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________________ Y मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिर नं. १-२-६ तेरहपंथी आम्नाय, सर्राफा बाजार, लश्कर खरौआ जैन समाज, मौ. ( भिण्ड ) गोलसिंघारे जैन समाज, खैरोली ( भिण्ड ) पद्मावती पुरवार जैन समाज, एटा जैसवाल जैन समाज, मुरार ८-९-११-१७ स्व. भट्टारक चन्द्रभूषण जी, सोनागिरि सेठ गुलाबचन्द गणेशीलाल दोशी, मुरार श्री मुन्नालाल करहिया वाले ( मन्दिर खाली है) श्री गुन्दीलाल वैशाखिया झाँसीवाले श्री सोनागिरि दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी (बीसपन्थी आम्नाय, चम्पाबाग, ग्वालियर ) जैसवाल जैन समाज, राजाखेड़ा . ये सभी मन्दिर शिखर-बद्ध हैं। इनमें से मन्दिर नं. १५ ग्वालियरके भट्टारकका बनवाया हुआ है। इसका निर्माण विक्रम संवत् ८०० का बताया जाता है। यह बहुत विशाल है। इस मन्दिरमें मूलनायक भगवान् अरहनाथकी प्रतिमा है। इस मन्दिरको चहारदीवारीके अन्दर एक प्राचीन बावड़ी है। कहा जाता है कि पहले इस वापिकाका जल बड़ा स्वास्थ्यवर्द्धक था। अब भी इसका जल बड़ा स्वादिष्ट है और क्षेत्रपर जलकी 'अधिकांश आवश्यकताको पूर्ति इसी वापिका द्वारा होती है। इसी मन्दिरमें भट्टारकजीकी गद्दी थी। इस मन्दिरके बगल में से होकर पहाड़के ऊपर जानेका पक्का मार्ग है। पहाड़पर कुल ७७ जैन मन्दिर हैं। प्रत्येक मन्दिरके ऊपर मन्दिरकी क्रम संख्या पड़ी हुई है तथा प्रत्येक मन्दिरमें वहाँके मूलनायक भगवान्को अध्यं चढ़ानेका पाठ भित्तिपर लिखा हुआ है। प्रत्येक मन्दिर तक पहुंचनेके लिए पक्का मार्ग बना हुआ है। प्रत्येक मन्दिरमें विद्युत्को व्यवस्था है। पहाड़ी अधिक ऊँची नहीं है। पहाड़ोके चारों ओर परिक्रमा-पथ बना हुआ है। उसके चारों कोनोंपर चार छत्रियाँ हैं, जिनमें चरण-चिह्न बने हुए हैं, यह परिक्रमा-पथ ही क्षेत्रकी सीमा-रेखा है । यह सीमा-रेखा पहाड़पर जैनोंके स्वामित्व और अधिकारकी रेखा है। पहाड़के किसी ऊँचे स्थलपर खड़े होकर देखें तो पहाड़पर शिखरबद्ध मन्दिरोंकी श्रृंखला, शिखरोंपर सूर्यके प्रकाशमें चमकते हुए कलश और उनके ऊपर लहराती हुई ध्वजाएँ बड़ी मनोरम और मनोमुग्धकारी प्रतीत होती हैं। मन्दिरोंको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कोई पर्वताकार पुरुष गलेमें मन्दिरोंकी श्वेत मुक्तमाल पहनकर खड़ा हो। मेलेके दिनोंमें तो यहाँकी छटा और भी मनोहर लगने लगती है, जब रात्रिमें विद्युत् प्रकाशसे सारा पर्वत जगमगा उठता है। भक्ति-विह्वल स्त्री, पुरुष और बच्चे भक्तिगान और जयघोष करते हुए परिक्रमा-पथ पर चलते हैं तो यहाँका दृश्य एक अद्भत स्वप्नलोक-सा प्रतीत होता है और यहाँके वातावरणमें एक अलौकिक उल्लास, भक्ति और अध्यात्मका अद्भुत सौरभ भर जाता है। यह सिद्धक्षेत्र है, भक्तोंके मनका यह विश्वास ही यहां आनेपर उन्हें एक दिव्य पुलकसे भर देता है। यहाँका मन्दिर नं. ५७ मुख्य मन्दिर है। यह चन्द्रप्रभ मन्दिर है और इसमें मूलनायक भगवान् चन्द्रप्रभ हैं। यह मूर्ति विशाल, भव्य और अतिशयसम्पन्न है। इस पर्वतपर चन्द्रप्रभ भगवान्की इस विशालकाय मूर्तिको मूलनायकके रूपमें विराजमान करना सोद्देश्य है। नंग-अनंगकुमारके चरितमें ऊपर बताया जा चुका है कि भगवान् चन्द्रप्रभका समवसरण इस पर्वतपर आया ३-८
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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