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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ इस नगरपर भी उनका अधिकार हो गया था। यहाँके तत्कालीन हिन्दू शासकने अपनी राजधानी यहाँसे हटाकर नवीन चन्देरीमें स्थापित कर ली। यह समय सम्भवतः १५वीं शताब्दी था । विजयी मुसलमानोंने इस नगरको जीतकर मन्दिरों और मूर्तियोंका भीषण विनाश किया। उन्होंने यहाँ कुछ महल और मसजिदें भी बनायों जिनके चिह्न यहाँ अब तक उपलब्ध होते हैं।
चन्देरीका सर्वप्रथम उल्लेख फारसीके इतिहासकार फरिश्ताने किया है। उसने लिखा है कि दिल्लीके नासिरुद्दीन महमूदने हिजरी सन् ६४९ ( ई. सन् १२५१ ) में चन्देरी और मालवापर अधिकार करके वहाँ सूबेदार नियुक्त कर दिया। मुहम्मद तुगलकके कालमें, सन् १३३५ में, इब्न बतूता नामक इतिहासप्रसिद्ध यात्री भारत आया था। उसने भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि-'तब हम चन्देरी शहर पहुंचे जो एक बड़ा नगर है।' इस चन्देरीसम्बन्धी सम्पूर्ण विवरणसे लगता है कि यह उल्लेख बूढ़ी चन्देरीके लिए किया गया है।
इसके पश्चात् सन् १४३४ में महमूद खिलजीने चन्देरीपर अधिकार कर लिया। इसके आगामी वर्ष चित्तौड़नरेश राणा कुम्भाने यहांके मुस्लिम सूबेदारको मार भगाया। तब महमूद यहाँ स्वयं युद्ध करने आया। वह आठ माह तक किलेपर घेरा डाले पड़ा रहा। आखिर महमूद विजयी हुआ। चूंकि इस घटनामें दुर्गकी विजयका उल्लेख है, अतः यह निश्चित रूपसे नवीन चन्देरी ( वर्तमान चन्देरी ) होनी चाहिए।
इन उल्लेखोंसे हम इस निश्चित परिणामपर पहुंच सकते हैं कि सन् १३३५ या इसके आसपास इब्न बतूताके कालमें (बढ़ी) चन्देरी सुरक्षित और सम्पन्न नगर था। किन्तु सन १४३४ में युद्धका केन्द्र वर्तमान चन्देरी नगर बन गया। इससे लगता है कि सन् १३३५ और १४३४ के बीच बूढ़ी चन्देरीका महत्त्व समाप्त हो गया और उसका विनाश कर दिया गया। हमारे विचारसे यह कार्य मालवाके स्वयम्भू सुलतानों में से किसीका हो सकता है। इस नगरकी स्थापना महोबाके चन्देल राजाओंने की थी, जिनका शासन सन् ७०० से १९८४ तक रहा।
बूढ़ी चन्देरी एक पहाड़ीपर स्थित है। बेतवाके पश्चिमी तटपर स्थित यह पहाड़ी ३०० फुट ऊंची है। यह नगर तो अब खण्डहरोंके रूपमें पड़ा है किन्तु नगरके बिखरे हुए अवशेषोंसे प्रतीत होता है कि प्राचीन कालमें यह नगर अत्यन्त समृद्ध था। यहाँ जैन शिल्प और स्थापत्यका उल्लेखयोग्य वैभव बिखरा पड़ा है। उससे लगता है कि यह कभी जैन धर्मका बहुत बड़ा केन्द्र था। शताब्दियोंसे ये कलावशेष उपेक्षित दशामें पड़े रहे, किसीका ध्यान इनकी ओर नहीं गया। किन्तु संवत् २००१ में जैन समाजने इस ओर ध्यान दिया। तब जीर्णोद्धारका कार्य प्रारम्भ किया गया। सैकड़ों मतियां जमीन खोदकर या जंगलोंमें.खोजकर प्राप्त की गयीं। यहाँको कलामें एक वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। यहाँकी मूर्तियां अलंकृत हैं। उनके अंग-विन्यासमें समानुपात है। वे अष्ट प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षीसहित हैं। उनके मुखपर ईषत् मुसकान है। मूर्तिलेख और श्रीवत्स किसी मूर्तिपर नहीं है। कुछ मूर्तियोंपर लांछन भी नहीं है। विपुल परिमाणमें ऐसी सुन्दर मूर्तियाँ देवगढ़को छोड़कर अन्यत्र दुर्लभ हैं। कुछ वर्षोंसे मूर्तियोंके सिर खण्डित किये जाने लगे हैं। यह विध्वंस-लीला यहाँ भी हुई। सैकड़ों मूर्तियाँ सिरविहीन हो गयीं। तब केन्द्रीय पुरातत्त्व विभागने अवशिष्ट मूर्तियोंको चन्देरीमें लाकर एकत्र कर दिया। शासनकी ओरसे यहाँ एक संग्रहालय बनानेकी योजना है। किन्तु अब भी खण्डित और अखण्डित अनेक मूर्तियाँ वहाँ बिखरी और दबी पड़ी हुई हैं।
प्राचीन कालमें यह तीर्थक्षेत्र रहा होगा, किन्तु अब यह कोई तीर्थ नहीं रह गया है। फिर भी हम इसे कला-तीथं अवश्य कह सकते हैं।