकेत किंवदन्तीमें है तब इस होयसलवंशी बल्लाल द्वितीयने ऊनमें मन्दिरोंका निर्माण कराया होगा।
- दूसरा मत 'पज्जुण्णचरियं (प्रद्युम्नचरितं ) की प्रशस्तिमें प्रतिपादित है। इस ग्रन्थके कर्ता सिद्ध और सिंह कवि हैं। इसका रचना काल अनुमानतः बारहवीं शताब्दीका मध्य काल है। इसमें बताया है कि ब्रम्हणवाड़ नामक नगरमें अनेक मठ, मन्दिर और जिनालय थे। वहांका शासक रणघोरीका पुत्र बल्लाल था। अर्णोराजका क्षय करनेके लिए वह कालस्वरूप था। उसका भृत्य गुहिलवंशीय भुल्लण था।
अर्णोराज सपादलक्ष ( सांभर ) का राजा था। उक्त प्रशस्तिमें रणघोरीके पुत्र बल्लालको अर्णोराजका क्षय करनेके लिए कालस्वरूप बताया है। किन्तु अन्य साक्ष्योंसे यह सिद्ध होता है कि अर्णोराजका संहार चौलुक्यवंशी कुमारपालने किया था। इससे लगता है कि बल्लालने किसी युद्धमें अर्णोराजको पराजित किया होगा किन्तु बादमें उन दोनोंकी मित्रता हो गयी होगी और बादमें उन दोनोंको कुमारपालने पराजित किया। ___इस प्रशस्तिसे यह स्पष्ट ज्ञात नहीं होता कि रणघोरीका पुत्र बल्लाल क्या मालवराज बल्लाल था अथवा निमाड़का कोई राजा था। किन्तु विचार करनेपर यह बल्लाल मालवराज प्रतीत होता है। कुमारपालने जिस बल्लालको युद्ध में मरवाया था, वह वही बल्लाल था, जिसने ऊनमें ९९ मन्दिरोंका निर्माण कराया था और जो मालवाका स्वामी था।
आचार्य सोमप्रभने 'कुमारपाल-प्रबोध' नामक ग्रन्थ ९००० श्लोक परिमाण लिखा था। इस ग्रन्थकी रचना संवत् १२४१ में की गयी अर्थात् सोमप्रभाचार्य महाराज कुमारपालके समकालीन थे और उन्होंने महाराजको उपदेश भी दिया था। इसलिए इनकी रचनामें ऐतिह्य सामग्री विशेष प्रामाणिक हो सकती है ऐसा विश्वास किया जाता है। इन्हींकी रचनाको आधार बताकर सोभतिलक सूरिने विक्रमको चौदहवीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें 'कुमारपालचरित' की रचना की थी।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इन आचार्योंके इन ग्रन्थोंसे बल्लाल तथा तत्कालीन राजाओंके इतिहासपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
कुमारपाल जब गद्दीपर बैठा, उस समय चौलुक्य वंशका राज्य-विस्तार सुदूर प्रान्तों में था। उसका मन्त्री उदयन था। उदयनका तीसरा पुत्र चाहड़ बड़ा साहसी समरवीर था। जब कुमारपाल अपने राज्यकी व्यवस्थामें लगा हुआ था, तब किसी कारणवश चाहड़ कुमारपालसे असन्तुष्ट होकर शाकम्भरी-नरेश अर्णोराजसे जा मिला। अर्णोराजके साथ कुमारपालकी बहन देवलदेवीका विवाह हुआ था। किन्तु अर्णोराज कुमारपालके विरुद्ध हो गया था। चाहड़की कूटनीतिसे मालवराज बल्लाल भी कुमारपालके विरुद्ध इस गुटमें आ मिला। जब कुमारपाल अर्णोराजके ऊपर चढ़ाई करनेके लिए चला तो चन्द्रावती ( आबूके निकटस्थ ) के राजा विक्रमसिंहने कुमारपालकी अभ्यर्थना करके भोजनका निमन्त्रण दिया। किन्तु चतुर कुमारपाल उसकी कपट-योजनाको भांप गया। वास्तवमें विक्रमसिंहने लाखका एक महल बनवाया था। वह कुमारपालको मारना चाहता था। कुमारपाल उस समय वहाँसे शत्रुसे युद्ध करने चला गया। उसने अर्णोराजपर प्रबल आक्रमण करके उसे शरणागत होनेको बाध्य किया। लौटते हुए उसने विक्रमसिंहपर आक्रमण किया और उसे पिंजड़े में बन्द करके अपने साथ अपनी राजधानी ले गया। बल्लालके ऊपर आक्रमण करनेके लिए उसने अपने विश्वस्त सेनाध्यक्ष काकमरकी अध्यक्षतामें एक विशाल सेना भेजी। सेनापतिने मालवनरेशका सिर काटकर कुमारपालकी विजयपताका उज्जयिनीके राजमहलपर फहरा दी। इस प्रकार गुजरातके पड़ोसी और प्रतिस्पर्धी तीन राज्योंको एक साथ गुजरातके मातहत कर लिया।
मन्त्री तेजपालके आबू स्थित लूणबसति के लेख में-जो संवत् १२८७ का है-मालवराज बल्लालका वध करनेवालेका नाम यशोधरबल दिया है। इसका समर्थन अचलेश्वर मन्दिरके शिलालेखसे भी होता है। - यशोधवलका वि. सं. १२०२ का एक शिलालेख अजारीगाँवसे मिला है, जिसमें 'प्रमारवंशोद्भव महामण्डलेश्वर श्रीयशोधवलराज्ये' इस वाक्य द्वारा यशोधवलको महामण्डलेश्वर और परमारवंशका बताया है । वह कुमारपालका माण्डलिक राजा था और आबूमें राज्य करता था। उसके पुत्र धारावर्षका संवत् १२२० का एक लेख मिला है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यशोधवलका देहान्त इससे पूर्व हो गया होगा।
, मालवाके परमार राजा यशोवर्माको गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंहने पराजित करके मालवापर अधिकार कर लिया था। यशोवर्माके पश्चात् मालवाधिपतिका विरुद बल्लालदेवके साथ लगा हुआ मिलता है। किन्तु परमार वंशावलीमें बल्लाल नामक कोई व्यक्ति नहीं मिलता। तब प्रश्न उठता है कि यह बल्लाल किस वंशका था।
१. रोदःकन्दरवर्तिकीतिलहरीलिप्तामृतांशुद्युते
रप्रद्युम्नवशो यशोधवल इत्यासीत्तनूजस्ततः । यश्चौलुक्यकुमारपालनृपतिः प्रत्यर्थितामागतं मत्त्वा सत्त्वरमेव मालवपति बल्लालमालब्धवान् ॥ अर्थात् परमारवंशी रामदेवके अत्यन्त यशस्वी कामजेता यशोधवल नामक पुत्र हुआ। चौलुक्यवंशी
कुमारपालके शत्रु मालवपति बल्लालको आता जानकर इसीने उसको मार डाला। २. भारतके प्राचीन राजवंश, भाग १, पृ. ७६-७७ ।
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३०५ बल्लालकी मृत्युके सम्बन्धमें कई प्रशस्तियों और लेखोंमें उल्लेख मिलता है। बड़नगरमें कुमारपालको एक प्रशस्ति मिली है। उसके १५वें श्लोकमें बताया है कि बल्लालको जीतकर उसका मस्तक कुमारपालके महलोंके द्वारपर लटका दिया। इस प्रशस्तिका काल संवत् १२०८ है और कमारपालके राज्याभिषेकका काल सं. १२०० है। अतः इस बीच में ही बल्लालकी मृत्यु होनी सम्भव है।
ऊनके एक शिवमन्दिरमें एक शिलालेख है। उसमें बल्लाल देवका नाम आया है। 'भोजप्रबन्ध' का कर्ता भी एक बल्लाल था। ऊन नगरके बसानेवाले बल्लालसे भोज-प्रबन्धका कर्ता बल्लाल भिन्न था या दोनों एक ही व्यक्ति थे, यह भी एक प्रश्न है। ऊनको बसानेवाला बल्लाल निश्चय ही एक राजा था, और उसका एक सामन्त भुल्लण ब्रह्मणवाड़का शासक था। जैसा कि 'पज्जण्णचरियं' की प्रशस्तिसे पता चलता है। सम्भव है, इस राजाने ही भोज-प्रबन्धकी रचना की हो। .
___ अभी एक समस्या शेष है, जिसका समाधान आवश्यक है। बल्लालको कुमारपाल चरितग्रन्थों, शिलालेखों और प्रशस्तियोंमें सर्वत्र मालवराज लिखा है। क्या मालवमें उज्जयिनी भी शामिल थी?
श्री लक्ष्मीशंकर व्यासने 'चौलुक्य कुमारपाल' नामक ग्रन्थ लिखा है। उसमें उन्होंने बल्लाल नामक दो राजाओंका उल्लेख किया है-एक उज्जयिनीराज बल्लाल तथा दूसरा मालवराज बल्लाल । तथा यह भी लिखा है कि उज्जयिनीराज बल्लालने मालवराज बल्लालसे सैनिक अभिसन्धि कर ली।
इस ग्रन्थके आमुख लेखक डॉ. राजबली पाण्डेयने भो चौलुक्य कुमारपालके विरुद्ध उज्जयिनीके राजा बल्लाल द्वारा अभियान करनेका उल्लेख किया है।
इन इतिहासकारोंके मतमें उज्जयिनी और मालवाके राजाओंके नाम बल्लाल थे। दोनों समकालीन थे और दोनोंकी परस्पर सुरक्षा सन्धि थी। इन विद्वानोंकी इस मान्यताका आधार क्या है, यह स्पष्ट नहीं हो सका। ___आचार्य सोमप्रभ, आचार्य हेमचन्द्र और आचार्य सोमतिलक सूरिके कुमारपाल सम्बन्धी चरित-ग्रन्थोंमें बल्लालको मालवराज लिखा है। तथा यह भी स्पष्ट लिखा है कि बल्लालके ऊपर चढ़ाई करनेवाले सेनापतिने शत्रुका शिरच्छेद करके कुमारपालकी विजयपताका उज्जयिनीके राजमहलपर फहरायी। उदयपुर ( भेलसा ) में कुमारपालके दो लेख सं. १२२० और १२२२ के मिले हैं। उनमें कुमारपालको अवन्तिनाथ कहा गया है। मालवराज बल्लालको मारकर कुमारपाल अवन्तिनाथ कहलाया। इसका तात्पर्य यह है कि मालवराज बल्लाल और उज्जयिनीका बल्लाल ये दो पृथक् व्यक्ति नहीं थे, दोनों एक थे।
___ यहाँ हम संक्षेपमें मालवाके परमारों और गुजरातके चालुक्य राजाओंका क्रमबद्ध इतिहास दे रहे हैं । इससे अनेक शंकाओंका समाधान हो जाता है।
"मुंज और सिन्धुराजने मालवामें परमारोंका राज्य सुदृढ़ किया। सिन्धुराजका पुत्र भोज सन् १००० में मालवाकी गद्दी पर बैठा। उसने अपना राज्य चित्तौड़, बाँसगड़ा, डूंगरपुर, भेलसा,
१. The Parimaras of Malwa (X1). The Chaulukyas of Gujrat (XII ) by
D. C. Ganguly, in the Struggle for Empire, Vol. V, pp. 66.81, Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay.
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खानदेश, कोंकण और गोदावरीके ऊपरी मुहानों तक विस्तृत कर लिया। धारा, उज्जैन और माण्डु भी उसके अधिकारमें थे । उसके राज्यकालमें ही सन् १०४२ में चौलुक्य जयसिंहके पुत्र सोमेश्वर प्रथमने मालवापर कुछ समयके लिए अधिकार कर लिया । भोजकी मृत्युके बाद सन् १०५५ में मालवा कलचुरि और चालुक्योंके हाथमें चला गया। भोजका उत्तराधिकारी जयसिंह हुआ । उसने दक्षिणके विक्रमादित्य षष्ठकी सहायतासे पुनः एक बार मालवापर अधिकार कर लिया । सोमेश्वर द्वितीयने पुनः मालवापर चढ़ाई करके जयसिंहको मार दिया और मालवापर अधिकार कर लिया । जयसिंहकी मृत्यु होनेपर भोजके भाई उदयादित्यने चाहमान विग्रहराज तृतीयको सहायतासे पुनः मालवापर अधिकार कर लिया। सन् १०८० और १०८६ के उदया· दित्यके शिलालेखोंके अनुसार उसकी राज्य सीमाएँ दक्षिणमें निमाड़ जिला, उत्तरमें झालावाड़ स्टेट, पूर्वमें भेलसा तक थीं । सन् १९०४ के लेखके अनुसार उसके बाद क्रमशः उसके दो पुत्र लक्ष्मदेव और नरवर्मन गद्दीपर बैठे ।
नरवर्मन मालवाकी गद्दीपर सन् १०९४ में बैठा । यह चन्देल और शाकम्भरीके राजाओंसे पराजित भी हुआ । चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराजके हाथों भी उसे करारी पराजय उठानी पड़ी और इसमें वह कैद भी हो गया । वह बादमें छूट गया, किन्तु परमार राज्यकी चूलें -तक इससे हिल गयीं ।
नरवर्मनका पुत्र यशोवर्मन सन् १९३३ में गद्दीपर बैठा । परमार राज्य बिखर गया था । देवास में विनयपालने अपना राज्य जमा लिया । चन्देल मदनवर्मनने भेलसापर अधिकार कर लिया । फिर चौलुक्य जयसिंह सिद्धराजने पुनः मालवापर आक्रमण करके उसे बन्दी बना लिया और सम्पूर्ण मालवापर अधिकार करके उसे अपने राज्यमें मिला लिया और अवन्तिनाथ विरुद धारण किया । सन् १९३८ तक मालवा जयसिंहके अधिकारमें रहा । इसके पश्चात् सम्भवतः यशोवर्मंनके पुत्र जयवर्मन ने जयसिंह चौलुक्यके शासन के अन्तिम दिनों में मालवाको स्वतन्त्र कर लिया । किन्तु वह अधिक समय तक मालवापर अपना अधिकार नहीं रख सका । कल्याणके चालुक्य जगदेकमल्ल और होयसल नरसिंह प्रथमने मालवापर आक्रमण किया, उसकी शक्ति नष्ट कर दी और उस देशकी राजगद्दीपर 'बल्लाल' नामक एक व्यक्तिको बैठा दिया। इस घटना के कुछ समय पश्चात् सन् ११४३ में चौलुक्य कुमारपाल बल्लालको राजगद्दी से उखाड़ फेंका और भेलसा तक सारा मालवा अपने राज्यमें मिला लिया ।
• लगभग बीस वर्ष तक मालवा गुजरातके राजाका भांग रहा । इस अवधि में परमार वंशके राजा गुजरात नरेश सामन्त बनकर भोपाल, निमाड़ जिला, होशंगाबाद और खानदेशका शासन चलाते रहे । इन्हें 'महाकुमार' कहा जाता था । बारहवीं शताब्दी के सातवें शतकमें परमार जयवर्मनके पुत्र 'विन्ध्यवमंनने चौलुक्य मूलराज द्वितीयको पराजित करके मालवापर अधिकार कर लिया । किन्तु विन्ध्यवर्मन शान्तिपूर्वक राज्य नहीं कर पाया । होयसलों और यादवोंने उसे चैनसे नहीं बैठने दिया । वे मालवापर निरन्तर आक्रमण करते रहे । सन् १९९० के लगभग चोलोंकी सहायता से विन्ध्यवमंनने होयसल राज्यपर आक्रमण कर दिया किन्तु होयसल नरेश बल्लाल द्वितीयने उसे भगा दिया ।"
उपर्युक्त विवरण से कई बातोंपर प्रकाश पड़ता है। (१) मालवराज बल्लाल परमार वंश का राजा नहीं था । (२) मालवा और अवन्तीमें बल्लाल नामके दो राजा नहीं थे, किन्तु अवन्ती भी मालवा में थी और चालुक्य होयसल राजाओंने मिलकर परमार नरेशको मारकर उसके स्थानपर बल्लालको राजा बनाया था । (३) होयसलवंशी बल्लाल द्वितीय कुमारपालकी मृत्यु (सन्
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३०७ ११७२ ) के पश्चात् सन् ११७३ में राजसिंहासनपर बैठा था। मालवराज बल्लालकी मृत्यु उससे पहले ही हो चुकी थी क्योंकि कुमारपालके सामन्त यशोधवलने युद्ध में उसे मारा था। इसलिए यह सम्भावना भी समाप्त हो जाती है कि प्रशस्तियों और लेखोंमें जिस मालवराज बल्लालका उल्लेख आया है, वह होयसलवंशी बल्लाल द्वितीय हो सकता है। . .. इन निष्कर्षों के प्रकाशमें हम यह स्वीकार कर सकते हैं कि ऊनमें मन्दिरोंका निर्माता मालवराज बल्लाल था। तब एक प्रश्न शेष रह जाता है कि अगर यह मालवराज बल्लाल परमार या होयसल नहीं था तो फिर यह किस वंशसे सम्बन्धित था ?
इस सम्बन्धमें खेरला गाँव (जिला बैतूल ) से प्राप्त शिलालेखसे कुछ समाधान मिल सकता है । यह शिलालेख शक संवत् १०७९ ( ई. सन् ११५७ ) का है। इस शिलालेखमें राजा नसिंह बल्लाल जैतपाल ऐसी राज परम्परा दी हई है। यह शिलालेख खण्डित है, अतः यह पूरा नहीं पढ़ा जा सका है। एक और भी लेख यहाँ प्राप्त हुआ है। यह लेख शक संवत् १०९४ (ई. सन् ११७२ ) का है। इस समय जैतपाल राजा राज्य कर रहा था। इस लेखका प्रारम्भ 'जिनानुसिद्धिः' पदसे हुआ है। इससे लगता है कि ये राजा जैन थे। किन्तु जैतपालको मराठीके आद्यकवि मुकुन्दराजने वैदिक धर्मका उपदेश देकर उसे वेदानुयायी बना लिया था। । ये राजा ऐलवंशी राजा श्रीपालके वंशज थे। खेरला ग्राम श्रीपाल राजाके आधीन था। राजा श्रीपालके साथ महमूद गजनवी ( सन् ९९९ से १०२७ ) के भानजे अब्दुल रहमानका युद्ध हुआ था। 'तवारीख-ए-अमजदिया' के अनुसार यह युद्ध ई. सन् १००१ में ऐलिचपुर और खेसा निकट हुआ था। अब्दुल रहमानका विवाह हो रहा था तभी लड़ाई छिड़ गयी। वह दूल्हेके वेषमें ही लड़ा। इस युद्ध में दोनों मारे गये।
इस ऐतिहासिक तथ्यसे यह सिद्ध हो जाता है कि बल्लाल ऐलवंशी था, इसके पूर्वजोंका शासन ऐलिचपुरमें था। कल्याणके चालुक्य जगदेकमल्ल और होयसल नरसिंह प्रथमने परमार राजा जयवर्मनके विरुद्ध सन् ११३८ के लगभग आक्रमण करके उसे राज्यच्युत कर दिया और अपने विश्वस्त राजा बल्लालको ऐलिचपुरसे बुलाकर मालवाका राज्य सौंप दिया। सन् ११४३ में चौलुक्य कुमारपालकी आज्ञासे चन्द्रावती नरेश विक्रमसिंहके भतीजे परमारवंशी यशोधवलने बल्लालपर आक्रमण करके युद्ध में उसका वध कर दिया और उसका सिर कुमारपालके महलके द्वारपर टांग दिया। इस प्रकार बल्लाल मालवापर प्रायः ५-७ साल तक ही शासन कर पाया। किन्तु 'पज्जुण्णचरियं' में बल्लालको सपादलक्षके अधिपति अर्णोराजके लिए कालस्वरूप बताया है। इससे प्रतीत होता है कि बल्लाल अत्यन्त वीर और साहसी था और उसने अल्पकालमें अपने प्रभावका विस्तार कर लिया था। ..
हमें यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि बल्लाल प्रतापी नरेश था। साथ ही उसका व्यक्तित्व विवादास्पद भी था। विभिन्न शिलालेखों और ग्रन्थोंमें उसके सम्बन्धमें ऐकमत्य नहीं मिलता। 'पज्जुण्णचरियं' में उसे रणधोरीका पुत्र बताया है तो खेरलाके शिलालेखमें नृसिंहका । सोमप्रभ आचार्यने 'कुमारपालप्रबोध' में कुमारपाल नरेशके सेनाध्यक्ष काकभटको बल्लालका वध करनेवाला बताया है तो लूणवसति, अचलेश्वर और अजारीगांवके शिलालेखोंमें बल्लालके संहारकर्ताका नाम यशोधवल दिया है । इस प्रकारके मतभेदोंके कारण और कहीं भी उसके वंशका उल्लेख न होनेके कारण इतिहासज्ञोंमें भी बल्लालको लेकर भारी मतभेद पाये जाते हैं। ऐसी स्थितिमें किसी भी शिलालेख अथवा प्राचीन ग्रन्थकी विश्वसनीयतामें सन्देह न करते हुए भी उनमें सामंजस्य स्थापित करनेका हमें प्रयत्न करना है। तभी सत्य पकड़में आ सकता है।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ विवादास्पद पावागिरि
चलना नदी कौन-सी है, यह ज्ञात नहीं होता। अतः पावागिरिके विषयमें विवाद है। जिन्होंने ऊनके निकट पावागिरिको स्थिति मानी है, वे ऊनके निकट बहनेवाली चिरूढ़को हो चलना नदी मानते हैं। उनके मत से चेलनाका चेटक, चेटकका चिरट, चिरटका चिरूढ़ हो गया।
ऊनके निकट पावागिरि माननेके लिए तर्क यह दिया जाता है
"निर्वाण काण्डमें निमाड़ स्थित सिद्धक्षेत्रोंकी वन्दनाका क्रम इस प्रकार है-(१) रेवा नदीके दोनों तटोंसे मुक्त होनेवाले रावणके पुत्र और साढ़े पांच कोटि मुनियोंकी निर्वाण-स्थली। (२) रेवानदीके तटपर पश्चिम दिशामें सिद्धवरकूट क्षेत्र जहाँसे दो चक्रो, दस कामकुमार और साढ़े तीन करोड़ मुनियोंने मुक्ति-लाभ किया। (३) बड़वानी नगरके दक्षिणमें चूलगिरिके शिखरसे इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण मुक्त हुए। (४) चलना नदीके तटपर पावागिरिक शिखरपर सुवर्णभद्र आदि चार मुनियोंको निर्वाण प्राप्त हुआ। .
