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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
उसके युवराज विग्रहपाल तृतीयके साथ अपनी पुत्री योवनश्रीका विवाह कर दिया। इस बात की पुष्टि उसके सन् १०४८ के रीवा - शिलालेख से भी होती है । इसके बाद उसने कलिंगको रौंद डाला, चोल राजेन्द्रसे काँची विषय छीन लिया । नोलम्बबाड़ीके पल्लव, सलेमके कुंग, मलावार - तटवर्ती यूरल और मदुराके पाण्ड्य नरेशोंको उसके चरणोंमें अपने मुकुट झुकाने पड़े । चालुक्य सोमेश्वर प्रथमको उसने करारी पराजय दी। रीव शिलालेखके अनुसार उसकी दक्षिण- विजय सन् १०४८
समाप्त हुई । सन् १०५१ में उसने चन्देल कीर्तिवर्मनको हराकर बुन्देलखण्डपर अधिकार कर लिया । किन्तु कुछ समय पश्चात् चन्देल - नरेश के सामन्त गोपालने उससे बुन्देलखण्ड छीन लिया । फिर कर्णने मालवा के उत्तर-पश्चिम में स्थित हूण- मण्डलपर आक्रमण किया। उसने चालुक्य भीम प्रथमके साथ मिलकर परमार नरेश भोजपर पूर्व और पश्चिमकी ओरसे आक्रमण कर दिया । इसी बीच सन् १०५५ में भोजकी मृत्यु हो गयी और इन दोनोंने मालवापर अधिकार कर लिया । यह अधिकार थोड़े ही समय तक रहा। बादमें उसका झगड़ा भीमके साथ हो गया । भीमने उससे भोजकी सुनहरी मण्डपका, हाथी और घोड़े छीन लिये । कुम्हींके ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि कर्ण कर्णावती नगर बसाया था । कर्णावती ही अब कारीतलाई कहलाती है ।
इस प्रकार कर्ण जीवन-भर युद्ध करता रहा, किन्तु प्रयागको छोड़कर उसे कोई विशेष भौतिक लाभ नहीं हुआ। उसने 'त्रिकलिंगाधिपति' का विरुद धारण किया, जबलपुरके निकट एक नये नगर की स्थापना की और हूण परिवारकी अवल्लदेवी के साथ विवाह किया, जिससे यशःकर्णका जन्म हुआ । सन् १०७३ में उसने अपने पुत्रके लिए राजगद्दी छोड़ दी ।
यशः कर्ण अपने पिताके समान वीर नहीं था । उसके ऊपर चालुक्य जयसिंह और गाहड़वाल चन्द्रदेवने आक्रमण करके बनारस और प्रयाग छीन लिये । परमार लक्ष्मणदेवने उसकी राजधानी त्रिपुरीपर अधिकार करके रीवांमें कुछ समय तक पड़ाव भी डाला । इन आक्रमणोंके कारण त्रिपुरीका कलचुरि राज्य बहुत निर्बल हो गया ।
बारहवीं शताब्दी के प्रथम चरणमें उसका पुत्र गयकर्ण राजसिंहासनपर आरूढ़ हुआ । आचार्यं मेरुतुंगने 'कुमारपाल प्रतिबोध' में लिखा है
'दहलके नरेश कर्ण ( गयकणं ) ने गुजरात- नरेश कुमारपालपर बड़ी भारी सेना लेकर आक्रमण कर दिया । इस आक्रमणके दौरान कर्ण एक रात हाथीपर सो रहा था। हाथी चला जा रहा था । उसके गलेका हार एक वृक्षकी शाखामें उलझ गया जिससे कर्ण के प्राण-पखेरू उड़ गये ।' सन् ११५५ में उसका बड़ा पुत्र नरसिंह गद्दीपर बैठा। फिर सन् १९५९ और १९६७ के बीच उसका छोटा भाई जयसिंह त्रिपुरीका शासक हुआ। उसने तुकं खुसरू मलिकके आक्रमणका वीरता के साथ मुकाबला किया और उसे असफल कर दिया । सन् १९७७ और १९८० के बीच उसका पुत्र विजयसिंह शासनारूढ़ हुआ । यह कलचुरि - वंशकी त्रिपुरी - शाखाका अन्तिम नरेश था । इस राजाके उपलब्ध शिलालेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि वह सन् १२११ तक दहलमण्डल और बघेलखण्ड के ऊपर अपना अधिकार बनाये रखनेमें सफल रहा। किन्तु एक वर्षके भीतर ही चन्देल त्रैलोक्य वर्मनने उसे बघेलखण्ड से और सम्भवतः दहल -मण्डल से भी खदेड़ दिया । इसके पश्चात् त्रिपुरीका राजनैतिक महत्त्व सम्भवतः समाप्त हो गया । कलचुरि - शासनका अन्त होनेपर दहल - मण्डल चन्देल नरेश त्रैलोक्य वर्मनके एक पौत्र हम्मीर वर्मनके राज्यमें मिल गया। उस समय उसकी राजधानी काकरेदिल ( वर्तमान काकेरी, जो पन्ना और रीवाँकी सीमा
१. The struggle for Empire, pp. 61-64, Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay.