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________________ १२२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अन्वय मिलते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-खण्डेलवाल, जैसवाल, मेडवाल, लमेंचू, पौरपाट, गृहपति, गोलापूर्व, गोलाराड, अवधपुरिया, गर्गराट्, माधव, महडितवाल, कुटक, अग्रवाल, ओसवाल, वैश्य, माहेश्वर, देववाल, माथुरवंश, श्रीमलयकीर्ति देवान्वय, भट्टारकान्वय, महिषण पुरवाड़ान्वय, मड़वाल, मधुक, महवर्य, भट्टारक विशालकीति अन्वय, भट्टारक सकलकीर्ति अन्वय, भट्टारक जिनचन्द्र अन्वय आदि। इनमें कुछ अन्वय तो व्यक्तियोंके नामपर हैं, जिनका उल्लेख सम्भवतः अन्यत्र नहीं मिलता। . नगरोंके नाम इन मूर्ति-लेखोंमें कुछ नगरोंके नाम भी आये हैं, जैसे--बाणपुर, वसुहाटिका, नन्दपुर । सम्भवतः ये नगर अहार ( मदनेशसागरपुर ) के निकट ही रहे होंगे। इन लेखोंमें अहारके लिए मदनेशपुर और मदनसागरपुर नामोंका भी प्रयोग किया गया है। क्षेत्र-दर्शन इस क्षेत्रपर कुल मन्दिरोंकी संख्या १३ है तथा २ प्राचीन मानस्तम्भ हैं। इन मन्दिरोंमें क्षेत्रपर ७ मन्दिर हैं तथा पर्वतपर ६ मन्दरियां हैं। क्षेत्रके चारों ओर अहाता बना हुआ है। . मन्दिर और धर्मशाला इसी अहातेके अन्दर हैं। मन्दिर नं. १ प्रथम मन्दिर सबसे प्राचीन है। यह भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर कहलाता है। इस मन्दिरका निर्माण श्री गल्हणने मदनेशसागरपुरमें कराया था। इन्होंने नन्दपुर नामक नगरमें भी एक शान्तिनाथ जिनालय बनवाया था। मदनेशसागरपुरके जिनालयमें श्री गल्हणके श्री जाहड़ और श्री उदयचन्द्र नामक पुत्रोंने भगवान् शान्तिनाथका बिम्ब स्थापित किया और संवत् १२३७ में अगहन सुदी ३ शुक्रवारको उसकी प्रतिष्ठा करायी। इस विशाल मूर्तिकी रचना वाल्हणके पुत्र पापट शिल्पीने की थी। पहले यह मन्दिर बाहरसे छोटा दिखाई पड़ता था, किन्तु भीतर ६ फुटकी गहराई होनेके कारण काफी विशाल था। प्रवेशद्वार दो थे। प्रथम द्वारके बाहर एक सुन्दर पैरकार था। इसके आजू-बाजू और बीचमें तीन बड़े कमरे थे। दक्षिण बाजूके कमरेमें एक तलहट था । मन्दिरके दोनों पाव भागोंमें २-२ तथा पश्चिममें १ गन्धकुटी थीं। इस मन्दिरके तीन ओरके दालान गिर पड़े थे। उनकी खुदाई करनेपर २९ मनोज्ञ प्रतिमाएं निकली थीं। इस मन्दिरको दशा अत्यन्त खराब हो गयी थी। अतः इसका जीर्णोद्धार जैन समाजके विख्यात साहू शान्तिप्रसादजी की ओरसे हुआ। मन्दिरमें विशाल हॉल और मध्यमें गर्भगृह है। गर्भगृहमें भगवान् शान्तिनाथकी स्वर्णवर्णवाली खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना १८ फुट है। हाथकी हथेलीपर सुन्दर कमल बना हुआ है। चरणोंके दोनों ओर चमरेन्द्र विनत मुद्रामें खड़े हैं। चरणचौकीपर रत्नाभरणमण्डित दो राजपुरुष या श्रेष्ठी करबद्ध खड़े हैं। ये सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक जाहड़ और उदयचन्द्र हैं। आसनपर दोनों ओर दो हिरण अंकित हैं। आसनके दोनों ओर दो यक्षियोंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, किन्तु उनके अंग खण्डित हैं। इस विशाल मतिके ऊपर पन्नेकी पॉलिश की गयी थी। जब आततायियोंने यहाँके मन्दिरों और मूर्तियोंका जो निर्मम विध्वंस किया, उसमें यह मूर्ति भी नहीं बच पायी। इसका दायाँ हाथ खण्डित कर दिया गया है। नाक, पैरोंके अंगूठे आदि कई अंगोपांगोंको भी क्षति पहुँची है। बादमें कभी
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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