SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ नंग-अनंग कुमार आदिका निर्माण यौधेय देशमें श्रीपुर नगरके नरेश अरिंजय और उनकी रानी विशालाके दो पुत्र थे-नंग और अनंग। दोनों कुमार रूप, गुण, बल, विद्या और बुद्धिमें अनुपम थे। उन्होंने गुरुके समीप थोड़े समयमें ही विविध विद्याओं और कलाओंमें निपुणता प्राप्त कर ली। एक बार मालव देशके अरिष्टपुर नगरके नरेश धनंजयके ऊपर तिलिंग देशके नरेश अमृत विजयने आक्रमण कर दिया । धनंय महामाण्डलिक राजा था। उसके अधीन अनेक राजा थे। धनंजयको अमृतविजयकी योजनाका जैसे ही पता लगा, उसने अपने मित्र राजाओंको सेनासहित शीघ्र पधारनेके लिए विशेष दूतोंके द्वारा आमन्त्रण-पत्र भिजवा दिये। राजा अरिंजयके पास भी निमन्त्रण-पत्र आया। पत्र प्राप्त होते ही अरिंजय सेना लेकर प्रस्थानकी तैयारी करने लगे। जैसे ही नंग-अनंग दोनों कुमारोंने अपने पिताको युद्धके लिए प्रस्थान करते देखा, वे बोले-'पिताजी ! आप कहां जा रहे हैं ?' पिताने उत्तर दिया-'महाराज धनंजयने युद्ध में सहायता देनेके लिए बलाया है. वहीं जा रहा हूँ।' कमार बोले-'पिताजी ! हम लोगोंके रहते हुए युद्धके लिए आपका जाना हमारे लिए लज्जाकी बात है। आप यहीं रहकर राज्य-कार्य देखें, हम लोग युद्धके लिए जायेंगे। पिताने उन्हें बहुत समझाया, किन्तु उनके आग्रह-अनुरोधके आगे पिताको उनकी बात स्वीकार करनी पड़ी और वे दोनों कुमार सेना सहित चल दिये। जब वे अरिष्टपुर पहुंचकर महाराज.धनंजयसे मिले तो देवकुमारोंके समान रूपवान् और बलवान् उन कुमारोंको देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ और उनका यथोचित सत्कार किया। दूसरे दिन दोनों सेनाओंका भयानक युद्ध हुआ। जब तिलिंगराजने धनंजयकी सेनाको रौंदना शुरू कर दिया, तब वे दोनों कुमार आयुध लेकर युद्ध-भूमिमें कूद पड़े। कुमार नंग तिलिंगराजसे जा भिड़ा और अनंगकुमारने उसके सामन्तोंका प्रतिरोध करना प्रारम्भ कर दिया। तिलिंगराज और उनके सामन्तोंकी उन कुमारोंके समक्ष एक न चली। दोनों ही सिंह-शावक शत्रुरूपी हिरणोंपर टूट पड़े। कुमार नंगने अपनी अमोघ बाण-वर्षासे दिनको अन्धकारमय बना दिया। उसने तिलिंगराजकी ध्वजा, छत्र, मुकुट, घोड़े, सारथी सबको मार गिराया और अपने हाथीसे फुर्तीसे प्रतिपक्षीके रथपर कूदकर शत्रुको बन्दी बना लिया। शत्रुके बन्दी बनते ही शत्रुसेना भाग खड़ी हुई। युद्ध बन्द हो गया। महाराज धनंजयने नंग और अनंग कुमारोंका बड़ा सत्कार किया तथा शत्रुके साथ भी सहृदयताका व्यवहार किया। किन्तु तिलिंगराजको अपनी पराजय और पराभवके कारण मनमें विराग उत्पन्न हो गया। जब अरिष्टपुरमें विजयोत्सव मनाया जा रहा था, तभी अष्टम तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभका समवसरण नगरके बाहर आया। बनपालने आकर महाराज धनंजयको भगवान् चन्द्रप्रभके पधारनेका शुभ समाचार दिया। समाचार मिलते ही सभी राजा और प्रजा भक्तिभावसे समवसरणमें पहुंचे और भगवान्की प्रदक्षिणा कर उनके चरणोंकी पूजा की। फिर भगवान्का हितकारी उपदेश सुना, जिसे सुनकर धनंजय अमृतविजय, नंग, अनंग आदि १५०० राजाओंको वैराग्य हो गया। वे भगवान्के समवसरणमें ही संयम धारण करके मुनि बन गये। उज्जयिनीनरेश श्रीदत्तकी रानी विजयाके कोई सन्तान नहीं थी। एक दिन पुत्र न होनेके कारण रानी अत्यन्त दुखी हो रही थी। तभी दो चारणऋद्धिधारी मनि वहाँ पधारे। राजदम्पतिने सन्तान होनेके बारेमें उनसे पूछा तो मुनियोंने उत्तर दिया- 'तुम यात्रासंघ निकालकर स्वर्णगिरिकी यात्रा करो, उस क्षेत्रकी पूजा करो तो तुम्हारे सन्तान होगी।' राजाने पत्र भेजकर
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy