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________________ २०९ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ त्रिपुरी अवस्थिति त्रिपुरी भारतकी प्राचीन नगरियोंमें एक महत्त्वपूर्ण नगरी है। हैमकोषमें इसका अन्य नाम चेदि नगरी भी मिलता है। यह नगरी चेदिके कलचुरि-नरेशोंकी राजधानी थी। हिन्दू और जैन पुराणोंमें भी चेदि देशके उल्लेख मिलते हैं। महाभारत और रामायण आदि प्राचीन साहित्यसे ज्ञात होता है कि बुन्देलखण्डके. दक्षिण और पूर्वका प्रदेश पहले यादववंशी राजाओंके अधिकारमें था। इनकी राजधानी माहिष्मती थी। सहस्रार्जुन यहींका प्रतापी नरेश था। उसके वंशज आगे चलकर हैहयवंशी कहलाने लगे। हैहयवंश आगे चलकर कई शाखाओंमें विभक्त हो गया। महाभारत कालमें माहिष्मतीमें राजा नील राज्य करता था। इस वंशका एक अन्य नरेश शिशुपाल था। सम्भवतः इस शाखाकी राजधानी त्रिपुरी थी। यह शाखा इतिहासमें चेदिके कलचुरि नामसे प्रसिद्ध है। जैन मान्यतानुसार ऋषभदेव भगवान्ने जिन ५२ जनपदोंकी स्थापना की थी, उनमें चेदि नामका भी एक जनपद था। वर्तमान इतिहासमें चेदिकी प्रसिद्धि ९वीं-१०वीं शताब्दीमें उसके राजनैतिक महत्त्वके कारण हुई । इस कालमें चेदि देशको राजधानी त्रिपुरी थी। आजकल त्रिपुरीका नाम तेवर है जो वर्तमानमें एक छोटा गांव रह गया है। यह बम्बई-रोडको दक्षिण दिशामें जबलपुरसे पश्चिममें ९ कि. मी. दूर है। इतिहास १०वीं-११वीं शताब्दीमें चेदिके शासक कलचुरिवंशी नरेश थे। इस कालमें जबलपुरके आस-पासका प्रदेश दहल कहलाता था। कलचुरि कोकल द्वितीयके पुत्र गांगेयदेवके शासन-कालमें त्रिपुरीकी शक्ति और प्रतिष्ठा आकाशको छूने लगी थी। इस नरेशने अपने जीवन में अनेक युद्ध किये और अपने साम्राज्यका चारों ओर विस्तार करके 'विक्रमादित्य' की गौरवपूर्ण उपाधि धारण की। उसने परमार भोज और राजेन्द्र चोलसे सन्धि करके चालुक्य जयसिंह द्वितीयके राज्यपर आक्रमण कर दिया। सन् १०१९ के एक शिलालेखसे ज्ञात होता है कि चालुक्य-नरेशने इन सबको युद्धमें भगा दिया। इसके पश्चात् गांगेयदेवने कोसल-नरेश सोमवंशी महाशिवगुप्त ययाति और उत्कल-नरेशको जीतकर 'त्रिकलिंगाधिपति' का विरुद धारण किया। तत्पश्चात् उसने बघेलखण्ड और बनारसको अपने राज्यमें मिलाया। सन् १०३४ में महमूद गजनवीके पंजाब प्रदेशके गवर्नर अहमद नियालगीतने बनारसपर आक्रमण किया और अपार सम्पत्ति लूट ले गया। गांगेयदेवने इसका प्रतिशोध किरदेश ( वर्तमान कांगड़ा घाटी ) को मुसलमानी आधिपत्यसे मुक्त करके लिया। गांगेयदेवके स्वर्ण, रजत और तांबेके सिक्के बहुत बड़ी संख्यामें मिलते हैं। कुम्हींमें प्राप्त एक ताम्रलेखके अनुसार उसकी मृत्यु १५० पलियोंके साथ प्रयागमें अक्षयवटके नीचे हुई बतायो जाती है। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र लक्ष्मीकर्ण ( कर्णके नामसे विख्यात ) हुआ। उसने अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण सन् १०४१ में किया। इसके पश्चात् कर्णने त्रिपुरी राज्यके प्रभाव, प्रतिष्ठा और समृद्धिका खूब विस्तार किया। उसने बनारस जीता, राढ (पश्चिम बंगाल) पर विजय प्राप्त की, प्रतिहार यशपालसे प्रयाग छीना और किरदेशमें जाकर मुसलमानोंको हराया। उसने पालवंशी नरेश नयपालसे सन्धि करके ३-२७
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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