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________________ १५ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ गुप्तकालीन एक जैन मूर्ति वेसनगरसे प्राप्त हुई थी। यहाँ भरहुत स्तूपके कुछ भाग और अभिलिखित वेदिका-स्तम्भ मिले हैं. जिनपर अशोक शैलीके लेख उत्कीर्ण हैं। ये ईसा पूर शताब्दीके माने जाते हैं। यहाँ आरोहीयुक्त गज, सिंहमूर्ति, मकरवाहिनी गंगा आदि अनेकविध पुरातत्त्व सामग्री मिली है। किन्तु जैन मूर्ति या अन्य जैन सामग्री इस कालकी उपलब्ध नहीं हुई। ___ इस प्रदेशमें मध्यकालकी सामग्री विपुल परिमाणमें मिलती है । इस मध्यकालीन सामग्रीका अधिकांश परमारवंशी नरेशोंके शासन-कालकी देन है। उज्जयिनीके जैन संग्रहालय और विक्रम विश्वविद्यालयके पुरातत्त्व संग्रहालयमें स्थित जैन सामग्रीका काल ९वीं या उसके बादकी शताब्दियां हैं। यह सम्पूर्ण सामग्री उज्जैन और उसके निकटवर्ती स्थानोंसे लायी गयी है। उज्जयिनीमें क्षिप्राके दूसरे तटपर जो मण्डप बना हुआ है, उसके एक स्तम्भमें जैन मूर्ति बनी हुई है। इसमें तो सन्देह नहीं है कि यह मण्डप अत्यन्त प्राचीन है। एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है। उज्जयिनीमें भट्टारकोंकी गद्दी थी और यहां सन् ६२९ से १०५८ तक व्यवस्थित भट्टारक-परम्परा चलती रही। प्रायः भट्टारकोंकी गद्दी वहीं बनायी जाती थी, जहाँके मन्दिरकी पहलेसे प्रसिद्धि रही हो । सन् ६२९ में जब यहां भट्टारक-गद्दीकी स्थापना की गयी, उस समय यहाँ कोई जैन मन्दिर ऐसा अवश्य था. जिसकी ख्याति जनतामें बहत समयसे और दूर-दूर तक थी। हमारा अनुमान है, वह और कोई नहीं, जैनोंका ही मन्दिर था जो भगवान् महावीरके उपसर्गकी स्मृतिमें यहाँ बनाया गया था। ग्वालियर दुर्गकी मूर्तियोंका निर्माण तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह और उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंहके शासनकालमें हुआ था। डूंगरसिंहका राज्य शासन वि. संवत् १४८१ से १५१० और कीर्तिसिंहका राज्य-काल संवत् १५१० से १५३६ तक था । इन ५५ वर्षों में यहाँ मूर्तियोंके निर्माणके अतिरिक्त अनेक ग्रन्थोंका भी निर्माण हआ। अपभ्रंश भाषाके महाकवि रइध इसी कालमें हए थे। ५७ फुट ऊंची प्रतिमाकी प्रतिष्ठा उन्होंने ही करायी थी। ग्वालियर संग्रहालयमें जो जैन कला-सामग्री है, वह कला और समय दोनों ही दृष्टियोंसे उल्लेखनीय है । जिस जैन मन्दिरको मुगलकालमें मसजिद बना दिया गया था, उसमें एक कमरा जमीनके नीचे मिला है, जिसमें जैन मूर्तियां विराजमान हैं। यहाँ वि. सं. ११६५ का एक लेख भी मिला है। इससे ज्ञात होता है कि ये मूर्तियाँ भी १२वीं शताब्दीकी हैं। शिवपुरीका संग्रहालय एक प्रकारसे जैन संग्रहालय ही है। इसमें प्रायः सम्पूर्ण कला सामग्री जैनोंसे सम्बन्धित है । यह सामग्री परमारकालीन है । कला-वस्तुओं अर्थात् मूर्तियों आदिमें परमार कालकी विकसित कलाको पूर्णतः अभिव्यक्ति मिली है। ग्वालियरके निकट सिहौनियाके सम्बन्धमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि सन् २७५ में वहाँ राजा सूरजसेनकी रानी कोकनवतीने कोकनपुर मठका बड़ा जैन मन्दिर बनवाया था। अब तो वहाँ भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। जो मन्दिर वर्तमानमें वहाँ हैं, वे इतने प्राचीन नहीं लगते। अतः सम्भव है, रानी द्वारा बनवाया हुआ मन्दिर भग्न हो गया हो और इन अवशेषों में पड़ा हो। चूलगिरिमें मन्दिरके एक सभा-मण्डपमें चार शिलालेख अंकित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वि. सं. १११६,-१२२३ और १५०८ में यहाँके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया गया था। इसका अर्थ यह है कि ये मन्दिर इस कालसे कम से कम २-३ शताब्दी पूर्व में निर्मित हुए होंगे। तब इन मन्दिरोंका निर्माण काल ८-९वीं शताब्दी माना जा सकता है। पावागिरि ऊनमें राजा बल्लालने जिन ९९ हिन्दू और जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया था, उनमें से ११ मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें अब भी खड़े हैं। इनमें ३ जैन मन्दिर भी हैं। बल्लाल
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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