उपर्युक्त क्रममें सिद्धवरकूट, बडवानी, फिर पावागिरि है। इस क्रमसे यह संगति बैठायी गयो है कि ये तीनों तीर्थ निकटवर्ती हैं। इसलिए पावागिरि बड़वानी नगरके निकट होना चाहिए। इस स्थानके अतिरिक्त अन्य कोई स्थान नहीं है, जिसे पावागिरि क्षेत्र माना जा सके। ऊन के निकट प्राचीन मन्दिर और मूर्तियां मिली हैं जिनका काल ईसवी सन्की ११वीं-१२वीं शताब्दी तक है। वहाँ प्राचीन चरण-चिह्न भी उपलब्ध हुए हैं। सिद्धक्षेत्रोंपर चरण-चिह्न विराजमान करनेकी परम्परा रही है। इन सब तक संगत कारणोंसे ऊनके निकटवर्ती स्थानको पावागिरि सिद्धक्षेत्र मानना सुसंगत है।"
ऊन को पावागिरि सिद्धक्षेत्र मानने में जो कारण ऊपर दिये हैं, कुछ विद्वान् इन कारणोंको विशेष महत्त्व नहीं देना चाहते। पुरातत्त्व सामग्री और चरण तो उन स्थानोंपर भी. प्राप्त हुए हैं, जो सिद्धक्षेत्र नहीं माने जाते हैं। इसी प्रकार निर्वाण-काण्डके क्रमिक वर्णनको गम्भीर कारण नहीं माना जा सकता। निर्वाण-काण्डमें क्रमका कोई ध्यान नहीं रखा गया। इसके अतिरिक्त इन कारणोंके विरुद्ध कई तर्क हैं। निर्वाण-काण्डकी कई प्राचीन प्रतियोंमें 'पावागिरिवरसिहरे' यह गाथा नहीं मिलती। लगता है, यह गाथा विवादास्पद रही है। कुछ लोग इसे निर्वाण-काण्डकी मल गाथा मानते हैं और कुछ लोग इसे प्रक्षिप्त मानते हैं।
यह बात भी आश्चर्यजनक है कि वर्तमान में ऊनमें उपलब्ध किसी शिलालेख, मन्दिर या मूर्तिपर पावागिरिका नाम नहीं मिलता और न यहाँ चेलना अथवा चलना नदी ही है। यहाँ जो नदी वर्तमानमें है उसे लोग चिरूढ़ कहते हैं और सरकारी कागजातोंमें इस नदीका नाम चन्देरी पाया जाता है। चेलनाका चिरूढ़ या चन्देरीके रूपमें कैसे अपभ्रंश हो गया, इसकी खोज अब तक नहीं हो सकी है। . एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। मालवनरेश बल्लालने यहाँ ९९ मन्दिरोंका निर्माण कराया था। उपर्युक्त किंवदन्तीके अनुसार उसने इन मन्दिरोंका निर्माण व्याधिसे मुक्त होनेपर
और दबा हुआ धन प्राप्त होनेपर उससे ही कराया था। यह किंवदन्ती निराधार है, यदि यह भी मान लिया जाये, तब भी उसने यहाँपर तीर्थक्षेत्र होनेके कारण इन मन्दिरोंका निर्माण कराया था, यह बात विश्वासपूर्वक कहना कठिन है। इन ९९ मन्दिरोंमें कितने जैन मन्दिर थे और कितने वैष्णव मन्दिर, यह उल्लेख किसी शिलालेख आदिमें देखने में नहीं आया। किन्तु वर्तमानमें जो ११ मन्दिर बचे हए मिलते हैं, उनमें ८ वैष्णव मन्दिर हैं और ३ जैन मन्दिर। इससे यह अनुमान लगाना अनुपयुक्त न होगा कि वैष्णव मन्दिरोंकी संख्या जैन मन्दिरोंकी संख्यासे अधिक रही
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
३०९ होगी । इन मन्दिरोंके अतिरिक्त इस भूभागमें जो भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं, वे उन्हीं ९९ मन्दिरोंके प्रतीत होते हैं । जो मूर्तियां और शिलालेख यहाँ मिले हैं, वे सब प्रायः बल्लालके समय अथवा पश्चात्कालके हैं, बल्लालसे पूर्वका कोई लेख, मूर्ति अथवा मन्दिर नहीं मिला। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बल्लालसे पहले इस स्थानको तीर्थंके रूपमें मान्यता नहीं थी । बल्लालने तीर्थक्षेत्र होनेके कारण यहाँ मन्दिरोंका निर्माण नहीं कराया था, अन्य किसी कारणसे कराया था । यदि तीर्थभूमि होने के कारण उसने यहाँ मन्दिरोंका निर्माण कराया होता तो उसे यहाँ वैष्णव मन्दिर बनवानेकी क्या आवश्यकता थी । बल्लाल अपने जीवन में मन्दिरोंका ही निर्माण करा सका, मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा तो उसके बादमें हुई । जो जैन मूर्तियां अब तक भूगर्भसे प्राप्त हुई हैं वे संवत् १२१८, १२५२ और १२६३ की हैं। ये सब बल्लालके भी बादकी हैं। इस स्थानका नाम कभी पावा रहा हो, ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिलता । किन्तु इन सब तर्कोंके विरुद्ध एक प्रबल समर्थक प्रमाण उपलब्ध होता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि ईसाकी १५वीं - १६वीं शताब्दी में यह स्थान तीर्थक्षेत्र के रूपमें मान्य था । १५-१६वीं शताब्दी के विद्वान् भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थं - वन्दना' में इस क्षेत्रका माहात्म्य प्रकट किया है जैसा कि पिछले पृष्ठों में निवेदन कर चुके हैं । उसमें यद्यपि ऊन नगरके शिखरबद्ध मन्दिरोंका वर्णन है, किन्तु वह वर्णन वस्तुतः पावागिरि क्षेत्रका ही है क्योंकि न तो ऊन कोई क्षेत्र है और न पावागिरि क्षेत्रका किसी अन्य पद्यमें माहात्म्य ही प्रकट किया है। अतः इसमें तो सन्देह नहीं है कि यह वर्णन पावागिरिसे सम्बन्धित है । इससे सिद्ध होता है कि १५वीं - १६वीं शताब्दी में यह तीर्थ यहाँ माना जाता था ।
इन समस्त तर्कोंके बावजूद हमारा एक निवेदन है । यदि वास्तविक पावागिरि क्षेत्र वर्तमान ऊन न होकर कोई अन्य स्थान है, तब जबतक उसके सम्बन्ध में निश्चित प्रमाण उपलब्ध न हों, तबतक सन्देह और सम्भावनाओंके बलपर वर्तमान क्षेत्रको अमान्य कर देनेकी बातको गम्भीरता के साथ नहीं लिया जा सकता । पक्ष-विपक्षके तकं उपस्थित करनेमें हमारा आशय शोधछात्रों और विद्वानोंके समक्ष तथ्य उपस्थित करना है जिससे पावागिरि सिद्धक्षेत्र वस्तुतः कहाँ है, इसका निर्णय किया जा सके ।
क्या पव क्षेत्र पावागिरि है ?
पवा क्षेत्र झांसी जिलेमें झांसी और ललितपुर के मध्यमें तालवेहटसे १३ कि. मी. दूर है । यह क्षेत्र घने जंगलों में दो पहाड़ियोंके बीच में स्थित है । क्षेत्रका प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यन्त मनोरम है । एक ओर बेतवा बहती है, दूसरी ओर बेलना । चारों ओर पहाड़ियाँ और इन सबके बीच में क्षेत्र है । उत्तरकी ओर जो नदी बहती है, उसे नाला कहा जाता है । इसके कई नाम हैं । नालेको बाँधके पास 'बैला नाला' कहते हैं और दूसरे बाँधके पास इसका नाम 'बेलाताल' है । यह ताल बहुत बड़ा है। आगे पहाड़की परिक्रमा करता हुआ यह नाला 'बेलोना' नामसे पुकारा जाता है । • किन्तु थोड़ा और आगे चलकर इसे 'बेलना' कहते हैं ।
क्षेत्रपर एक भोंयरा है, जिसमें ६ तीर्थंकर मूर्तियां हैं। कुछ मूर्तियाँ बावड़ी की खुदाई में भी निकली थीं। एक मूर्तिकी चरण-चौकीपर प्रतिष्ठाकाल संवत् २९९ उत्कीर्ण है । किन्तु मूर्तिकी रचना-शैलीसे यह संवत् १२९९ प्रतीत होता है । इस लेख में 'पवा' शब्द भी लिखा हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि मूर्ति की प्रतिष्ठा यहीं पर हुई थी ।
इस क्षेत्र अधिकारियोंकी मान्यता है कि यह क्षेत्र बहुत प्राचीन है तथा यही पावागिरि क्षेत्र है, यहींसे स्वर्णभद्र आदि चार मुनि मुक्त हुए थे। बेलना नदी ही वस्तुतः चेलना नदी है ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ चेलनाका रूप बदलते-बदलते बेलना नाम पड़ गया। अपनी इसी मान्यताके बलपर ये लोग अब पवाको पावागिरि क्षेत्र कहने लगे हैं।
इसमें सन्देह नहीं है कि पावा और पवा, चेलना और बेलना इनमें शब्दसाम्य है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि जिस मूर्तिकी चरण-चौकीपर पवा शब्द उत्कीर्ण मिलता है, उससे लगता है कि संवत् २९९ ( ई. सन् २४२ ) में अथवा १२२९ ( ई. सन् १२४२ ) में भी इस क्षेत्रको पवा कहा जाता था, पावा नहीं। बेलना नदीके जो विभिन्न नाम मिलते हैं, जैसे बैलानाला, बैलाताल, बैलोना, बेलना, उन नामोंमें तो परस्पर साम्य है और बैलानालाका ही रूप बदलतेबदलते वेलना पड़ गया है, किन्तु चेलना या चलनाके साथ उनका कोई साम्य नहीं और विश्वासपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि चेलना अथवा चलनाका रूप बिगड़ते-बिगड़ते बेलना पड़ गया। इसके अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है कि १२वीं-१३वीं शताब्दीसे पूर्ववर्ती कोई लेख, मूर्ति अथवा मन्दिर यहाँ उपलब्ध नहीं, जिसमें पावाका स्पष्ट उल्लेख मिलता हो। इसलिए केवल सम्भावनाके बलपर इसे पावागिरि और सिद्धक्षेत्र मानना क्या उचित हो सकता है ? इसके लिए कुछ ठोस आधार खोजने होंगे। वर्तमान कल्पनाओंके सहारे अधिक दूर तक नहीं चला जा सकता। पावागिरि क्षेत्रपर उपलब्ध पुरातत्त्व सामग्री
होल्कर राज्यके गजेटियरमें ऊन ग्रामके सम्बन्धमें विवरण प्रकाशित हुआ था, उसमें लिखा है-'यह एक छोटा-सा गाँव है। इसकी एकमात्र विशेषता प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्वावशेषोंमें निहित है । ये १२वीं शताब्दीके हैं। उनमें से एक मन्दिरसे धारके एक परमार राजाका एक लेख भी मिला है।
प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता श्री राखालदास बनर्जीके मतानुसार खजुराहोके पश्चात् मध्यभारतमें ऊनके अलावा और कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ इतने प्राचीन देवालय अब तक सुरक्षित अथवा अर्धरक्षित दशामें विद्यमान हों।
प्रारम्भ में यहां पुजारीको पांच प्रतिमाएँ और एक चरण-युगल मिले थे। कुछ समय पश्चात् धर्मशालाके पीछे जमीन खोदते समय एक प्रतिमा और चरण निकले थे। इनके अतिरिक्त चौबारा डेरा नं. २ नामक जैन मन्दिरमें बारहवीं शताब्दीकी दो तीर्थकर मूर्तियां थीं जो इन्दौर नवरत्न-मन्दिर (पुरातत्त्व संग्रहालय ) में पहुंचा दी गयी हैं। मन्दिर-द्वारके सिरदलपर वि. सं. १३३२ का दो पंक्तियोंका एक लेख था। वह भी इन्दौर संग्रहालयमें सुरक्षित है।
जो पांच मूर्तियां भूगर्भसे उत्खननके फलस्वरूप निकली थीं, उनका विवरण इस प्रकार है
मूर्ति नं. १–मूर्ति खड्गासन, अवगाहना १ फुट १० इंच, दोनों ओर इन्द्र । ऊपरकी ओर दो देव तथा दो पद्मासन एवं एक खड्गासन मूर्तियाँ।
मूर्ति नं.२-खड्गासन, अवगाहना १ फुट १० इंच । शेष पहली मूर्तिके समान ।
मूर्ति नं. ३-खड्गासन, अवगाहना १ फुट १० इंच। इधर-उधर दो चमरेन्द्र। ऊपर दो देव तथा दो तीर्थकर प्रतिमाएं, एक पद्मासन, दूसरी खड्गासन।
मूर्ति नं. ४-खड्गासन, एक चमरवाहक । यह शिलाफलक लगभग डेढ़ फुटका है।
ति न. ५-भगवान् महावीरकी २ फुट २ इंच अवगाहनावाली पद्मासन, श्याम वर्ण । इसकी चरण-चौकीपर लेख है जो इस प्रकार पढ़ा गया है. १. The Indore State Gagetteer, Vol. I, Text by L. C. Dhariwal.
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ 'आचार्य श्री प्रभाचन्दः प्रणमति नित्यं सं. १२५२ माघ सुदी ५ रवी चित्रकूटान्वये साधु बाल्हु भार्या शाल्ह तथा मन्दोदरी सुत गोल्ह रतन भाल्लू प्रणमति नित्यं ।"
चित्रकूटान्वय बलात्कारगणकी एक शाखा रहा है। बलगाम्बेके एक कन्नड़ शिलालेखमें चित्रकूटान्वयका प्रयोग मिलता है। उसके अनुसार मालवके शान्तिनाथदेवसे सम्बन्धित बलात्कारगणके चित्रकूटान्वयके मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेवके शिष्य अनन्तकीर्तिदेवको उनके भक्त हेग्गड़े केशवदेव द्वारा दान दिया गया था।
इन मूर्तियोंके साथ जो चरण मिले थे, वे लगभग १० इंच लम्बे हैं। उनपर कोई लेख अंकित नहीं हैं। धर्मशालाके पीछे जो मूर्ति निकली थी, वह भगवान् सम्भवनाथकी है। इसकी अवगाहना २ फुट ८ इंच है। इसके आसनपर संवत् १२१८ का लेख अंकित है जो दो पंक्तियोंमें है। कुछ मूर्तियाँ धर्मशालाके एक कमरेमें रख दी हैं। ये भूगर्भसे निकली थीं।
क्षेत्रपर तीन मन्दिर प्राचीन हैं जिनमें सड़कके पास ग्राममें दो मन्दिर हैं। इन दोनों जैन मन्दिरोंका कलापक्ष अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत है। इन दोनों मन्दिरोंमें एक है चौबारा डेरा
र दसरा है 'नहाल अवारका डेरा' या चौबारा डेरा नं.२। तीसरा मन्दिर ग्वालेश्वर मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है जो धर्मशालासे दो फलांग दूर पहाड़पर अवस्थित है। ये मन्दिर १२वीं शताब्दीके हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
चौबारा डेरा नं. १-यह मन्दिर नगरमें पूर्वाभिमुख अर्धभग्न दशामें विद्यमान है। यह सभी मन्दिरोंमें विशाल है। इस मन्दिरके मध्यमें एक सभा मण्डप बना हुआ है तथा पूर्व-दक्षिण और उत्तरकी ओर अर्धमण्डप बने हुए हैं। सभा-मण्डपके चारों आधार स्तम्भ कलाके उत्कृष्ट नमनोंमें से हैं। उत्तरी दीवारपर एक वस्तु ऐसी बनी हुई है जिसकी ओर सहज ही ध्यान आ र्षित हो जाता है और इससे प्राचीन देवनागरी लिपिपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है-यह है सर्पबन्ध । एक सर्पाकृति कुण्डलाकार बनी हुई है, जिसपर देवनागरी लिपिके वर्ण और धातुओंके परस्मैपद और आत्मनेपदके प्रत्यय बने हुए हैं। सम्भवतः प्राचीन काल में मन्दिरके इस भागका उपयोग एक पाठशालाके रूपमें किया जाता था। बालकोंको खेल-खिलोनोंके माध्यमसे उस कालमें शिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार सर्पबन्ध तत्कालीन शिक्षण पद्धतिकी ओर संकेत करता है। सर्पबन्धके निकट ही छोटे लेख भी अंकित हैं जिनमें मालवाके परमारवंशी राजा उदयादित्य ( लगभग सन् १०८० से ११०४ ) का उल्लेख है । इसी देवालयके द्वारपर वि. सं. १३३२ का एक शिलापट लगा हुआ था, जिसमें लेख था तथा एक धर्मचक्र बना हुआ था। उसके दोनों ओर सिंह
और हाथी बने हुए थे। यह आजकल इन्दौर संग्रहालयमें सुरक्षित है। इस मन्दिरका शिखर और उसमें की गयी तक्षणकला नयनाभिराम है।
इसमें कुछ प्राचीन प्रतिमाएं संग्रहीत हैं। भगवान् पाश्र्वनाथको ५ फुट उन्नत एक पद्मासन प्रतिमा है। इसकी फणावली खण्डित है। सभामण्डपमें एक ७ फुट ३ इंच, दूसरी ७ फुट ३ इंच, तीसरी ५ फुट उन्नत खण्डित प्रतिमाएँ हैं। इसके स्तम्भ कलात्मक ढंगसे अलंकृत हैं। उनमें यक्षी और सुर-सुन्दरियां विभिन्न मुद्राओंमें उत्कीर्ण हैं । इसकी छतका अलंकरण अनूठा है।
चौबारा डेरा नं. २ (नहाल अवारका डेरा) यह मन्दिर उत्तरकी ओर गांवके छोरपर एक ऊंचे टोलेपर बना हुआ है। यह उत्तराभिमुख है। यह काफी जीर्ण हो चुका है। इसमें गर्भगृह, अन्तराल और मण्डप बने हुए हैं। चायें दिशाओंमें अर्धमण्डप हैं । गर्भगृहसे उनमें जानेके लिए
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ. २६५ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ द्वार बने हैं। यह चौलुक्य शैलीकी अत्युत्कृष्ट शिल्प रचना है। चौलुक्य कुमारपालके बनवाये हुए मन्दिरोंके साथ इसकी बहुत समानता है। प्रत्येक अर्धमण्डप चार स्तम्भोंपर आधारित है । उत्तरी अर्धमण्डपसे मन्दिरमें प्रवेश करना पड़ता है। अधमण्डप, मण्डप और गूढ़मण्डपके स्तम्भ चाहे वे आधार-स्तम्भ हों या भित्ति-स्तम्भ-सभी अलंकृत हैं। इसकी छतों विशेषतः अधमण्डप और महामण्डपकी छतोंमें अलंकृत पद्म बने हैं। गूढमण्डपमें आठ स्तम्भ हैं। द्वार शाखाएँ, पत्रलता, पद्मपत्र-लताओंसे सुशोभित हैं। इसके सिरदलोंपर तीर्थंकर और यक्षी-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । इसकी बाह्य भित्तियोंमें रथिकाएं बनी हुई हैं। उनमें यक्ष-यक्षी, सुर-सुन्दरियाँ एवं तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इन भित्तियोंपर खजुराहोके समान कुछ कामकला सम्बन्धी अंकन भी हैं। किन्तु दोनों स्थानोंका अन्तर ध्यानपूर्वक देखनेपर दृष्टिमें आये बिना नहीं रहता। मुख्य अन्तर तो पाषाणका है । खजुराहोका पाषाण चिकना और ठोस है। यहाँका पाषाण बुरबुरा और खुरदरा है। खजुराहोका पाषाण झडता नहीं, इसलिए वहाँको मतियां धप और वर्षा में भी अब तक सुरक्षित हैं और स्पष्ट हैं, जबकि यहांकी मूर्तियोंका पाषाण खिर रहा है, इसलिए ये मूर्तियां बहुत कुछ अस्पष्ट होती जा रही हैं। सरसरी दृष्टिसे देखनेपर ये पकड़में नहीं आतीं। खजुराहोके समान यहाँके कलाकार शिल्पीने लौकिक और धार्मिक दोनों ही जीवनोको पाषाणमें मूर्त रूप दिया है। एक ओर उसने तीर्थंकरों, उनके सेवक यक्ष-यक्षियोंका अंकन किया तो दूसरी ओर लोकानुरंजक दृश्यों-जैसे, सुरसुन्दरियों और मिथुनोंको भी अपनी कल्पना और कलाके सहारे पाषाणोंमें सजीव रूप दिया।
वर्तमानमें इस मन्दिरमें कोई प्रतिमा विराजमान नहीं है। यहांकी दो प्रतिमाएँ इन्दौर म्यूजियममें पहुंच गयी हैं। उनमें शान्तिनाथ भगवान्की प्रतिमापर सं. १२४२ माघ सुदी ७ अंकित है। दूसरी प्रतिमापर लेख तो है किन्तु वह अस्पष्ट है । सम्भवतः वह भी इसके समकालीन होगी।
ग्वालेश्वर मन्दिर-पहाड़पर जो विशाल मन्दिर बना हुआ है, वह ग्वालेश्वर मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। संभवतः यह मन्दिर किसी ग्वाल नामक व्यक्तिने बनवाया था, इसलिए इसका नाम ग्वालेश्वर मन्दिर प्रसिद्ध हो गया। सिरपुर में एक मन्दिरमें शिलालेख मिला था उसमें रामखेतके शिष्य ग्वाल गोविन्दका नाम मिलता है। उदयपूर केशरियामें भी ग्वाल गोविन्द द्वारा प्रतिष्ठा किये जानेके प्रमाण मिले हैं। अचलपुर और खेरलाका शासक श्रीपाल नरेश जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है-सम्भवतः इन्हीं रामखेतका शिष्य था। यदि यह ग्वालेश्वर मन्दिर इसी ग्वाल गोविन्दका बनाया हुआ सिद्ध हो जाता है तो ऊनका इतिहास बल्लालसे प्रायः सौ वर्ष प्राचीन सिद्ध हो सकता है। किन्तु अभी इस सम्बन्धमें कोई निश्चित मत प्रकट करना जल्दबाजी होगी।
कहते हैं, इस मन्दिरमें पहले एक सिंह रहा करता था। हो सकता है, इस निर्जन और एकान्त वन प्रदेशमें बने हुए इस पार्वत्य मन्दिरको अपने लिए सुरक्षित और सुविधाजनक समझकर वनराजने इसे अपना अड्डा बना लिया हो।
इस मन्दिरकी रचना शैलीपर परमार और चौलुक्य कलाका संयुक्त प्रभाव परिलक्षित होता है। यों यह चौबारा डेरा नं. २ से बहुत मिलता-जुलता है। इसकी छतोंमें अत्यन्त कलापूर्ण कमल बने हुए हैं जो आठ शताब्दियोंके कठिन आघात सहकर आज भी सजीव-से प्रतीत होते हैं। मन्दिरके मध्यमें सभा-मण्डप बना हुआ है। तीन द्वार हैं, जिनके सिरदलोंपर पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसका गर्भगृह सभा-मण्डपसे दस फुट नीचा है। नीचे पहुँचनेके लिए दस
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- मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३१३ सीढ़ियां बनी हुई हैं। गर्भगृहमें तीन विशाल प्रतिमाएं खड्गासन मुद्रामें विराजमान हैं। ये तीनों प्रतिमाएं भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथकी हैं। .
- इस मन्दिरको देखनेसे एक बातकी ओर विशेष रूपसे ध्यान जाता है। इसके शिखरकी रचना अनूठी है और वह जेन स्तूपोंके आधारपर की गयी प्रतीत होती है।
चौबारा डेरा मन्दिरोंके आसपासमें प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष बिखरे पड़े हैं। अनेक जैन मूर्तियां भी पुरातत्त्व विभागने एक स्थानपर संग्रह कर ली हैं। जैन कन्या विद्यालयके भवनमें भी अनेक मूर्तियां संग्रहीत हैं। इनमें तीर्थंकरों, यक्ष-यक्षियों, नवग्रहों तथा कई हिन्दू देवताओंकी मूर्तियां सम्मिलित हैं। कुछ प्राचीन मूर्तियां शान्तिनाथ मन्दिरके महामण्डपमें विराजमान हैं। इनमें अधिकांश मूर्तियां १२वीं शताब्दीकी हैं । उस कालके जैन मन्दिरोंके समान कई हिन्दू मन्दिर भी अबतक सुरक्षित हैं । यहाँके ये सभी मन्दिर और भग्नावशेष बल्लाल नरेश द्वारा निर्मित मन्दिरोंके ही कहे जाते हैं। शान्तिनाथ मन्दिरको छोड़कर शेष सभी मन्दिर और मूर्तियां भारत सरकारके पुरातत्त्व विभागके संरक्षणमें हैं । क्षेत्र दर्शन
सड़कके किनारे ही श्री पावागिरि दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्रको विशाल धर्मशाला है। उसके मध्यवर्ती प्रांगणमें महावीर मन्दिर बना हुआ है। इसमें तीन दरकी. एक वेदी है जिसमें भगवान् महावीरको श्यामवर्णको २ फुट २ इंच उन्नत भव्य प्रतिमा विराजमान है। यही यहाँको मूलनायक प्रतिमा है। यह संवत् १२५२ में आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रतिष्ठित करायी। यह प्रतिमा उत्खननमें प्राप्त हुई थी।
बायीं ओर पद्मप्रभ ओर दायों ओर आदिनाथ भगवान्को श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं । ये दोनों वीर संवत् २४६४ में प्रतिष्ठित हुई हैं। वेदीमें ८ घातु प्रतिमाएं तथा १ लघु पाषाण प्रतिमा और विराजमान हैं। मन्दिरके आगे एक भव्य समुन्नत मानस्तम्भ बना हुआ है, जिसके शीर्ष पर ४ मूर्तियां विराजमान हैं। चारों मूर्तियां भगवान् शान्तिनाथकी हैं । मन्दिरके शिखरमें एक वेदी बनी हुई है, जिसमें भगवान् शान्तिनाथकी श्वेतवर्णको खड्गासन मूर्ति सं. १९९५ की विराजमान है । अवगाहना ३ फुट ६ इंच है । एक चरण चिह्न भी है । मन्दिरके द्वारके ऊपर भी एक छोटी वेदी है। उसमें भगवान् शान्तिनाथकी १ फुट ३ इंच ऊंची श्वेत पद्मासन मूर्ति है। प्रतिष्ठा काल संवत् २००८ है। सड़कसे एवं धर्मशालाके पृष्ठभागसे पावागिरि क्षेत्र तक रोड बन गया है। रोडका नाम महावीर मार्ग रखा गया है। कुछ दूर चलनेपर एक पक्का द्वार बनाया गया है जिसका नाम श्री महावीर प्रवेश-द्वार है। उससे थोड़ा और आगे जानेपर क्षेत्रपर पहुंच जाते हैं। यह धर्मशालासे २ फलांग है और एक छोटी पहाड़ीपर है।
महावीर मन्दिर-यह एक गमटी या मन्दरिया है। इसमें भगवान महावीरकी एक श्वेत वर्णवाली १ फुट ९ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिष्ठा काल संवत् २४८७ है।
चन्द्रप्रभ मन्दिर-भगवान् चन्द्रप्रभको ११ फुट ऊंची श्वेत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके दोनों पाश्वोंमें भगवान् शान्तिनाथकी श्वेव वर्णवाली पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान हैं। ,
इन दोनों मन्दिरोंके मध्य चौकमें ४० फुट ऊंचा मानस्तम्भ है। इसके सामने ही सुप्रसिद्ध ग्वालियर यी शान्तिनाथ मन्दिर है। यही यहाँका सर्वप्रमुख मन्दिर है। स्वर्णभद्र आदि मुनियोंकी निर्वाण-भूमि यही मानी जाती है। यह मन्दिर एका अंची टेकरीपर बना हुआ है। यह मध्य
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कालीन परमार और चौलुक्य कलाकी उत्कृष्ट कृति है। इस मन्दिरमें गूढ़मण्डप या गर्भगृह, महामण्डप, अधमण्डप हैं, तीन ओर द्वार बने हुए हैं। गूढमण्डपके ऊपर समुन्नत शिखर है। ऊन के प्राचीन मन्दिरोंमें एकमात्र यही मन्दिर अच्छी दशामें है। इसका जीर्णोद्धार किया जा चुका है। इससे यह आकर्षक बन गया है । जीर्णोद्धार करते समय इसकी प्राचीनता और कलाको क्षति नहीं पहुंची, यह प्रशंसा योग्य है।
गर्भगृहमें जानेके लिए १० सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं । गर्भगृहका आकार ११ फुट ८ इंचx ९ फुट ३ इंच और ऊँचाई २० फुट है। गर्भगृह अपने मूलरूपमें सुरक्षित है, केवल शिखरमें कुछ परिवर्तन किया गया है। सामने वेदीपर भगवान् शान्तिनाथकी १२ फुट ९ इंच ऊंची भव्य प्रतिमा विराजमान है। यह कायोत्सर्ग मद्रामें खड़ी है। यह कृष्ण पाषाणकी है। चरण-चौकीपर उनका लांछुन हिरण बना हुआ है तथा मूर्तिलेख भी अंकित है जिसका 'संवत् १२६३ जेष्ठ वदी १३ गुरौ आचार्य श्री यशकीर्ति प्रणमति' यह अंश ही पढ़ा जा सका। इसके पाश्वमें बायीं ओर कुन्थुनाथ और दायीं ओर अरनाथकी ८-८ फुट ऊंची खड्गासन मूर्तियां हैं। कुन्थुनाथकी मूर्तिके पीठासनपर यक्ष-यक्षी और लांछन बकरा बने हुए हैं तथा 'संवत् १२६३ ज्येष्ठ वदी १३ गुरौ सिन्धी पं. तरंगसिंह सुत जीतसिंह प्रणमति' यह लेख अंकित है। अरनाथकी मूर्तिके पादपीठपर उनका चिह्न मत्स्य अंकित है। इन तीनों मूर्तियोंके दोनों पाश्र्वोमें चमरवाहक खड़े हुए हैं। यह नवीन रचना है । मूर्तियोंके सिरके ऊपर पाषाण छत्र नहीं है, बल्कि धातुके नवीन छत्र लगे हुए हैं।
गर्भगहका द्वार विशेष अलंकृत है। दायीं ओर तीन दरकी एक वेदीमें मन्दिरके साथ निकली हुई मूर्तियां और चरण विराजमान हैं। एक शिलाफलक ३ फुट चौड़ा और १ फुट ३ इंच ऊँचा है। उसमें पांच पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यह किसी सिरदलका भाग लगता है। एक अन्य मूर्ति १० इंच ऊँची है। मध्यमें पद्मासन प्रतिमा है। उसके ऊपर छत्र बना हुआ है। दोनों ओर कोष्ठकोंमें दो पदमासन प्रतिमाएं हैं। नीचे दो खड़गासन प्रतिमाएँ हैं। एक और मूर्ति १ फुट ५ इंच चौड़ी और १० इंच ऊंची है । कोष्ठकमें पद्मासन मूर्ति है। दायीं ओर देव पुष्पमाला लिये हुए हैं और देवी बायें हाथमें सम्भवतः बिजौरा फल लिये है । एक पाषाणमें चरणचिह्न बने हए हैं। इनका आकार १० इंच है।
बायीं ओरकी वेदीमें किसी मूर्तिका ऊपरी भाग रखा हआ है। इसके शीर्षपर एक पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है। उससे नीचे माला लिये हुए देवी है। उससे नीचे छत्र हैं। इसके दोनों ओर नर्तक-नर्तकी तथा देव-देवियाँ हैं। उनसे नीचे गज हैं। कोष्ठकमें एक पद्मासन प्रतिमा है। देव माला लिये हुए है और देवी फल (बिजौरा ) लिये हुए है।
एक मूर्ति १ फुट २ इंच उन्नत है । शिखराकृतिमें पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। १० इंच लम्बे चरणचिह्न विराजमान हैं। दायीं ओरकी वेदीमें भगवान् पाश्वनाथकी श्वेत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका आकार १ फुट ६ इंच है और प्रतिष्ठा-काल वीर सं. २४९३ है। इसके दोनों पावों में दो प्राचीन प्रतिमाएं हैं। एक १ फुट ३ इंच है। यह खड्गासन है। एक ओर तीन पद्मासन और एक खड्गासन प्रतिमा है। सिरके दोनों ओर मालाधारी देव हैं। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं। दूसरी प्रतिमा १ फुट १० इंच है। इस फलकमें दोनों
ओर दो-दो स्तम्भ और उनके मध्य कोष्ठक हैं। उन कोष्ठकोंमें खड्गासन मूर्तियां हैं। उनके एक पार्श्वमें चमरवाहक हैं। . इससे आगेकी वेदी महावीर भगवान्की है। उनकी मूर्ति कृष्णवर्णकी है और पद्मासन है। यह १ फुट ४ इंच ऊंची है तथा इसका प्रतिष्ठाकाल वीर संवत् २४६२ है। दायीं ओर एक
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। पाषाणफलक १ फुट ७ इंच है। प्रतिमाके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हुए हैं । बायीं ओर भगवान् महावीरकी श्वेतवर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९९३ में हुई । इसकी अवगाहना १ फुट ८ इंच है। इधर-उधर दो खड्गासन प्राचीन प्रतिमाएं हैं। इनका आकार १ फुट १० इंच है।
बगलकी वेदीमें भगवान् सम्भवनाथकी कृष्ण पाषाणकी प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें विराजमान है। इसकी अवगाहना २ फुट ८ इंच है। इसके प्रतिमा-लेखमें प्रतिष्ठा संवत् १२१८ दिया है। इसकी बगलमें श्वेतवर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है।
___पंच पहाड़ी-शान्तिनाथ मन्दिरसे उतरकर थोड़ी दूर चलनेपर एक ऊंची टेकरी मिलती है। इसके ऊपर प्राचीन मन्दिरोंके अवशेषोंपर छोटे-छोटे छह नवीन मन्दिर बने हुए हैं। (१) आचार्य शान्तिसागरजी के चरणचिह्न विराजमान हैं। (२) बाहुबली स्वामीकी मार्बलकी श्वेत प्रतिमा है । (३,४) भगवान् शान्तिनाथकी पद्मासन मूर्तियां हैं (५) भगवान् पाश्वनाथकी श्वेत प्रतिमा है, (६) भगवान् आदिनाथकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। .
यहां प्राचीन मन्दिरोंके भग्नावशेष दबे पड़े हैं। यदि यहाँ उत्खनन किया जाये तो काफी पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध होनेकी सम्भावना है।
अतिशय
सिद्धक्षेत्र होनेके कारण यहाँ समय-समयपर कुछ ऐसी असामान्य बातें देखने-सुननेको मिलती हैं, जिन्हें सर्वसाधारण श्रद्धावश दैवी चमत्कार मानता है क्योंकि उन बातोंका कोई कार्यकारण समझमें नहीं आता । जैसे, संवत् १९६२ की बात है। आचार्य महावीरकीर्तिजी महाराजका यहाँ चर्तुमास था। चौंसठ ऋद्धि विधान हो रहा था। एक दिन लगभग १५ मिनट तक 'ॐ नमः' की ध्वनिके साथ रह-रहकर बाजे बजनेकी ध्वनि आती रही।
रात्रिमें नृत्य, पूजन और बाजोंको ध्वनि अनेक बार सुनी गयी है। ऐसे अनेक प्रत्यक्षदर्शी विद्यमान हैं, जिन्होंने ये आवाजें सुनी हैं। ये घटनाएं महावीर मन्दिर (धर्मशाला) में होती हैं। धर्मशाला
___यहाँ धर्मशालामें कुल ५२ कमरे हैं । प्रत्येक कमरेके पीछे रसोई घर है। सामूहिक भोजके लिए बड़ा रसोई घर है । धर्मशालामें स्नानगृह, शौचालय, मूत्रालय, नल, कुआं, बिजली आदि सभी आश्यक सुविधाएँ हैं। यहां बाजार होनेसे प्रत्येक आवश्यक वस्तु मिल जाती है । पोस्ट
ऑफिस, टेलीफोन, पुलिस-स्टेशन ये धर्मशालाके निकट होने से बड़ी सुविधा है। क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं
क्षेत्रपर जन-सेवाकी प्रवृत्तियां निरन्तर चलती रहती हैं। जन-सेवा करनेवाली कुछ संस्थाएं भी क्षेत्रपर चल रही हैं।
१. श्री शान्तिनाथ आयुर्वेदिक औषधालय । २. श्री सम्भवनाथ वाचनालय। ३. श्री निहालचन्द शारदा भवन (बालकोंका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय उस स्थान
पर स्थित है जहाँ ५ मूर्तियां भूगर्भसे निकली थीं)। ४. श्री दिगम्बर जैन गुरुकुल ।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वाषिक मेला
क्षेत्रपर कोई नियमित वार्षिक मेला नहीं होता है। पहले फागुन सुदी ५ से १० तक वार्षिक मेला भरता था। व्यवस्था
- इस क्षेत्रकी सम्पूर्ण व्यवस्था श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र श्री पावागिरिजी ट्रस्ट कमेटी और प्रबन्धकारिणी कमेटी द्वारा होती है। हर तीन वर्षके बाद साधारण सभा द्वारा प्रबन्धकारिणी कमेटीका चुनाव होता है। मार्ग और अवस्थिति
. श्री पावागिरि सिद्धक्षेत्र मध्यप्रदेशके जिला खरगौनमें ऊन नामक स्थानसे दो फलांग दूर स्थित है। ऊन एक छोटा-सा कसबा है जिसकी जनसंख्या लगभग ४००० है। यहांपर पोस्टऑफिस, पुलिसथाना, दवाखाना, उच्चतर माध्यमिक स्कूल आदि हैं। यहां आनेके लिए निकटवर्ती स्टेशन खण्डवा १०४ कि. मी., इन्दौर १५४ कि. मी., सनावद ८३ कि. मी. और मह १३१ कि. मी. है। खण्डवा और सनावद होकर आनेवाले यात्रियोंको खरगौन होकर और इन्दौर या महसे आनेवाले यात्रियोंको जुलवान्या होकर बस द्वारा ऊन उतरना पड़ता है। खरगौन यहाँसे केवल १८ कि. मी. है । खरगौनसे जुलवान्या जानेवाली सड़कके किनारे ही दिगम्बर जैन धर्मशाला बनी हुई है। यह ऊनमें है। धर्मशालासे पावागिरि सिद्धक्षेत्र केवल दो फलांग दूर है।
सिद्धक्षेत्र पावागिरिके पूर्व भागमें चिरूढ़ नदी बहती है, पश्चिममें कमलतलाई तालाब है। इसमें कमलके फूल खिलते हैं। उत्तरमें ऊन ग्राम है। दक्षिण दिशामें एक कुण्ड बना हुआ है जिसे नारायण-कुण्ड कहा जाता है। वैष्णव लोग इसे तीर्थ मानते हैं। क इस क्षेत्रके पश्चिममें चूलगिरि, बावनगजाजी और उत्तरमें सिद्धवरकूट क्षेत्र हैं। यहाँका पोस्ट ऑफिस ऊन है।
सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र
सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र है इस बातका समर्थन अनेक आचार्योंने किया है। प्राकृत निर्वाणकाण्डमें इस सम्बन्धमें इस प्रकार उल्लेख है
रेवाणइये तीरे पच्छिमभायम्मि सिछवरकूडे ।
दो चक्की दह कप्पे आहठ्ठयकोडि णिन्वुदे वंदे ॥११॥ अर्थात् रेवा नदीके तटपर पश्चिम दिशाको ओर सिद्धवस्कूट क्षेत्र है । वहाँसे दो चक्री, दस कामदेव और साढ़े तीन करोड़ मुनि निर्वाणको प्राप्त हए। हिन्दी भाषाकारने इसका रूपान्तर इस प्रकार किया है
'रेवा नदी सिद्धवरकूट पश्चिम दिशा देह जहँ छूट । द्वय चक्री दश कामकुमार हूँड कोड़ि बन्दों भव पार ।'
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३१७ संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें सिद्धवरकूट नामक किसी निर्वाण-क्षेत्रका उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु उसमें 'विन्ध्ये' पद द्वारा विन्ध्याचलके समस्त तीर्थोंको ले लिया है। इस निर्वाण-भक्तिमें इसी कारण सिद्धवरकूटके समान पावागिरिका भी नामोल्लेख नहीं किया है एवं विन्ध्याचलके समान सहस्राचल और हिमवान पर्वतका ही नाम दिया है, वहांके तीर्थोंका नहीं।
बोधप्राभृतकी गाथा २७ की व्याख्यामें भट्टारक.श्रुतसागरने क्षेत्रका नाम सिद्धकूट दिया है । भट्टारक गुणकीर्ति, विश्वभूषण आदि लेखकोंने भी इसका नाम सिद्धकूट ही दिया है।
प्राकृत निर्वाण-काण्डकी उपर्युक्त गाथामें इस क्षेत्रको अवस्थितिकी ओर भी संकेत किया गया है कि यह क्षेत्र रेवा नदीके पश्चिम तटपर अवस्थित है। कूट शब्दसे यह आशय निकलता है कि यह क्षेत्र पर्वतकै ऊपर है और वह कूट सिद्धकूट या सिद्धवरकूट कहलाता है। संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें 'वरसिद्धकूटे' शब्द आया है किन्तु वह इस क्षेत्रके सन्दर्भमें नहीं आया, बल्कि वैभारगिरिके सन्दर्भमें आया है और उसमें 'वेभार पर्वततले वरसिद्धकूटे' इस पद द्वारा यह स्पष्ट किया है कि वैभारगिरिकी तलहटी और ऊपर शिखरसे मुनि मुक्त हुए।
रेवाके तटवर्ती इस क्षेत्रका कोई विशेष नाम नहीं था, बल्कि साढ़े तीन करोड़ मुनियोंका सिद्धिस्थान होनेके कारण इस पर्वत-शिखर और क्षेत्रका नाम ही सिद्धवरकूट हो गया।
दो चक्री और बस कामदेव-दो चक्रवर्ती और दस कामकुमार कौन थे, इनके नामोंका उल्लेख कहीं देखनेमें नहीं आया। चक्रवतियोंमें भरत और सगर कैलाससे मुक्त हुए। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ सम्मेदशिखरसे मोक्ष गये। हरिषेण सर्वार्थसिद्धिमें और जयसेन अनुत्तर विभागमें अहमिन्द्र बने। सुभौम और ब्रह्मदत्त ये दो चक्रवर्ती नरकमें गये। केवल मघवा, सनत्कुमार और पद्मनाभ ये तीन चक्रवर्ती शेष रहे, जिनके सम्बन्धमें विशेष अनुसन्धानकी आवश्यकता है। इस सम्बन्धमें आचार्यों में कुछ मतभेद प्रतीत होता है। 'तिलोय-पण्णत्ति' ४११४१० के अनुसार आठ चक्रवर्ती मोक्षमें, ब्रह्मदत्त और सुभौम नरकमें तथा मघवा और सनत्कुमार तीसरे सानत्कुमार कल्पमें गये। 'उत्तर पुराण' के अनुसार ये दोनों चक्रवर्ती मुक्त हुए थे। पद्मनाभके सम्बन्धमें दोनों आचार्य एकमत हैं और उनको मुक्त होना मानते हैं। केवल मतभेद मघवा और सनत्कुमार इन दो चक्रवर्तियोंके बारेमें है। मुनिराज सनत्कुमारने जिस प्रकार घोर तपश्चर्या की और इन्द्रको भी उनकी तपोनिष्ठाको प्रशंसा करनी पड़ी थी, उससे तो यह विश्वास होता है कि ऐसा सम्यग्दृष्टि घोर तपस्वी मुनि अवश्य मुक्त हुआ होगा। यदि इन दोनों चक्रवर्तियोंको हम मुक्त हुआ मान लें तो उनका निर्वाण-स्थान कौन-सा था, इस सम्बन्धमें जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। लगता है, जिन आचार्योंने सिद्धवरकूट क्षेत्रसे दो चक्रवतियोंका निर्वाण-गमन लिखा है, वे 'उत्तरपुराण' के मतके ही थे और उनके मनमें, सिद्धवरकूटसे मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती मुक्त हुए, यह बात रही थी। अस्तु,
जिस प्रकार दो चक्रवर्तियोंके सम्बन्धमें कहीं स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, इसी प्रकार दस कामकुमारोंके सम्बन्धमें भी कहीं कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। - इस सम्बन्धमें दिगम्बर परम्परामें जो स्थिति है, लगभग वही स्थिति श्वेताम्बर परम्परामें भी रही है। आचार्य हेमचन्द्र कृत 'त्रिषष्ठि शलाकापुरुषचरित' में बारह चक्रवतियों में से आठ चक्रवतियोंको मोक्ष माना है, मघवा और सनत्कुमारको तीसरे स्वर्ग सानत्कुमारमें देव पर्याय और सुभौम एवं ब्रह्मदत्त दो चक्रवर्तियोंको नरक पर्यायकी प्राप्ति बताया है। .
