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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - प्राचीन कालमें यहाँ अनेक जिनालयोंका निर्माण हुआ था। वे सब अब नहीं रहे। उनकी सामग्रीसे यहाँ नये मन्दिर बन गये। उन मन्दिरोंमें प्राचीन प्रतिमाएं विराजमान की गयीं। किन्तु यह स्थान तो, लगता है, चन्देलोंके राज्य-कालमें जैन केन्द्र था। इसलिए यहाँ और निकटवर्ती प्रदेशमें जैन पुरातत्त्व विपुल परिमाणमें बिखरा हुआ है। उस पुरातत्त्वको एकत्रित करके ( अभी संग्रहालय तो नहीं बन पाया है ) पार्श्वनाथ मन्दिरके खुले अहातेमें, दीवारमें या चबूतरोंपर व्यवस्थित रूपसे सजा दिया गया है। इसमें पद्मासन और कायोत्सर्गासन दोनों मुद्राओंमें तीर्थंकर मूर्तियां (प्रायः खण्डित), अपने परिकरसहित जैन शासन-देव-देवियाँ मन्दिरोंके तोरण, स्तम्भों और द्वारोंके भाग, शिखरकी चूड़ा आदि सामग्री सम्मिलित हैं। इनकी कला यहाँके मन्दिरों और मूर्तियोंकी कलासे अभिन्न है। कुछ मूर्तियां कई मन्दिरोंके अन्दर और पृष्ठभागमें रखी हुई हैं। संग्रहालयकी कई मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर अभिलेख हैं। एक मूर्तिका प्रतिष्ठा-काल संवत् १२०५ है। भगवान् महावीरको एक मूर्तिपर संवत् १२१२ अंकित है। इसमें मूर्तिकारका नाम कुमारसिंह दिया हुआ है। संवत् १२१५ के एक मूर्ति-लेखके अनुसार यह मूर्ति चन्देल नरेश मदनवर्माके राज्यमें प्रतिष्ठित हुई। अजितनाथकी एक मूर्तिपर संवत् १२२० अंकित है। यहाँकी मूर्तियोंके ऊपर सबसे अन्तिम लेख संवत् १२३४ का है। ऐसा प्रतीत होता है कि मदनवर्माका उत्तराधिकारी एवं पौत्र परमर्दिदेव ( अपर नाम परमाल, राज्य-शासन ई. सन् ११६३-१२०३ ) ने पृथ्वीराज चौहानके साथ हुए युद्ध में ( सन् १९८० ) या इसके आसपास खजुराहोसे हटाकर अपनी राजधानी कालिंजरमें बना ली। राजधानी हटनेसे खजुराहोका सम्पन्न और व्यापारी-वर्ग भी यहाँसे हट गया और इस प्रकार धीरे-धीरे खजुराहो उजड़ गया। जबतक यहाँ राजधानी रही, तबतक यहां मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण और प्रतिष्ठा भी होती रही। । मन्दिर नं. २७-यह मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिरसे आकारमें छोटा है और उसकी उत्तर दिशामें स्थित है। इसमें केवल तीन भाग हैं-शिखरयुक्त गर्भग्रह, अन्तराल और अधमण्डप । अर्धमण्डप आधुनिक है। गर्भगृहके प्रवेशद्वारके सिरदलपर चतुर्भुजी चक्रेश्वरी ललितासनमें आसीन है जिसका एक पैर नीचे लटका हुआ है और दूसरा पैर आसनपर स्थित है। देवीकी ऊपरी दायीं और बायीं भुजाओंमें वज्र और चक्र दिखाई पड़ते हैं, जबकि निचली भुजाओंमें अभयमुद्रा और मातुलिंग-फल हैं। देवी गरुड़पर आरूढ़ है। देवीके दाहिने पैरके पास एक भग्न आकृति है जो सम्भवतः देवीका भक्त है। देवीके सिरके दोनों पार्यों में पुष्पमाला लिये हुए आकाशचारी देव प्रदर्शित हैं। चक्रेश्वरी देवीकी इस मूर्तिके कारण ही यह अनुमान किया जाता है कि इस मन्दिरमें मूलनायकके रूपमें भगवान् आदिनाथकी मूर्ति विराजमान थी। किन्तु प्राचीन प्रतिमा यहाँसे कब लुप्त हो गयी, यह कहना कठिन है। उसके स्थानपर भगवान् ऋषभदेवकी आधुनिक मूर्ति विराजमान कर दी गयी है। सिरदलके बायें कोनेपर चतुर्भुजी अम्बिकाकी मूर्ति उत्कीर्ण है। देवी ललितासनसे बैठी है। देवीके दायीं ओर उसका वाहन सिंह बना हुआ है । देवीकी बायीं गोदमें उसका. छोटा पुत्र प्रियंकर बैठा है। देवी उसे निचली भुजाका सहारा दे रही है। बालक देवीके स्तनका स्पर्श कर रहा है । देवीके शिरोभागके दोनों ओर आम्रवृक्ष हैं और उनके ऊपर आम्र-गुच्छक लगे हुए है। सिरदलके दायें कोनेपर चतुर्भुज देवी ललितासन मुद्रामें बैठी है। उसके सिरपर सर्पफणमण्डल है । यह पद्मावती देवीकी मूर्ति है। देवीकी ऊपरी भुजाओंमें पाश और कमल हैं और नीचेकी भुजाओंमें अभयमुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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