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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
बेजनाथ महादेव - यह मन्दिर कसबेके पश्चिमी सिरेपर है। इसकी ऊँचाई ६० फुट है । इसके बाहरी भागमें स्तम्भोंपर आधारित अर्धमण्डप है । मन्दिरके मध्यमें अर्धपट्टपर शिवलिंग विराजमान है । इस मन्दिरके सामने सड़ककी दूसरी ओर प्राचीन स्थापत्यावशेष बहुसंख्या में बिखरे हुए हैं। कुछ वर्ष पूर्वं इस मन्दिरकी मरम्मत की गयी थी। संभवतः उस समय कुछ हिन्दू ओर जैन मूर्तियोंको मन्दिरकी चहारदीवारीकी पूर्वी दोवारमें बड़े भोंडे ढंगसे जड़ दिया गया । इस मन्दिरको ध्यानपूर्वक देखने और उसके चारों ओर बिखरे हुए जैन पुरावशेषोंको ध्यान में रखने पर कोई भी निष्पक्ष विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँचे बिना नहीं रहेगा कि उपर्युक्त शिव मन्दिर मूलत: जेन मन्दिर था । जैन मन्दिरोंको परिवर्तित करके हिन्दू मन्दिर बना लेनेके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । यहीं निकट ही मन्दसौर जिलेके कोहड़ी नामक ग्राममें राम मन्दिर ठेठ जैन वास्तुशिल्प शैली में बना हुआ है और वहां विराजमान देवताका नाम भी 'जैन भंजन राम' है जिससे विश्वास होता है कि वह मन्दिर मूलतः जैन मन्दिर था । उक्त शिव मन्दिरके सम्बन्ध में भी यही सन्देह उत्पन्न होता है। इस प्रकारके प्रमाण उपलब्ध हैं कि हिन्दुओंने इस प्रान्तमें जैन मूर्तियों और मन्दिरोंका व्यापक विनाश किया। इस विनाशको एक पर्वका रूप दे दिया गया । इसकी स्मृति बनाये रखनेके लिए वे लोग 'जेन भंजन दिवस' मनाते थे, जो जेन मन्दिर और मूर्तियां उन्होंने परिवर्तित करके अपने धर्मंकी बना लीं; उनका नाम भी उन्होंने 'जैन भंजन राम, जैन भंजन महादेव' रखे जो अब भी प्रचलित हैं ।
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इस मन्दिरके द्वारवर्ती एक खम्भेके ऊपर दस पंक्तियोंका एक शिलालेख उत्कीर्ण है । यह शिलालेख ११ इंच लम्बा और ७ इंच चोड़ा है । इस शिलालेखके ऊपर इस बुरी तरहसे सफेदी की गयी है कि उसे पढ़ना कठिन है । बहुत प्रयत्नोंके पश्चात् केवल वि. सं. १६९२ पढ़ा जा सका । मन्दिरकी रचना शैली और स्थापत्य कलाको देखनेपर प्रतीत होता है कि मन्दिर १२ - १३वीं शताब्दीका बना हुआ है । अतः स्तम्भपर शिलालेख बादमें उत्कीर्ण किया गया, ऐसा लगता है ।
नागेश्वर मन्दिर - दूसरे मन्दिरका नाम नागेश्वर महादेव है जो कसबेके उत्तर-पश्चिममें पहले मन्दिरसे लगभग २ कि. मी. दूर है। इसमें भी महादेवका लिंग विराजमान है । यह एक Marathi free बना हुआ है । यही यहाँका मुख्य मन्दिर कहलाता है । इसके आसपास और भी कई छोटे-मोटे मन्दिर बने हुए हैं। इसके शिखर जगन्नाथपुरी और भुवनेश्वर मन्दिर के शिखर - जैसे हैं । शिखरोंके ऊपर आमलक या चूड़ामणि नहीं है ।
यहाँ चारों ओर खण्डित और अखण्डित मूर्तियां, स्तम्भ, तोरण आदि स्थापत्य सामग्री बिखरी हुई है । पश्चात्कालीन मन्दिरों और बावड़ीके निर्माणमें इस पुरातन सामग्रीका स्वतन्त्रतासे उपयोग किया गया है । यहाँ तीन शिलालेख या मूर्तिलेख भी हैं। एक शिलालेख मुख्य मन्दिर में है तथा दो मूर्तियों के पादपीठपर मूर्तिलेख हैं । किन्तु इनपर चूना-सफेदी गहरी पोत दी गयी है, जिससे वे पढ़े नहीं जाते ।
यहाँ की परिस्थितिका सूक्ष्म अध्ययन करनेपर ऐसा लगता है कि बदनावर मुख्यतः जैन का केन्द्र रहा है और इसने शताब्दियों तक समृद्धि और उत्कर्षका भोग किया है । यहाँ भूगर्भसे उत्खनन में जैन मूर्तियां और महत्त्वपूर्ण जेन पुरातात्त्विक सामग्री निकली है । यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यहां जो भी प्राचीन जेनेतर मन्दिर आज विद्यमान हैं, वे मूलत: जैन मन्दिर रहे हैं। इसी प्रकार जो जैनेतर मन्दिर १६-१७वीं या उसके बादके शताब्दी के बने हुए हैं, प्रायः ध्वस्त जैन मन्दिरोंकी सामग्रीसे निर्मित किये गये हैं ।