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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ हो गयी। अनेक मूर्तियोंके हाथ-पैर खण्डित कर दिये गये। इस प्रकार प्रायः सभी मूर्तियां क्षतविक्षत कर दी गयीं। धर्मोन्मादकी ज्वालामें इतिहास, पुरातत्त्व और कलाकी न जाने कितनी बहुमूल्य सामग्री नष्ट कर दी गयी, इसका मूल्यांकन कौन कर सकता है। मूर्ति-लेखोंका एक अध्ययन ____ ग्वालियर दुर्गकी जैन मूर्तियों, उनके अभिलेखों और वहाँ उपलब्ध शिलालेखोंका सांगोपांग और विधिवत् अध्ययन अभी तक नहीं हो पाया है और न अब तक कोई ऐसा ग्रन्थ ही प्रकट हुआ है जिसमें वहाँकी सभी मूर्तियों, अभिलेखों और कलाकी विवेचना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यमें की गयी हो । यदि इन मूर्तियों और अभिलेखोंका तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो उससे तत्कालीन इतिहासपर अभिनव प्रकाश पड़ सकता है। इस अध्ययनमें तत्कालीन साहित्य अत्यन्त सहायक सिद्ध हो सकता है। वस्तुतः यह अध्ययन तभी सर्वांगपूर्ण बन सकेगा। इससे तोमरवंशके नरेशों, गोपाचल पीठके भट्टारकों, उस कालमें हुए महाकवि रइधू , कवि विबुध श्रीधर, पद्मनाभ आदि प्रसिद्ध कवियों, संघवी कमलसिंह, मन्त्रिवर कुशराज, खेल्हा ब्रह्मचारी, असपति साहू, रणमल साहू, खेऊ साहू, लोणा साहू, हरसी साहू, भुल्लण साहू, तोसठ साहू, हेमराज, खेमसिंह साहू, आढू साहू, संघवी नेमदास, श्रमणभूषण कुन्थुदास, होलू साहू जैसे कला एवं साहित्यरसिक दानियों, मूर्ति प्रतिष्ठाकारकों, प्रतिष्ठाचार्यों एवं गोपाचलकी तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं कलात्मक प्रवृत्तियोंके इतिहासपर प्रामाणिक प्रकाश पड़ सकेगा । वस्तुतः ऐसे सम्पूर्ण अध्ययनकी आवश्यकतासे इनकार नहीं किया जा सकता। यह किसी शोध-प्रबन्धका स्वतन्त्र विषय हो सकता हैं। किन्तु विषय और अवसरकी मर्यादाओंको दृष्टिमें रखते हुए हमें यहाँ मूर्तियोंसे सम्बन्धित प्रतिष्ठाकारकों एवं प्रतिष्ठाचार्योंके सम्बधमें ही संक्षेपमें विचार करना है।
यहाँके मूर्तिलेखोंके अध्ययनसे स्पष्टतः चार बातोंपर प्रकाश पड़ता है, जिनके सम्बन्ध में यहाँ कुछ आवश्यक ज्ञातव्य बातें दी जा रही हैं
(१) तोमरवंशी नरेश डूंगरसिंह, उनके पुत्र कीर्तिसिंह तथा कीर्तिसिंहके पौत्र मानसिंहके शासन-कालमें इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई। इन नरेशोंने अपनी ओरसे किसी मूर्तिका निर्माण और प्रतिष्ठा करायी हो, ऐसा कोई अभिलेख हमारे देखने में नहीं आया। सम्भवतः मानमहलकी दीवारमें जो जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, उनका निर्माण महाराज मानसिंहने कराया था। किन्तु इस सम्बन्धमें अभी असन्दिग्ध प्रमाण खोजनेकी आवश्यकता है। फिर भी जिन नरेशोंके शासनकालमें उन्हींकी इच्छा और आज्ञासे गोपाचल दुर्गके प्राचीरका बाह्य और भीतरी भागको विशाल और लघु प्रतिमाएं उकेरकर एक विशाल देवालय बना दिया गया, उन नरेशोंकी जैन धर्मके प्रति उत्कट श्रद्धा और अपने भट्टारक गुरुओंके प्रति उनकी निश्छल भक्तिमें सन्देह नहीं किया जा सकता। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ये नरेश अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु अथवा अनुदार रहे। निश्चय ही वे उदार शासक थे और सभी धर्मोंका समान आदर करते थे। धर्म-श्रद्धा उनके व्यक्तिगत जीवन तक सीमित थी किन्तु शासनकी नीतिमें समस्त धर्म और प्रजा उनके लिए समान थे।
(२) गोपाचल पीठकी भट्टारक-परम्परा एवं वे भट्टारक, जिनकी प्रेरणासे अथवा जिनके द्वारा यहाँ मूर्ति-प्रतिष्ठाएं हुईं। यहाँके मूर्तिलेखोंमें यहाँकी भट्टारक-परम्परा इस प्रकार मिलती है-"श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये भट्टारक श्रीगुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री यशकीर्तिदेवास्तत्पट्टे