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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२५३ संघको दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो भागोंमें सदाके लिए विभक्त कर दिया। इस सम्बन्धमें निम्नलिखित कथा' प्राप्त होती है।
अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु संघ सहित उज्जयिनी नगरी पधारे। उस समय उज्जयिनीमें सम्राट् चन्द्रगुप्त आये हुए थे। वे सम्यग्दृष्टि एवं महान् श्रावक थे। एक दिन आचार्य भद्रबाहुने आहारके निमित्त एक घरमें प्रवेश किया। वहाँ केवल एक शिशु पालनेमें पड़ा हुआ था। वह शिशु बोला-तुम यहाँसे शीघ्र चले जाओ। निमित्तज्ञानी भद्रबाहुने जान लिया कि यहां बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी और घोर दुष्काल पड़ेगा। यह जानकर वे आहार लिये बिना ही लौट गये । उन्होंने संघको एकत्रित करके उससे कहा-आप लोग यहांसे शीघ्र विहार करके अन्यत्र चले जायें। यहाँ बारह वर्ष तक दुष्काल पड़नेवाला है । यह सुनकर सम्राट् चन्द्रगुप्तने उनके पास जिन-दीक्षा ले ली। मुनि होनेके पश्चात् चन्द्रगुप्तका नाम विशाख हो गया। वे दसपूर्वियोंमें प्रथम हुए और संघके अधिपति बना दिये गये।
मुनि-संघ आचार्य भद्रबाहुके साथ दक्षिणकी ओर चला गया, जहां सुभिक्ष था। वहाँ मुनि लोग विभिन्न गणनायकोंके नेतृत्वमें आचार्य महाराजकी आज्ञासे विभिन्न स्थानोंमें चले गये। भद्रबाहु और विशाखाचार्य ( इनका नाम कहीं-कहीं प्रभाचन्द्र भी मिलता है ) कटबप्र पर्वत (श्रवणबेलगोलाका चन्द्रागिरि ) पर ठहर गये और एक गुफामें-जिसे आजकल भद्रबाहु गुफा कहते हैं-विशाखाचार्य अपने गुरुकी सेवा करते रहे । आचार्य भद्रबाहुका समाधिमरण यहीं हुआ।
. जब उत्तर भारतमें दुभिक्ष समाप्त हो गया तो विशाखाचार्य संघ सहित मध्यदेश लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि मध्यदेशमें जो साधु दुभिक्षके समय रह गये थे वे वस्त्र धारण करने लगे तथा मनि-आचारके विरुद्ध आचरण करने लगे हैं। आचार्यने उन मनियोंसे इस प्रकारका मुनि-मार्ग-विरुद्ध आचरण करनेका कारण पूछा। तब उन मुनियोंने अकालजन्य वे परिस्थितियाँ बतायों, जिनसे बाध्य होकर उन्हें मुनि-मार्गके विरुद्ध आचरण करना पड़ा। आचार्यने सुनकर कहा-अब स्थिति बदल गयी है। तुमलोग वस्त्र छोड़कर पुनः मुनि-धमका चारित्र पालन करो। आचार्यके उपदेशसे उनमें से अनेक मुनियोंने वस्त्र त्यागकर प्रायश्चित्त लिया। किन्तु जो मुनि शिथिलाचारके अभ्यस्त हो गये थे, उन्होंने वस्त्रका त्याग करना स्वीकार नहीं किया। वे वस्त्र पहनते रहे और अपने शिथिलाचारको जैन परम्परासम्मत सिद्ध करनेका प्रयत्न भी करते रहे। शिथिलाचारसे उत्पन्न हुई यह परम्परा बादको श्वेताम्बर सम्प्रदाय हुआ तथा तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित मूल परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय कहलाने लगा।
इस प्रकार जैन संघके इस दुर्भाग्यपूर्ण विभाजनमें उज्जयिनीका प्रमुख हाथ रहा है।
उज्जयिनी अन्य अनेक पौराणिक घटनाओंकी केन्द्र रही है। मुनि विष्णुकुमारके प्रसिद्ध कथानकसे सम्बन्धित बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि नामक चारों मन्त्री उज्जयिनी नरेश श्रीधर्माके राज्यमन्त्री थे । एक दिन अकम्पनाचार्य अपने विशाल संघके साथ उज्जयिनीके उद्यानमें ठहरे । राजा चारों मन्त्रियोंके साथ राजमहलकी छतपर बैठा हुआ था। उसने देखा, नगरवासी विशाल संख्यामें उद्यानकी ओर जा रहे हैं। पूछनेपर बलि बोला-"राजन् ! राजोद्यानमें कुछ नंगे साधु आये हैं । उन्हींके दर्शनोंके लिए ये नागरिक जा रहे हैं।" राजाने कहा-"फिर तो हमें भी उन साधुओंके दर्शनोंके लिए चलना चाहिए।" वह पूजाकी सामग्री लेकर चलनेको उद्यत हुआ १. हरिषेण कथाकोष-कथा १३९ देवसेन कृत भावसंग्रह। आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया-वी. स्मिथ,
पृष्ठ ७५-७६ ।