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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ १४५ सन्देश निवेदन कर रहे हैं। पीछे खड्गहस्त राक्षस और राक्षसियां पहरेपर सतर्क खड़े हैं। तृतीय पट्टिकामें आकाशमें विहार करते हुए विद्याधर, नृत्य-गान करते हुए किन्नर-किन्नरियां, पुष्पमाल हाथोंमें लिये देव आदि प्रदर्शित है। इन पट्टिकाओंसे ऊपर ऊरु-शृंगोंके अधोभागमें भी जैन देवदेवियां और विद्याधरोंकी मूर्तियां हैं। __ जैन शासन-देवताओंके स्वरूप और जैन पौराणिक आख्यानोंसे परिचित न होनेके कारण कई विद्वान् भ्रमवश उन मूर्तियोंको हिन्दू या बौद्ध मूर्तियां मान लेते हैं। इस भ्रमका कारण अज्ञान तो है ही, एक दूसरा भी कारण है। जैन, हिन्दू और बौद्ध देव-देवियांके रूप और नाममें इतना अधिक साम्य है कि जैन देव-देवियोंको झट हिन्दू या बौद्ध कह दिया जाता है। किन्तु यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि जिस प्रकार जैन मन्दिरोंमें स्थित जैन देव-देवियोंको हिन्दू या बौद्ध देव-देवी कहने-लिखनेके उदाहरण मिलते हैं, उस प्रकार किसी हिन्दू या बौद्ध मन्दिरमें स्थित हिन्दू या बौद्ध देव-देवीको जैन देव-देवी कहने-लिखनेका उदाहरण हमारे देखनेमें नहीं आया। अस्तु। खजुराहोके मन्दिरोंमें उत्कीर्ण ये मूर्तियाँ जैन शासन-देवताओंके स्वरूपको समझने और उनपर शोध-खोज करनेके सर्वोत्तम साधन हैं। मन्दिर नं. २६-कलागत वैशिष्ट्य और शिल्पगत सौन्दर्यके अतिरिक्त भी पार्श्वनाथ मन्दिरकी अपनी एक विशेषता है। इसके गर्भगृहके पीछे एक अतिरिक्त छोटा मन्दिर संयुक्त है। इस मन्दिरमें गर्भगृह और अधमण्डप ही हैं । अर्धमण्डप सम्भवतः बादमें बनाया गया है। गर्भगृहके प्रवेशद्वारका अलंकरण पार्श्वनाथ मन्दिरके अनुरूप ही है। इसके सिरदलके मध्यमें एक कोष्ठकमें लक्ष्मीकी चतुर्भुजी मूर्ति बनी हुई है। उसके हाथोंमें कमल और कमण्डलु दीख पड़ते हैं। देवीकी निचलो दायों भुजा खण्डित है। बायीं ओरके कोष्ठकमें कमल, पुस्तक और वीणाधारिणी सरस्वतीका भव्य अंकन है। इसी प्रकार दायीं ओरके कोष्ठकमें भी सरस्वतीकी मूर्ति उत्कीर्ण है। चौखटोंपर यक्ष-मिथुन और देवियाँ उत्कीर्ण हैं। पार्श्वनाथ मन्दिरके अर्धमण्डप और महामण्डपकी छतें कोण-स्तूपाकार हैं। इनके ऊपर बने हुए उरुशृंगों और कर्णशृंगोंने गर्भगृहके ऊपर निर्मित शिखर-संयोजनाको सौन्दर्य-वृद्धि कर दी है। शिखरकी चूड़ापर आमलक, स्तूपिका, उसपर कलश और बीजपूरक हैं। इतनी भव्य और अलंकृत शिखर-संयोजना खजुराहो में दूसरी नहीं है। शिखरों और मूर्तियोंके ऊपर व्यालों और शार्दूलोंकी मूर्तियोंका वैविध्य चन्देल कलाका अपना वैशिष्ट्य है। ऐसी मूर्तियाँ खजुराहोके मन्दिरोंपर विपुल संख्यामें उपलब्ध होती हैं। जैन मन्दिरोंमें भी ये मूर्तियाँ बहुतायतसे मिलती हैं। इनका धड़ सिंहके शरीर-जैसा होता है किन्तु मुख विभिन्न प्रकारके मिलते हैं, जैसे सिंहमुख, व्याघ्रमुख, गजमुख, वृषभमुख, यहां तक कि मानवमुख भी। इनका मुख रौद्र होता है, क्रोध उनके शरीरके हर अंगसे टपकता है। उनके पैरोंके नीचे मनुष्य या कोई पश होता है। एक मानव-मूर्ति व्यालको पीठपर बैठी हुई दीख पड़ती है। यह प्रतीकात्मक है। इसे तन्त्रवेत्ता मन्दिर-मूर्तियोंके लिए अरिष्ट निवारक मानते हैं। अध्यात्मवेत्ता इसे मनुष्यको शुभाशुभ वृत्तियों और सात्त्विक-तामसिक भावनाओंके द्वन्द्वका प्रतीक मानते हैं जिसमें शुभ और सात्त्विक वृत्तिकी विजय होती है। इस प्रकार इन व्याल और शार्दूल-मूर्तियोंकी अनेक व्याख्याएँ की जाती हैं। इनकी व्याख्या कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि चन्देल युगकी यह भी एक विधा थी, जिसका प्रारम्भ सम्भवतः खजुराहोसे हुआ और कुछ स्थानों तक उसका प्रसार भी हुआ। किन्तु लगता है, इस अशोभन शिल्पको विधाको व्याख्या उस युगमें भी सन्तोषजनक नहीं हो पायी, अतः शिल्पमें यह विधा अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी। ३-१९
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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