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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
(२) मूर्तियाँ मूलतः ये ही रही हों किन्तु किसी कारणवश पीठासन कभी बदले गये हों । यदि ऐसी कोई सम्भावना भी हो, तो यह बात आततायियोंके आक्रमणके बादकी ही हो सकती है । तथ्य कुछ भी हो, यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इधर की दो-तीन शताब्दियोंमें मूलनायकके गर्भगृहमें कई महत्त्वपूर्णं परिवर्तन किये गये हैं । उदाहरणत: इस गर्भगृहकी दीवारोंपर जिस ढंग से प्रतिमाएँ लगी हुई हैं, उसमें कोई व्यवस्था या योजना नहीं मालूम पड़ती है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँसे ५ कि. मी. दूरस्थ वरंट नामक स्थानसे, ये मूर्तियाँ, वहाँका मन्दिर ध्वस्त हो जाने पर लाकर यहां विराजमान की गयी हैं ।
Saran मूलनायक भगवान्की जो स्थिति है, उसे देखते हुए अवश्य आश्चर्य होता है कि इस मन्दिरको उपर्युक्त शिलालेख में वर्धमान मन्दिर अथवा सन्मति - मन्दिर क्यों लिखा गया है और यह कि परम्परागत अनुश्रुति के अनुसार मूलनायक प्रतिमाको महावीरकी प्रतिमा क्यों कहा जाता है, जबकि प्रतिमाकी चरण-चौकीपर महावीर तीर्थंकरका लांछन सिंह या अन्य कोई प्रतीक अंकित नहीं है । चरण-चौकीपर दोनों पावोंमें दो सिंह अवश्य उकेरे गये हैं किन्तु ये चौबीसवें तीर्थंकरके लांछन या प्रतीक नहीं हैं, अपितु ये सिंहासन के सिंह हैं, जैसे कि प्रायः अन्य सभी प्रतिमाओं की चरण-चौकीपर अंकित मिलते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे ठोस आधार हैं जो बड़े बाबाको महावीर - मूर्ति मानने की मान्यताके विरुद्ध पड़ते हैं । प्रथम तो यह कि मूर्ति के कन्धेपर जटाओं की दो-दो लटें लटक रही हैं । सामान्यतः तीर्थंकर मूर्तियोंके केशकुन्तल घुंघराले और छोटे होते हैं, उनके जटा एवं जटाजूट नहीं होते । किन्तु भगवान् ऋषभदेवकी कुछ प्रतिमाओंमें प्रायः इस प्रकार के जटाजूट अथवा जटा देखनेमें आती है । ऋषभदेव प्रतिमाओंका यह जटायुक्त रूप शास्त्रसम्मत भी है । आचार्य जिनसेनने 'हरिवंश पुराण' में ऋषभदेव के जटायुक्त मनोहर रूपके सम्बन्धमें जो प्रशंसापरक उद्गार प्रकट किये हैं, वे ध्यान देने योग्य हैं और मूर्ति - शिल्पमें उसका विशेष महत्त्व है । सम्बद्ध श्लोक इस प्रकार है
सप्रलम्बजटाभारभ्राजिष्णुजिंष्णुराबभौ ।
रूढप्रारोहशाखाग्रो यथा न्यग्रोधपादपः ॥९-२०४
अर्थात्, लम्बी-लम्बी जटाओंके भारसे सुशोभित आदिनाथ जिनेन्द्र उस समय ऐसे वटवृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे, जिसकी शाखाओंसे जटाएँ लटक रही हों ।
इसी प्रकार आचार्य रविषेणने पद्मपुराण ( ३।२८८ ) में भगवान्की जटाओंका वर्णन किया है । इनकी बातका समर्थन अन्य आचार्योंने भी किया है। किन्तु किसी अन्य तीर्थंकरकी जटाओं का कोई वर्णन किसी ग्रन्थमें नहीं मिलता । ऋषभदेवके तपस्यारत रूपमें जटाओंका होना अपवाद है । यही कारण है कि ऋषभदेवके अतिरिक्त अन्य किसी तीर्थंकर मूर्तिके सिरपर जटाभार नहीं मिलता। केवल ऋषभदेवकी अनेक मूर्तियोंके सिरपर नानाविध जटाजूट, जटागुल्म और जटाएँ प्राप्त होती हैं । कुण्डलपुरके बड़े बाबा के कन्धेपर भी जटाएँ लहरा रही हैं । अतः यह मूर्ति निस्सन्देह ऋषभदेवकी है, महावीरकी नहीं ।
दूसरा कारण और भी प्रबल और स्पष्ट है, जिससे इसे ऋषभदेवकी मूर्ति स्वीकार करने के सिवा अन्य कोई चारा नहीं है। इसकी वेदोके अग्रभागमें भगवान् ऋषभदेवके यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी बने हुए हैं।
ये दोनों ही कारण और तर्क इतने पुष्ट हैं, जिनसे बड़े बाबाकी मूर्ति महावीरकी न होकर ऋषभदेवकी सिद्ध होती है ।