________________
मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१११
पर स्थित है ) में बनायी गयी। हम्मीर वर्मनका एक शिलालेख सन् १३०८ का मिलता है । सन् १३०९ में अलाउद्दीन खिलजीने दमोह जिला उससे छीन लिया। इसके पश्चात् दहल - मण्डलका प्रभाव भी समाप्त हो गया ।
यद्यपि त्रिपुरीका वास्तविक इतिहास कलचुरि कालसे प्रारम्भ होता है, तथापि इससे पूर्व भी यह एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । रामायण में वर्णित त्रिपुरा नामक राक्षसका वध कदाचित् यहीं हुआ था । यहाँपर ईसासे तीन शताब्दी पूर्वके पाये हुए सिक्कोंमें रेवाकी मूर्ति मिलती है । ईसाकी ५वीं - ६ठी शताब्दी तक यहाँ परिव्राजक और उच्चकल्प राजाओंका शासन रहा । वाकाटकोंने भी इसपर शासन किया ।
त्रिधर्मोकी त्रिवेणी
यहाँ बौद्ध, हिन्दू और जैन, तीनों धर्मोके मन्दिर, मूर्तियां अथवा उनके अवशेष प्राप्त होते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि यह नगरी तीनों धर्मोकी क्रीडा-स्थली रही है ।
बौद्ध धर्म
चीनी यात्री ह्वेन्त्सांगने त्रिपुरीका उल्लेख करते हुए अपने यात्रा-विवरणमें लिखा है कि त्रिपुरीका राजा क्षत्रिय है और वह बौद्धधर्मका अनुयायी है। त्रिपुरी तथा उसके निकटवर्ती, गोपालपुर में बौद्धों की तान्त्रिक मूर्तियाँ प्रचुर संख्यामें मिलती हैं। इससे लगता है कि यह वज्रयानियोंकी गुह्यसाधनाका प्रमुख केन्द्र रहा है ।
बौद्धों में तान्त्रिक प्रणालीका प्रचलन और प्रारम्भ बुद्धके आटानाटीय सूत्रके प्रवचनसे ही हो गया था । पालिके वत्यजात सूत्रसे मालूम होता है कि शाक्य मुनिके समय में गान्धारी और आवर्तनी विद्याका बड़ा प्रचार था तथा तथागतके परिनिर्वाणके बाद सौगत तन्त्रने बड़ा जोर पकड़ा था ।
यहाँ बोधिसत्त्वोंकी अनेक मुद्राओंवाली प्रतिमाएं मिली हैं। वज्रपाणिकी भी एक प्रतिमा मिली है । वज्रपाणि एक यक्ष था जो बोधिसत्त्वके पदपर पहुँच गया था । लगता है, त्रिपुरी आठवीं शताब्दीसे पूर्व तक वज्रयानियोंका महान् केन्द्र था ।
हिन्दू धर्म
कलचुरि नरेश शैव धर्मके अनुयायी थे । यद्यपि वे सभी धर्मोके प्रति उदार और सहिष्णु रहे, किन्तु शैवधर्मं को उन्होंने राजाश्रय दिया । फलतः त्रिपुरी लकुटीश पाशुपतोंकी केन्द्र बन गयी । यहाँके पाशुपत सिद्धों में सद्भाव शम्भु और सोम शम्भु अधिक प्रसिद्ध हुए हैं । इन्होंने वर्णाश्रम - व्यवस्था और जाति प्रथाका डटकर विरोध किया और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्थापर बल दिया जिसमें शूद्र और उच्च वर्णके लोगोंमें किसी प्रकारका अन्तर न रहे ।
त्रिपुरीके निकटवर्ती भेड़ाघाटमें चौंसठ योगिनी मन्दिर, गोलकी मठ तथा बिलहरीमें नोहलेश्वरका मन्दिर पाशुपत सम्प्रदायके तत्कालीन प्रभावके द्योतक हैं। चौंसठ योगिनियोंकी मूर्तियों पर लिखे हुए नामे देवी भागवत, चामर तन्त्र आदि पुस्तकोंमें नहीं पाये जाते । ये मत्तमयूर १. चौंसठ योगिनी मन्दिरकी योगिनी - मूर्तियों पर लिखे हुए नाम इस प्रकार हैं- सिंहासिंहा, झागिणी, कामदा, रणाजिरा, अन्तकारी,...., एरुड़ी, नन्दिनी, बीभत्सा, वाराही, मन्दोदरी, सर्वतोमुखी, थिरचित्ता, खेमुखी, जाह्नवी,...., ओडारा.... यमुना, ..., ....पाण्डवी, नीलडम्बरा, ...., तेरम्बा, शण्डिनी,