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस सम्बन्ध में कुछ अस्पष्टता या मत-विभिन्नता रही है। एक मत 'तिलोयपण्णत्ति' और 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित' का रहा है, जिसके अनुसार मघवा और
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सनत्कुमार तीसरे स्वर्गमें देव बने, ऐसा माना गया है। दूसरा मत उत्तरपुराण और निर्वाणकाण्डका रहा–जिसके अनुसार दो चक्री सिद्धवरकूटमें रेवा-तटसे मुक्त हुए, ऐसा स्वीकार किया गया है।
दिगम्बर परम्पराके समान श्वेताम्बर परम्परामें भी इन दस कामकुमारोंके सम्बन्धमें कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। कुल कामदेव २४ हुए हैं, जिनके नाम इस प्रकार मिलते हैंबाहुबली, अमिततेज, श्रीधर, दशभद्र, प्रसेनजित्, चन्द्रवर्ण, अग्निमुक्ति, सनत्कुमार चक्रवर्ती, वत्सराज, कनकप्रभ, मेघवणं, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, विजयराज, श्रीचन्द्र, राजा नल, हनुमान्, बलराज, वसुदेव, प्रद्युम्न, नागकुमार, श्रीपाल और जीवन्धर।
___ इनमें से कौन-से १० कामकुमार यहाँसे मुक्त हुए हैं, यह उल्लेख कहीं नहीं मिलता। कुछ लोगोंने यहांसे निर्वाण-प्राप्त कामकुमारोंके नाम इस प्रकार दिये हैं-सनत्कुमार, वत्सराज, कनकप्रभ, मेघप्रभ, विजयराज, श्रीचन्द, नलराज, बलराज, वसुदेव और जीवन्धर।
ये नाम किस शास्त्रके आधारसे लिये गये हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका। इनमें से वसुदेव, जीवन्धर आदि कई कामकुमार तो हरिवंशपुराण, उत्तरपुराणके अनुसार गिरनार, विपुलाचलसे मुक्त हुए हैं । यह विषय अनुसन्धान श्रेणीमें है, अभी निर्णीत नहीं है। क्षेत्रकी खोज
___ सिद्धवरकूट क्षेत्र वास्तवमें कहां था, और वह कब, कैसे विस्मृत कर दिया गया, इसके बारेमें कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होते। 'निर्वाण-काण्ड' में सिद्धवरकूट क्षेत्रसे दो चक्री, दस कामकुमार और साढ़े तीन कोटि मुनियोंका मुक्त होना बताया है, किन्तु शास्त्रोंमें ऐसे प्रसिद्ध निर्वाण-क्षेत्रके बारेमें विशेष ज्ञातव्य कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। 'निर्वाण-काण्ड में भी जो बताया
है, वह भी बड़ा अस्पष्ट है।
___'निर्वाण-काण्ड' ( प्राकृत ) में सिद्धवरकूटका नाम तो आया है, किन्तु संस्कृत 'निर्वाणभक्ति' में इस क्षेत्रका नाम तक नहीं है, केवल 'विन्ध्ये' शब्द आया है । अर्थात् सम्पूर्ण विन्ध्याचलको सिद्धक्षेत्र स्वीकार किया है। और विन्ध्याचल रेवाके तटपर बहुत दूर तक गया है, इसलिए रेवातटवर्ती सिद्धक्षेत्रोंका अन्तर्भाव इसमें किया जा सकता है। 'निर्वाण-काण्ड' में रेवातटवर्ती सिद्धक्षेत्रोंके लिए निम्नलिखित दो गाथाएँ मिलती हैं
'दहमुहरायस्स सुआ कोडी पंचद्धमुणिवरे सहिया । रेवाउट्ठयम्मि तीरे णिव्वाण गया णमोतेसिं ॥१०॥ रेवाणइए तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूटे। दो चक्की दह कप्पे आहुट्ठयकोडिणिव्वुदे वंदे' ॥११॥
१. 'क्रियाकलाप' ग्रन्थमें पं. पन्नालाल सोनीने सूचित किया है कि कई पुस्तकोंमें यह गाथा नहीं मिलती। कुछ पुस्तकोंमें इसके स्थानपर निम्नलिखित दो गाथाएँ उपलब्ध होती है
रेवातडम्मि तीरे दक्षिणभायम्मि सिद्धवरकूडे । आहुट्ठकोडीओ णिवाण गया णमो तेसि ॥१॥ रेवातडम्मि तीरे संभवनाथस्स केवलुप्पत्ती। आयकोडीओ णिम्वाण गया णमो तेसि ॥२॥
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३१९ अर्थात् रेवा नदीके दोनों तटोंसे साढ़े पांच करोड़ मुनियोंके सहित दशमुख ( रावण ) राजाके पुत्र मुक्त हुए। . रेवा नदीके किनारे पश्चिम भागमें स्थित सिद्धवरकूटसे दो चक्री, दस कामकुमार और साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्षमें गये । मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
पहली गाथामें रेवा नदीके दोनों तटोंसे साढ़े पांच करोड़ मुनियोंका निर्वाण होना बताया है और दूसरी गाथामें केवल पश्चिम तटवर्ती सिद्धवरकूटसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंकी मुक्ति बतलायी है । इसका अर्थ यह हुआ कि रेवा नदीके पूर्वी तटसे दो करोड़ मुनि मुक्त हुए। यहां प्रश्न हो सकता है कि जब पहली गाथामें दोनों तटोंसे मुक्त हुए मुनियोंका उल्लेख कर दिया तो फिर पश्चिम तटसे मुक्त होनेवालोंकी संख्या देनेकी आवश्यकता क्या थी। किन्तु इसके लिए पृथक् गाथा देनेका उद्देश्य हमारी सम्मतिमें यह रहा कि सिद्धवरकूट विख्यात तीथं रहा है, उसकी असाधारण महत्ता थी। अतः उस क्षेत्रकी महत्ता अक्षुण्ण रखने की दृष्टिसे ही उसका पृथक् उल्लेख किया गया।
रेवा नदीको वर्तमानमें नर्मदा नदी कहा जाता है।
उक्त गाथाओंमें दशमुख राजाके कौन-कौन-से पुत्र रेवा तटसे मुक्त हुए, यह नामोल्लेख नहीं है। 'पद्मपुराण' आदिमें भी उन पुत्रोंका नाम नहीं मिलता जो यहाँसे मुक्त हुए थे। इस गाथामें उल्लिखित सिद्धवरकूट कहाँपर अवस्थित था, यह भी ज्ञात नहीं होता। वस्तुतः अकृत्रिम पर्वतोंके शिखरपर एक सिद्धवरकूट होता है, जहाँसे मुनिजन मुक्ति जाते हैं। विन्ध्याचल पर्वत अकृत्रिम पर्वत तो है नहीं, वह कल्पके अन्तमें नष्ट हो जाता है। इसलिए सिद्धवरकूट यह वस्तुतः क्षेत्रका नाम है। अकृत्रिम पर्वतोंके शिखरपर स्थित उस कूटसे यहाँ सम्भवतः तात्पर्य नहीं है जो तपस्वी मुनियोंके निर्वाण-स्थलके रूप में सिद्धवरकूट कहलाने लगता है। एक स्थान विशेषका नाम है, दूसरा पर्वतके शिखरका नाम है।
सिद्धवरक्ट क्षेत्र रेवाके पश्चिम तटपर अवस्थित था, इसके अतिरिक्त अन्य कोई सूचना किसी ग्रन्थमें नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि शताब्दियोंसे यह तीर्थ अज्ञात दशामें पड़ा हुआ था। सम्भवतः कोई यात्री भी यहां नहीं आते थे। उपेक्षाके कारण यहाँके मन्दिर जीर्ण-शीर्ण होकर धराशायी होने लगे। यह भी सम्भव है कि किसी धर्मान्ध शासकने इस क्षेत्रको नष्ट कर दिया हो और जनतापर इतने भयानक अत्याचार ढाये हों कि उसके हृदयमें आतंक व्याप्त हो गया हो तथा भयके कारण यहाँकी यात्रा बन्द कर दी हो। धीरे-धीरे जनता इस क्षेत्रका नाम और स्थान आदिके बारेमें भी भूल गयी।
___यह क्षेत्र प्रकाशमें कैसे आया, इसका भी एक रोचक इतिहास है। कार्तिक कृष्णा १४ संवत् १९३५ को इन्दौर पट्टके भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजीको स्वप्न आया, जिसमें उन्होंने सिद्धवरकूट क्षेत्रके दर्शन किये। स्वप्नमें देखे हुए स्थानकी खोजके लिए भट्टारकजी दूसरे दिन ही चल दिये और रेवा नदीके तटपर पहुँचकर उन्होंने खोज प्रारम्भ की। वे कुछ लोगोंके साथ रेवाके
अर्थात् रेवाके तटपर दक्षिण दिशामें स्थित सिद्धवरकूटसे साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए । मैं उनको नमस्कार करता हैं। रेवा नदीके तटपर सम्भवनाथ भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये । मैं उन सबको नमस्कार करता हूँ। - इनमें द्वितीय गाथामें रेवा नदीके तटपर सम्भवनाथ भगवान्को केवलज्ञानकी प्राप्ति बतलायी है। किन्तु 'उत्तरपुराण' पर्व ४९।४०-४१ में उन्हें श्रावस्तीके सहेतुक वनमें केवलज्ञानकी प्राप्ति बतलायी है। ,
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
तटवर्ती वनके भीतर जाकर तलाश करते रहे, किन्तु जो दृश्य उन्होंने स्वप्न में देखा था, वह अब तक नहीं मिला था । खोज कई दिनों तक होती रही। तभी एक दिन उन्हें उसी जंगलमें भगवान् चन्द्रप्रभर्को अतिमनोज्ञ एक मूर्ति मिली। इस मूर्तिको प्रतिष्ठा राणा उदयसिंहके राज्यकालमें श्री विशालभूषण स्वामी प्रतिष्ठाचार्य द्वारा की गयी थी। एक और प्रतिमा भगवान् आदिनाथकी मिली जो भट्टारक सोमसेंनके द्वारा शाह माणिकचन्द हेमदत्त सुत धर्मदासने प्रतिष्ठित करायी थी ।
मूर्ति प्राप्त होनेपर आशा होने लगी कि अवश्य ही यहाँ कहीं मन्दिर भी रहा होगा। कुछ आगे बढ़ने पर एक जीर्ण-शीर्णं किन्तु विशाल जैन मन्दिर मिला। उसके द्वारके सिरदलपर दिगम्बर तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई थी। और भी दो-तीन जैन मन्दिर भग्नावशेष दशामें मिले । यद्यपि कोई शिलालेख या पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ, जिसके आधारपर यह सिद्ध होता कि यह स्थान ही वस्तुतः सिद्धवरकूट क्षेत्र है, किन्तु भट्टारकजीने अपने स्वप्न में देखे स्थानके हुए साथ उस स्थानकी समानताके आधारपर यह मान लिया कि अवश्य यही स्थान सिद्धवरकूट क्षेत्र है । किन्तु फिर भी अपनी इस धारणाकी पुष्टि करा लेना उन्होंने आवश्यक समझा । तब संवत् १९४० में श्री चारुकीर्ति पण्डिताचार्य और श्री सूरसेन पट्टाचार्यंने इस स्थानका निरीक्षण करके भट्टारकजी की धारणाकी पुष्टि की। तबसे यह स्थान सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूटके रूपमें मान्य हो गया ।
ओंकारेश्वर मन्दिर
इस क्षेत्रके निकट ओंकारेश्वर मन्दिर है । उसका आकार प्रायः ॐ जैसा है । सम्भवतः इसी कारण यह मन्दिर ओंकारेश्वर कहलाता है। यह मान्धाता टापूपर है जो नर्मदा और कावेरी के मध्य में है । मान्धाता एक पहाड़ी है जो प्रायः एक वर्गमीलमें हैं। यह मन्दिर आजकल हिन्दुओं के अधिकारमें है । इस मन्दिरका सूक्ष्म निरीक्षण करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः यह मन्दिर जैनोंका रहा होगा । कुछ स्थापत्य विशेषज्ञोंने तो यहाँ तक अनुमान लगाया है कि ओंकारेश्वर मन्दिर, कोल्हापुरका अम्बिका मन्दिर और अजमेरको ख्वाजा साहब की दरगाहइन तीनोंकी रचना शैलीमें बड़ी समानता है । सम्भव है, इनकी रचना शैलीका मूल प्रेरणा स्रोत एक ही रहा हो और यह स्रोत जैन धर्म हो ।
ओंकारेश्वर मन्दिरके जिन्होंने दर्शन किये हैं, ऐसे कुछ विद्वानोंकी तो धारणा है कि सिद्धवरकूट इस ओंकारेश्वर पर्वतपर होना चाहिए। उनकी राय में सिद्धवरकूट नामका कोई क्षेत्र नहीं था बल्कि इस पहाड़ी के ऊपरके कूटको ही सिद्धवरकूट कहा जाता था । यहाँका दृश्य बड़ा सुन्दर
। इस पहाड़ीके एक ओर कावेरी बहती है तो दूसरी ओर नर्मदा । ओंकारेश्वरका मन्दिर तिमंजिला है । इसके पासमें ही एक छतरी बनी हुई है । यहाँ कालभैरव वास करते हैं । उनके लिए अपना जीवन अर्पण करनेका विधान है । मुक्तिकामी हिन्दू लोगोंकी धारणा थी कि इस छतरी में से छलांग लगाकर पहाड़ीके नीचे बनी हुई एक शिलापर गिरकर मरनेसे मुक्ति मिलती है । इस विश्वासके अनुसार अनेक व्यक्ति यहाँसे मुक्तिकी दुराशामें मृत्युका आलिंगन करते रहे हैं। किन्तु अंगरेजी शासनने कानून द्वारा इस आत्म-हत्याको निषिद्ध करार दे दिया ।
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यहाँ से मुक्ति मिलती है, इस धारणाके मूलमें कोई एक बात है, जिसको भुला दिया है और पत्थरसे सिर फोड़कर आत्महत्या करनेको मुक्ति मान लिया है । यहाँसे मुक्ति मिलती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । यहाँसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंको मुक्ति मिली थी। किन्तु वह मुक्ति उन्हें 'आत्म-हत्या द्वारी नहीं मिली, वरन् सम्पूर्ण आरम्भ - परिग्रहका त्याग करके सम्यक् तपस्या द्वारा
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३२१ कर्मोंका नाश करनेसे मिली थी। प्राचीन कालसे यहाँसे मुक्ति प्राप्तकी जो धारणा चली आ रही है, वह भी एक तथ्य है जो हमें यह स्वीकार करनेको प्रेरित करता है कि यही स्थान सिद्धवरकूट है। वर्तमानमें जो क्षेत्र है वह ओंकारेश्वरसे बहुत निकट है। हिन्दू पुराणोंमें ओंकारेश्वरको १२ ज्योतिलिंगोंमें से एक ज्योतिलिंग माना है। ओंकारेश्वर मन्दिर जिस पहाड़ीपर है, वहां प्राचीन मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं। ये पुरातत्त्व विभागके अन्तर्गत हैं। यदि यहाँ खुदाई की जाये तो यहाँ जैन कलावशेष प्रचुर परिमाणमें मिलनेकी सम्भावना है। क्षेत्रका विकास
क्षेत्रका निश्चय होनेपर इन्दौर पट्टके भट्टारक महेन्द्रकीतिजीने क्षेत्रके उद्धार कार्यमें अपना पूरा ध्यान लगाया। उनके आदेशानुसार श्री भूरजी सूरजमलजी मोदी इन्दौर और उनके परिवार-जनोंने प्राचीन बड़े मन्दिरका जीर्णोद्धार करनेका संकल्प किया। माघ सुदी ३ संवत् १९४० से मन्दिरके जीर्णोद्धार करनेका कार्य आरम्भ हुआ तथा मन्दिर और बिम्ब-प्रतिष्ठा संवत् १९५१ में श्री हकमलजी शोलापुरने भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी द्वारा करायी।
एक बार इस भूमिको सिद्धक्षेत्र स्वीकार करनेके बाद इस क्षेत्रका विकास जिस द्रुतगतिसे हुआ है वह अवश्य ही आश्चर्यजनक है । कावेरी नदीसे क्षेत्र पर्यन्त पक्का घाट और सीढ़ियां भी बन चुकी हैं। क्षेत्र दर्शन
मान्धाता ( ओंकारेश्वर ) में बस स्टैण्डके निकट ही क्षेत्रको धर्मशाला है। ओंकारेश्वर रोडपर भी बस स्टैण्डके निकट सेठ कल्याणमल त्रिलोकचन्द इन्दौरवालोंकी धर्मशाला है। मान्धातासे सिद्धवरकूट तक नावों द्वारा नर्मदा-कावेरी संगमको पारकर पहुंचना होता है। इन दोनों नदियोंके बीचमें ओंकारेश्वर पहाड़ी है, जिसके ऊपर ओंकारेश्वर मन्दिर और कालभैरवका मन्दिर बना हुआ है । नावमें जाते हुए यह मन्दिर और पहाड़ी पड़ती है। नाव द्वारा लगभग एक मील जाना पड़ता है। क्षेत्रकी ओरसे नाव भाड़ा निश्चित है। नावसे क्षेत्रके घाटपर उतरते हैं। यदि क्षेत्रके दर्शन करके तत्काल वापस जाना हो तो नाव वापसी करनी चाहिए। नाववाला घाटपर रुका रहता है। आवश्यक सूचनाएँ मान्धाताको जैन धर्मशालाके व्यवस्थासे ज्ञात कर लेना उपयोगी रहता है।
घाटपर उतरकर पक्की सीढ़ियां मिलती हैं। यहाँसे मार्ग क्षेत्र तक जाता है। क्षेत्रपर पहुँचकर विशाल द्वार मिलता है। मन्दिर, धर्मशालाएं और कार्यालय एक स्थानपर हैं। इनके चारों ओर अहाता है। प्रवेश-द्वारके निकट ही क्षेत्रका कार्यालय बना हुआ है। सामने ही ऊंचाईपर मन्दिर बने हुए हैं। वहां पहुंचनेके लिए माबलको सीढ़ियां बनी हुई हैं। मध्यमें मार्बलका खुला चबूतरा है जिसके तीन ओर भव्य जिनालय हैं। सभी जिनालय शिखरबन्द हैं। उनकी नमस्पर्शी उन्नत श्वेत धवल शिखर-पंक्ति बड़ी मनोज्ञ प्रतीत होती है। मन्दिरोंके निकट सामने ही उद्धत नर्मदा और प्रशान्तक कावेरी बहती है, मन्दिरोंके तीन ओर सघन जंगल हैं। सिद्धि-प्राप्त महामुनियोंकी तपःपूत साधना यहाँके वातावरणमें आज भी व्याप्त है। यहां आकर मानवका बोझिल मन सहज शान्ति, निराकुल आनन्द और दिव्य सपनोंसे भर उठता है।
__ यहाँके सभी मन्दिरोंपर क्रम संख्या पड़ी हुई है। अत: दर्शनोंमें कोई असुविधा नहीं होती। मन्दिरोंका विवरण इस प्रकार है
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भारतके विगम्बर जैन तीर्य मन्दिर नं. १-यहां मूलनायक भगवान् नेमिनाथकी प्रतिमा श्वेत पाषाणकी १ फुट ७ इंच उन्नत है और पद्मासन मुद्रामें आसीन है । प्रतिष्ठा संवत् १९५१ में हुई। यहाँ वेदीपर धातुको दो प्रतिमाएं भी हैं-महावीर स्वामी और चन्द्रप्रभ स्वामीकी। प्रत्येककी अवगाहना १ फुट ३ इंच है।
मन्दिर नं. २-इसमें भगवान् शान्तिनाथकी ३ फुट २ इंच उत्तुंग श्वेतवर्ण प्रतिमा पद्मासनमें विराजमान है। प्रतिष्ठा संवत् २४६३ ( वीर सं.) है। इसके पार्श्वमें कृष्ण वर्ण पाश्वनाथ
और श्वेत वर्ण महावीरकी पद्मासन प्रतिमाएं हैं। ४ धातु-प्रतिमाएँ भी हैं। .. इस मन्दिरमें बायीं ओर बरामदेमें दो दीवार-वेदियां हैं।
___ छतरी-इस मन्दिरके निकट एक छतरी है। इसमें १० कामदेव तथा २ चक्रवर्ती मुनियोंके चरण-चिह्न बने हुए हैं तथा १ चरण-चिह्न अन्य मुनिका है। - मन्दिर नं. ३–इस अवसर्पिणी कालके प्रथम सिद्धिप्राप्त मुनिराज बाहुबली स्वामीकी
य प्रातमा कायोत्सर्गासनसे ध्यानमुद्रामें खड़ी हुई है। इसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४९१ में हुई। - मन्दिर नं. ४-बड़े मन्दिरके बाहर बरामदेमें यह मन्दिर है। इसमें भगवान् महावीरको एक खड्गासन मूर्ति विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १९५१ में भट्टारक महेन्द्रकीति द्वारा हुई । यह ४ फुट ऊंची है। यह मुंगिया वर्णकी है। इस वेदीपर २ पाषाण प्रतिमाएं और हैं ।
मन्दिर . ५-यह यहाँका बड़ा मन्दिर कहलाता है। इसमें मूलनायक प्रतिमा भगवान् सम्भवनाथकी है। यह ३ फट १ इंच अवगाहनाकी है। पद्मासन मद्रामें ध्यानावस्थित है। इसका वर्ण श्वेत है। यह वि. संवत् १९५१ में प्रतिष्ठित हुई है। इसके दोनों पार्यो में चन्द्रप्रभ और सम्भवनाथ तीर्थंकरोंकी श्वेतवर्णकी प्रतिमाएं पद्मासन मुद्रामें अवस्थित हैं। इनके अतिरिक्त समवसरणमें २७ धातुकी और ३ पाषाणकी प्रतिमाएं हैं।
बायीं ओर वेदीमें वि. सं. १९५१ की प्रतिष्ठित चन्द्रप्रभकी श्वेत पाषाणकी पद्मासन मूर्ति विराजमान है। अवगाहना १ फुट ८ इंच है। इनके अतिरिक्त सुपाश्र्वनाथ, चन्द्रप्रभ, सुपाश्वनाथकी कृष्ण वर्ण पद्मासन और बाहुबलीकी श्वेत वर्ण खड्गासन प्रतिमाएं विराजमान हैं । इसी बरामदेमें क्षेत्रपाल एक आलेमें विराजमान हैं।
दायीं ओर गन्धकुटीमें पार्श्वनाथ भगवान्को एक धातु प्रतिमा है, जिसकी अवगाहना १ फुट २ इंच है। यह भी वि. संवत् १९५१ में प्रतिष्ठित हुई है।
___ इसके आगे बढ़नेपर एक वेदीमें इसी कालकी श्वेत पाषाणकी सम्भवनाथ भगवान्की प्रतिमा है। यह १ फुट १० इंच ऊंची है। इसके अतिरिक्त इस वेदीपर ५ पाषाण प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जिनमें ३ कृष्ण वर्णकी ओर १ श्वेत वर्णकी है। इनमें पार्श्वनाथकी १ प्रतिमा वि. संवत् १५४८ की है।
- ऊपर छतपर भी एक वेदी है। इसमें भगवान् आदिनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी चरण-चौकीपर नागरी लिपिमें निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण है। इसकी भाषा अत्यन्त अशुद्ध है
___ "संवत्.......११ ऐकन ऐकनपे वैसाष मासे शुक्ल पक्षे तिथौ ९ गुरुवासरे मूलसंघे गणे बलात्कार श्री कुन्दकुन्दचारचारीय आमनाय तत् उपदेसात् श्री हेमचन्द्र असारीय नग्र सीदपुर.... हूबड़ ग्याति लगुसा साषा भवेरज गोत्र साहाजि दयचन्दजी भारीया सुरीबाई बोजा दलीच वषप नीटाकमीनी।"
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३२३ यह प्रतिमा लिपि और भाषाकी दृष्टिसे १८वों-१९वीं शताब्दीकी प्रतीत होती है।
इसके अतिरिक्त चार श्वेत वर्णकी तीर्थंकर प्रतिमाएं इस वेदोपर विराजमान हैं। ये सभी पद्मासन हैं।
इस मन्दिरके प्रवेशद्वारके ललाट बिम्बपर अर्हन्त भगवान्की पद्मासन मूर्ति उत्कीर्ण है। दूसरे द्वारपर भी एक पद्मासन अहंन्त मूर्ति बनी हुई है। यह एक शिलाफलकपर उत्कीर्ण है। ऊपरके भागमें यक्ष-यक्षी और पुष्पमाल लिये हुए देव-देवियां बने हुए हैं।
