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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२५७ बालक नदीका जल पीकर और जंगलके फल खाकर एक वृक्षकी छायामें सो गया। तभी गोविन्द गोपाल उधरसे निकला। उसने एक सुलक्षण बालकको वृक्षके नीचे सोता देखा। वह बालकको देखकर अपने घर पहुंचा और उसे अपनी पत्नी घनश्रोको दे दिया। वह निस्सन्तान थी। एक सुन्दर बालकको पाकर वह बड़ो हर्षित हुई। अब बालक सोमदतका लालन-पालन प्रेमपूर्वक होने लगा। उसे दूध-घीकी अब कोई कमी नहीं थी। धीरे-धीरे बालक युवक हो गया।
गुणपाल श्रेष्ठीका गोविन्द गोपालके साथ व्यवहार था। एक दिन गुणपाल गोविन्दके घर पहुँचा। उसने घरमें एक रूपवान् युवकको देखा। उसे देखते ही श्रेष्ठीने पहचान लिया। उसे निश्चय हो गया कि चाण्डालने उसे धोखा दिया है। श्रेष्ठीने गोपालसे पूछा-"यह सुदर्शन युवक कौन है ?" गोपाल बोला-"यह मेरा पुत्र है।" श्रेष्ठी पुत्रकी प्रशंसा करता हुआ बोला"गोविन्द ! अपने पुत्रको मेरे घर भेज दे। मुझे अत्यन्त आवश्यक कार्य आ पड़ा है, अन्यथा मेरी बड़ी क्षति हो जायेगी। मुझे अभी ग्रामान्तर जाना है।" गोविन्दने स्वीकार कर लिया और पुत्रको वस्त्राभूषण पहनाकर भेज दिया। श्रेष्ठीने चलते समय उसे मुद्रांकित पत्र दे दिया।
सोमदत्त वहांसे चल दिया। जब वह उज्जयिनीके बाहर वनमें पहुंचा तो वह बहुत थक गया था। वह विश्राम करनेके लिए एक वक्षके नीचे लेट गया। लेटते हो उसे नींद आ गयी। तभी वसन्ततिलका गणिका वन-विहारके लिए वहां आयी। उसने एक रूपवान् युवकको वृक्ष तले सोता हुआ देखा । उसे देखते ही वह उसके ऊपर मोहित हो गयी। तभी उसकी दृष्टि युवकके गलेपर बंधे हुए पत्रपर पड़ी। उसने चुपके-से पत्र खोल लिया और कुतूहलवश उसे पढ़ने लगी। पत्र पढ़ते ही वह एकदम चौंकी। पत्रमें लिखा था-"प्रिये ! जबतक मैं घर लौटूं, उससे पूर्व ही पत्रवाहकको विष दे देना।" वसन्ततिलका पत्रसे सारो स्थिति समझ गयी। उसने अपने नेत्रोंके काजलकी सहायतासे उस लेखमें इस प्रकार संशोधन कर दिया। "प्रिये, जबतक मैं घर लौटू तबतक लेखवाहकके साथ मेरी पुत्री विषाका विवाह कर देना।" वसन्तमालाने पत्र पुनः मुद्रांकित करके पूर्ववत् युवकके गलेमें बांध दिया।
___सोमदत्त उठा और उज्जयिनीमें गुणपाल श्रेष्ठीके घर पहुंचा। वहां उसे गुणपालका पुत्र महाबल मिला। सोमदत्तने मुद्रांकित पत्र उसे दे दिया। उसने पत्र पढ़ा। पढ़ते ही वह अत्यन्त हर्षित हुआ। उसने जाकर यह समाचार अपनो माताको सुनाया। सारे घरमें हर्षका वातावरण बन गया। सोमदत्तका हार्दिक स्वागत-सत्कार हुआ। महाबलने उसी दिन सोमदत्तके साथ अपनी बहन विषाका विवाह कर दिया। उसने दहेज में अपार धन-राशि और माल दिया। जब वर-वधू विवाह मण्डपमें बैठे हुए थे, तभी धूल-धूसरित गुणपाल श्रेष्ठी आ पहुंचा। उसने यह अकल्प्य दृश्य देखा तो उसे मर्मान्तक वेदना हई। वह भीतरी कक्षमें जाकर शय्यापर हताश होकर लेट गया। महाबल उसके पास आया और पिताको शोकाकुल देखकर कहने लगा-"पूज्य ! आपकी आज्ञानुसार मैंने बहन विषाका विवाह सोमदत्तके साथ करनेका आयोजन किया है। आप उदास क्यों हैं?" श्रेष्ठी उष्ण निश्वास फेंकते हए बोला-"तने मेरी अनुपस्थितिमें विषाका विवाह भी कर दिया ? तूने मेरे आनेकी भी प्रतीक्षा नहीं की?" महाबलने वह लेख लाकर पिताको देकर कहाआप अपने लेखको पढ़िए। मैंने तो उसीके अनुसार यह कार्य किया है।" श्रेष्ठी माथा ठोककर रह गया। विवाह सानन्द सम्पन्न हो गया। १. अहं गृहं न यावच्च समायामि नितम्बिनि । तावद्विषं प्रदातव्यं लेखवाहाय सत्वरम् ॥ २. अहं गहं न यावच्च समायामि नितम्बिनि । तावद्विषा प्रदातव्या लेखवाहाय मत्सुता॥
-हरिषेण कथाकोष-कथा ७२ ३-३३