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मध्यप्रदेश दिसम्बरन सीर्य और आचार्य जिनप्रभसूरिने 'शासन-चतुस्विशिका' तथा 'विविध-तीर्थकल्प' में इस क्षेत्रका कोई उल्लेख नहीं किया। ये दोनों विद्वान् १३वीं-१४वीं शताब्दीके हैं। इन दोनोंने ही तत्कालीन प्रसिद्ध तीर्थोके सम्बन्धमें परिचयात्मक प्रकाश डाला है, किन्तु मक्सी पार्श्वनाथका उल्लेख तक नहीं किया। इससे लगता है कि इस क्षेत्रके अतिशयोंकी ख्याति इन विद्वानोंके कालमें नहीं हो पायी थी, जबकि इन दोनोंने ही मालवाके अभिनन्दननाथ जिनकी स्तुति की है और बताया है कि यवनों द्वारा यह प्रतिमा तोड़ी जानेपर वह पुनः जुड़ गयी और अवयवों सहित वह ठीक हो गयी। उसके पश्चात् उस प्रतिमामें अनेक चमत्कार प्रकट हुए। 'विविध-तीर्थकल्प' में तो अवन्तिदेशके इस अभिनन्दननाथ जिनकी घटनाके सम्बन्धमें यह भी बताया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंह देवके शासन-कालसे कुछ वर्ष पूर्वमें हुई थी। - उपर्युक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मक्सी पार्श्वनाथ अतिशय-क्षेत्रकी स्थापना १४वीं शताब्दीके पश्चात् कभी हुई है। सम्भवतः पार्श्वनाथकी यह मूर्ति किसी मन्दिरमें थी। मन्दिरको आक्रान्ताओंने नष्ट कर दिया। १४वीं-१५वीं शताब्दीमें यह मूर्ति भूगर्भसे निकाली गयी और मन्दिरका निर्माण करके उसमें यह विराजमान की गयी। तबसे इसके अतिशयोंकी प्रसिद्धि हुई और यह अतिशय क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध हो गया। लेकिन सोलहवीं शताब्दीमें यह क्षेत्र ख्यातिके शिखरपर पहुंच चुका था। भट्टारक ज्ञानसागरने इस क्षेत्रके सम्बन्धमें जैसी प्रशंसा की है, उससे इस धारणाकी पुष्टि होती है। उन्होंने लिखा है
"मालव देश मझार नयर मगसी सुप्रसिद्धह। महिमा मेहसमान निधन धन दीधह। मगसी पारसनाथ सकल संकट भयभंजन। मनवांछित दातार विघनकोटि मदे गंजन । . .. रोग शोक भय चोर रिपु तिस नामे दूर पले। ब्रह्म ज्ञानसागर बदति मनवांछित सधलों फले ॥
-सर्वतीर्थ वन्दना-२४ इसमें ज्ञानसागरजीने मक्सीके पार्श्वनाथको समस्त संकटोंको दूर करनेवाला, मनोकामना पूर्ण करनेवाला, विघ्नोंका हर्ता, रोग-शोक, भय, चोर-शत्रु इनको दूर करनेवाला बताया है। अवश्य ही भट्टारकजीके कालमें मक्सीके पार्श्वनाथकी प्रसिद्धि इसी रूपमें रही होगी। अधिकारके लिए संघर्ष
यह मन्दिर मूलतः दिगम्बर जैन सम्प्रदायका था और इसकी व्यवस्था आदि भी सदासे दिगम्बर जैन समाजकी एक निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती थी। इसका निर्माण भी दिगम्बर जैन समाजने केवल अपने द्रव्यसे कराया था। मन्दिरसे सम्बन्धित मकान, बगीचा आदि सभी चल-अचल सम्पत्ति दिगम्बर जैन समाजने ही बनवायो थी। मन्दिरोंमें जो मूर्तियां हैं, वे सभी दिगम्बर आम्नायकी हैं। यहां कभी-कभी श्वेताम्बर सम्प्रदायके लोग भी दर्शनोंके लिए आ जाते थे। भगवानके दर्शन-पजनसे किसीको बंचित न रखा जाये, इस नीतिके बनसार उस समयको प्रबन्ध समितिने श्वेताम्बर लोगोंको दर्शन-पूजन करनेसे कभी नहीं रोका।
पूजाके प्रश्न और सम्पत्तिकी मालिकीको लेकर श्वेताम्बर समाजने विवाद खड़ा कर दिया। जब बिकाद किसी प्रकार शान्त नहीं हुआ,सब केस अदालतमें गया। तब अगस्त १८८२ में पंचनामे द्वारा यह तय हुआ था कि बड़े मन्दिर में दोनों समाजोंको अपनी-अपनी आम्नायके