___ मन्दिर नं. ६-ऊपरवाले मन्दिरके बगलमें ही यह मन्दिर बना हुआ है। इसमें संवत् १९५१ में प्रतिष्ठित भगवान् अजितनाथकी श्वेत पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना १ फुट ६ इंच है। इसी कालकी चन्द्रप्रभ स्वामीकी दो पाषाण प्रतिमाएं इसी वेदीपर विराजमान हैं। ये ९ इंच ऊंची हैं।
मन्दिर नं. ७–पूर्ववाले मन्दिरके पृष्ठ भागमें एक वेदीमें कृष्ण पाषाणकी भगवान् महावीरकी पद्मासन प्रतिमा है। इसका माप २ फुट ७ इंच है। पादपीठपर कोई लेख नहीं है। प्रतिमा शास्त्रीय दृष्टिसे सौम्य और समचतुरस्र नहीं है । सम्भवतः यह संवत् १९५१ में ही प्रतिष्ठित हुई है।
इसके दोनों पाश्वोंमें आदिनाथ और चन्द्रप्रभ भगवान्की कृष्ण वर्णकी पद्मासन प्रतिमाएं हैं।
इस मन्दिरके बाहर बरामदेमें दीवालपर यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं। यक्ष-दम्पति ललितासनसे बैठा हुआ है। यक्षके दोनों हाथोंमें चक्र है। यक्षी चतुर्भुजी है। दायें ऊपरी हाथमें कुठार है तथा नीचेका दायां हाथ वरद मुद्रामें है। ऊपरका बायां हाथ खण्डित है तथा नीचेके हाथमें कलश है। इस यक्ष-दम्पतिके ऊपर गहरी सफेदी पोती हुई है। यक्ष-यक्षीके उपकरण स्पष्ट नहीं हैं, केवल अनुमान द्वारा लिखे गये हैं।
मन्दिर नं. ८-यह गुमटी या मन्दरिया है। इसमें देशी पाषाणकी भगवान् आदिनाथकी १ फुट २ इंच ऊंची प्रतिमा खड्गासन मुद्रामें विराजमान है। प्रतिमापर कोई लेख और लांछन नहीं है।
इस मन्दिरके चबूतरेपर किसी मन्दिरके तोरणका भाग रखा हुआ है। यह ३ फुट ६ इंच ऊंचा और ४ फुट ४ इंच चौड़ा है। शीर्षपर अहंन्त प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें विराजमान है। उनके दोनों पाश्वमें माला लिये हुए देव खड़े हैं। उनके अधोभागमें चमरवाहक खड़े हैं। नीचे देवियोंकी पाँत है। एक कोष्ठक मध्यमें खाली है। उसके ऊपर हाथ जोड़े भक्त खड़े हैं। कोष्ठकके दोनों ओर गज खड़े हैं। कोष्ठकके नीचे खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा है। उसकी एक बांह खण्डित है। इस फलकके दोनों सिरोंपर स्तम्भ बने हुए हैं, जिनमें श्रृंखला युक्त घण्टे लटक रहे हैं । इस फलकको भी चूना-सफेदीसे पोत दिया गया है। अतः इन मूर्तियोंके निर्माण कालका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
मन्दिर . ९-इसमें कृष्ण पाषाणकी भगवान् पाश्वनाथको प्रतिमा विराजमान है। यह २ फुट ११ इंच उत्तुंग है एवं पद्मासन मुद्रामें है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९५१ में हुई। धातुकी खड्गासन मुद्रामें एक सिद्ध प्रतिमा भी वेदोपर विराजमान है।
मन्दिर नं. १०-इसमें धातुकी शान्तिनाथ प्रतिमा मूलनायक है। इसके अतिरिक्त १० कामकुमारों और २ चक्रियोंकी भी धातु-प्रतिमाएं विराजमान हैं। मूर्तियोंपर उनके नाम भी अंकित हैं तथा दीवारपर भी दर्शनार्थियोंके अवलोकनार्थ नाम लिख दिये हैं।
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ पुरातत्त्व
इस क्षेत्रपर पुरातत्त्व सम्बन्धी सामग्रीका सर्वथा अभाव नहीं है। यहां कई प्राचीन मूर्तियां देखनेमें आयी हैं। इनके ऊपर सफेदी-चूना पुता हुआ होनेके कारण इनका समय निर्धारण तो नहीं किया जा सकता किन्तु ओंकारेश्वर पहाड़ीपर जो भग्नावशेष पड़े हुए हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक देखनेपर ज्ञात होता हैं कि यह सम्पूर्ण अवशेष जिन मन्दिर मूर्तियोंके हैं वे अनुमानतः ११वीं-१२वीं शताब्दीके लगते हैं। क्षेत्रपर स्थित ये मूर्तियां उन्हीं अवशेषोंके भाग हैं। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि इन मूर्तियोंका काल भी वही हो।
पुरातत्त्वावशेषोंको उक्त श्रृंखला कावेरीको पार करके क्षेत्रके पृष्ठ भागमें दूर तक चली गयी है। कुछ भग्न मन्दिर और मूर्तियां क्षेत्रसे लगभग ३ फलींग दूर कावेरीकी तटवर्ती पहाड़ीके ऊपर एक स्थानपर पड़े हुए हैं। यहां एक जीर्ण मन्दिर खड़ा हुआ है। एक छोटा मन्दिर अर्धभग्न हो चुका है। मन्दिरका एक गर्भगृह भी अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा है। इन मन्दिरोंके स्तम्भ तथा अन्य सामग्री भी यहां-वहां बिखरी हुई पड़ी हैं।
इस कलावशेषमें एक बहुमूल्य मूर्ति सुरक्षित खड़ी हुई है। यह मूर्ति ५ फुट ऊँची और २ फुट ९ इंच चौड़ी शिलामें बनी है। मूर्ति किसी राजपुरुषकी प्रतीत होती है। उसके सिरपर मुकुट, गलेमें रत्नहार, भुजाओंमें केयूर, कटिपर रत्नमेखला आदि रत्नाभरण हैं । उसके शीर्षपर तीर्थंकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें है। दोनों पावों में चमरवाहक हैं। एक ओर अश्वपर एक पुरुष आरूढ़ है। उसके साथ सेवक-सेविका भी हैं।
कुछ लोग इसे चक्रवर्तीकी मूर्ति बताते हैं। किन्तु इसमें चक्रवर्तीका परिचय देनेवाले नवनिधि या चौदह रत्न अथवा चक्र कुछ भी नहीं हैं। केवल अलंकारोंके कारण इसे चक्रवर्तीको मूर्ति स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं लगता। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह मूर्ति अद्भुत है और परमार-शिल्पकी प्रतिनिधि रचना है। धर्मशालाएं
क्षेत्रपर १४ धर्मशालाएं हैं। इनमें बिजली और नलकी व्यवस्था है। यात्रियोंको ठहरनेके लिए ६२ कमरे हैं । यहाँ मुनि और त्यागियोंके लिए पृथक् आश्रम हैं। मेला
क्षेत्रपर वार्षिक मेला फागुन सुदी १३ से १५ तक होता है।
व्यवस्था
क्षेत्रको व्यवस्था एक प्रबन्धकारिणी समिति द्वारा होती है, जिसका चुनाव मेलेके अवसरपर होता है।
मार्ग
इन्दौरसे मान्धाता (ओंकारेश्वर )७७.कि. मी. है। खण्डवासे भी इतना ही है। ओंकारेश्वर रोड ( अजमेर-खण्डवाके मध्य रेलवे स्टेशन ) से मान्धाता ११ कि. मी. है। वहाँसे नाव द्वारा सिद्धवरकूट पहुंचते हैं। बड़वाह ( पश्चिमी रेलवेके इन्दौर खण्डवा स्टेशनोंके मध्य एक स्टेशन ) से फेअरवेदर रोड द्वारा सिद्धवरकूट १९ कि. मी. है। इस मार्गसे नर्मदा नदी नहीं
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३२५ पड़ती। किन्तु यह मार्ग अभी पक्का नहीं हो पाया। मान्धातामें क्षेत्रकी धर्मशाला है और बड़वाहमें पोरवाड़ जैन धर्मशाला है । ये दोनों धर्मशालाएँ मोटर स्टैण्डके निकट ही हैं।
मुक्तागिरिसे आनेवालोंको खण्डवा होकर, मक्सी और बनैडियासे आनेवालोंको इन्दौरसे और पावागिरिसे आनेवाले यात्रियोंको सनावद और मान्धाता होकर यहाँ आना चाहिए। निकटवर्ती प्रदेशमें जैन साहित्यकार
यह क्षेत्र खण्डवा तहसीलमें है । खण्डवा यहाँसे केवल ७७ कि. मी. है।
खण्डवासे बुरहानपुर जाते हुए मार्ग में आसेरगढ़का किला मिलता है। मुगल कालमें यहाँ ब्रह्म जिनदास नामक बड़े प्रभावक भट्टारक हुए हैं। ये बड़े विद्वान् और मन्त्रवेत्ता सिद्ध पुरुष थे। इनके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियां जनतामें अब तक प्रचलित हैं। कहते हैं, बादशाहने उनकी ख्याति सूनकर परीक्षा लेनेकी. इच्छासे उन्हें बुलाया। उनके बैठनेके लिए एक चबूतरा बनवाया गया और उसके नीचे एक बकरी बंधवा दी। जब भट्टारकजी यहां पधारे और उनसे चबूतरेपर बैठनेका अनुरोध किया गया तो उन्होंने बैठनेसे इनकार कर दिया। बादशाहने इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि चबूतरेके नीचे तीन प्राणी कष्ट पा रहे हैं। बादशाहको इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने चबूतरा तुड़वाया तो देखा कि एक बकरी और उसके दो बच्चे वहां मौजूद हैं। वास्तवमें बकरी वहाँ ब्याह गयी थी। बादशाहने भट्टारकजीका बड़ा सम्मान किया।
इस किलेके निकट जंगलमें इन भटटारकजीकी छत्री और.चरणचिह अब तक विद्यमान हैं।
ब्रह्म जिनदास भट्टारकके सम्बन्धमें कुछ ग्रन्थों-जैसे जम्बू-स्वामी चरित, हरिवंश-पुराण आदिको ग्रन्थ प्रशस्तियोंसे कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इनके अनुसार इनके पिताका नाम कर्णसिंह था। ये पाटनमें रहते थे और हूमड़वंशी थे। माताका नाम शोभा था। परिवार अत्यन्त सम्पन्न था। जिनदास भट्टारक सकलकीतिके लघु भ्राता थे जो मूलसंघ सरस्वती गच्छके प्रसिद्ध विद्वान् थे। जिनदासके ऊपर अपने भाईके व्यक्तित्वका बड़ा प्रभाव था। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे और अपने भाईके पास जाकर उनके शिष्य हो गये । आपके जीवनका अधिकांश समय आत्मसाधना, पठन-पाठन और ग्रन्थ-निर्माणमें व्यतीत होता था। आप प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी भाषाके वेत्ता थे। आपने विहार करके अनेक स्थानोंपर मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। उपदेशों द्वारा अनेक भव्य लोगोंका कल्याण किया। आपने अनेक ग्रन्थोंका निर्माण किया, जिनमें अधिकांश राजस्थानी भाषाका रासा साहित्य है, कुछ ग्रन्थ कथा और पूजाके हैं। उनके रासा ग्रन्थोंसे उनके कई शिष्योंका पता चलता है जैसे मनोहर, मल्लिदास, गुणदास, नेमिदास, शान्तिदास, गुणकीर्ति । ब्रह्म जिनदासका काल क्या था, यह तो ठीक
ठीक ज्ञात नहीं हो पाया किन्तु भट्टारक सकलकीतिने बड़ाली नगरके चातुर्मासमें अमीझराके पाश्वनाथ मन्दिरमें ब्रह्म जिनदासके अनुरोधसे संवत् १४८१ में मूलाचार प्रदीपकी रचना की थी। कविने 'राम-रास' की रचना संवत् १५०८ में की थी। गंज-बासौदाके बूढ़ेपुरा मन्दिरमें एक मूर्ति-लेख है, जिसकी अनुसार संवत् १५१६ माघ सुदी ५ को मूलसंघके श्री सकलकीर्ति देवके शिष्य जिनदासके उपदेशसे ब्र. मल्लिदास जोगड़ा पोरवाड़ नाऊ भार्या नेई भ्राताने बड़ी प्रसन्नतासे प्रतिष्ठा करायी। इसी प्रकार कविने 'हरिवंश-रास' की रचना संवत् १५२० में की थी। इस प्रकार संवत् १४८१ से संवत् १५२० तक तो वे निश्चित रूपसे थे। किन्तु उनका निश्चित काल क्या है, यह अभी अन्वेषणीय है। इनकी भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है, इनके ग्रन्थ खण्डवा, बुरहानपुर, शाहपुर, अंभाशा, मलकापुर आदि स्थानोंके शास्त्र-भण्डारोंमें मिलते हैं।
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भारतके विगम्बर जैन तीर्थ बुरहानपुर में क्षुल्लक धर्मदास हुए हैं। इनके भी तीन-चार अध्यात्म ग्रन्थ मिलते हैं। हिन्दू तीर्थ
सिद्धवरकूट क्षेत्रके निकट ओंकारेश्वर क्षेत्रमें ओंकारेश्वरका तिमंजिला मन्दिर है। विष्णुपुरीमें अमलेश्वर ज्योतिलिंग है। कावेरीके उद्गम स्थानपर चौबीसी अवतार और पशुपतिनाथका मन्दिर है। यहाँसे लगभग १० मील दूर सीतावाटिका नामक स्थान है। कहा जाता है कि यहाँ महर्षि वाल्मीकिका आश्रम था और सीताजीने परित्यक्त दशामें यहीं निवास किया था।
बनैड़िया मार्ग और अवस्थिति
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बनैडिया इन्दौर जिलेमें स्थित है। यह इन्दौर स्टेशनसे सड़क मार्गसे ४५ कि. मी. तथा पश्चिम रेलवेके पाविमा स्टेशनसे २९ कि. मी. है । इसका पोस्ट आफिस बनैडिया है । इन्दौरसे वाया देवालपुर बनैडिया तक बसें चलती हैं। क्षेत्र-दर्शन
यहां एक सरोवरके तटपर एक परकोटेके अन्दर दो जैन मन्दिर हैं, जिनमें एक प्राचीन है। दूसरा नवीन है जिसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १९९४ में हुई है। प्राचीन मन्दिरमें मूलनायक प्रतिमा भगवान् अजितनाथकी है। यह पद्मासन श्वेतवर्ण है । इसकी अवगाहना ३ फुट ८ इंच है। इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा शाह जीवराज पापड़ीवालने वि. सं. १५४८ वैशाख सुदी ३ को करायी थी। इस प्रतिमाके अतिरिक्त पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित अन्य कई प्रतिमाएं भी यहां मिलती हैं। कुछ ऐसी भी प्रतिमाएं यहां विराजमान हैं, जिनकी प्रतिष्ठा पापड़ीवालकी माता वरयणा देवी तथा उनकी लघु पत्नी द्वारा करायी गयी थी। यहाँ वि. सं. १५४८ में प्रतिष्ठित ४३ प्रतिमाएं विद्यमान हैं। इनमें आदिनाथ ३ फुट ३ इंच, अजितनाथ २ फुट ११ इंच, चन्द्रप्रभ २ फुट ५ इंच, आदिनाथ २ फुट ९ इंच और अजितनाथ २ फुट ८ इंचकी प्रतिमाएं अधिक मनोज्ञ और प्रभावक हैं । ये सभी प्रतिमाएं श्वेत पाषाणकी हैं और पद्मासन हैं।
इसके पश्चात् वि. सं. १६७३, १७८४ और इनके पश्चात्कालकी अनेक प्रतिमाएं हैं।
इस मन्दिरमें चार वेदियाँ हैं। मुख्य वेदी भगवान् अजितनाथ की है। उनके समवसरणमें ७ पाषाण मूर्तियां हैं। बायीं ओरकी वेदीमें मूलनायक पाश्र्वनाथ हैं। उसमें २१ मूर्तियाँ विराजमान हैं। दायीं ओरको वेदीमें मूलनायक शान्तिनाथ हैं तथा साथमें ३४ मूर्तियां और विराजमान हैं। चौकमें वेदीपर भगवान् आदिनाथकी प्रतिमा है। चबूतरेपर एक गन्धकुटीमें भगवान् पाश्वनाथको प्रतिमा है । यही दूसरा मन्दिर कहलाता है । इस मन्दिरका शिखर अत्यन्त कलापूर्ण और दर्शनीय है। अतिशय
यहांकी मूलनायक प्रतिमाके अतिशयोंके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। यहाँपर केवल जैन ही नहीं हजारों जैनेतर लोग भी मनौती मनाने आते हैं। यहाँके वार्षिक मेलेके अवसर
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३२७ पर तो आसपासके हजारों कृषक नर-नारी आते हैं और बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ पैसे आदि चढ़ाते हैं। ___इस मन्दिरके साथ चमत्कारकी एक विचित्र किंवदन्ती जुड़ी हुई है। कहते हैं कोई यति इस मन्दिरको गुजरातके किसी स्थानसे अपने मन्त्रबलके द्वारा आकाशमार्गसे ले जा रहे थे। किसी कारणवश उन्हें बनैडियामें उतरना पड़ा। तबसे यह मन्दिर यहींपर स्थित है। इस मन्दिरकी नींव नहीं है । यह उड़ा हुआ मन्दिर कहलाता है। धर्मशाला - यहां परकोटेके अन्दर मन्दिरके निकट ही एक धर्मशाला है। कुल ३० कमरे हैं। धर्मशालामें बिजली है। जलके लिए कुएँ हैं, तालाब हैं। क्षेत्र तक बस जाती है । यहां कोई दुकान नहीं है। मेला
क्षेत्रका वार्षिक मेला चैत्र सुदी १३ से १५ तक होता है। यहां उल्लेख योग्य एक धार्मिक मेला वि. सं. २४९४ में वेदी प्रतिष्ठाके अवसरपर हुआ था। इसमें हजारों व्यक्तियोंने भाग लिया था।
व्यवस्था
क्षेत्रकी व्यवस्था इस शताब्दीके पूर्वसे ही मारवाड़ी गोठ, शक्कर बाजार, इन्दौरके आधीन चली आ रही है। पहले मालवामें प्रति जैन घर पीछे आठ आने इस क्षेत्रके लिए लाग लगी हुई थी। प्रत्येक स्थानकी पंचायत अपने यहाँसे रुपया उगाकर मारवाड़ी गोठको भेज दिया करती थी। इससे क्षेत्र आर्थिक दृष्टिसे निश्चिन्त था। किन्तु अब यह परम्परा प्रायः समाप्त हो चुकी है।
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३-४२
परिशिष्ट-9
मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थोंका संक्षिप्त परिचय और उनका यात्रा-मार्ग
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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थोंका संक्षिप्त परिचय और उनका यात्रा-मार्ग
सिहोनिया
आगरा-वालियरके मध्य स्थित मुरैनासे यह स्थान ३० कि. मी. है। मुरैनासे सिहौनिया गाँव तक पक्की सड़क है और कई बसें जाती हैं। बस गांवके बाहर थाने तक जाती है। वहाँसे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र सिहोनिया कच्चे मार्गसे लगभग १ कि. मी. है। क्षेत्रपर ठहरनेके लिए धर्मशाला है, किन्तु अभी वहां सुरक्षाकी कोई व्यवस्था नहीं है। क्षेत्रपर शान्तिनाथ भगवान्की १६ फुट ऊंची मूर्ति तथा भूगर्भसे निकली हुई मूर्तियां हैं। क्षेत्रके मन्त्री कार्यालयका पता इस प्रकार है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र सिहोनिया, द्वारा श्रमण वस्त्रालय, झण्डा चौक, मुरैना (म.प्र.) ग्वालियर
मुरैनासे रेल-मार्ग द्वारा ग्वालियर ३९ कि. मी. है। यह शहर तीन भागोंमें विभाजित है। ग्वालियर, लश्कर और मुरार । लश्करमें ९ जैन धर्मशालाएँ हैं। ग्वालियरमें २ और मुरारमें १। इनमें नयी सडक ( लश्कर ) पर महावीर धर्मशाल
नक है। ग्वालियर में। मन्दिर और ४ चैत्यालय हैं। लश्करमें २० मन्दिर और ३ चैत्यालय हैं तथा मुरारमें २ मन्दिर और २ चैत्यालय हैं । ग्वालियरके किलेमें पहाड़में उकेरी हुई मूर्तियां दर्शनीय हैं। मूर्तियोंकी संख्या अनुमानतः १५०० के लगभग है। ये मूर्तियां किलेमें ५ समूहोंमें हैं, उरवाही समूह, दक्षिण-पश्चिम समूह, दक्षिण-पूर्व समूह, उत्तर-पश्चिम समूह और उत्तर-पूर्व समूह । इनमें सबसे विशाल मूर्ति खड्गासनमें उरवाही द्वीप समूहमें भगवान् आदिनाथकी ५७ फुट और पद्मासनमें एक पत्थरकी बावड़ीमें सुपाश्वनाथको ३५ फुट ऊंची प्रतिमा हैं। ये मूर्तियाँ १५वीं शताब्दीमें तोमरवंशीय नरेश डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह और मानसिंहके राज्यकालमें बनी थीं और बननेके ६० वर्ष बाद बाबरने इन्हें खण्डित किया।
- इन मूर्तियोंके अतिरिक्त किले में दर्शनीय स्थान ये हैं-गूजरी महल जहाँ संग्रहालय है। सास-बहूके दो मन्दिर, तेलीका मन्दिर । वर्षमें ग्वालियरमें कई जन मेले होते हैं-२६ जनवरीको रथयात्रा, असोज कृष्णा २, ४ और अमावस्याको जलेव । सोनागिरि .. ग्वालियरसे ६१ कि. मी. दूर सोनागिरि रेलवे स्टेशन है। वहाँसे क्षेत्र ५ कि. मी. है । क्षेत्र तक पक्की सड़क है । स्टेशनपर तांगे मिलते हैं। ग्वालियरसे सोनागिरि तक सीधी पक्की सड़क है तथा सीधी बस-सेवा भी है।
__यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँसे नंगकुमार, अनंगकुमार आदि पांच करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभका समवसरण भी यहाँपर आया था। इस पर्वतपर अ मुनियोंको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई है।
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३३२
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ पर्वतके ऊपर ७७ मन्दिर, १३ छतरियाँ हैं तथा तलहटीमें १७ मन्दिर और ५ छतरियां हैं । यहाँका मन्दिर नं. ५७ मुख्य मन्दिर है। इसमें भगवान् चन्द्रप्रभकी साढ़े नौ फुट ऊँची मूलनायक प्रतिमा है। मूर्ति अत्यन्त भव्य है । मन्दिर विशाल है। इस मन्दिरके निकट एक छतरीमें नंग-अनंग आदि मुनियोंके चरण-चिह्न बने हुए हैं।
इस क्षेत्रपर दो स्थान विशेष आकर्षणके केन्द्र हैं नारियल कुण्ड और बाजनी शिला। मन्दिर नं. ६९ के बाद एक मार्ग इन दोनों स्थानोंके लिए गया है। नारियल कुण्ड एक छोटा-सा कुण्ड है जो नारियलके आकारका है। लोगोंका विश्वास है कि यदि कोई निस्सन्तान व्यक्ति इस कुण्डमें बादाम डाले और बादाम जलके ऊपर तैरने लगे तो उसे अवश्य सन्तान प्राप्त होगी। इसके पास एक पहाड़ी शिला है जिसे बजानेसे मधुर ध्वनि निकलती है।
क्षेत्रपर कुल १५ धर्मशालाएं हैं। पहाड़के मन्दिरोंकी व्यवस्था तो एक कमेटीके अन्तर्गत है, किन्तु धर्मशालाओंकी और तलहटीके मन्दिरोंकी व्यवस्था विभिन्न कमेटियोंके आधीन है । किन्तु कोई यात्री किसी भी धर्मशालामें ठहर सकता है । क्षेत्रपर वार्षिक मेला चैत्र कृष्णा १ से ५ तक भरता है।
क्षेत्रका पता इस प्रकार है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन सोनागिरि सिद्धक्षेत्र संरक्षिणी कमेटी, सोनागिरि, जिला दतिया (म.प्र.)
