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राज पृथ्वीराज देवजू और उनके
भारतके शिवम्बर वली था। वर्तमान बड़ोह इस नगरका एक भाग था। कहा जाता है कि महाराज छत्रसालने युद्धके समय इसे लूटकर और नष्ट कर श्रीहीन कर दिया था। यह नगर पुनः भग्नावशेषोंके ऊपर आबाद हुआ। इसके आसपास चारों ओर प्राचीन मन्दिरों, सती-स्तम्भों, सरोवरों आदिके अवशेष बिखरे हुए हैं। पठारीकी बड़ी पहाड़ी ज्ञाननाथपर एक प्राकृतिक गुफा है, किन्तु उसे सुसंस्कृत किया गया है। इसमें तीन कक्ष हैं । इनमें अलंकृत स्तम्भ लगे हुए हैं। कहते हैं, यह वही गुफा है, जहाँ गड़रियाको मुनिके दर्शन हुए थे। चिह्नोंसे प्रतीत होता है कि यह गुफा जैन मुनियोंके ध्यान-अध्ययनके काम आती थी। स्तम्भों आदिपर जैन मूर्तियां बनी हुई हैं। इसके निकट छोटीछोटी कई गुफाएं हैं। किसी समय यह स्थान जैन धर्मका प्रसिद्ध केन्द्र था।
__पठारीमें एक बावड़ी है, जिसमें एक अभिलेख है। उसका आशय है कि इस बावड़ीका निर्माण संवत् १७३३ में अगहन सुदी पूर्णमासीको परगना आलमगीर ( भिलसा ) के पठारी जिलेमें पातशाह नौरंगजेब आलमगीरजके शासनमें और महाराजाधिराज पथ्वीराज देवज और उनके भाई कुमारसिंह देवजूके समयमें अयोध्यापुरोके श्री साहू वस्तपालजू, उसकी पुत्रवधू मणीवा द्रौपदी लखपती और उसके पौत्र उदयभान, तुलाराम, भगवानदास, जीवनमल और दिशुण्ड परवार जातीय कौछल गोत्रीयने कराया।
इस प्रकार जैनोंने यहां अनेक लोकोपयोगी कार्य कराये थे।
यह बताया जा चुका है कि बड़ोह प्राचीन कालमें पठारीका ही एक भाग था। जब पठारी नगर नष्ट हो गया तो पुनर्वासके समय दोनों अलग-अलग हो गये। इस समय बड़ोहके भग्नावशेष पठारीसे दक्षिणमें लगभग ३ मील, ज्ञाननाथ पहाड़ीकी तलहटीमें तालाबके किनारे बिखरे हुए हैं। पठारी-बड़ोहकी समृद्धिके सम्बन्धमें एक अद्भुत किंवदन्ती सुनी जाती है।
तेलका एक व्यापारी भैंसोंपर तेल लादकर उस स्थानपर पहुंचा, जिसे आजकल पारस तालाब कहा जाता है। भैसोंके गलेमें लोहेको सांकल बंधी हुई थी। जब एक भैंसा तालाबसे बाहर निकला तो व्यापारोने आश्चर्यके साथ देखा कि लोहेकी सांकल सोनेकी हो गयी है। उसे विश्वास हो गया कि तालाबमें अवश्य ही पारण-मणि है। वह तालाबके भीतर घुसकर पारसमणिकी तलाश करने लगा। भाग्यवश उसे पारस-मणि प्राप्त हो गयी। उसको सहायतासे वह अपार धनका स्वामी हो गया। उसने अनेक मन्दिरोंका निर्माण कराया। वह भैंसाशाहके नामसे प्रसिद्ध हो गया। ___इस किंवदन्तीको पारस-मणिको सत्यताके सम्बन्धमें विश्वासपूर्वक कुछ कह सकना कठिन है। किन्तु ऐसा एक व्यक्ति अवश्य हुआ है जो धनी था, पाड़ों ( भैंसों) पर सामान लादकर परदेशमें जाता और वस्तुओंका क्रय-विक्रय किया करता था। उसने अनेक जैन मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायो थी। पाड़ोंके कारण उसका नाम पाड़ाशाह ही पड़ गया। शिलालेखों या मूर्तिलेखोंमें भी उसका यही नाम मिलता है।
बड़ोह या पठारीमें उसके सम्बन्धमें जो किंवदन्ती प्रचलित है, इसमें उसे पारसमणि प्राप्त होनेकी बात है। अहार, बजरंगढ़, थूवीन आदि जिन स्थानोंपर उसने जिनालय बनवाये, वहाँ कहीं-कहीं उसकी समृद्धिका कारण उसके रांगाका पारस-मणि द्वारा चांदी होना बताया जाता है। उसके सम्बन्धमें इस प्रकारको किंवदन्तोका प्रचलन उसो स्थानपर देखा जाता है, जहां उसने मन्दिर निर्माण कराया। बड़ोह-पठारोमें ऐसी किंवदन्ती प्रचलित होनेका तर्कसंगत कारण यही हो सकता है कि यहाँपर भी उसने किसी जिनालयका अथवा अपनी स्त्रीके नामसे किसी वैष्णव मन्दिरका निर्माण कराया होगा।