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भारतके दिगम्बर जैन तीर्य तो बलि आदिने राजाको रोकनेका बहुत प्रयत्न किया। किन्तु राजाने उनकी बात स्वीकार नहीं की और वह मुनियोंके दर्शनाथं गया। मन्त्रियोंको भी साथमें जाना पड़ा किन्तु उन्होंने राजासे एक शर्त रखी कि हम उन नग्न साधुओंसे वाद-विवाद करके उन्हें पराजित करेंगे। राजाने उनकी यह शर्त स्वीकार कर ली।
आचार्य अकम्पनने ध्यानयोगसे परिस्थिति जान ली और फिर विचार करके संघस्थ सब साधुओंको मौन रखनेका आदेश दे दिया। किन्तु श्रुतसागर नामक एक मुनिको इस आदेशका परिज्ञान नहीं था। वे उस समय चर्याके लिए नगरमें गये हुए थे।
जब राजा मन्त्रियोंके साथ मुनियोंके निकट पहुंचा तो राजाने मुनियोंकी भक्तिपूर्वक वन्दना की। किन्तु मुनियोंको मौन देखकर बलि राजासे गर्वपूर्वक बोला-"देखा महाराज! मेरे भयके कारण इन्होंने मौन रखना ही श्रेयस्कर समझा।" राजाने बलिकी इस गर्वोक्तिकी उपेक्षा कर दी। जब राजा और मन्त्री नगरको वापस लौट रहे थे तो मार्गमें उन्हें श्रुतसागर मुनि आते हुए मिले । उन्हें देखकर बलि बोला-"महाराज, देखिए, शृंग-पुच्छहीन एक नग्न वृषभ सामनेसे आ रहा है।" श्रुतसागर मुनिने बलिकी इस असभ्य उक्तिको सुन लिया। वे बोले-"भद्र ! तुम कहाँसे आ रहे हो?" बलि बोला-"तू तो बड़ा ज्ञानी है। इतना भी नहीं जानता, मैं कहाँसे आ रहा है।" मनि बोले-"मैं जानता है, तुम नगरसे आ रहे हो, किन्तु मैं पूछ रहा है, तुम नरक से, निगोद से, तिथंच गति से कहां से इस जन्ममें आये हो ?" बेचारा बलि क्या बताता । वह बोला"यह तो कोई नहीं बता सकता।" मुनि बोले-"मैं जानता हूँ तुम्हारे भवान्तर । तुम इसी नगरमें मनुष्य हुए थे। क्रोधके कारण नरकमें गये। वहाँसे निकलकर तुम हिरण हुए। एक व्याधने बाणसे तुम्हें मार दिया, तब तुम देवकी माता और देव पितासे बलि नामक पुत्र हुए और इस राजाके मन्त्री बने।" राजा मुनिसे बलिके भवान्तर सुनकर अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ और उन्हें नमस्कार करके मन्त्रियोंके साथ चल दिया।
__ श्रुतसागर मुनि वाद जोतकर अपने गुरु अकम्पनाचार्यके पास आये और उन्हें सारी घटना सुना दी। सुनकर गुरुने आज्ञा दी-"वत्स ! तुम संघ छोड़कर अन्यत्र एकान्तमें कायोत्सर्ग करो, जिससे संघपर कोई संकट न आवे।" गुरुकी आज्ञासे श्रुतसागर मुनि नगरके निकट एकान्त स्थानमें ध्यान लगाकर खड़े हो गये। रात्रिमें वे चारों मन्त्री श्रुतसागर मुनिको मारनेकी इच्छासे आये और मार्गमें ही खड़े हुए मुनिको देखकर अपने अपमानका बदला लेनेके लिए भयंकर क्रोधमें चारोंने एक साथ मुनिके ऊपर तलवारका प्रहार किया। किन्तु देवताने उन चारोंको वहीं कील दिया। सारी रात वे मुनि-निन्दक इसी अवस्थामें खड़े रहे। सूर्योदय होनेपर जब लोगोंने यह भयानक दृश्य देखा तो उन्होंने इसकी सूचना राजाको दी। राजा अविलम्ब वहां आया। असंख्य जनमेदिनी वहां एकत्रित हो गयी। तब आकाशस्थित देवी राजासे बोली-"मेरे वासस्थानमें ध्यानमग्न इन मुनिको हत्या करनेका प्रयत्न करनेवाले इन दुष्टोंका वध मैं अब तुम्हारे ही समक्ष करूंगी।" राजा हाथ जोड़कर बोला-"देवी ! मेरे कहनेसे आप इन नराधमोंको छोड़कर मुझे इनका न्याय करनेका अवसर दीजिए।" देवीने राजाके कहनेसे उन पापियोंको मुक्त कर दिया और मुनिको नमस्कार करके अन्तर्धान हो गयी। राजाने उन चारोंको देशसे निर्वासित कर दिया। राजा और प्रजा मुनिको नमस्कार करके अपने-अपने आवासोंको लौट आये। मुनि भी नियम पूर्ण होनेपर ध्यान समाप्त कर गुरु-चरणोंमें पहुंच गये।
उज्जयिनीसे सम्बन्धित एक अन्य घटना पुराणोंमें इस प्रकार मिलती है