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________________ २९६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ राजकुमार उच्छृखल हो गया। वह पंगुल श्रेष्ठोकी पत्नीसे प्रेम करने लगा। एक बार दोनों नन्दन वनमें विहार करने गये। वहां धर्मसेन मुनिसे उपदेश सुनकर लकुचने मुनि-दीक्षा ले ली। एक समय लकुच मुनि विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे और महाकाल वनमें कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानारूढ़ हो गये। पंगुल श्रेष्ठीने उन्हें देखा तो पूर्व वैरके कारण उसका शरीर क्रोधसे कांपने लगा। उसने गर्म लोह शलाकाओंसे मुनिके सारे शरीरको जला डाला, किन्तु मुनि ध्यानमें निश्चल रहे। धर्मध्यानमें उनका मरण हो गया और उनको देवगति प्राप्त हुई। इसी नगरीमें हार चुरानेके अपराधमें दृढ़सूर्य चोरको फांसीका दण्ड मिला। जब उसे फांसी दी जा रही थी तो जिनालयको जाते हुए धनदत्त श्रेष्ठीको देखकर चोरने तृषाकुल होकर पानी मांगा। श्रेष्ठीने कहा-"जबतक मैं पानी लाता हूँ, तबतक तू इस मन्त्रका जाप कर।" यों कहकर श्रेष्ठीने उसे णमोकार मन्त्र सुनाया। श्रेष्ठी जबतक जल लाया, तृषाके कारण चोरके प्राण निकल गये, किन्तु णमोकार मन्त्रके जाप्यके कारण वह कल्पवासी देव हुआ। राजाको जब ज्ञात हुआ कि धनदत्त श्रेष्ठीने फांसीका दण्ड पाये हुए अपराधीको जल पिलाया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने श्रेष्ठीका घर और सम्पत्ति लूटनेकी आज्ञा दे दी। देवने अवधिज्ञानसे यह घटना जानकर आये हुए सैनिकोंको संज्ञाहीन कर दिया। तब राजा बहुत बड़ी सेना लेकर वहां आया। दृढ़सूर्य देवने उस सेनाको भी अचेतन कर दिया। राजा भयके कारण भागा और जिनालयमें दर्शन करते हुए धनदत्त श्रेष्ठीको शरणमें जा पहुंचा और रक्षा करनेको प्रार्थना करने लगा। तभी वह देव भी वहां आ गया। धनदत्त श्रेष्ठीके कहनेपर देवने राजाको मुक्त कर दिया। राजाने तत्काल जिनसेन मुनिके पास जाकर मुनि दीक्षा ले ली । देव भी स्वर्ण-पुष्पोंसे उनकी पूजा करके चला गया। . एक अन्य कथा इस प्रकार है-उज्जयिनीके राजा वृषभदत्तके राज्यमें गुणपाल नामक श्रेष्ठी था। उसकी सेठानीका नाम गुणश्री था। उन दोनोंके विषा नामक एक सुन्दर कन्या थी। इसी नगरमें श्रीदत्त नामक एक सार्थवाह था। उसकी स्त्री श्रीमतीसे सोमदत्त पुत्र हुआ। किन्तु जब वह माताके गर्भमें था, तब तो उसके पिताको मृत्यु हो गयी और जब उसका जन्म हुआ तो उसकी माताकी मृत्यु हो गयी। उस सद्यःजात अभागे बालकका उसके कुटुम्बीजनोंने पालन किया। किन्तु ज्यों-ज्यों उस बालककी अवस्था बढ़ती गयो, त्यों-त्यों कुल और सम्पत्तिका क्षय होता गया। अब वह निराश्रय अनाथ बालक गुणपाल श्रेष्ठीके द्वारपर खड़ा रहता और जो जूठन फेंकी जाती, उससे अपना पेट मरता। एक दिन दो मुनि वहाँसे निकले। शुभलक्षणोंसे युक्त इस बालकको देखकर छोटे मुनि बोले-"आर्य, इस बालकके लक्षण तो राजाओं जैसे हैं किन्तु भाग्यकी केसी बिडम्बना है कि यह जूठन खाता फिर रहा है।" बड़े मुनि अवधिज्ञानी थे। वे बोले-"आयुष्मन् ! यह बालक जिस सेठकी जूठन खा रहा है, एक दिन यही बालक उस सेठको सम्पत्तिका स्वामी होगा।" गुणपाल श्रेष्ठीने मुनियोंकी वार्ता सुन लो और सोचने लगा-"यह हतभाग्य अनाथ बालक, मेरी इस अगाध सम्पत्तिका स्वामी बनेगा, फिर मेरे पूत्रका क्या होगा?" इसलिए इसको मार देना चाहिए। उसने निश्चय करके एक चाण्डालको बुलाया और उस बालकको एकान्तमें मारनेके लिए उससे सौदा किया। चाण्डाल बालकको सिप्राके एकान्त तटपर ले गया, किन्तु जब वह उसे मारनेको तैयार हुआ, उसके क्रूर हृदयमें भी बालकके प्रति दया उमड़ पड़ी और उसे वहीं छोड़कर चला आया। उसने श्रेष्ठीसे कह दिया कि बालकका बध कर दिया है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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