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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ हो सकता है। गोलाकोटकी मूर्तियोंके लेखानुसार ये वि. सं. १००० से १२०० तककी हैं। अतः इनमें कुछ मूर्तियाँ १०वीं शताब्दीकी हैं। पतियानदाईमें गुप्तकालका अथवा ९-१०वीं शताब्दीका अम्बिका देवीका एक मन्दिर जीर्णशीर्ण दशामें खड़ा हुआ है । इसमें २४ जैन देवियोंकी मूर्तियाँ एक शिलाफलकमें उत्कीर्ण हैं। उनके मध्य में अम्बिका देवीकी मूर्ति है। इसी प्रकार कारीतलाई, रखेतरा, बीना-बारहाके मन्दिरोंमें १०वीं शताब्दीमें प्रतिहार-शासन कालमें बनी हुई मूर्तियाँ मिलती हैं। ११-१२वीं शताब्दीकी जैन मूर्तियाँ-विन्ध्यप्रदेशमें इस कालकी अनेक जैन मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं । इन मूर्तियोंपर चन्देल और प्रतिहार कलाका पूरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस कालकी मूर्तियां रेशन्दीगिरि, बन्धा, अहार, पपौरा, खजुराहो, अजयगढ़, खनियाधाना, गोलाकोट, पचराई, भियादांत, बीठला, आमनचार, बुढ़ियाखो, भामौन आदि क्षेत्रोंपर प्राप्त होती हैं। उत्तरकालीन जैन मूर्तियाँ-१२वीं शताब्दीके परवर्तीकालकी मूर्तियां तो प्रायः सभी क्षेत्रोंपर उपलब्ध होती हैं। महाकोशल प्रदेशमें प्रस्तर प्रतिमाएं दो प्रकारकी उपलब्ध होती हैं-परिकरसहित और परिकररहित पद्मासन और दूसरी परिकरसहित और परिकररहित खड्गासन। परिकरसहित पद्मासन प्रतिमाओंमें सर्वश्रेष्ठ मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है जो हनुमानतालस्थित दिगम्बर जैन मन्दिरमें विराजमान है। यह मूर्ति त्रिपुरीसे लाकर यहां विराजमान की गयी है। यह कलचुरि कलाकी एक सर्वश्रेष्ठ रचना कही जा सकती है। कलापक्ष और भावपक्ष दोनों ही दृष्टियोंसे इसका परिकर इतना प्रभावक बन पड़ा है कि इस कोटि की एक भी मूर्ति इस प्रदेश में मुश्किल से मिलेगी। यह ५ फुट ऊंची और ३।। फुट चौड़ी है। . त्रिपुरीसे कलचुरि कालकी कई प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं जो वर्तमानमें नागपुर संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। कई प्रतिमाएं उपर्युक्त मन्दिर नं. ४ (हनुमानताल जबलपुर) में हैं । नागपुर संग्रहालयमें त्रिपुरीकी जो जिन प्रतिमाएं सुरक्षित हैं, उनमें एकके सिंहासन पीठपर संस्कृतमें लेख भी है, या गया है कि माथरान्वयके धौलके पत्र देवचन्द्रने संवत ९०० में यह प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी। इसी प्रकार एक प्रतिमाके लेखसे ज्ञात होता है कि वह संवत् ९५१ ज्येष्ठ सुदी तीजको प्रतिष्ठित की गयी। इन संवतोंसे प्रायः भ्रम हो जाता है । ये न शक-संवत्के सूचक हैं, न विक्रम संवत् के । अपितु ये कलचुरि संवत्के द्योतक हैं। कलचुरि संवत् ईसवी सन् २४८ में प्रारम्भ हुआ। अतः ये प्रतिमाएं १२वीं शताब्दीकी हैं। एक खण्डित प्रतिमा प्राप्त हुई है, जिसमें अलंकार धारण किये हुए स्त्री-पुरुष हैं। उनके मध्यमें एक वृक्षकी शाखा दिखाई देती है। शाखाके ऊपर सम्भवतः धर्मचक्र बना हुआ है। उ । ऊपरकी ओर आसनपर जिन-मूर्ति बनी हुई है। इस मूर्तिके दोनों ओर खड्गासन जिन मूर्तियाँ हैं। उनके बगलमें कोनों पर पद्मासन जिन-मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं। सभी प्रतिमाओंके कानोंके पास पत्तियाँ बनी हुई हैं। इस प्रकारकी जिन-प्रतिमाएं और भी मिलती हैं। कुछ विद्वान् दम्पतीको अशोककी पुत्री संघमित्रा और पुत्र महेन्द्र बताते हैं तथा वृक्षको बोधि-वृक्ष बताते हैं। उन्हें यह क्लिष्ट कल्पना क्यों करनी पड़ी, सम्भवतः इसका कारण जैनमूर्तिकलाके सम्बन्धमें उनकी अनभिज्ञता है। उन्हें यह कल्पना करते समय तीर्थंकर-मूर्तियोंका स्मरण नहीं आया। वस्तुतः यह मूर्ति पंच-बालयतियोंकी है । इनमें मुख्य प्रतिमा नेमिनाथ स्वामीकी है। स्त्री-पुरुष नेमिनाथ भगवान्को यक्षी अम्बिका तथा यक्ष गोमेद हैं। वृक्षकी शाखा आम्रवृक्ष है। आम्रवृक्ष अम्बिकाकी मूर्तियोंके साथ पाया जाता है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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