पनिहार-बरई
सोनागिरिसे ग्वालियर लौटकर वहाँसे पनिहार बरई जा सकते हैं। ग्वालियरसे शिवपुरी रेल-मार्गपर ग्वालियरसे २४ कि. मी. दूर पनिहार स्टेशन है। स्टेशनसे पनिहार गांव लगभग २ कि. मी. है। सड़क-मार्गसे ग्वालियर-शिवपुरी रोड़पर २२ कि. मी. दूर सड़कसे दायीं ओर बरई गांव है और बायीं ओर पनिहार गांव है। पनिहार गांवके बाहर ही प्राचीन जिनालय और भोयरा है। सड़कसे यह लगभग १ कि. मी. है। रास्ता कच्चा है। सड़कसे लगभग ३ कि. मी. दूर बरई गांवके बाहर एक टोलेपर भग्नप्राय जैन मन्दिर है। वहाँ बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं। यहां ठहरनेकी सुविधा नहीं है। शिवपुरी ___ पनिहारसे शिवपुरी रेल और सड़क-मार्गसे ९६ कि. मी. है। यहां सरकारी संग्रहालय है। इसमें अधिक भाग जैन सामग्रीका है। नगरमें कई जिनालय हैं। खनियाधाना
• शिवपुरीसे सड़क-मार्गसे यह स्थान १०२ कि. मी. है। यहाँ दो प्राचीन मन्दिर और १ मानस्तम्भ हैं। यहाँको क्षेत्र-कमेटीका पता है-मन्त्री, चौरासी दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, खनियाधाना (शिवपुरी म. प्र.)। गोलाकोट ___ खनियाधानासे गूडर होते हुए ११ कि. मी. है। मार्ग कच्चा है। बांधके किनारे पहाड़ीपर यह क्षेत्र है । एक चहारदीवारीके अन्दर एक मन्दिर है उसमें ११९ मूर्तियाँ हैं। .
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परिशिष्ट-१
३३३ पचराई
खनियाधानासे यह १८ कि. मी. है, जिसमें १४ कि. मी. पक्की सड़क है और ४ कि. मी. कच्चा मार्ग है। यहां एक परकोटेके अन्दर २८ जैन मन्दिर हैं। भगवान् शीतलनाथ मन्दिर यहांका मुख्य मन्दिर है। शीतलनाथ स्वामीकी मूर्ति १२ फुट ऊंची है। यहांकी मूर्तियोंके ऊपर होरेकी पालिश की हुई है। बजरंगढ़
खनियाधानासे गुना तक पक्की सड़क है। गुना आगरा-बम्बई मार्गपर अथवा इन्दौरग्वालियर मार्गपर पड़ता है । गुनामें दो भव्य मन्दिर हैं। गुनासे गुना-आरोन मार्गपर ७ कि. मी. दूर बजरंगढ़ है । गुनासे बस और तांगों द्वारा यहां पहुंच सकते हैं। सड़कके निकट ही यह क्षेत्र है। मुख्य मन्दिरके अतिरिक्त एक मन्दिर बाजारमें है। दोनों मन्दिरोंके साथ धर्मशालाएं हैं । गुना नगरमें भी जैन धर्मशाला है। यह अधिक सुविधाजनक है। '
यह अतिशय क्षेत्र है। इस मन्दिरका निर्माण सेठ पाड़ाशाहने वि. सं. १२३६ में कराया था। इसमें भगवान् शान्तिनाथकी साढ़े चौदह फुट ऊँची मूलनायक प्रतिमा है। पता : मन्त्री, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, बजरंगढ़ ( गुना म. प्र.)। थूवौन
गुनासे अशोकनगर ४५ कि. मी. पक्की सड़क है। अशोकनगरसे चन्देरी जानेवाली सड़क पर थूवीन ५८ कि. मी. है जिसमें ५० कि. मी. पक्की सड़क है और फिर पिपरौलसे ८ कि. मी. कच्ची सड़क है। यहां कुल २५ मन्दिर हैं। मन्दिर नं. १५ की मूलनायक भगवान् ऋषभदेवकी प्रतिमा २५ फुट अवगाहनावाली कायोत्सर्ग मुद्रामें विराजमान है। इसी प्रतिमाके अतिशयोंके कारण यह क्षेत्र अतिशय-क्षेत्र कहलाता है। क्षेत्रपर धर्मशाला है। धर्मशालामें बिजलीकी व्यवस्था है । जलके लिए कुएँ हैं, थोड़ी दूरपर नदी बहती है। पता : मन्त्री, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, थूवोन, पो. चन्देरी, जिला गुना ( म. प्र.)। चन्देरी
थूवौनसे चन्देरी २२ कि. मी. है जिसमें ८ कि. मी. पिपरौल ग्राम तक कच्ची सड़क है और पिपरौलसे ३४ कि. मी. पक्की सड़क है। अशोकनगरसे चन्देरी तक बसें चलती हैं। चन्देरीके बस स्टैण्डसे लगभग एक कि. मी. दूर बड़ा जैन मन्दिर है। इसी मन्दिरमें विख्यात चौबीसी विराजमान है। प्रत्येक तीर्थकरकी प्रतिमा एक अलग गर्भ-गृहमें विराजमान है। जिस तीर्थंकरका जो वर्ण शास्त्रोंमें बताया गया है, वही वर्ण उनका प्रतिमाका है। सभी मूर्तियाँ अत्यन्त मनोहर है। इस मन्दिरके बराबरमें एक धर्मशाला त्यागी व्रतियोंके लिए है। दूसरी धर्मशाला यात्रियोंके लिए है। इसमें कन्या पाठशाला चल रही है।
नगरमें इस मन्दिरके अतिरिक्त एक मन्दिर और एक चैत्यालय और हैं। पता-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन चौबीसी बड़ा मन्दिर, पो.-चन्देरी ( गुना ) म.प्र.।
चन्देरीके आसपास अनेक स्थान हैं, जहां अनेक प्राचीन मूर्तियां और मन्दिर हैं, जैसे खन्दार (चन्देरीके निकट पहाड़पर ), गुरीलागिरि ( चन्देरीसे ७ कि. मी. मार्ग द्वारा), आमनचार (चन्देरीसे मुंगावली रोडपर २९ कि. मी., जिसमें २६ कि. मी. पक्की सड़क और ३ कि. मी.
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कच्ची सड़क है) भियांदांत, चन्देरीसे १४ कि. मी., (११ कि. मी. पक्की सड़क और ३ कि. मी. कच्चा मार्ग ), बिठला ( चन्देरीसे.१९ कि. मी.), भामौन ( चन्देरीसे १६ कि. मी.), आदि । पपौरा
चन्देरीसे ललितपुर ( ३४ कि. मी.) होते हुए वहाँसे टीकमगढ़ जाना चाहिए । टीकमगढ़से बण्डा-सागर रोडपर पपौरा ५ कि. मी. है। सड़कसे क्षेत्र दो फलांग दूर है। यहां कुल १०७ मन्दिर और ४ मानस्तम्भ हैं। मन्दिर सभी शिखरबन्द हैं। अतः यह मन्दिरोंकी नगरी लगती है। यह एक अतिशय-क्षेत्र है। मन्दिर नं. ४२ की मूलनायक प्रतिमा चन्द्रप्रभ भगवान्की है। वह बड़ी अतिशय सम्पन्न है । अनेक स्त्री-पुरुष यहाँपर मनौती मनाने आते हैं और इसी प्रतिमाके कारण यह क्षेत्र अतिशय-क्षेत्र कहलाता है। . .
- इस क्षेत्रपर दर्शनीय स्थानोंमें एक तो चौबीसी मन्दिर है। इस अद्भुत रचनामें चारों दिशाओंमें छह-छह मन्दिरोंकी पंक्तियां हैं। दूसरा है बाहुबली स्वामी-मन्दिर। इसमें मध्यमें बाहुबली स्वामीकी मूर्ति है। उसके चारों ओर गोलाकारमें २४ तीर्थंकरोंकी गुमटियां बनी हुई हैं। क्षेत्रपर वार्षिक मेला कार्तिक शुक्ला १३ से १५ तक भरता है। ___क्षेत्रपर धर्मशाला, नल, बिजली, फ्लशके सण्डास आदिको सुविधा सन्तोषजनक है। यहां श्री दिगम्बर जैन वीर विद्यालय भी चल रहा है । यहाँका पता है
मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पपौरा ( टीकमगढ़) म. प्र.। अहार
पपौरासे टीकमगढ़ आकर वहाँसे टीकमगढ़-बल्देवगढ़ रोडपर १९ कि. मी. पर अहारतिगोलकी पुलिया है। वहाँसे ५ कि. मी. दूर मदन-सागरसे आगे यह क्षेत्र है । बसें क्षेत्र तक जाती हैं । पक्की सड़क है। यहां पाड़ाशाह द्वारा निर्मित भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर है। भगवान् शान्तिनाथकी मूर्ति अत्यन्त अतिशय-सम्पन्न है तथा लगभग १७ फुटको है। यहां हालमें ९२ दीवार-वेदियां बनी हुई हैं। इनमें तीन चौबीसी और २० विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकरोंकी कुल ९२ मूर्तियां विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त गर्भगृहके बाहर ४ वेदियों और बनी हैं।
मुख्य मन्दिरके अतिरिक्त यहाँ ६ मन्दिर और १०वीं शताब्दीके दो मानस्तम्भ और हैं तथा यहाँसे लगभग दो फलांग कच्चे रास्तेसे जाकर पहाड़ीपर ६ लघु मन्दिर बने हुए हैं। क्षेत्रपर . एक संग्रहालय बना हुआ है। इसमें अहार तथा निकटवर्ती स्थानोंसे भूगर्भ आदिसे प्राप्त प्रतिमाएं सुरक्षित हैं । इनमें अनेक मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शताब्दीकी हैं। ___क्षेत्रपर धर्मशाला, नल, कुआं, बिजलीकी समुचित व्यवस्था है। यहां भी शान्तिनाथ दि. जैन विद्यालय, महिलाश्रम और व्रती नामक संस्थाएं चल रही हैं। यहाँका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, अहार (जि. टीकमगढ़ ) म. प्र.।
बन्धा
अहारसे टीकमगढ़ लौटकर वहाँसे झाँसी जानेवाली सड़कपर ४० कि. मी. दूर बम्हौरी वराना स्थान पड़ता है । बम्हौरी वरानासे कच्चे मार्ग द्वारा यह १० कि. मी. है।
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परिशिष्ट-१ खजुराहों
बन्धासे टीकमगढ़, वहाँसे छतरपुर होकर खजुराहो जा सकते हैं। नियमित बस-सेवा है। खजुराहो अत्यन्त उत्कृष्ट शिल्प और भव्य मन्दिरोंके कारण विश्व-भरमें प्रसिद्ध है। यह एक प्रसिद्ध पर्यटक केन्द्र है । यहाँ अनेक हिन्दू और जैन मन्दिर हैं। जेन मन्दिरोंका समूह बस स्टैण्डसे लगभग ३ कि. मी. है। यहींपर एक अहातेमें ३२ मन्दिर और धर्मशालाएं हैं। मन्दिरोंमें पाश्वनाथ मन्दिर, आदिनाथ मन्दिर और शान्तिनाथ मन्दिर उच्चकोटिकी कलाके कारण दर्शनीय हैं। इनकी भीतरी और बाह्य भित्तियों, शिखरों और द्वार-शाखाओंपर तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त शासन देव-देवियों, सुर-सुन्दरियों, गन्धर्व-मिथुनों और व्यालोंकी मूर्तियां बनी हुई हैं। इन मन्दिरों तथा अन्य भी मन्दिरोंमें एक हजार वर्ष प्राचीन अनेक मूर्तियां हैं। शान्तिनाथ मन्दिरमें मूलनायक भगवान् शान्तिनाथ को १६ फोट ऊंची मनोज्ञ मूर्ति है। पार्श्वनाथ मन्दिरके पास खुले मैदानमें प्राचीन जैन-मूर्तियोंका संग्रहालय है। __गांवके दक्षिणमें, उन मन्दिरोंसे लगभग १ कि. मी. दूर घण्टई मन्दिर है। यह प्राचीन जैन मन्दिरका अवशेष मात्र है । किन्तु इसके खम्भों और छतपर उत्कीर्ण कला दर्शनीय है। . :. इसके पश्चात् यहाँके हिन्दू मन्दिर और संग्रहालय दर्शनीय हैं। ये बस स्टैण्डके निकट हैं। यों तो सभी मन्दिर दर्शनीय हैं किन्तु इनमें कन्दारिया महादेव, लक्ष्मण, चतुर्भुज, दूलादेव आदि मन्दिर विशेष द्रष्टव्य हैं।
जैन यात्रियोंको जैन धर्मशालामें ठहरनेमें विशेष सुविधा रहती है। जलके लिए कुएँ हैं। क्षेत्रपर बिजलीकी व्यवस्था है। यहाँका पता इस प्रकार है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र खजुराहो प्रबन्धक समिति, खजुराहो (जिला-छतरपुर ) म.प्र.। द्रोणगिरि
__खजुराहोसे छतरपुर होकर मलहरा जाना चाहिए। यह छतरपुर-सागर रोडपर है। खजुराहोसे मलहरा १०४ कि. मी. है। मलहरासे द्रोणगिरि ७ कि. मी. है। सभी जगह नियमित बस-सेवा है। गांवका नाम सेंधपा है, द्रोणगिरि तो पर्वतका नाम है। सेंधपाके बस-स्टैण्डसे जैन धर्मशाला १०० गज दूर गांवके भीतर है। वहीं गांवका मन्दिर और गुरुदत्त जैन संस्कृत विद्यालय है। धर्मशालामें बिजली और कुएंकी सुविधा है ।
पर्वतके ऊपर कुल २८ जिनालय बने हुए हैं। इनमें तिगोड़ावालोंका मन्दिर सबसे प्राचीन है और बड़ा मन्दिर कहलाता है। अन्तिम मन्दिरके निकट एक गुफा है। कहा जाता है कि मुनि गुरुदत्तने यहींसे निर्वाण प्राप्त किया था। इसीलिए यह क्षेत्र सिद्ध-क्षेत्र कहलाता है।
___यहांका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र द्रोणगिरि, सेंधपा ( जिला छतरपुर) म. प्र.। यहाँका वार्षिक मेला फाल्गुन कृष्णा १ से ५ तक होता है। रेशन्वीगिरि
द्रोणगिरिसे मलहरा वापस लौटकर वहाँसे दलपतपुर (६४ कि. मी. ) तथा वहाँसे दलपतपुर-बकस्वाहा रोडसे क्षेत्र रेशन्दीगिरि (१२ कि. मी.) जाना चाहिए। पक्की सड़क है । नियमित बस-सेवा है। क्षेत्र सड़क किनारे ही है।
. यह सिद्ध-क्षेत्र है । यहाँसे वरदत्त आदि ५ मुनिराज मुक्त हुए हैं। यहां पर्वतपर ३६ मन्दिर हैं तथा तलहटीमें १५ मन्दिर हैं। पर्वतपर मन्दिर क्रमांक ११ बड़ा मन्दिर कहलाता है। यह
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भारतके दिपम्बर जैन तीर्थ मन्दिर भूगर्भसे उत्खननके फलस्वरूप १०० वर्ष पूर्व निकला था। इसमें ११वीं शताब्दीकी मूर्तियां और शिलालेख हैं। तलहटीके मन्दिरोंमें जल-मन्दिर बहुत सुन्दर लगता है। यहां ठहरनेके लिए धर्मशाला है। बिजली और कुएंकी सुविधा है। क्षेत्रका वार्षिक मेला और रथोत्सव अगहन सुदी ११ से १५ तक होता है। क्षेत्रका पता इस प्रकार है-मन्त्री, श्री सिद्धक्षेत्र संरक्षिणी सभा, रेशन्दीगिरि, पो. नैनागिर (छतरपुर ) म. प्र.।
___ यहाँसे यदि अजयगढ़के पुरातत्त्वको देखने जाना चाहें तो रेशन्दीगिरिसे विजावर होकर जा सकते हैं। पजनारी
रेशन्दीगिरिसे बसवाहा होकर वहाँसे बण्डा जाना चाहिए। बण्डासे पश्चिममें बण्डाबांदरी रोडपर ८ कि. मी. दूर बाकरई नदीके तटपर पहाड़ीपर यह क्षेत्र है। नदी-तटपर जैन धर्मशाला है तथा पहाड़ीपर एक विशाल अहातेमें मन्दिर है। मूलनायक भगवान् शान्तिनाथकी भूर्ति पद्मासन मुद्रामें ४ फुट अवगाहनाकी है। यह बड़ो अतिशय-सम्पन्न है। इसके कारण यह अतिशय-क्षेत्र कहलाता है। पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पजनारी, पो. बण्डा। बेलई (सागर) म.प्र.। बीना-बारहा
पजनारीसे बण्डा वापस आकर वहाँसे सागर ४५ कि. मी. है। सागरसे देवरीकलां ६६ कि. मी. है । पक्की सड़क है। देवरीकलांसे बीनाबारहा लगभग ६ कि. मी. है। मार्ग अभी तक कच्चा है। सड़क बन रही है। सड़क तैयार होनेपर कच्चा मागं केवल १ कि. मी. रह जायेगा।
. यह अतिशय क्षेत्र है। भगवान् शान्तिनाथकी १५ फुट ऊंची खड्गासन प्रतिमा अत्यन्त अतिशय-सम्पन्न है। भगवान् महावीरकी एक पद्मासन प्रतिमा १३ फुट ऊंची है और दीवारमें ईट-गारेसे बनी हुई है। जली हुई नारियलकी जटाओंको घीमें मिलाकर उससे इसका लेप किया जाता है, जलसे अभिषेक नहीं किया जाता। क्षेत्रपर कुल ५ मन्दिर हैं। एक स्थानपर प्राचीन मूर्तियोंका संग्रह किया गया है । क्षेत्रपर धर्मशाला और बिजली है, कुआं भी है।
___यहांपर वार्षिक मेला २५ दिगम्बरसे १ जनवरी तक होता है। यहांका पता इस प्रकार है-मन्त्री, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, बीना-बारहा, पो. देवरीकलां ( सागर ) म. प्र.।
पटनागंज
देवरीकलांसे रहली ३२ कि. मी. है । पक्की सड़क है। नियमित बस-सेवा है। रहली सुवर्णभद्र नदीके इस तटपर अवस्थित है तथा नदीके दूसरे तटपर पटनागंज क्षेत्र है। ठहरनेके लिए रहलीमें भी धर्मशाला है तथा पटनागंजमें भी धर्मशाला है । बाजार आदिकी सुविधा रहलीमें हैं। क्षेत्रपर बिजलीकी व्यवस्था है । कुएं भी हैं।
इस क्षेत्रपर कुल २५ मन्दिर हैं। इनमें मन्दिर क्रमांक २२ बड़ा मन्दिर है तथा उसमें विराजमान साढ़े तेरह फीट ऊंची भगवान महावीरकी प्रतिमा 'बड़े देव' कहलाती है। यह प्रतिमा सातिशय है और इसीके कारण यह अतिशय क्षेत्र कहलाता है। मन्दिर नं. २३ में पार्श्वनाथ स्वामीकी दो अद्भुत प्रतिमाएं हैं । इनके सिरपर सहस्र फणावलीका वितान है।
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परिशिष्ट-१
३३७ यहाँका पता इस भांति है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पटनागंज, पो. रहली (जिला सागर ) म. प्र.। कुण्डलपुर
रहलीसे गढ़ाकोटा होते हुए दमोह जाना चाहिए। यह लगभग ७० कि. मी. है। दमोहसे ३५ कि. मी. पटेरा है और वहाँसे ३ कि. मी. कुण्डलपुर है। सड़क पक्की है।
यह अतिशय क्षेत्र है। कुछ समयसे इसे अन्तिम अननुबद्ध केवलो श्रीधरको निर्वाण-भूमि होनेके कारण सिद्धक्षेत्र बताया जा रहा है। यहाँ पहाड़ी और तलहटीपर मन्दिरोंकी कुल संख्या ६१ है तथा एक मानस्तम्भ है । पहाड़ीपर मन्दिर नं. ११ मुख्य मन्दिर कहलाता है। यह बड़े बाबाका मन्दिर कहा जाता है। मूलनायक भगवान् आदिनाथकी प्रतिमा साढ़े बारह फुट ऊंची
और पद्मासनस्थ है। इस प्रतिमाके अतिशयोंके सम्बन्धमें बहुत किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कहते हैं महाराज छत्रसालने मनौती मनायी थी और वह पूरी हो गयी। फलतः उन्होंने बड़े बाबाके पूजनके लिए बरतन और भारी घण्टा चढ़ाये और वर्धमान सरोवरपर पक्के घाट बनवाये।
क्षेत्रपर धर्मशालाएँ हैं, बिजली है तथा जलके लिए विशाल सरोवर, बावड़ी और कुएं हैं। यहाँका वार्षिक मेला माघ सुदी ११ से १५ तक होता है। महावीर-जयन्ती और दीपावलीपर भी मेले भरते हैं। यहांका पता इस भांति है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, कुण्डलपुर ( दमोह ) म.प्र.। लखनादौन
दमोह आकर वहाँसे जबलपुर जाना चाहिए। जबलपुरसे सिवनी जानेवाले मार्गपर ८३ कि. मी. लखनादौन है । नगरमें श्री दिगम्बर जैन महावीर मन्दिर है। इसमें भगवान महावीरको भूगर्भसे प्राप्त पद्मासन प्रतिमा सातिशय और अत्यन्त मनोज्ञ है। इस प्रतिमाके कारण ही इस मन्दिरको विशेष ख्याति प्राप्त हुई है।
यहां जैन धर्मशाला है, जिसमें नल, बिजली आदिकी सुविधा है। पता है-मन्त्री, श्री महावीर दिगम्बर जैन मन्दिर, लखनादौन ( सिवनी ) म. प्र. । जबलपुर
__लखनादौनसे वापस जबलपुर लौटकर बावें। जबलपुर जैनोंका प्रमुख केन्द्र है। यहाँ ४६ दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। लार्डगंज, हनुमानताल आदिमें जैन धर्मशालाएं हैं। हनुमानतालके बड़े मन्दिरमें अत्यन्त कलापूर्ण और मनोज्ञ मूर्तियाँ हैं।
शहरसे पश्चिम दिशामें ९ कि. मी. दूर त्रिपुरी (वर्तमान नाम तेवर ) है। इसके निकट मार्बलकी चट्टानें और नर्मदाका विश्वविख्यात धुआंधार प्रपात है। यहींपर नर्मदाके दोनों ओर संगमरमरकी वे चट्टानें हैं जिन्हें बन्दर-कूदनी कहते हैं। यात्री नाव द्वारा इन स्थानोंको देखने जाते हैं। वहाँसे लौटते हुए मार्गमें चौंसठ योगिनियोंका मन्दिर मिलता है। यह भी दर्शनीय है। इन दर्शनीय स्थानोंके लिए बस और टैम्पो चलते हैं । मढ़िया
