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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ गयी। तब वहींपर मन्दिर-निर्माण करनेका निश्चय हुआ। कुछ दिनोंमें ही वहां एक भव्य मन्दिरका निर्माण हुआ और भगवान् शान्तिनाथ उसमें प्रतिष्ठित कर दिये गये।
भगवान् शान्तिनाथकी यह मूर्ति चमत्कारी है। इसके चमत्कारोंकी कहानियाँ अब भी सुनी जाती हैं । जैन और जैनेतर जनता यहाँ मनौती मानने अब भी जाती रहती है।
शान्तिनाथकी मति मन्दिर निर्माणसे पर्व कालकी है। यह भगर्भसे निकाली गयी है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यहां पहले कोई जिनालय था, जो किन्हीं कारणोंसे ध्वस्त हो गया और मूर्ति मलबे में दब गयी। इस मन्दिरका निर्माण संवत् १८०३ में पाण्डे जयचन्दने कराया। इस संवत्की प्रतिष्ठित कुछ मूर्तियाँ भी इस मन्दिरमें विद्यमान हैं। क्षेत्र-दर्शन
क्षेत्रपर पहुँचनेसे पूर्व ग्रामके बाहर एक छोटी नदी मिलती है, जिसका नाम सुखचैन है । इसपर पुल नहीं है । नदी पार करनेपर ग्राममें प्रवेश करते हैं। ग्राममें प्राचीन भग्नावशेष बिखरे हुए हैं। कई स्थानोंपर मन्दिरोंके स्तम्भ, तोरण और मूर्तियां पड़ी हुई हैं। यहाँके कई मकानोंमें प्राचीन मन्दिरोंके इन स्तम्भों और पाषाणोंका उदारताके साथ उपयोग किया गया है । अज्ञानताके कारण, शताब्दियों पूर्वका यह कला-वैभव उपेक्षित दशामें गली-कूचोंमें पड़ा हुआ है।
गाँवके एक सिरेपर क्षेत्र है। क्षेत्रपर कोई प्रवेश-द्वार नहीं है। वहाँ अहाता भी नहीं है। सर्वप्रथम क्षेत्रका प्राचीन कुआं मिलता है, किन्तु यह कुआँ ग्रीष्मकालमें अथवा उत्सवके अवसरपर जलकी पूर्ति नहीं कर पाता। दायीं ओर जिनालय और दालाननुमा धर्मशालाएँ हैं। बायीं ओर क्षेत्र-कार्यालय और कमरोंवाली धर्मशाला है।
मन्दिर नं. १-प्रथम मन्दिर भगवान् महावीरका है। इसे मामा-भानजेका मन्दिर भी कहते हैं । यह अद्भत नाम क्यों पड़ा, यह बात भी बड़ी रोचक है। इस मन्दिरमें दो बड़ी मूर्तियाँ हैं-महावीर और चन्द्रप्रभकी। महावीरकी मूर्ति गर्भालयमें सामनेकी दीवारमें चिनी हुई है। यह १३ फुट ऊंची और १२ फुट ४ इंच चौड़ी है। इसके आगे चन्द्रप्रभकी ६ फुट ९ इंच ऊंची मूर्ति विराजमान है । दोनों ही मूर्तियां पद्मासन हैं। ग्रामीण जनतामें यह कहनेका प्रचलन हो गया है कि चन्द्रप्रभ महावीरकी गोदमें बैठे हैं। इसी कारण इसे लोग मामाके संरक्षण या गोदमें भानजेको मानकर इस मन्दिरको मामा-भानजेका मन्दिर कहने लगे हैं। इस मन्दिरका निर्माण गाढ़ाघाटके सिंघई सेवकरामने कराया था।
प्रथम मन्दिरका द्वार विशाल है। प्रवेश-द्वारके ऊपर नौबतखाना बना हुआ है। इसके बाद एक लम्बा दालान और सहन मिलता है। तब गर्भगृहमें प्रवेश करते हैं। गर्भगृहमें सामने दीवारमें भगवान् महावीरकी ईंट-चूनेकी बनी हुई कृष्ण वर्णकी पद्मासन मूर्ति है । मूर्तिके आसनपर लेख नहीं है। चिह्न भी स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता। अनुश्रुतिके आधारपर इसे महावीर भगवान्की मूर्ति माना जाता है। मूर्तिके ऊपर नारियलकी जली हुई जटाओंको धीमें मिलाकर उसका लेप किया जाता है। इसकी अवगाहना १३ फुट है तथा चौड़ाई १२ फुट ४ इंच है । मूर्तिको छातीपर श्रीवत्स लांछन है।
इसके आगे भगवान् चन्द्रप्रभकी रक्ताभ पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके कन्धोंपर केशोंकी लटें पड़ी हुई हैं। इसके केश मुकुटाकार हैं। छातीपर श्रीवत्स चिह्न है। इसके पीठासनपर अर्धचन्द्र लांछन है। इस कारण यह चन्द्रप्रभ भगवान्की मूर्ति मानी जाती है। मूर्तिकी चरण-चौकीपर संस्कृत भाषामें लेख भी अंकित है। लेखका आशय इस प्रकार है-गोमिल देशमें