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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ३२५ पड़ती। किन्तु यह मार्ग अभी पक्का नहीं हो पाया। मान्धातामें क्षेत्रकी धर्मशाला है और बड़वाहमें पोरवाड़ जैन धर्मशाला है । ये दोनों धर्मशालाएँ मोटर स्टैण्डके निकट ही हैं। मुक्तागिरिसे आनेवालोंको खण्डवा होकर, मक्सी और बनैडियासे आनेवालोंको इन्दौरसे और पावागिरिसे आनेवाले यात्रियोंको सनावद और मान्धाता होकर यहाँ आना चाहिए। निकटवर्ती प्रदेशमें जैन साहित्यकार यह क्षेत्र खण्डवा तहसीलमें है । खण्डवा यहाँसे केवल ७७ कि. मी. है। खण्डवासे बुरहानपुर जाते हुए मार्ग में आसेरगढ़का किला मिलता है। मुगल कालमें यहाँ ब्रह्म जिनदास नामक बड़े प्रभावक भट्टारक हुए हैं। ये बड़े विद्वान् और मन्त्रवेत्ता सिद्ध पुरुष थे। इनके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियां जनतामें अब तक प्रचलित हैं। कहते हैं, बादशाहने उनकी ख्याति सूनकर परीक्षा लेनेकी. इच्छासे उन्हें बुलाया। उनके बैठनेके लिए एक चबूतरा बनवाया गया और उसके नीचे एक बकरी बंधवा दी। जब भट्टारकजी यहां पधारे और उनसे चबूतरेपर बैठनेका अनुरोध किया गया तो उन्होंने बैठनेसे इनकार कर दिया। बादशाहने इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि चबूतरेके नीचे तीन प्राणी कष्ट पा रहे हैं। बादशाहको इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने चबूतरा तुड़वाया तो देखा कि एक बकरी और उसके दो बच्चे वहां मौजूद हैं। वास्तवमें बकरी वहाँ ब्याह गयी थी। बादशाहने भट्टारकजीका बड़ा सम्मान किया। इस किलेके निकट जंगलमें इन भटटारकजीकी छत्री और.चरणचिह अब तक विद्यमान हैं। ब्रह्म जिनदास भट्टारकके सम्बन्धमें कुछ ग्रन्थों-जैसे जम्बू-स्वामी चरित, हरिवंश-पुराण आदिको ग्रन्थ प्रशस्तियोंसे कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इनके अनुसार इनके पिताका नाम कर्णसिंह था। ये पाटनमें रहते थे और हूमड़वंशी थे। माताका नाम शोभा था। परिवार अत्यन्त सम्पन्न था। जिनदास भट्टारक सकलकीतिके लघु भ्राता थे जो मूलसंघ सरस्वती गच्छके प्रसिद्ध विद्वान् थे। जिनदासके ऊपर अपने भाईके व्यक्तित्वका बड़ा प्रभाव था। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे और अपने भाईके पास जाकर उनके शिष्य हो गये । आपके जीवनका अधिकांश समय आत्मसाधना, पठन-पाठन और ग्रन्थ-निर्माणमें व्यतीत होता था। आप प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी भाषाके वेत्ता थे। आपने विहार करके अनेक स्थानोंपर मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। उपदेशों द्वारा अनेक भव्य लोगोंका कल्याण किया। आपने अनेक ग्रन्थोंका निर्माण किया, जिनमें अधिकांश राजस्थानी भाषाका रासा साहित्य है, कुछ ग्रन्थ कथा और पूजाके हैं। उनके रासा ग्रन्थोंसे उनके कई शिष्योंका पता चलता है जैसे मनोहर, मल्लिदास, गुणदास, नेमिदास, शान्तिदास, गुणकीर्ति । ब्रह्म जिनदासका काल क्या था, यह तो ठीक ठीक ज्ञात नहीं हो पाया किन्तु भट्टारक सकलकीतिने बड़ाली नगरके चातुर्मासमें अमीझराके पाश्वनाथ मन्दिरमें ब्रह्म जिनदासके अनुरोधसे संवत् १४८१ में मूलाचार प्रदीपकी रचना की थी। कविने 'राम-रास' की रचना संवत् १५०८ में की थी। गंज-बासौदाके बूढ़ेपुरा मन्दिरमें एक मूर्ति-लेख है, जिसकी अनुसार संवत् १५१६ माघ सुदी ५ को मूलसंघके श्री सकलकीर्ति देवके शिष्य जिनदासके उपदेशसे ब्र. मल्लिदास जोगड़ा पोरवाड़ नाऊ भार्या नेई भ्राताने बड़ी प्रसन्नतासे प्रतिष्ठा करायी। इसी प्रकार कविने 'हरिवंश-रास' की रचना संवत् १५२० में की थी। इस प्रकार संवत् १४८१ से संवत् १५२० तक तो वे निश्चित रूपसे थे। किन्तु उनका निश्चित काल क्या है, यह अभी अन्वेषणीय है। इनकी भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है, इनके ग्रन्थ खण्डवा, बुरहानपुर, शाहपुर, अंभाशा, मलकापुर आदि स्थानोंके शास्त्र-भण्डारोंमें मिलते हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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