जबलपुर-नागपुर रोडपर जबलपुर नगरसे ६ कि. मी. दूर मेडिकल कालेजके सामने 'पिसनहारीकी मढ़िया' नामक अतिशय-क्षेत्र है। सड़क किनारे धर्मशाला है तथा महावीर
३-४३
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३३८
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
जिनालय और उसके सामने मानस्तम्भ है। पहाड़ीपर छोटे-बड़े सब मिलाकर कुल ३७ मन्दिर हैं । यहाँ धर्मशाला में जल और प्रकाशकी समुचित व्यवस्था है । यहाँका पता है— मन्त्री, पिसनहारी मढ़िया ट्रस्ट, नागपुर रोड, जबलपुर (म. प्र. ) ।
कोनी
जबलपुरसे दमोह जानेवाले राजमार्गपर ३२ कि. मी. पाटन नगर है तथा पाटनसे ४ कि. मी. बासन ग्राम होकर वहाँसे कोनी तक २ कि. मी. पक्की सड़क है । यह एक अतिशय क्षेत्र है । यहाँ कुल ९ मन्दिर हैं। इनमें गर्भ मन्दिर अतिशयोंका केन्द्र है । इस मन्दिरमें सहस्रकूट चैत्यालय है । यहाँके सहस्रकूट चैत्यालय और नन्दीश्वर जिनालय दर्शनीय हैं। क्षेत्रपर धर्मशाला है । बिजली और कुएँकी व्यवस्था है । यहाँका वार्षिक मेला जनवरीमें होता है । इसका पता इस प्रकार है- मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कोनी, पो. पाटन (जबलपुर ) म. प्र. ।
पनागर
पाटनसे पुन: जबलपुर लौटकर वहाँसे पनागर जाना चाहिए। यह जबलपुरसे उत्तरकी ओर १६ कि. मी. है। पक्की सड़क है । जबलपुर-सागर रेलमार्गपर देवरीसे यह दो कि. मी. है। नगरमें १७ मन्दिर हैं। रेलवे लाइनके किनारे ११ मन्दिर हैं -८ एक अहातेके अन्दर और ३ एक अहाते बाहर । इनमें पंचायती मन्दिरमें भगवान् ऋषभदेवकी कायोत्सर्गासन में सवा आठ फीट ऊँची मूर्ति है जो बड़ी सातिशय है । इस मूर्तिके अतिशयोंके कारण ही यह अतिशय क्षेत्र कहलाता है ।
यहाँ दो धर्मशालाएँ हैं जिनमें नल, बिजलीकी व्यवस्था है । माँगनेपर बरतन और बिछावन भी मिल सकते हैं । यहाँका वार्षिक मेला अगहन शुक्ला पूर्णिमासीको होता है । यहाँका पता इस प्रकार है - मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन प्रबन्धकारिणी सभा, पनागर ( जबलपुर ) म.प्र. ।
बहोरीबन्द
पनागरसे सीहोरा नगर ११ कि. मी. दूर है तथा सीहोरा - सलेहा रोडपर बहोरीबन्द सीहोरासे २४ कि. मी. पक्की सड़क है। यह मन्दिर बाजारमें है । भगवान् शान्तिनाथकी पौने चौदह फीट ऊंची खड्गासन मूर्ति बहुत वर्षोंसे खुलेमें पड़ी हुई थी । लोग अविनय करते थे । अत: तया मन्दिर बनाकर इस मन्दिरमें मूर्तिको विराजमान किया जा रहा है। मूर्तिके चमत्कारोंकी अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं । इसी मूर्ति के कारण यह अतिशय क्षेत्र कहलाता है। खुदाई में जमीन से १६ मूर्तियाँ निकली हैं । यहाँ धर्मशाला है । धर्मशाला में कुआँ और बिजली है । यहाँ दिसम्बर में तीन दिनके लिए मेला भरता है । यहाँका पोस्ट आफिस सीहोरा और जिला जबलपुर है ।
ग्यारसपुर
हुसेन होते हुए सागर आवें । सागरसे विदिशा जानेवाली सड़कपर ग्यारसपुर नामक गाँव । यहाँ नगरके दक्षिणकी ओर पहाड़ीकी चोटीपर मालादेवी मन्दिर है तथा वहाँसे उतर कर पहाड़ीके पीछे मैदानमें वज्रमठ नामक मन्दिर है। ये दोनों जैन मन्दिर हैं तथा कलाके उच्चकोटिके केन्द्र हैं । नगरमें कोई जैन धर्मशाला नहीं है। नगरमें एक चैत्यालय है । इसका पता है - मन्त्री, दिगम्बर जैन समाज, पो.- ग्यारसपुर ( जिला विदिशा ) म. प्र. 1
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परिशिष्ट-१
३३९ विविशा
____ ग्यारसपुरसे विदिशा ३८ कि. मी. है। पक्की सड़क है। श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजीको जैन धर्मशाला सुविधाजनक है। इसीमें ऊपरके भागमें जिनालय है। इसमें इधर-उधरसे प्राप्त अनेक जैन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। इनमें ९वीं-१०वीं शताब्दो तककी मूर्तियाँ हैं। यहाँ सरकारी संग्रहालय भी है। इसमें दुर्जनपुरासे उत्खननमें प्राप्त और गुप्त सम्राट् रामगुप्त द्वारा प्रतिष्ठित चन्द्रप्रभ तीर्थकरकी मूर्ति विराजमान है । इसके अतिरिक्त उदयगिरि आदि स्थानोंसे प्राप्त मध्यकालीन जैन मूर्तियां भी हैं। उदयगिरि
विदिशासे ६ कि. मी. दूर उदयगिरिकी प्रसिद्ध गुफाएं हैं। पक्की सड़क है। तांगे या स्कूटर द्वारा जा सकते हैं। गफाओंमें गफा नं.२० और १जैन गफाएँ हैं। गफा नं.२० में गप्त संव
संवत् १०६ का एक अभिलेख तथा गुप्तकालीन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। गुफा नं. १ में भी सुपार्श्वनाथको एक प्राचीन मूर्ति विराजमान है। इन दो गुफाओंके अतिरिक्त शेष गुफाएँ शैव और वैष्णव धर्मसे सम्बन्धित हैं । इनमें कई गुफाएँ गुप्त-कालकी हैं । सांची यहाँसे ८ कि. मी. है। पठारी
उदयगिरिसे विदिशा लौटकर वहाँसे मण्डी-बामौरा ट्रेनसे ६८ कि. मी. जायें । वहाँसे पठारी १२ कि. मी. है। यहां गडरमल मन्दिर और वनमन्दिर नामके दो प्राचीन जैन मन्दिर हैं जो संभवतः ८-९वीं शताब्दीके होंगे। यहां अनेक प्राचीन जैन मूर्तियाँ तथा मन्दिरोंके ध्वंसावशेष पड़े हुए हैं। मक्सी पार्श्वनाथ
पठारीसे बामौरा-मण्डी लौटकर वहाँसे रेल या बस द्वारा १२१ कि. मी. भोपाल जाना चाहिए तथा वहांसे रेल द्वारा या बस द्वारा ( लगभग १४३ कि. मी.) मक्सी जाना चाहिए। क्षेत्रपर एक परकोटेमें दो मन्दिर और धर्मशालाएँ हैं। बड़ा मन्दिर पाश्वनाथ भगवान्का है । इस मन्दिरमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायवाले अपनी-अपनी मान्यतानुसार दर्शनपूजन करते हैं। दर्शनोंके लिए समयका कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पूजनका समय दिगम्बर सम्प्रदायके लिए प्रातः ६ से ९ तक निश्चित है। मूर्ति अत्यन्त अतिशय सम्पन्न है। इस मन्दिरकी परिक्रमामें ४२ देहरियाँ (छोटे देवालय ) बने हुए हैं। छोटा मन्दिर सुपाश्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर है। इस मन्दिरके पृष्ठ भागमें यात्रियोंके ठहरनेकी व्यवस्था है। इसके अहातेसे लगा हुआ विश्रान्तिभवनका अहाता है। इसके ऊपरी भागमें मालवा प्रान्तिक दिगम्बर जैन गुरुकुल चल रहा है तथा नीचेका भाग यात्रियोंके लिए है। नल, बिजली आदिको समुचित व्यवस्था है। क्षेत्र बस्तीके बीचमें है और वहाँ तक सड़क है। क्षेत्रका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, मक्सी ( जि. उज्जैन) म. प्र.। फाल्गुनी अष्टाह्निकामें क्षेत्रपर वार्षिक मेला होता है। उज्जैन
__ मक्सीसे उज्जैन रेल मार्ग द्वारा ४१ कि. मी. है। पक्की सड़क है। यहाँके श्मसानमें रुद्रने भगवान् महावीरपर उपसर्ग किया था। यहींसे निमित्त-शास्त्र द्वारा बारह वर्षके भावी दुष्कालका
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३४०
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ज्ञान होनेपर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने विशाल संघके साथ दक्षिण भारतकी ओर चले गये थे। उनके साथ मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भी मुनि-दीक्षा लेकर चले गये। जो मुनि यहां रह गये, वे परिस्थितियोंसे बाध्य होकर शिथिलाचारी बन गये और वस्त्र पहनने लगे। धीरे-धीरे इसका अभ्यास होनेपर दुष्काल बीतनेपर भी वे शिथिलाचारका परित्याग नहीं कर सके और अपने शिथिलाचारको शास्त्र सम्मत सिद्ध करनेके लिए उन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय नामसे एक पथक सम्प्रदाय और नये शास्त्रोंका सृजन करना पड़ा। मुनि अभयघोष अन्तकृत् केवली थे, वे यहाँसे मुक्त हुए । अतः यह निर्वाण-क्षेत्र भी है। यहां जयसिंहपुरा दिगम्बर जैन मन्दिरके पृष्ठ कक्षमें जैन संग्रहालय है, जिसमें लगभग ५०० प्राचीन कलावशेष और मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। नमकमण्डीमें दिगम्बर जैन धर्मशाला है। उज्जैन मध्यप्रदेशका प्रमुख व्यवसाय केन्द्र है और जिला मुख्यालयका केन्द्र है। गन्धर्वपुरी
उज्जैनसे देवास और सोनकच्छ होते हुए गन्धर्वपुरी ७८ कि. मी, है। पक्की सड़क है। सोनकच्छ देवास-भोपाल मार्ग पर है। वहाँसे गन्धर्वपुरी ९ कि. मी. है। बस और टैम्पो जाते हैं। नगरमें एक जैन मन्दिर है। यहां एक सरकारी संग्रहालय है। उसमें अनेक जैन मूर्तियां हैं। नगरके भीतर और बाहर जैन पुरातत्त्व बिखरा पड़ा है। कई मकानोंमें जैन मूर्तियां लगी हुई हैं। यहां कोई जैन धर्मशाला नहीं है। जैनोंके कुछ घर हैं। यहां पोस्ट-आफिस है तथा इसका जिला देवास है। इन्दौर ।
गन्धर्वपुरीसे सोनकच्छ लौटकर वहांसे इन्दौर जाना चाहिए। यहां जवरीबागमें सर सेठ हुकमचन्दजोकी नशिया है। वहीं विश्रान्ति-भवन ( जैन धर्मशाला ) है। वहीं जिनालय, जैन महाविद्यालय एवं छात्रावास है। यह स्थान मध्यप्रदेशका प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है तथा जैनोंका गढ़ है। यहाँ अनेक जैन संस्थाएं हैं । यहाँके प्रमुख जिनालयोंमें कांच-मन्दिर, तुकोगंज, मल्हारगंज और दीतवारियाके मन्दिर हैं।
इन्दौरसे चाहें तो मोरटक्का होते हुए सिद्धवरकूट, फिर पावागिरि, बजवानी, तालनपुर होते हुए बनैडियाको जा सकते हैं। अथवा पहले बड़वानी, तालनपुर, पावागिरि, सिद्धवरकूट और बनैडियाकी यात्रा की जा सकती है।
चूलगिरि
___ इन्दौरसे सड़क मार्गसे बड़वानी १५० कि. मी. है । बड़वानीसे चूलगिरि बावनगजाजी क्षेत्र ६ कि. मी. है। पक्की सड़क है। बस धर्मशाला तक जाती है। चूलगिरि सिद्ध-क्षेत्र है। यहांसे इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण मुक्त हुए हैं। पर्वतपर भारतकी सबसे विशाल प्रतिमा भगवान् आदिनाथको ८४ फुट ऊंची विराजमान है । पहाड़पर कुल ११ मन्दिर है तथा तलहटीमें मन्दिरोंकी कुल संख्या १९ है । पहाड़की चोटीपर चूलगिरि मन्दिर है। यहीं निर्वाण-स्थान माना जाता है। यहाँ ४ धर्मशालाएं हैं, जिनमें नल, कुआं, बिजलीकी व्यवस्था है। बड़वानीमें विशाल नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, श्री हरसुखराय दि. जैन छात्रावास और जैन धर्मशाला है। क्षेत्रका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र, चूलगिरि, जिला खरगोन म. प्र.।
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परिशिष्ट-१
३४१
तालनपुर
बड़वानीसे कुक्षि २२ कि. मी. है तथा वहाँसे तालनपुर ५ कि. मी. है। पक्की सड़क है। नियमित बस सेवा है। यह एक अतिशय-क्षेत्र कहलाता है। यहाँ एक खेतमें १३ मूर्तियां भूगर्भसे प्राप्त हुई थीं। परस्पर विवाद होनेपर ८ छोटी मूर्तियां श्वेताम्बरोंने ले ली और ५ बड़ी मूर्तियां दिगम्बर समाजने लीं। दोनोंके पास-पास मन्दिर हैं। दिगम्बर जैन धर्मशाला भी है। जल और प्रकाशको समुचित व्यवस्था है। इस क्षेत्रका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र तालनपुर, पो. कुक्षि ( जिला धार) म. प्र.। पावागिरि
बड़वानीसे बस द्वारा जुलवानिया होकर ऊन उतरना चाहिए। सड़क किनारे ही क्षेत्रकी विशाल धर्मशाला और जिनालय है। यहाँसे दो फलांग दूर ग्वालेश्वर या शान्तिनाथ मन्दिर है । यही निर्वाण-स्थान है जहाँसे स्वर्गभद्र आदि चार मनि मक्त हुए हैं। इसलिए यह निर्वाण-क्षेत्र कहलाता है। यहाँ तीन मन्दिर हैं। ग्वालेश्वर मन्दिरसे लौटते समय पंच पहाड़ी नामक एक टीला है जहां पांच लघु मन्दिर हैं। ऊन नगरमें ११वीं-१२वीं शताब्दीके मन्दिर और मूर्तियां मिलती हैं, जिनमें चौबारा डेरा नं. १ और नं. २ उल्लेख योग्य हैं। यहां धर्मशाला बहुत बड़ी है। नल, बिजली, विद्युत् आदिकी सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं । यहाँका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन पावागिरि सिद्धक्षेत्र, पो. ऊन, जि.-खरगौन ( पश्चिम निमाड़) म.प्र.। सिद्धवरकूट
ऊनसे खरगौन होते हुए सनावाद और वहाँसे मान्धाता जाना चाहिए। ऊनसे मान्धाता ८८ कि. मी. है। पक्की सड़क है। मान्धातामें क्षेत्रकी धर्मशाला है। वहाँके मैनेजरसे नाव भाड़े आदिकी पूरी जानकारी ले लेनी चाहिए। धर्मशालासे चलकर नर्मदा नदीपर आकर नाव द्वारा सिद्धवरकूट क्षेत्र जाना चाहिए। यहां नर्मदा और कावेरी नदियोंका संगम हुआ है। कावेरीकी एक धारा अलग हो गयी है और दोनों नदियोंके मध्य पर्वत आ गया है। इसीपर वैष्णवोंका ओंकारेश्वर तीर्थ है। बड़वाहासे सिद्धवरकूट क्षेत्र तक फेअर वैदर रोड है। १९ कि. मी. मार्ग है। इस मार्गपर नर्मदा पड़ती है। सिद्धवरकूट सिद्ध-क्षेत्र है। यहाँसे २ चक्रवर्ती, १० कामदेव और साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। यहां एक ही स्थानपर १० जिनालय हैं। क्षेत्रपर १४ धर्मशालाएँ हैं । नल, बिजली, बरतन आदिको सम्पूर्ण सुविधा सुलभ है। यहांका मेला फागुन सुदी १३ से १५ तक होता है। यहांका पता-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट, पो. मान्धाता (ओंकारेश्वर ), जिला पूर्व निमाड़ म. प्र.। बनैडिया
सिद्धवरकूटसे लौटकर मान्धाता आना चाहिए। यहाँसे इन्दौर ७७ कि. मी. है। पक्की सड़क है । नियमित बस सेवा है। इन्दौरसे देवालपुर होकर बनैडिया क्षेत्र ४५ कि. मी, है । बसें जाती हैं। यह एक अतिशय-क्षेत्र है। यहाँका वार्षिक मेला चैत सुदी १३ से १५ तक होता है। । यहांका पता है-मन्त्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, बनैड़िया, (जिला इन्दौर ) म. प्र.।
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सन्दर्म ग्रन्थ-सूची
हर्षचरित-महाकवि बाण स्कन्दपुराण जैन सन्देश श्रमण मध्यभारत स्टेट गजेटियर जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी बृहत्कथाकोष-आचार्य हरिषेण हिन्दू भारतका उत्कर्ष-चिन्तामणि विनायक वैद्य जैन साहित्य संशोधक ( खण्ड ३) जैन सिद्धान्त भास्कर ब्रह्मपुराण उत्तरपुराण-आचार्य गुणभद्र स्थविरावली शिवपुराण शंकर विजय-माधवाचार्य जैन हितैषी महाभारत बृहत्संहिता हेमकोश-हेमचन्द्राचार्य अनर्घराघव-मुरारी मरतेश्वर बाहुबली वृत्ति आवश्यक चूर्णि निशीथ चूर्णि वसुदेव हिण्डी आवश्यक नियुक्ति भावसंग्रह-आचार्य देवसेन हरिवंशपुराण-आचार्य जिनसेन निर्वाण-भक्ति (संस्कृत ) आचार्य पूज्यपाद क्रियाकलाप-आचार्य प्रभाचन्द्र तिलोयपण्णत्ती-आचार्य यतिवृषभ हरिवंशपुराण-महर्षि वेदव्यास
त्रिलोकसार-आचार्य नेमिचन्द्र निर्वाणकाण्ड ( प्राकृत )-आचार्य कुन्दकुन्द बोधप्रामृत टीका-भट्टारक श्रुतसागर तीर्थवन्दना ( गुजराती )-कवि मेघराज सर्वतीर्थवन्दना-भट्टारक ज्ञानसागर तीर्थवन्दना-भट्टारक उदयकीर्ति तीर्थवन्दना ( मराठी )-चिमणा पण्डित शासन चतुस्त्रिशिका-यति मदनकीति तीर्थजयमाला (गुजराती)-भट्रारक जयसागर तीर्थजयमाला-भट्टारक सुमतिसागर पद्मपुराण-आचार्य रविषण उत्तरपुराण-आचार्य गुणभद्र जैन शिलालेख संग्रह-भाग १ से ५ विविध तीर्थकल्प-आचार्य जिनप्रभसूरि तीर्थ-वन्दना ( मराठी )-भट्टारक गुणकीर्ति भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान
डॉ. हीरालाल पज्जुण्णचरियं-कवि सिद्ध कुमारपाल प्रबोध-आचार्य सोमप्रभ कुमारपाल चरित-आचार्य सोमतिलक सरि भारतके प्राचीन राजवंश-विश्वेश्वरनाथ रेउ चौलुक्य कुमारपाल-लक्ष्मीशंकर व्यास महारक सम्प्रदाय-डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर जसहरचरिउ-महाकवि पुष्पदन्त करकण्डुचरिउ-मुनि कनकामर पार्श्वनाथ जयमाला-भट्टारक ब्रह्महर्ष कल्पसूत्र मेरुतुंग थेरावली कालकाचार्य कथा-समयसुन्दरणणि परिशिष्ट पर्व-आचार्य हेमचन्द्र सम्मइ जिणचरिउ-महाकवि रइधू
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३४४
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
प्राचीन जैन लेख संग्रह-कामताप्रसाद जैन पुण्णासवकहाकोस-महाकवि रइधू जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह-परमानन्द शास्त्री रिटणेमिचरिउ-महाकवि रइधू अंगुत्तर निकायभगवती आराधना-आचार्य शिवकोटि आराधनासार निर्वाणकाण्ड (हिन्दी)-भैया भगवतीदास बुन्देलखण्डका संक्षिप्त इतिहास-गोरेलाल तिवारी तीर्थवन्दन संग्रह-डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर खण्डहरोंका वैमव-मुनि कान्तिसागर खजुराहोकी देव प्रतिमाएँ-डॉ. रामाश्रय अवस्थी Epigraphia Indica The classical age-R.C. Majumdar The struggle for Empire- " Archeological survey of India Report Monumental antiquities and inscrip
tions-Dr. Farhrer Dow son's Classical Dictionary. 4th ed. Journal of the Asiatic Society of Bengal
Alberuni's India Indian Antiquary Mysore & Coorg from the inscriptions
David Rhys The Ancient Kingdom of Punnat-Dr. ___B.A. Saletore, in Indian Culture Rulers of Punnat, M. G. Pai Buddhist India-Rhys David The Geographical Dictionary of
Ancient and Mediaeval India
Nandalal Day Me Crindle's Invasion of India
Alexandar History of Daccan-Dr. Bhandarkar Journal of Oriental Institute Inscriptions in C. P. & Berar-Ra. B.
