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भारतके दिगम्बर जैन तो यह क्षेत्र किस प्रकार प्रकाशमें आया और भगवान् शान्तिनाथका यह मुख्य मन्दिर कब, किसने बनवाया, इसके सम्बन्धमें कोई प्रमाण नहीं मिलते। इतिहासके नामपर कुछ किंवदन्तियाँ इस सम्बन्धमें प्रचलित हैं। इन किंवदन्तियोंमें कितना तथ्य है, यह जाननेका भी कोई साधन सुलभ नहीं है। अतः क्षेत्रके इतिहासके लिए हमें इन किंवदन्तियोंपर ही निर्भर रहना पड़ता है।
इस सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहुत प्रचलित है जो इस प्रकार है
गोंडवानेमें सत्तापर जब गोंडोंका प्रभुत्व था, तब बेनु नामक कोई छोटा-सा राजा यहाँ राज्य करता था। वह बड़ा न्यायपरायण और वीर था। उसीके नामपर इस नगरका नाम बीना पड़ गया। उसकी रानीका नाम कमलावती था। वह रूप और शीलके साथ ही वीरताकी भी खान थी। युद्धके समय वह राजाके साथ युद्धपर जाती और शत्रुओंसे मोर्चा लेती थी। उसके पास एक पंखा था जिसका कोई भाग तोड़नेपर शत्रु-सेना खण्ड-खण्ड हो जाती थी। कमलके पत्तोंपर चलकर वह पानी भरकर लाती थी। राजा-रानी दोनोंकी जैन धर्मपर पूर्ण आस्था थी।
___ बीनाके निकट मलखेड़ा ग्राममें एक धर्मात्मा जैन रहते थे। वे बंजी करके अपनी जीविका चलाते थे। बंजीके सिलसिलेमें उन्हें बीना भी जाना पड़ता था। किन्तु जब वे बीना जाते तो एक स्थानपर बराबर उन्हें ठोकर लगती थी। एक दिन उन्हें जोरकी ठोकर लगी। वे जब वापस अपने घर पहुंचे तो उस ठोकरके सम्बन्धमें ही विचार कर रहे थे। उसी रातको उन्हें स्वप्न आया। स्वप्नमें उनसे कोई दिव्य पुरुष कह रहा था-"तुम्हें जहां ठोकर लगी है, वहां खुदाई करो। वहां तुम्हें भगवान् शान्तिनाथके दर्शन होंगे।" स्वप्न समाप्त होते ही उनकी नींद खुल गयी और वे शेष रात्रिमें उस स्वप्नके बारेमें ही विचार करते रहे। उन्हें स्वप्नकी सत्यतापर विश्वास हो गया। उन्होंने दूसरे दिन जाकर खुदाई करनेका निश्चय कर लिया।
दूसरे दिन वे किसीसे कुछ कहे-सुने बिना फावड़ा लेकर ठोकरवाले स्थानपर पहुंचे और खुदाई करने लगे। उन्होंने इस प्रकार तीन दिन तक बड़े परिश्रमपूर्वक खुदाई की। तीसरे दिन रात्रिमें उन्हें फिर स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्नमें वही दिव्य पुरुष उनसे कह रहा था-"तुम्हें कल भगवान् शान्तिनाथके दर्शन होंगे। तुम भगवान् शान्तिनाथको जिस स्थानपर विराजमान करना चाहो, वहाँ चले जाना। मूर्ति स्वयं तुम्हारे पोछे-पीछे आ जायेगी। किन्तु मुड़कर देखनेकी भूल हरगिज न करना।"
दूसरे दिन उन्होंने फिर खुदाई प्रारम्भ कर दी और साधारण परिश्रमसे ही उन्हें भगवान् शान्तिनाथको उस अत्यन्त प्रशान्त, सौम्य और सातिशय प्रतिमाके दर्शन हुए। दर्शन करके वे आह्लादसे भर उठे और भक्तिके आवेगमें बरबस उनके मुखसे निकला-"भगवान् शान्तिनाथकी जय।' वे प्रभुके चरणोंमें लोट गये और बहुत समय तक वे भक्तिप्लावित हृदयसे भक्ति-गान और स्तुति करते रहे।
उनका मन उस समय श्रद्धाच्छन्न था। उनकी समग्र चेतना प्रभु-चरणोंमें समर्पित थी। वे ऐसी ही भावाविष्ट दशामें वहाँसे चल दिये। शायद मील-भर चले होंगे कि उन्होंने मुड़कर पीछेकी ओर देखा-भगवान् आ रहे हैं या नहीं। उन्हें यह देखकर हार्दिक सन्तोष हआ कि भगवान् कुछ दूरपर विद्यमान हैं। वे पुनः चल दिये। किन्तु भगवान् तो जहाँ थे, वहीं थे। वे अचल हो गये थे। वे वहाँसे रंचमात्र भी नहीं हटे, प्रयत्ल करनेपर भी नहीं हटे। भक्तको अपनी भूलपर भारी दुःख हुआ, आंखें बरसने लगीं, किन्तु भगवान् तो जैसे वहीं समाधिलीन हो गये थे।
यह घटना चर्चा बनकर जैन समाजमें चारों ओर फैल गयी। हजारों भक्तोंकी भीड़ जुट