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________________ कुण्डलपुर मार्ग और अवस्थिति कुण्डलपुर क्षेत्र मध्यप्रदेशके दमोह जिलेमें अवस्थित है। यह बीना-कटनी रेल-मार्गके दमोह स्टेशनसे ईशान कोणमें ३५ कि. मी. और दमोह-पटेरा रोडपर पटेरासे ५ कि. मी. दूर है। सड़क पक्की है। कटनीसे सगौनी होकर भी जा सकते हैं। कुण्डलपुर एक छोटा-सा ग्राम है। इसका पोस्ट ऑफिस कुण्डलपुर ही है। यहाँके मन्दिर एक गोलाकार छोटी पहाड़ीके उत्तरी सिरेपर अवस्थित हैं। ___कुण्डलपुर समुद्री सतहसे तीन हजार फुट ऊंची पर्वतमालाओंसे घिरा हुआ है। यहांकी पर्वतमाला कुण्डलाकार है। सम्भवतः इसीलिए इस स्थानका नाम कुण्डलपुर पड़ गया प्रतीत होता है। यहाँके दृश्य अत्यन्त मनोरम हैं। मध्यमें वर्धमान सागर नामक एक विशाल सरोवर है तथा उसके तीन ओर पर्वतपर और चौथी ओर किनारेपर भी मन्दिरोंकी पांत है। सरोवरपर पक्का घाट होनेके कारण यह स्थान अत्यन्त सन्दर बन गया है। पहाडपर जानेके लिए तीन मार्ग हैं। पहले और दूसरे मार्गसे पांच सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं तथा तीसरा मार्ग मन्दिरोंके बीचसे होकर जाता है। इस मार्गसे उतरने-चढ़नेमें कोई कठिनाई नहीं होती। यहाँका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त चित्ताकर्षक एवं आह्लादक है। कुण्डलपुरके बड़े बाबा यहाँ पर्वतके ऊपर और नीचे तलहटीमें मन्दिरोंकी कुल संख्या ६० है। इनमें से मुख्य मन्दिर 'बड़े बाबा' का मन्दिर कहलाता है। यह पहाड़पर मन्दिर नं. ११ है। बडे बाबाकी मति पदमासन है। इसकी ऊँचाई १२ फुट ६ इंच तथा चौड़ाई ११ फुट ४ इंच है। इस मूर्तिको आम जनतामें महावीर भगवान्की मूर्तिके रूपमें मान्यता प्राप्त है। यह धारणा शताब्दियोंसे चली आ रही है, ऐसा लगता है। बड़े बाबाके मन्दिरमें संवत् १७५७ का एक शिलालेख है। उसमें मन्दिरके सन्दर्भ में श्लोक नं. २ तथा १० में 'श्रीवद्धंमानस्य' और 'श्री सन्मतेः' दिया हुआ है, जिसका आशय यह है कि उस कालमें अर्थात् १७वीं-१८वीं शताब्दीमें यह मन्दिर. महावीर मन्दिर कहलाता था। इससे यह स्पष्ट है कि इस मन्दिरको मूलनायक प्रतिमा भगवान् महावीरकी होगी और उसके कारण ही यह मन्दिर महावीर मन्दिर कहलाता होगा। सम्भवतः 'बड़े बाबा' की यह मूर्ति ही उस कालमें महावीरकी मूर्ति कहलाती होगी। ध्यानपूर्वक देखनेसे प्रतीत होता है कि बड़े बाबा और पाश्ववर्ती दोनों पार्श्वनाथ-प्रतिमाओंके सिंहासन मूलतः इन प्रतिमाओंके नहीं हैं। बड़े बाबाका सिंहासन दो पाषाण-खण्डोंको जोड़कर बनाया गया प्रतीत होता है। इसी प्रकार पाश्वनाथ-प्रतिमाओंके आसन किन्हीं खड्गासन प्रतिमाओंके अवशेष-जैसे प्रतीत होते हैं। इससे दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-(१) पीठासन अपने मौलिक रूपमें हों किन्तु उनके ऊपरकी मूर्तियाँ अन्य विराजमान कर दी गयी हों।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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