Hiralal The Indore State Gazetteer ( Vol. I.) AGuide to the Central Archeological
Museum Gwalior-S, K. Dixit.
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चित्र-सूची
१. चेदि जनपद
१८. थूबौन-पुरानी थूबौनके जंगलमें एक भग्न १. सिहौनिया-भगवान् शान्तिनाथको १३ फुट जिनालय।
उन्नत मूर्ति, भूगर्भसे प्राप्त । पाश्वोंमें भगवान् १९. चन्देरी-बूढी चन्देरीसे प्राप्त भगवान् महावीर. कुन्थुनाथ और अरनाथ। समय १०वीं शताब्दी। की भव्य मति । २. ग्वालियर-एक पत्थरकी बावड़ी (किले ) में २०. खन्दार-बाहुबली स्वामीकी एक अद्भुत ____एक विशाल तीर्थकर-मूर्ति ।
____प्रतिमा, जिसके ऊपर सर्प, छिपकली, चूहे आदि ३. ग्वालियर-किलेमें सास-बहूका अत्यन्त कलापूर्ण का अंकन करके अविचल ध्यान मुद्रा प्रदर्शित ... बल मन्दिर। ।
की है। ४. ग्वालियर-सरकारी संग्रहालय (गूजरी महल) २१. पपौरा-मुख्य द्वारके ऊपर निर्मित जिनालय जो . में एक मध्यकालीन भव्य तीर्थकर-मूर्ति। .. रथाकार है।
५. सोनागिरि-भगवान् चन्द्रप्रमका विख्यात २२. पपौरा-मन्दिरोंकी अद्भुत चौबीसी। 'मन्दिर।
२३. अहार-भगवान् शान्तिनाथका विशाल मन्दिर। ६. सोनागिरि-भगवान् चन्द्रप्रभकी भव्य प्रतिमा । २४. अहार-भगवान् शान्तिनाथकी भव्य प्रतिमा । ७. सोनागिरि-मन्दिर नं. ५७ के सामने समवसरण २५. खजुराहो-पार्श्वनाथ मन्दिरका बाह्य दृश्य । रचनाकी एक झांकी।
- इसका शिल्प-सौन्दर्य अनुपम है। ८ सोनागिरि-मनहरदेव (चैतनाथ) के शान्तिनाथ २६. खजुराहो-शान्तिनाथ मन्दिरमें भगवान् ... स्वामीकी १४ फुट उत्तुंग खड्गासन मूर्ति।
शान्तिनाथकी विशाल खड्गासन प्रतिमा। ९. पनिहार-भोयरे में अति मनोज्ञ तीर्थकर-मूर्तियां। २७. खजुराहो-शान्तिनाथ मन्दिरमें यक्ष-दम्पती। १०. बरई-एक उपेक्षित प्राचीन जिनालयका २८. खजुराहो-नृत्य करती हुई नीलांजना। कलापूर्ण प्रवेशद्वार।
२९. खजुराहो-कांटा निकालती हुई एक सुरसुन्दरी११. गोळाकोट-एक मनोज्ञ तीर्थंकर प्रतिमा ।।
___ का मोहक रूप। १२. पचराई-जिनालयोंकी मनोहर झांकी। ३०. पन्ना-तीर्थंकर महावीर। समय-छठी शताब्दी। १३. बजरंगढ़-क्षेत्रका बाह्य दृश्य ।
३१. द्रोणगिरि-निर्वाण-गुफा, जहाँसे मुनिराज १४. बजरंगढ़-एक द्वार आकृतिमें चौबीसी। मध्यमें गुरुदत्तको निर्वाण हुआ। ... भगवान् नेमिनाथ । समय १२वीं शताब्दी। ३२. द्रोणगिरि-पर्वतपर जिनालयोंका मनोरम दृश्य। १५. बबीन-मलनायक भगवान बादिनाथका ३३. नैनागिरि-जल मन्दिरका मनोरम दृश्य । । .. मन्दिर (नं. १५)।
३४. नैनागिरि-पर्वतपर अहातेके अन्दर बने हुए १६. थूबौन-पाड़ाशाह द्वारा निर्मित भगवान् जिनालयोंका भव्य दृश्य। शान्तिमायका मन्दिर (नं. ५)।
३५. पजनारी-मूलनायक भगवान् शान्तिनाथ । १७. थबौन-भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर (मं. उनके दोनों पावों में भगवान् कुन्थनाथ और २२) तथा सामने ३० फुट ऊँचा मानस्तम्भ । भगवान् अरनाथ ।
३-४४
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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ३६. बीना बारहा-भगवान् आदिनाथकी १३ फुट ५४. पठारी-वन-मन्दिरकी भव्य झांकी।
ऊंची पदमासन प्रतिमा। यह इंट-गारेसे ५५. ग्यारसपुर-मालादेवीके विख्यात मन्दिरका निर्मित है।
बाह्य दृश्य। ३७. बीना बारहा-गन्धकुटी मन्दिर । मन्दिरमें ५६. ग्यारसपुर-बज्रमठकी कलापूर्ण शिखर-संयोजना। पहुँचने के लिए चारों दिशाओंमें सीढ़ियां बनी ५७. ग्यारसपुर-बज्रमठमें एक वेदीपर प्राचीन
तीर्थकर मूर्तियाँ । ३८. पटनागंज-भगवान् महावीरकी साढ़े तेरह फुट ४. मालव-अवन्ती जनपद
उत्तुंग अतिशयसम्पन्न पद्मासन प्रतिमा। इन्हें ५८. मक्सी-मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी 'बड़े देव' भी कहते हैं।
__अतिशयसम्पन्न प्रतिमा। ३९-४०. पटनागंज-पार्श्वनाथ तीर्थकरकी सहस्र- ५९. उज्जैन-लकड़ीके एक चौकोर फ्रेममें पीतलकी फणावली युक्त दो अद्भुत मूर्तियाँ।
५४-५४ प्रतिमाएँ चारों दिशामें । २. सुकोशल जनपद
६०. उज्जैन-भूगर्भसे प्राप्त एक फलकमें साधु ४१. कुण्डलपुर-भगवान् ऋषभदेवकी साढ़े बारह परमेष्ठीकी प्रतिमाएँ हाथोंमें कमण्डलु-पीछी
फुट ऊँची सातिशय पद्मासन प्रतिमा। इसे 'बड़े और माला है। बाबा' भी कहते हैं
६१. गन्धर्वपुरी-भगवान् ऋषभदेवकी १२ फुट ४२. कुण्डलपुर-'बड़े बाबा' के पीठासनपर ऊँची मूर्ति । ऋषभदेवका यक्ष गोमुख ।
६२. चूलगिरि-विश्वकी सबसे विशाल प्रतिमा । ४३. कुण्डलपुर-'बड़े बाबा' के पीठासनपर ऋषभ- भगवान् ऋषभदेवको यह प्रति ८२ फुट ऊंची देवकी यक्षी चक्रेश्वरी।
है। जनतामें यह 'बावनगजाजी' के नामसे ४४. कुण्डलपुर-अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधर प्रसिद्ध है। स्वामीके चरण-चिह्न।
६३. चूलगिरि-मुनिराज इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदि. ४५. कुण्डलपुर-वर्धमानसागर ( सरोवर ) के तट- के चरण । यहीसे उन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी। पर स्थित जिनालयोंकी भव्य झांकी।
६४. तालनपुर-क्षेत्रका बाह्य दृश्य । ४६. लखनादौन-भूगर्भसे प्राप्त भगवान महावीरकी ६५. पावागिरि-ग्वालेश्वर मन्दिर, समय १२वीं मध्यकालीन मनोज्ञ प्रतिमा।
शताब्दी। ४७. मढ़िया (जबलपुर)-क्षेत्रका एक विहंगम दृश्य। ६६. पावागिरि-चौबारा डेरा नं. १, समय १२वीं ४८. कोनी-कलापूर्ण सहस्रकूट जिनालय।
शताब्दी। ४९. पनागर-भगवान् ऋषभदेवकी सातिशय ६७. पावागिरि-धर्मशालाके मन्दिर में मूलनायक प्रतिमा।
भगवान् महावीरकी आकर्षक प्रतिमा। समय ५०. बहोरीबन्द-शान्तिनाथ भगवान्की मूलनायक विक्रम संवत् १२५२ ।
प्रतिमा । जनतामें यह 'खनुदेव' के नामसे ६८. सिद्धवरकूट-क्षेत्रके मन्दिरोंकी एक झलक । प्रसिद्ध है।
६९. सिद्धवरकूट-कावेरीके तटवर्ती जंगलमें प्राचीन ३. देशार्ण-विदर्भ जनपद
मन्दिरोंके भग्नावशेषोंके मध्य ५ फुट ऊंची एक ५१. उदयगिरि(विदिशा)-गुप्तकालीन गुहा-मन्दिर। अलंकृत प्रतिमा। शीर्ष भागपर तीर्थंकर ५२. उदयगिरि-गुफा नं. २० में दीवालपर गुप्त- प्रतिमा है। ___कालीन अभिलेख।
७०. बनैड़िया-क्षेत्रका विशाल प्रवेश-द्वार। ५३. पठारी-गडरमल मन्दिरका भव्य शिखर । ७१. बनड़िया-मन्दिरकी एक वेदीका दृश्य।..
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चित्र
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१. सिहौनिया-भगवान् शान्तिनाथकी १३ फुट उन्नत मूर्ति, भूगर्भसे प्राप्त । पाश्वों में भगवान्
कुन्थुनाथ और अरनाथ । समय १०वीं शताब्दी ।
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२. ग्वालियर-एक पत्थरकी बावड़ी (किले) में एक विशाल तीर्थंकर-मूर्ति ।
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३. ग्वालियर-किले में सास-बहूका अत्यन्त कलापूर्ण बड़ा मन्दिर ।
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४. ग्वालियर-सरकारी संग्रहालय(गूजरी महल) में एक मध्यकालीन भव्य तीर्थंकर-मूर्ति ।
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५. सोनागिरि - भगवान् चन्द्रप्रभका विख्यात मन्दिर ।
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KRORM
६. सोनागिरि - भगवान् चन्द्रप्रभकी भव्य प्रतिमा ।
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७. सोनागिरि-मन्दिर नं० ५७ के सामने समवसरण रचनाकी एक झाँको।
८. सोनागिरि-मनहरदेव (चैतताथ) के शान्तिनाथ
स्वामीकी १४ फुट उत्तुंग खड्गासन मूर्ति ।
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९. पनिहार-भोयरेमें अति मनोज्ञ तीर्थंकर-मूर्तियाँ ।
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१०. बरई - एक उपेक्षित प्राचीन जिनालयका कलापूर्ण प्रवेशद्वार ।
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११. गोलाकोट–एक मनोज्ञ तीर्थंकर प्रतिमा ।
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१२. पचराई—जिनालयोंकी मनोहर झांकी।
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१३. बजरंगढ़-क्षेत्रका बाह्य दृश्य ।
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साती सयंकरलता । सायनालBLUEMES
समर१८०३ वजे Hध्याएसमत्रसाद गिकीकी मरणयवीर गरीजागेमधचरण
विदी९२ सकरवारकोम ऋत्रीककरवान्याज प्रतमजी कीपितिष्यक कमायविनायी
१४. बजरंगढ़-एक द्वार आकृतिमें चौबीसी । मध्यमें भगवान् नेमिनाथ ।
समय १२वीं शताब्दी।
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१५. थूबोन - मूलनायक भगवान् आदिनाथका मन्दिर (नं० १५)
१६. थूबोन पाड़ाशाह द्वारा निर्मित भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर (नं० ५)
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१७. थूबौन-भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर (नं० २२) तथा सामने ३० फुट ऊँचा मानस्तम्भ ।
१८. थूबौन-पुरानी थूबौनके जंगल में एक भग्न जिनालय ।
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माप
१९. चन्देरी-बूढ़ी चन्देरीसे प्राप्त भगवान्
महावीरकी भव्य मूर्ति ।
२०. खन्दार-बाहुबली स्वामीकी एक अद्भुत प्रतिमा,
जिसके ऊपर सर्प, छिपकली, चूहे आदिका अंकन करके अविचल ध्यान मुद्रा प्रदर्शित की है।
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LIFT
२१. पपौरा-मुख्यद्वारके ऊपर निर्मित जिनालय जो रथाकार है।
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FXXXX
२२. पपौरा - मन्दिरोंकी अद्भुत चौबीसी ।
(TV)
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TWITTHI
२३. अहार-भगवान् शान्तिनाथका विशाल मन्दिर ।
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२४. अहार-भगवान् शान्तिनाथकी भव्य प्रतिमा ।
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२५. खजुराहो — पार्श्वनाथ मन्दिरका बाह्य दृश्य । इसका शिल्प-सौन्दर्यं अनुपम है ।
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२६. खजुराहो-शान्तिनाथ मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथकी विशाल खड्गासन प्रतिमा ।
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TECH
२७. खजुराहो-शान्तिनाथ मन्दिर में यक्ष-दम्पति ।
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२८. खजुराहो-नृत्य करती हुई नीलांजना।
२९. खजुराहो-काँटा निकालती हुई एक
सुरसुन्दरीका मोहक रूप ।
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३०. पन्ना — तीर्थंकर महावीर । समय-छठी शताब्दी ।
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३१. द्रोणगिरि-निर्वाण गुफा, जहाँसे मुनिराज गुरुदत्तको निर्वाण हुआ ।
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३२. द्रोणगिरि-पर्वतपर जिनालयोंका मनोरम दृश्य ।
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३३. नैनागिरि-जल मन्दिरका मनोरम दृश्य ।
३४. नैनागिरि-पर्वतपर अहाते के अन्दर बने हुए जिनालयोंका भव्य दृश्य ।
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३५. पजनारी-मूलनायक भगन् शान्तिनाथ । उनके दोनों पाश्वों में भगवान् कुन्थुनाथ और भगवान् अरनाथ ।
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३६. बीना बारहा--भगवान् आदिनाथकी १३ फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा । यह ईंट-गारेसे निर्मित है।
३७. बीना बारहा-गन्धकुछी मन्दिर । मन्दिर में पहुँचनेके लिए चारों दिशाओं में सीढ़ियां बनी हुई हैं।
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३८. पटनागंज - भगवान् महावीरको साढ़े तेरह फुट उत्तुंग अतिशयसम्पन्न पद्मासन प्रतिमा । इन्हें 'बड़े देव' भी कहते हैं ।
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३९,४० पटनागंज–पार्श्वनाथ तीर्थकरकी सहस्र-फणावली युक्त दो अद्भुत मूर्तियाँ ।
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४१. कुण्डलपुर-भगवान् ऋषभदेवकी साढ़े बारह फुट ऊँची सातिशय पद्मासन प्रतिमा ।
इसे 'बड़े बाबा' भी कहते हैं ।
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४२. कुण्डलपुर-बड़े बाबाके पीठासनपर ऋषभदेवका यक्ष गोमुख ।
४३. कुण्डलपुर-बड़े बाबाके पीठासनपर ऋषभदेवकी यक्षी चक्रेश्वरी।
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चरन चिन: श्रीधरकेवली
श्रीभगवान महावास्ताकारक सुमारारण में स्थित ७०० कुवलया म अंतिम अनदबई देवलीश्रीश्रीपर (स्वामी की निर्माण भूमि स्थल पुरु
प्रमाण -१ कुंडलॉगरिम परिगी केवलणी सिरिधरा सिद्ध।।१४० -तिलोययत्ति गंथ। २. इस छत्री स्थापित कृष्ण पाषाण कउनके प्राचान चरण जिन पर लिखा है। कडलागरी श्री श्रीधर स्वामी
४४. कुण्डलपुर - अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधर स्वामी के चरण-चिह्न |
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४५. कुण्डलपुर — वर्धमानसागर (सरोवर) के तटपर स्थित जिनालयोंकी भव्य झांकी ।
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HERE
४६. लखनादौन-भूगर्भसे प्राप्त भगवान् महावीरकी मध्यकालीन मनोज्ञ प्रतिमा ।
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४७. मढ़िया (जबलपुर)-क्षेत्रका एक विहंगम दृश्य ।
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४८. कोनी-कलापूर्ण सहस्रकूट जिनालय ।
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४९. पनागर — भगवान् ऋषभदेवकी सातिशय प्रतिमा ।
५०. बहोरीबन्द – शान्तिनाथ भगवान्की मूलनायक प्रतिमा ! जनता में यह 'खनुआदेव' के नाम से प्रसिद्ध है ।
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५१. उदयगिरि (विदिशा)-गुप्तकालीन गुहा-मन्दिर ।
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५२. उदयगिरि-गुफा नं० २० में दीवालपर गुप्तकालीन अभिलेख ।
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५३. पठारी-गडरमल मन्दिरका भव्य शिखर ।
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५४. पठारी-वन-मन्दिरकी भव्य झाँकी ।
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५५. ग्यारसपुर-मालादेवीके विख्यात मन्दिरका बाह्य दृश्य ।
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५६. ग्यारसपुर ... बज्रमठकी कलापूर्ण शिखर-संयोजना।
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५७. बजमठमें एक वेदीपर प्राचीन तीर्थकर मतियाँ ।
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५८. मक्सी-मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी अतिशयसम्पन्न प्रतिमा ।
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PIPAR
५९. उज्जैन-लकड़ी के एक चौकोर फ्रेममें पीतलकी ५४-५४ प्रतिमाएँ चारों दिशामें ।
६०. उज्जैन-भूगर्भसे प्राप्त एक फलकमें साधु परमेष्ठी की
प्रतिमाएँ हाथों में कमण्डल-पीछी और माला है ।
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६१. गन्धर्षपुरी-भगवान् ऋषभदेवकी १२ फुट ऊँची मूर्ति ।
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६२. चूलगिरि-विश्वको सबसे विशाल प्रतिमा । भगवान् ऋषभदेवकी यह प्रति ८२ फुट
ऊँची है । जनतामें यह 'बावनगजाजी' के नामसे प्रसिद्ध है।
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FACEACH NewsART
६३. चूलगिरि-मुनिराज इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदिके चरण । यहीसे उन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी।
६४. तालनपुर-क्षेत्रका बाह्य दृश्य ।
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६५. पावागिरि - ग्वालेश्वर मन्दिर, समय १२वीं शताब्दी ।
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६६. पावागिरि-चौबारा डेरा नं०१, समय १२वीं शताब्दी ।
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६७. पावागिरि-धर्मशालाके मन्दिरमें मूलनायक भगवान् महावीरकी आकर्षक प्रतिमा ।
समय विक्रम संवत् १२५२ ।
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६८. सिद्धवरकूट-क्षेत्रके मन्दिरोंको एक झलक ।
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६९. सिद्धवरकूट-कावेरीके तटवर्ती जंगल में प्राचीन मन्दिरोंके भग्नावशेषोंके मध्य ५ फुट
ऊँची एक अलंकृत प्रतिमा । शीर्ष भागपर तीर्थंकर प्रतिमा है।
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७०. बनैड़िया-क्षेत्रका विशाल प्रवेश-द्वार ।
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७१. बनैड़िया-मन्दिरकी एक वेदीका दृश्य ।
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