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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २५५ उज्जयिनी नरेश तिषेणके पुत्रका नाम चण्डप्रज्ञ था। वह अठारह लिपियोंके वेत्ता उपाध्याय कालसन्दीवसे अध्ययन करता था। उसने सत्रह लिपियां तो सीख लीं। किन्तु अठारहवीं लिपि प्रयत्न करनेपर भी नहीं सीख पाया। एक दिन उपाध्यायने क्रोधमें आकर जोर से लात मारी जो राजकुमारके सिरमें जाकर लगी। राजकुमार क्रुद्ध होकर बोला-"तुमने मेरे सिरमें लात मारी है। जब मैं राजसिंहासनपर बैलूंगा तब तलवारसे तुम्हारे इसी पैरको काटूंगा।" कालसन्दीव बोला-"कुमार, तुम राजा बनोगे और मेरे पैरमें पट्टबन्ध बांधोगे।" ____ कालसन्दीव वहाँसे चला गया और मुनिके मुखसे उपदेश सुनकर उसने मुनि-दीक्षा ले ली। कुछ ही कालमें वे समस्त सिद्धान्तके पारगामी विद्वान् हो गये। राजा धृतिषेणने भी चण्डप्रज्ञका राजतिलक करके मुनि-दीक्षा ले ली। एक बार एक यवन राजाने चण्डप्रज्ञ नरेशको यवन भाषामें पत्र भेजा, राजा इसी एक लिपिको नहीं जानता था, यहां तक कि उज्जयिनी नगर-भरमें इस लिपिका ज्ञाता कोई नहीं था। यद्यपि राजाने लेख पढ़कर उसका अर्थ तो निकाल लिया, किन्तु सामन्तोंको आदेश दिया, “तुम लोग जाओ और जहां भी मेरे गुरु कालसन्दीव मिलें, उन्हें आदरसहित यहाँ ले आओ।" सामन्त सब दिशाओंमें राज-गरुको ढूंढने निकले। उन्हें राज-गरु विन्यातटपर ध्यानलीन मिले। उन्हें देखकर सामन्तोंने निवेदन किया, "प्रभो! हम राजाकी आज्ञासे आपको लेने आये हैं। जबतक आप वहां नहीं पधारेंगे, तबतकके लिए राजाने ताम्बूलादिका त्याग कर दिया है। इसलिए आप हमारे साथ अवश्य चलिए। सामन्तोंकी प्रार्थना सुनकर कालसन्दीव उनके साथ चल दिये। जब मुनि कालसन्दीव चण्डप्रज्ञके महलोंमें पहुंचे तो राजाने हाथ जोड़कर उनकी वन्दना की, स्वयं आसन बिछाकर उसपर गुरुको बैठाया, उनके चरणोंका प्रक्षालन किया, उनके चरणोंपर सुगन्धका लेप किया और शंख-भेरी आदि वाद्योंके तुमुल नादके बीच गुरुके दोनों चरणोंमें अष्टापदयुक्त पट्टबन्ध बांधा । पुष्प आदिसे गुरु-चरणोंकी पूजा करके प्रणिपात किया और दोनों हाथ जोड़कर गुरुसे प्रार्थना की, "भगवन् ! मुझे भवोदधि पार करानेवाली जिन-दीक्षा देनेकी कृपा करें।" गुरुने उसको प्रार्थना स्वीकार करके राजाको मुनि-दीक्षा दे दी। दीक्षा लेकर मुनि चण्डप्रज्ञ घोर तप करने लगे। तपके प्रभावसे उनका शरीर कुन्द धवल हो गया। इससे गुरुने उनका नाम श्वेतसन्दीव रख दिया। गुरु-शिष्य दोनों एक बार राजगृह गये। उस समय विपुलाचलपर भगवान् महावीरका समवसरण आया हुआ था। दोनों भगवान्के दर्शन करने समवसरण पहुंचे। श्वेतसन्दीवको देखकर महाराज श्रेणिकने उनसे पूछा-"नाथ ! आपने किनसे दीक्षा ली है ? यह सुनकर मुनि श्वेतसन्दीव अपने गुरुका नाम न ले सके और बोले-"मेरे गुरु तो भगवान् महावीर हैं।" इस गुरु- निव-जैसे भयानक पापके कारण उनका चन्द्रोज्ज्वल शरीर बुझे हुए अंगारके समान हो गया। राजा श्रेणिकको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने गौतम स्वामीसे इसका कारण पूछा तो गौतम स्वामी बोले-"यह मुनि लज्जावश अपने गुरुका नाम नहीं ले सका और असत्य वचन बोला, जिससे इसका श्वेत शरीर कृष्ण हो गया।" श्वेतसन्दीवने यह सुना तो वे अपने गुरुके चरणोंमें पहुंचे और अपना अपराध निवेदन किया। गुरुने उन्हें प्रायश्चित्त दिया। प्रायश्चित्त द्वारा आत्म-शुद्धि करनेसे मुनि श्वेतसन्दीवको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उज्जयिनीसे सम्बन्धित एक पौराणिक कथा इस प्रकार है-उज्जयिनीमें लकुच नामक राजकुमारने शत्रुपर युद्ध में विजय प्राप्त की। राजाने प्रसन्न होकर उससे वरदान मांगनेके लिए कहा। कुमारने कामचार (इच्छानुसार वर्तन) वर मांगा। राजाने कहा-"तथास्तु !" वर पाकर
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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