SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २८३ ‘ऐसी स्थितिमें वढमाणको वर्धमानपुर नहीं माना जा सकता क्योंकि तत्कालीन राजनीतिक स्थितिके साथ उसकी संगति नहीं बैठती । अतः वर्धमानपुर, जिसका उल्लेख जिनसेन और हरिषेणने किया है, को पुनः खोज करनेकी आवश्यकता है।' 'ऐसे स्थानकी खोज करते हुए हमारी दृष्टि उज्जैनसे पश्चिमकी ओर ६४ कि. मी. दूरपर स्थित बदनावरपर जाती है। जिनसेन द्वारा दी हुई सीमाएँ भी उसके साथ संगत बैठ जाती हैं। इन्द्रायुधका कन्नौजका राज्य ठीक उसके उत्तरमें था। राष्ट्रकूटोंका राज्य धारकी सीमाको छूता था, वह उसके दक्षिण में होगा। अवन्तिका राज्य उसके पूर्वमें और वत्सरोजका राज्य, जो कि पश्चिममें सौरमण्डलसे लगा हुआ था, उसके पश्चिम में था। बदनावरमें प्राप्त .शिलालेखों और मूर्तिलेखोंमें इसका वधमानपुर नाम मिलता ही है। यहां अनेक प्राचीन जैन मूर्तियां मिली हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचोन कालमें यह जैन धर्मका सुप्रसिद्ध केन्द्र था। यहींपर जिमसेन और हरिषेणने अपने महान ग्रन्थोंको रचना की थी। ये दोनों हो पून्नाटगण के थे। इस नगरके नामपर पुन्नाटगणकी एक शाखाका नाम ही वर्धमानपुरान्वय हो गया। ऐसे कुछ अभिलेख भी यहाँपर प्राप्त हुए हैं, जिनमें इस अन्वयका नाम मिलता है। जानकारीके लिए यहाँ ऐसे दो अभिलेख दिये जा रहे हैं 'सं० १२१६ ज्येष्ठ सुदि ५ बुधे आ० कुमारसेन चन्द्रकीर्ति वर्धमानपुरान्वये साधु वोहिव्व सुत माल्हा भार्या पाणू सुत पोल्हा भार्या पाहुणी प्रणमति नित्यं ।' . 'सं० १२३४ वर्षे माघ सुदो ५ बुधे श्रीमान् माथुरसंघे पंडिताचार्य धर्मकीर्ति शिष्य ललितकीर्ति वर्धमानपुरान्वये सा० प्रामदेव भार्या प्राहिणी सुत राणू सा० दिगम सा० याका सा० जाहड़ सा० राणू भार्या माणिक सुत महण कीनू केलू बालू सा० महण भार्या रूपिणी सुत नेमि धांधा बीजा यमदेव पमा रामदेव सिरीचन्द प्रणमति नित्यं ।' आचार्य हरिषेणने जिस विनायकपाल राजाके राज्यमें अपने कथाकोषकी रचना की थी, उस समय पूरा उत्तरभारत गुर्जर प्रतिहार राजाओंके आधिपत्यमें आ चुका था। उन राजाओंमें विनायकपाल नामक राजा शक सं. ८५३ ( ई. स. ९३१ ) में राज्य कर रहा था और उसी वर्ष कथाकोषकी रचना समाप्त हुई। जिनसेनने हरिवंशपुराणको रचना दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें समाप्त की थी। यह दोस्तटिका बदनावरसे लगभग १६ कि. मी. दूर है, जिसका आधुनिक नाम दोतरिया है। यह गांव माही और वागेड़ी दो नदियोंके मध्य बसा हुआ है। माही गांवसे एक मीलकी दूरीपर बहती र वागेड़ी इसीमें गांवसे कुछ दूर जाकर मिल जाती है। दोतरियाके पास माही नदीके पश्चिमकी ओर गुजरात और पूर्वकी ओर मालवाकी सीमा प्रारम्भ होती है। . निष्कर्ष-उपर्युक्त विद्वानोंने वर्धमानपुरके सम्बन्धमें जो विचार प्रकट किये हैं, उनमें दो मान्यताएं सामने आयी हैं-एक तो वढमाणकी, जो सौराष्ट्रमें है और दूसरे बदनावरकी, जो मध्यप्रदेश में है। श्री प्रेमोजी और डॉ. उपाध्येने वढमाणके पक्षमें जो तर्क दिये हैं, डॉ. होरालालजीने उनका सयुक्तिक खण्डन करके वढमाणके पक्षको निर्बल बना दिया है। डॉक्टर साहबने आचार्य जिनसेनके श्लोकका जो अथं किया है, उससे प्रेमोजी और उपाध्येजी द्वारा खींचा गया राजनीतिक नक्शा ही धूमिल पड़ जाता है। उससे वढमाणको अवस्थिति और उसकी कल्पित सीमाएं सन्देहास्पद बन जाती हैं। इन दोनों मान्य विद्वानों के समस्त तकोंका एकमात्र आधार पुन्नाट नामक संघ रहा है जो जिनसेन और हरिषेण दोनों आचार्योंका था। पुन्नाट कर्नाटक अथवा दक्षिणापथका एक विषय (प्रदेश) था। वहाँ संघको स्थापना की गयो, अतः संघका नाम
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy