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________________ २८८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - संस्कृत निर्वाण भक्तिमें इस तीर्थके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु उत्तरकालीन भट्टारकोंने इस क्षेत्रको सिद्धक्षेत्र या निर्वाण क्षेत्र स्वीकार किया है। यथा-भट्टारक श्रुतसागरने बोधप्राभृतकी २७वीं गाथाकी टीकामें निर्वाण क्षेत्रों तथा कल्याणक क्षेत्रोंका वर्णन करते हुए चूलाचलका उल्लेख किया है। मेघराज कविने 'तीर्थ-वन्दना' नामक गुजरातो रचनामें इस तीर्थक सम्बन्धमें निर्वाणकाण्डके समान ही इस प्रकार लिखा है ___ 'वडवानि नगर सुतीर्थ पश्चिम चुलगिरि जानिजोए । कुंभकर्ण इंद्रजित सिद्ध हवा ते बखाणि जोए।' काष्ठा संघ नन्दीतटगच्छके भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थवंदना' नामक एक रचना हिन्दी मिश्रित गुजरातीमें लिखी है। उसमें अनेक तीर्थोंका १०१ छप्पय छन्दोंमें परिचय दिया है। चूलगिरि क्षेत्रका परिचय देते हुए उन्होंने कुछ नयी जानकारी भी दी है 'बड़वाणी वरनयर तास समीप मनोहर । चलगिरीन्द्र पवित्र भवियण जन बहुसुखकार ॥ कुंभकर्ण मुनिराय इंद्रजित मोक्ष पधार्या। सिद्धक्षेत्र जग जाण बह जन भव जल तार्या ॥ बावन संघपति आय करि बिंबप्रतिष्ठा बहुकरी। ब्रह्मज्ञानसागर वदति कीर्ति त्रिभुवनमां विस्तरी' ॥६४॥ इस पद्यमें यह विशेष सचना दी गयी है कि ५२ संघपतियोंने यहां अनेक बिम्बोंकी प्रतिष्ठाएँ करायीं। क्षेत्रपर संवत् १३८० में प्रतिष्ठित मूर्तियोंकी बहुत बड़ी संख्या है। सम्भवतः कविका अभिप्राय इन्हीं मूर्तियोंकी प्रतिष्ठासे है। मराठी भाषाके प्रमुख कवि चिमणा पण्डितने इस क्षेत्रके सम्बन्धमें परिचय देते हुए लिखा - है कि 'बडवानिनयर दक्षिन भागी। चूलगिरि पर्वत तू पाहे वेगी। इन्द्रजित कुम्भकर्ण उभय योगी। तपोनिधि झाले शिव सुखभोगी' ॥१७॥ भट्टारक उदयकीर्तिने 'तीर्थ-वन्दना' नामक अपनी रचनामें बडवानीसे रावणके पुत्र इन्द्रजित्को मुक्त हुआ माना है 'बड़वाणी रावण तणउ पुत्त । हउं बंदउं इंदजित मुणि पवित्त ।' यति मदनकीर्ति-जो लगभग १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् हैं, ने 'शासन-चतुस्त्रिशिका' में लिखा है कि भगवान् आदिनाथकी ५२ हाथ ऊँची मूर्ति है। इसे बृहद्देव कहा जाता है। इसका निर्माण अर्ककीर्ति राजाने एक ही पाषाणसे कराया था। इस स्थानको आदि निषधिका कहा जाता था । वह नगर बृहत्पुर कहलाता था। 'द्वापञ्चाशदनूनपाणिपरमोन्मानं करैः पञ्चभिः यं चक्रे जिनमकंकीर्तिनृपतिविाणमेकं महत् । तन्नाम्ना स बृहत्पुरे वरबहहेवाख्यया गोयते श्रीमत्यादिनिषिद्धिकेयमवताद् दिग्वाससां शासनम् ॥६॥ १. मदन और आशाधर मालवराज अर्जुनवर्मन परमार (१२१०-१२१८ ) के दरबारके रत्न थे। दि स्ट्रगल फॉर एम्पायर, पृ. ७१, भारतीय विद्या भवन, बम्बई।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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