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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तोय
अतिशय क्षेत्र
बहुत समयसे कुण्डलपुर एक अतिशय क्षेत्रके रूपमें विख्यात है। यहाँके बड़े बाबाके चमत्कारोंके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है, एक मुगल बादशाहने कुण्डलपुरपर आक्रमण कर दिया। जब उसने 'बड़े बाबा' के हाथको तोड़नेके लिए हथौड़ेसे प्रहार किया तो प्रतिमाके खण्डित अँगूठेसे दूधको धारा बह निकली। उसी समय उसकी सेनापर मधुमक्खियोंने भीषण आक्रमण कर दिया, जिससे सेना वहाँसे अपनी जान बचाकर भाग गयी।
___ इसी प्रकार किंवदन्ती है कि यहाँ केशरकी वर्षा कई बार हुई है। रात्रिमें देवगण पर्वतके मन्दिरोंमें पूजनके लिए आते रहे हैं। कहा जाता है कि उनके गीत-वाद्यकी मधुर ध्वनि अनेक लोगोंने सुनी है। अनेक जैन और जेनेतर व्यक्ति यहाँ मनोकामना-पूर्तिके निमित्त आते हैं और अनेक लोगोंकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। ऐसो किंवदन्तियोंके कारण यह अतिशय क्षेत्र माना जाता है। महाराज छत्रसाल द्वारा जीर्णोद्धार
इस क्षेत्रके प्रति इतिहासप्रसिद्ध महाराज छत्रसाल विशेष रूपसे आकृष्ट हुए थे, इस प्रकारके प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं । घटना १७वीं-१८वीं शताब्दीके मध्यकी है। भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति, जो मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके थे, अपनी शिष्यमण्डलीसहित हिण्डोरिया पधारे। वे देवदर्शन किये विना आहार ग्रहण नहीं करते थे। आसपास कहीं जैन मन्दिर नहीं था। तभी उन्हें लोगोंसे कुण्डलपुरका परिचय मिला जो वहांसे १९ कि. मी. दूर था। वे एक भीलको लेकर कुण्डलपुर पहुंचे। उस समय यह क्षेत्र उपेक्षित दशामें पड़ा हुआ था। इसकी दुर्दशा देखकर भट्टारकजीको बड़ा खेद हुआ। किन्तु जब भगवान् आदिनाथकी इस अतिशयसम्पन्न विशाल मूर्तिके दर्शन उन्होंने किये तो उन्हें अत्यन्त आह्लाद हुआ। तभी उनकी आज्ञा लेकर उनके शिष्य श्री शुभचन्द गणीने क्षेत्रके उद्धारका बीड़ा उठाया। कुछ समय बाद उनका देहावसान हो गया। तब उनके गुरुबन्धु श्री ब्र. नेमिसागरजीने उनके अधूरे कार्यको पूरा करनेका संकल्प किया।
एक बार महाराज छत्रसाल मुगल बादशाहसे पराजित होकर कुण्डलपुर आ निकले । वहाँ उनकी भेंट ब्रह्मचारी नेमिसागरजीसे हुई। ब्रह्मचारीजीने इस हिन्दू नरेशसे क्षेत्रके जीर्णोद्धारके लिए सहायताकी याचना की। किन्तु नरेश स्वयं ही सहायताकी तलाशमें थे। फिर भी उन्होंने यह वचन दिया कि यदि वे अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लेंगे तो राज्य-कोषसे यहाँका जीर्णोद्धार करा देंगे। उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ 'बड़े बाबा' के दर्शन किये और प्रच्छन्न रूपसे कुछ समय तक यहीं रहे।
... इसके कुछ दिनों पश्चात् मुगल सेनासे महाराज छत्रसालकी मुठभेड़ हुई। उस युद्ध में विजयश्री वीर छत्रसालको प्राप्त हुई। उन्हें खोया हुआ राज्य मिल गया। उन्हें अपना वचन स्मरण था। उन्होंने यहाँके वर्धमानसागरके चारों ओर पक्का घाट बनवाया और मन्दिरका जीर्णोद्धार कराया। जीर्णोद्धारका कार्य पूरा होनेपर माघ शुक्ला १५ सोमवार वि. सं. १७५७ को पंचकल्याणक प्रतिष्ठाका विशाल समारोह किया। इस समारोहमें महाराज स्वयं भी पधारे थे। इस अवसरपर उन्होंने मन्दिर में सोने-चांदीके छत्र, चमर और पूजाके बरतन भेंट किये, जो अब तक मन्दिरमें वर्तमान बताये जाते हैं। उन्होंने मन्दिरके लिए पीतलका दो मनका एक घण्टा भी भेंट किया।