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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ भट्टारक सुमतिसागरने इस क्षेत्रकी मूर्तिको बावनगजा माना है। 'सुविंझाचल बावणगजदेव ।' भट्टारक जयसागरने भी इसका स्मरण इस प्रकार किया है-...
'सुवावनगज विन्ध्याचल ठाय।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक विद्वान् लेखकोंने तीर्थोंका वर्णन करते समय चूलगिरिका स्मरण किया है। कुछ लेखकोंने निर्वाण क्षेत्रके रूपमें इसका उल्लेख किया है और दूसरे विद्वानोंने यहांकी आदिनाथ स्वामीकी विशाल प्रतिमा-जिसे बावनगजाजी कहते हैं-का वर्णन किया है। वास्तव में जैसे इस क्षेत्रका माहात्म्य निर्वाण क्षेत्र होनेके कारण है, उसी प्रकार भारतकी सबसे बड़ी प्रतिमा होनेके कारण भी इस क्षेत्रका महत्त्व है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
उपर्युक्त उल्लेखोंके अनुसार बड़वानी नगरके निकटवर्ती चूलगिरिसे रावण-पुत्र इन्द्रजित् और रावणके अनुज कुम्भकणं मुनि-अवस्थामें तप करके मुक्त हुए हैं। अतः यह क्षेत्र सिद्धक्षेत्र अथवा निर्वाण-क्षेत्र कहलाता है।
- आचार्य रविषेणकृत 'पद्मपुराण में रावणकी मृत्यु होनेके बादकी एक महत्त्वपूर्ण घटनाका '. वर्णन आया है । एक दिन छप्पन हजार आकाशचारी मुनियोंके संघके साथ अनन्तवीर्य मुनिराज पधारे। उसी दिन रात्रिके समय उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो मया। दोनोंने आकर केवलज्ञानकी पूजा की और गन्धकुटीकी रचना की। समाचार मिलते ही रामचन्द्र, लक्ष्मण, वानरवंशी, ऋक्षवंशी और राक्षसवंशी सब लोग उनके दर्शनोंको आये। भगवान् अनन्तवीर्य केवलीका उपदेश सुनकर इन्द्रजीत, मेघनाद, कुम्भकर्ण, मारीच आदिने लंकाके उसी कुसुमायुध नामक उद्यानमें केवली भगवान्के समीप मुनि-दीक्षा ले ली। कुछ समय पश्चात् वे विभिन्न देशोंमें विहार करने लगे।
किन्तु इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदिने किस स्थानसे मोक्ष प्राप्त किया, इसका कोई उल्लेख पद्मपुराणकारने नहीं किया। साधारण-सा संकेत दिया है कि विन्ध्यवनकी महाभूमिमें जहाँ इन्द्रजीतके साथ मेघवाहन मुनिराज विराजमान रहे, वहां मेघरव नामक तीर्थ बन गया (पद्मपुराण ८०।१३६ ) तथा रजोगुण और तमोगुणसे रहित महामुनि कुम्भकर्ण योगी नर्मदाके जिस तीरपर निर्वाणको प्राप्त हुए थे, वहां पिठरक्षत नामका तीर्थ प्रसिद्ध हुआ।
यह मेघरव और पिठरक्षित तीर्थ कहां रहे हैं। आज इसका पता किसीको नहीं है । आचार्य गुणभद्रके 'उत्तरपुराण में भी इनके निर्वाण-स्थानका उल्लेख नहीं मिलता। इतना अवश्य मिलता है कि सुग्रीव, विभीषण, हनुमान् आदिके साथ रामचन्द्रने सम्मेदशिखरसे निर्वाण प्राप्त किया। कुछ विद्वान् यहां आये हुए 'आदि' शब्दसे इन्द्रजीत और कुम्भकर्णको भी रामचन्द्र के साथ सम्मिलित करनेपर जोर देते हैं। विभीषण, सुग्रीव आदि मुनि-अवस्थामें रामचन्द्रके साथ रहे हों, यह सम्भव हो सकता है। किन्तु इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण रामचन्द्रके साथ तपस्या करते हों और सम्मेदशिखरपर अन्तमें उनके साथ रहे हों, यह एक क्लिष्ट कल्पना है। क्योंकि इन्द्रजीत और कुम्भकर्णने लंकाकी पराजयके बाद ही मुनि-दीक्षा धारण कर ली थी, जबकि रामचन्द्र आदि बहुत समयके पश्चात् मुनि हुए थे। दूसरे, रामचन्द्रके प्रति उनके मनमें किसी आकर्षणको सम्भावना ही नहीं थी। इसलिए यह स्वीकार करना कठिन है कि इन्द्रजीत और कुम्भकर्णने सम्मेदशिखरसे मोक्ष प्राप्त किया था।
वास्तवमें इन्द्रजीत और कुम्भकर्णका निर्वाण इसी चूलगिरिसे हुआ था, इसीलिए यह शताब्दियोंसे सिद्धक्षेत्रके रूप में प्रसिद्ध रहा है। प्राकृत निर्वाण-भक्ति आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
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