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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ उनके पुत्र जाहड और उदयचन्द्रने शान्तिनाथकी मूर्ति बनवाकर उसकी संवत् १२३७ में प्रतिष्ठा करायी। सम्भवतः कुन्थुनाथ और अरनाथको मूर्तियोंका निर्माण गल्हणने कराया था। ऐसी स्थितिमें पाड़ाशाहके मन्दिर और मूर्तियोंकी खोज होना आवश्यक है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि . इतिहास-ग्रन्थोंमें इस स्थानका नाम 'मदनेशसागरपुर' मिलता है। यहाँ चन्देलवंशीय राजा मदनवर्मनने एक विशाल सरोवरका निर्माण कराया था जिसका नाम मदनवर्मनके नाम पर 'मदनसागर' पड़ गया। इस सरोवरके निकटवर्ती नगरको 'मदनेशसागरपुर' नाम मिला। इस राजाके सम्बन्धमें इतिहास-ग्रन्थोंसे कुछ जानकारी प्राप्त होती है। मदनवर्मनके ताऊ सल्लक्षणवर्मन वीर पुरुष थे। वे चन्देलवंशी राजाओंकी राजधानी कालिंजरमें रहकर शासनसूत्रका संचालन करते थे। उन्होंने परमारवंशी नरवर्मनको पराजित करके मालवापर अधिकार कर लिया और चेदिनरेश कलचुरि यशःकर्णको भारी पराजय दी। गाहड़वालोंको हराकर सम्पूर्ण अन्तर्वेदी ( गंगा-यमुनाका मध्यवर्ती प्रदेश ) पर अधिकार कर लिया। लगभग सन् १९१७ में सल्लक्षणवर्मनका पुत्र जयवर्मन गद्दीपर बैठा। थोड़े दिन शासनं करनेके पश्चात् उसे अपने चाचा पृथ्वीवर्मनके लिए राजगद्दी छोड़नी पड़ी। पृथ्वीवर्मनका उत्तराधिकारी उसका पुत्र मदनवर्मन हुआ, जिसने सन् ११२९ से ११६३ तक शासन किया। शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि उसके राज्यमें भिलसा, मऊ (झांसी जिला), अजयगढ़, छतरपुर, खजुराहो, महोबा और कालिंजर शामिल थे। परमारनरेश यशोवर्मनको पराजित करके उसने भिलसापर अधिकार किया। कलचुरि गयकर्णको करारी हार देकर चेदिपर अपना अधिकार जमाया। जब गुजरातके चालुक्य जयसिंह सिद्धराजने धारपर विजय प्राप्त करके महोबापर आक्रमण किया, तब मदनवर्मनने वीरतापूर्वक युद्ध करके अपनी राजधानीको तो बचा लिया, किन्तु इस युद्ध में भिलसा उसके हाथसे निकल गया। मदनवर्मनके पश्चात् कालिंजरकी गद्दीपर उसका पौत्र और यशोवर्मनका पुत्र परमर्दी सन् ११६५ से कुछ पहले बैठा। . . - कहते हैं, इसी चन्देलनरेश मदनवर्मनने चेदि-विजयके पश्चात् इस स्थानपर उक्त 'मदनसागर' बनवाया था और उसीके कारण यहांके नगरका नाम मदनेशसागरपुर पड़ा। मदनेशसागरपुर नामका समर्थन शान्तिनाथ भगवान्के मूर्ति लेखसे भी होता है, जिसमें 'येन श्री मदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे' इस प्रकारका पाठ है। एक मूर्ति-लेखमें 'तटे मदनसागर निर्मलम्' पाठ है।
किन्तु मदनेशसागरपुर नाम प्राप्त करनेसे पूर्व भी यह स्थान आत्मसाधन करनेके अभिलाषी मुमुक्षु जनोंके आकर्षणका केन्द्र था, क्योंकि यहाँपर मदनवर्मनके राज्यकालसे पूर्वकी, संवत् ११२३ और संवत् ११३६ तक की, मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। अहारका नामकरण
- इस स्थानका नाम 'अहार' कैसे पड़ा, इस सम्बन्धमें भी एक रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं, पाड़ाशाह इसी स्थानपर एक दिन आहारके समय किसी सत्पात्रकी प्रतीक्षामें खड़े थे। किन्तु आहारको बेला टलती जा रही थी और किसी सत्पात्रके दर्शन नहीं हो रहे थे। इससे श्रावकशिरोमणि पाड़ाशाहको बड़ा मनःक्लेश हो रहा था। वे अपने अशुभ कर्मोको ही इसका उत्तरदायी मानकर पश्चात्ताप कर रहे थे। तभी उन्हें मासोपवासी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि ईर्यापथ