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मध्यप्रवेशके विगम्बर मैन तीर्थ मतानुसार "पुन्नाट कर्नाटकका एक प्राचीन राज्य था। उसके मध्यमें कावेरी और कापिनी नदियाँ बहती थीं। इसको राजधानी कीर्तिपुर-वर्तमान किटूर थी जो कापिनी नदीके तटपर अवस्थित है। यह वर्तमान मैसूरके दक्षिणमें है। इसमें हैगड्डेवनाकोट और दूसरे तालुके हैं। पुन्नाट संघ इसी क्षेत्रसे निकला होगा। किन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, दक्षिणमें ऐसा एक भी शिलालेख उपलब्ध नहीं हुआ, जिसमें पुन्नाट संघका नाम आया हो। दक्षिणमें सम्भवतः मूलतः इस संघका नाम किटूर संघ रहा होगा जो पुन्नाट राज्यको राजधानोके नामपर कहा जाता होगा। किटूर संघका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शक संवत् ६२२ के एक शिलालेखमें भी आया है। किन्तु पुन्नाट संघके सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं मिलती। इतना सुनिश्चित है कि ईसाको आठवीं शताब्दीके प्रारम्भसे यह संघ वर्धमानपुर और उसके आसपास सुप्रसिद्ध था।"
"पुन्नाट संघने दक्षिणमें जन्म लिया, इसके समर्थन में कई तर्क हैं। जैन धर्म कर्नाटकका एक समर्थ धर्म था । विशेषतः ईसाको प्रथम शताब्दीके उत्तरार्धमें। इसे विभिन्न राजवंशोंका आश्रय प्राप्त हुआ। पश्चिमी चालुक्य शाखाके पुलकेशिन द्वितीय (सन् ६०८) ने भड़ोंचके लाट और गुर्जरोंको जीतकर गुजरातमें चालुक्य शाखाको स्थापना की। जैन कवि रविकीर्ति ( सन् ६३४ ) के ऊपर पुलकेशिन द्वितीयका विशेष स्नेह था। कुछ राष्ट्रकूट नरेशोंका भी गुजरातसे सम्बन्ध था। कक्कराज द्वितीयके कालमें गुजरातमें एक पृथक् राष्ट्रकूट राज्यको स्थापना हो गयी। अमोघवर्ष प्रथम जैन धर्मके प्रति श्रद्धालु था। यह गुर्जर नरेन्द्र कहलाता था। इन अनुकूल परिस्थितियोंके कारण पुन्नाट संघके मुनि कर्नाटकसे गुजराजमें आ गये होंगे। दूसरी बात यह है कि नन्नराजजिसके मन्दिरका नामोल्लेख आचार्य जिनसेनने किया है-दक्षिण भारतीय नाम है। सम्भवतः यह नन्न दक्षिणका कोई सामन्त या सरदार होगा। वह वर्धमानपुरमें आकर बस गया होगा और उसने पाश्वनाथ मन्दिरका निर्माण कराया होगा। अन्तिम बात यह है कि हरिषेणने कथाकोषमें दक्षिण भारतके प्रदेशों और नगरोंका उल्लेख प्रचुरतासे किया है। इन तर्कोके आधारपर यह सम्भावना सुसंगत प्रतीत होती है कि पुन्नाट संघ कर्नाटकसे गुजरात-काठियावाड़में पहुंचा।
__ "वर्धमानपुर नामके कई नगर हैं। किन्तु वह वर्धमानपुर कौन-सा है, जिसका सम्बन्ध आचार्य जिनसेन और हरिषेणके साथ रहा है। इस सम्बन्धमें हम उन स्थितियोंके प्रकाशमें सही निर्णयपर पहुंच सकते हैं, जिनका वर्णन दोनों आचार्योंने किया है। जिनसेनने जिन राजाओंका उल्लेख किया है, उनकी सीमाओंकी संगति वढमाण (काठियावाड़) को प्राचीन वर्धमानपुर माननेपर ही हो सकती है। इसी प्रकार हरिषेणने कथाकोषकी रचना राजा विनायकपालके राज्यमें की। गुर्जर प्रतिहारवंशके एक राजाका नाम विनायकपाल था, जिसने सन् ९३१ में कन्नौज राजधानीपर अधिकार किया था। कथाकोषकी रचनासे केवल एक वर्ष पूर्व विक्रम संवत् ९८८में महोदय (कन्नौज) से आज्ञापित उसका एक दानपत्र भी प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार काठियावाड़के हड्डाला गाँवमें विनायक पालके बड़े भाई महीपालके समयका भी शक सं. ८३६ का एक दानपत्र मिला है. जिससे मालूम होता है कि उस समय वधमानपुरमें उसके सामन्त चापवंशी धरणीवराहका अधिकार था।
इस प्रकार सभी दृष्टियोंसे जांच करनेपर वढमाण ही वर्धमानपुर निश्चित होता है।"
डॉ. हीरालाल' उक्त दोनों विद्वानोंकी मान्यतासे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि 'इन दोनों विद्वानोंके कथनोंपर सूक्ष्म विचारको आवश्यकता है। विचार करने योग्य पहला विषय १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १२, किरण २, पृ. ९-१७ ।
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