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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
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१५०२ के एक मूर्ति लेखमें भट्टारकके नामके साथ काष्ठासंघे दिया है तथा संवत् १६४२ से १८६९ तक कई मूर्तिलेखोंमें मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख मिलता है । इसका अर्थ यह है कि गण, गच्छ, अन्वय आदिके उल्लेखकी परम्परा बहुत बाद में प्रचलित हुई ।
भट्टारकों के नामोंके साथ कहीं 'पण्डित' शब्दका भी प्रयोग किया गया है और उनके शिष्यको भट्टारक कहा गया है। यह कहना कठिन है कि जिनके साथ 'भट्टारक' शब्द न लगाकर 'पण्डित' शब्द प्रयुक्त है, वे भट्टारक थे या नहीं । किन्तु भट्टारकके गुरु भट्टारक ही होने चाहिए, इस कारण ऐसे पण्डितोंका नाम भी भट्टारक-सूची में दे दिया गया है।
भट्टारकोंका नामोल्लेख बारहवीं शताब्दीसे अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी तक के मूर्तिलेखों में मिलता है । लगता है, ये उल्लिखित भट्टारक अन्य स्थानोंके थे । इन्होंने मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। जैसे भट्टारक धर्मकीर्ति, शीलसूत्र ( शीलभूषण), ज्ञानसूत्र ( ज्ञानभूषण), बलात्कारगण अटेर शाखाके भट्टारक थे । भट्टारक विशालकीर्ति और भट्टारक पद्मकीर्ति बलात्कारगणकी लातूर-शाखाके भट्टारक थे । भट्टारक गुणकीर्ति, यशः कीर्ति और मलयकीर्ति काष्ठासंघकी माथुरगच्छ शाखा और पुष्करगणके थे। एक गुटके में इनकी परम्परा इस प्रकार पायी जाती है— माहबसेन, उद्धरसेन, देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, यशः कीर्ति, मलयकीर्ति, गुणभद्र, गुणचन्द्र, ब्रह्ममाण्डण । इसी प्रकार अन्य भट्टारक भी अहारके नहीं, बाहरके ही थे । इस क्षेत्रपर भी (जैसे मदनसागर के तटपर अवस्थित जिनालय में ) उन्होंने मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी । कई मूर्तिलेखोंमें अन्य स्थानोंपर प्रतिष्ठा होनेके स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं । उदाहरणतः एक यन्त्र लेख से ज्ञात होता है कि इस यन्त्रकी प्रतिष्ठा अकबर जलालुद्दीनके राज्यमें फीरोजाबाद नगरहुई। कई मूर्तियाँ जीवराज पापड़ीवालने भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित करायी थीं और वे यहाँ लाकर स्थापित की गयीं। ये मूर्तियां संवत् १५४८ की हैं।
इतना होनेपर भी भगवान् शान्तिनाथ आदिको विशाल मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा यहीं हुई होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।
आयिकाओंके नाम
इन मूर्ति-लेखोंमें भट्टारकोंके साथ या स्वतन्त्र रूपसे कुछ आर्यिकाओंके नामोंका भी उल्लेख मिलता है, जैसे ज्ञानश्री, जयश्री, त्रिभुवनश्री, लक्ष्मश्री, चारित्रश्री, रत्नश्री, शिवणी, शिवश्री, सिद्धान्ती देवी आदि ।
एक और भी तथ्य र प्रकाश पड़ता है कि आर्यिकाओंने भट्टारकोंके साथ अथवा स्वतन्त्र रूपसे भी मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी। कई आर्यिकाओंके नामके साथ सिद्धान्ती - जैसे पाण्डित्यसूचक विशेषण भी लगे हुए हैं। इससे यह प्रकट होता है कि ये आर्यिकाएँ परम विदुषी, विधि-विधानमें निष्णात और सिद्धान्त शास्त्रोंकी मर्मज्ञ थीं ।
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि प्रतिष्ठा करानेवाली इन आर्यिकाओंका नामोल्लेख बारहवीं शताब्दीको मूर्तियोंके लेखोंमें मिलता है, बादके मूर्तिलेखोंमें नहीं ।
अन्वय और गोत्र
इन मूर्ति-लेखों में प्रतिष्ठाकारकोंके अन्वयों और गोत्रोंका भी नामोल्लेख मिलता है । कुछ अन्वय और गोत्र तो बड़े विचित्र हैं; अनेक अन्वय ऐसे हैं, जो अश्रुतपूर्व हैं । मूर्ति लेखों में जो
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