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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ श्री मलयकीर्ति देवास्ततो भट्टारक गुणभद्रदेवः।" इनमें भट्टारक गुणकीर्ति महाराज वीरमदेव, गणपतिदेव और दूंगरसिंहके शासनकालमें थे। इन भट्टारकजीके प्रति इन नरेशों-विशेषतः डूंगरसिंहकी अत्यन्त भक्ति थी। इन भट्टारकजीके सम्पर्क और उपदेशोंके कारण ही डूंगरसिंहकी रुचि जैन धर्मकी ओर हो गयी। इन्हींकी प्रेरणा और प्रभावके कारण डूंगरसिंहके शासनकालमें गोपाचलपर अनेक मूर्तियोंका उत्खनन हुआ। इसी प्रकार कीर्तिसिंहके शासनकालमें भट्टास्क गुणभद्रके उपदेशसे अनेक मूर्तियोंका निर्माण एवं प्रतिष्ठा हुई। उरवाही द्वारके मूर्ति-समूहमें चन्द्रप्रभकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा इन्हीं गुणभद्रके उपदेशसे हुई थी। अन्य भी कई मूर्तियां इनकी प्रेरणासे प्रतिष्ठित की गयीं। भट्टारक महीचन्द्रने एक पत्थरकी बावड़ीके गुफा-मन्दिरको प्रतिष्ठा करायी थी। भट्टारक सिंहकीर्तिने बावड़ी मूर्ति-समूहकी पार्श्वनाथ प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी। महाराज गणपतसिंहके शासनकालमें मूलसंघ नन्दी तटगच्छ कुन्दकुन्द आम्नायके भट्टारक शुभचन्द्रदेवके मण्डलाचार्य पण्डित भगवतके पुत्र खेमा और धर्मपत्नी खेमादेने धातुको चौबीसी मूर्तिको प्रतिष्ठा करायी थी ( संवत् १४७९ वैशाख सुदी ३ शुक्रवार )। यह मूर्ति आजकल नया मन्दिर लश्करमें विराजमान है। इस प्रकार भट्टारकों द्वारा या उनके उपदेशसे ही गोपाचलकी समस्त मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई थी।
__ (३) अनेक मूर्तिलेखोंमें प्रतिष्ठाचार्यके रूप में पण्डितवयं रइधूका नाम आता है। अपभ्रंश भाषाके मूर्धन्य कवियोंमें रइधूका एक विशिष्ट स्थान है। इनका जो कुछ परिचय उपलब्ध होता है, वह इनके साहित्यसे ही होता है। इनका समय विक्रम सं. १४५०-१५४६ निश्चित किया गया है। वे संघाधिप देवरायके पौत्र और हरिसिंहके पुत्र थे। इनकी माताका नाम विजयश्री था। उनकी जाति पद्मावती पूरवाल थी। वे किस स्थानके निवासी थे, वे विवाहित थे या अविवाहित, यह उनके किसी ग्रन्थकी प्रशस्तिसे प्रकट नहीं होता। बलभद्रचरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्तिके १७वें कड़वकसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके दो भाई और थे, जिनके नाम थे 'बाहोल और माहणसिंह। इसी ग्रन्थकी आद्य प्रशस्तिके चतुर्थ कड़वकके अनुसार रइधूके गुरुका नाम आचार्य ब्रह्मश्रीपाल था जो भट्टारक यशःकीतिके शिष्य थे। यद्यपि.उन्होंने यशोधरचरित आदि ग्रन्थोंमें कई स्थानोंपर भट्टारक यशःकीर्ति और भट्टारक कमलकीतिका उल्लेख गुरुके रूपमें किया है, किन्तु ये उल्लेख केवल श्रद्धावश ही किये गये हैं । वे भट्टारकीय पण्डित तो थे ही, अतः वे सभी भट्टारकोंको अपना गुरु मानते थे। ___ग्वालियरमें कविवर नेमिनाथ और वर्धमान जिनालयमें रहकर साहित्यसृजन करते थे। वे अल्प समयमें ही अपनी दिव्यप्रतिभा, अगाध वैदुष्य, उच्च कोटिकी रचनाओं और अपने मधुर स्वभावके कारण जन-जनके लोकप्रिय कवि बन गये। उन दिनों गोपाल दुर्गके शासक महाराज डूंगरसिंह थे, जो विद्यारसिक और जैनधर्मके परम श्रद्धालु थे। उनके कानोंमें भी इस महान् लोक-कविका यशोगान पहुंचा। उन्होंने कविवरको आदरसहित दुर्गमें बुलाया। महाराज कविवरके व्यक्तित्व और प्रतिभासे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कविवरसे दुर्गमें रहकर उसे ही अपनी साहित्य-साधनाका केन्द्र बनानेका अनरोध किया। कविवरने उसे स्वीकार कर लिया और वहीं रहकर साहित्य-सृजन और प्रतिष्ठा-कार्य करने लगे।' यह क्रम महाराज डूंगरसिंहके पश्चात् उनके पुत्र महाराज कीर्तिसिंहके शासनकालमें भी चलता रहा। ___कविवरने ३० से अधिक ग्रन्थोंका प्रणयन किया था, जिनमें से २४ ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं।
१. गोवाग्गिरिदुग्गमि णिवसंतउ बहुसुहेण तहि-सम्मइजिणचरिउ ११३।१०