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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ महाराज छत्रसाल द्वारा किये गये जीर्णोद्धार और उपकरणादि भेंट किये जानेके बारे में एक शिलालेख भी मिलता है जो मन्दिरके प्रवेश-द्वारपर अब भी लगा हुआ है। इस शिलालेखमें कुल २४ पंक्तियां हैं। यह लेख संवत् १७५७ माघ सुदी १५ सोमवार (३१ दिसम्बर सन् १७०० सोमवार ) को उत्कीणं किया गया था। इस शिलालेखमें कुन्दकुन्दान्वयमें हुए यशःकीर्ति, ललितकीर्ति, धर्मकीति, पद्मकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारकोंका उल्लेख करके बताया गया है कि उनके शिष्य शुभचन्द्र गणी हुए जिन्होंने इस स्थानको जीर्ण-शीणं देखकर भिक्षावृत्तिसे एकत्रित धनसे इसका जीर्णोद्धार कराया। पश्चात् उनके शिष्य ब्र. नेमिसागरने वि. सं. १७५७ माघ सुदी १५ सोमवारको सब छतोंका काम पूरा किया। भट्टारकोंको यह परम्परा बलात्कारगण जेरहट-शाखाकी है । इस शाखाका प्रारम्भ १५वीं शताब्दीमें हुआ था। क्या यह क्षेत्र निर्वाण-क्षेत्र है ? ..
आचार्य यतिवृषभ विरचित्त 'तिलोयपण्णति' में निम्नलिखित गाथा आयो है"कुण्डलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो ॥” ४।१४७९ अर्थात् , केवलज्ञानियोंमें सबसे अन्तिम श्रीधर हुए जो कुण्डलगिरिसे मुक्त हुए।
श्रीधर मनि केवलियोंकी परम्परामें अन्तिम अननबद्ध केवली थे. क्योंकि इससे पर्वको दूसरी गाथामें 'तत्थ वि सिद्धिपयण्णे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा' इस वाक्य द्वारा यह सूचित किया है कि जम्बू स्वामीके बाद कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ। श्रीधर मुनिका उल्लेख इसके बाद हुआ है। इसलिए अध्याहार द्वारा यह अर्थ निकलता है कि वे अन्तिम अननुबद्ध केवली थे। भगवान् महावीरके समवसरणमें जो ७०० केवली थे, उनमें ३ अनुबद्ध और शेष अननुबद्ध केवली थे, और श्रीधर उनमें सबसे अन्तिम थे।
____ उपर्युक्त गाथाके आधारपर कुछ विद्वान् प्रस्तुत कुण्डलपुरको श्रीधर केवलीको निर्वाण-भूमि मानकर उसे निर्वाण-क्षेत्र बताते हैं। यह वस्तुतः विचारणीय है। श्रीधर मुनिको निर्वाण-भूमि कौन-सी है, अब तक इस ओर ध्यान प्रायः कम गया है और तत्सम्बन्धी उल्लेख केवल शास्त्रोंमें दिखाई पड़ता है, किन्तु उनकी निर्वाण-भूमिका निर्णय नहीं हो पाया।
आचार्य पूज्यपादकृत संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें एक श्लोक मिलता है जो अवश्य विचारणीय प्रतीत होता है। वह श्लोक इस प्रकार है
द्रोणीमति-प्रबल कुण्डल-मेढ़के च, वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे। ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि-वलाहके च, विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ॥
इस श्लोकमें 'प्रबल कुण्डल मेढ़के च' इस पदका अर्थ आचार्य प्रभाचन्द्रने "क्रियाकलाप' में 'प्रबल कुण्डले प्रबल मेढ़ के च' दिया है, जिसका अर्थ है श्रेष्ठ कुण्डलगिरि और श्रेष्ठ मेदगिरि। इस श्लोकमें कई सिद्ध तीर्थों का नामोल्लेख किया गया है, यथा द्रोणिमान्, कुण्डलगिरि, मेढ़गिरि, वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलगिरि, बलाहक, विन्ध्यगिरि, पोदनपुर और वृषदीपक । इनमें कुण्डलगिरिका उल्लेख द्रोणिमान् पर्वतके पश्चात् और मेढ़ गिरिसे पूर्व किया गया है। उसके पश्चात् राजगृहके चार पर्वतोंका उल्लेख किया गया है जिनके नाम हैं-वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलाचल और बलाहक । सम्भवतः राजगृहीका पांचवां पर्वत निर्वाण-भूमि नहीं रहा है, इसलिए उसका उल्लेख यहां नहीं किया गया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कुण्डलगिरि भी सिद्ध क्षेत्र था तथा तिलोयपण्णत्ति, जयधवला आदि ग्रन्थोंके अनुसार वहांसे श्रीधर केवली मुक्त हुए जो महावीर भगवान्के अन्तिम अननुबद्ध केवली थे।