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________________ २८४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उस विषय (प्रदेश ) के नामपर पुन्नाट रखा गया। कर्नाटकमें जैन धर्मको राज्याश्रय प्राप्त हुआ था । पश्चिमी चौलुक्य और राष्ट्रकूट वंशकी शाखाओंको स्थापना सौराष्ट्र और गुजरातमें भी हो गयी थी। इन शाखाओंके पुलकेशिन द्वितीय, अमोघवर्ष आदि कई राजा जैन धर्मानुयायी थे। अनुकूल परिस्थितियां होनेके कारण पुन्नाट संघके मुनि सौराष्ट्रमें आ गये। वढमाण (वर्धमानपुर) उनका केन्द्र या कर्म-क्षेत्र था। इस प्रकार तर्क द्वारा दोनों विद्वानोंने वढमाणको वर्धमानपुर सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था। किन्तु डॉ. हीरालालजी द्वारा श्लोकके किये जा रहे अर्थको भूल पकड़नेपर बढमाणका सारा भौगोलिक आधार हो समाप्त हो गया। ऐसा लगता है कि उक्त दोनों मान्य विद्वानोंको दृष्टिमें बदनावर नहीं आया, इसलिए वह विचारकोटिमें भी नहीं रखा गया। अब इसमें तो कोई सन्देह नहीं रह गया कि बदनावर ही प्राचीन वर्धमानपुर है । यहींके पार्श्वनाथ जिनालयमें बैठकर आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराणकी रचना की थी और यहाँसे १६ कि. मी. दूर दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रचना पूर्ण की थी। इसी प्रकार आचार्य हरिषेणने अपने कथाकोषको रचना इसी नगरमें की थी। इन आचार्योंके कारण यह नगर जैन धर्मका महान् केन्द्र बन गया था। जैन धर्मके केन्द्रके रूपमें यह नगर अपनी गरिमाको कमसे कम ६-७ शताब्दी तक अर्थात् आठवीं शताब्दीसे १४वीं शताब्दी तक अक्षुण्ण रख सका। __यह अवश्य आश्चर्यका विषय है कि पुन्नाट गण जिसके साथ जिनसेन और हरिषेण-जैसे महान् आचार्योका सम्बन्ध था-उसका नामोल्लेख आज तक उत्तर-दक्षिणके किसी शिलालेखमें नहीं मिला। यह भी आश्चर्यकी बात है कि बदनावरमें इन आचार्योंके कालका मन्दिर अथवा एक भी मूर्ति नहीं मिली. और न किसी मूर्तिलेखमें पुन्नाट गणका नामोल्लेख ही मिला। सम्भव है. इसका कारण यह रहा हो कि जिस कालकी मूर्तियां यहां मिली हैं, उस कालमें पुन्नाट गणका स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया और वह लाटवारि (लाटवागड़ ) संघमें विलीन हो गया। इस सम्बन्धमें एक पट्टावलीमें इस प्रकार संकेत भी दिया गया है _ 'तदन्वये श्रीमल्लाटवर्गटगच्छवंशप्रतापप्रकटनयावज्जीवबोधोपवासैकांतरे नीरस्याहारेणातापनायोगसमुद्धारणधीरश्रीचित्रसेनदेवानां यः पंचलाटवर्गटदेशे प्रतिबोधं विधाय मिथ्यात्वमतनिरसनं चक्रे ततः पुन्नाटगच्छ इति भांडागारे स्थितं लोके लाटवर्गटनामाभिधानं प्रथिव्यां प्रथितं प्रकटीबभूव। इसमें बताया गया है कि एकान्तर उपवास करनेवाले, केवल जलका आहार करनेवाले और आतापन योग द्वारा दुर्द्धर तप करनेवाले भट्टारक चित्रसेनने पंच लाटवर्गट देशमें धर्मका प्रचार करके मिथ्यात्वका नाश किया। तबसे पुन्नाट गच्छका नाम लाटवर्गट (लाडवागड़) गच्छके नामसे प्रसिद्ध हो गया। उपयुक्त प्रशस्तिको पढ़कर तो इसमें सन्देहको कोई अवकाश नहीं रहता कि पुन्नाट संघी आचार्य जिनसेन और हरिषेणने इसी वर्धमानपुर ( वर्तमान बदनावर ) में शास्त्ररचना की थी। यहाँकी मूर्तियोंके अभिलेखोंमें पुन्नाट गच्छका नाम प्राप्त न होनेका रहस्य भी यही जान पड़ता है, क्योंकि जिस कालकी ये मूर्तियां हैं, उससे पूर्वमें ही पुन्नाट गच्छ लाटवर्गट गच्छमें विलय हो चुका था। ___ बदनावरके मूर्तिलेखोंका अध्ययन करनेपर एक रोचक तथ्यकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित हुआ । वह यह कि इन मूर्तिलेखोंमें न तो पुन्नाट गच्छका नाम आया है और लाटवागड़ गच्छका १, भट्टारक सम्प्रदाय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पृ. २५२।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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