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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ : इस प्रदेशमें ऐसी भी मूर्तियां मिली हैं, जिनमें मध्यमें तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई हैं और उसके परिकरमें केवल नवग्रह बने हुए हैं। महाकोशलके जैन तीर्थों में बहुरीबन्द और त्रिपुरीके निकटवर्ती कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ गुप्तकालीन मन्दिर और मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। बहुरीबन्दके आसपास तिगवा, रूपनाथ, ककरहटा आदिमें मौर्यकालके अवशेष मिलते हैं। रूपनाथमें तो सम्राट अशोकका पाषाणपर उत्कीणं शासनादेश अब तक विद्यमान है। बहुरीबन्दमें खुदाईमें १७ जैन मूर्तियाँ निकली थीं। यह सम्भावना है कि यहाँ तिगवाके समान कोई गुप्तकालीन मन्दिर रहा हो । इसीके निकटवर्ती भुभारा में भी गुप्तकालका एक शिलालेख मिला है। किन्तु इन स्थानोंसे गुप्तकाल या उससे पूर्वकी कोई जैन शिल्प-सामग्री उपलब्ध नहीं हुई, जबकि हिन्दू और बौद्ध सामग्री मिलती है। यहाँसे जो जैन सामग्री मिली है, वह ९-१०वीं शताब्दी या इसके बादकी है। बहुरीबन्दकी शान्तिनाथ-प्रतिमा, जो आकारमें १३ फुट ९ इंच ऊँची और पौने चार फुट चौड़ी है, की प्रतिष्ठा कलचुरिनरेश गयकर्णदेवके शासनकालमें शक सं. १०७० (सन् ११४८) में की गयी थी। कोनीके भी मन्दिर और कुछ मूर्तियां ९-१०वीं शताब्दीकी हैं। लखनादौनमें डॉ.हीरालालजी कटनीको एक अभिलिखित द्वार-शिलाखण्ड मिला था। उससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि यहाँ ९-१०वीं शताब्दीका कोई मन्दिर अवश्य होगा। उसीका यह द्वार-शिलाखण्ड होगा। अभी कुछ समय पहले खेतमें हल जोतते हुए महावीर स्वामीको चार फुट ऊँची और सवा दो फुट चौड़ी प्रतिमा सपरिकर मिली थी। इसकी गणना प्रदेशको सर्वश्रेष्ठ प्रतिमाओंमें की जा सकती है। पाषाण, रचना-शैली आदिसे यह भी ९-१०वीं शताब्दीकी लगती है। त्रिपुरीमें उपलब्ध जैन मूर्तियोंका काल १२वीं शताब्दी माना गया है। पनागर, मढ़िया आदिको मूर्तियां उत्तरकालीन हैं । मध्यभारतका सम्पूर्ण भूभाग जैन पुरातत्त्व सामग्रीसे सम्पन्न है। सम्भवतः इस भूभागका कोई जिला ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें विपुल परिमाणमें जैन कलावशेष बिखरे हुए न हों। 'उज्जयिनी'से सम्बन्धित लेखमें हमने उज्जैनके निकटवर्ती अनेक स्थानोंकी सूची दी है, जहाँ जैन पुरातत्त्व सम्बन्धी सामग्री मिलती है। सुविधाके लिए मध्यभारतमें हमने इन्दौर, उज्जैन, धार, देवास, गुना, शिवपुरी, ग्वालियर, विदिशा आदि जिलोंको लिया है। मध्यभारतमें विशालताकी दृष्टिसे सबसे विशाल प्रतिमा बड़वानीके निकट 'बावनगजाजी' के नामसे प्रसिद्ध ८४ फुट ऊंची आदिनाथ-मूर्ति है जिसका उल्लेख संक्षेपमें हम अभी कर चुके हैं। इसके दोनों ओर यक्ष-यक्षी भी उत्कीणं हैं। उसके पश्चात् नम्बर आता है ग्वालियर दुर्गकी आदिनाथ मूर्तिका जो ५७ फुट ऊंची है। इस दुर्गकी अन्य खड्गासन और पद्मासन मूर्तियाँ भी इसी क्रममें आगे स्थान पा सकती हैं। ___मध्यभारतमें कालकी दृष्टि से सबसे प्राचीन मूर्ति विदिशामें प्राप्त तीन तीर्थंकर-मूर्तियां हैं तथा विदिशाके निकट उदयगिरि गुफा नं. २० में पार्श्वनाथकी वह मूर्ति भी है जो अब वहां नहीं है। ये चारों मूर्तियाँ गुप्तवंशके रामगुप्तके काल की हैं। इनमें चन्द्रप्रभकी मूर्तिकी चरण-चौकीके लेखमें तिथि तो नहीं दी है, किन्तु महाराजाधिराज श्री रामगुप्तका नामोल्लेख मिलता है। उदयगिरिकी गुफा नं. २० में एक तिथियुक्त अभिलेख मिला है जो उक्त पार्श्वनाथकी मूर्तिसे सम्बन्धित है। इसमें गुप्तवंशीय राजाओंके शासन कालके १०६वें वर्ष में ( ई. स. ४२६ ) कार्तिक कृष्णा ५ को गुहा-द्वार में पार्श्वनाथ-मूर्ति बनवानेका उल्लेख है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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