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________________ मध्यादेशले विमबरन तीर्थ २४१ ग्यारसपुर अवस्थिति ग्यारसपुर विदिशासे सागर जानेवाली सड़कपर उत्तर-पूर्वमें ३८ कि. मी. दूरीपर दो पहाड़ियोंके मध्य बसा हुआ एक प्राचीन नगर एवं महत्त्वपूर्ण कला-तीर्थ है । कुछ विद्वानोंके अनुसार यह दशवें तीर्थकर भगवान् शीतलनाथकी तपोभूमि है। अतः यह कल्याणक-क्षेत्र भी माना जाता है। साथ ही, कतिपय दैवीय घटनाओंके कारण यहाँको जैन समाज इसे अतिशय-क्षेत्र भी मानती है। क्षेत्र-दर्शन ___ इस नगरके भीतर और बाहर पुरावशेष बिखरे हुए हैं। यहाँके मध्यकालीन मन्दिर और उनके अवशेष पुरातत्त्व और कलाप्रेमियोंके आकर्षणकी वस्तुएँ हैं। मन्दाकिनी तालके पास उत्तरकी ओर पुरातन नगरके चिह्न दिखाई पड़ते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि किसी समय यह एक महत्वपूर्ण नगर रहा होगा । यहाँके मुख्य अवशेषोंमें पश्चिमकी ओर नगरके बाहर अठखम्भा और वज्रमठ, नगरके बाहर पहाड़ीपर हिण्डोला और चारखम्भा और नगरके दक्षिणकी ओर पहाड़ोकी चोटीपर मालादेवी मन्दिर मुख्य हैं। इनमें वजमठ और मालादेवी ये दोनों जैन मन्दिर हैं। इनका शिल्प-सौष्ठव, पाषाणमें सूक्ष्मांकन और वास्तु-विधान अत्यन्त उत्कृष्ट कोटिका है। नगरमें एक चैत्यालय है । नीचेके एक कमरेमें ४ फुट ९ इंच ऊंचे एक शिलाफलकमें मध्यमें भगवान् पाश्वनाथकी खड्गासन प्रतिमा है। इसके सिरके ऊपर सप्तफण हैं। उनके ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है। उनके दोनों ओर पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए देवियां खड़ी हैं। भगवान्के ऊपर-नीचे दोनों ओर शेष २३ तीर्थंकरोंकी पद्मासन मूर्तियां बनी हुई हैं। बायीं ओर पार्श्वनाथका सेवक यक्ष धरणेन्द्र और दायीं ओर उनकी सेविका यक्षी पद्मावती ललितासनमें बैठे हुए हैं। दोनों के ऊपर फणावली है। यह प्रतिमा अतिशयपूर्ण है । ऐसा कहा जाता है कि लगभग २५ वर्ष पूर्व किन्हीं अज्ञात कारणोंसे इस मूर्तिसे पसीना निकलने लगा था जो हवन-शुद्धि करानेपर बन्द हुआ था। इस चमत्कृत घटनाके कारण इस क्षेत्रको जैन समाज तबसे इसे अतिशय-क्षेत्र मानने लगी है। यह प्रतिमा शैली आदिकी दृष्टिसे १०वीं शताब्दीकी प्रतीत होती है। यह चन्देल शैलीको अद्भुत और कलासम्पन्न प्रतिमाओं में से है। यह पुरावशेषोंमें-से उपलब्ध हुई थी और अखण्डित है। इसकी उपलब्धिसे ऐसा अनुमान होता है कि यहां और भी जैन मन्दिर उस काल में रहे होंगे। चैत्यालयके ऊपरके कमरे में नवीन प्रतिमा विराजमान हैं। - नगरके बाहर पहाड़पर थोड़ा चढ़नेपर हिण्डोला मिलता है। यह किसी प्राचीन मन्दिरका बचा हुआ अलंकृत द्वार है। द्वार हिण्डोलाके आकारका है। इसीलिए बोलचालमें लोग इसे हिण्डोला कहते हैं। इसके स्तम्भ चारों ओर अलंकृत हैं। एक स्तम्भपर विष्णुके दशावतार प्रदशित हैं। इसके निकट किसी मन्दिरके अवशेषोंका ढेर पड़ा हुआ है तथा उसकी आधार-चौकी भी है। बायीं ओर चार खम्भोंका मण्डप है । यह बिना छतका है। यहां एक पाषाणपर संवत् ११४० का एक शिलालेख मिला। इसके ऊपरी भागमें एक रीछ एक मनुष्यको नीचे पटक रखा है। यह दृश्य सम्भवतः श्रीमद्भागवतमें वर्णित जामवन्त और सत्राजित्के युद्धका है। जामवन्तं ब्रह्माका पूत्र बताया जाता है। युद्ध स्यमन्तक मणिके लिए हुआ था। कनिंघमको एक भग्न शिलालेख १. विदिशा-वैभव। ३-३१
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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