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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वृश्चिकोंके बावजूद बाहुबली निर्भय और अडिग भावसे अपनी साधनामें लीन हैं, यह देखकर मस्तक अनायास उस महायोगीके चरणोंमें नमित हो जाता है।
गर्भगृहकी बाह्य भित्तियों, विशेषतः उत्तरी माथेपर सुरसुन्दरियोंको विभिन्न मुद्राओंका अंकन मूर्तिकलाका उत्कृष्ट उदाहरण है। इन अंकित मूर्तियोंमें शिशुको दुलार करती हुई वात्सल्यमयी जननी, पतिको पत्र लिखनेमें मग्न प्रोषितपतिका, अंगड़ाई लेती हुई अलसितवदना, आंखोंमें अंजन आंजती, माथेपर कुंकुम लगाती, सीमन्तमें सिन्दूर भरती और दर्पणमें अपना रूप निहारती रूपगर्विता शृंगारिका एवं अॅगियाके बन्द बांधती कामिनीके मनोमुग्धकारी रूप सम्मिलित हैं।
___ सुरसुन्दरीके एक मोहन दृश्यका अंकन करने में तो कलाकारको सूझबूझ और कला नैपुण्यमें मानो स्पर्धा हो गयी। दृश्य है-एक फल-सी कोमल अल्हड़ यौवनाके पैरमें कांटा चुभ गया। युवती पैर पकड़कर रह गयी। उसकी आँखोंमें व्यथा तैर आयी। वह संगियोंको रुकनेका संकेत करती-सी लगती है। करुण भाव और व्यथाने मिलकर उसके सौन्दर्यमें अतिशय वृद्धि कर दी है। निकटवाले दूसरे फलकमें नाई द्वारा कांटा निकालनेका दृश्य है। इस दृश्यांकनमें कलाकारने अपनी कलाको अपने चरम बिन्दु तक पहुंचा दिया है। नाईकी पेटीके उपकरण और पैरमें गड़ा काँटा तक पाषा-में उजागर हो उठे हैं।
इन कठोर पाषाणोंमें लोक-जीवनके सरस आह्लादकारी रूपोंके भावपूर्ण अंकनको देखकर यहाँके कलाकारके सौन्दर्य-बोध और अभिरुचिका पता चलता है। कहना होगा कि खजुराहोका वह कलाकार 'सत्यं' और 'शिव' के साथ 'सुन्दरं' का भी उपासक था। तभी तो उसके ललितकला-बोधने पाषाणोंमें अलौकिक लालित्य और शिल्पकलामें जीवन भर दिया।
गर्भगृहकी बाह्य दक्षिणी भित्तिपर षड्भुजी सरस्वतीकी एक सुन्दर मूर्ति है। देवी एक ऊंचे पीठपर ललितासनमें आसीन है। उसका एक पैर कमलपर स्थित है। देवीके हाथोंमें कमल, पुस्तक, वीणा, वरद मुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित हैं। देवी वस्त्र और अलंकार धारण किये हुई है। उसके शीर्ष भागपर कायोत्सर्ग मुद्रामें दो तीर्थंकर मूर्तियां ध्यानमग्न हैं। देवीके परिकरमें चमरधारी, पुष्पमाल लिये आकाशचारी गन्धर्व और हाथ जोड़े हुए देवीके उपासक भक्त हैं। सरस्वतीकी ऐसी ही एक मूर्ति उत्तरी भित्तिके अधिष्ठानपर अंकित है। यह मूर्ति अंशतः खण्डित है। - इस मन्दिरकी बाह्य भित्तियाँ कला-सौष्ठवकी दृष्टि से बेजोड़ हैं। इसकी जंघामें समानान्तर तीन रूप-पट्टिकाएँ हैं। प्रथम पट्टिकामें तीर्थंकर-मूर्तियोंकी प्रधानता है। किन्तु उनके सेवकके रूपमें कुबेर, दिक्पाल और विभिन्न वाहनोंपर आरूढ़ जैन शासन-देवताओंका अंकन है। मध्यवर्ती रथिकाओंमें लोक-जीवनके सरस दृश्य भी अंकित हैं, यथा पैरोंमें आलता लगाती हुई शृंगारिका, नेत्रोंमें अंजन-शलाकासे अंजन लगाती हुई कामिनी, प्रियतमकी प्रेम-पाती पढ़ने में तन्मय प्रोषितपतिका, धुंघरू बाँधती हुई नृत्यांगना, बालकको दूध पिलाती हुई वात्सल्य मूर्ति जननी आदि। . - मध्यवर्ती पट्टिकामें मुख्यतः जैन यक्ष-यक्षियोंका आर्षानुसारी अंकन है। इसमें किसी-किसी यक्ष या यक्षीको द्विमुख, त्रिमुख, चतुर्मुख, अष्टमुख, द्विभुज, चतुर्भुज, षड्भुज, अष्टभुज, दशभुज, द्वादशभुज, षोडशभुज, चतुर्विंशतिभुज, त्रिनेत्र, वक्रमुख, गोमुख, सर्पोपनीत, सर्पफण-मण्डित, मस्तकपर धर्मचक्र आदि रूपोंमें भी दिखाया गया है। इनके वाहन, आभरण, आयुध, आसन आदि भी अद्भुत किन्तु निश्चित हैं। इस पट्टिकामें कुछ पौराणिक दृश्योंका भी भव्य अंकन है, यथा उत्तरकी ओर एक रथिकामें राम और सीताका अंकन है। दोनों ही त्रिभंग मुद्रामें खड़े हैं। रामके कन्धेपर धनुष, पीठपर तरकस और हाथमें बाण हैं । निकट ही हनुमान् खड़े हैं। इसी प्रकार दक्षिणी भित्तिपर अशोकवाटिकामें सीताका अंकन किया गया है। सामने हनुमान् उनसे रामका