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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ विशुद्धिपूर्वक जंगलसे आते हुए दिखाई पड़े। भक्त श्रावकका रोम-रोम हर्षसे पुलकित हो उठा। उन्होंने नवधा भक्तिपूर्वक वीतराग मुनिका प्रतिग्रहण किया। मुनिका निरन्तराय आहार हुआ। वे मुनि मासोपवासी थे। किन्तु मुनि बननेपर उनको गृहस्थ-दशाको पलीको अपने पतिके ऊपर बड़ा क्रोध आया और आर्तध्यानसे मरकर व्यन्तरी हुई । वह प्रतिशोध लेनेके उद्देश्यसे मुनिके पारणाके समय अन्तराय डाल दिया करती थी, जिससे छह माससे मनिराज बिना आहार किये ही लौट जाते थे। किन्तु भक्तप्रवर पाड़ाशाहके प्रबल पुण्योदय और क्षेत्रके प्रभावसे इस बार उस व्यन्तरीकी एक नहीं चली और मुनिराजका आहार निर्विघ्न हुआ। व्यन्तरीको भी अपने कुकृत्यपर पश्चात्ताप हुआ और मुनिराजके चरणोंमें आकर उसने अपने अपराधके लिए क्षमा मांगी।
___ इस घटनाके फलस्वरूप अर्थात् मुनिराजके आहारके कारण इस स्थानका नाम ही 'आहार' हो गया। 'आहार' ही बिगड़ते-बिगड़ते 'अहार' बन गया।
इस किंवदन्तीमें तथ्यांश कितना है, यह कहना कठिन है। इसकी सत्यताकी परीक्षा करनेका भी कोई साधन या पुरातत्त्व-साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । सम्भव है, अहार नामसे ही प्रेरित होकर इस किंवदन्तीका जन्म हुआ हो। - इस नामका कारण जो भी रहा हो, किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि इस क्षेत्रकी प्राकृतिक सुषमा, एकान्त शान्ति और मनोहर दृश्यावलीने इसे एक सुरम्य तपोवनकी महत्ता प्रदान कर दो है और एक ऐसे आध्यात्मिक वातावरणका स्वतः ही सृजन हो गया है, जहाँ पहुंचकर मन सांसारिक प्रलोभनोंसे विरक्त होकर आत्माके निःश्रेयसकी ओर ललक उठता है। इस क्षेत्र और ऐसे ही अन्य अतिशय क्षेत्रोंके अतिशय मनकी इसी निभृत निगूढ़ अध्यात्मभावनासे उद्भूत होते हैं । मनकी चपल चंचल गति जहाँ पहुँचकर स्वतः हो आत्मोन्मुख हो उठे, यह संसारका ऐसा सबसे बड़ा अतिशय है । अतिशय क्षेत्र अहारमें भी इस प्रकारके अतिशयोंके दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक सामग्री . इस क्षेत्रपर तथा इसके निकटवर्ती भूभागपर पुरातत्त्व-सामग्री विपुल परिमाणमें उपलब्ध होती है। यहाँ भगर्भसे तथा बाहर अनेक खण्डित और अखण्डित जैन मतियाँ प्राप्त हई हैं। अने मूर्तियोंकी चरणचौकीपर लेख अंकित हैं जिनसे अनेक ऐतिहासिक तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है, जैसे भट्टारकोंकी परम्परा, जैन समाजमें प्रचलित अन्वय, प्रतिष्ठाकारक भक्तजन, तत्कालीन राजवंश, मूर्तिकार, कलाका क्रमिक विकास आदि। . भट्टारक-परम्परा
___ यहाँकी कुछ मूर्तियोंके लेखोंसे भट्टारकोंके नामों और उनकी परम्परापर प्रकाश पड़ता है-जैसे कुटकान्वयके पण्डित श्री मंगलदेव और उनके शिष्य भट्टारक पद्मदेव, कुटकान्वयके पण्डित लक्ष्मणदेव और उनके शिष्य आर्यदेव, पण्डित श्री यशकीर्ति, सिद्धान्ती सागरसेन, भट्टारक माणिक्यदेव, गुणदेव, भट्टारक जगेन्द्रषेण, भट्टारक जिनचन्द्रदेव, भट्टारक धवलकीर्ति, भट्टारक सकलकोति, भट्टारक धर्मकीर्ति, भट्टारक शोलसूत्रदेव, भट्टारक ज्ञानसूत्रदेव, भट्टारक गुणकीर्ति, भट्टारक मलयकीर्ति, भट्टारक विशालकीर्ति, भट्टारक पद्मकीर्ति, भट्टारक मंगलदेव । - भट्टारकोंके नामोल्लेखोंका अध्ययन करनेपर एक विशेषताकी ओर ध्यान आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता कि ग्यारहवींसे पन्द्रहवीं शताब्दी तकके जिन मूर्तिलेखोंमें भट्टारकोंका नामोल्लेख किया गया है, उनके साथ संघ, गण, गच्छ और आम्नायका उल्लेख नहीं किया गया। किन्तु संवत्