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________________ ७३ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जिनालयमें विराजमान रही होंगी और जब उस स्थानपर संकट आनेकी सम्भावना प्रतीत हुई होगी तो वे मूर्तियां इस मन्दिरमें और बादमें भोयरे में सुरक्षित पहुँचा दी गयी होंगी। इन मूर्तियोंके सम्बन्धमें जनतामें एक भ्रम व्याप्त है। मतियोंकी २४ संख्याको देखकर जनतामें यह धारणा जम गयी है कि ये मूर्तियाँ चौबीस तीर्थंकरोंकी हैं, इसलिए लोग इन्हें चौबीसी कहते हैं। इन २४ मूर्तियोंमें-से २ मूर्तियाँ प्यारेलालजीका मन्दिर, मामाका बाजार, लश्करमें विराजमान कर दी गयी हैं। ४ मूर्तियाँ खण्डित कर दी गयीं जो इसी भोयरेमें रखी हुई हैं। शेष १८ मूर्तियां यहां विराजमान हैं। इन मूर्तियोंको चरणचौकीपर उत्कीर्ण चिह्नोंको देखनेपर यह स्वीकार करना पड़ता है कि ये सभी २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियां नहीं हैं, अतः उस अर्थमें इन्हें चौबीसी नहीं कहा जा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये मूर्तियाँ मूर्ति-कलाका मूर्तिमान रूप हैं। इन मूर्तियोंमें अद्भत द्वन्द्वके दर्शन होते हैं। मुखपर अद्भुत सुकुमारता झलक रही है, किन्तु उनकी भुजाएँ और श्रीवत्स लांछनयुक्त मांसल और चौड़ी छाती उनके विश्वविजयी वीर होनेका संकेत करती हैं। उनके चेहरेपर लास्ययुक्त हास्य फूटा पड़ता है किन्तु उनके होंठोंपर विरागकी अभिव्यंजना है। ____ इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा इनके मूर्ति-लेखोंके अनुसार विक्रम संवत् १४२९ में हुई। उस समय दिल्लीपर फीरोजशाह तुगलक शासन कर रहा था। वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था । उसने कुछ मन्दिर-मूर्तियोंको तुड़वाया तथा नवीन मन्दिरोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध लगा दिया। किन्तु जबसे उसने नन्दिसंघके भट्टारक प्रभाचन्द्रको-जो दिगम्बर मुनि थे-अपने महलोंमें बुलाकर उनसे उपदेश सुना था, लगता है, तबसे जैनोंके प्रति वह कुछ उदार बन गया था। अथवा दिल्लीसे सुदूर इस प्रदेशमें उसके आदेश कठोरतापूर्वक लागू नहीं किये जा सकते थे, अतः भक्तोंने इन भव्य मूर्तियोंका निर्माण कराया। विश्वासपूर्वक यह कह सकना कठिन है कि इन मूर्तियोंका निर्माण यहीं हुआ अथवा किसी दूसरे स्थानपर हुआ; यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन मूर्तियोंका पाषाण किस खानसे निकाला गया। किन्तु इन मूर्तियोंके अनुपम शिल्प-सौन्दर्यको देखकर यही कहा जा सकता है कि इस कालमें (१४-१५वीं शताब्दीमें ) मूर्ति-कला अत्यन्त समुन्नत हो चुकी थी। इन मूर्तियोंपर चन्देल कलाका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। ___ उस कालमें यहाँ जैनोंको संख्या पर्याप्त रही होगी, किन्तु अब असुरक्षाका भय और जीविकोपार्जनके साधन न होनेके कारण यहाँके जैन ग्वालियर आदि नगरोंमें चले गये। पनिहार ग्राममें अब जैनोंके दो-एक घर ही शेष बचे हैं। ग्राममें जैन मन्दिर भी है। इन जैन बन्धुओंको ही ग्रामके मन्दिर और उक्त चौबीसी मन्दिरको व्यवस्था करनी पड़ती है, अतः सन्तोषजनक व्यवस्था हो नहीं पाती। बरई मुख्य सड़कसे दायीं ओर एक सड़क जाती है। उससे ८ फलांग जाकर बरई ग्राम है। ग्राममें कोई जैन नहीं है। सम्भवतः प्राचीन कालमें यहाँ जैन अच्छी संख्यामें रहते होंगे। यहाँ जो भी मन्दिर और मूर्तियाँ मिलती हैं, वे सब तोमर शासनकालकी हैं। लगता है, जब पनिहारमें मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई थी, उस समय बरईमें कोई जैन मन्दिर या मूर्ति नहीं थी। पनिहारकी मूर्तियोंके लगभग १०० वर्ष बाद बरईमें मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण हुआ। इस समय यहाँ दो स्थानोंपर जैन मन्दिर उपेक्षित दशामें खड़े हुए हैं। जब मुख्य सड़कसे बरई गाँवकी ओर जाते हैं, उस समय लगभग ५ फलांग चलनेपर दायें हाथ एक कच्चा मार्ग जाता है। उससे ३ फलांग ३-१०
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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