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________________ २८२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यह है कि क्या इन्द्रायुधका राज्य शक संवत् ७०५ में इस अंश तक पश्चिम की ओर फैला हुआ था कि वह वढमाणके उत्तर तक पहुंचा कहा जा सकता है । वढमाण सौराष्ट्र में है। उसके उत्तरमें मारवाड़का प्रदेश है और इस प्रवेशपर इन्द्रायुधका राज्य सिद्ध करनेके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया गया । कुवलयमालासे तो यही सिद्ध होता है कि शक संवत् ७०० में मारवाड़पर वत्सराज राज्य करता था । इससे मारवाड़पर इन्द्रायुधके राज्यकी पुष्टि नहीं होती । इन्द्रायुध कन्नोजका शासक था। इस राज्यपर उत्तर-पश्चिमसे काश्मीर के शासकका और पूर्वसे बंगाल या गौड़के शासकका दबाव पड़ रहा था । अतः वह इस योग्य नहीं था कि कोई नये देशपर विजय करे। इसके विपरीत वत्सराजके प्रपितामह नागभट्ट या नागावलोकके द्वारा भिनमालमें स्थापित किया हुआ मारवाड़का राज्य कन्नौज और आसपासके राज्योंको क्षति पहुँचाता हुआ उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा था । वढमाणके उत्तर और पूर्व दोनों दिशाओंमें ही वत्सराजका राज्य था ।' दूसरी भूल हुई है जिनसेनके राजाओं सम्बन्धी श्लोकका अर्थ करनेमें। उस श्लोककी दो पंक्तियोंको ध्यानपूर्वक देखनेपर यह भूल ज्ञात हो सकती है । वे दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं'पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेऽपरां सौराणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति' ॥ 'इन पंक्तियोंका अर्थं करते हुए विद्वानोंने वत्सराजको अवन्ति नरेश माना है । किन्तु उन विद्वानोंने 'अवन्ति भूभृति' और 'नृपे' इन दोनों एकार्थक शब्दोंपर ध्यान नहीं दिया। जिनसेनजैसे प्रौढ़ विद्वान् आचार्य 'भूभृति' देकर फिर 'नृपे' शब्द देनेकी पुनरुक्ति क्यों करते, जबकि दोनों शब्दोंका अर्थं राजा है । स्पष्ट है कि 'अवन्ति भूभृति' 'वत्सादिराजे' ( वत्सराज ) का विशेषण नहीं है, 'नृपे' उसका विशेषण है। इस प्रकार माननेपर अवन्ति नरेश कोई भिन्न व्यक्ति था और वत्सराज उससे भिन्न था। इतिहास और ताम्रपत्रोंसे भी यह सिद्ध होता है कि वत्सराजने मालवराजके प्रदेशोंपर आक्रमण किया था । किन्तु राष्ट्रकूट नरेश मालवराजकी सहायता के लिए आ गया । अतः वत्सराजको मारवाड़की ओर भागना पड़ा। अतः अवन्तिका राजा वत्सराज से भिन्न था और उसका राज्य सौरमण्डल (सौराष्ट्र ) की सीमा तक नहीं फैला था । भण्डारकर, ओझा और वैद्य सभी दोनोंको भिन्न माना है और वत्सराजको पश्चिममें राज्य करता हुआ स्वीकार किया है ।' 'तीसरी भूल हुई है 'अपरां' को 'सौराणामधिमण्डलं' के साथ लगाकर ऐसा करनेपर यह अर्थं निकलता है कि सौरमण्डल उसके पश्चिममें स्थित था और वीर जयवराह वहाँ शासन कर रहा था । किन्तु विचारणीय यह है कि वढमाण सम्भवतः जयवराहकी राजधानी थी और वह सौरमण्डल राज्यकी सीमा में था । वढमाणको वर्धमानपुर माना जाये तो वढमाण में लिखते हुए क्या जिनसेन सदृश्य लेखक यह कहेगा कि सौरमण्डल इसके पश्चिममें स्थित था ।' उपर्युक्त विवेचनसे शक सं. ७०५ में राजनीतिक स्थिति इस प्रकार सिद्ध होती है 'उत्तर में कन्नौजसे मालवाकी सीमा तक इन्द्रायुधका राज्य था । मालवाके दक्षिणमें राष्ट्रकूटोंका राज्य फैला हुआ था । मालवा अवन्तिके राजाके शासन में था और उससे लगकर ही सम्पूर्ण मारवाड़ और गुजरातमें वत्सराजका राज्य था । काठियावाड़में वीर जयवराह शासन कर रहा था।' १. इण्डियन एण्टीक्वेरी १२, पी. १६० । तृतीय गोविन्दराज के राधनपुर और डिंडोरीसे प्राप्त लेख ।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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