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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २३९ एक भेड़ प्रतिदिन गुफाकी तरफसे आकर भेड़ोंकी झुण्डमें मिल जाती थी और शामको गायब ( अन्तर्धान ) हो जाती थी । गड़रिया कुछ दिनों तक यह सब देखता रहा। एक दिन उसने भेड़के मालिक का पता लगाने का निश्चय किया और सन्ध्या होनेपर जब वह भेड़ गुफाकी ओर जाने लगी तो गड़रियाने उसका पीछा किया । किन्तु गुफाके अन्दर पहुँचनेपर गड़रियाको देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वहाँ भेड़का कहीं पता नहीं है किन्तु एक मुनि अवश्य ध्यानमें बैठे हुए हैं । उसने मुनिको नमस्कार किया और बोला, "बाबा ! तुम्हारी भेड़को मैं कई महीनोंसे चरा रहा हूँ। मैं उसकी घिराईकी मजदूरी लेने आया हूँ ।' मुनि मुस्कराये। उन्होंने मुट्ठी बन्द करके गड़रिया की धोती में कुछ डाल दिया । गड़रिया धोतीकी गाँठ बाँधकर वहाँसे चल दिया और अपने घर पहुँचा । भेड़ें उससे पहले पहुँच गयी थीं। इससे उसकी स्त्री उसके ऊपर बिगड़ी। तब उसने स्त्रीसे सारी घटना कह सुनायी और मुनि द्वारा दी हुई मजदूरीको खोलकर देखने लगा । किन्तु उसे यह देखकर बड़ा क्रोध आया कि वे तो थोड़े-से मक्काके दाने थे। उसने गुस्सेके मारे वे दाने उपलोंके ढेरपर फेंक दिये । स्त्री रसोईके काममें लग गयी। जब वह उपले लेने गयी तो उसने आश्चयंके साथ देखा कि उपले सोनेके हो गये हैं। दोनों यह देखकर खुशी से भर उठे । सरल गड़रिया उस बात की खबर देने भागा हुआ गुफामें पहुँचा किन्तु गुफा सूनी थी । मुनिका कहीं पता न था । वह लौट आया। उसने धन छिपा दिया और एक मन्दिरका निर्माण कराया। गड़रियाके कारण लोग मन्दिरको गड़रसल कहने लगे। उसने मन्दिरके सामने एक तालाब भी बनवाया । उसने पक्के घाट बनवाये और घाटोंपर छतरियाँ बनवायीं । कहते हैं, इसके बाद उसने और भी मन्दिर बनवाये । यह भी कहा जाता है कि गडरमल मन्दिर में उसने अपनी और अपनी स्त्री की पाषाण मूर्तियाँ बनवायी थीं। दोनोंके कोई सन्तान नहीं थी । उनका अवशिष्ट धन जमीनमें दबा हुआ रह गया । ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भमें सम्भवतः ८वीं शताब्दीमें, इस मन्दिर में केवल गर्भंगृह और उसके ऊपर शिखर बनाया गया । बादमें, सम्भवतः ९ वीं शताब्दी में, मन्दिरमें परिवर्धन किया गया। यह मन्दिर मूलतः जैन है । मन्दिरके जीर्ण होनेपर कभी इसका जीर्णोद्धार किया गया होगा । उस समय इन मन्दिरोंकी पुरानी सामग्री ही काममें लायी गयी । इस मन्दिर में अब भी द्वारपर, दीवारोंमें और स्तम्भों में जैन मूर्तियां मिल सकती हैं । इस मन्दिरका प्रवेश-द्वार और उसका तोरण शिल्प-कलाको उत्कृष्ट कृतियोंमें से हैं । इसपर अलंकरणके अलावा नवग्रह, अष्टमातृका आदिका भव्य अंकन है । इस मन्दिरके सामने, सरोवर के तटपर १२ स्तम्भोंपर आधारित एक बारादरी है, जिसे बैठक भी कहते हैं । इसके निकट मन्दिरोंके अवशेष और बारादरियाँ हैं । यहीं पार्वती मन्दिर, दशावतार मन्दिर और वराह- मूर्ति है । गड़रमल मन्दिरके उत्तर-पश्चिममें, पहाड़ीकी तलहटीमें जैन मन्दिरोंका समूह है । ये एक अहातेके अन्दर हैं । यद्यपि ये मन्दिर जीर्णप्राय हैं किन्तु इनमें वेदियाँ और कुछ मूर्तियाँ अच्छी दशामें हैं । कई मन्दिर तो दोमंजिला हैं । इनके ऊपर शिखर भी हैं । यहाँ ८ से १२ फुट ऊंची मूर्तियाँ हैं । मूर्तियाँ दोनों ही आसनोंमें स्थित हैं-खड्गासन भी और पद्मासन भी । यहाँ एक निधिका भी बनी हुई है । उसमें चरण चिह्न विराजमान हैं । सम्भवतः यह निषधिका पश्चात्कालीन है। किन्तु मन्दिर और मूर्तियाँ तो निश्चय ही ८वीं शताब्दीके अन्तिम चरण या ९वीं शताब्दी के प्रथम चरणकी हैं। इनके निकट बहुत-से सती स्तम्भ हैं । पठारी प्राचीन कालमें बड़ा समृद्ध और विशाल नगर
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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